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गुरुवार, 22 अक्तूबर 2015

तंत्र--सूत्र--(भाग--3) प्रवचन--44

आधुनिक मनुष्‍य प्रेम में असमर्थ क्‍यों—(प्रवचन—चव्‍वालीसवां)

प्रश्‍नसार:
1—आधुनिक मनुष्‍य प्रेम करने में असमर्थ क्‍यों हो गया है?
2—केंद्र की उपलब्‍धि के लिए क्‍या परिधिगत गति बंद होनी आवश्‍यक है?
3—क्‍या चिंता और निराशा के बिना परिवर्तन को परिवर्तन
के द्वारा विसर्जित करना कठिन नहीं है?
      4—तनाव और भाग—दौड़ से भरे आधुनिक शहरी जीवन
            के प्रति तंत्र का क्‍या दृष्‍टिकोण है?

पहला प्रश्न :

तंत्र प्रेम कीं विधि है, अपने हम वक्‍तव्य के संदर्भ में कृपया हमें समझाएं कि आधुनिक मनुष्‍य प्रेम करने में असमर्थ क्यों हो गया है?
प्रेम सहज है; उसे नियंत्रित नहीं किया जा सकता। तुम प्रेम कर नहीं सकते; इस संबंध में तुम कुछ नहीं कर सकते। तुम जितना ही करोगे, उतना ही चूकोगे। तुम्हें प्रेम को होने देना है।
उसके लिए तुम जरूरी नहीं हो; तुम्हारी उपस्थिति ही बाधा है। तुम जितने अनुपस्थित रहोगे उतना अच्छा। जब तुम नहीं होते तो प्रेम होता है।
अनुपस्थित होने की अपनी असमर्थता के कारण आधुनिक पुरुष और स्त्री प्रेम करने में असमर्थ हो गए हैं। वे केवल करने में समर्थ हैं; समूचा आधुनिक चित्त कृत्य पर आधारित है। जो कुछ भी किया जा सकता है उसे आधुनिक मनुष्य अतीत के किसी भी मनुष्य से ज्यादा कुशलता से कर सकता है। जो भी किया जा सकता है उसे हम ज्यादा कुशलतापूर्वक कर सकते हैं। हमारी सदी सर्वाधिक कुशल व दक्ष सदी है। हमने हर एक चीज को टेक्‍नीक में बदल दिया है। हमने हर एक चीज को 'कैसे करने' की समस्या में बदल दिया है।
हमने एक आयाम में बहुत विकास किया है; और वह करने का आयाम है। लेकिन इस आयाम को विकसित करने में हमने बहुत कुछ गंवा दिया है। होने की कीमत पर हमने करना सीखा है। इसलिए जो किया जा सकता है उसे हम किसी से भी, अतीत के किसी भी समाज से बेहतर ढंग से कर सकते हैं। लेकिन जब प्रेम का प्रश्न आता है तो समस्या उठ खड़ी होती है, क्योंकि प्रेम किया नहीं जा सकता।
और ऐसा प्रेम के साथ ही नहीं है; हम उन सभी बातों में असमर्थ हो गए हैं जो करने से नहीं होतीं। उदाहरण के लिए ध्यान है। हम ध्यान में असमर्थ हो गए हैं, ध्यान किया नहीं जा सकता। खेल है; हम उसमें भी असमर्थ हो गए हैं। यह किया नहीं जा सकता। वैसे ही आनंद है, सुख है। हम उनमें भी असमर्थ हो गए हैं, क्योंकि वे भी लाए नहीं जा सकते। वे कृत्य नहीं हैं, तुम उन्‍हें जबरदस्ती नहीं ला सकते। उलटे तुम्हें अपने को हटाना होगा, अपने को खोना होगा। तब सुख घटित होता है, तब प्रसन्नता आती है, तब प्रेम तुममें प्रवेश करता है। तुम्हारे विदा होने पर ही प्रेम तुम में उतरता है, तुम्हें अभिभूत करता है।
और हम मिटने से, आविष्ट होने से डरते हैं। आधुनिक मनुष्य सब पर अधिकार करना चाहता है, लेकिन वह खुद किसी के अधिकार में नहीं होना चाहता। वह खुद सबका मालिक बनना चाहता है। लेकिन मालिक केवल वस्तुओं का हुआ जा सकता है; प्राणों का नहीं। तुम किसी मकान के मालिक हो सकते हो। तुम किसी मशीन के मालिक हो सकते हो। लेकिन तुम किसी ऐसी चीज के मालिक नहीं हो सकते जो जीवित है, प्राणवान है। जीवन पर मालकियत नहीं की जा सकती; तुम उसे अपने कब्जे में नहीं कर सकते। बल्कि इसके विपरीत तुम्हें ही जीवन के कब्जे में होना है, केवल तभी जीवन से संपर्क हो सकता है।
प्रेम जीवन है। और प्रेम तुमसे बड़ा है, तुम उस पर मालकियत नहीं कर सकते। मैं इस बात को दोहराना चाहूंगा कि प्रेम तुमसे बड़ा है, तुम उस पर अधिकार नहीं जमा सकते। तुम प्रेम की मालकियत स्वीकार कर सकते हो, तुम प्रेम को अपने ऊपर आच्छादित होने दे सकते हो, लेकिन तुम उसे नियंत्रण में नहीं रख सकते।
आधुनिक अहंकार सबको अपने नियंत्रण में रखना चाहता है, और जो उसके नियंत्रण में नहीं आ पाता उससे वह भयभीत हो जाता है। तुम डर जाते हो, तुम दरवाजा बंद कर लेते हो। तुम उस आयाम को बिलकुल छोड़ ही देते हो, क्योंकि भय होता है। वहा तुम्हारा नियंत्रण नहीं चलेगा, प्रेम पर तुम्हारा जोर नहीं चलेगा। और इस सदी के निर्माण में इस प्रवृत्ति का बड़ा योगदान है कि कैसे नियंत्रण किया जाए। सारे संसार में, विशेषकर पश्चिम में यह प्रवृत्ति सक्रिय है कि कैसे प्रकृति को काबू में किया जाए, कैसे ऊर्जा को वश में किया जाए, कैसे सब कुछ को नियंत्रित किया जाए। मनुष्य मालिक बनने के लिए परेशान है।
और तुम मालिक हो भी गए हो, हालाकि तुम उन्हीं चीजों के मालिक हो जिनका मालिक होना संभव है। और साथ—साथ तुम उन चीजों में असमर्थ होते गए हो जिनका मालिक होना संभव नहीं है। तुम धन के मालिक हो सकते हो, लेकिन प्रेम के मालिक नहीं हो सकते। और यही कारण है कि हम सबको वस्तु बनाने में लगे हैं; हम व्यक्तियों को भी वस्तु बना लेते हैं। क्योंकि वस्तु बनाकर ही उन्हें हम अपने कब्जे में रख सकते हैं।
अगर तुम किसी को प्रेम करते हो तो तुम उसके मालिक नहीं हो; कोई भी मालिक नहीं है। दो प्रेमपूर्ण व्यक्तियों में कोई किसी का मालिक नहीं है—न प्रेमी, न प्रेमिका। सच्चाई यह है कि प्रेम उनका मालिक है; दोनों ही उनसे किसी बड़ी शक्ति से आविष्ट हैं—एक विराट ऊर्जा, एक झंझावात ने उन्हें घेर लिया है।
अगर वे एक—दूसरे पर मालकियत करने की कोशिश करेंगे तो वे प्रेम से चूक जाएंगे। तब फिर मालकियत संभव है; तब प्रेमी पति बन जाएगा और प्रेमिका पत्नी बन जाएगी। तब कब्जा हो सकता है; लेकिन अब वे व्यक्ति नहीं रहे, वस्तु हो गए। पति वस्तु है, पत्नी वस्तु है, तब मालकियत संभव है। मगर वे मुर्दा संबंध हैं, कानूनी नाम हैं—जीवंत व्यक्ति नहीं हैं।
मालकियत करने के लिए हम व्यक्तियों को वस्तुओं में बदल देते हैं; और फिर निराशा हाथ आती है। कारण यह है कि हम व्यक्ति पर मालकियत करना चाहते थे, और व्यक्ति पर मालकियत नहीं हो सकती। जब भी तुम किसी व्यक्ति के मालिक बन जाते हो, वह व्यक्ति व्यक्ति नहीं रह जाता, वह मृत वस्तु बन जाता है। और तुम मृत वस्तु से तृप्त नहीं हो सकते हो। इस विरोधाभास को देखो। व्यक्ति ही तुम्हें तृप्त कर सकता है, वस्तु नहीं। लेकिन तुम्हारा मन मालकियत करना चाहता है, इसलिए तुम उन्हें वस्तुओं में बदल देते हो। लेकिन वस्तुओं से तृप्ति मिलनी संभव नहीं है। और तब निराशा ही निराशा हाथ आती है। मालकियत करने की, अधिकार जमाने की प्रवृत्ति ने प्रेम करने की क्षमता को नष्ट कर दिया है।
मालकियत की भाषा से मत सोचो, बल्‍कि डूब जाने की भाषा में सोचो। समर्पण का वही अर्थ है, डूब जाना। समर्पण में तुम अपने को अपने से किसी बड़ी शक्ति के हाथों में सौंप देते हो, उससे आविष्ट हो जाते हो। तब तुम्हारा कोई वश नहीं चलेगा; तब तुमसे कोई बड़ी शक्ति तुम्हें अपने हाथों में ले लेगी। तब किधर जाना है, कहा जाना है, यह तुम्हारे हाथ में नहीं रहा। तब भविष्य अज्ञात है; अब तुम सुनिश्चित नहीं हो।
अपने से बड़ी शक्ति के साथ चलने में तुम असुरक्षित और भयभीत महसूस करते हो। और अगर तुम भयभीत हो, असुरक्षित हो, तो अच्छा है कि बड़ी शक्तियों के साथ मत चलो; तब अपने से छोटी शक्तियों के साथ रहना ही बेहतर है। छोटी शक्तियों के साथ रहकर तुम मालिक रह सकते हो, पहले से अपना गंतव्य निश्चित कर सकते हो। और तब तुम्हें तुम्हारा गंतव्य उपलब्ध भी हो जा सकता है। लेकिन ध्यान रहे, यह उपलब्धि कोई उपलब्धि नहीं है; उससे तुम्हें कुछ मिलने वाला नहीं है। तुमने जीवन व्यर्थ ही गंवाया।
प्रेम का रहस्य, प्रार्थना का रहस्य, या किसी भी तृप्ति देने वाली चीज का रहस्य समर्पण में है, अपने को छोड़ने की क्षमता में है। और प्रेम की समस्या इसीलिए है क्योंकि मनुष्य की यह क्षमता खो गई है। और दूसरे कारण भी हैं, लेकिन यह आधारभूत कारण है। पहला कारण यह है कि बुद्धि पर, तर्क पर अतिशय जोर दिया जाता है। इसलिए मनुष्य एकांगी हो गया है, तुम्हारा मस्तिष्क बड़ा हो गया है और हृदय अत्यंत उपेक्षित रह गया है। और प्रेम करना मस्तिष्क की क्षमता नहीं है। प्रेम का स्रोत भिन्न है, उसका स्थान भिन्न है। प्रेम तुम्हारे हृदय में बसता है। प्रेम तुम्हारा भाव है, तर्क नहीं। लेकिन सारी आधुनिक शिक्षा बुद्धि और तर्क पर, मस्तिष्क और सोच—विचार पर आधारित है। वहा हृदय की चर्चा तक नहीं है; असल में हृदय वहा अस्वीकृत है। हृदय एक कपोल—कल्पना मात्र है।
लेकिन ऐसा नहीं है; हृदय एक यथार्थ है, सत्य है।
इस बात को इस ढंग से देखो। अगर आरंभ से ही किसी बच्चे को मस्तिष्क का, बुद्धि का, तर्क का प्रशिक्षण, बौद्धिक प्रशिक्षण दिए बिना ही बड़ा किया जाए तो क्या उसको बुद्धि होगी? उसे बुद्धि नहीं हो सकती है।
ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं। कभी—कभी ऐसा हुआ कि मनुष्य का बच्चा भेड़ियों द्वारा बड़ा किया गया। अभी सिर्फ दस साल पहले एक बच्चा जंगल में पाया गया; उसे भेड़ियों ने पाला—पोसा था। उसकी उम्र चौदह साल थी। वह दो पांवों पर खड़ा नहीं हो सकता था; वह चार पांवों से चलता था। वह एक शब्द भी नहीं बोल सकता था; वह भेड़ियों की तरह गुर्राता था। वह हर तरह से भेड़िया था; और वह चौदह वर्ष का था।
जिन लोगों ने उसको पकड़ा था उन्होंने उसका नाम राम रख दिया था। उस बच्चे को अपना नाम सीखने में छह महीने लगे। और एक वर्ष के भीतर वह बच्चा मर गया। जो मनसविद उसके साथ मेहनत कर रहे थे उनका अनुमान है कि मस्तिष्क पर अतिशय तनाव पड़ने के कारण उसकी मृत्यु हुई। दो पांवों पर खड़ा करने का प्रशिक्षण, अपना नाम याद रखने के लिए स्मृति का प्रशिक्षण, उसे मनुष्य बनाने की चेष्टा, इन सब चीजों ने उसे मारा। जब वह जंगल से लाया गया था तब वह शरीर से तगडा था; किसी भी मनुष्य से ज्यादा स्वस्थ था। वह ठीक पशु जैसा था, लेकिन प्रशिक्षण ने उसकी जान ले ली।
तमाम कोशिशें की गईं कि जब तुम पूछो कि तुम्हारा नाम क्या है? तो वह कह सके कि मेरा नाम राम है। इतनी ही उसकी कुल बुद्धि थी। छह महीनों तक सतत प्रशिक्षण देने के बाद, सब तरह के भय और लोभ देने के बाद वह बच्चा अपनी बुद्धि का इतना ही प्रमाण दे सका कि वह राम कह सका।
क्या हुआ? अगर कोई मंगल ग्रह का रहने वाला इस बच्चे को मिलता तो वह यही समझता कि मनुष्यता के पास मन नहीं है, मस्तिष्क नहीं है, बुद्धि नहीं है।
यही बात हृदय के साथ घटित हुई है। प्रशिक्षण के बिना हृदय ऐसा है कि नहीं के बराबर है। हृदय बिलकुल ही उपेक्षित रहा है। नतीजा यह हुआ कि तुम्हारी संपूर्ण जीवन—ऊर्जा मस्तिष्क में समा जाने को विवश हो गई; वह हृदय की तरफ बहती ही नहीं। और प्रेम हृदय—केंद्र का काम है।
यही कारण है कि आधुनिक मनुष्य प्रेम करने में असमर्थ हो गया है; आधुनिक मनुष्य हृदय के मामलों में असमर्थ हो गया है। वह हिसाब लगाता है, और प्रेम हिसाब—किताब नहीं है। वह गणित जानता है, और प्रेम गणित नहीं है। वह तर्क की भाषा में सोचता है, और प्रेम अतर्क्य है। वह हर एक चीज को बुद्धि—संगत बनाने की कोशिश करता है; वह जो भी करता है उसमें बुद्धि का समर्थन पाना चाहता है, और प्रेम बुद्धि की नहीं सुनता है।
असल में जब तुम प्रेम में पड़ते हो तो तुम बुद्धि को पूरी तरह ताक पर धर देते हो। इसीलिए हम कहते हैं कि व्यक्ति प्रेम में गिर गया। वह कहां से गिरता है? वह मस्तिष्क से नीचे हृदय में गिरता है। हम यह निंदा से कहते हैं कि 'प्रेम में गिर गया', क्योंकि बुद्धि प्रेम को निंदा के बिना नहीं देख सकती; उसके लिए प्रेम गिरना है। लेकिन प्रेम वस्तुत: क्या है? पतन है या उत्थान है? तुम प्रेम से बढ़ते हो या घटते हो? तुम विस्तीर्ण होते हो या सिकुड़ते हो?
प्रेम से तुम बढ़ते हो, विस्तीर्ण होते हो। प्रेम से तुम्हारी चेतना बढ़ती है, तुम्हारा भाव बढ़ता है, तुम्हारी संवेदना बढ़ती है। तुम्हारा आनंद बढ़ता है, तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ती है। प्रेम में तुम ज्यादा जीवंत होते हो। लेकिन एक चीज कम हो जाती है, तुम्हारी तार्किक बुद्धि कम हो जाती है। तुम प्रेम को बुद्धि से नहीं समझ सकते, वह अंधा है। जहां तक बुद्धि का संबंध है, प्रेम अंधा है। यह दूसरी बात है कि हृदय के पास अपनी समझ है। यह और बात है कि हृदय के पास अपनी आंखें हैं। लेकिन बुद्धि की आंखें वहा नहीं हैं। इसलिए बुद्धि कहती है कि यह पतन है, कि तुम गिर गए।
जब तक हृदय—केंद्र फिर से सक्रिय नहीं होगा, मनुष्य प्रेम करने में समर्थ नहीं होगा। और आधुनिक जीवन का सारा संताप यह है कि प्रेम किए बिना उसके जीवन में अर्थवत्ता नहीं आ सकती। जीवन अर्थहीन मालूम पड़ता है। प्रेम उसे अर्थ देता है। प्रेम के सिवाय कोई दूसरा अर्थ नहीं है। जब तक तुम प्रेम में समर्थ नहीं होते, तुम अर्थशून्य रहोगे, तुम्हें लगेगा कि मैं व्यर्थ जी रहा हूं।
और तब तुम्हें आत्मघात आकर्षित करने लगेगा; तब तुम जीवन से हाथ धो लेना चाहोगे; तब तुम अपने को समाप्त कर देना चाहोगे। तुम कहोगे कि जीने का क्या प्रयोजन है? किसी भी तरह जीए जाना बरदाश्त नहीं हो सकता; जीवन में अर्थ होना जरूरी है। अन्यथा प्रयोजन क्या है? नाहक जीवन को लंबाए जाने में क्या रखा है? क्यों रोज—रोज एक ही ढर्रे को दोहराते रहना? रोज सुबह उठना और वही—वही चीजें करना, रात फिर सो जाना। फिर सुबह उठना और फिर वही—वही दिनचर्या दोहराना। क्यों? अब तक तुमने यही किया; लेकिन उससे क्या हुआ? और तुम तब तक यही किए जाओगे जब तक मृत्यु आकर तुम्हारा शरीर नहीं छीन लेगी। फिर क्या प्रयोजन है?
प्रेम अर्थ देता है। ऐसा नहीं है कि प्रेम के द्वारा कोई लक्ष्य या गंतव्य हाथ आता है; नहीं, प्रेम के द्वारा प्रत्येक क्षण अपने आप में मूल्यवान हो उठता है। तब तुम नहीं पूछोगे कि जीवन का क्या अर्थ है। जब कोई व्यक्ति पूछता है कि जीवन का क्या अर्थ है तो भलीभांति समझ लेना कि वह अभी प्रेम से वंचित है। जब कोई जीवन का अर्थ पूछता है तो उसका इतना ही मतलब है कि उसमें अभी प्रेम के अनुभव का फूल नहीं खिला है। और जब कोई प्रेम में होता है तो वह यह नहीं पूछता कि जीवन का अर्थ क्या है। उसे अर्थ मालूम है; उसे पूछने की जरूरत नहीं है। वह अर्थ जानता है; अर्थ मौजूद है, प्रेम ही जीवन में अर्थ है।
और प्रेम से प्रार्थना संभव होती है। क्योंकि प्रार्थना भी एक प्रेम—संबंध है—दो व्यक्तियों के बीच नहीं, बल्कि व्यक्ति और समस्त अस्तित्व के बीच। तब समस्त अस्तित्व तुम्हारा प्रेम—पात्र हो जाता है। लेकिन सिर्फ प्रेम के अनुभव से ही यह संभव है कि तुम प्रार्थना या ध्यान में उठो, विकास पाओ। और परम समाधि की अवस्था ठीक प्रेम जैसी है।
इसीलिए जीसस कहते हैं कि परमात्मा प्रेम है। वे यह नहीं कहते कि परमात्मा प्रेमपूर्ण है। ईसाई इसका यही अर्थ करते रहे हैं कि परमात्मा प्रेमपूर्ण है। उसका यह अर्थ नहीं है। जीसस कहते हैं कि परमात्मा प्रेम है; वे परमात्मा और प्रेम को समान बताते हैं। तुम प्रेम कहो या परमात्मा कहो; दोनों का एक ही अर्थ है। परमात्मा प्रेमपूर्ण नहीं, स्वयं प्रेम ही है। अगर तुम प्रेम कर सको तो तुम परमात्मा में प्रवेश कर गए। और जब तुम्हारा प्रेम इतना विराट हो जाता है कि वह किसी व्यक्ति विशेष से नहीं बंधा रहता है, जब तुम्हारा प्रेम व्यापक हो जाता है, जब किसी एक प्रेम—पात्र की जगह सारा अस्तित्व ही तुम्हारा प्रेम—पात्र हो जाता है—तब प्रेम प्रार्थना बनता है।
और तंत्र एक प्रेम—विधि है। तो पहली बात यह है कि कैसे प्रेम किया जाए, और दूसरी बात कि कैसे प्रेम को विकसित किया जाए कि वह प्रार्थना बन सके। लेकिन आरंभ तो प्रेम से ही करना होगा। और प्रेम से भयभीत मत होओ। क्योंकि वह भय बताता है कि तुम हृदय से भयभीत हो। बुद्धि चालाक है; हृदय निर्दोष है। बुद्धि के साथ तुम सुरक्षित अनुभव करते हो; हृदय के साथ तुम असुरक्षित हो जाते हो, खुले होते हो। खुले होने में खतरा है, कुछ भी हो सकता है।
यही कारण है कि हम बंद हो गए हैं। यह खतरा तो है; अगर तुम खुले रहे तो कुछ भी हो सकता है। हो सकता है, कोई तुम्हें धोखा दे दे। बुद्धि के साथ रहने से कोई तुम्हें धोखा नहीं दे सकता, बल्कि तुम ही दूसरों को ठग सकते हो। लेकिन मैं कहता हूं कि ठगे जाने के लिए तैयार रहो, मगर हृदय को मत बंद करो। ठगे जाने के लिए तैयार रहना श्रेयस्कर है, क्योंकि उससे तुम्हारी कोई हानि नहीं होने वाली है। और यदि तुम अनंत काल तक ठगे जाने के लिए भी तैयार हो, तो ही तुम हृदय पर भरोसा कर सकते हो। अगर तुम हिसाबी—किताबी हो, चालाक हो, होशियार हो, जरूरत से ज्यादा होशियार हो, तो तुम हृदय से चूक ही जाओगे।
आधुनिक मनुष्य—विशेषकर पुरुष—बहुत शिक्षित है, बहुत सुसंस्कृत है, बहुत कृत्रिम है, बहुत चालाक है। और यही कारण है कि वह प्रेम करने में असमर्थ हो गया है। स्त्री ऐसी नहीं है; लेकिन वह तेजी से आधुनिक पुरुष का अनुगमन कर रही है, अनुकरण कर रही है। देर—अबेर वह पुरुष जैसी हो जाएगी; संभव है कि वह पुरुष को भी मात दे दे। और अब वह भी वैसे ही प्रेम करने में असमर्थ हो रही है; क्योंकि वह भी बौद्धिक बन रही है, चालाकी सीख रही है, धूर्त हो रही है। वह नारी मुक्ति आदोलन भले चलाए या वैसा ही और कुछ करे; लेकिन यह सब हृदय का काम नहीं है। यह तो उसी मूढ़ता का अनुकरण है जिसे पुरुष अपने साथ करता रहा है। स्त्री दूसरी अति पर पहुंच सकती है। लेकिन ध्यान रहे, जब तुम प्रतिक्रिया करते हो तो प्रतिक्रिया में भी अनुगमन ही करते हो।
एक भारी संकट उपस्थित है। अब यह बहुत कठिन है कि सारी दुनिया में स्त्रियों को पुरुषों की और उनकी मूढ़ताओं की नकल करने से रोका जा सके, क्योंकि उन्हें लगता है कि पुरुष सफल हैं। एक ढंग से वे जरूर सफल हुए हैं; वे चीजों के मालिक बन गए हैं। अभी सारा संसार पुरुष के हाथ में है। स्त्री को लगता है कि पुरुष ने प्रकृति को जीत लिया है। और कहावत है कि सफलता से बढ़कर कुछ नहीं है। तो अब स्त्री सोचती है कि पुरुष सफल हो गया है, संसार का मालिक हो गया है, तो वे भी उसका अनुकरण करें।
लेकिन जरा वहां भी तो निगाह डालो जहां पुरुष बुरी तरह निष्फल हो गया है। उसने अपना हृदय गंवा दिया है, वह प्रेम करने में असमर्थ हो गया है। बुद्धि अकेली पर्याप्त नहीं है। और बुद्धि मालिक बन जाए तो खतरनाक है। हृदय को बुद्धि के ऊपर होना चाहिए, क्योंकि बुद्धि एक यंत्र भर है और तुम हृदय हो। हृदय को बुद्धि का उपयोग करने दो; बुद्धि को हृदय का उपयोग मत करने दो। लेकिन तुम वही कर रहे हो; तुमने बुद्धि को हृदय पर हावी होने दिया है। और बुद्धि की प्रभुता के नीचे हृदय की हत्या हो गई है।
इस संबंध में एक और बात स्मरण रखने योग्य है कि क्यों आधुनिक मनुष्य प्रेम में असमर्थ हो गया है। प्रेम बुनियादी रूप से एक ढंग का पागलपन है। प्रेम प्रकृति के साथ गहन भागीदारी है। प्रेम अहंकार का विसर्जन है। प्रेम आदिम है। तुम प्रेम से पैदा होते हो; तुम्हारे शरीर का एक—एक कोष्ठ प्रेम से पैदा हुआ है। तुम्हारी पूरी ऊर्जा, जीवन—ऊर्जा प्रेम—ऊर्जा ही तो है। तुम उसमें ही जीते हो।
लेकिन वहां कोई अहंकार नहीं है; उसमें तुम्हें 'मैं' की प्रतीति नहीं होती। वह ऊर्जा अचेतन है; और जब तुम प्रेम में प्रवेश करते हो तो तुम भी अचेतन हो जाते हो। मन का एक छोटा सा खंड ही चेतन है, और उसी चेतन खंड में अहंकार का निवास है।
मन के तीन तल हैं। पहला तल अचेतन का तल है। जब तुम गहरी नींद में होते हो, जहां कोई स्‍वप्‍न भी नहीं होता, तो तुम अचेतन में होते हो। मां के गर्भ में जो बच्चा है वह बिलकुल अचेतन है; वह मां का एक अंग मात्र है। बच्चे को यह बोध नहीं है कि मैं अलग म् हूं। वह मां का ही अंग है। वहा कोई दूरी नहीं है; उसका अलग अस्तित्व नहीं है। वह मां से,
अस्तित्व से अभिन्न है। उसे कोई भय भी नहीं है, क्योंकि भय तब आता है जब तुम्हें अपना बोध होता है। बच्चा परम विश्राम में है, वह अचेतन है, बेहोश है।
दूसरा तल चेतन मन का है। यह तुम्हारा बहुत छोटा खंड है। परिवार और समाज और शिक्षा के द्वारा तुम्हारे अचेतन का दसवां हिस्सा तुममें चेतन हो गया है। जीने के लिए यह जरूरी था, तुम्हारा एक अंश चेतन हो गया है। लेकिन यह अंश भी बहुत जल्दी थक जाता है; इसीलिए तुम्हें नींद की जरूरत पड़ती है। नींद में तुम फिर गर्भस्थ बच्चे की भांति हो जाते हो। तुम पीछे हट गए; चेतन अंश वहां अब नहीं है। चेतन फिर अचेतन का हिस्सा बन गया। इसीलिए नींद इतनी ताजगी लाती है; सुबह तुम फिर जीवंत और ताजा अनुभव करते हो। क्योंकि नींद में तुम ऐसे ही होते हो जैसे मां के गर्भ में होते हो।
शायद तुमने गौर से न देखा हो; गहरी नींद में सोए हुए किसी व्यक्ति को देखो। तुम पाओगे कि करीब—करीब वह उसी मुद्रा में सोया है जैसे बच्चा गर्भ में होता है। और तुम यदि सोते समय सही आसन में सोओ तो नींद ज्यादा आसानी से आएगी। अगर तुम्हें नींद आने में कठिनाई महसूस हो तो मां के गर्भ की कल्पना करो, भाव करो कि तुम मां के गर्भ में हो और गर्भस्थ बच्चे का आसन बना लो; तुम गहरी नींद में उतर जाओगे। वही उष्णता भी चाहिए; अन्यथा नींद में बाधा पड़ेगी। तुम्हें उसी उष्णता की जरूरत है जो तुम्हें मां के गर्भ में उपलब्ध थी।
इसी कारण गरम दूध नींद लाने में सहयोगी होता है। अगर तुम सोने के पहले गरम दूध पी लो तो अच्छा होगा। गरम दूध तुम्हें पुन: बच्चा बना देता है। दूध बच्चे का भोजन है, और वह अगर गरम हो तो तुम्हें मां के स्तन से जुड्ने का अनुभव होगा। नींद के लिए गरम दूध इसीलिए अच्छा है क्योंकि तुम अपने बचपन में लौट जाते हो, तुम फिर बच्चे हो जाते हो।
नींद तुम्हें तरो—ताजा करती है। क्यों? क्योंकि चेतन मन थक जाता है। वह एक अंश मात्र है; समूचा मन तो अचेतन है। नींद में लौटकर चित्त पुनरुज्जीवित हो जाता है। सुबह में तुम्हें अच्छा लगता है, सुबह तुम्हें सुंदर लगती है, इसका यही कारण है। इसीलिए नहीं क्योंकि सुबह सुंदर होती है, बल्कि इसलिए भी कि उसे देखने के लिए तुम्हारे पास बच्चे की आंख होती है। दोपहर उतनी सुंदर नहीं लगती है। संसार तो दोपहर भी वही है, लेकिन तब तक तुम्हारी आंखों की निर्दोषता खो जाती है। सांझ कुरूप हो जाती है; क्योंकि तुम थके—मांदे होते हो।
तुम चेतन मन में बहुत रह चुके। अहंकार इस चेतन मन का केंद्र है। ये दो सामान्य स्थितियां हैं, जिन्हें हम जानते हैं। तीसरा तल, तीसरी अवस्था, जिसका संबंध तंत्र और योग से है, अतिचेतन की है। अतिचेतन का अर्थ है कि तुम्हारा समस्त अचेतन चेतन हो गया। अचेतन में अहंकार नहीं है; तुम समग्र हो। अतिचेतन में भी अहंकार नहीं है; तुम समग्र हो। लेकिन इन दोनों के बीच जो चेतन है उसका एक केंद्र है, वह केंद्र अहंकार है।
यह अहंकार ही समस्या है; यह अहंकार ही समस्या पैदा करता है। तुम प्रेम नहीं कर सकते, क्योंकि तब तुम्हें अचेतन हो जाना पड़ेगा—नींद जैसा अचेतन। या यदि तुम प्रार्थना की ऊंचाई छूना चाहते हो तो तुम्हें बुद्ध या मीरा की भांति समग्रत: चेतन होना पड़ेगा, अतिचेतन होना पड़ेगा। बीच के तल पर प्रेम असंभव है, और प्रार्थना भी असंभव है। अहंकार बाधा निर्मित करता है। तुम अपने को खो नहीं सकते; और प्रेम खोना है, मिटना है, पिघलना है, विलीन होना है। यदि तुम अचेतन में डूब जाओ तो वह प्रेम है। और यदि अतिचेतन में डूब जाओ तो वह प्रार्थना है। लेकिन दोनों में मिटना पड़ेगा, विलीन होना पड़ेगा।
तो क्या किया जाए? स्मरण रहे, इसके लिए कुछ भी नहीं किया जा सकता है। इस बात को गांठ बांध लो कि तुम प्रेम या प्रार्थना के संबंध में कुछ नहीं कर सकते हो। तुम्हारा चेतन मन नपुंसक है, वह कुछ नहीं कर सकता है। चेतन मन को खोना है; उसे अलग रख देना है। और तब समर्पण को स्मरण रखो। जब भी तुम अपने से पार जाना चाहते हो—चाहे प्रेम में या प्रार्थना में—तो समर्पण ही मार्ग है। जब भी पार जाना चाहो, जहां हो वहा से अतिक्रमण करना चाहो, तो समर्पण ही उपाय है।
कुछ चीजें हैं जो अपने आप ही घटित होती हैं; तुम उन्हें बस राह दो, उन्हें होने दो। और एक बार यदि तुम जान गए कि कैसे राह दी जाती है तो बहुत चीजें घटित होने लगेंगी। तुम्हें इसका बोध भी नहीं है कि तुम्हारी संभावना क्या है, कि तुम्हारे भीतर कैसी महान शक्तिशाली ऊर्जा बंद पड़ी है।
इस ऊर्जा का विस्फोट ही समाधि बन जाता है। तब तुम्हारा समस्त जीवन चैतन्य से, प्रकाश से, आनंद से आपूरित हो उठेगा। लेकिन तुम्हें इसका पता नहीं है। यह ऐसे ही है जैसे हर एक परमाणु में परमाणु बम छिपा है; एक परमाणु के विस्फोट से अपार ऊर्जा पैदा होती है। और प्रत्येक हृदय भी एक परमाणु बम है। जब प्रेम या प्रार्थना में उसका विस्फोट होता है तो उससे भी अपार ऊर्जा पैदा होती है।
लेकिन इस विस्फोट के लिए तुम्हें मिटना होगा, इसके लिए तुम्हें अपने को खोना होगा। बीज को बीज की भांति मिटना होगा, तो ही वृक्ष का जन्म हो सकता है। लेकिन अगर बीज प्रतिरोध करे और कहे कि मुझे जीना है, तो बीज जी सकता है, लेकिन वृक्ष का जन्म कभी नहीं होगा। और जब तक वृक्ष का जन्म नहीं होता, बीज निराशा अनुभव करेगा। वृक्ष होने में सार्थकता है, उसके बिना बीज का जीवन व्यर्थ हो जाएगा। फूलता—फलता वृक्ष हो जाने में ही बीज की सार्थकता है। लेकिन उसके लिए बीज को खोना होगा; बीज को मरना होगा।
आधुनिक मनुष्य प्रेम करने में असमर्थ हो गया है, क्योंकि वह मरने में असमर्थ हो गया है। वह किसी के प्रति मरने में असमर्थ हो गया है। वह जीवन से इस कदर आसक्त है कि किसी भी चीज के प्रति मरना उसके लिए असंभव हो गया है।
तीन—चार सौ वर्ष पूर्व पुरानी अंग्रेजी भाषा में यह आम कहावत थी, प्रेमी अपनी प्रेमिका से कहता था : 'आई वाट टु डाइ इन धू—मैं तुममें मर जाना चाहता हूं। यह एक प्रेमपूर्ण अभिव्यक्ति थी और बहुत सुंदर थी।मैं तुममें मर जाना चाहता हूं।प्रेम मृत्यु है, अहंकार की मृत्यु है। अहंकार की मृत्यु पर तुम्हारी आत्मा का जन्म होता है।
और आधुनिक मनुष्य मृत्यु से अत्यंत डरा हुआ है। समर्पण मृत्यु है, प्रेम मृत्यु है, और जीवन भी अनवरत मृत्यु है। अगर तुम भयभीत हो तो तुम जीवन से भी चूक जाओगे। प्रत्येक क्षण मरने के लिए राजी रहो। अतीत के प्रति मरो, भविष्य के प्रति मरो; और वर्तमान क्षण में भी मरो। न किसी से चिपको और न प्रतिरोध करो। जीवन के लिए कोई प्रयत्न मत करो, और तुम्हें अनंत जीवन उपलब्ध होगा। अगर तुम मरने को राजी हो तो ही तुम्हें जीवन उपलब्ध। होगा। यह बात विरोधाभासी मालूम पड़ती है, लेकिन यही नियम है।
जीसस कहते हैं कि जो खोने को राजी है उसे मिलेगा, और जो पकड़कर बैठेगा वह सब कुछ गंवा देगा।

दूसरा प्रश्‍न:

 कल रात आपने कहा कि परिधि सतत बदल रही है जब कि अंतरस्थ केंद्र नित्‍य है,
शाश्वत है। तो उस केंद्र को उपलब्ध होने के लिए क्या यह आवश्यक है कि परिधि की गतिविधियां बंद हों? क्या यह संभव है? कैसे और कब?

 तुम पूरी बात ही चूक गए। कुल बात यह थी कि परिधि को बदलने की कोई चेष्टा न की जाए; परिधि जैसी है उसे वैसी ही रहने दिया जाए। तुम उसको नहीं बदल सकते हो। गति और परिवर्तन परिधि का स्वभाव है; तुम उसे रोक नहीं सकते। प्रकृति प्रवाहमान है। वह ऐसी है, तुम उसे रोक नहीं सकते, तुम उसे ठहरा नहीं सकते। अपने समय और जीवन— अवसर को उसे ठहराने में मत गंवाओ। बस जान लो कि वह परिवर्तन है, और उसके साक्षी बनो। और तब तुम्हें उस अंतरस्थ केंद्र की प्रतीति होगी जो परिवर्तन नहीं है।
संसार परिवर्तन है। तुम्हारा व्यक्तित्व परिवर्तन है। तुम्हारा शरीर—मन परिवर्तन है। लेकिन तुम परिवर्तन नहीं हो। फिर परिवर्तन से लड़ने की क्या जरूरत है? कोई जरूरत नहीं है। तंत्र कहता है : कृपा करके अपने केंद्र में पुन: प्रतिष्ठित हो जाओ, उस केंद्र के प्रति बोधपूर्ण बनो जो अचल है। और पूरे अस्तित्व को गति करने दो; वह कतई उपद्रव नहीं है।
वह उपद्रव तब बनता है जब तुम उससे चिपकते हो या उसे ठहराने की कोशिश करते हो। तब तुम नाहक मूढ़ताओं में, बेकार प्रयत्नों में पड़ रहे हो। तुम्हारे प्रयत्न कभी सफल न होंगे; तुम निष्फल होओगे। भँलीभाति जान लो कि जीवन परिवर्तन है, लेकिन इस परिवर्तन के भीतर कहीं कोई अचल केंद्र भी है। उसके साक्षी हो जाओ। वह बोध ही तुम्हें मुक्त करने के लिए पर्याप्त है। यह भाव ही कि मैं अचल हूं मुक्तिदायी है। यही सत्य है। तुम यह जानते ही भिन्न व्यक्ति हो जाते हो।
छायाओं से मत लड़ो। और समस्त जीवन छाया है, क्योंकि बदलाहट छाया के अतिरिक्त कुछ नहीं है। अपरिवर्तन सत्य है, परिवर्तन मिथ्या है। इसलिए यह मत पूछो कि केंद्र को उपलब्ध होने के लिए क्या परिधिगत परिवर्तन और गतिविधियों को जबरदस्ती बंद करना जरूरी है। उसकी जरूरत नहीं है; और तुम्हारी जबरदस्ती नहीं चलेगी। परिवर्तन नहीं रुकेगा। संसार तो चलता रहता है; सिर्फ तुम्हारे भीतर वह नहीं चलेगा। तुम संसार में रह सकते हो; संसार को तुममें रहने की जरूरत नहीं है।
संसार उपद्रव नहीं है। जब तुम उसमें फंसते हो, जब तुम परिवर्तन बन जाते हो, जब तुम्हें महसूस होता है कि तुम परिवर्तन हो गए हो, तब समस्याएं पैदा होती हैं। समस्याएं बदलती परिधि के कारण नहीं पैदा होती हैं; वे इस तादात्म्य से पैदा होती हैं कि मैं ही यह परिवर्तन हूं। तुम बीमार हो गए हो। दरअसल यह बीमारी समस्या नहीं है, समस्या तब पैदा होती है जब तुम सोचते हो कि मैं बीमार हो गया हूं। अगर तुम बीमारी के साक्षी हो सको, अगर तुम देख सको कि बीमारी कहीं परिधि पर घटित हो रही है, मुझे नहीं—किसी दूसरे को हो रही है, मैं तो साक्षी भर हूं—तो मृत्यु के घटने पर भी तुम साक्षी बने रहोगे।
सिकंदर भारत से वापस जा रहा था। कुछ मित्रों ने उससे कहा था कि भारत से लौटते हुए वहा से एक संन्यासी लेते आना। उन्होंने कहा था : 'जब तुम जीत की संपदा लेकर स्वदेश लौटो तो साथ में एक संन्यासी लाना न भूलना। हम देखना चाहते हैं कि संन्यासी कैसा होता है जो संसार का त्याग कर देता है। हम जानना चाहते हैं कि वह व्यक्ति कैसा होता है जिसकी सब कामनाएं विसर्जित हो गई हैं। हम देखने को उत्सुक हैं कि जो व्यक्ति सब वासनाओं को, भविष्य की, संपदा की, वस्तुओं की सब आकांक्षाओं को छोड़ देता है, उसका आनंद कैसा होता है।
भारत से लौटते समय अंतिम क्षण में सिकंदर को इस बात का स्मरण आया। आखिरी शहर में, जहां से वह अपने देश के लिए रवाना होता, उसने अपने सैनिकों को हुक्म दिया कि जाओ और एक संन्यासी को पकड़ लाओ। सैनिक शहर में गए और उन्होंने एक के व्यक्ति से पूछा। उसने कहा. 'ही, यहां संन्यासी तो है, महान संन्यासी है; लेकिन उसे सिकंदर के साथ एथेंस जाने के लिए राजी करना कठिन होगा, बहुत कठिन होगा।
लेकिन सिपाही तो सिपाही ठहरे, उन्होंने कहा : 'इसकी फिक्र मत करो। हम ले जाएंगे। हमें इतना ही बता दो कि वह कहां है। राजी करने की जरूरत नहीं है; हम उठा ले जाएंगे। अगर सिकंदर पूरे नगर को चलने को कहे तो तुम्हें जाना होगा। फिर एक संन्यासी की क्या बात है!' का आदमी हंसा; लेकिन सिपाही नहीं समझ सके। कैसे समझते? संन्यासी से उन्हें कभी मिलना नहीं हुआ था। वे संन्यासी के पास गए।
वह नदी के किनारे नग्न खड़ा था। सैनिकों ने उससे कहा : 'सिकंदर का हुक्म है कि तुम्हें हमारे साथ चलना है। तुम्हारी सब देखभाल की जाएगी; तुम्हें किसी तरह की भी असुविधा नहीं होगी; तुम शाही मेहमान होंगे। लेकिन तुम्हें हमारे साथ एथेंस चलना है।
संन्यासी हंसा और उसने कहा. 'तुम्हारे सिकंदर के लिए मुझे अपने साथ एथेंस ले जाना बहुत मुश्किल होगा। इस दुनिया की कोई भी ताकत मुझे चलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती; लेकिन तुम यह बात नहीं समझ सकोगे। अच्छा हो कि तुम अपने सिकंदर को ही यहां ले आओ।
सिकंदर यह बात सुनकर हैरान रह गया; उसने अपमानित अनुभव किया। लेकिन वह इस आदमी को देखना चाहता था। वह हाथ में नंगी तलवार लिए वहा पहुंचा। और उसने कहा. 'अगर तुम इनकार करते हो तो तुम्हें अपने जीवन से हाथ धोना पड़ेगा; मैं तुम्हारा सिर काट दूंगा।सिकंदर के संस्मरणों के अनुसार संन्यासी का नाम ददामी था।
वह संन्यासी हंसा और बोला 'तुम जरा देर से आए। अब तुम मुझे नहीं मार सकते, क्योंकि मैंने खुद अपने को मार दिया है। तुम्हें थोड़ी देरी हो गई। तुम मेरा सिर काट सकते हो, लेकिन मुझे नहीं काट सकते। क्योंकि मैं साक्षी हो गया हूं। जब यह सिर जमीन पर गिरेगा तो तुम उसे गिरते देखोगे और मैं भी उसे गिरते देखूंगा। लेकिन तुम मुझे नहीं काट सकते; तुम मुझे छू भी नहीं सकते हो। तो समय मत गंवाओ, उठाओ अपनी तलवार और मेरा सिर काट डालो।
सिकंदर उस संन्यासी को नहीं मार सका। मारना असंभव था, क्योंकि मारना व्यर्थ था। वह आदमी मृत्यु के इतने पार चला गया था कि उसे मारना असंभव था।
तुम्हें तभी मारा जा सकता है, यदि तुम जीवन से आसक्त हो। परिवर्तनशील जगत से यह लगाव ही तुम्हें मरणधर्मा बनाता है। अगर यह लगाव न रहे तो तुम वह हो जो सदा से हो, तुम अमृत हो। अमृतत्व तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है—अमृतस्य पुत्र:। आसक्ति तुम्‍हें मरणधर्मा बनाती है।
तो परिवर्तनशील परिधि को ठहराने की जरूरत नहीं है; यह प्रश्न ही नहीं उठता है। यह संभव भी नहीं है। संसार—चक्र तो चलता ही रहेगा। तुम इतना ही कर सकते हो कि तुम जान लो कि तुम चक्र नहीं हो। तुम धुरी हो, चक्र नहीं।

 तीसरा प्रश्न :

मनुष्य जैसा है वैसे में क्या यह उसके लिए कठिन नहीं है कि वह आसक्‍ति के बिना और उससे होने वाली चिंता और निराशा के बिना परिवर्तन को परिवर्तन से, काम को काम से विसर्जित करे?

 नुष्य जैसा है वह यह कर सकता है। मनुष्य जैसा है वैसे मनुष्य के लिए ही यह उपाय है, विधि है। तंत्र औषधि है—तुम्हारे लिए, उनके लिए जो रुग्ण हैं। ऐसा मत सोचो कि तंत्र तुम्हारे लिए नहीं है। यह तुम्हारे लिए है, और तुम यह कर सकते हो। लेकिन तुम्हें समझना होगा कि इसका क्या अर्थ है जब तुम कहते हो कि आसक्ति में पड़ने की संभावना है और उसके परिणाम में निराशा हाथ आएगी। तब तुम नहीं समझे।परिवर्तन से परिवर्तन को विसर्जित करो' का अर्थ यह है कि यदि आसक्ति आती है तो उससे लड़ों मत, आसक्त रहो, लेकिन साक्षी भी बने रहो। आसक्ति को अपनी जगह रहने दो, और उससे संघर्ष मत करो। तंत्र असंघर्ष की विधि है। लड़ो मत। निराशा निश्चित आएगी; तो निराश होओ। लेकिन साथ—साथ साक्षी भी रहो। तुम आसक्त थे और तुम साक्षी थे। अब निराशा आई है और तुम जानते हो कि इसे आना ही था। अब निराश होओ, लेकिन साक्षी भी रहो। तब आसक्ति से आसक्ति विसर्जित हो जाती है, और निराशा से निराशा विसर्जित हो जाती है।
जब तुम दुखी हो तो इसका प्रयोग करो। दुखी होओ; दुख से लड़ो मत। इसे प्रयोग करो; यह अदभुत विधि है। जब दुख आए और तुम दुखी हो जाओ, तुम्हें पीड़ा अनुभव हो; तो तुम अपने द्वार—दरवाजे बंद कर लो और दुखी हो जाओ। अब और क्या कर सकते हो? तुम दुखी हो, तो तुम दुखी हो। अब पूरी तरह दुखी हो जाओ। और अचानक तुम्हें दुख का बोध होगा। लेकिन अगर तुम दुख को बदलने की कोशिश करोगे तो तुम्हें कभी दुख का बोध नहीं होगा। क्योंकि तब तुम्हारी चेतना, तुम्हारी ऊर्जा, तुम्हारा प्रयत्न, सब दुख को बदलने की दिशा में नियोजित हो जाएगा। तब तुम सोचने लगोगे कि यह दुख कैसे आया और इसे बदलने के लिए क्या किया जाए। और तुम एक बहुत सुंदर अनुभव से वंचित हो रहे हो, दुख को सीधे देखने से वंचित हो रहे हो। अब तुम दुख के कारणों पर विचार कर रहे हो, उसके परिणाम पर विचार कर रहे हो, उसे भूलने के उपाय खोज रहे हो, उससे छूटने के तरीके निकालने में लगे हो। तुम खुद दुख को चूक रहे हो जो कि वहा मौजूद है और जिसे सीधे देख लेना मुक्तिदायी हो सकता है।
कुछ मत करो। दुख कैसे पैदा हुआ, इसका विश्लेषण मत करो। और इसकी भी फिक्र मत करो कि इसके क्‍या—क्‍या परिणाम होंगे। परिणाम जब आएंगे तब उन्‍हें देख लेना। जल्‍दी क्या है? अभी दुखी होओ, सिर्फ दुखी होओ। और उसे बदलने की चेष्टा मत करो।
इस तरह प्रयोग करो : देखो कि कितने मिनट तक तुम दुखी रह सकते हो। तब तुम्हें पूरी चीज पर हंसी आएगी; पूरी चीज मूढ़तापूर्ण मालूम पडेगी। क्योंकि अगर तुम समग्रत: दुखी हो जाओ तो अचानक तुम्हारा केंद्र दुख के पार हो जाएगा। वह केंद्र कभी दुखी नहीं हो सकता; यह असंभव है। अगर तुम दुख के साथ बने रहे तो दुख पृष्ठभूमि बन जाता है और तुम्हारा केंद्र, जो कभी दुखी नहीं हो सकता, अचानक उभर आता है। और तब तुम दुखी हो और दुखी नहीं भी हों—असमता में समभाव। अब तुम दुख को दुख से विसर्जित कर रहे हो। यही इसका अर्थ है। तुम और कुछ नहीं करते हो; तुम सिर्फ दुख से दुख का विसर्जन कर रहे हो। दुख ऐसे ही विलीन हो जाएगा जैसे आकाश से बादल विलीन हो जाते हैं और आकाश खुल जाता है। तब तुम हंसोगे। और तुमने कुछ किया भी नहीं। और तुम कुछ कर भी नहीं सकते हो।
तुम जो भी करोगे उससे उलझन बढ़ेगी, दुख बढ़ेगा। किसने यह दुख पैदा किया है? तुमने। और अब तुम ही उसे बदलने की कोशिश कर रहे हो। उससे दुख बदतर हो जाएगा। तुम ही दुख के निर्माता हो, तुमने ही उसे पैदा किया है, तुम ही उसके स्रोत हो। और अब स्रोत ही प्रयत्न कर रहा है। तुम क्या कर सकते हो? अब रोगी अपना ही इलाज कर रहा है, जिसने सारा रोग खड़ा किया है। अब वह शल्य—चिकित्सा की सोच रहा है, वह आत्मघात होगा।
कुछ मत करो। अंतस बहुत गहरा है। कितनी बार तुमने कोशिश नहीं की कि दुख रुके, कि उदासी रुके, कि यह रुके, वह रुके, और कुछ भी नहीं रुका। अब यह प्रयोग करो कि कुछ मत करो और दुख को उसकी समग्रता में होने दो। दुख को उसकी पूरी त्वरा में होने दो और तुम निष्‍क्रिय बने रहो। तुम सिर्फ दुख के साथ रहो और देखो कि क्या होता है।
जीवन परिवर्तन है। हिमालय भी बदल रहा है। तुम्हारा दुख अचल नहीं रह सकता; वह अपने आप ही बदलेगा। और तुम दुख को बदलते हुए देखोगे, उसे विलीन होते हुए देखोगे, उसे विदा होते हुए देखोगे, और तब तुम निर्भार महसूस करोगे। और तुमने कुछ भी तो नहीं किया!
एक बार तुम्हें कुंजी हाथ लग जाए तो तुम किसी भी चीज का विसर्जन उसी चीज के द्वारा कर सकते हो। और कुंजी यह है कि बिना कुछ किए शांतिपूर्वक उसके साथ रहना। क्रोध है तो क्रोध ही हो जाओ; कुछ करो मत। अगर तुम इतना ही कर सके—यह न करना कर सके—अगर तुम मात्र साक्षी के रूप में उपस्थित रह सके, अगर तुमने कुछ बदलने का प्रयत्न नहीं किया और चीजों को अपनी राह जाने दिया, तो तुम किसी भी चीज का विसर्जन कर सकते हो। तुम किसी भी चीज का निरसन कर सकते हो।

 अंतिम प्रश्न :

 तंत्र कहता है कि जीवन की नदी के साथ संघर्ष मत करो, तैरो नहीं; बल्कि उसकी धारा में अपने को छोड़ दो और बहो। लेकिन अनुभव कहता है कि अति यंत्रीकरण और भाग—दौड़ से भरा आधुनिक शहरी जीवन शारीरिक और मानसिक तलों पर निरंतर तनाव और थकान पैदा करता है। इसके प्रति तंत्र की क्‍या दृष्‍टि है? क्‍या अनावश्‍यक भाग—दौड़ से बचना अच्‍छा नहीं है?

जीवन सदा ही ऐसा रहा है—चाहे आधुनिक हो या आदिम। उसमें तनाव हैं, चिंताएं हैं। विषय बदल जाते हैं, लेकिन आदमी वही का वही रहता है। दो हजार साल पहले तुम बैलगाड़ी चलाते थे, अब तुम कार चला रहे हो, लेकिन चालक वही है। बैलगाड़ी बदल गई, चीजें बदल गईं; तुम कार चला रहे हो। लेकिन चालक नहीं बदला है, वह वही है। वह अपनी बैलगाड़ी के लिए चिंतित था, तनावग्रस्त था; अब तुम अपनी कार के लिए चिंतित हो, तनावग्रस्त हो। विषय बदल जाते हैं, लेकिन मन वही रहता है।
तो ऐसा मत सोचो कि आधुनिक जीवन के कारण तुम इतने चिंताग्रस्त हो। उसका कारण तुम हो, आधुनिक जीवन नहीं। और तुम कहीं भी, किसी भी सभ्यता में चिंतित ही रहोगे। कुछ दिन के लिए, दो—तीन दिन के लिए तुम गांव चले जाओ। कुछ समय वहा तुम्हें अच्छा लगेगा, क्योंकि रोगों को भी समायोजित होना पड़ता है। तीन दिन के भीतर तुम गांव के साथ समायोजित हो जाओगे, और तब चिंताएं फिर सिर उठाने लगेंगी, उपद्रव फिर खड़े होने लगेंगे। अब कारण तो वही नहीं रहे, लेकिन तुम वही हो।
कभी—कभी ऐसा होता है कि तुम शहर के यातायात के कारण, शोरगुल के कारण परेशान हो जाते हो, और कहते हो कि इतनी भीड़भाड़ और शोरगुल के कारण मुझे रात में नींद नहीं आ पाती। तो गांव चले जाओ, और वहां भी नींद नहीं आएगी, क्योंकि वहा भीड़भाड़ नहीं है, शोरगुल नहीं है। तुम्हें शहर लौट आना पड़ेगा, क्योंकि गांव मुर्दा मालूम पड़ता है, उसमें जीवन नहीं है।
लोग मुझे अक्सर अपने ऐसे अनुभव सुनाते हैं। मैंने एक मित्र को काश्मीर जाने को, पहलगांव जाने को कहा। उसने लौटकर मुझे बताया कि वहां की जिंदगी बहुत नीरस है, वहां जिंदगी ही नहीं है। तुम वहां एक—दो दिन पहाडियों और घाटियों का आनंद लोगे, और उसके बाद ऊब जाओगे। वह आदमी मुझे कहा करता था कि शहर की जिंदगी में मेरा सिर चकराने लगता है, और वही अब कहता है कि वे पहाड़ ऊब पैदा करने लगे और मैं घर लौट आने के लिए आतुर हो उठा।
तुम समस्या हो, काश्मीर कोई मदद नहीं कर सकेगा। बंबई या लंदन या न्यूयार्क तुम्हें नहीं बेचैन करते हैं; बेचैनी का कारण तुम हो। लंदन ने तुम्हें नहीं बनाया; तुमने लंदन को बनाया है। यह यातायात, यह शोरगुल, यह पागल भाग—दौड़, सब तुम्हारी निर्मिति हैं; तुम जैसे लोगों की कृतियां हैं। देखो, कारण तुम्हारे भीतर है। ऐसा नहीं है कि तुम शोरगुल के कारण तनावग्रस्त हो; तुम्हारे तनावग्रस्त होने के कारण शोरगुल है; तुम उसके बिना नहीं रह सकते। तुम्हें उसकी जरूरत है, तुम उसके बिना नहीं जी सकते।
और गांवों में लोग अलग दुखी हैं। वे बंबई या न्यूयार्क या लंदन भागने को आतुर हैं। जैसे ही उन्हें मौका मिलता है, वे भागते हैं। और मैं उन लोगों को भी सुनता रहा हूं जो गांव के सुंदर जीवन की चर्चा करते रहते हैं; लेकिन वे किसी गांव में जाकर नहीं रहते। वे कभी वहां जाकर रहने को राजी नहीं हैं; लेकिन वे गांव की बातें बहुत करते हैं। तुम्हें कौन रोकता है? जाते क्‍यों नहीं? जंगल चले जाओ; कौन रोकता है?
 तुम्हें वह पसंद नहीं आएगा; तुम पसंद नहीं कर सकते। शुरू के कुछ दिन वह तुम्हें अच्छा लगेगा—बदलाहट के कारण। और फिर? फिर तुम ऊब जाओगे। तुम्हें सब फीका—फीका मालूम पड़ेगा; तुम वहां से भागना चाहोगे।
नगर का जीवन तुम्हारे विक्षिप्त मन ने निर्मित किया है। तुम इन नगरों के कारण पागल नहीं हो रहे हो; तुम्हारे पागल मन के कारण ये नगर बने हैं। वे तुम्हारे लिए बने हैं। तुमने उन्हें बनाया है, और वे तुम्हारे लिए हैं। और जब तक यह पागल मन नहीं बदलता है, ये नगर विदा नहीं होंगे। ये रहेंगे; ये तुम्हारी उप—उत्पत्ति हैं।
एक बात स्मरण रहे : जब भी तुम्हें लगे कि कोई चीज गलत है तो पहले उसका कारण अपने भीतर खोजो, और कहीं मत जाओ। सौ में निन्यानबे मौकों पर तुम्हें अपने भीतर ही कारण मिल जाएगा। और जब सौ में निन्यानबे कारण तुम्हारे भीतर होंगे तो सौवां कारण अपने आप ही विदा हो जाएगा। तुम्हें जो कुछ होता है उसका कारण तुम स्वयं हो। तुम कारण हो; संसार तो बस दर्पण है।
लेकिन कहीं और कारण की खोज से सांत्वना मिलती है; तब तुम अपराध अनुभव नहीं करते, तब तुम आत्मनिंदा अनुभव नहीं करते। तुम सदा कह सकते हो कि यह रहा कारण, और जब तक कारण नहीं बदलता, मैं कैसे बदल सकता हूं! तुम कारण के पीछे अपने को छिपा लोगे। यह चालबाजी है। इसीलिए तुम्हारा मन कारण को और कहीं प्रक्षेपित करता रहता है। पत्नी पति के कारण परेशान है। मां बच्चों के कारण परेशान है। बच्चे पिता के कारण परेशान हैं। हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के कारण परेशान है। और हर एक व्यक्ति सदा यही सोचता है कि कारण बाहर है।
मुल्ला नसरुद्दीन एक सड़क से गुजर रहा था। शाम का समय था और अंधेरा उतर रहा था। अचानक उसे बोध हुआ कि सड़क बिलकुल सूनी है, कहीं कोई नहीं है। और वह भयभीत हो उठा। तभी उसे सामने से लोगों का एक झुंड आता दिखाई पड़ा। उसने चोरों, डाकुओं और हत्यारों के बारे में पढ़ रखा था। बस उसने भय पैदा कर लिया और भय से कांपने लगा। उसने सोच लिया कि ये डकैत और खूनी लोग आ रहे हैं, और वे उसे मार डालेंगे। तो इनसे कैसे जान बचाई जाए? उसने सब तरफ देखा।
पास में ही एक कब्रिस्तान था। मुल्ला उसकी दीवार लांघकर भीतर चला गया। वहा उसे एक ताजी खुदी कब मिल गई जो किसी के लिए उसी दिन खोदी गई थी। उसने सोचा कि इसी कब में मृत होकर पड़े रहना अच्छा है। उन्हें लगेगा कि कोई मुर्दा पड़ा है; मारने की जरूरत नहीं है। और मुल्ला कब में लेट गया।
वह भीड़ एक बरात थी, डाकुओं का गिरोह नहीं। बरात के लोगों ने भी मुल्ला को कापते और कूदते देख लिया था। वे भी डरे और सोचने लगे कि क्या बात है और यह आदमी कौन है? उन्हें लगा कि यह कोई उपद्रव कर सकता है, और इसी इरादे से यहां छिपा है। पूरी बरात वहा रुक गई और उसके लोग भी दीवार लांघकर भीतर गए।
मुल्ला तो बहुत डर गया। बरात के लोग उसके चारों तरफ इकट्ठे हो गए और उन्होंने पूछा: 'तुम यहां क्या कर रहे हो? इस कब में क्यों पड़े हो?' मुल्ला ने कहा: 'तुम बहुत कठिन सवाल पूछ रहे हो। मैं तुम्हारे कारण यहां हूं और तुम मेरे कारण यहां हो।'
और यही सब जगह हो रहा है। तुम किसी दूसरे के कारण परेशान हो, दूसरा तुम्‍हारे कारण परेशान है। और तुम खुद अपने चारों ओर सब कुछ निर्मित करते हो, प्रक्षपित करते हो। और फिर खुद ही भयभीत होते हो, आतंकित होते हो, और अपनी सुरक्षा के उपाय करते हो। और तब दुख और निराशा होती है, द्वंद्व और विषाद पकड़ता है; कलह होती है। पूरी बात ही मूढ़तापूर्ण है; और यह सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक तुम्हारी दृष्टि नहीं बदलती। सदा पहले अपने भीतर कारण की खोज करो। यातायात का शोरगुल तुम्हें कैसे परेशान कर सकता है? कैसे? अगर तुम उसके विरोध में हो तो ही वह तुम्हें परेशान करेगा। अगर तुम्हारी धारणा है कि उससे परेशानी होगी तो परेशानी होगी। लेकिन अगर तुम उसे स्वीकार कर लो, अगर तुम बिना कोई प्रतिक्रिया किए उसे होने दो, तो तुम उसका आनंद भी ले सकते हो। उसका अपना राग है, अपना संगीत है। तुमने उसे नहीं सुना है, इसका यह अर्थ नहीं है कि उसका अपना संगीत नहीं है।
किसी दिन अपने को भूल जाओ और यातायात के शोरगुल को सुनो। सिर्फ सुनो, अपनी धारणाओं को बीच में मत लाओ कि यह परेशान करता है, कि यह अच्छा नहीं है। अपनी पसंद—नापसंद को बीच में मत लाओ, बस सुनो। शुरू—शुरू में वह अराजक मालूम पड़ेगा—वह भी मन के कारण। अगर तुम पूरी तरह विश्रामपूर्ण हो सके तो देर—अबेर सब कुछ लयबद्ध हो जाएगा और सड़क का शोरगुल भी संगीत बन जाएगा। तब तुम उसका आनंद ले सकते हो, तुम उसकी धुन पर नाच भी सकते हो।
तो यह तुम पर निर्भर है। कुछ भी परेशान नहीं करता है; अगर तुम्हारा यह खयाल न हो कि वह परेशान करता है। उदाहरण के लिए मैं तुम्हें बताऊंगा कि कैसे केवल धारणाओं के चलते मनुष्यता अनेक चीजों से पीड़ित रही है। और जब धारणा बदल जाती है तो चीजें वही रहती हैं, लेकिन अब वे पीड़ित नहीं करतीं।
उदाहरण के लिए, हस्तमैथुन से सारी दुनिया पीड़ित थी। अभी आधी सदी पहले तक सारी दुनिया हस्तमैथुन के कारण परेशान थी। शिक्षक परेशान थे; मां—बाप परेशान थे; बच्चे परेशान थे। और अभी भी, पृथ्वी का जो बड़ा हिस्सा अशिक्षित है, वहा हस्तमैथुन परेशानी का कारण बना हुआ है। फिर शरीर—शास्त्रियों और मनसविदों ने खोज की कि हस्तमैथुन से परेशान होने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने कहा कि हस्तमैथुन स्वाभाविक है और उसमें कुछ दोष नहीं है; यह बिलकुल निर्दोष और निरापद है।
लेकिन पुरानी शिक्षा कहती थी कि हस्तमैथुन के कारण आदमी पागल हो जाता है। वह हर एक चीज को हस्तमैथुन के साथ जोड देती थी। और करीब—करीब हर एक लड़का हस्तमैथुन करता था, और डरा—डरा रहता था। वह हस्तमैथुन करता था और डरा रहता था कि अब मैं पागल हो जाऊंगा; हीन, विक्षिप्त और बीमार हो जाऊंगा। वह सोचता था कि मेरा जीवन व्यर्थ हो गया। और वह अपने को रोक भी नहीं पाता था। और ये धारणाएं उसके सिर में घुसकर दुष्परिणाम लाती थीं। अनेक लोग पागल हो जाते थे; अनेक लोग हीन—भाव तथा मूढ़ता के शिकार हो जाते थे। और हस्तमैथुन से कुछ लेना—देना नही है।
आधुनिक शोध तो कहती है कि हस्तमैथुन स्वस्थ चीज है। चिकित्सा विज्ञान का मानना है कि यह अच्‍छी चीज है। क्‍योंकि तेरह—चौदह वर्ष का होने पर लड़का और बारह—तेरह वर्ष की होने पर लडकी कामवासना की दृष्टि से प्रौढ़ हो जाती है। अगर प्रकृति की सुनी जाए तो इसी उम्र में लड़के—लड़कियों का विवाह हो जाना चाहिए। वे संतान पैदा करने के योग्य हो गए हैं। लेकिन सभ्यता अपनी जरूरत के अनुसार उन्हें कोई बीस—पच्चीस की उम्र तक विवाह की इजाजत नहीं देती है। और चिकित्सा—शास्त्र कहता है कि चौदह से बीस वर्ष के बीच का समय—ये छह साल—कामवासना की दृष्टि से सर्वाधिक पुंसत्व— भरा, सर्वाधिक बलशाली समय है। एक लड़के में जितना पुंसत्व उस समय होता है उतना फिर कभी नहीं होता। उसकी ऊर्जा उफान पर होती है; उसका सारा शरीर कामुक विस्फोट बन जाना चाहता है।
लेकिन समाज उसकी इजाजत नहीं देता; वह उस पर अंकुश लगाता है। ऊर्जा प्रबल है, और बच्चा कुछ नहीं कर सकता। और वह जो कुछ करेगा, सामाजिक विश्वासों के कारण उसके दुष्परिणाम होंगे। वह समझेगा कि मुझसे भूल हो रही है, उसे अपराध— भाव सताएगा। और यह अपराध— भाव छाया की तरह उसका पीछा करेगा। उसे अनेक रोग भी हो सकते हैं—कृत्य के कारण नहीं, सिर्फ धारणा के कारण।
चिकित्सा—शास्त्र कहता है कि हस्तमैथुन स्वस्थ है, क्योंकि उससे लड़के को अनावश्यक ऊर्जा से राहत मिल जाती है; अन्यथा समस्याएं पैदा हो सकती हैं। अत: यह स्वस्थ चीज है। अब तो पश्चिम में, खास कर अमेरिका, इंगलैंड तथा दूसरे विकसित देशों में जो कि शरीर—विज्ञान में ज्यादा विकसित हैं, हस्तमैथुन का प्रचार किया जाता है। ऐसी फिल्में हैं जो बच्चों को सिखाती हैं कि हस्तमैथुन कैसे किया जाए। और देर—अबेर हर एक शिक्षक विद्यार्थियों को बताएगा कि सही ढंग से हस्तमैथुन कैसे किया जाता है। तो अब वे कहते हैं कि यह स्वस्थ है। और जो लोग ऐसा मानते हैं उन्हें यह स्वस्थ लगता भी है।
मेरी दृष्टि में यह न स्वस्थ है और न अस्वस्थ। धारणा असली चीज है। अगर इसे स्वस्थ माना जाए और इस धारणा को बल दिया जाए तो यह स्वस्थ हो जाएगा। अब पश्चिम में वे कहते हैं कि हस्तमैथुन से बुद्धि को कतई क्षति नहीं पहुंचती है। वे यहां तक कहते हैं कि जितनी ज्यादा बुद्धि उतना ज्यादा हस्तमैथुन। तो जो लड़का हस्तमैथुन करता है उसका बुद्धि—अंक उस लड़के से ज्यादा होगा जो हस्तमैथुन नहीं करता है।
और उनके ऐसा कहने का कारण है; क्योंकि लड़के के लिए हस्तमैथुन खोज निकालना उसकी बुद्धि की पहचान है; उसने एक रास्ता तो निकाला! समाज ने विवाह का दरवाजा बंद कर दिया है और प्रकृति है कि काम—ऊर्जा को धक्के मार रही है। बुद्धिमान लड़का रास्ता ढूंढ लेगा और मूढ़ अवरुद्ध रहेगा, कुंठा में फंसेगा। नया अध्ययन कहता है कि जो लड़के हस्तमैथुन करते हैं वे ज्यादा बुद्धिमान हैं। अगर यह धारणा फैली—और देर—अबेर यह धारणा सारे जगत में फैलेगी—तो हस्तमैथुन स्वास्थ्यप्रद हो जाएगा; और उससे लोग स्वस्थ अनुभव करेंगे।
अभी तो मां—बाप भयभीत हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि उन्होंने अपनी युवावस्था में क्या किया था। जब कोई लड़का किशोरावस्था में प्रवेश करने लगता है तो उसके मां—बाप चिंतित हो जाते हैं और ताक—झांक करने लगते हैं कि लड़का क्या करता है। उन्हें डर है कि वह



हस्तमैथुन तो नहीं करता है! और यदि लड़का ऐसा करता पाया जाता है तो वे उसे सजा देते हैं। लेकिन नया विज्ञान कहता है कि लड़के को सजा मत दो, बल्कि उसे हस्तमैथुन की शिक्षा दो। यदि वह हस्तमैथुन नहीं करता है तो उसे डाक्टर के पास ले जाओ और पता लगाओ कि क्या गडबडी है।
अगर यह नया ज्ञान फैलेगा तो यही होगा। लेकिन दोनों धारणाएं हैं, दोनों दृष्टियां हैं। और जब कोई लड़का हस्तमैथुन करता है तो उस क्षण में वह बहुत खुला हुआ और ग्रहणशील हो जाता है, उसका मन शात हो जाता है, क्योंकि इस क्षण में उसकी काम—ऊर्जा स्‍खलित हो रही है। इस समय जो भी सुझाव, जो भी विचार उसे दिया जाएगा, वह उस पर प्रभावी हो जाएगा। अगर तुम उसे कहोगे कि इसके कारण तुम बीमार हो जाओगे तो वह बीमार हो जाएगा। अगर तुम कहोगे कि इसके कारण तुम स्वस्थ होओगे तो वह स्वस्थ हो जाएगा। और अगर तुम उसे कहोगे कि हस्तमैथुन करने से तुम जिंदगी भर के लिए मूढ़ हो जाओगे तो वह सचमुच मूढ़ रह जाएगा। और यदि कोई उसे कहेगा कि हस्तमैथुन बुद्धि का लक्षण है तो उसका बुद्धि—अंक सचमुच बढ़ जाएगा। ऐसा होता है, क्योंकि बहुत ग्रहणशील क्षण में तुम उसे सुझाव दे रहे हो। तुम जो भी सोचते हो, वह घटित होने लगता है।
बुद्ध ने कहा है कि हर एक विचार यथार्थ हो जाता है, इसलिए सजग रहो।
अगर तुम सोचते हो कि सड़क का शोरगुल परेशान करता है तो वह तुम्हें जरूर परेशान करेगा, क्योंकि तुम परेशान होने को तैयार ही बैठे हो। अगर तुम सोचते हो कि पारिवारिक जीवन बंधन है तो वह तुम्हारे लिए बंधन हो जाएगा; तुम उसके लिए राजी ही हो। और अगर तुम सोचते हो कि गरीबी तुम्हें मुक्त होने में सहयोगी होगी तो वह सहयोगी होगी। अंततः तुम स्वयं ही अपने चारों ओर का संसार निर्मित करते हो; तुम जो भी सोचते हो वह तुम्हारा परिवेश बन जाता है और तुम उसमें ही जीते हो।
तंत्र कहता है, इस कारण को सदा स्मरण रखो, कारण सदा तुम्हारे भीतर है। और यदि तुम यह जान लो तो फिर तुम कारण नहीं बनोगे, फिर तुम अपने लिए कोई नया बंधन नहीं गढ़ोगे। और जो कारण गढ़ना बंद कर देता है वह मुक्त हो जाता है। तब न वह दुख में होता है और न आनंद में होता है। आनंद तुम्हारा सृजन है और दुख भी तुम्हारा सृजन है। तुम अपने दुख को आनंद में बदल सकते हो, क्योंकि वह तुम्हारा सृजन है। बुद्ध पुरुष न दुख में होते हैं और न आनंद में, क्योंकि वे कार्य—कारण से बाहर हो गए हैं। वे सिर्फ हैं।
इसीलिए बुद्ध कभी यह नहीं कहते कि आत्मोपलब्ध व्यक्ति आनंदित है। जब भी कोई उनसे पूछता कि बुद्धत्व को उपलब्ध व्यक्ति कैसा होता है? क्या वह परम आनंद में होता है? तो बुद्ध हंसते और कहते. 'यह मत पूछो। मैं इतना ही कह सकता हूं कि वह दुख में नहीं होता। इससे ज्यादा मैं नहीं कह सकता, यही कह सकता हूं कि वह दुख में नहीं होता।
बुद्ध का निषेध पर इतना जोर क्यों था? क्योंकि बुद्ध जानते हैं। जब तुम जान गए कि तुम ही अपने दुख का कारण हो तो तुम यह भी जान गए कि आनंद भी तुम्हारा ही कृत्य है। तब तुम कारण बनना छोड़ देते हो, कुछ भी करना छोड़ देते हो। इसे ही निर्वाण कहते हैं: अपने आस—पास समस्त कार्य—कारण का विसर्जन। तब तुम मात्र हो—न दुख, न आनंद। अगर तुम समझ सको तो यही आनंद है। न कोई दुख है, न आनंद; क्योंकि यदि आनंद है तो दुख भी रहेगा। तुम अभी भी कुछ पैदा कर रहे हो। और अगर तुम आनंद पैदा कर सकते हो तो दुःख भी पैदा कर सकते हो।
और तुम आनंद से भी ऊब जाओगे। कितनी देर सह सकोगे? कितनी देर? क्या तुमने कभी इस पर विचार किया है? यदि चौबीस घंटे आनंद के ही हों तो क्या तुम उसे झेल सकोगे? तुम बोर हो जाओगे, और ऐसे शिक्षक की तलाश में निकलोगे जो तुम्हें फिर से दुखी होना सिखाए।
मैं नहीं सोचता कि यदि सारा संसार आनंदित हो जाए तो फिर शिक्षक नहीं रहेंगे। शिक्षक रहेंगे, क्योंकि तब लोगों को दुख की जरूरत होगी। तब कोई यह बताने वाला जरूरी हो जाएगा कि कैसे फिर से दुखी हुआ जाए। सिर्फ थोड़ी बदलाहट के लिए दुख जरूरी हो जाएगा। उसके बाद तुम फिर आनंद में लौट सकते हो। और तब आनंद की अनुभूति बढ़ जाएगी, क्योंकि खोने के बाद ही तुम्हारी आनंद की अनुभूति प्रगाढ़ होती है। तो शिक्षक तो रहेंगे। अभी वे सुखी होना सिखाते हैं; तब वे दुखी होना सिखाएंगे; सिखाएंगे कि नरक का स्वाद कैसे लिया जाए। थोड़ी सी बदलाहट सहयोगी होगी, अच्छी होगी।
लेकिन तुम ही कारण हो। और तुम उसी क्षण बुद्धत्व को उपलब्ध हो जाओगे जिस क्षण जान लोगे कि जिस संसार में तुम रहते हो वह तुम्हारा ही बनाया हुआ है। अब तुम उसे नहीं बनाओगे, और वह विलीन हो जाएगा। यातायात जारी रहेगा, शोरगुल जारी रहेगा, सब कुछ वैसा ही रहेगा जैसा है, लेकिन तुम नहीं रहोगे। क्योंकि कारण के साथ ही तुम भी विदा हो जाओगे।

आज इतना ही।



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