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रविवार, 18 अक्तूबर 2015

गुरू प्रताप साध की संगति--(प्रवचन--03)

सुगम उपाय जुक्‍ति मिलबे की—(प्रवचन—तीसरा)

दिनांक 23 मई, 1979;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।
सूत्र:

को लखि सकै राम को नाम।
देइ करि कौल करार बिसारो, जियना बिनु भजन हराम।।
बरनत बेद बेदांत चहूं जुग, नहिं अस्थिर पावत बिसराम।
जोग जज्ञ तप दान नेम व्रत, भटकत फिरत भोर अरु साम।।
सुर नर मुनिगन पचिपचि हारे, अंत न मिलत बहुत सो लाम।
साहब अलख अलेख निकट हीं, घट—घट नूर ब्रह्म को धाम।।
खोजत नारद सारद अस—अस, जातु है समय दिवस अरु जाम।
सुगम उपाय जुक्ति मिलबे की, भीखा इह सतगुरु से काम।।


साधो, सब महं निज पहिचानी, जग पूरन चारिउ खानी।।
अविगत अलख अखंड अमूरति, कोउ देखे गुरु ज्ञानी।।
ता पद जाय कोउ—कोउ पहुंचे, जोग—जुक्ति करि ध्यानी।।
भीखा धन जो हरि—रंग—राते, सोइ हैं साधु पुरानी।।

प्रीति की यह रीति बखानौ।।
कितनौ दुख सुख परै देह पर, चरन—कमल कर ध्यानो।।
हो चैतन्य बिचारि तजो भ्रम, खांड धूरि जनि सानौ।।
जैसे चात्रिक स्वांति बुंद बिनु, प्रानसमरपन ठानौ।।
भीखा जेहि तन राम—भजन नहिं, कालरूप तेहिं जानौ।।

पानी बहता चलता है
कुछ दुख सहता चलता है
लहरें हैं कुछ मैली—मैली 
मौजें हैं कुछ फैली—फैली
तारे झुक—झुक पड़ते हैं
पत्ते चुप—चुप झड़ते हैं
अब्र के टुकड़े उड़ते हैं
कटते हैं फिर जुड़ते हैं
तारे झिमझिम होते हैं
तायर चुपके सोते हैं
शाखें सर—व—गरेबां हैं
बिल्कुल चुप और हैरां हैं
चांद भी है कुछ खोया—सा
कुछ जागा कुछ सोया—सा
शबनम टप—टप रोती है
जो आंसू है वह मोती है
हर पत्ते में खामोशी है
हर कोंपल में बेहोशी है
हर जर्रा चुप, हर कतरा चुप
अफलाक का एक—एक तारा चुप
सब गुलहाए रीहां चुप हैं
चंपा की सब कलियां चुप हैं
दरिया की सब मौजें चुप हैं
बलखाती सब लहरें चुप हैं
यारब! ये सब मंजर क्या है!
सहरा क्या है, घर—दर क्या है!
ऐसी स्थिति है आज मनुष्य की। एक गहन सन्नाटा छा गया है। अंतरात्मा की पोर—पोर में न कोई स्वर बजता है, न कोई संगीत उठता है। गीत मर गए हैं, उत्सव मर गया है। आदमी जी रहा है रीता—रीता, खाली—खाली। जिस मटकी में अमृत होना था, उसमें विष भी नहीं है। जिस मटकी में सोना होना था, उसमें राख भी नहीं है। संभावना तो लेकर आए थे न मालूम कितने—कितने फूलों की, कांटे भी दुर्लभ हो गए हैं।
ऐसा कभी न हुआ था। मनुष्य—जाति के इतिहास में आदमी इतना
हताश, इतना निराश, इतना रिक्त, इतना अर्थहीन, कभी भी न था। किस कारण यह दुर्घटना घटी है? घर भी वीरान मालूम होता है।
सब चल रहा है——धन की दौड़ चल रही है, पद की दौड़ चल रही है और भीतर प्राणों को कोई जैसे काटता जाता है। काम सब चल रहा है, रुका कुछ भी नहीं है। लेकिन करने वाले में कोई उमंग नहीं रह गयी है, उत्साह नहीं रह गया है। पैरों में नृत्य नहीं है——चलते हैं क्योंकि चलना है। एक कर्तव्यवश करते हैं क्योंकि करना है। एक कर्तव्यवश, लेकिन आह्लाद नहीं है।
और जहां आह्लाद नहीं है, वहां धर्म कैसे होगा? और जहां जीवन में उत्सव नहीं है, वहां मंदिर कैसे बनेंगे? और जहां जीवन गीतों से रिक्त है, वहां तीर्थो के होने का कोई उपाय नहीं है। काबा खाली है, काशी खाली है क्योंकि तुम खाली हो। मंदिर खाली हैं, मस्जिद खाली हैं क्योंकि तुम खाली हो।
दौड़—धूप बहुत है, आपाधापी बहुत है। इससे भ्रम में मत पड़ जाना। आपा—धापी और दौड़—धूप इसीलिए बहुत है कि किसी तरह अपने भीतर का खालीपन दिखाई न पड़े। उलझे रहें, उलझाए रहें। कहीं भी उलझे रहें, कहीं भी उलझाए रहें। कौड़ियों को गिनते रहें कि भीतर न देखना पड़े। लड़ते— झगड़ते रहें, व्यर्थ की बातें करते रहें——कि रेडियो सुनें, कि टेलीविजन देखें, कि सिनेमा हो आएं, कि क्लब—घर में बैठकर ताश खेलें।
पूछो लोगों से क्या कर रहे हो? कहते हैं : समय काट रहे हैं। समय——जो मिलना इतना मुश्किल! एक क्षण जो हाथ से चला गया वापिस नहीं लौटता है।
कोई उपाय उसे वापिस लौटाने का नहीं है। उस समय को काट रहे हैं जो मांगे—मांगे न मिलेगा, जो खोजेखोजे न मिलेगा। ताश के राजा—रानी बना लिए हैं, कि लकड़ी के हाथी—घोड़े बना लिए हैं। बच्चे तो बच्चे हैं ही, बूढ़े भी यहां बच्चे हैं। शतरंजें बिछा ली हैं।
जिनको तुम समझदार कहो, वे भी बड़े नासमझदार हैं! कैसी दौड़—धूप है पदों के लिए! छोटे—छोटे बच्चे कुर्सियों पर खड़े हो जाएं और चिल्लाएं कि हमसे ऊपर कोई भी नहीं, समझ में आता है; मगर दिल्ली में बूढ़ों को क्या हुआ है? वही खेल है।
लेकिन इस खेल के पीछे कारण समझने जैसा है। ये सब अपने को उलझाए रखने के उपाय हैं। यह सब एक तरह की मानसिक शराब है। शराबबंदी के पक्ष में हैं लोग और तरहत्तरह की शराबें हैं। पद की शराब है——पद—मद । धन की शराब है——धन—मद। असली शराबें वे हैं, जो मधुशालाओं में बिकती हैं उनकी तो कोई कीमत नहीं——सुबह पियोगे, सांझ उतर जाएगी; सुबह उतर जाएगी। लेकिन पद का मद ऐसा है कि जीवन—भर नहीं उतरता। और जिन कुर्सियों पर तुम कब्जा कर लेते हो वे तुमसे पहले भी थीं। तुम विदा हो जाओगे, वे कुर्सियां बनी रहेंगी, और दूसरे उन फर लड़ते रहेंगे। जिस धन पर तुमने कब्जा कर लिया है, वह तुम्हारा नहीं है——तुम्हारे पहले भी था, तुम्हारे बाद में भी होगा। तुम आए और गए और तुम व्यर्थ उसमें उलझ गए जो तुम्हारा नहीं था।
एक ट्रेन में बहुत भीड़ थी। बहुत तलाश करने पर एक सीट खाली दिखी, तो एक सज्जन वहां बैठ गए। थोड़ी देर बाद एक महाराज आए और सज्जन से बोलेः यहां से उठिए, यह मेरी सीट है।
क्या सबूत है?
मैं यहां अपना रूमाल बिछा गया था।
कल को आप प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रूमाल बिछा देंगे तो क्या वह आपकी हो जाएगी? उत्तर मिला।
मगर रूमाल बिछाने के सिवाय और कोई कर भी क्या रहा है! प्रधानमंत्री भी क्या कर रहे हैं? रूमाल ही बिछा रहे हैं। राष्ट्रपति भी क्या कर रहे हैं? रूमाल ही बिछा रहे हैं। कुर्सी तो किसी की भी नहीं है।
अपना यहां कुछ भी नहीं है और सबने दावा किया है। और जिसने भी दावा किया है वह चोर है। परिग्रह चोरी का लक्षण है। रहो, खेलो, दावा मत करना। जियो, कुर्सियों पर बैठो मौका आए तो, धन को उपयोग करो मौका आए तो, मगर दावा मत करना। यहां कोई भी चीज किसी की नहीं है।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने विवाह की पांचवीं वर्षगांठ पर पार्टी दी था। मेजें
सज चुकी थीं, थालियां लगायी जा चुकी थीं। तभी मुल्ला की पत्नी ने कहा : मुल्ला, अंदर जाइए, आपकी संदूक में जो चांदी के चम्मच पड़े हैं उन्हें ले आइए।
मुल्ला ने कहा : मैं उन्हें नहीं लाऊंगा—— चाहे कुछ भी हो जाए मैं उनहें नहीं लाऊंगा। दूसरे चम्मचों से काम चलाओ।
पत्नी बोली : क्या आप अपने मित्रों का भरोसा नहीं करते? क्या उनको इतना नीच समझते हैं कि वे चांदी के चम्मच चुरा लेंगे?
मुल्ला ने कहा : चुराकर तो नहीं ले जाएंगे, मगर पहचान जरूर जाएंगे।
यहां अपना कुछ भी नहीं है । यहां अपना कुछ हो भी नहीं सकता। यहां हम खाली हाथ आते हैं और खाली हाथ जाते हैं। न कुछ लाते हैं, न कुछ ले जाते हैं। मगर बीच में कितना शोरगुल मचाते हैं, कितनी पताकाएं फहराते हैं, कितने उपद्रव, कितनी झंझटें——अकारण। और यह सब हो रहा है सिर्फ एक आधार पर कि अगर यह न करें तो क्या करें? अगर ताश न खेलें तो प्राणों का खालीपन काटता है। अगर शतरंज की मोहरें न बिछाएं तो भीतर की रिक्तता का साक्षात करना होता है। अगर बाहर न उलझाए रखें अपने को तो भीतर मुड़कर देखना ही पड़ेगा, देखना ही पड़ेगा——और भीतर सब खाली है। और भीतर तब तक खाली रहेगा जब तक राम का अवतरण न हो।
भीखा कहते हैं : को लखि सकै राम को नाम...किसने पहचाना है राम को? किसने जाना है नाम को? कौन है जिसने परमात्मा से प्रीति लगायी हो, पहचान बांधी हो? बस वही जिंदा है, बस वही सार्थक है। और शेष सब? शेष सब का जीवन हराम है। राम नहीं तो जीवन हराम है।
को लखि सकै राम को नाम।
देइ करि कौल करार बिसारो, जियना बिनु भजन हराम।।
और राम का यह जो नाम है, यह बुद्धि की बात नहीं है, वह विचार की बात नहीं है। कोई बुद्धि से चलेगा सोचने—समझने तो उसके हाथ कुछ भी न लगेगा। उसकी मुट्ठी खाली रह जाएगी। ऐसे तो राम को नहीं लखा जा सकता। यह तो हार्दिक अनुभूति है। तुम जबान से जपते रहो राम—राम, राम—राम जीवनभर, अगले जन्म में तोते की तरह पैदा होओगे। किसी पिंजड़े में बंद होओगे और राम—राम जपोगे। तुम तोते की तरह जन्म लेने का अभ्यास कर रहे हो अगर जबान से ही राम—राम जप रहे हो। और अगर तुम्हारी खोपड़ी में भी राम—राम गूंजता रहे तो क्या होगा?
खोपड़ी में तो कचरे के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। खोपड़ी तो बिल्कुल कचरा है——कूड़ा—करकट। थोथे शब्द! नहीं; जब तक तुम्हारा हृदय राम के भाव से आह्लादित न हो उठे; जब तक तुम्हारे हृदय में तरंगें न उठने लगें भावावेश की; जब तक तुम भावित न हो उठो; जब तक तुम मस्त न हो उठो; ऐसी मस्ती न छा जाए जो फिर कभी नहीं उतरती; जब तक ऐसा भावावेश न पैदा हो जाए——तब तक राम से कोई परिचय नहीं होता है।
राम से परिचय का स्थल मस्तिष्क नहीं है, हृदय है। राम से संबंध विचार से नहीं जुड़ता, भाव से जुड़ता है। तर्क से नहीं जुड़ता, प्रीति से जुड़ता है। चिंतन मनन—अध्ययन से नहीं कोई संबंध है राम का। लाख पढ़ो वेद और लाख पढ़ो कुरान, कुछ हाथ न लगेगा। पंडित हो जाओगे, प्रज्ञावान नहीं। प्रकाश के संबंध में बहुत कुछ जान लोगे लेकिन आंख नहीं खुलेगी, प्रकाश को न जान पाओगे।

और सदा ध्यान रखो, प्रकाश के संबंध में जानना, प्रकाश को जानना नहीं है। यही दर्शनशास्त्र और धर्म का भेद है। दर्शनशास्त्र प्रकाश के संबंध में जानता है और धर्म आंख खोलता है और प्रकाश को जानता है। धर्म स्वाद है। धर्म है पीना और पचाना। धर्म है राम को अपनी हड्डी—मांस—मज्जा बना लेना। धर्म है राम को अपने रोएंरोएं में समा लेना। उठते—बैठते, सोते—जागते——उसी में उठना, उसी में बैठना, उसी में सोना, उसी में जागना। वही हो जाए तुम्हारे भीतर और कोई शेष न रह जाए। वही भर जाए कि और कुछ रखने की जगह न रह जाए। तब कोई लख सका है। और जो राम को लख सका है, वह भर गया। वह भरा—पूरा हो गया। वह तृप्त हुआ है। उसने जाना है जीवन का अर्थ । उसने जानी है जीवन की गरिमा, गौरव। वह जीवन के अपूर्व आनंद से मंडित हुआ है। वह धन्यभागी है।
धूप को बांधा किसी ने
ज्यों
छांह की रेशमी—सी
डोर से;
रात बीते स्वप्न की
ज्यों याद स्वर्णिम  
दीप्त मन में
भोर से;
कमल जैसे खिल रहा हो
सांझ को...
तरम्बुज काटा किसी ने
ज्यों
बीच से, और रख कर गया सहसा कहीं——
यह उसी की लालिमा...
यह न तेरा रूप
तैरता है दीप नदिया में
 सहज उर्वर कर गया हो कोई जैसे
बांझ को!
राम उतरे तो ऐसे——
कमल जैसे खिल रहा हो
सांझ को...
सहज उर्वर कर गया हो कोई जैसे
बांझ को।
राम के बिना तो आदमी बांझ है : उसमें कुछ भी नहीं उगता——अनुर्वर, मरुस्थल है। राम के आते ही उपवन हो जाता है, मरूद्यान हो जाता है। झरने फूट पड़ते हैं शीतल जल के, हरियाली उमग आती है, फूल खिलने लगते हैं, दीए जलने लगते हैं। एक ही साथ होली और दीवाली हो जाती है!
लेकिन यह राम हम तो बिसार कर बैठे हैं। हम तो भुला कर बैठे हैं।
देइ करि कौल करार बिसारो...और याद रखना, आए थे जब उस लोक से तो आश्वासन देकर आए थे कि बिसारोगे नहीं। देइ करि कौल करार बिसारो... कौल किया था, करार किया था, आश्वासन दिया था कि भूल नहीं जाओगे और भूल गए, और भटक गए। प्रत्येक चैतन्य जब उतरता है अनंत से जगत में तो इसी आश्वासन को देकर उतरता है कि भूलूंगा नहीं, याद रखूंगा । मगर हमारी याद रखने की क्षमता बड़ी छोटी है। और हम जल्दी ही भूल जाते हैं। कंकड़—पत्थर बीनने लगते हैं——रंग—बिरंगे। घर की याद ही भूल जाती है।
हम उन छोटे बच्चों की भांति हैं जो मेलों में खो गए हैं और जिन्हें याद ही नहीं आ रही है घर की। और सांझ होने लगी है। मगर रंग—बिरंगे खिलौने, झूले और न मालूम क्या—क्या मदारियों के चमत्कार, और बच्चा एक झंझट से दूसरी झंझट में पड़ता जा रहा है। मदारियों के डमरु बज रहे हैं, झूले घूम रहे हैं, खिलौने बिक रहे हैं, बांसुरियां बज रही हैं। रंग—बिरंगे लोग, ढंग—ढंग के लोग...मेला भरा है। बच्चा भूल ही गया है कि घर भी लौटना है कि सांझ होने लगी, कि दीए जलने लगे, कि मेले के उजड़ने का वक्त आ गया है, और अंधेरे में भटक जाएगा। घर लौटना मुश्किल हो जाएगा। बच्चा भूल ही गया है कि जिनके साथ आया था उनसे कब का साथ छूट गया है। ऐसी हमारी दशा है——मेले में भटके हुए एक बच्चे की भांति।
देइ करि कौल करार बिसारो...और ऐसा नहीं है कि अगर हम याद करें तो हमें यह कौल—करार, यह आश्वासन याद न आ जाए। जो भी थोड़े शांत होकर बैठते हैं उन्हें तत्क्षण स्मरण आ जाता है। एक विस्फोट की भांति भीतर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मैं कहां से आया हूं, क्यों आया हूं, क्या प्रयोजन है यहां आने का? सब भूल बैठा हूं। जिस मालिक ने भेजा है उसे भूल बैठा हूं। जिस काम के लिए भेजा है वह काम भी भूल बैठा हूं। कुछ और ही करने लगा हूं। आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास! यहां तुम सब हरि को ही भजने आए थे। यहां तुम हरि की ही तलाश में आए थे।
यह कसौटी है जगत, एक परीक्षा है——कि इतने उपद्रव में भी तुम ईश्वर को याद रख सकोगे या नहीं। आए थे यहां एक परीक्षा में उतरने, उत्तीर्ण होने और भूल ही गए। भूल ही गए कहां से आए, कहां जाना है! कुछ भी पता नहीं है। कहां से आए, कहां जाना है तो दूर——यह भी पता नहीं कि मैं कौन हूं! मैं हूं भी या नहीं, यह भी पक्का नहीं है। ऐसी दयनीय दशा है!
जियना बिनु भजन हराम! इसलिए भीखा ठीक कहते हैं: यह तुम जिस ढंग से जी रहे हो, यह जीना हराम है क्योंकि इसमें राम नहीं है। क्योंकि इसमें अपने दिए गए आश्वासन को भी पूरा करने की सामर्थ्य नहीं है। यह जीना बांझ है। इसमें न कुछ उगता है, न फलता है, न फूलता है। तुम एक अमावस की रात हो जिसमें एक दीया भी नहीं जलता। और फिर तुम परेशान होते हो कि दुखी क्यों हूं? फिर तुम चिंतित होते हो कि क्या कारण है कि जीवन में कुछ खोया—खोया लगता है। कुछ अधूरा—अधूरा! नहीं लगेगा तो क्या होगा?
जिसमें सरुरेदर्देगमे—आशिकी नहीं
वोह जिंदगी, तो मौत है, वोह जिंदगी नहीं
जिसे तुम जिंदगी कह रहे हो उसे क्या खाक जिंदगी कहें! उसे तो मौत ही कहना चाहिए। एक लम्बा सिलसिला मरने का, जो जन्म से शुरू होता है और मौत पर अंत होता है। सत्तर साल की एक लम्बी मरने की कथा और व्यथा!
जिसमें सरूरेदर्देगमे—आशिकी नहीं
वोह जिंदगी, तो मौत है, वोह जिंदगी नहीं
जिसमें प्रेम का नशा न हो,...किस प्रेम का? परम प्रेम का, प्रभु प्रेम का। जिसमें प्रेम का नशा न हो, जिसमें प्रेम की मीठी पीड़ा न हो, उसे जिंदगी मत कहना, वह तो मौत है; धीमी—धीमी है इसलिए पता नहीं चलता। हमें धीमे—धीमे घटने वाली चीजों का पता नहीं चलता, इसे याद रखना। तुम रोज मर रहे हो, प्रतिपल मर रहे हो। एक दिन बीता तो चौबीस घंटे और मर गए।
लेकिन हम उल्टे लोग हैं। हम जन्मदिन मनाते हैं। हम कहते हैं कि यह हमारा तीसवां जन्मदिन है। यह तीसवां जन्मदिन नहीं है, यह मौत का तीसवां पड़ाव है। यह जन्मदिन नहीं है, यह मृत्यु—दिवस है। मौत और करीब आ गयी, और सरक आयी, और नजदीक आ गयी। तुम क्यू में खड़े हो। आगे क्यू छोटा होता जा रहा है। लोग हटते जा रहे हैं, तुम्हारा नंबर करीब आता जा रहा है। किस क्षण तुम्हारा नाम पुकार लिया जाएगा कहना मुश्किल है।
लेकिन यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि धीमे—धीमे घटने वाली चीजों का पता नहीं चलता। एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग कर रहा था कि क्यों, क्या होगा कारण इसका? बच्चा धीमे—धीमे बढ़ता है, तुम्हें पता नहीं चलता——कब बच्चा था और कब जवान हो गया। जवान धीरे—धीरे बूढ़ा होता है, पता नहीं चलता——कब जवान था, कब बूढ़ा हो गया। इतने धीमे घटती है बात, पत्ते—पत्ते निकलते हैं, पता नहीं चलता कि कब वृक्ष सघन हो गया। कब पत्ते गिर गए...पत्ते—पत्ते गिरते हैं और पत्ते—पत्ते उगते हैं।
इस जगत में कोई भी चीज आकस्मिक नहीं होती है। बहुत धीमे और आहिस्ता होती है क्योंकि अनंत काल है। जल्दी नहीं है कोई। यह कोई आदमी की जिंदगी नहीं है कि भागा—दौड़ी हो कि जल्दी करो। यह तो अनंत, शाश्वत है, यहां कोई जल्दी नहीं है।
वह मनोवैज्ञानिक एक प्रयोग किया। उसने एक मेढक को उबलते हुए पानी में फेंका। उबलता हुआ पानी, मेढक तत्क्षण छलांग लगाकर बाहर हो गया। आग थी, पानी नहीं था, मेढक उसमें रुकता कैसे? मारी लंबी छलांग जितनी जिंदगी में कभी भी न मारी होगी और एकदम बाहर हो गया। फिर उसी मनोवैज्ञानिक ने उसी मेढक को ठंडे पानी में रखा और फिर ठंडे पानी को बहुत धीरे—धीरे गरम करना शुरू किया। धीरे—धीरे कुनकुना, कुनकुना, कुनकुना...और ठीक पानी उबलने लगा और मेढक फिर छलांग लगाकर बाहर नहीं निकला; मर गया वहीं। क्या हुआ? इतने धीमे—धीमे पानी गरम हुआ कि मेढक को कभी पता ही नहीं चला कि अब पानी ठंडा नहीं है, उबल रहा है।
ऐसी ही आदमी की अवस्था है। तुम्हें अगर मौत एकदम से आ जाए तो तुम राम को याद कर लो। महात्मा गांधी को गोली मारी गयी तो जो अंतिम शब्द निकले, वे थे "हे राम"! यह आकस्मिक थी, यह घटना इतनी आकस्मिक थी कि राम का स्मरण बिल्कुल स्वाभाविक है। लेकिन गांधी खाट पर घिस—घिस कर मरते, आहिस्ता—आहिस्ता मरते तो शायद "हे राम" शब्द भी न निकलता। यह "हे राम" निकला आकस्मिकता से।
तुम धीरे—धीरे मर रहे हो। तुम इतने आहिस्ता मारे जा रहे हो, जहर इतने धीमे—धीमे पिलाया जा रहा है कि पता ही नहीं चलता।
जिसमें सरूरेदर्देगमे—आशिकी नहीं
वोह जिंदगी, तो मौत है, वोह जिंदगी नहीं
जिसमें बराए—रास्त हो उनसे मुआमला
वल्लाह! ऐन होश है, वोह बेखुदी नहीं
इक खूनेअंदलीब के दम से थी सब बहार
फूलों में अब वोह रंग नहीं, दिलकशी नहीं
अल्लाह रे हिज्रे—यार की हैरततराजियां
निकला हुआ है चांद, मगर रोशनी नहीं
उनकी तरफ उठाऊं मैं अब क्या निगाहे—शौक
अपनी तजल्लियों ही से फुर्सत अभी नहीं
यूं दिन गुजारती हूं किसी के फिराक में छजिंदा बराए नाम हूं और जिंदगी नहीं
एक बार अपने जीवन पर विचार करो। एक बार सरसरी नजर डालो अपनी जिंदगी पर। जिंदा बराए नाम हूं और जिंदगी नहीं, यही तुम पाओगे। यही तुम्हारी निष्पत्ति भी होगी——नाममात्र को जिंदा हूं, जिंदगी कहां? और तुम भी जाने—अनजाने किसी के इंतजार में हो। होश न हो तुम्हें इस बात का। उसी होश के लिए गुरु—परताप साध की संगति! तुम किसी की प्रतीक्षा कर रहे हो, यह भी भूल गए किसकी प्रतीक्षा कर रहे हो।
मुल्ला नसरुद्दीन को उसकी पत्नी ने बाजार भेजा था, कुछ सामान खरीद लाने को। कहीं भूल न जाए, क्योंकि रास्ते में जो भी मिल गया उसी से गपशप...घंटों लग जाने वाले हैं। तो उसने कहा कि तुम ऐसा करो कुर्ते में गांठ बांध लो, याद रही आएगी कि सामान लाना है। तो मुल्ला कुर्ते में गांठ बांधकर बाजार गया सुबह का निकला सांझ घर लौटा। पत्नी ने कहा, सामान लाए? उसने कहा कि नहीं, मैं यह पूछने आया हूं कि यह गांठ किसलिए बांधी थी?
गांठ ही बांध लेने से कुछ भी न होगा। हम सबको भी बहुत गांठें बांधकर भेजा गया है इस संसार में । हमारे अचेतन में सारा अस्तित्व का राज छिपा हुआ है, कुंजियां छिपी हुई हैं। मगर हमें यह भी भूल गया है कि हमारे पास कोई अचेतन है। हम तो अपने मकान के पोर्च में ही जीते हैं, भीतर जाते ही नहीं। हमें तो यह भी याद नहीं कि भीतर भी कुछ है, हम तो इस को मकान समझते हैं! महल है हमारे पास लेकिन उसमें ऐसे कक्ष हैं जिनमें हम कभी गए नहीं हैं। जिनके द्वार—दरवाजे हमने कभी खोले नहीं।
इक खूनेअदलीब के दम से थी सब बहार
फूलों में अब वोह रंग नहीं, दिलकशी नहीं
अल्लाह रे हिज्रे—यार की हैरततराजियां
निकला हुआ है चांद, मगर रोशनी नहीं
यूं दिन गुजारती हूं किसी के फिराक में जिंदा बराए नाम हूं और जिंदगी नहीं
बराए नाम ही जिंदा रहना है या जिंदा होना है? जिंदा होने का एक ही ढंग है, वह है राम को जीना। वह है राम को अपने में जीने देना। जिंदा होने का एक ही ढंग है कि तुम्हारे शून्य में परमात्मा का पूर्ण उतरे, कि तुम्हारी अंधेरी रात में उसका सूरज उतरे, कि तुम्हारे अंतस में, अंतस के सिंहासन पर राम विराजमान हो, तो जियोगे। राम के बिना जिंदगी नहीं है।
देइ करि कौल करार बिसारो, जियना बिनु भजन हराम।।
बरनत बेद बेदांत चहूं जुग, नहिं अस्थिर पावत बिसराम।
और वेद कहते रहते हैं, वेदांत दोहराता रहता है इन्हीं सत्यों को; और तुमने सुने भी हैं ये सत्य; और तुमने याद भी कर लिए हैं ये सत्य। मगर इससे कुछ लाभ नहीं है। पढ़ो वेद कि कुरान कि बाइबिल, इससे कुछ बहुत लाभ नहीं। पढ़ोगे तो वेद मगर पढ़ोगे ही न! वेद का अर्थ खुलेगा नहीं क्योंकि वेद का अर्थ तो तुम्हारे हृदय में छिपा है। वहां है गांठ, वहां खोलनी है गांठ। जब तुम्हारे हृदय की गांठ खुलेगी और हृदय में पड़े हीरे तुम्हें दिखाई पड़ेंगे तो उनकी ही रोशनी में वेद का अर्थ खुलेगा अन्यथा वेद का अर्थ नहीं खुलेगा। वेद कुछ व्याकरण नहीं, भाषा नहीं। वेद तो तुम्हारा स्वानुभव है। वेद—वेदांत चारों युगों से वर्णन कर रहे हैं उसका। पुकार दे रहे हैं तुम्हें। नहिं अस्थिर पावत बिसराम! लेकिन तुम्हारे चंचल चित्त ने, तुम्हारी भाग—दौड़ ने अभी तक विश्राम नहीं पाया है।
राम को पाओ तो विश्राम मिले। राम ही विश्राम है। राम के बिना कहां विश्राम? दौड़—धूप रहेगी जारी तब तक अंतिम मंजिल न मिल जाए तब तक पड़ाव हैं, रात—भर रुक जाओ, सुबह फिर चलना होगा। तब तक चलते ही जाना होगा। और अगर कहीं तुम जिद करके किसी पड़ाव को ही मंजिल समझकर रुक भी गए तो भी तुम्हारे प्राण तड़फते रहेंगे। राम से बिना मिले कोई उपाय नहीं है।
बरनत बेद बेदांत चहूं जुग, नहिं अस्थिर पावत बिसराम।
जोग जज्ञ तप दान नेम व्रत, भटकत फिरत भोर अरु साम।।
और ऐसा भी नहीं है कि तुमने कुछ किया न हो। तुमने योग भी किया, यज्ञ भी किए, तप भी किया, दान भी किया, नियम भी पाले, व्रत भी किए मगर फिर भी सुबह से सांझ तक सिर्फ भटकाव हो रहा है। क्योंकि यह सब तुमने किया तो, मगर इस करने में राम का प्रेम नहीं था। इस करने में स्वर्ग पाने का लोभ होगा। इस करने में मृत्यु के पार भी व्यवस्था कर लूं अभी से, बीमा कर लूं अभी से, इसकी आकांक्षा होगी। इस सब में नर्क का भय होगा। इस सब में पंडितों ने तुम्हें जो भय और प्रलोभन दिए हैं उनका हाथ होगा, राम का प्रेम नहीं। इसमें भी शायद धन, पद, प्रतिष्ठा पा लेने की आकांक्षा होगी। मंदिरों में भी जाकर तुम क्या मांगते हो?
एक धनी आया और सूफी फकीर जुन्नैद के सामने उसने हजार सोने की अशर्फियां रख दीं। कहा कि इन्हें स्वीकार कर लें, बड़ी कृपा होगी।
जुन्नैद ने कुछ आदमी के भीतर झांका और कहा कि पहले कुछ सवाल। पहला सवाल यह कि तेरे पास और अशर्फियां हैं?
उस आदमी ने कहाः हां हैं, बहुत हैं।
जुन्नैद ने फूछाः और तू और भी अशर्फियां चाहता है या नहीं। उसने कहाः हां जरूर चाहता हूं; असल में ये जो हजार अशर्फियां आपके चरणों में चढ़ायी हैं, इसी आशा से कि सुना है मैंने कि आपके चरणों में एक चढ़ाओ और करोड़ गुना मिलता है। जुन्नैद ने कहाः तो ले जा ये अशर्फियां वापिस क्योंकि तू गलत कारण से ले आया है। तेरे मन में प्रेम का उदय नहीं हुआ है, तू लोभ से ही आया है। यह दान नहीं है, यह तो सौदा है। फिर तू गरीब आदमी है, तुझे अभी और अशर्फियों की जरूरत है। हम अमीर हैं, हमें और अशर्फियों की जरूरत नहीं है। तू ले जा। गरीब आदमी से क्या लेना! लेंगे किसी अमीर से।
जुन्नैद ने लौटा दिया उस आदमी को अशर्फियों के साथ। वह आदमी बहुत गिड़गिड़ाया कि नहीं आप ले लो। जुन्नैद ने कहाः नहीं, ये अशर्फियां पाप हैं क्योंकि इनमें दान नहीं, प्रेम नहीं। मुझसे कुछ संबंध नहीं, तू तो अपना सौदा कर रहा है। तू तो जुआ खेल रहा है। तू तो दांव लगा रहा है। मैं कोई जुआ नहीं हूं, मैं कोई तेरा दांव नहीं बनने वाला। यह कोई सौदा नहीं है, यह कोई दुकान नहीं है। ले जा यहां से, भाग जा यहां से और दुबारा कभी यहां मत आना। और जिन्होंने तुझसे कहा है कि एक दो जुन्नैद को तो करोड़ मिलता है, गलत कहा होगा। बेईमान होंगे वे। जब तक मैं जिंदा हूं तब तक तो ऐसी झूठी बात मत करो। मेरे मरने के बाद जरूर यही लोग इकट्ठे हो जाएंगे, जुन्नैद ने कहा, और यही प्रलोभन।
तुम करते हो योग भी, व्रत भी, तप भी, दान भी, नियम भी, व्रत भी लेकिन क्या तुम्हारी आत्मा के आनंद से इनका जन्म होता है? क्या तुम प्रफुल्लता से करते हो? या कोई प्रलोभन? अगर प्रलोभन है तो भटकते रहोगे सुबह से सांझ तक, जन्म से मृत्यु तक।
सुर नर मुनिगन पचिपचि हारे...इसीलिए तो देवता भी, मनुष्य भी और जिनको हम तथाकथित मुनि कहते हैं वे भी, पचिपचि हारे...पच गए, हार गए, बुरी तरह हारे हैं क्योंकि शुरूआत गलत थी। बीज ही गलत बो दिया था, बीज नीम का बो दिया था और आम की प्रतीक्षा करते रहे। पचिपचि हारे! हारते न तो और क्या होता? नीम के बीज से आम का पौधा होने वाला नहीं है। लाख तुम उपाय करो, लाख जोग, यज्ञ, तप, दान, नेम, व्रत, जो भी करना हो करो——नीम का बीज बोया है तो नीम का ही वृक्ष पैदा होगा। और साधारण आदमियों की तो बात छोड़ दो, तुम्हारे तथाकथित मुनि, साधु, महात्मा ज़रा भी भिन्न नहीं हैं तुमसे। इंच—भर का फासला नहीं है उनमें और तुममें। तुम्हारा गणित, उनका गणित एक।
और शायद इसीलिए तो वे तुम्हें प्रभावित करते हैं। क्योंकि उनकी भाषा और तुम्हारी भाषा एक। शायद इसीलिए तो तुम उनके आसपास इकट्ठे होते हो, क्योंकि वे वही कहते हैं जो तुम सुनना चाहते हो। वे वही कह सकते हैं जो तुम चुनना चाहते हो। उनके पास कुछ और है भी नहीं। कोई क्रांति नहीं है जीवन की। कोई नव का उद्घोष नहीं है। पुरानी पिटी—पिटायी बातों को दोहरा रहे हैं। तुमने भी सुनी हैं वे बातें। इतनी बार कही गयी हैं वे बातें, इतनी बार दोहरायी गयी हैं वे बातें, कि तुम्हारे खून में मिल गयी हैं। और जब असत्य भी बहुत बार दोहराए जाते हैं तो सत्य जैसे मालूम होने लगते हैं।
इसीलिए तो विज्ञापनदाता असत्यों को दोहराए जाते हैं। वे इसकी फिक्र ही नहीं करते कि तुम मानोगे कि नहीं मानोगे——वे दोहराए जाते हैं, दोहराए जाते हैं, दोहराए जाते हैं। एक सीमा है, उसके बाद तुम मानने लगते हो।
अगर सुबह से सांझ तक तुम्हें एक ही बात सुनने को मिले——अखबार में, रेडियो पर, टेलीविजन पर, फिल्म में, बाजार में, सड़कों पर लगे पोस्टरों पर, तुम चाहे सचेतन रूप से ध्यान दो या न दो, तुम चाहे ख्याल करो या न करो कि लक्स टायलेट साबुन ही सर्वश्रेष्ठ साबुन है। तुमने शायद ध्यान से इसे पढ़ा भी नहीं मगर रास्ते से गुजरे तो दिखाई तो पड़ गया। और अब तो बिजली के माध्यम से विज्ञापन होता है। तो पहले तो जो विज्ञापन बनते थे बिजली के माध्यम से वे थिर रहते थे। फिर मनोवैज्ञानिकों ने कहा कि थिर रखना ठीक नहीं। लक्स टायलेट साबुन ही सर्वश्रेष्ठ साबुन है, अगर यह थिर रहा प्रकाश तो आदमी एक ही बार पढ़ता है, इसको बुझाओ, जलाओ; बुझाओ, जलाओ। तो जितनी बार बुझाओगे—जलाओगे उतनी बार पढ़ना पड़ता है। तो जितनी पुनरुक्ति होगी, उतना यह अचेतन में बैठता चला जाता है।
अखबार में भी वही, रेडियो पर भी वही, फिल्म में भी वही.... और इनके साथ—साथ वे सब तत्व जोड़ दो जिनसे लोग प्रभावित होते हैं। अब लक्स टायलेट साबुन की डिबिया को, टिकिया को देखने में तो कोई उत्सुक नहीं है लेकिन हेमामालिनी को साथ में खड़ा कर दो। कहो कि हेमामालिनी कहती है कि लक्स टायलेट साबुन ही सर्वश्रेष्ठ साबुन है। हेमामालिनी को तो देखना ही पड़ेगा। उसी के साथ देखने में लक्स टायलेट साबुन की टिकिया भी देखनी पड़ेगी। और जब हेमामालिनी कहती है तो समझो वेद कहता है। असत्य तो हो ही नहीं सकता।
एक दिन बाजार तुम जाते हो, दुकानदार पूछता है कौन—सा साबुन? और तुम कहते हो लक्स टायलेट। और तुम सोचते हो तुम सोचकर कह रहे हो। तुम सोचते हो कि तुम विचारकर कह रहे हो। ये भ्रांतियां हैं तुम्हारी। सोच—विचार साधारण आदमी का लक्षण नहीं है।
अरस्तू की परिभाषा कि मनुष्य विचारशील प्राणी है, सबसे झूठ परिभाषा है। मनुष्यों में कभी—कभी कोई विचारशील हुआ है लेकिन उससे मनुष्यों की परिभाषा नहीं बनती। तुम अपवाद से परिभाषा नहीं बना सकते। कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई कबीर, कोई भीखा——कुछ इने—गिने लोग विचारशील हुए हैं, उनसे तुम सभी मनुष्यों की परिभाषा मत करने बैठ जाना। वे अपवाद हैं। अपवाद नियम को सिद्ध करता है। उससे सिर्फ इतना ही साफ होता है कि कभी कुछ अद्भुत लोग अविचार के घेरे से मुक्त हो गए हैं। निर्विचार के चैतन्य को उपलब्ध हो गए हैं। और जो निर्विचार के चैतन्य को उपलब्ध हैं उसी की क्षमता का विचार है। तुम क्या विचार करोगे, तुम तो सोए हो। सपने देख सकते हो।
और सपने बाहर से पैदा करवाए जा सकते हैं। वही किया जा रहा है। विज्ञापन से तुम्हारे चारों तरफ हवा पैदा की जाती है। तुम जानकर हैरान होओगे कि रात सपना तक बाहर से पैदा करवाया जा सकता है। तुम सोए हो रात, तुम्हें कुछ पता नहीं, एक तकिया तुम्हारी छाती पर रख दिया जाए। बस तुम्हारे भीतर एक सपना पैदा हो कि एक राक्षस छाती पर चढ़ा बैठा है। तकिया है मगर तुम्हें नींद में पता चलेगा कि राक्षस है; कि तुम्हारे पैरों को थोड़ी—सी ठंडी हवा दी जाए और तुम सपना देखोगे कि तुम एक बर्फीले पहाड़ पर चढ़ रहे हो और पैर ठंडे होते जा रहे हैं। अब तो तुम्हारे सपने भी प्रभावित किए जा सकते हैं। इस पर बहुत प्रयोग चल रहे हैं कि आदमी को सोने भी क्यों शांति से दिया जाए! उसके सपनों में भी काम जारी रखो। धीरे—धीरे जब इसकी कला विकसित हो जाएगी तो तुम्हारे सपने में भी हेमामालिनी खड़ी है, वही लक्स टायलेट साबुन लिए हुए, कि लक्स टायलेट साबुन सबसे बेहतर साबुन है।
अभी विज्ञापनकर्ताओं ने एक अद्भुत खोज की है जो बड़ी खतरनाक है। तुम फिल्म देखने जाते हो तो फिल्म तो बड़ी तेजी से घूमती है। तेजी से घूमने के कारण ही तुम्हें फिल्म में गति मालूम होती है। एक आदमी चल रहा है, तो तुम सोचते हो चलते हुए आदमी की कोई फिल्म होती है? चलते हुए आदमी की कोई फिल्म नहीं है, लेकिन उस आदमी ने एक कदम उठाया, फिर दूसरा उठाया, तीसरा उठाया....हजारों चित्र हैं इसके। पैर जरा—सा उठा एक चित्र, फिर जरा—सा उठा दूसरा चित्र, फिर तीसरा....वे सभी चित्र एक साथ बड़ी तेजी से जा रहे हैं। वे इतनी तेजी से जा रहे हैं कि तुम्हें पैर उठता हुआ मालूम पड़ता है। तुम कभी फिल्म को देखना जाकर तो तुमको लगेगा एक से हजारों चित्र। इन्हीं चित्रों के बीच में एक चित्र डाल देते हैं——बस एक छोटा—सा चित्र——लक्स टायलेट साबुन। वह दिखाई भी नहीं पड़ेगा, वह एक ही चित्र है। तुम तो देखने में कुछ और लगे हो वह दिखाई भी नहीं पड़ेगा। तुम्हारी आंखों की पकड़ में भी नहीं आएगा। तुम्हें सुनाई भी नहीं पड़ेगा——लक्स टायलेट साबुन, फिर भी तुम्हारा अचेतन मन उसको ग्रहण कर लेगा।
इस पर अभी अमरीका में, रूस में प्रयोग हुए हैं और बड़े अद्भुत नतीजे निकले हैं। जैसे कि रोज कोई आइसक्रीम कितनी बिकती है इसका महीने—भर तक औसत निकाला गया; कि समझो, हजार रुपए की बिकती है हर रात सिनेमा में। फिर यह विज्ञापन किया गया सिनेमा में——जो दिखाई भी नहीं पड़ता और सुनाई भी नहीं पड़ता; जो सिर्फ अचेतन मन पकड़ता है, चेतन मन को पता ही नहीं चलता। उस दिन एकदम दो हजार रुपए का आइसक्रीम बिका। इस पर बहुत प्रयोग किए गए और पाया गया कि चेतन को पता ही नहीं चलता और अचेतन पकड़ लेता है, और आदमी बाहर जाकर वही आइसक्रीम खरीद लेता है जिस आइसक्रीम को अचेतन को पकड़ा दिया गया है।
यह तो बड़ी खतरनाक खोज है। इस खोज का उपयोग राजनेता करेंगे ही। मोरारजी भाई देसाई को ही वोट देना; यह दिखाई भी न पड़े, यह सुनाई भी न पड़े, और तुम्हारे अचेतन में बैठ जाए....तुम चले वोट देने....। और तुम सोचोगे कि स्वतंत्रता का उपयोग कर रहे हो, मताधिकार का उपयोग कर रहे हो। यह कोई मताधिकार का उपयोग नहीं है, न कोई स्वतंत्रता का उपयोग है। तुम गुलाम की तरह, सोए आदमी की तरह, मोरारजी भाई की पेटी में वोट डाल आओगे, और इसी भ्रांति में कि तुम एक विचारशील व्यक्ति हो, तुमने सोच—समझकर वोट दिया है।
यह तो आज की बात है, लेकिन सदियों से यह हो रहा है——इसी तरह तुम हिंदू बनाए गए हो; इसी तरह तुम मुसलमान बनाए गए हो। बाहर से ठोंक—ठोंक कर, विज्ञापन कर—कर के, समझा—समझाकर, कि जीसस ही एकमात्र ईश्वर के इकलौते बेटे हैं। जीसस ही सही हैं। जो जीसस को मानेगा, वही पहुंचेगा। यह तना ठोस ठोंक—ठोंककर तुम्हारे भीतर डाल दिया गया है कि तुम सोच भी नहीं सकते कि चर्च से कैसे अलग हो जाओ, कि कोई समझा रहा है महावीर, कि कोई समझा रहा है बुद्ध, कि कोई समझा रहा है मुहम्मद, मगर वही बात है, वही प्रचार है, वही व्यवसाय है।
तो इस तरह के प्रचार के माध्यम से तुम कुछ करने भी लगोगे लेकिन उस करने में तुम्हारे प्राणों का कोई सहयोग नहीं होगा।
सुर नर मुनिगन पचि पचि हारे, अंत न मिलत बहुत सो लाम....अंत का पता ही नहीं चला उन्हें। अंतिम मंजिल का कोई पता ही नहीं चला उन्हें। राम उन्हें मिला ही नहीं। और ऐसा भी नहीं है कि उनको राम के दर्शन न हुए हों। अनेकों को राम के दर्शन हुए धनुष—बाण लिए हुए; सीता मइया के साथ खड़े हैं; हनुमान जी पास में ही अपनी पूंछ मोड़े बैठे हुए हैं——इसका दर्शन हुआ है। मगर जब तक तुम्हें इस तरह के दर्शन हो रहे हैं तब तक तुम समझना कि सपने चल रहे हैं। यह सब सपना है।
राम कोई चित्र की तरह प्रगट नहीं होंगे कि धनुष—बाण लिए खड़े हैं। राम कोई चित्र की भांति प्रगट होने वाले नहीं हैं। राम तो स्वानुभव हैं——दृश्य की तरह नहीं, द्रष्टा की तरह अनुभव होगा। मैं राम हूं, ऐसा अनुभव होगा। अहं ब्रह्मास्मि, ऐसा अनुभव होगा। जब तक तुम्हें राम बाहर दिखाई पड़ें तब तक समझना ये प्रचारित राम हैं, ये विज्ञापित राम हैं। यह दूसरों ने जो तुम्हें समझाया है सदियों—सदियों तक, उसकी छाया है, उसकी छाप है। तब तक यह कल्पना जाल है।
साहब अलख अलेख निकट हीं....और जिसको तुम खोज रहे हो वह बहुत निकट है। साहब अलख....यद्यपि देखने में नहीं आता, पढ़ने में नहीं आता, उसकी कोई व्याख्या नहीं है, उसका कोई निर्वचन नहीं होता, फिर भी वह बहुत निकट है, निकट से भी निकट है। निकट कहना भी ठीक नहीं क्योंकि वही तुम्हारा अंतरतम है।
साहब अलख अलेख निकट हीं, घट—घट नूर ब्रह्म को धाम। कहां खोज रहे हो——किस धनुर्धारी राम में, किस बांसुरी बजानेवाले कृष्ण में, किस नग्न खड़े महावीर में——कहां खोज रहे हो? वह तुम्हारे भीतर खड़ा है, वह तुम्हारे भीतर विराजमान है। और जैसा तुम्हारे भीतर विराजमान है, ऐसा ही प्रत्येक के भीतर विराजमान है, लेकिन पहली पहचान अपने भीतर होती है।
फिर तो घट—घट नूर ब्रह्म को धाम....। जिसने अपने भीतर देखा उसने सबके भीतर देखा। जिसने एक बूंद में पा लिया उसने सारे सागरों में पा लिया। जिसको अपने भीतर पहचान हो गई, बस बात हो गई, मौलिक बात हो गई। फिर मनुष्यों में ही नहीं, वृक्षों में भी, चट्टानों में भी वही दिखाई पड़ेगा। चट्टान में वह चट्टान है, वृक्ष में वह वृक्ष है, पशु में पशु, पक्षी में पक्षी, मनुष्य में मनुष्य——ये सारे रूप उसके हैं, ये सारे रंग उसके हैं। परमात्‍मा बड़ा रंग—बिरंगा है। परमात्मा बड़ा सतरंगा है। परमात्मा पूरा का पूरा इंद्रधनुष है। परमात्मा संगीत के सातों स्वर है। परमात्मा एक आयामी नहीं है, बहुआयामी है। पूरा सरगम है——सा रे ग म प ध नी....पूरा! कुछ बचता नहीं है उससे, पर पहली पहचान भीतर।
जो उसे बाहर खोजने चलेगा, चूकता रहेगा। बाहर उसे जान ही कैसे सकते हो, जब भीतर नहीं जान सके। निकट जो था वहां नहीं पहचान सके, दूर को कैसे पहचान सकोगे? जिसने मधु का स्वाद लिया है, जाना मिठास, अब दूसरे को मधु पीते देखेगा तो जानेगा कि क्या घट रहा है। लेकिन जिसने मधु का स्वयं स्वाद नहीं लिया, वह दूसरे को कितना ही मधु पीते देखे, उसे कुछ भी पता नहीं चलेगा। प्यास लगी और तुमने जल पिया; फिर तुम किसी को भी जल पीते देखोगे तो तुम जानोगे कि प्यास की तृप्ति क्या है! धूप पड़ी और तुम छाया में बैठे तो तुम जानोगे छाया में बैठे हुए आदमी का अनुभव क्या है! लेकिन तुमने कभी धूप का अनुभव नहीं किया, तुमने कभी छाया नहीं जानी, तुमने प्यास नहीं जानी, तुमने तृप्ति नहीं जानी, तुमने मधु का स्वाद नहीं लिया——तुम कैसे समझोगे? तुम कैसे पहचानोगे?
दूसरे को देखकर तुम कुछ भी नहीं पहचान सकते हो जब तक कि पहले पहचान अपने भीतर न बन गई हो, अपने भीतर न रच गई हो, न पच गई हो।
साहब अलख अलेख निकट हीं, घट घट नूर ब्रह्म को धाम ।।

अपने हर तारे—नजर में गो इन्हें पाती हूं मैं
फिर भी दिल की उलझनों में हाय खो जाती हूं मैं
लज्जते—गम मेरी राहत, सोजे—दिल मेरा सकूं
तल्खिए—नाकामयाबी में मजा पाती हूं मैं
वक्ते—रुखसत उनकी नजरों ने जो सौंपी थी कभी
आज तक वह याद सीने में निहां पाती हूं मैं
इक तरफ उनकी उम्मीदें, इक तरफ मायूसियां
जिंदगी की रहगुजर से यूं गुजर जाती हूं मैं
उनसे यूं मिलती हूं
अपने दिन की खिलवत गाह में
जैसे कोई गुमशुदा—सी चीज पा जाती हूं मैं
चांद को, तारों को, गुल को, गुंचहाए—बाग को
देखती हूं और फिर मायूस हो जाती हूं मैं
दर्द की लज्जत में इतना लुत्फ अब आने लगा
जिंदगी की इशरतों को भूलती जाती हूं मैं
उनकी नजरों ने न जाने चुपके—चुपके क्या किया
दिल बहलता ही नहीं गो लाख बहलाती हूं मैं
एक बार तुम्हें झलक मिले, एक बार तुम्हारी आंख राम से भरे, कि फिर सारा जगत, जैसा तुमने कल तक उसे जाना था, विलीन हो जाता है और एक नए जगत का आविर्भाव होता है। कल तक तुमने जो जाना था, वह झूठा था, माया था; अब जो प्रगट होता है सत्य है।
अपने हर तारे—नजर में गो इन्हें पाती हूं मैं
फिर भी दिल की उलझनों में हाय खो जाती हूं मैं
लेकिन झलक पा—पा कर भी पहले कई बार झलक खो जाएगी। मिलेगी झलक, एक क्षण को टिकेगी और विदा हो जाएगी। मगर इसी तरह धीरे—धीरे थिरता आएगी। झलकें और झलकें और झलकें....और एक दिन अचानक सब ठहर जाएगा——झलक झलक न रह जाएगी, झलक तुम्हारा स्वभाव है, ऐसी अनुभूति स्पष्ट हो जाएगी——तब समाधि! जब तक झलक मिलें तब तक ध्यान, जब झलक थिर हो जाए तो समाधि।
खोजत नारद सारद अस अस, जातु है समय दिवस अरु जाम।
खोज रहे हैं लोग——कोई इस तरह, कोई उस तरह; लेकिन समय व्यतीत हो रहा है। जो खोज रहा है, वह समय गंवा रहा है क्योंकि खोज का मतलब ही है बाहर खोजना; खोज का मतलब ही है यह मान लिया कहीं और है। खोजने वाले में छिपा है, तो खोज कैसे होगी? सब खोज छोड़नी होगी।
इसे फिर से दोहरा दूं——राम को वे ही पाते हैं जो सब खोजकर चुप बैठ जाते हैं। सन्नाटे में पाया जाता है, मौन में पाया जाता है, अत्यंत निष्क्रिय चित्त की शांत अवस्था में पाया जाता है। दौड़—दौड़ कर नहीं मिलता, बैठकर मिलता है। इस संसार में सब दौड़कर मिलता है सिर्फ परमात्मा को छोड़कर, परमात्मा बैठकर मिलता है। सब चीजें दौड़कर मिलती हैं, परमात्मा रुककर मिलता है क्योंकि परमात्मा तुम्हारे भीतर है, दौड़ते रहोगे, दौड़ में उलझे रहोगे। बैठक लग जाए. . . बैठक कहां लगे? गुरु—परताप साध की संगति! किसी बैठे हुए के पास बैठक लग जाएगी, कोई स्वयं जो थिर हो गया है, उसके पास बैठोगे, संक्रामक हो जाएगी थिरता।
सुगम उपाय जुक्ति मिलबे की....इसलिए भीखा कहते हैं : मैं तुम्हें सुगम उपाय बताए देता हूं——न जोग, जज्ञ, न तप, न दान, न नेम, न व्रत——सुगम उपाय जुक्ति मिलबे की, भीखा इह सतगुरु से काम! एक सद्गुरु को पा लो. . .. सद्गुरु का काम ही यही है कुल जमा खुद बैठ गया, तुम्हें बैठना सिखा दे; खुद रुक गया, तुम्हें रुकना सिखा दे। किसी शांत व्यक्ति के पास बैठोगे शांत होने लगोगे। और ऐसा तुम्हें अनुभव नहीं होता ऐसा भी नहीं है। कभी—कभी तुमने देखा, उदास बैठे थे और चार हंसते हुए मित्र आ गए, और तुम उदासी भूल गए और हंसने लगे। और तुमने देखा, तुम हंसते थे, प्रसन्न थे, और चार उदास लोग आ गए और तुम्हारी हंसी खो गई और तुम भी उदास हो गए।
हम अलग—अलग नहीं हैं, हम एक—दूसरे में प्रवेश करते हैं; हमारी तरंगें एक—दूसरे को आंदोलित करती है; हमारी ऊर्जा का आदान—प्रदान हो रहा है; जैसे श्वास जो अभी मेरे भीतर है, क्षण—भर बाद तुम्हारे भीतर होगी और जो तुम्हारे भीतर है, मेरे भीतर होगी। जैसे श्वास का आदान—प्रदान हो रहा है....यहां हम इतने लोग बैठे हैं, हमारी श्वासें एक से दूसरे में प्रवेश कर रही हैं। ठीक ऐसी ही हमारी जीवन—ऊर्जा भी रोएंरोएं से एक—दूसरे में प्रवेश कर रही है।
सत्संग का अर्थ हैः किसी ऐसे व्यक्ति के पास बैठ जाना जो परमात्मा के पास बैठ गया हो। उसके रोएंरोएं से, उसकी लहर में उसकी तरंग में बहना, उसके साथ हो लेना, उसके हाथ में हाथ दे देना। और जो बड़े—बड़े उपायों से नहीं हो पाता जिसके लिए——खोजत नारद सारद अस अस——ऐसे बड़े—बड़े खोजी खोजते रहे और खोजते—खोजते समाप्त हो गए, वह अपूर्व बिना प्रयास के घट जाता है, प्रसाद से घट जाता है——गुरु—परताप साध की संगति——वह गुरु के प्रसाद से घट जाता है! सुगम उपाय जुक्ति मिलबे की, भीखा इह सतगुरु से काम।
तूफां उठा—उठा दिए हैं
जब इश्क ने हौसले किए हैं
किस—किस की नजर बचा—बचाकर
आंसू गमेजीस्त ने पिए हैं
तारीक थीं जिंदगी की राहें
यादों के दिए जला लिए हैं
हालेत्तबाह! ओ कल्बे महजूं!
कुछ हो न सका तो हंस दिए हैं
मत पूछो निगहेफित्नएसामां
किस आस पै आज तक जिए हैं
तकमीलेरसूमे—गम हुई है
जब चाक जुनूंने सी लिए हैं
हुस्ने—सलूक—ओ—लुत्फेएहसां!
किस नाज से उसने गम दिए हैं
दिल जान रहा है, हाल अपना
कहने को बहुत लिए—दिए हैं
हां बज्मे—सुखन के हमसफीरो
कुछ सोच के होंठ सी लिए हैं
तूफां उठा—उठा दिए हैं
जब इश्क ने हौसले किए हैं
गुरु के पास बैठना इश्क का हौसला है, वह प्रेम का साहस है, दुस्साहस है। क्योंकि गुरु के पास बैठने का एक ही अर्थ है——मिटने की तैयारी, अपने हाथ मिटने की तैयारी, अपने हाथ गलने की तैयारी। जो गुरु के पास बैठकर गल जाए और बह जाए, उसी को सत्संग मिला। और जिस क्षण तुम गल जाते हो और बह जाते हो उसी क्षण परमात्मा तुम में प्रवेश करता है। जब तुम नहीं हो, तब परमात्मा है। जब तक तुम, तब तक राम नहीं; जब तुम नहीं, तब राम। हारे को हरिनाम. . . जब तुम बिल्कुल हार गए, बिल्कुल हार गए, ऐसे हार गए कि बचे ही नहीं, बस तब, उसी क्षण, एक आह्लाद तुम्हारे भीतर से उठता है, सारे जगत में व्याप्त हो जाता है।
साधो, सब महं निज पहिचानी....तब तुम पहचान सकोगे सब में निज को। जग पूरन चारिउ खानी....मनुष्यों में ही नहीं, अंडज, स्वेदज, पिंडज और उद्भिज सब चारों योनियों में तुम उसी को पहचान सकोगे। फिर तो तुम पाओगे जग उसी से भरा है——जग पूरन चारिउ खानी——उसी से पूर्ण है।
अविगत अलख अखंड अमूरति, कोउ देखे गुरु ज्ञानी
अज्ञेय है वह, अलख है वह, अखंड है वह, अमूर्त है वह, सो इन आंखों से, इन फूटी आंखों से, तो देखने का उपाय नहीं है। चर्म—चक्षुओं से तो वह नहीं देखा जा सकता; ये तो फूटी आखें हैं, इनसे तो बस वस्तुएं देखी जा सकती हैं, ऊपर—ऊपर की बातें देखी जा सकती हैं। वह अंतरतम जगत का इनसे न देखा जा सकेगा, उसे देखने के लिए तो ज्ञान की आंख चाहिए, ध्यान की आंख चाहिए। कोउ देखे गुरु ज्ञानी....कोई जिसने अपने भीतर का अंधकार दूर कर दिया है——गुरु; कोई जिसने ध्यान को जगा लिया है और ज्ञान को उपलब्ध हो गया है, ऐसा प्रज्ञावान उसे देख पाता है। मगर तुम्हारी भी यह क्षमता है और तुम्हारा भी यह अधिकार है।
ता पद जाय कोउ—कोउ पहुंचे, जोग—जुक्ति करि ध्यानी।
कभी—कभी, कोई—कोई, बहुत मुश्किल से वहां पहुंच पाया है, कोई ध्यान करने वाला। ध्यान का अर्थ होता हैः निर्विचार चित्त। ध्यान का अर्थ होता हैः निष्क्रिय चित्त। ध्यान का अर्थ होता है : निर्विकल्प चित्त——जागरण तो पूरा लेकिन विचार बिल्कुल नहीं।
आदमी दो अवस्थाएं जानता है, तीसरी से अपरिचित है। एक अवस्था——विचार तो बहुत, जागरण बिल्कुल नहीं। यह हमारा....जिसको हम जागरण कहते हैं, यह बड़ा उल्टा शब्द हम उपयोग करते हैं, जिसको हम जागरण कहते हैं उसमें जागरण बिल्कुल नहीं है, विचार ही विचार हैं। सुबह तुम जागते ही से करते क्या हो दिन भर——विचार और विचार....भीड़ चली आ रही है, विचारों की, एक तारतम्य बंधा रहता है, अखंड धारा बहती रहती है। इन्हीं विचारों में तुम अटके रहते हो, इन्हीं विचारों में तुम दबे रहते हो, जैसे दर्पण पर धूल जमी हो, ऐसे ही ये विचार तुम्हारी चेतना पर जमे हैं। एक तो यह हमारी अवस्था है, जिसको हम जागरण कहते हैं, जोकि जागरण बिल्कुल नहीं है, जोकि नींद का ही दूसरा रूप है——आंख खुली नींद।
और एक दूसरी अवस्था है, जब विचार चले जाते हैं। गहरी....गहरी रात्रि में, गहन निद्रा में जब स्वप्न भी नहीं होते, विचार चले जाते हैं मगर तब जागरण भी नहीं होता, तब हम गहरी निद्रा में खो जाते हैं।
तो एक तो अवस्था है सुषुप्ति की, तब नींद इतनी गहरी होती है कि दर्पण ही नहीं बचता धूल भी नहीं होती। और दिन में जब दर्पण होता है तो धूल बहुत होती है। दोनों अवस्था में हम चूकते हैं। एक तीसरी अवस्था है, इन दोनों के मध्य में——धूल तो न हो और दर्पण हो। एक ऐसी अवस्था पैदा करनी है जो नींद जैसी शांत हो, शून्य हो और जागरण जैसी जाग्रत हो——उस अवस्था का नाम ध्यान है; उस कला का नाम ध्यान है। ध्यानी सोया होता है एक अर्थो में क्योंकि तुम जितने गहरी नींद में शांत होते हो, उतना वह जागा हुआ शांत होता है। और एक अर्थ में जागा होता है, ऐसा जैसा तुम कभी नहीं जागे। और जिसको यह अनुभूति मिल गई वह जागते में भी जागा है, सोने में भी जागा है; उसका दर्पण निरंतर खाली है——न विचार उठते, न स्वप्न उठते। इस खाली दर्पण में सारा राज छिपा है, सारे धर्मो का राज छिपा है।
ता पद जाय कोउ—कोउ पहुंचे, जोग—जुक्ति करि ध्यानी।।
भीखा धन जो हरि—रंग—राते, सोई हैं साधु पुरानी।।
और जिनको ऐसा ध्यान मिल गया, उनके मजे की भीखा कहता है क्या बात कहें, कैसे बात कहें, किन शब्दों में कहें? भीखा धन जो हरि—रंग—राते....इतना ही कह सकते हैं कि धन्यभागी हैं, वे, बड़भागी हैं वे जो परमात्मा की शराब पीकर मस्त हो रहे हैं। ध्यान में घटती है यह घटना——एक मधुशाला खुलती है अनंत की, शाश्वत की।
 भीखा धन जो हरि—रंग—राते....जो हरि के रंग में रंग गए, जो ऐसे हरि के रंग में रंग गए कि दीवाने हो गए——रंग—राते——पागल हो गए, मदमस्त हो गए, जो भूल ही गए और सब, जिनके लिए हरि ही बस एकमात्र रहा....।
हरि शब्द बड़ा प्यारा है; उसका अर्थ होता है : चोर! दुनिया की किसी भाषा में परमात्मा के लिए ऐसा प्यारा शब्द नहीं है। हरि का अर्थ होता है : जो हरण कर ले, चुरा ले, झपट ले। जिस क्षण तुम ध्यान में पहुंचोगे, हरि झपट लेगा, चुरा लेगा सब, छोड़ेगा ही नहीं, पीछे कुछ, तुम्हें पूरा—का पूरा ले लेगा अपने में, पूरा डुबा लेगा जैसे नदी सागर में डूब जाती है, ऐसे हरि तुम्हें चुरा लेगा। हरि चोर है!
भीखा धन जो हरि—रंग—राते, सोइ हैं साधु पुरानी।।
और उनको ही कहो असली साधु, उनको ही कहो शाश्वत साधु, उन्हीं को कहो जन्मों—जन्मों के साधु, पुराने साधु, प्राचीन साधु, सदियों—सदियों से जो साधुता में उतरे हैं——जो हरि के रंग में मस्त हो जाते हैं।
रहता है बस ख्याल ही तेरा तेरे बगैर
जीने का इक यही है सहारा तेरे बगैर
अब वह जमाले—शाम निशाते—सहर कहां
दुनिया से कर लिया है, किनारा तेरे बगैर
तू रूठकर चला मगर इतना मुझे बता
किससे करूंगी मैं शिकवा तेरे बगैर
बेनूर है बहारे—दो आलम में निगाह में
धोका है अब हर—एक नजारा तेरे बगैर
आ और आके छीन ले रूहे—हयात भी 
मैं क्या करूंगी जी के भी तन्हा तेरे बगैर
आ और आके छीन ले रूहे—हयात भी....इस जीवन को भी छीन ले, इस अस्तित्व को भी ले ले, अपने में मिला ले!
आ और आके छीन ले रूहे—हयात भी
मैं क्या करूंगी जी के भी तन्हा तेरे बगैर
तेरे बगैर जीने का कोई अर्थ ही नहीं है। जियना बिनु भजन हराम....तेरे बिना व्यर्थ है जीना, तेरे बिना नाहक का बोझ ढोना है, तेरे बिना मरना बेहतर। तू हो तो जीने का अर्थ है, तू न हो तो जीने का कोई अर्थ नहीं है।
प्रीति की यह रीति बखानौ।।
भीखा कहते हैं : यह प्रीति की रीति है——मिटने की तैयारी, अपने को पूरा—का—पूरा देने की तैयारी; यह निमंत्रण परमात्मा को कि आओ और ले चलो मुझे पूरा, रत्ती—भर बचाऊंगा नहीं अपने को। जरा बचाया कि बस चूके——या तो पूरा—पूरा दो या ज़रा भी नहीं दे पाओगे। परमात्मा के जगत में सौदा नहीं होता, समझौता नहीं होता; खंड—खंड नहीं दिया जा सकता, अखंड देना होता है। प्रीति की यह रीति बखानौ।....यह प्रीति की रीति है, यह मैं तुमसे कहता हूं।
कितनौ दुख—सुख परै देह पर, चरन—कमल कर ध्यानो।।
और कितना ही सुख हो, कितना ही दुख हो, अब उसकी चिंता नहीं है, अब तो चिंता एक ही है कि तुम्हारे चरण—कमलों पर ध्यान लगा रहे। अब तो एक ही चिंता है कि भीतर चेतना का कमल खिला रहे। अब तो बस एक ही बात है——सुबह से सांझ, सांझ से सुबह, हर पल, हर घड़ी——एक ही....निर्विचार चित्त जमा रहे, धूल न जमे दर्पण पर।
कितनौ दुख—सुख परै देह पर, चरन—कमल कर ध्यानो।।
हो चैतन्य बिचारि तजो भ्रम, खांड धूरि जनि सानौ।।
इस जिंदगी की हालत बड़ी विकृत है। यह जिंदगी ऐसी हो गई है जैसे शक्कर में किसी ने धूल मिला दी हो; इसे छांटना बड़ा मुश्किल हो गया है। हमने इतना तादात्म्य कर लिया है व्यर्थ के साथ कि सार्थक क्या है, व्यर्थ क्या है; सार क्या है, असार क्या है, छांटना मुश्किल हो गया है। खांड धूरि जनि सानौ....अपने ही हाथों हमने शक्कर और धूल को मिला लिया है, अब छांटना मुश्किल हुआ जा रहा है। लेकिन यह भी छंट जाता है, इसके छंट जाने की विधि है : हो चैतन्य बिचारि तजो भ्रम——अगर तुम चैतन्य हो जाओ, अगर तुम अपने भीतर बोध को, स्मरण को जगा लो, अगर तुम होश से उठो, होश से बैठो, होश से चलो। तुम जो भी करो उसमें होश का गुण कायम रहे——ओंठ भी हिले, विचार भी ज़रा—सा तरंग मारे, तो होश के बिना न हो——प्रत्येक कृत्य होशपूर्ण हो जाए। जैसे अभी सन्नाटे में तुम चुप बैठे हो, होशपूर्वक....यह सन्नाटा ऐसे ही न गुजर जाए....जाग्रत....पक्षियों की आवाज सुनाई पड़ने लगती है, राह से कोई गुजरेगा, दूर कोई पनचक्की चल पड़ी——सब तुम्हारा चैतन्य अनुभव करने लगा। छोटी—छोटी बात....एक झींगुर भी बोलेगा तो तुम्हारे होश में आ जाएगा।
चैतन्य को जगाने की एक ही प्रक्रिया है : अपने प्रत्येक कृत्य में होश——चलो तो होशपूर्वक, भोजन करो तो होशपूर्वक, स्नान करो तो होशपूर्वक। चैतन्य को बढ़ाए चलो। जितना—जितना होशपूर्वक काम करोगे उतना चैतन्य सघन होगा। और फिर एक घड़ी आती है जब चैतन्य की सघनता ऐसी होती है कि तुम जो देखोगे वही सत्य होगा, या तुम सत्य ही देखोगे और कुछ देख ही न सकोगे।
हो चैतन्य बिचारि तजो भ्रम, खांड धूरि जिन सानौ।।
और उस क्षण में धूल अलग हो जाएगी, शक्कर अलग हो जाएगी। उस क्षण में देह अलग हो जाएगी, आत्मा अलग हो जाएगी। उस क्षण में पदार्थ अलग हो जाएगा, परमात्मा अलग हो जाएगा। उस क्षण में तुम जानोगे घर क्या है, घर का मालिक कौन है। उस क्षण में पुराना तादात्म्य सदियों—सदियों का टूट जाएगा।
जैसे चात्रिक स्वांति बुंद बिनु, प्रानसमरपन ठानौ।।
जैसे चातक सब लगा देता है दांव पर, वह कहता है : पिऊंगा तो स्वाति की बूंद ही पिऊंगा। ऐसा प्राण को समर्पित करने का प्रण ठान कर बैठ जाता है, ऐसा गहन संकल्प कि बस टकटकी लगाकर देखता रहता है चांद को कि कब टपके स्वाति की बूंद....नहीं पिऊंगा और जल, स्वाति की बूंद ही फिऊंगा। बहुत जल पीकर देख लिए, प्यास बुझती कहां है! थोड़ी देर के लिए भ्रम होता है। फिर प्यास वापिस लौट आती है, अब तो स्वाति का बूंद पीना है और स्वाति की बूंद सदा को तृप्त कर जाए।
ऐसे ही भक्त, ऐसे ही ध्यानी, एक दृढ़ संकल्प करके बैठता है कि बस परमात्मा को ही पिऊंगा; और सब पीकर तो देख लिया। और सब शराबें देख लीं, अब परमात्मा की शराब पिऊंगा। अंगूर से ढली तो बहुत पी, अब आत्मा से ढली पिऊंगा। और धन तो बहुत देखे, अब परम धन को देखूंगा। और पदों को तो बहुत पाया, अब परम पद पाकर रहूंगा।
ऐसी चातक की तरह आंख चांद पर अटक जाए, प्राण बस एक ही अभीप्सा से भर जाएं, तो क्रांति निश्चित ही घटित होती है। यही पात्रता है प्रभु को पाने की।
जैसे चात्रिक स्वांति बुंद बिनु, प्रानसमरपन ठानौ।।
भीखा जेहि तन राम भजन नहिं, कालरूप तेहिं जानौ।।
जिसके जीवन में रामभजन नहीं है——भीखा कहते हैं——उसे समझ लेना चाहिए उसकी जिंदगी सिवाय मृत्यु के और कुछ भी नहीं है। बार—बार कहते हैं कि तुम्हारी जिंदगी मृत्यु है अभी! घर खाली है, घर का मालिक सोया हुआ है। मंदिर तो बन गया है, मंदिर की प्रतिमा कहां है ? यह कैसा वृक्ष है जिसमें न फल लगते हैं, न फूल, न सुगंध उड़ती है! तुम कैसे पक्षी हो——न पंख फैलाते, न आकाश में उड़ते, चांदत्तारों की तरफ यात्रा करते——पिजड़े में बंद हो। और पिंजड़े को जोर से पकड़ लिया है, पिंजड़े को सुरक्षा समझ लिया है!
यह देह तो पिंजड़ा है, इसको इतने जोर से मत पकड़ो——रहो इसमें, इसका उपयोग करो, परमात्मा की भेंट है, इसका सम्मान करो मगर इसको जोर से मत पकड़ो, इसके साथ तादात्म्य मत करो, मत कहो कि मैं देह ही हूं। जियो जग में, भीखा यह नहीं कह रहे हैं कि भाग जाओ संसार को छोड़कर। अगर आंख न बदली और संसार को छोड़कर भी भाग गए तो क्या फायदा होगा? जोग, जज्ञ, तप, दान, नेम, व्रत, भटकत फिरत भोर अरु साम।....भटकते रहोगे सुबह से सांझ तक, कुछ पाओगे नहीं। असली सवाल दृष्टि का रूपांतरण है, परिप्रेक्ष्य बदलना चाहिए, तुम्हारे देखने की शैली बदलनी चाहिए, तुम्हें देखने का एक नया गणित, जीवन का एक नया समीकरण आना चाहिए।
वह समीकरण क्या है, कैसे आएगा? विचार को छोड़ो, चैतन्य को पकड़ो; नींद को छोड़ो, होश को संहालो; बुद्धि से उतरो और हृदय को जगाओ। शब्दों और शास्त्रों में ही मत भटके रहो। शब्दों और शास्त्रों में भटकते—भटकते तो जनम—जनम हो गए। तुम्हें वेद कंठस्थ हैं, तुम्हें गीता याद है; तुम्हें कुरान का पता है, तुमने बाइबिल पढ़ी है——मगर हुआ क्या? आग कहां जली? दीए की कितनी ही चर्चा करो इससे कुछ दीया नहीं जलता।
गुरजिएफ एक कहानी कहा करता था। एक जंगल में एक सम्राट का आना हुआ; शिकार को आया था। फिर दस्तरखान बिछा, भोजन का वक्त हुआ। बड़े—बड़े बहुमूल्य पकवान बनाकर लाए गए थे। थालियां सजीं। बड़ा आयोजन होने लगा। कुछ चींटियों को बास लगी, चींटियां गईं——जो संदेशवाहक चींटियां थीं जो खबर लेने जाती थीं। ऐसा भोजन तो उन्होंने कभी देखा ही नहीं था——ऐसा रंग—बिरंगा भोजन, ऐसी सुवास....जैसे स्वर्ग उतर आया पृथ्वी पर। नाचती हुई लौटीं, मग्न हुई लौटीं। खबर दी और चींटियों को। चींटियों में तो एकदम तूफान आ गया। चींटियां एकदम विक्षिप्त होने लगीं——बातें सुन—सुनकर मूर्छित होने लगीं। ऐसा भोजन, इतनी—इतनी थालियां, ऐसी गंध....बात ही ऐसी कि जाने की तो सुध किसको रही!
एक—दूसरे को बताने में ऐसी उत्तेजना फैली कि चींटियों का जो राजा था वह बहुत परेशान हुआ। उसने कहा : ये तो पगला जाएंगी। उसने कहा : तुम रुको, पहले मैं अपने वजीरों को लेकर जाता हूं, पक्का पता लगाकर आता हूं।
वजीरों को लेकर गया। देखा कि हालत तो ठीक ही थी, जो खबर दी गई है। मगर बात सुनकर जब चींटियों की यह हालत हुई जा रही है कि लड़खड़ा कर गिर रही हैं, बेहोश हो रही हैं, तो इस भोजन के पास आकर उनकी क्या गति होगी? अपने वजीरों से कहा : हम क्या करें?
तो बूढ़े बड़े वजीर ने कहा : जो आदमी करते हैं वही हम भी करें। मजबूरी में हमें आदमी की नकल करनी पड़ेगी क्योंकि चींटियों के इतिहास में इस तरह की घटना पहले कभी घटी नहीं, आदमियों के इतिहास में घटती रही है।
सम्राट ने कहा : मैं कुछ समझा नहीं। चींटियों के सम्राट ने कहा : मैं कुछ समझा नहीं।
उन्होंने कहा कि हम एक नक्शा बनाएं, नक्शे में थालियां बनाएं, थालियों में रंग—बिरंगे भोजन भरें और नक्शे को ले चलें, और नक्शे को बिछा दें और चींटियों से कहें देखो——ऐसे—ऐसे भोजन, ऐसी—ऐसी थालियां....वे नक्शे में ही मस्त हो जाएंगी, न यहां तक आएंगी न झंझट होगी।
और यही हुआ। नक्शा बनाया गया, नक्शा लाया गया और चींटियों का तो कहना क्या——बैंड—बाजे बजे, नाच—कूद हुआ, स्वागत—समारोह हुआ। रात—भर चींटियां सोई ही नहीं——नक्शे पर घूम रही हैं, इधर से उधर जा रही हैं; यह रंग, वह रंग। होशियार वजीरों ने थोड़ी—सी सुगंध भी छिड़क दी थी नक्शे पर। नासापुट चींटियों के भर गए। चींटियां भूल ही गईं भोजन की बात।
गुरजिएफ कहता था चींटियां अभी भी नक्शे से उलझी हैं, नक्शे से चिपकी हैं, नक्शे का ही मजा ले रही हैं। और चींटियों के वजीर ने ठीक कहा था कि हमें आदमियों की नकल करनी पड़ेगी।
ऐसे ही वेद हैं, एक नक्शा; ऐसे ही कुरान है, दूसरा नक्शा; ऐसे ही बाइबिल है, तीसरा नक्शा। और लोग चींटियों की तरह नक्शों से उलझे हैं——कोई वेद से चिपका है, कोई कुरान से, कोई बाइबिल से। आंखें फूटी जा रही हैं उनकी वेद पढ़—पढ़ कर, मस्तिष्क भरमा जा रहा है। लोग गीता ही पढ़—पढ़ कर डोल रहे हैं। वही चींटियों की हालत है। कुरान पढ़—पढ़ कर आनंदित हो रहे हैं, मुहम्मद होने की फिक्र ही न रही। महावीर होने की चिंता किसको है? बुद्ध किसको होना है? चैतन्य की समाधि को किसे पाना है? समाधि शब्द ही काफी है। लोग उसी पर शोध कर रहे हैं। पतंजलि के योग—सूत्रों पर ग्रंथों पर ग्रंथ लिखे जा रहे हैं। ब्रह्मसूत्र पर बादरायण के टीकाओं पर टीकाएं लिखी जा रही हैं। नक्शों के नक्शे और नक्शों के भी नक्शे बनाए जा रहे हैं।
यह सिलसिला लंबा चल रहा है। भीखा कहते हैं : इससे जागो, इससे कुछ भी न होगा।
जो भी जागे हैं वे सभी यही कहते हैं : इससे कुछ भी न होगा, असली यात्रा करनी होगी। और असली यात्रा बाहर की तरफ नहीं है, भीतर की तरफ है। असली आंख चाहिए और असली आंख यह चमड़े की आंख नहीं है, ध्यान की आंख है। ध्यान—चक्षु को खोलो, फिर अपूर्व है आनंद, फिर सच्चिदानंद है।
और यह हो सके यहां तुम्हारे जीवन में इसकी संभावना है। यह हो सकता है। अगर न हो तो तुम्हारे सिवाय कोई और जिम्मेवार न होगा। द्वार खोले जा रहे हैं—— तुम अगर पीठ ही किए खड़े रहो, तुम्हारी मर्जी। मैं नक्शा नहीं दे रहा हूं, मैं तो तुम्हें असली भोजन की तरफ पुकार दे रहा हूं। इसलिए नक्शों के मालिक और नक्शों के ठेकेदार मुझसे बहुत नाराज हैं। होंगे ही, क्योंकि उनके नक्शों का क्या होगा? अगर लोगों ने मेरी बात सुनी और लोग अगर समाधि की तरफ चलने लगे तो जो पतंजलि के सूत्रों पर किताबें लिख रहे हैं उनका क्या होगा? लोगों ने अगर मेरी बात सुनी और उनके भीतर भगवद्गीता उतरने लगी तो भगवद्गीता पर जो हजारों—हजारों टीकाएं लिखी गई हैं, उनका क्या होगा? वे जो पंडित शोधकार्य कर रहे हैं विश्वविद्यालयों में बैठे हुए, जिन्होंने जिंदगी शोधकार्य में बिता दी है....क्या खाक शोधकार्य हो रहा है! अपनी शुद्धि नहीं हो रही है, किताबों में शोधकार्य हो रहा है!....उनका क्या होगा ? स्वभावतः वे मुझ पर नाराज होंगे। उनकी नाराजगी समझी जा सकती है।
लेकिन उनकी नाराजगी की चिंता भी नहीं है; चिंता तो मुझे तुम्हारी है कि कहीं ऐसा न हो कि तुम इतने पास आकर, इतने पास आकर चूक जाओ। कभी—कभी ऐसा हो जाता है कि नदी के किनारे आकर भी लोग प्यासे लौट गए हैं। और घोड़े को नदी तक लाया जा सकता है जबरदस्ती पानी तो पिलाया नहीं जा सकता। गुरु—परताप साध की संगति!
आज इतना ही।

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