प्यारे
ओशो!
निरुक्त
में यह श्लोक
आता है :
मनुष्या
वा
ऋषिसूलामत्सु
देवानब्रुवन्क्रो
न
ऋषिर्भविष्यतीति।
तेभ्य
एत तर्कमृषि
प्रायच्छर।।
इस लोक
से जब ऋषिजन
जाने लगे, जब उनकी
परम्परा
समाप्त होने
लगी
तब
मनुष्यों ने
देवताओं से कहां
कि अब हमारे
लिए कौन ऋषि
होगा?
इस
अवस्था में
देवताओं ने
तर्क को ही
ऋषि—रूप में
उनको दिया।
अर्थात
देवताओं ने
मनुष्यों से कहां
कि आगे को
तर्क
को ही ऋषि—स्थानीय
समझो।
प्यारे
ओशो! हमें
निरुक्त के इस
वचन का
अभिप्राय
समझाने की
कृपा करें।
सहजानंद!
पहली बात : ऋषि
कभी गये नहीं; जा सकते
नहीं। जैसे
रात हो, तो
आकाश में तारे
होंगे; जैसे
पृथ्वी हो, तो कहीं न
कहीं फूल
खिलेंगे, ऐसे
ही मनुष्य—चेतना
मौजूद हो, तो
ऋषि विलुप्त
नहीं हो सकते।
कहीं न कहीं
कोई झरना
फूटेगा; कोई
गीत उठेगा; कोई बांसुरी
बजेगी।
मनुष्य
इतना बांझ
नहीं है कि
ऋषियों की
परम्परा
समाप्त हो
जाये! कभी
समाप्त नहीं
हुई। लेकिन
निरुक्त
जिन्होंने
लिखा है, वे ऋषि नहीं
हैं। वे
भाषाशास्त्री
हैं। व्याकरण
के जानकार हैं।
उनकी निष्ठा
तर्क में है—उनकी
निष्ठा काव्य
में नहीं है।
उनकी निष्ठा
विचार में है—उनकी
निष्ठा ध्यान
में नहीं है।
और अपनी
निष्ठा को लोग
हजार तरकीबों
से प्रतिपादित
करते हैं, चालाकियों
से
प्रतिपादित
करते हैं।
निरुक्त
कोई धर्म—शास्त्र
नहीं है। वह
तो भाषा का
विज्ञान है।
और भाषा का
विज्ञान तो
तर्क पर ही
आधारित होगा।
वह तो गणित है।
व्याकरण गणित
है। और इसलिए
गणितज्ञ नहीं
चाहेगा कि ऋषि
हों। गणितज्ञ
के लिए सबसे
बड़ा खतरा
ऋषियों से है।
गणितज्ञ तो
चाहेगा कि
तर्क परम हो—तर्क
ही ऋषि हो। यह
नहीं हो सकता।
तर्क कैसे ऋषि
हो सकता है?
तर्क
का अर्थ क्या
होता है? तर्क का
अर्थ होता है :
मनुष्य के
सोचने—विचारने
की प्रक्रिया।
लेकिन क्या
सत्य को सोचने—विचारने
से जाना गया
है कभी? जिसे
तुम नहीं
जानते हो, उसे
सोचोगे कैसे,
विचारोगे
कैसे? सोच—विचार
तो ज्ञात की
परिधि में ही
परिभ्रमण करते
हैं। और सत्य
तो अज्ञात है;
अज्ञात ही
नहीं—अज्ञेय
भी।
विज्ञान
समस्त
अस्तित्व को
दो हिस्सों
में बांटता है—धर्म
तीन हिस्सों
में। विज्ञान
कहता है, जगत दो
कोटियों में
विभाजित किया
जा सकता है, और कोई कोटि
नहीं है—एक
ज्ञात और एक
अज्ञात। जो आज
ज्ञात है, वह
कल अज्ञात था;
और जो आज
अज्ञात है, वह कल ज्ञात
हो जायेगा।
अज्ञात की
सीमा रोज
सिकुड़ती जा
रही है। और
ज्ञात की सीमा
रोज बढ़ती जा
रही है। इसी
को विज्ञान
विकास कहता है।
जिस दिन
अज्ञात शून्य
हो जायेगा, बचेगा ही
नहीं, सभी
कुछ ज्ञात हो
जायेगा—उस दिन
विज्ञान अपनी
पराकाष्ठा पर
पहुंच जायेगा,
उस दिन
विज्ञान
गौरीशंकर का
शिखर होगा।
लेकिन
धर्म कहता है, एक और भी
तीसरी श्रेणी
है—अज्ञेय—जिसे
तुम लाख जानो,
तो भी
अनजाना रह
जाता है।
जानते जाओ
जानते जाओ, फिर भी
जानने को शेष
बना ही रहता
है। ऐसा कोई
उपाय नहीं है,
जिसके तुम
दावेदार बन
सको कि मैंने
जान लिया। उस
अज्ञेय को ही 'ईश्वर' कहां
है। इसलिए उसे
कभी भी 'जाना'
नहीं जा
सकेगा।
जाननेवाले
होते रहेंगे,
उसका स्वाद
लेनेवाले
होते रहेंगे,
उसके गीत
गानेवाले
होते रहेंगे;
जिसके हाथ
भी उसकी बूंद
पड़ जायेगी, वही
स्वर्णिम हो
उठेगा। जिसके
हाथ में एक
स्वर लग
जायेगा, वही
ऋषि हो जायेगा।
लेकिन सागर को
छू लेना, सागर
को पा लेना
नहीं है। सागर
में डुबकी भी
मार ली, तो
भी सागर को पा
लेना नहीं है।
सागर में लीन
भी हो गये, तो
भी सागर विराट
है। हम तो
बूंदें हैं।
जानकर
भी—जान—जानकर
भी, फिर
भी जो जानने
को शेष रह
जाता है, वही
धर्म का
रहस्यवाद है।
और ध्यान रखना
: विज्ञान की
विभाजन
प्रक्रिया
खतरनाक है।
उसका अर्थ है
कि एक दिन सब
जान लिया
जायेगा। फिर
क्या करोगे? फिर तो
आत्मघात के
अतिरिक्त कुछ
भी न बचेगा।
इसलिए मनुष्य
जाति जितनी
जानकार होती
जाती है, उतना
ही
आत्महत्याएं
बढ़ती जाती हैं।
जितना
सुशिक्षित
देश होता है, उतनी ज्यादा
आत्महत्याएं!
जितना
सुसंस्कृत
देश समझा जाता
है, उतना
ही आत्मघाती!
क्यों? क्योंकि
जीवन में फिर
कोई रहस्य
नहीं रह जाता।
जब कुछ जानने
को ही नहीं
बचता, सब
जान लिया—पहचान
लिया, तो
अब कल जीकर क्या
करना है? किसलिए
जीना है? क्यों
जीना है? फिर
यही
पुनरुक्ति
करनी होगी? फिर जीवन को
इसी वर्तुल
में घुमाना
होगा। और उसी—उसी
की पुनरुक्ति
ही तो ऊब पैदा
करती है।
सोरेन
कीकेंगार्ड
ने, जो
पश्चिम के
महानतम, महततम
प्रतिभाशाली
लोगों में एक
हुआ—उसनें कहां
है कि 'मनुष्य
की सबसे बड़ी
समस्या ऊब है, बोर्डम है।’
क्यों? इसीलिए
मनुष्य की
सबसे बडी
समस्या ऊब है,
कि जो जान
लिया, उससे
ही ऊब पैदा हो
जाती है। पति
पत्नियों से
ऊबे हुए हैं, पत्नियां
पतियों से ऊबी
हुई हैं!
क्यों? —जान
लिया। अब
जानने को कुछ
बचा नहीं।
पहचान ली एक
दूसरे की
भूगोल, झांक
लिया एक दूसरे
के इतिहास में,
सब परिचित
हो गया। अब
फिर वही—वही
है।
क्यों
लोग एक धर्म
से दूसरे धर्म
में प्रविष्ट
हो जाते हैं? क्यों
हिन्दू ईसाई
बन जाते हैं? क्यों ईसाई
हिन्दू बन
जाते हैं? ऊब
गये पढ़—पढ़कर
गीता, दोहरा—दोहराकर
गीता—बाइबिल
थोड़ी नयी लगती
है! बाइबिल से
ऊब गये—गीता
थोड़ी नयी लगती
है। लोग बदलते
रहते हैं!
मन
हमेशा बदलाहट
की मांग करता
है। मकान बदल
लो; काम
बदल लो; पत्नी
बदल लो; कपड़े
बदल लो फैशन
बदल लो। बदलते
रहो, ताकि
ऊब न पकड़ ले। न
बदलो, तो
ऊब पकड़ती है।
लेकिन ये सब
बदलाहटें ऊब
को मिटा नहीं
पातीं, ढांक
भला देती हों।
धर्म
ही एक मात्र
कीमिया है, जिससे ऊब
सदा के लिए
समाप्त हो
जाती है। किसी
ने बुद्ध को
ऊबा नहीं
देखा! किसी ने
महावीर के
चेहरे पर ऊब
नहीं देखी, उदासी नहीं
देखी, हारापन
नहीं देखा, थकापन नहीं
देखा।
तुम्हारे
तथाकथित धार्मिक
धार्मिक नहीं
हैं। उनके लिए
तो धर्म भी एक
ऊब है। इसलिए
तुम मंदिरों
में, धर्म—सभाओं
में लोगों को
सोते देखोगे।
क्या है वहां
जानने को? रामलीला
लोग देखने
जाते हैं, तो
सोते हैं।
रामलीला तो
पता ही है! सब
वही—वही? बार—बार
देख चुके हैं।
एक
स्कुल में ऐसा
हुआ... गांव में
रामलीला चल
रही थी। सारे
बच्चे
रामलीला
देखने जाते थे।
अध्यापक उनको
दिखाने ले
जाता था। धर्म
की शिक्षा हो
रही थी। और
तभी स्कूल का
इंस्पेक्टर
जांच करने आ
गया। अध्यापक
ने सोचा कि
अभी सब बच्चे
रामलीला देख
रहे हैं, ऐसे अवसर पर
अगर यह
रामलीला के संबंध
में ही कुछ
प्रश्न पूछ ले,
तो अच्छा
होगा।
इंस्पेक्टर
ने पूछा कि
किस संबंध में
बच्चों से
पूछूं? उसने कहां
कि अभी ये रोज
रामलीला
देखते हैं; मैं भी
देखने जाता
हूं इनको
दिखाने ले
जाता हूं। अभी
रामलीला के ही
संबंध में कुछ
पूछ लें।
तो
इंस्पेक्टर
ने कहां, 'यही ठीक।’ तो उसने
पूछा कि 'बताओ
बच्चो, शिवजी
का धनुष किसने
तोड़ा?'
एक
लड़का एकदम से
हाथ हिलाने
लगा ऊपर उठकर।
शिक्षक भी
बहुत हैरान
हुआ, क्योंकि
वह नम्बर एक
का गधा था!
इसने कभी हाथ
हिलाया ही
नहीं था
जिंदगी में!
यह पहला ही
मौका था।
शिक्षक भी
चौंका। मगर अब
क्या कर सकता
था। कहीं यह
भद्द न खुलवा
दे और!
अध्यापक
तो चुपचाप रहा।
इंस्पेक्टर
ने कहां, 'ही बेटा, बोलो।
किसने शिवजी
का धनुष तोड़ा—तुम्हें
मालूम है?'
उसने कहां
कि 'मुझे
मालूम नहीं कि
किसने तोड़ा।
मैं तो इसलिए
सबसे पहले हाथ
हिला रहा हूं
कि पहले आपको
बता दूं कि मैंने
नहीं तोड़ा!
नहीं तो कोई
भी चीज टूटती
है कहीं—घर
में कि बाहर, कि स्कूल
में—मैं ही
फंसता हूं। अब
यह पता नहीं, किसने तोड़ा
है!'
इंस्पेक्टर
तो अवाक रहा
कि यह कैसी
रामलीला देखी
जा रही है!
इसके पहले कि
कुछ बोले, सम्हले
कि शिक्षक
बोला कि 'इंस्पेक्टर
साहब, इसकी
बातों में मत
आना। इसी
हरामजादे ने
तोड़ा होगा! यह
सामने देख रहे
हैं आप
गुलमोहर का
झाड़, इसकी
डाल इसी ने
तोड़ी। यह
खिड़की देख रहे
हैं, काच
टूटा हुआ—इसी
ने तोड़ा! यह
मेरी कुर्सी
का हत्था देख
रहे हैं—इसी
ने तोड़ा। यह
देखने में
भोला— भाला
लगता है; शैतान
है शैतान! मैं
तो कसम खाकर
कह सकता हूं
कि मैं इसकी
नस—नस पहचानता
हूं। इसी
हरामजादे ने
तोड़ा है!'
इंस्पेक्टर
तो बिलकुल
भौंचक्का रह
गया कि अब करना
क्या है! अब
कहने को भी
कुछ नहीं बचा।
‘और', शिक्षक ने कहां,
'आप अगर
मेरी न मानते
हों, तो और
लड़कों से पूछ
लो?' लड़कों
ने कहां कि 'जो गुरु जी
कह रहे हैं, ठीक कह रहे
हैं!'
एक
लड़के ने अपनी टांग
बतायी कि यह
जो पलस्तर
बंधा है; 'इसी ने मेरी
टल तोड़ी!
शिवजी का धनुष
अगर कोई तोड़
सकता है, तो
यही लड़का है।
यह जो चीज न
तोड़ दे...!'
इंस्पेक्टर
तो वहां से
भागा। प्रधान
अध्यापकसे
जाकर उसने कहां
कि 'यह
क्या माजरा है?'
लेकिन
प्रधान
अध्यापक बोला
कि 'अब
आप ज्यादा
खयाल न करें।
अरे, ये तो
लड़के हैं ,चीजें
तोड़ते ही रहते
हैं। लड़के ही
ठहरे। आप इतने
व्यथित न हों।
अब यह तो
स्कूल है।
हजार लड़के
पढ़ते हैं। अब
तोड़ दिया होगा
किसी ने शिवजी
का धनुष! और जरूरत
भी क्या है
शिवजी के धनुष
की! अरे टूट
गया—तो टूट
गया! भाड़ में
जाये शिवजी का
धनुष। आप
क्यों चिंता
कर रहे हैं।’ उसकी तो
सांसें रुकने
लगीं कि क्या
रामलीला हो
रही है गांव
में! और सारा
स्कूल जा रहा
है। अध्यापक,
प्रधान
अध्यापक—सब
रामलीला
देखने जा रहे
हैं। वह वहां
से भागा, सीधा
म्युनिसिपल
कमेटी के
दफ्तर में
पहुंचा, जिसका
कि स्कूल था।
और उसने कहां...
कि उसको कहूं
कि शिक्षा
समिति का जो
अध्यक्ष है..., 'उससे मिलना
चाहता हूं।’ उसने कहां
कि उसको कहूं
कि यह क्या
माजरा—यह क्या
शिक्षा हो रही
है।
मगर
इसके पहले... वह
पूरी बात कर
भी नहीं पाया
था.. .उसने कहां
कि 'आप
फिक्र न करो।
अरे, जुड़वा
देंगे। टूट
गया, तो
जुड़वा देंगे!
ऐसा कौन
करोड़ों का
दिवाला निकल
गया है। अब यह
तो टूटती—फूटती
रहती हैं
चीजें; जुड़ती
रहती हैं! और
हम किसलिए
बैठे हैं? कहां
है धनुष? एक
बढ़ई को तो
हमें लगाये ही
रखना पड़ता है।
स्कूल में
कहीं कुर्सी
टूटी, कहीं
टेबल टूटी, कहीं कुछ
टूटा, कहीं
कुछ टूटा। जोड़
देगा धनुष को।
इसमें इतने
क्यों आप
पसीना—पसीना
हो रहे हैं!'
रामलीला
सब देख रहे
हैं। मगर यह
बात... यह कहांवत
सच है कि लोग
रातभर
रामलीला
देखते हैं' और सुबह
पूछते हैं कि
सीतामैया
रामजी की कौन
थीं।.. —क्योंकि
देखता कौन है?
लोग सोते
हैं। इतनी बार
देख चुके हैं
कि अब ऊब पैदा
हो गयी है।
कोई नयी घटना
घट जाये, तो
भला देख लें।
जैसे
एक रामलीला
में यह हुआ कि
हनुमानजी गये
तो थे लंका
जलाने, अयोध्या को
जला दिया! तो
सारी सभा आंख
खोलकर बैठ
गयी! लोग खड़े
हो गये। कि
भैया, क्या
हो रहा है?
रामजी
बोले कि 'अरे
हनुमानजी, तुम
बंदर के बंदर
ही रहे! तुमसे
किसने कहां, अयोध्या
जलाने को?'
हनुमानजी
भी गुस्से में
आ गये!
उन्होंने कहां
कि 'तुम
भी समझ लो साफ
कि मुझे दूसरी
रामलीला में
ज्यादा तनखाह
पर नौकरी मिल
रही है। मैं
कुछ डरता नहीं।
जला दी। कर लो,
जो कुछ करना
हो। बहुत दिन
जला चुका लंका।
बार—बार लंका
ही लंका जलाओ!
मैं भी ऊब गया।
कर ले जिसको
जो कुछ करना
है।’
वह था
गांव का
पहलवान, उसको कोई
क्या करे!
रामजी तो छोटे—से
लड़के थे। उसने
कहां, 'वह
धौल दूंगा कि
छठी का दूध
याद आ जायेगा!
है कोई माई का
लाल, जो
मुझे रोक ले!
जला दिया
अयोध्या—कर ले
कोई कुछ!'
बामुश्किल
परदा गिराकर, समझा—बुझाकर
उसको कहां कि '
भैया, अब
तू घर जा।
तुझे दूसरी
रामलीला में
जगह मिल गयी
है, वहां
काम कर!'
उस रात
गांव में जरा
चर्चा रही!
लोगों ने आंख
खोलकर देखा।
नहीं तो किसको
पड़ी है—अब
लंका जलती ही
रहती है!
आदमी
का मन नये की
तलाश करता है।
विज्ञान के
हिसाब से तो
नया बहुत दिन
बचेगा नहीं।
कब तक नया
बचेगा! इसलिए
विज्ञान उबा
ही देगा।
इसलिए पश्चिम
में जितनी ऊब
है, पूरब
में नहीं है।
क्योंकि पूरब
विज्ञान में
पिछड़ा हुआ है।
पश्चिम में
जैसी उदासी
छायी जा रही
है, लोगों
को जीवन का
अर्थ नहीं
दिखायी पड़ रहा
है। सब अर्थ
खो गये हैं।
वैसा पूरब में
नहीं हुआ है
अभी। लेकिन
होगा—आज नहीं
कल। पूरब जरा
घसीटता है, धीरे—धीरे
घसीटता है; पहुंचता
वहीं है, जहां
पश्चिम। मगर
वे जरा तेज
गति से जाते
हैं; यह
बैलगाड़ी में
चलते हैं।
पहुंच रहे हैं
वहीं। हम भी
विज्ञान की
शिक्षा दे रहे
हैं।
मैं
कोई विज्ञान
के विरोध में
नहीं हूं। मैं
चाहता हूं
विज्ञान की
शिक्षा होनी
चाहिए। लेकिन
यह भ्रांति
होगी कि विज्ञान
धर्म का स्थान
भरने लगे।
धर्म
की तीसरी कोटि
तो हमारे खयाल
में बनी ही रहनी
चाहिए कि कुछ
है, जो
रहस्यमय है।
और कुछ है जो
ऐसा रहस्यमय
है कि हम जान—जानकर
भी न जान
पायेंगे। जान
लेंगे, और
कह न पायेंगे।
पहचान लेंगे,
और बता न
पायेंगे।
जानेंगे, कि
गूंगे हो
जायेंगे—गूंगे
का गुड़ हो
जायेगा।
स्वाद तो आ
जाएगा, मगर
बोल भी न
सकेंगे। जो
बोलेगे—सो गलत
होगा।
लाओत्सु
ने कहां है, 'मत पूछो
मुझसे सत्य की
बात। क्योंकि
सत्य के संबंध
में कुछ भी
कहो, कहते
से ही गलत हो
जाता है; असत्य
हो जाता है।
क्योंकि सत्य
इतना विराट है
और शब्द इतने
छोटे हैं।
निरुक्त
कोई धर्म की
अनुभूति पर
आधारित शास्त्र
नहीं है। वह
तो भाषा, व्याकरण—उनका
गणित है।
निश्चित ही
गणित तर्क का
ही विस्तार
होता है।
इसलिए इस
परोक्ष कथा से
निरुक्त यह कह
रहा है कि अब
ऋषियों की कोई
जरूरत नहीं है।
जा चुके दिन!
मगर भारतीयों
के कहने के
तंग भी बेईमान
होते हैं!
सीधी बात भी
नहीं कहेंगे।
नाहक देवताओं
को घसीट लाये।
यहां कोई सीधी
बात कहता ही
नहीं! यहां
सीधी बात कहो,
तो लोगों को
जहर जैसी लगती
है। यहां तो
गोल घुमा—फिराकर
कहो कि किसी
को पता ही
नहीं चले—क्या
कह रहे हो! और
पता भी चल
जाये, तो
उसके कई अर्थ
किये जा सकें!
अब
देवताओं की
कोई जरूरत
नहीं है इसमें।
और देवताओं को
क्या खाक पता
है! कोई देवता
ऋषियों से ऊपर
हैं? देवता
ऋषियों से ऊपर
नहीं हैं। ऋषि
से ऊपर तो कोई
भी नहीं है।
हमारा
देश अकेला देश
है इस अर्थ
में जिसके पास
कवि के लिए दो
शब्द हैं : एक
कवि और एक ऋषि।
दुनिया की
किसी भाषा में
कवि के लिए दो
शब्द नहीं हैं।
क्योंकि
कविता का
दूसरा रूप ही
किसी भाषा में
नहीं निखरा।
वह बात ही
नहीं उतरी
पृथ्वी पर।
इसमें एक ही
शब्द है—कविता
या कवि। ऋचा
और ऋषि—बड़ी और
बात है! उस भेद
को खयाल में
लो, तो
समझ में बहुत
कुछ आ सकेगा।
कवि हम
उसे कहते हैं, जिसे कभी—कभी
झरोखा खुल
जाता—सत्य की
थोड़ी सी झलक
मिल जाती—स्व
किरण। आंख में
एक ज्योति
जगमगा जाती और
तिरोहित हो
जाती। फिर गहन
अंधेरा हो
जाता है। कवि
को पता भी
नहीं है, यह
क्यों होता है,
कैसे होता
है। यह उसके
हाथ के... बस की
बात भी नहीं
है कि जब वह
चाहे, तब
हो जाये। यूं
अगर कोई कविता
लिखने बैठे, तो तुकबंदी
होगी—कविता
नहीं होगी।
तुकबंदी
कोई भी कर
सकता है। और
इधर तो नयी
कविता चली है, उसमें
तुकबंदी की भी
जरूरत नहीं है।
इसलिए कोई भी
मूढ़ कवि हो
जाता है! अब तो
कवि होने में
भी अड़चन न रही—ऋषि
होना तो दूर
बात है। अब तो
कवि होने में
भी अड़चन नहीं
है। अतुकांत
कविता! अब तो
तुक भी नहीं
बिठानी पड़ती!
अब तो कुछ भी
उल्टा—सीधा
जोड़ो! कविता
बनाने में कोई
अड़चन नहीं है।
इसलिए इतने
कवि हैं! गांव—गांव,
मोहल्ले—मोहल्ले
इतने कवि—सम्मेलन
होते हैं!
सुननेवाले
नहीं मिलते!
और सुननेवाले
भी क्या आते
हैं! सब गांव
के सड़े टमाटर,
अंडे, केलों
के छिलके—सब
ले आते हैं, क्योंकि
कवियों का
स्वागत करना
पड़ता है!
असल
में जिस गांव
में कवि—सम्मेलन
होता है, कवि पहले
जाते हैं
सब्जी—मंडी
में और सब
खरीद लेते
हैं! ताकि फेंकने
को कुछ बचे ही
नहीं! और जनता
केवल एक काम
करती है—हूट
करने का!
कविताओं
में है भी
क्या अब!
कविता भी नहीं
है उसमें।
ऋचाओं की तो
बात ही बहुत
दूर हो गई!
कवि हम
उसको कहते थे, जिसके
जीवन में
अनायास, बिना
किसी साधना के,
पता नहीं
क्यों, एक
रहस्य की
भांति, कभी—कभी
किसी रंध्र से
कोई किरण
प्रवेश कर
जाती है। और
वह किरण को
बांध लेता है
शब्दों में।
किरण को धुन
दे देता है।
किरण को गीत
बना लेता है।
कूलरिज
मरा, अंग्रेज
महाकवि, तो
कहते हैं, चालीस
हजार कविताएँ
उसके घर में
अधूरी मिलीं।
सारा घर अघूरी
कविताओं से भरा
था। और उसके
मित्र जानते
थे, और वे
मित्र उससे
कहते थे कि 'इनको पूरा
क्यों नहीं
करते!'
लेकिन
कूलरिज
ईमानदार कवि
था। वह कहता, 'मैं कैसे
पूरा करूं!
कोई कविता
उतरती है, कुछ
पंक्तियां
उतरती हैं, फिर नही
उतरती आगे, तो मैं अपनी
तरफ से नहीं
जोडगू।।
कविता जब
उतरेगी—उतरेगी।
जब आयेगी, तब
आयेगी। जितनी
आ गई, उतनी
मैंने लिख दी।
अब प्रतीक्षा
करूंगा।
क्योंकि जब भी
मैंने जोड़ा है,
तभी मैंने
पाया कि कविता
खो जाती है।
वह जो रहस्य
होता है, रस
होता है, सूख
जाता है। मेरे
द्वारा जोड़ा
गया अलग दिखाई
पड़ता है।’
ऐसा
रवींद्रनाथ
के जीवन में
हुआ। जब
उन्होंने
गीतांजलि
अंग्रेजी में
अनुवादित की, तो
उन्हें थोड़ा—सा
संदेह था कि
पता नहीं
अंग्रेजी में
बात पहुंच
पायी या नहीं,
जो बंगला
में थी! तो सी.
एफ. एन्डूरूज़
को अपनी
अंग्रेजी
अनुवाद की
गीतांजलि
दिखाई। एन्डूरूज़
ने कहां कि 'और तो सब ठीक
है, चार जगह
भाषा की भूलें
हैं। ये सुधार
लें।
जो एन्डूरूज़
ने सुझाया, वह
रवींद्रनाथ
ने बदल दिया।
स्वभावत: वह
उनकी
मातृभाषा
नहीं थी
अंग्रेजी। और एन्डूरूज़
विद्वान
पुरुष थे; भाषा
पर उनका
अधिकार था। जो
कह रहे थे, ठीक
कह रहे थे।
रवींद्रनाथ
को यह बात
जंची।
फिर जब
उन्होंने
योरोप में
पहली दफा
कवियों की एक
छोटी—सी
गोष्ठी में
जाकर गीताजलि
का अनुवाद
सुनाया, तो वे बड़े
हैरान हुए।
भरोसा न आया।
एक युवक कवि
खड़ा हुआ, यीटस
उसका नाम था, और उसने कहां
कि 'कविता
बड़ी मधुर है।
अद्भुत है।
नोबल
पुरस्कार इस
पर मिलेगा आज
नहीं कल।’ यीट्स
ने यह मिलने
के पहले कह
दिया था।
भविष्यवाणी
कर दी थी कि 'इस सदी में
अंग्रेजी में
कोई इतना
अद्भुत काव्य
नहीं लिखा गया
है। लेकिन चार
जगह भूल है।’
रवींद्रनाथ
ने कहां, 'कौन—सी चार
जगह? सुधार
लेता हूं।’
हैरान
हुए वे तो। वे
ही चार जगह
थीं, जहां
सी. एफ एन्डूरूज़
ने सुधार
करवाया था।
रवींद्रनाथ
ने कहां, 'आप
क्या कह रहे
हैँ! ये तो वे
जगहें हैं, जहां मैंने
भूलें की थीं
और सी. एफ. एन्डूरूज़
ने सुधार करवा
दिया है!'
यीट्स
ने पूछा कि 'आप
बताइये, आपने
क्या शब्द
पहले रखे थे।’
रवींद्रनाथ
ने अपने
पुराने शब्द
बताये। उनको
ही काटकर तो
उन्होंने नये
शब्द लिख दिये
थे।
यीट्स
ने कहां कि 'आपके
शब्द भाषा की
दृष्टि से गलत
हैं, लेकिन
काव्य की
दृष्टि से सही
हैं। वे
चलेंगे। एन्डूरूज़
के शब्द भाषा
की दृष्टि से
सही हैं, लेकिन
काव्य की
दृष्टि से गलत
हैं। वे नहीं
चलेंगे। वे
पत्थर की तरह
पड़े हैं।
उनमें आपकी जो
सतत धारा है
काव्य की, विच्छिन्न
हो गई, टूट
गई। वे दीवाल
की तरह अड़ गये
हैं।’
एन्डूरूज़
ने भाषा की
दृष्टि से
बिलकुल ठीक कहां
है, लेकिन
कविता भाषा
थोडे ही है।
भाषा से कुछ
ऊपर है। जो
भाषा में आ
जाता है, उसे
तो हम गद्य में
लिख देते हैं।
जो भाषा में
नहीं आता, उसे
पद्य में
लिखते हैं।
पद्य का अर्थ
ही यही है कि
गद्य में नहीं
बंधता। गाना
होगा, गुनगुनाना
होगा। नृत्य
देना होगा।
तर्क के जाल
को थोड़ा ढीला
करना होगा।
व्याकरण की
उतनी चुस्ती
नहीं रखनी
होगी, जितनी
गद्य पर होती
है। इसलिए कवि
को
स्वतंत्रता
होती है थोड़ी,
शब्दों को
तोड़ने—मरोड़ने
की; शब्दों
को नये अर्थ, नयी भाव—
भंगिमाएं
देने की; नयी
मुद्रायें
देने की; शब्दों
को नया रस
देने की।
यीट्स
ने कहां, 'आप अपने
शब्द वापस
रखें। आपके
शब्द प्यारे
हैं। वे उतरे
हैं।’ इसलिए
हमने वेदों को
अपौरुषेय कहां
हैं।
अपौरुषेय का
अर्थ होता है :
हमने लिखा
जरूर, मगर
हम सिर्फ
लिखनेवाले थे,
हम रचयिता न
थे, लेखक
थे। रचयिता तो
परमात्मा था।
वह बोला—हमने
लिखा।
गुनगुनाया—हमने
भाषा में
उतारा। हम तो
केवल माध्यम
थे, हम
स्रष्टा न थे।
यह
वेदों के
अपौरुषेय
होने की बात
प्रीतिकर है।
सारा काव्य
अपौरुषेय
होता है। आती
है बात किसी
अज्ञात लोक से, तुम्हारे
प्राणों को
थरथरा जाती है।
कही थरथराहट
जब तुम देने
में समर्थ हो
जाते हो भाषा
को,. तो
कविता का जन्म
होता है।
लेकिन
काव्य
आकस्मिक है।
तुम उसके
मालिक नहीं हो।
रवींद्रनाथ
महीनों कविता
नहीं लिखते थे।
और कभी ऐसा
होता था ?? फिर दिनों
लिखते रहते थे।
तो द्वार—दरवाजे
बंद कर देते
थे। तीन—तीन
दिन तक खाना
नहीं खाते थे,
स्नान नहीं
करते थे, क्योंकि
कहीं धारा न
टूट जाये। तो
घर के लोगों
को सूचना थी
कि जब वे
द्वार—दरवाजे बंद
कर लें, तो
कोई दस्तक भी
न दे, कि
धारा न टूट
जाये।
क्योंकि
नाजुक मामला
है! बड़े
सूक्ष्म
तंतुओं में
उतरती है
कविता, जैसे
मकड़ी का जाला,
जरा सै
धक्के में टूट
जा सकता है।
फिर लाख बनाओ,
न बनेगा।
कौन आदमी है, जो मकड़ी का
जाला बना दे!
कितना ही कुशल
हो।
तो
रवींद्रनाथ
भूखे—प्यासे, बिना
नहाये— धोये
सोते नहीं थे,
इस डर से कि
पता नहीं, जो
धारा बह रही
है, वह
कहीं रात खो न
जाये! कहीं
सपनों के कारण
बाधा न आ जाये।
लिखते ही रहते
थे; लिखते
ही जाते थे—पागल
की तरह। हा, जब धारा
अपने आप रुक
जाती थी, तब
वे रुकते थे।
फिर लौटकर देखते
थे कि क्या
उतरा। फिर
प्रत्यभिज्ञा
करते थे कि यह
उतरा, ऐसा
उतरा।
सच्चा
कवि सुधार
नहीं करता।
क्योंकि
सुधार
करनेवाले तुम
कौन हो! तुमसे
जो आया ही
नहीं, तुम
उसमें कैसे
सुधार करोगे?
वह तो अपने
हाथ परमात्मा
के हाथ में
छोड देता है, वह जो चाहे
लिखवा ले। वह
जो चाहे, बोला
ले।
लेकिन
इसके ऊपर भी
एक काव्य का
लोक है, जिसको हम
ऋचा का लोक
कहते हैं—ऋषि
का लोक। ऋषि
वह है जिसके
जीवन में
कविता
आकस्मिक नहीं
है। जिसके
जीवन में
कविता शैली हो
गई। जिसका
उठना काव्य है,
जिसका
बैठना काव्य
है। जो बोले, तो काव्य; जो न बोले, तो काव्य।
जिसके मौन में
भी काव्य है।
जिसके पास तुम
बैठो, तो
तुम्हारे
हृदय की वीणा
बजने लगे।
जिसका हाथ तुम
हाथ में ले लो,
तो
तुम्हारे
भीतर ऊर्जा का
एक प्रवाह हो
जाये।
कविता
पढ़कर कवि से
मिलने कभी मत
जाना., क्योंकि
अकसर यह होगा
कि कविता पढ़कर
तो तुम बहुत
आह्लादित हो
जाओगे; कवि
से मिलकर बहुत
उदास हो
जाओगे!
क्योंकि काव्य
को पढ़कर तो
ऐसा लगेगा कि
किसी अपूर्व
व्यक्ति से
मिलने जा रहे
हैं। और जब
तुम कवि को
मिलोगे, तो
तुम बहुत
हैरान होओगे।
हो सकता है, तुमसे गया—बीता
हो। बैठा हो
किसी शराबघर
मैं, शराब
पी रहा हो।
गालियां बक
रहा हो; कि
नाली में पड़ा
हो; कि
झगडा—झांसा कर
रहा हो।
तुम
कभी भूलकर भी
कविता पढकर
कवि से मिलने
मत जाना, नही तो
कविता पर
तुम्हें जो
आनंद— भाव जगा
था, वह मिट
जायेगा। जैसे
खलील जिब्रान
की अगर तुमने
किताबें पढ़ी;
खलील
जिब्रान से
मिलने मत जाना।
क्योंकि जो भी
खलील जिब्रान
से मिले, उनको
बहुत उदास हो
जाना पड़ा। कहां
खलील जिब्रान
की किताब 'प्राफेट',
जिसका एक—एक
शब्द हीरों
में तोला जाये;
ऐसा है।
लेकिन खलील
जिब्रान से
मिलोगे, तो
वह साधारण
आदमी है—वही
क्रोध, वही
ईर्ष्या, वही
वैमनस्य, वही
अहंकार, वही
झगड़ा—फसाद, वही तिकड़म
बाजियां, वही
राजनीति—सब
वही, जो
तुम में है; और उससे भी
गया—बीता!
ऐसा
अकसर हो जाता
है ना! रास्ते
पर तुम जा रहे
हो अंधेरे में।
अंधेरे में
चलते—चलते
अंधेरे में भी
थोड़ा दिखाई
पढ़ने लगता है।
फिर पास से ही
कोई कार गुजर
जाये। तेज
रोशनी
तुम्हारी आंखों
में भर जाये।
एक क्षण को
तुम तिलमिला
जाते हो। कार
तो गई। आयी और
गई। लेकिन एक
हैरानी की बात
पीछे अनुभव
होती है कि
कार के चले
जाने के बाद
अंधेरा, और अंधेरा
हो गया! इतना
अंधेरा पहले न
था। अंधेरा तो
वही है, मगर
तुम्हारी आंखों
ने रोशनी जो
देख ली। अब
तुम्हारी आंखों
को फिर से इस
अंधेरे को
देखने में
तुलना पैदा हो
गई।
तो
अकसर यह होता
है. कवि उडान
भरता है आकाश
की, क्षणभर
को। और फिर जब
गिरता है, तो
तुमसे भी नीचे
के गड्डे में
गिर जाता है!
उसकी आंखों
में चकाचौंध
भर जाती है।
इसलिए कवियों
के जीवन बड़े
साधारण होते
हैं; बडे
क्षुद्र होते
हैं।
मैं
बहुत कवियों
को जानता हूं।
उनकी कविताएं
प्यारी हैं।
उनकी कविताओं
के मैं कभी
उल्लेख करता
हूं उद्धरण
देता हूं। मगर
उन कवियों के
नाम नहीं लेता।
मुझसे कई दफे
पूछा गया है
कि 'मैं
किसी कवि का
जब उल्लेख
करता हूं तो
नाम क्यों
नहीं लेता?' नाम इसिलए
नहीं लेता, कि कविता ही
तुम समझो, उतना
ही अच्छा है।
कवि को भूलो।
कवि को बीच
में न लाओ।
क्योंकि वह
कवि किसी क्षण
में कवि था, फिर तो वह
साधारण आदमी
है। क्षणभर को
उछला था। पंख
लग गये थे।
फिर क्षणभर
बाद गिर पडा
है। और जब
गिरता है कोई
उछलकर, तो
हड्डी—पसली
टूट जाती है।
जब उछलकर कोई
गिरता है, तो
चारों खाने
चित्त गिरता
है। तुम समतल
भूमि पर चलते
हो। कवि की
जिंदगी कभी
पहाडों पर, और कभी
खाइयों में।
वह समतल भूमि
पर चलता ही
नहीं।
ऋषि वह
है, जिसने
पहाड़ों पर ही
चलने की कला
सीख ली। जो एक
शिखर से दूसरे
शिखर पर पैर
रखता है।
जिसके लिए
पहाड़ों की
ऊंचाइयां ही
अब समतल भूमि
हो गई हैं।
कवि की
कोई साधना
नहीं होती।
उसका कोई योग
नहीं होता।
उसका कोई
ध्यान नहीं
होता; कोई
प्रार्थना
नहीं होती; कोई पूजा
नहीं, कोई
अर्चन नहीं।
वह तुम्हारे
जैसा ही
व्यक्ति है।
पता नहीं किन
पिछले जन्मों
के पुण्य के
कारण कभी
झरोखे खुल
जाते हैं। पता
नहीं क्यों!
उसे पता नहीं
है कि क्यों
द्वार खुल
जाता है; अचानक
सूरज झांक
जाता है! पानी
की बूंदें बरस
जाती हैं।
आकाश के तारे
दिखाई पड़ जाते
हैं। कैसे
द्वार खुलता
है, इसका
भी उसे पता
नहीं; कैसे
द्वार बंद हो
जाता है, इसका
भी उसे पता
नहीं। क्यों
उसके जीवन में
कभी काव्य का
आकाश खुल जाता
है और क्यों
सब बंद हो
जाता है —उसे
कुछ भी पता
नहीं है।
ऋषि के
हाथ में चाबी
है। वह जानकर
द्वार खोलता
है। उसे पता
है—आकाश तक
जाने का
रास्ता। उसकी
साधना है।
उसने अपने को
निखारा है।
उसने आकाश और
अपने बीच एक
तालमेल
बिठाया है।
उसकी आत्मा और
आकाश एक हो
गये हैं। भीतर
का आकाश बाहर
के आकाश से
मिल गया है।
उसमें कोई भेद
नहीं रह गया।
अभेद हो गया
है, अद्वैत
हो गया है।
कवि
में से तो कभी—कभी
ईश्वर बोलता
है; कभी—कभी।
जब कवि बोलता
है, तो सब
साधारण होता
है। और जब कभी
अपने को मिला
देता है, तो
कचरा हो जाता
है। उसकी
श्रेष्ठ
कविता में भी
कचरा आ जाता
है।
ऋषि
में से ईश्वर
नहीं बोलता; ऋषि तो
स्वयं ईश्वर
के साथ एक हो
गया है। ऋषि
माध्यम नहीं
है। कवि
माध्यम है।
ऋषि तो स्वयं
ईश्वर है। वह
भगवद्—स्वरूप
है।
इसलिए
यह बात तो मैं
मानने को राजी
नहीं हूं कि
ऐसा कोई दिन
आया, जिस
दिन ऋषिजन इस
जगत से जाने
लगे। अभी भी
नहीं गये। यह
मैं अपने
अनुभव से कहता
हूं।
यह
निरुक्त का
श्लोक जब लिखा
गया, उसके
बाद कितने ऋषि
हो चुके!
बुद्ध हुए, महावीर हुए,
गोरख हुए, कबीर हुए, नानक हुए, फरीद हुए, दादू हुए—यह
तो भारत की
बात हुई। भारत
के बाहर भी
हुए। जीसस हुए,
मोहम्मद
हुए! मोहम्मद
से बड़ा कोई
ऋषि हुआ! कुरान
जैसी ऋचाएं
उतरी कहीं!
कुरान की
ऋचाओं का जो
रस है, जो
तरन्नुम है,
उनकी जो
गेयता है, वह
किसी और शास्त्र
में नहीं।
तुम
कुरान न भी
समझो, उसकी
एक खूबी, लेकिन
अगर कोई कुरान
को गाकर
तुम्हें सुना
दे, तो तुम
डोल जाओगे। अब
शराब को कोई
समझना थोड़े ही
पड़ता है कि
कैसे बनती है।
पी ली—कि डोले।
शराब का कोई
अर्थ थोड़े ही
जानना होता है,
कि कैसे मह
से ढली! कि किस
देश के अण से
ढली! पिओगे—और
जान लोगे—ऐसी
कुरान है।
कुरान
को पढ़ना नहीं
चाहिए। जो
कुरान को पढ़ता
है, वह
चूक जाता है।
कुरान तो गायी
ही जा सकती है।
कुरान को पढ़ा
कि मजा ही चला
गया। उसका
सारा राज गेय
में है।’कुरान'
शब्द का भी
अर्थ होता है—गा।
कुरान शब्द का
भी अर्थ होता
है—गा, गुनगुना।
मोहम्मद
पर जब पहली
दफा कुरान
उतरी, तो
मोहम्मद बहुत
घबड़ा गये। क्योंकि
आकाश से कोई
वाणी जैसे गुंजने
लगी कि गा—गुनगुना!
उठ—क्या सोया
पड़ा है!
मोहम्मद ने कहां,
'न मैं पढ़ा
हूं न मैं
लिखा हूं! न
मुझे
शास्त्रों का
कुछ पता है!'. वे बे —पढ़े —लिखे
आदमी थे— 'मैं
क्या
गुनगुनाऊं, मैं कैसे
गाऊं?'
लेकिन
आवाज आयी, 'तू फिक्र
छोड़
शास्त्रों की।
शास्त्रों को
जाननेवाले कब
गुनगुना पाते
हैं! कब गा
पाते हैं! तू
तो गा। अरे, पक्षी गाते
हैं। कोयल
गाती है।
पपीहा गाता है।
तू गा। तू
गुनगुना। तू
संकोच छोड़।’
वे तो
इतने घबड़ा गये
कि घर आकर
उन्होंने
पत्नी से कहां
कि 'मेरे
ऊपर दुलाइयों
पर दुलाइयां
डाल दो। मुझे
बुखार चढ़ा है!
मेरे हाथ—पैर
थरथरा रहे हैं।
मुझे ठण्ड लग
रही है। बहुत
शीत लग रही है।
मैं कंपा जा
रहा हूं।’
पत्नी
ने कहां, 'क्या हुआ!
तुम अभी — अभी
ठीक गये थे!'
जो
शब्द मोहम्मद
ने कहे, वे बड़े
प्यारे हैं।
अगर वे भारत
में हुए होते,
तो
उन्होंने एक
शब्द नहीं कहां
होता। लेकिन
मजबूरी थी; वे भारत में
नहीं पैदा हुए
थे।
उन्होंने
कहां कि 'मुझे लगता
है, या तो
मैं पागल हो
गया—या कवि हो
गया!'
अगर
भारत में पैदा
होते, तो
वे कहते, 'या
तो मैं पागल
हो गया—या ऋषि
हो गया।’
लेकिन
क्या...! मजबूरी
थी। अरबी में
ऋषि के लिए
कोई शब्द नहीं
है। कवि ही
एकमात्र शब्द
था। मगर तुम
सुनो।
उन्होंने कहां
कि 'बस, दो में से
कुछ एक बात हो
गयी है। या तो
मैं पगला गया!
मेरे भीतर ऐसी
गज उठ रही है, जो कि मेरी
है ही नहीं! जो
मैंने कभी
जानी नहीं; पहचानी नहीं।
मेरी तैयारी
नहीं! मगर
झरनों पर झरने
फूट रहे हैं!
कोई मेरे
प्राणों को
धक्के दे रहा
है। कह रहा है —गा—गुनगुना!
गुनगुनाऊं!
गाऊं! या तो
मैं पागल हो गया—या
कवि हो गया!'
मैं
तुमसे कहता
हूं अगर वे
भारत में यहां
पैदा होते, तो
उन्होंने कहां
होता, या
तो मैं पागल
हो गया—या ऋषि
हो गया!
क्योंकि उसके
बाद
गुनगुनाहट चलती
रही, चलती
रही। कुरान एक
दिन में नहीं
लिखी गयी, वर्षों
लगे। ऋचाएं
उतरती रहीं।
जिसको
मुसलमान आयत
कहते हैं, उसको
ही हम ऋचा
कहते हैं।
ऋचायें उतरती
रहीं।
मोहम्मद
ऋषि हैं।
तो कौन
कहता है? लाख निरुक्त
कहे, मैं
मानने को राजी
नहीं।
निरुक्त लिखी
गई, इसके
बाद चीन में
लाओत्सु हुआ।
च्चांग्त्सु
हुआ, लाहुत्सु
हुआ! क्या
अद्भुत लोग
हुए! जिनके एक—एक
शब्द में
स्वर्ग का
राज्य समाया
हुआ है।
और तुम
कहते हो, 'ऋषिजन जब
जाने लगे...!' कभी
गये नहीं।
नानक
को तो अभी
पांच सौ साल ही
हुए हैं। नानक
के शब्द—शब्द
में ऋचा है, गीत है।
नानक तो गलत
आदमियों के
हाथों में पड़
गये; सैनिकों
के हाथ में पड़
गये!
संन्यासियों
के हाथ में
पड़ना था। कहां
तलवारें
चमकने लगीं!
नानक के हाथ
में कोई तलवार
नहीं थी कभी।
नानक
के साथ तो
उनका एक शिष्य
था—मरदाना—उनका
साजिन्दा था
वह। उसके हाथ
में तो एकतारा
था। कहां नानक, कहां
उनका
साजिन्दा
मरदाना—कहां
एकतारा—और
कहां आज का सिक्ख!
कि जरा कुछ कह
दो कि वह एकदम
कृपाण
निकालने को तैयार
है! जरा में
तलवारें
चमकाने लगे!
नानक
गाते फिरे।
उनके शब्द गेय
हैं। गाये जा
सकते हैं। और
बड़े प्यारे
हैं। नानक के
गाने के कारण
एक नयी भाषा
पैदा हो गई।
क्योंकि नानक
जैसा व्यक्ति
जब गाता है, तो वह
किसी पुरानी
भाषाओं के
नियम थोड़े ही
मानता है।
गुरुमुखी
पैदा हो गई।
'गुरुमुखी'
शब्द तुम
समझते हो—गुरु
के मुख से जो
निकली— भाषा
का नाम भी
गुरुमुखी!
शुद्ध
हिन्दी कठोर
होती है।
शुद्ध हिन्दी
में कोने होते
हैं। पंजाबी
में एक
माधुर्य है, एक मिठास
है। शुद्ध
नहीं है
पंजाबी, बिलकुल
अशुद्ध है।
निरुक्त से
पूछो, तो
अशुद्ध है।
लेकिन
निरुक्त से
पूछो क्यों? किसी ऋषि से
पूछो, तो
वह कहेगा, 'भाषा
का क्या लेना—देना
है? यह
गायक की
स्वतंत्रता
है। और यह
हमेशा दुनिया
में रही है।’
महावीर
संस्कृत में
नहीं बोले, क्योंकि
संस्कृत बड़ी
व्याकरणबद्ध
है। और इतनी
व्याकरण की
सीमाएं हैं कि
स्वतंत्रता
बरतनी बड़ी
मुश्किल है।
महावीर
प्राकृत में
बोले।
प्राकृत
और संस्कृत
शब्द भी बड़े
विचारणीय हैं।’प्राकृत'
का अर्थ
होता है :
जिसको सहज, साधारण लोग
बोलते हैं। जो
स्वाभाविक है।
संस्कृत का
अर्थ होता है :
जिसमें
स्वाभाविकता
को काट—छांटकर
संस्कार दे
दिया गया।
सुधार दे दिया
गया; जिसको
ढांचा दे दिया
गया; जो
प्राकृत आदमी
की भाषा नहीं —है।
बुद्ध
संस्कृत में
नहीं बोले; पाली में
बोले। पाली का
अपना माधुर्य
है।
नानक
से एक नयी
भाषा का जन्म
हो गया—गुरुमुखी।
गायी—गुनगुनायी।
ये ऋषि
तो पैदा होते
रहे। निरुक्त
गलत कहता है।
सहजानन्द!
मैं निरुक्त
से राजी नहीं।
तुम कहते हो
कि यह सूत्र
कहता है, 'इस लोक से जब
ऋषिगण जानै
लगे...।’ कभी
गये ही नहीं; कभी जायेंगे
भी नहीं। जिस
दिन इस लोक से
ऋषिगण चले
जायेंगे, ये
लोक ही समाप्त
हो जायेगा।
फिर इस लोक
में क्या नमक
रह जायेगा? क्या स्वाद
रह जायेगा? क्या मिठास
रह जायेगी? इन थोड़े—से
लोगों के बल
से तो यहां
सुगंध है।
नहीं तो यहां
काटे ही काटे
हैं। कुछ थोड़े
से फूलों के
बल तो इस
जिंदगी में
थोड़ा सौंदर्य
है।
नहीं, ऋषिगण
कभी भी नहीं
गये। संत
फ्रासिस, इकहांर्ट—ये
लोग दुनिया के
कोने—कोने में
होते रहे; कोई
भारत का ठेका
थोडे ही है!
कोई
ब्राह्मणों का
ठेका थोड़े ही
है! ये
क्षत्रियों
में हुए।
महावीर और
बुद्ध क्षत्रिय
थे। ये
वैश्यों में
हुए; तुलाधर
वैश्य की कथा
है उपनिषदों
में।
एक
गुरु ने अपने
शिष्य को
तुलाधर वैश्य
के पास ज्ञान
लेने भेजा।
शिष्य ने कहां, 'आप
ब्राह्मण हैं।
आप महापण्डित
हैं और एक
बनिये के पास
मुझे भेज रहे
हैं ज्ञान
लेने?'
तो
उसके गुरु ने कहां, 'ज्ञान न
तो ब्राह्मण
को देखता है, न वैश्य को
देखता है, न
क्षत्रिय को
देखता है :
जिसकी
पात्रता होती है,
उसका पात्र
अमृत से भर
जाता है। तो
तू तुलाधर के
पास जा।’
जाना
पड़ा; गुरु
ने कहां था
शिष्य को। तो
तुलाधर के पास
बैठा। उसे कुछ
समझ में न आया
कि क्या इस
आदमी में...!
तुलाधर उसका
नाम ही हो गया
था कि दिनभर
वह तराजू लेकर
तौलता रहता, तौलता रहता!
उसने पूछा कि 'तुम्हारा
राज क्या है?'
उसने कहां
कि 'मैं
डांडी नहीं
मारता। इतना
ही मेरा राजू
है। चोर नहीं
हूं। समभाव से
तौलता हूं—समता,
समत्व, सम्यतुल्य।
मेरे तराजू को
देखो, और
मुझे पहचान लो।
जैसा मेरा
तराजू सधा हुआ
होता है; जैसे
मेरे तराजू का
काटा ठीक मध्य
में खड़ा हुआ
है, ऐसा
मैं भी मध्य
में खड़ा हूं।
न मेरा तराजू
धोखा दे रहा
है, न मैं
धोखा दे रहा
हूं। धोखा छोड़
दिया। पाखण्ड
छोड़ दिया।
जैसा हूं वैसा
हूं। बस, जिस
दिन से जैसा
हूं वैसा ही
रह गया हूं
उसी दिन से न
मालूम कहां—कहां
से लोग आने
लगे पूछने—सत्य
का राजू!' शूद्रों
में भी हुए।
सेना नाई हुआ।
नाई था, लेकिन
ऋषि तो कहना
ही होगा उसे।
रैदास चमार
हुआ। चमार था,
लेकिन ऋषि
तो कहना ही
होगा उसे।
गोरा कुम्हार
हुआ। उसके पास
हजारों लोग
दूर—दूर से
आते थे पूछने
जीवन का सत्य।
और कुम्हार था,
तो कुम्हार
की भाषा में
बोलता था।
किसी ने पूछा
कि 'गुरु
करता क्या है?
आखिर गुरु
का कृत्य क्या
है?'
तो
गोरा कुम्हार
उस वक्त अपने, कुम्हार
के चाक पर घड़े
बना रहा था।
उसने कहां, 'गौर से देख।
एक हाथ मैं
घड़े को भीतर
से लगाये हुए
हूं और दूसरे
हाथ से बाहर
से चोटें मार
रहा हूं। बस, इतना ही काम
गुरु का है।
एक हाथ से
सम्हालता है
शिष्य को, दूसरे
हाथ से मारता
है शिष्य को।
ऐसा भी नहीं
मारता कि घडा
ही फूट जाये, कि सम्हाल
ही न दे! और ऐसा
भी नहीं सम्हालता
कि घडा बन ही न
पाये! इन दोनों
के बीच शिष्य
निर्मित होता
है। गुरु
मारता है; जी
भरकर मारता है—और
सम्हालता भी
है। मार ही
नहीं डालता।
यूं मिटाता भी
है—बनाता भी
है। यूं मारता
भी है, नया
जीवन भी देता
है।’
कुम्हार
है, कुम्हार
की भाषा बोला
है, लेकिन
बात कह दी। और
बात इस तरह से
कही कि शायद
किसी ने कभी
नहीं कही थी।
मैंने दुनिया
के करीब—करीब
सारे शास्त्र
देखे हैं, लेकिन
गुरु के कृत्य
को जैसा गोरा
कुम्हार ने समझा
दिया, यूं
सरलता से, यूं
बात की बात
में—ऐसा किसी
ने नहीं
समझाया। कि
गुरु भीतर से
तो सम्हालता
है...। भीतर से
सम्हालता है
और बाहर से
मारता है।
बाहर से काटता
है, छांटता
है। बाहर बड़ा
कठोर—भीतर बड़ा
कोमल! भीतर
यूं कि क्या
गुलाब की पंखुड़ी
में कोमलता
होगी! और बाहर
यूं कठोर कि
क्या तलवारों
में धार होगी!
तो जो
मिटने और बनने
को राजी हो एक
साथ, वही
शिष्य है। और
जो मिटाने और
बनाने में
कुशल हो, वही
गुरु है।
ऋषि तो
होते रहे—होते
रहेंगे।
यह बात
ही गलत है कि 'मनुष्य? वा
ऋषिसूत्कामत्सु—कि
इस लोक से जब
ऋषिगण जाने
लगे, जब
उनकी परम्परा
समाप्त होने
लगी..।’
पहली
तो बात :
ऋषियों की कोई
परंपरा होती
ही नहीं।
ऋषियों की तो
निजता होती है, परंपरा
नहीं होती।
प्रत्येक ऋषि
अनूठा होता है,
उसकी
परंपरा हो ही
नहीं सकती।
कोई तुमने
दूसरा बुद्ध
होते देखा? और यूं न
सोचना कि
बुद्ध होने की
कोशिश नही की गई
है। पच्चीस सौ
वर्षों में
लाखों लोगों
ने कोशिश की
है बुद्ध होने
की। ठीक बुद्ध
जैसे कपड़े
पहने हैं।
बुद्ध जैसा
आसन लगाया है।
बुद्ध जैसी आंखें
बंद की हैं।
बुद्ध जैसे
ध्यान में
बैठे हैं।
बुद्ध जैसा
भोजन किया है।
बुद्ध जैसे
उठे हैं, बैठे
हैं, चले
है—सब किया है।
मगर नकल नकल
है। एक भी
बुद्ध नहीं हो
सका। नकल से
कभी कोई बुद्ध
हुआ है? बुद्ध
की कोई परंपरा
होती है?
कोई
जीसस हुआ
दूसरा? कोई महावीर
हुआ दूसरा? कितने जैन
मुनि हैं भारत
में! कोई है
एकाध माई का
लाल जो कह सके
कि मैं महावीर
हूं? और कह
सको, तो
क्यों
चुल्लभर पानी
में नहीं डूब
मरते! क्या कर
रहे हो? क्या
भाड़ झोंक रहे
हो?
पच्चीस
सौ साल में एक
जैन मुनि की
हिम्मत नहीं
पड़ी कहने की
कि मैं महावीर
हूं! हिम्मत
पड़ती भी
कैसे! होते—तो
हिम्मत पड़ती।
और ऐसा नहीं
है कि
उन्होंने कुछ
नकल करने में कमी
की हो। जो—जो
महावीर ने
किया, वह—वह
किया! अगर
महावीर नग्न
रहे, तो
हजारों लोग
नग्न रहे। शीत
झेली, धूप
झेली। मगर
महावीर की
नग्नता कुछ और
थी; इनकी
नग्नता कुछ और।
नकल कभी भी
असल नहीं हो
सकती।
मेरे
एक मित्र हैं..।
जैन संन्यास
की पांच
सीढियां होती
हैं। महावीर
ने कोई
सीढ़ियां पार
नहीं कीं, खयाल
रखना! महावीर
तो महावीर हो
गये। छलांग
होती है
महावीर की, जैन मुनि की
सीढ़ियां होती
हैं! बस, वहीं
फर्क पड़ जाता
है। महावीर ने
तो एक दिन
कपड़े छोड़ दिये।
यूं थोड़े कि
धीरे— धीरे
अभ्यास किया!
ये दस
वर्ष से जैन
मुनि हो गये
थे। तो मैं
पास से गुजर
रहा था, कोई पांच—सात
मील के फासले
पर उनका ठहराव
था, तो
मैंने ड्राइवर
को कहां कि 'ले चलो। एक
पांच—सात मील का
चक्कर लगा लें।
दस साल से
उन्हें देखा
नहीं।’
हम
पहुंचे।
मैंने खिड़की
से देखा, जब उनके
मकान के करीब
पहुंच रहा था,
कि अंदर से
नग्न टहल रहे
हैं! और जब
मैंने दरवाजे
पर दस्तक दी, तो वे एक
तौलिया
लपेटकर आ गये!
मैंने उनसे
पूछा कि 'खिडकी
से मैंने देखा
कि आप नग्न थे।
अब यह तौलिया
क्यों लपेट ली?'
उन्होंने
कहां, 'अभ्यास
कर रहा हूं!'
नग्न
होने का
अभ्यास!
'मतलब,
पहले कमरे
में नग्न
होंगे, यूं
टहलेंगे। कभी
कोई खिड़की से
देख लेगा। ऐसे
धीरे— धीरे
संकोच मिटेगा।
फिर धीरे—
धीरे बाहर भी
बैठने लगेंगे
तखत पर आकर।
फिर धीरे—
धीरे बाजार
में भी जाने
लगेंगे। ऐसे
आहिस्ता—आहिस्ता
अभ्यास करते —करते,
करते —करते
एक दिन नग्न
हो जायेंगे!'
मैंने
उनसे कहां कि 'जरूर
अभ्यास करोगे,
तो हो ही
जाओगे। मगर
सर्कस में
भरती हो जाना
फिर! क्योंकि
अभ्यास से जो
नग्नता आये, वह सर्कस
में ले जायेगी।
महावीर ने कब
अभ्यास किया
था—मुझे यह तो
बताओ? महावीर
ने नग्न होने
का कब अभ्यास
किया था, इसका
कोई उल्लेख है?'
बोले, ' नहीं।’
'तो,' मैंने कहां,
'फिर फर्क
समझो। महावीर
की नग्नता एक
छलांग थी। एक
निर्दोष भाव
था। एक बात
समझ में आ गई
कि छिपाने को
क्या है! जैसा हूं—हूं।
उघड़ गये। यह
एक क्षण में
घटनेवाली क्रांति
है। यह तुम दस
साल से अभ्यास
कर रहे हो!'
लेकिन
जैन मुनि ने
पांच सीढ़ियां
बना ली हैं।
एक—एक सीढी
चलता है। पहली
सीढ़ी का नाम
ब्रह्मचर्य।
तो उसमें तीन
चादर रख सकता
है या चार
चादर रख सकता
है। गणित है
उसका। फिर
दूसरी सीढ़ी आ
जाती है, तो छुल्लक
हो जाता है।
फिर एक चादर
कम हो जाती है।
फिर तीसरी
सीढ़ी आ जाती
है, तो इलक
हो जाता है!
अभी
बम्बई में एक 'इलाचार्य'
आये हुए थे
ना! और कहां
उन्होंने
अड्डा जमाया था!
चौपाटी पर—जहां
' भेलाचार्य'
पहले से ही
जमे हुए हैं!
मैंने भी सोचा
कि ठीक है।
इलाचार्य और
भेलाचार्य
में कोई फर्क
है नहीं! कोई
भेल बेच रहा
है, कोई ऐल
बेच रहा है! और
चौपाटी पर
चौपट लोग ही
इकट्ठे होते
हैं। अभी
बम्बई का नाम
बदलने की इतनी
चर्चा चलती है
न। इसका नाम
चौपट नगरी रख
दो! क्या
मुंबई, क्या
बम्बई, क्या
बॉम्बे! छोड़ो
यह बकवास।
चौपट नगरी
अंधेर राजा, टके सेर
भाजी टके सेर
खाजा! और
चौपाटी को ही
राजधानी बना
दो!
फिर
इलक हो जाता
है आदमी, तो फिर उसकी
और कमी हो
जाती है। फिर
ऐसे बढ़ते—बढ़ते
मुनि होता है।
जब मुनि होता
है, तब सब
वस्त्र छोड़कर
नग्न!
यह
अभ्यासजन्य
नग्नता और एक
बच्चे की
नग्नता मे तुम
फर्क नहीं
समझोगे! एक
बच्चा भी नग्न
होता है; वह
अभ्यासजन्य
नहीं होता।
उसकी नग्नता
में एक सरलता
होती है, एक
निर्दोषता
होती है। उसे
पता ही नहीं
कि नग्न होने
में कुछ खराबी
है। उसे कुछ
चिंता ही नहीं।
उसे अभी इतनी
चालबाजी नहीं।
ऐसे ही
एक दिन महावीर
पुन: बालवत्
हो गये। फिर
दो हजार, ढाई हजार
साल बीत गये, कितने लोग
नग्न होते रहे,
मगर कोई
महावीर नहीं!
एक आदमी ने
हिम्मत करके घोषणा
की, वर्धा
के एक स्वामी
सत्य भक्त—उन्होंने
घोषणा की कि
वे पच्चीसवें
तीर्थंकर हैं!
तो जैनियों ने
उनका त्याग कर
दिया फौरन।
क्योंकि जैन
शास्त्रों
में चौबीस के
अलावा पच्चीसवां
तीर्थंकर हो
ही नहीं सकता।
एक महाकल्प
में, एक
सृष्टि में, सृष्टि और
प्रलय के बीच
में, अनंत
काल बीतता है—उसमें
सिर्फ चौबीस
तीर्थंकर हो
सकते हैं।
पच्चीसवां हो
नहीं सकता।
महावीर के बाद
उन्होंने
चौबीसवें पर
ठहरा दी बात।
सभी धर्म यह
कोशिश करते
हैं।
सिक्खों
के दसवें गुरु
के बाद बात
ठहरा दी कि अब
गुरु—ग्रंथ ही
गुरु होगा।
क्योंकि डर
लगता है कि
बाद में
आनेवाले लोग कुछ
नयी बातें न
कह दें! कहीं
ऐसा न हो जाये
कि बदलाहट कर
दें! तो रोक दो
दरवाजा। ठहरा
दो प्रवाह को।
जैनों
ने चौबीसवें
तीर्थंकर पर
बात रोक दी।
मुसलमानों ने
मोहम्मद पर ही
बात रोक दी!
ईसाइयों ने
जीसस पर ही
बात रोक दी; आगे नहीं
बढ़ने दी।
मैं
वर्धा गया हुआ
था। जिनके घर
मैं मेहमान था, वे बोले
कि 'स्वामी
सत्य भक्त को
जैनियों ने तो
निकाल बाहर कर
दिया, कि
उन्होंने अपने
को पच्चीसवां
तीर्थंकर कह
दिया! लेकिन
आपकी भी बेबूझ
बातें हैं।
शायद आप दोनों
का मेल बैठ
जाये! तो
मुलाकात करवा
दूं।’
'जरूर
मुलाकात
करवाइये। मेल
तो शायद ही
बैठे।’
उन्होंने
कहां, 'क्यों?'
मैंने कहां
कि 'जो
आदमी अपने को
पच्चीसवां
बता रहा है, उन आदमियों
को मै कोई
आदमी नहीं
गिनता। मैं भी
इसके खिलाफ
हूं कि
पच्चीसवां
नहीं!'
उन्होंने
कहां, 'अरे!
मैं तो सोचता
था कि आप
क्रांतिकारी
हैं!'
मैंने कहां, 'उनको आने
दो।’
वे आये।
कहने लगे कि 'आप भी
कहते हैं कि
कोई
पच्चीसवां
तीर्थंकर नहीं
हो सकता!'
मैंने कहां, 'चौबीस ही
नहीं हो सकते;
पच्चीस की
बात क्या उठा
रहे हो!
प्रत्येक
तीर्थंकर एक
ही होता है।
उस जैसा दूसरा
होता ही नहीं।’
और मैंने कहां,
'तुम भी हद
गधेपन की बात
कर रहे हो।
अरे, जब
घोषणा ही करनी
हो, तो
प्रथम होने की
घोषणा करो।
क्या
पच्चीसवां!
क्यू में खड़े
हैं! कुछ अकल
की बात करो।
यहां भी क्यू
लगाये हो!
तुम्हें क्यू
में खड़े होने
की आदत हो गई!
यह कोई बस है? कि सिनेमा
की टिकिट
बेचनेवाली
खिड़की है—कि
खड़े हैं!
चौबीस नंग—
धड़ंग पहले खड़े
हैं, पच्चीसवें
तुम खड़े हो! '
मैंने कहां, 'मुझसे घोषणा
करनी हो, तो
मैं कहूंगा—प्रथम।
और प्रथम भी
क्या कहना, क्योंकि
द्वितीय कोई
हो नहीं सकता,
इसलिए
बकवास में ही
क्यों पडना!
मैं मैं हूं तुम
तुम हो।
महावीर
महावीर थे, और सुंदर थे।
और मुझे उनसे
प्रेम है।
लेकिन मैं मैं
हूं और मुझे
मुझसे कहीं
ज्यादा प्रेम
है, जितना
किसी और
महावीर से
होगा।
स्वभावत: मुझे
मेरी निजता से
प्रेम है। मैं
पच्चीसवें
नम्बर पर अपने
को क्यों
रखूंगा?
किसी
व्यक्ति की
किसी नम्बर पर
होने की जरूरत
नहीं है।
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपनी निजता...
यही फर्क तुम
समझने की
कोशिश करो।
वितान
की परंपरा
होती है। तुम
चौकोगे, जब मैं कहता
हूं कि
विज्ञान की
परंपरा होती
है, धर्म
की परंपरा
नहीं होती।
विज्ञान बिना
परंपरा के
जिंदा ही नहीं
रह सकता। उसका
अतीत होता है।
जैसे समझो तुम
: अगर न्यूटन
पैदा न हो, तो
आइस्टीन कभी
पैदा नहीं हो
सकता। न्यूटन
के बिना आइस्टीन
के होने की
कोई संभावना
नहीं है। वह
न्यूटन की ईंट
चाहिए ही
चाहिये। तभी आइस्टीन
पैदा हो सकता
है। अगर
न्यूटन को हटा
लो, तो आइस्टीन
के लिये आधार
ही नहीं
मिलेगा खड़े
होने का।
विज्ञान
की परंपरा
होती है। हर
वैज्ञानिक
विज्ञान में
कुछ जोडता चला
जाता है।
लेकिन धर्म की
कोई परंपरा
नहीं होती।
बुद्ध हुए हों
या न हुए हों, मैं फिर
भी हो सकता
हूं। क्योंकि
बुद्ध के होने
से क्या लेना—देना
है! अगर बुद्ध
के पहले कृष्ण
न भी हुए होते,
तो भी बुद्ध
होते।
क्योंकि
कृष्ण से क्या
लेना—देना है!
बुद्ध ने अपने
को जाना। अपने
को जानने में
दूसरा कहीं
आता नहीं!
उसकी कोई
अपरिहार्यता
नहीं है। आखिर
जीसस को तो
कृष्ण का कुछ
भी पता नहीं
था, फिर भी
हो सके। और
लाओत्सु को तो
बिलकुल पता
नहीं था कृष्ण
का, फिर भी
हो सके! बुद्ध
को तो लाओत्सु
का कोई पता नहीं
था, फिर भी
हो सके।
जरथुस्त्र को
तो कोई भी पता
नहीं था
पतंजलि का, फिर भी हो
सके। न पतंजलि
को जरथुस्त्र
का कोई पता था।
विज्ञान
में यह नहीं
हो सकता।
विज्ञान में
पूरा अतीत पता
होना चाहिए।
जो हो चुका है
पहले, उसी
की बुनियाद पर
तुम आगे काम
करोगे।
विज्ञान में
शृंखला होती
है, परंपरा
होती है, कड़ियां
होती हैं।
कड़ियों में
कड़ियां जुड़ती
चली जाती हैं।
लेकिन धर्म
में कोई
परंपरा नहीं
होती। धर्म
में प्रत्येक
व्यक्ति
आणविक होता है।
बुद्ध की
निजता अपने
में है।
महावीर न हों
तो, कृष्ण
न हों तो—हों
तो—कोई भेद
नहीं पड़ता।
इसलिए
धर्म की कोई
परंपरा नहीं
होती; ऋषियों
की कोई परंपरा
नहीं होती।
तुम
कहते हो, 'जब उनकी
परंपरा
समाप्त होने
लगी...।’ परंपरा
ही नहीं होती,
तो समाप्त
कैसे होगी!
मैं इस
निरुक्त के
वचन के बिलकुल
विपरीत हूं।
मैं इसको कोई
समर्थन नहीं
दे सकता।
क्योंकि यह
ऋषि का वचन ही
नहीं है।
लेकिन
कुछ लोग ऐसे
पागल हैं कि
वे भाषा को और
व्याकरण को सब
कुछ समझते
हैं!
जब
स्वामी राम
अमरीका से
भारत वापस
लौटे, तो
उन्होंने
सोचा...। इतना
प्रेम उन्हें
मिला था
अमरीका में, कल्पनातीत—इतना
समादर हुआ था!
लोगों ने उनकी
बातें ऐसे पी
थीं कि जैसे
अमृत के घूंट।
तो सोचा कि
अमरीका जैसे
भौतिकवादी
देश में, नास्तिकों
के बीच जब
मेरी बातों का
इतना मूल्य
हुआ है, लोगों
ने इस तरह
पिया है, तो
भारत में तो
क्या नहीं
होगा! तो
उन्होंने सोचा,
भारत चलकर
काशी से ही
काम शुरू करूं।
स्वभावत:! कि
काशी से ही
शुरू करूं काम
को, तो वे
काशी ही
पहुंचे। और
काशी में जो
पहला प्रवचन
दिया
उन्होंने, उसी
में गडूबडु
खडी हो गई!
एक
पंडित खड़ा हो
गया। और उसने कहां, 'पहले
रुकिये.....।’ ( आधे
ही प्रवचन
में!) ' आपको
संस्कृत आती
है?'
उनको
संस्कृत नहीं
आती थी। वे तो
पंजाब में
पैदा हुए, तो फारसी
आती थी, उर्दू
आती थी, पंजाबी
आती थी। उनको
संस्कृत नहीं
आती थी।
उन्होंने कहां,
'नहीं, मुझे
संस्कृत नहीं
आती है।’
वह
पंडित हंसा।
उसके साथ और
भी पंडित हंसे।
हू—हल्ला हो
गई। उस पंडित
ने कहां, 'पहले
संस्कृत सीखो,
फिर
ब्रह्मज्ञान
की बातें
करना!
उन्होंने कहां,
'अरे, जब संस्कृत
ही नहीं आती, तो क्या खाक
ब्रह्मज्ञान
की बातें कर
रहे हो!'
स्वामी
राम को इतना
सदमा पहुंचा—कल्पनातीत!
उन्होंने कभी
सोचा न था कि
यह दुर्व्यवहार
होगा!
उन्होंने
प्रवचन पूरा
भी नहीं किया।
उन्हें भारत
में उत्सुकता
ही खो गई।
भारत में ही
उत्सुकता
नहीं खो गई, उन्हें
भारत के
पुराने
संन्यास में
तक उत्सुकता
खो गई। तुम यह
जानकर चकित
होओगे, हालांकि
यह बात आमतौर
से कही नहीं
जाती, कि
स्वामी राम ने
उसी दिन अपने
गैरिक वस्त्र
छोड़ दिये। और
वे गढ़वाल चले
गये, हिमालय।
और फिर कभी
भारत में उतरे
नहीं।
क्या
जाना ऐसे
मूढ़ों के पास!
जिनका खयाल है
कि संस्कृत
आती हो, तो
ब्रह्मज्ञान।
तब तो जिन
देशों में
संस्कृत नहीं
है, वहा
ब्रह्मज्ञानी
हुए ही नहीं!
तो बुद्ध ब्रह्मज्ञानी
नहीं! उनको भी
संस्कृत नहीं
आती थी। और
महावीर भी
ब्रह्मज्ञानी
नहीं; उनको
भी संस्कृत
नहीं आती थी!
और जीसस तो
कैसे होंगे!
और जरथुस्त्र
तो कैसे
होंगे! इन
बेचारों का तो
कहां हिसाब
लगेगा!
मैं
तुमसे कहता
हूं भाषा से
कुछ लेना—देना
नहीं है।
ब्रह्मज्ञान
भाव की बात है—
भाषा की नहीं।
न तो
ऋषियों की कोई
परंपरा है; और न ऋषि
कहीं चले गये
हैं। तुम ऋषि
हो सकते हो।
मेरी
उद्घोषणा
सुनो. तुम ऋषि
हो सकते हो।
तुम्हारे
भीतर ऋषि होने
का बीज उतना
ही है, जितना
किसी और ऋषि
के भीतर रहा
हो।
अपनी
ऊर्जा को
विकसित होने
दे, मौका
दो। अपनी
ऊर्जा को
ध्यान बनने दो,
प्रार्थना
बनने दो। बीज
को फूटने दो, अंकुरित
होने दो।
तुममें भी फूल
लगेंगे।
तुममें भी
ऋचाएं जगेंगी।
तुम्हारे
भीतर भी कोई
एक दिन
पुकारेगा कि
गा, गुनगुना।
तुमसे भी
आयतें उठेगी।
तुमसे भी
कुरान बहेगा।
मगर यह
सूत्र
चालबाजों का
सूत्र है। वे
कहते हैं, 'जब ऋषिजन
जाने लगे, उनकी
परंपरा
समाप्त होने
लगी, तब
मनुष्यों ने
देवताओं से कहां
कि अब हमारे
लिए कौन होगा?
उस अवस्था
में देवताओं
ने तर्क को ही
ऋषि—रूप में
उनको दिया।’
वह जो
गणितज्ञ है, भाषा का
हो या किसी और
का, जिसके
जीवन की शैली
गणित है, तर्क
उसका प्राण
होता है।
इसलिए
उन्होंने कहां
कि तर्क
तुम्हारा ऋषि
होगा।
अब
इससे बेहूदी
और कोई बात
नहीं हो सकती।
क्योंकि ऋषि
का जन्म ही
तर्कातीत है।
जब तुम तर्क
के पार जाते
हो, तभी
तुम्हारे
जीवन में
परमात्मा का
अवतरण होता है।
तर्क तो कभी
भी धर्म का
स्थान नहीं ले
सकता। तर्क
तुम लाख करो, कुछ पा न
सकोगे। तर्क
तो बचकानी बात
है।
और
तर्क तो
वेश्या जैसा
होता है—क्या
ऋषि होगा!
तर्क का कोई
ठिकाना है!
तर्क तो पत्नी
भी नहीं होता, वेश्या
जैसा होता है।
किसी के भी
साथ हो ले।
मैं
सागर
विश्वविद्यालय
में
विद्यार्थी
था। उस
विश्वविद्यालय
का निर्माण
किया सर हरिसिंह
गौर ने। वे
भारत के बहुत
बड़े वकील थे।
बड़े तर्क—शास्त्री
थे। और भारत
में ही उनकी
वकालत नहीं थी।
वे तीन दफ्तर
रखते थे—एक
पेकिंग में, एक
दिल्ली में, एक लंदन में।
सारी दुनिया
में उनकी
वकालत की
शोहरत थी।
मैंने
उनसे एक दिन कहां
कि ' आपकी
वकालत की
शोहरत कितनी
ही हो, वकील
और वेश्या को
मैं बराबर
मानता हूं।’
उन्होंने
कहां, 'क्या
कहते हो!'
वे
गुस्से में आ
गये। वे
संस्थापक थे
विश्वविद्यालय
के, प्रथम
उपकुलपति थे।
और मैं तो
सिर्फ एक
विद्यार्थी
था। मैंने कहां
कि 'मैं
फिर कहता हूं
कि वकील
वेश्या होता
है! अगर वेश्याएं
नर्क जाती हैं,
तो वकील
उनके आगे—आगे
झंडा लिए
जायेंगे! और
तुम पक्के—झंडा
ऊंचा रहे
हमारा—उन्हीं
लोगों में
रहोगे।’
उन्होंने
कहां, 'तू
बात कैसी करता
है? तुझे
यह भी सम्मान
नहीं कि
उपकुलपति से
कैसे बोलना!'
मैंने कहां, 'मैं वकील
से बात कर रहा
हूं उपकुलपति
कहां! मैं सर
हरिसिंह गौर
से बात कर रहा
हूं।’
वे
कहने लगे, 'मैं मतलब
नहीं समझा कि
क्यों वकील को
तू वेश्या के
साथ गिनती
करता है!'
मैंने कहां, 'इसीलिए
कि वकील को जो
पैसा दे दे, उसके साथ।
वह कहता है कि
तुम्हीं जीत
जाओगे।’
मुल्ला
नसरुद्दीन एक
दफा अपने वकील
के पास गया।
उसने अपना
सारा मामला
समझाया। और
वकील ने कहां
कि 'बिलकुल
मत घबड़ाओ।
पांच हजार
रुपये
तुम्हारी फीस
होगी। मामला
खतरनाक है, मगर जीत
निश्चित है।’
उसने कहां, 'धन्यवाद।
चलता हूं!'
'जाते
कहां हो? फीस
नहीं भरनी!
काम नहीं मुझे
देना!'
उसने कहां
कि 'जो
मैंने वर्णन
आपको दिया, यह मेरे
विरोधी का
वर्णन है। अगर
उसकी जीत
निश्चित है, तो लड़ना ही
क्यों!' यह
मुल्ला भी
पहुंचा हुआ
पुरुष है!
'जब
तुम कह रहे हो
खुले आम कि
इसमें जीत
निश्चित है—यह
तो मैं अपने
विरोधी का
पूरा का पूरा
ब्यौरा बताया।
अपना तो मैंने
बताया ही
नहीं! तो अब
मेरी हार निश्चित
ही है। अब
पांच हजार और
क्यों गंवाने!
नमस्कार! तुम
अपने घर भले, हम अपने घर
भले! '
वकील
को भी चकमा दे
गया। वकील ने
भी सिर पर हाथ
ठोंक लिया
होगा। सोचा ही
नहीं होगा कि
यह भी हालत
होगी! वह तो अपना
मामला बताता
तो उसमें भी
वकील कहता कि
जीत निश्चित
ही है। आखिर
दोनों ही तरफ
के वकील कहते
हैं, जीत
निश्चित है!
वकील को कहना
ही पड़ता है कि
जीत निश्चित
है। तभी तो
तुम्हारी
जेबें खाली
करवा पाता है।
तो
मैंने कहां, 'वकील की
कोई निष्ठा
होती है? उसका
सत्य से कोई लगाव
होता है? तो
मैं उसकी
वेश्या में
गिनती क्यों न
करूं! वेश्या
तो अपनी देह
ही बेचती है।
वकील अपनी
बुद्धि बेचता
है। यह और गया—बीता
है!'
उन्होंने
मेरी बात सुनी।
आंख बंद कर ली।
थोड़ी देर चुप
रहे और कहां
कि शायद
तुम्हारी बात
ठीक है। मुझे
अपनी एक घटना
याद आ गई।
तुम्हें
सुनाता हूं
प्रीव्ही
काउंसिल में
एक मुकदमा था, जयपुर
नरेश का। मैं
उनका वकील था।
करोड़ों का
मामला था।
जायदाद का मामला
था, जमीन
का मामला था।
और तुम जानते
हो कि मुझे
शराब पीने की
आदत है। रात
ज्यादा पी गया।
दूसरे दिन जब
गया अदालत में,
तो नशा मेरा
बिलकुल टूटा
नहीं था। कुछ
न कुछ नशे की
हवा बाकी रह
गई थी। नशा
कुछ झूलता रह
गया था। सो
मैं भूल गया
कि मैं किसके
पक्ष में हूं—सो
मैं अपने
मुवक्किल के
खिलाफ बोल गया।
और वह धुआंधार
दो घण्टे
बोला! और मैं
चौंकूं जरूर
कि न्यायाधीश
भी हैरान होकर
सुन रहे हैं!
मेरा मुवक्किल
तो बिलकुल
पीला पड़ गया
है! और वह जो
विरोधी है, वह भी चकित
है! विरोधी का
वकील एकदम
ठंडा है, वह
भी कुछ बोलता
नहीं! और मेरा
जो असिस्टेंट
है, वह बार—बार
मेरा कोट
खींचे! मामला
क्या
जब चाय
पीने की बीच
में छुट्टी
मिली, तो
मेरे
असिस्टेंट ने कहां
कि 'जान ले
ली आपने! आप
अपने ही आदमी
के खिलाफ बोल
गये! बरबाद कर
दिया केस—अब
जीत मुश्किल
है।’
हरिसिंह
ने कहां, 'क्या मामला
है, तू
मुझे ठीक से
समझा। बात
क्या है! मुझे
थोड़ा नशा उतरा
नहीं। रात
ज्यादा पी गया
एक पार्टी में।
चल पड़ा सो चल
पड़ा, ज्यादा
पी गया।’
तो
उसने बताया कि
'मामला
यह है कि जो—जो
आप बोले हो, यह तो
विपरीत पक्ष
को बोलना था!
और वे भी इतनी
कुशलता से
नहीं बोल सकते,
जिस कुशलता
से आप बोले हो।
इसलिए तो
बेचारे वे खड़े
थे चौंके हुए
कि अब हमें तो
बोलने को कुछ
बचा ही नहीं।
और मुकदमा तो
गया अपने हाथ
से!'
कहां, 'मत घबड़ाओ।’
हरिसिंह
गौर ने कहां, 'मत घबड़ाओ।’ और जब चाय
पीने के बाद
फिर अदालत
शुरू हुई, तो
उन्होंने कहां
कि 'न्यायाधीश
महोदय! अब तक
मैंने वे
दलीलें दीं, जो मेरे
विरोधी वकील
देनेवाले
होंगे। अब मैं
उनका खंडन
शुरू करता हूं।’
और
खंडन किया
उन्होंने। और
मुकदमा जीते!
तो वे
मुझसे बोले कि
'शायद
तुम ठीक कहते
हो। यह काम भी
वेश्या का ही
है।’
तर्क
वेश्या है।
तर्क कैसे ऋषि
होगा? तर्क
तो किसी भी
पक्ष में हो
सकता है। तर्क
की कोई निष्ठा
नहीं होती।
वही तर्क
तुम्हें
आस्तिक बना
सकता है; वही
तर्क तुम्हें
नास्तिक बना
सकता है।
इसलिए तो जो
सच्चे
धार्मिक हैं,
उनकी
आस्तिकता
तर्क—निर्भर
नहीं होती।
तर्क पर जिसकी
आस्तिकता
टिकी है, वह
आस्तिक होता
ही नहीं। वह
तो कभी भी नास्तिक
हो सकता है।
उसके तर्क को
गिरा देना कोई
कठिन काम नहीं
है।
आस्तिक
कहता है कि 'मैं
ईश्वर को
मानता हूं
क्योंकि
दुनिया को कोई
बनानेवाला
चाहिए।’ और
नास्तिक भी
यही कहता है
कि 'अगर यह
सच है, तो
हम पूछते हैं
कि ईश्वर को
किसने बनाया?'
तर्क तो
दोनों के एक
हैं। आस्तिक
कहता है, 'ईश्वर
बिना बनाया है।’
तो नास्तिक
कहता है, 'जब
ईश्वर बिना
बनाया हो सकता
है, तो फिर
सारी प्रकृति
बिना बनायी
क्यों नहीं हो
सकती? क्या
अड़चन है? और
अगर कोई भी
चीज बिना
बनायी नहीं हो
सकती, तो
फिर ईश्वर को
भी कोई
बनानेवाला
होना चाहिए।
इसका जवाब दो।’
अब यह
तर्क तो एक ही
है। अब कौन
कितना कुशल है, कौन
कितना
होशियार है, किसने अपनी
तर्क को कितनी
धार दी है, इस
पर निर्भर
करता है।
इसलिए आस्तिक
नास्तिकों से
बात करने में
डरता है।
तुम्हारे
शास्त्रों
में लिखा है : 'नास्तिकों
की बात मत
सुनना। सुनना
ही मत।’ ये
आस्तिकों के
शास्त्र नहीं
हैं। ये
नपुंसकों के
शास्त्र हैं।
नास्तिक की
बात मत सुनना?
दूसरे
धर्मवालों की
बात मत सुनना!
क्यों? क्योंकि
डर है कि अपनी
ही बात तर्क
पर खड़ी है, और
उसी तर्क के
आधार पर गिराई
भी जा सकती है।
जैन
शास्त्रों
में लिखा हुआ
है कि अगर
पागल हाथी भी
तुम्हारा
पीछा कर रहा
हो, और
खतरा हो कि
तुम उसके पैर
के नीचे दबकर
मर जाओगे, और
पास में ही
हिन्दू मंदिर
हो, तो पैर
के नीचे दबकर
मर जाना पागल
हाथी के, मगर
हिन्दू मंदिर
में मत जाना, क्योंकि पता
नहीं वहां कोई
बात सुनाई पड़
जाये, जिससे
तुम्हारे
धर्म में श्रद्धा
का अंत हो
जाये! मर जाना
बेहतर है अपने
धर्म में रहते
हुए बजाय जीने
के, धर्म
रूपांतरित
करके।
और यही
बात हिन्दू
ग्रंथों में
भी लिखी है, बिलकुल
ऐसी की ऐसी!
जरा भी फर्क
नहीं! कि जैन
मंदिर में
प्रवेश मत
करना, चाहे
पागल हाथी के
पैर के नीचे
दबकर मर जाना।
अरे, अपने
धर्म में मरकर
भी आदमी
स्वर्ग
पहुंचता है।’स्वधर्मे
निधन श्रेय: —अपने
धर्म में मरना
तो श्रेयस्कर
है।’ 'पर
धर्मो भयावह: —दूसरे
के धर्म से
भयभीत रहना।’
मगर यही
दूसरे भी कह
रहे हैं!
दुनिया
में तीन सौ
धर्म हैं।
प्रत्येक
धर्म के खिलाफ
दो सौ
निन्यान्नबे
धर्म हैं! अब
तुम जरा सोचो, जिस धर्म
के खिलाफ दो
सौ
निन्यान्नबे
धर्म हों, उसमें
क्या जान
होगी! कितनी
जान होगी! जान
इसमें है कि
कान बंद रखो!
सुनो मत, बहरे
रहो।
तुमने
घंटाकर्ण की
तो कहानी सुनी
है न, कि
वह भक्त था
राम का और
कृष्ण का नाम
नहीं सुन सकता
था! कृष्ण का
नाम सुनकर
उसको आग लग
जाती थी।
स्वभावत: राम
का भक्त कृष्ण
का नाम कैसे
सुने! कहां
राम, मर्यादा
पुरुषोत्तम!
और कहां कृष्ण—न
कोई मर्यादा,
न कोई
अनुशासन, न
कोई साधना!
कृष्ण
से तो मेरी
दोस्ती हो
सकती है! किसी
और की नहीं हो
सकती। राम से
मेरा नहीं बन
सकता। एक ही
कमरे में हम
घंटेभर नहीं
ठहर सकते दोनों!
क्योंकि उनकी
मर्यादा भंग
होने लगेगी!
और मैं तो
अपने ढंग से
जीऊंगा।
कृष्ण के साथ
जम सकती है
बैठक। तो
घंटाकर्ण
बहुत घबड़ाता
था। उसका नाम
ही घंटाकर्ण
इसलिए पड़ गया
था कि उसने
कानों में
घंटे लटका लिए
थे। वह घंटे
बजाता रहता था।
और राम—राम, राम—राम—घंटे;
राम—राम, राम—राम—घंटे
बजाता रहता और
राम—राम करता
रहता! कि कोई
दुष्ट कृष्ण
का नाम न ले दे!
मेरे गांव
में एक सज्जन
थे, वे
भी राम के
भक्त थे, ऐसे
ही घंटाकर्ण
जैसे। नदी
मेरे गांव से
दूर नहीं है।
जहां वे रहते
थे, वहां
से मुश्किल से
पांच मिनट का
रास्ता। मगर
उसको पार करने
में कभी उनको
घंटा लगे, कभी
दो घंटे लग
जायें! आधे
नहाते में से
बाहर निकल
आयें वे, अगर
कोई कृष्ण का
नाम ले दे।
चिढ़ते थे, बस
इतना ही कह दो—'हरे कृष्ण, हरे कृष्ण!' दौड़े डंडा
लेकर पीछे।
मेरे पीछे वे
इतना दौड़े हैं,
इतनी कवायत
मैंने उनकी
करवायी और
उन्होंने मेरी
करवायी कि जब
भी बाद में
मैं कभी गांव
जाता था, तो
वे मुझसे कहते
थे कि 'तुझे
देखकर मुझे
भरोसा ही नहीं
आता कि तू कभी ढंग
का आदमी भी हो
सकता है! मुझ
के को तूने
इतना दौडवाया
है!'
खाना
खा रहे हैं वे, मैं घर
जाकर उनका
दरवाजा बजा
दूं—'हरे
कृष्ण!' वे
खाना छोड्कर आ
गये बाहर! और
मुझे आनंद आता
था। उनको गांवभर
में दौड़ाना!
और वे गालियां
बक रहे हैं, और मैं हरे
कृष्ण कह रहा
हूं! वे
गालियां बक रहे
हैं। और मैं
उनसे कहूं 'तुम यह तो
सोचो कि भक्त
कौन है!'
वे
एकदम मां—बहन
की गाली से
नीचे नहीं
उतरते थे! तो
उनका धर्म
भ्रष्ट कर दिया!
वे नदी में
नहा रहे हैं, मैं
पहुंच जाऊं—'हरे कृष्ण!' वे वैसे ही
निकल आयें, कपड़ा—वपड़ा
वहीं छोड़ दें।
भागें मेरे
पीछे!
मेरे
पिता जी से आ—आकर
शिकायत करें।
मुझे बुलाया
जाये, कि
'तुमने
क्यों परेशानी
की? क्या
बात है?'
मैं
पूछूं उनसे कि
'यह तो
बतायें कि
मैंने क्या कहां!'
वह तो वे कह
ही नहीं सकते।’हरे कृष्ण' शब्द तो वे
बोल ही नहीं सकते।
तो वे गुमसुम
खड़े रहें। मैं
कहूं 'बोलो
जी! कहां क्या
मैंने, जिससे
आपको तकलीफ
हुई!'
वे
कहें, 'अबे
तू चुप रह! वह
बात मैं कभी
मुंह से नहीं
कह सकता!'
अब मैं
अपने पिता जी
से कहूं कि अब
यह भी आप सोचो...! '—' अच्छा
लिखकर बता दो!
पिता जी के
कान में कह दो।
इतनी बुरी बात
हो! मगर पता तो
चले कि मैंने
तुमसे कहां
क्या है! अब
मुझे ही नहीं
मालूम कि
मैंने तुमसे
क्या कहां है।
सजा किस बात
की? '
'अरे
तुझे मालूम
है! चौबीस
घंटे मेरी जान
खाता है। रात—
आधी—रात मैं
सो रहा हूं
पहुंच जाता है।
और घंटी बजाता
है। और वही
बात..!'
'कौन —सी
बात महाराज!'
वह वे
कभी न कहें।
कि 'वह
बात मैं कभी
कह ही नहीं
सकता!'
अब ये
भक्त हैं!
गालियां दे
सकते हैं, लेकिन 'वह' बात
कैसे कहें!
जब वे
मर रहे थे, तब भी मैं
पहुंच गया।
मैंने कहां, 'हरे कृष्ण!'
उन्होंने
कहां, 'अरे,
अब तो तू
चुप रह! अब तो
मैं दौड भी
नहीं सकता। और
अब तो मेरे
मुंह से
गालियां न
निकलवा! तू भैया
घर जा! तू कोई
और काम कर।
मुझे शांति से
मर जाने दे!
नहीं तो मैं
तेरी ही भावना
से क्रोध में
मरूंगा और फल
भोगूंगा! तू
मरते वक्त तो
मुझे शांत
रहने दे!
जिंदगीभर तूने
मुझे सताया!'
मैंने कहां, 'मैंने
अभी कुछ आप से कहां
नहीं। सिर्फ
ईश्वर की याद
दिलाने आया, कि जाते—जाते
हरे क्या की
याद तो कर लो!'
ये जो
लोग हैं, ये धार्मिक
लोग हैं! ये
आस्तिक हैं!
इनकी
आस्तिकता
कैसी
आस्तिकता है?
ये डरे हुए
लोग हैं। ये
घबड़ाये हुए
लोग हैं, कि
कहीं तर्क
दिक्कत में न
डाल दे! कहीं
अड़चन न खड़ी कर
दे!
ये
जबरदस्ती
विश्वास
बिठाये हुए
हैं। मगर इनका
विश्वास भी
किसी तरह के
तर्कों पर खड़ा
हुआ है।
विश्वास का
मतलब ही होता
है—किसी तरह
के तर्कों पर
सम्हालकर
बनाया गया मकान।
संदेह को दबा
लिया है; तर्क को
उसकी छाती पर
चढ़ा दिया है।
अपनी मनपसंद
तर्क को छाती
पर चढ़ा दिया
है। हिन्दू का
तर्क है, मुसलमान
का तर्क है।
सबके तर्क
हैं! और उनके
तर्कों के
आधार से वे दबे
हुए हैं।
धार्मिक
व्यक्ति का
कोई तर्क नहीं
होता—अनुभव
होता है, अनुभूति
होती है।
विश्वास नहीं
होता—श्रद्धा
होती है।
श्रद्धा और
विश्वास में
जमीन—आसमान का
फर्क है।
शब्दकोश में
तो एक ही अर्थ
लिखा हुआ है।
क्योंकि शब्द
जाननेवालों
को यह भेद
कैसे पता चले!
श्रद्धा
का अर्थ है, जिसने
जाना, जिसने
पहचाना, जिसने
अनुभव किया, जिसने जिया,
जिसने पिया,
जो हो गया।
और विश्वास का
अर्थ है—जिसने
मान लिया
किन्हीं
तर्कों के
सहारे।
यह
निरुक्त जो
कहता है कि 'देवताओं
ने मनुष्यों
से कहां कि
आगे को तर्क
को ही ऋषि—स्थानीय
समझो।’ यह
बात बिलकुल ही
गलत है, बुनियादी
रूप से गलत है।
तर्क
कहीं ऋषि हो
सकता है? तर्क से
कहीं काव्य
उठेगा? तर्क
से कहीं अतर्क
की तरफ आंख
उठेगी? असंभव।
तर्क से तो
मुक्त होना है।
संदेह से भी
मुक्त होना है,
तर्क से भी
मुक्त होना है।
विश्वास से भी
मुक्त होना है।
धारणाओं
मात्र से
मुक्त होना है।
शून्य में
उतरना है।
निर्विचार
में उतरना है,
निर्विकल्प
में उतरना है।
जहां कोई
विचार न रह
जाये, वहां
कैसा कोई तर्क?
जहां कोई
पक्ष न रह
जाये, वहां
कैसा कोई तर्क?
चुनाव रहित
शून्य में
प्रभु मिलन है।
चाहे 'प्रभु'
कहो—यह नाम
की बात है।
चाहे ईश्वर का
राज्य कहो, चाहे मोक्ष
कहो, कैवल्य
कहो, निर्वाण
कहो—जो मर्जी
हो—सत्य कहो—लेकिन
विचारशून्य
अवस्था में
पूर्ण का साक्षात्कार
है। और जैसे
ही तुम विचारशुन्य
हुए, पूर्ण
उतरा। पूर्ण
उतरा, कि
तुम ऋषि हुए, कि तुम फिर
जो बोलोगे, वही ऋचा है।
तुम जहां
बैठोगे, वहां
तीर्थ बन
जायेंगे। तुम
जहां चलोगे, वहा मंदिर
खड़े हो
जायेंगे।
तुम्हारी
मस्ती जहां
झरेगी—वहा
काबा, वहां
काशी।
सिर्फ
विक्षिप्त
लोग काशी और
काबा जाते हैं।
जिनको
परमात्मा के
संबंध में
थोड़ा भी अनुभव
है, वे
क्यों कहीं
जायेंगे? अपने
भीतर उसे पाते
हैं। और
निश्चित ही
तर्क पर उनका
आधार नहीं
होता।
रामकृष्ण
के पास बंगाल
के बड़े
तार्किक
मिलने गये थे—महापंडित
थे। रामकृष्ण
को हराने गये
थे।
केशवचंद्र
सेन उनका नाम
था। बंगाल ने
ऐसा तार्किक
फिर नहीं दिया।
केशवचंद्र
अद्वितीय
तार्किक थे।
उनकी मेधा बड़ी
प्रखर थी। सब
को हरा चुके
थे। किसी को
भी हरा देते
थे। सोचा, अब इस
गंवार
रामकृष्ण को
भी हरा आयें।
क्योंकि ये तो
बेपढ़े—लिखे थे।
दूसरी बंगाली
तक पढ़े थे। न
जानें
शास्त्र, न
जानें पुराण—इनको
हराने में
क्या देर
लगेगी। और भी
उनके संगी—साथी
देखने पहुंच
गये थे कि
रामकृष्ण की
फजीहत होते
देखकर मजा
आयेगा। लेकिन
फजीहत
केशवचंद्र की
हो गई।
रामकृष्ण
जैसे व्यक्ति
को तर्क से
नहीं हराया जा
सकता, क्योंकि
रामकृष्ण
जैसे व्यक्ति
का आधार ही तर्क
पर नहीं होता।
तर्क पर आधार
हो, तो
तर्क को खींच
लो, तो गिर
पढ़ें। तर्क पर
जिसका आधार ही
नहीं है, तुम
क्या खींचोगे?
केशवचंद्र
ने तर्क पर
तर्क दिये और
रामकृष्ण उठ—उठकर
उनको छाती से
लगा लें! और
कहें, 'क्या
गजब की बात
कही! वाह! वाह!
अहा! आनंद आ
गया!'
वे जो
साथ गये थे, वे भी
हतप्रभ हो गये,
और
केशवचंद्र भी
थोड़ी देर में
सोचने लगे कि
मामला क्या
है! मै भी किस
पागल के चक्कर
में पड़ गया!
मैं इसके
खिलाफ बोल रहा
हूं ईश्वर के
खिलाफ बोल रहा
हूं
शास्त्रों के.
खिलाफ बोल रहा
हूं और यह किस
तरह का पगला
है। कि यह उठ—उठकर
मुझे गले
लगाता है।
केशवचंद्र
ने कहां, 'एक बात
पूछूं! कि मैं
जो बोल रहा
हूं यह धर्म
के विपरीत बोल
रहा हूं ईश्वर
के विपरीत बोल
रहा हूं
शास्त्र के
विपरीत बोल
रहा हूं। मैं
आपको उकसा रहा
हूं—आप विवाद
करने को तत्पर
हो जायें। और
आप क्या करते
हैं! आप मुझे
गले लगाते
हैं! और आप
कहते हैं : अहा,
आनंद आ गया!'
रामकृष्ण
ने कहां, 'आनंद आ रहा
है—कहता नहीं
हूं। बड़ा आनंद
आ रहा है।
थोड़ा—बहुत अगर
संदेह भी था
परमात्मा में,
वह भी तुमने
मिटा दिया!'
केशवचंद्र
ने कहां, 'वह कैसे?'
तो कहां
कि 'तुम्हें
देखकर मिट गया।
जहां ऐसी
प्रतिभा
मनुष्य में हो
सकती है, जहां
ऐसी अद्भुत
चमकदार
प्रतिभा हो
सकती है, तो
जरूर किसी
महास्रोत से
आती होगी। इस
जगत के स्रोत
में महाप्रतिभा
होनी ही चाहिए,
नहीं तो
तुममें
प्रतिभा कहां
से आती? जब
फूल खिलते हैं,
तो उसका
अर्थ है कि
जमीन गंध से
भरी होगी।
छिपी है गंध, तभी तो
फूलों में
प्रगट होती है।
तुम्हारी गंध
को देखकर.. .मैं
तो बेपढ़ा—लिखा
आदमी है, रामकृष्ण
कहने लगे, 'मेरी
तो क्या प्रतिभा
है! कुछ
प्रतिभा नहीं।
लेकिन
तुम्हें तो
देखकर ही
ईश्वर
प्रमाणित होता
है!'
केशवचंद्र
का सिर झुक
गया। चरण पर
गिर पड़े। और कहां, 'मुझे
क्षमा कर दो।
मैं तो सोचता
था, तर्क
ही सब कुछ है।
लेकिन आज
मैंने प्रेम
देखा। मैं तो
सोचता था—तर्क
ही सब कुछ है—आज
मैंने अनुभव
देखा। आपने
मुझे हराया भी
नहीं, और
हरा भी दिया!
यूं तो मुझे
हारने का कोई
कारण नहीं था,
अगर आप तर्क
करते तो। मगर
आपने अतर्क्य
बात कह दी। अब
मैं क्या
करूं! मेरी
जबान बंद कर
दी।’
रामकृष्ण
जैसे व्यक्ति
को मैं
धार्मिक कहता हूं।
मैं
विवेकानंद को
भी धार्मिक नहीं
कहता।
क्योंकि
विवेकानंद
मूलत: तार्किक
ही रहे। उनको
केशवचंद्र की
परंपरा में ही
गिना जाना चाहिए; रामकृष्ण
की परंपरा में
नहीं।
रामकृष्ण बात
और! कही
रामकृष्ण—और
कहां
विवेकानंद!
रामकृष्ण? हीरा
हैं; विवेकानंद
तो दो कौड़ी की
बात है। मगर
लोगों को
विवेकानंद
जंचते हैं, क्योंकि वे
तर्क
में जी
रहे हैं।
रामकृष्ण की
बात तो बेबूझ
लगेगी—अतर्क्य
है। लेकिन
धर्म ही
अतर्क्य है।
तर्क के पार
जाने में ही
धर्म है।
आज
इतना ही।
'जो बोलैं तो
हरिकथा' प्रवचनमाला
से
दिनांक
26 जुलाई 1980; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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