दिनांक
28 मई, 1979;
ओशो
आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान!
सुबह कब होगी?
2—भगवान!
आपको याद होगा, आपने
द्वारका
शिविर में कहा
था: "जीवन बार—बार
नहीं मिलता।
मैं तुझे
मोक्ष दूंगा।
जैसा कहूं
वैसा करना।'
प्रभु!
मोक्ष तो दूर, अब तक बंबई
और पूना के
चक्कर काट रही
हूं। और आज
आपने स्वर्ग
और नर्क की
बात की, वह
भी मेरे से
अनजान है। पर
यह जो अहर्निश
सुमरन हो रहा
है, इस पर
तो मेरा वश
नहीं है।
अपन
दोनों पूना
में ही भले
हैं। जीवन
मजाक और हंसी
से ज्यादा
कहां है!
3—भगवान!
इस देश के
राजनेता देश
को कहां लिए
जा रहे हैं? समाजवाद का
क्या हुआ?
पहला
प्रश्न:
भगवान!
सुबह कब होगी?
सत्यानंद!
सुबह हो गयी
है। सुबह ही
है। रात थी कब? आंखें बंद
रखीं तो
अंधेरा है, आंखें खोलीं
तो उजेला है।
परमात्मा का
सूरज तो निकला
ही हुआ है। उस
लोक में कभी
रात्रि नहीं
होती; वहां
सतत आलोक है, अविच्छिन्न
आलोक की धारा
है। लेकिन हम
आंखें बंद
रखें तो अमावस
रहेगी और हम
आंखें खोल लें
तो पूर्णिमा
है। पूर्णिमा
थी ही, सिर्फ
हम आंख बंद
किये थे।
सूफी
फकीर राबिया
एक मस्जिद के
सामने से
गुजरती थी और
सालिक नाम का
फकीर मस्जिद
के द्वार पर
दुआ में हाथ
फैलाये
परमात्मा से
प्रार्थना कर
रहा था। सालिक
कह रहा था: है
प्रभु! अब
द्वार खोलो।
कब तक पुकारूं? सुनो मेरी, बहुत देर हो
गयी, अब
द्वार खोलो।
मैं सिर पटक—पटक
कर पुकार रहा
हूं कि द्वार खोलो।...
राबिया ठिठकी, सालिक के
पास गयी, कंधा
पकड़ कर हिलाया
और कहा: क्या
बकवास कर रहे
हो सालिक, द्वार
खुले हैं।
द्वार बंद कब
थे? आंखें खोलो।
लेकिन
मनुष्य की एक
बुनियादी
भ्रांति है—वह
दोष अपने पर
नहीं लेता, दोष दूसरों
पर टाल देता
है। जो दोष
दूसरों पर टाल
देता है, उसकी
जिंदगी में
सबेरा कभी
सबेरा होगा।
जो दोष अपने
पर ले लेता है,
उसकी जिंदगी
में सबेरा
होने लगा, पहली
किरण फूट ही
गयी।
और यह
मन की तरकीब
इतनी प्राचीन
है और इतनी गहरी
और इतनी
सूक्ष्म कि
एकदम से पकड़
में नहीं आती।
मन कहता है:
रात है, हम
क्या करें? मन यह मानने
को राजी नहीं
कि हमने आंख
बंद कर रखी
हैं इसलिए रात
है। मन कहता
है: भाग्य है, हम क्या
करें? मन
यह मानने को
राजी नहीं कि
हमारे चुनाव
गलत हैं, हमारे
निर्णय
भ्रांत हैं, हमारा बोध
सोया हुआ है, इसलिए जीवन
में दुख है, भाग्य के
कारण नहीं।
जीवन
में दुख हो तो
भी कारण तुम
हो और जीवन
में सुख हो तो
भी कारण तुम
हो—जीवन में
कुछ भी हो
कारण तुम हो। सत्यानंद, यह बात तीर
की तरह हृदय
में चुभ
जाने दो—मैं
कारण हूं। और
जिस व्यक्ति
को यह स्मरण
आने लगा कि
मैं कारण हूं,
उसके जीवन
में धर्म की
शुरुआत हो
गयी। दूसरे कारण
हैं—यह
राजनीति; मैं
कारण हूं—यह
धर्म। दूसरों
पर टाल देना
फिर वह ईश्वर
हो, भाग्य
हो, प्रकृति
हो, समाज
हो, राज्य
हो—दूसरों पर
टाल देना
राजनीति है।
और मन बड़ा कुशल
राजनीतिज्ञ
है। मन चाणक्य
है। मन मेक्यावेली
है। मन बहुत
सूक्ष्म चालबाजियां
करता है—दूसरे
तो पहचान ही न
पाएंगे, तुम
ही न पहचान
पाओगे।
मत
पूछो कि सुबह
कब होगी। पूछो
कि मैं आंख कैसे
खोलूं, तो
तुमने ठीक
प्रश्न पूछा।
सुबह कब होगी,
तुमने
प्रश्न टाल
दिया; अब
तुम क्या
करोगे जब होगी
सुबह तब होगी।
मगर बुद्ध को
पच्चीस सौ साल
पहले हो गयी
और तुम्हें अब
तक नहीं हुई!
और नानक को
पांच सौ साल
पहले हो गयी
और तुम्हें अब
तक नहीं हुई!
और नानक को पांच
सौ साल पहले
हो गयी, तुम्हें
अब तक नहीं
हुई! और
मुहम्मद को
चौदह सौ साल
पहले हो गयी, तुम्हें अब
तक नहीं हुई!
जब बुद्ध को
सुबह हुई तो
और करोड़ों लोग
थे बुद्ध के
आसपास, उनको
सुबह नहीं
हुई!
जरूर
मामला सुबह का
नहीं है, मामला
आंख का है। और करोड़—करोड़
लोग थे—आंख बंद
रखी तो रात ही
रही, बुद्ध
ने आंख खोली
तो सुबह हुई।
जब आंख खोलो
तब सुबह।
कहानी
मैंने सुनी
है। एक गांव
में एक
नास्तिक था।
बड़ा तार्किक, बड़ा
बौद्धिक।
गांव के
आस्तिक उससे
हार चुके थे।
गांव के
महात्मा, पंडित,
पुरोहित, सब उससे हाथ
जोड़ लिए थे।
आखिर एक
परिव्राजक संन्यासी
गांव में आया।
उस नास्तिक ने
उससे भी विवाद
किया। उस
संन्यासी ने
कहा कि मुझसे
न करो विवाद, मुझसे समय न
गंवाओ; मुझे
खुद ही पता
नहीं है, खोज
रहा हूं, कह
नहीं सकता कि
ईश्वर है, इसलिए
यह तो कैसे
कहूं कि तुम
गलत हो। मुझे
सत्य का खुद
को ही पता
नहीं है। लेकिन
एक आदमी है जो
जानता है। तुम
वहां चले जाओ।
व्यर्थ यहां
समय खराब न
करो—अपना और
दूसरों का। उस
आदमी से
तुम्हें मिल
जाएगा। अगर
जवाब मिल सकता
है तो उस आदमी
से मिल सकता
है। और मैं
सारा देश घूम
चुका हूं, बस
वह एक आदमी है
जो तुम्हें
तृप्ति दे दे
तो दे दे, न दे तो
समझना कि
तृप्ति
तुम्हारे
भाग्य में ही
नहीं है।
"कौन
वह आदमी है?' पूछा उस
नास्तिक ने।
तो
उसने एक फकीर
का नाम लिया।
चल पड़ा
नास्तिक उस
फकीर की तलाश
में। वह फकीर
एक मंदिर में
ठहरा हुआ था।
सुबह हुए तो
देर हो चुकी
थी, अब तो नौ
बज रहे थे।
सारी दुनिया
जाग गयी थी।
आलसी से आलसी
भी जाग गये थे
और फकीर अभी
मस्त नींद में
सोया हुआ था।
इतना ही नहीं,
शंकरजी की पिंडी पर
पैर रखे हुए
था।
नास्तिक
की तो छाती
दहल गयी। उसने
कहा: यह तो कोई
महा—नास्तिक
है। मैं विवाद
करता हूं जरूर, ईश्वर नहीं
है, ऐसे
तर्क भी देता
हूं लेकिन शंकरजी
की पिंडी पर
पैर रखकर
लेटने की
हिम्मत मेरी भी
नहीं, पता
नहीं, कौन
जाने, ईश्वर
हो ही, फिर
पीछे झंझट
आये। तर्क और
विवाद तो ठीक
है मगर
कृत्य...ऐसा
नास्तिक
कृत्य तो मैं
भी नहीं कर
सकता। इस आदमी
ने भी किसके
पास भेज दिया!
यह तो महागुरु
है, हमसे
भी बहुत आगे
गया हुआ है।
और यह कोई समय
है संन्यासी
के सोने का? सारी दुनिया
जग गयी। आलसी
से आलसी आदमी
भी जग गया। जो
रात आधी रात
तक जागा था, वह भी जग
गया। और ये
महापुरुष अभी
सो रहे हैं! और
शास्त्र कहते
हैं कि जाग
जाना चाहिए
साधक को ब्रह्ममहूर्त
में। और इनके
संबंध में
मुझे बताया
गया कि ये
साधक नहीं
सिद्ध हैं।
झकझोर
कर फकीर को
जगाया। फकीर
ने आंख खोली।
उस नास्तिक ने
पूछा कि पूछने
तो बहुत
प्रश्न हैं
लेकिन पहले दो
प्रश्न जो अभी—अभी
उठे हैं और
ताजे हैं।
पहला तो यह कि
साधु—संन्यासियों
को ब्रह्ममहूर्त
में उठना
चाहिए, आप
अब तक क्यों
सो रहे हैं?
वह
फकीर हंसने
लगा। उसने
कहा: मैंने एक
राज समझ लिया
है कि जब आंख खोलो तब ब्रह्ममहूर्त।
और तो कोई ब्रह्ममहूर्त
है ही नहीं।
जब तक आंख बंद
तब तक रात। हम ब्रह्ममहूर्त
में नहीं उठते, हम जब उठते
हैं तब ब्रह्ममहूर्त
होता है।
यह बात
बड़ी गहरी है।
ऊपर से तो लगे
कि जैसे फकीर
मजाक कर रहा
है, हल्की—फुलकी
बात कह रहा
है। लेकिन
उसने सारे
शास्त्रों का
सार कह दिया।
सारे सदगुरुओं
का निचोड़
इतना ही है कि
आंख खोलो
तो सुबह और
आंख बंद रही
तो रात।
नास्तिक
ने कहा कि
मेरा मुंह बंद
कर दिया। मेरा
मुंह आज तक
कोई बंद नहीं
कर सका। मगर
मैं अब तुमसे
क्या कहूं!
तुम भी ठीक ही
कह रहे हो। और
दूसरा प्रश्न—शंकरजी की
पिंडी पर पैर
क्यों रखे हो?
तो उस
फकीर ने कहा:
और कहां पैर
रखूं? जहां
है वही है।
जहां पैर रखूं
उसी के सिर पर
पड़ते हैं। यह
पृथ्वी भी उसी
का पिंड है।
यह छोटी—सी
पिंडी है, यह
जरा बड़ा पिंड
है। और बड़े
पिंड हैं, महापिंड
हैं—सूरज है, महासूर्य है। कहां
पैर रखूं? आखिर
कहीं तो रखूं?
पैर दिये
हैं तो रखूंगा?
और तू कौन
है पूछने वाला?
जब मुलाकात
मेरी होगी तो
आमने—सामने
बात हो लगी कि
पैर क्यों
दिये थे पैर
दिये थे तो
कहें तो
रखूंगा! और
फिर पिंडी में
शंकर हैं, और
मेरे पैरों
में नहीं? पत्थर
में शंकर हैं,
और मुझ
जीवित देह में
नहीं? जब
से जागा हूं
तब से वही
बाहर है, वही
भीतर है—बस
वही है।
मत
पूछो सत्यानंद
कि सुबह कब
होगी। पूछो कि
आंख कैसे
खोलूं! टालो
मत। कारण तुम
हो। समझा
तुम्हारे
प्रश्न को और
तुम्हारी
पीड़ा को भी
समझा।
क्योंकि ऐसे
प्रश्न पीड़ा
से उठते हैं, जिज्ञासा से
नहीं। तुम
पूछते हो:
भगवान, सुबह
कब होगी? ऐसे
प्रश्नों में
आंसू हैं। ऐसे
प्रश्नों में
पीड़ा है, प्रार्थना
है। ऐसे
प्रश्नों में
इस बात का बोध
है कि घना
अंधेरा है। और
कब तक, और
कब तक? कब तब
जिये चलें
अंधेरे में और
टकराये चलें
और गिरते चलें?
कब तक
टटोलते रहें?
कब होगा
अनुभव? कब
होगी प्रतीति?
कब वे क्षण
आएंगे जब हम
भी सम्हल
जाएंगे ? यह
सब छिपा है
तुम्हारे
प्रश्न में।
मगर घबड़ाओ मत; रात जितनी
अंधेरी होती
है, उतना
ही सुबह करीब
होता है। सदगुरुओं
के पास जाओगे,
पहले तो रात
अंधेरी होनी
शुरू हो
जाएगी। क्योंकि
रात का अंधेरा
होना ही सुबह
होने को करीब लाता
है। रात के
गर्भ में ही
तो सुबह पकती
है।
अगर
पंडित—पुरोहितों
के पास जाओगे
तो सांत्वना
मिलेगी। अगर सदगुरुओं
के पास जाओगे
तो थोड़ी—बहुत
जो सांत्वना
थी वह भी छिन
जाएगी; थोड़ा—बहुत
जो संतोष था
वह भी लुट
जाएगा। हमने
तो भगवान को
भी हरि कहा
है। हरि यानी
चोर। हरि यानी
हरण कर लेने
वाला। हरि
यानी लूट ले
जो। तो सदगुरु
तो उसी के
प्रतिनिधि
हैं; वे भी
खूब लूटते हैं—तुम्हारी
सांत्वना लूट
लेंगे, तुम्हारा
संतोष लूट
लेंगे, तुम्हारी
मान्यता, तुम्हारी
आस्था, तुम्हारी
श्रद्धा, तुम्हारा
सब थोथा जिसे
तुमने अब तक
जीवन समझा है
और जिसे तुमने
अब तक संपदा
समझा है—सब
लूट लिया
जाएगा। लूटने
की तैयारी हो
तो ही सदगुरुओं
से सत्संग हो
सकता है। और
जब ये सब झूठा
लुट जाएगा तो
तुम्हारे
भीतर सत्य की
अभिव्यक्ति
होगी।
तो
पहले तो जाकर
पता चलेगा कि
हम जो मानते
थे सब गलत है।
मानते थे तो
थोड़ा भरोसा
था। सब गलत है, तो हाथ एकदम
खाली हो गये, अंधेरा और
घना हो गया।
मानते थे सब
गलत है—सुना
हुआ सब गलत है;
पड़ा हुआ सब
गलत है; शास्त्रों
को रट लेना
तोतों जैसी रटंत
है—सदगुरुओं
के पास जब यह
पता चलेगा तो
तुम्हारी
जमीन खिसकने
लगी; तुम्हारे
पैर के नीचे
से जमीन हटने
लगी; तुम
गिरने लगें
अतल में। और
अंधेरा घना
होता मालूम
पड़ेगा, पर घबड़ाना
मत। इसके पहले
कि तुम्हें
सांत्वना
मिले, झूठी
सांत्वना छूट
जानी जरूरी
है। इसके पहले
कि तुम्हें
सत्य मिले, मिथ्या
भरोसे, विश्वास
छूट जाने
जरूरी हैं।
इसके पहले कि
श्रद्धा का
फूल खिले, विश्वासों
के पत्थर हट
जाने जरूरी
हैं। विश्वास
तो होता है
उधार; श्रद्धा
होती है स्वयं
की। विश्वास
होता है किसी
का दिया हुआ; श्रद्धा
होती है अपने
अनुभव की
इसके
पहले कि तुम
जाग सको, बहुत
कुछ छीना
जाएगा। और
जैसे—जैसे
तुम्हारा
पुराना घर
गिरेगा तुम घबड़ाओगे; तुम आये थे
घर को सजाने, घर को बड़ा
करने; तुम
आये थे घर को
और सुरक्षित
बनाने—टूटने
लगा, एक—एक
ईंट गुरु
खींचता
जाएगा। लेकिन
पुराना घर गिराना
ही होगा, तभी
नया घर बनाया
जा सकता है।
पुराना जब तक
छूट न जाए तब
तक नये के
होने की कोई
संभावना
नहीं।
एक
चर्च बहुत
पुराना हो गया
था—जराजीर्ण, गिरने के
करीब, अब
गिरा तब गिरा।
हवा के झोंके
आते थे तो
चर्च कंपता
था। चर्च के
भीतर कोई जाकर
उपासना करने को
राजी नहीं था—कब
गिर जाए! इतनी
जोखिम चर्च
जाने वाले लोग
नहीं लेते।
चर्च जाने
वाला जोखिम
लेने नहीं
जाता, सुरक्षा
खोजने जाता
है। आखिर चर्च
के पंचों को
बैठक बुलानी
पड़ी कि अब कुछ
करना ही होगा।
और चर्च बहुत
पुराना था। और
पुराने से मोह
होता है।
जितना पुराना
हो उतना मोह
होता है। बड़ा
मोह था उसे
बचाने का
लेकिन अब बचने
का कोई उपाय
दिखाई नहीं
देता था। अब
उपासक आने ही
बंद हो गये
थे। अब तो
चर्च का पादरी
भी भीतर जाते
डरता था, कंपता
था; जाता
भी था तो
जल्दी बाहर
निकल आता था।
आकाश में बादल
गड़गड़ाते,
मेघ घुमड़ते
तो लोग घर के
बाहर निकलकर
देखते कि चर्च
बचा कि गिर
गया!
पंचायत
बैठी लेकिन
पंच भी चर्च
के भीतर बैठक
नहीं बुलाये, वे भी चर्च
से काफी दूर
एक झाड़ के
नीचे मिले। बड़ा
विरोध था।
अनेकों ने
विरोध किया कि
पुराना चर्च,
इतना
प्राचीन, बाप—दादों
की धरोहर, सदियों—सदियों
का अनुभव,सदियों—सदियों
की प्रीति, ऐसे गिराया
नहीं जा सकता।
मगर फिर उपासक
कोई आते भी
नहीं तो चर्च
का प्रयोजन
क्या, गिराना
तो होगा ही।
तो फिर
उन्होंने कुछ
प्रस्ताव पास
किये। पहला
प्रस्ताव था
कि हम बहुत दुखी
हैं, मजबूरी
है, हे
प्रभु हमें
क्षमा करना, इस पुराने
चर्च को
गिराने का हम
प्रस्ताव करते
हैं। लेकिन
तत्क्षण
अपराध—भाव से
पीड़ित वे थे, दूसरा
प्रस्ताव
उन्होंने
किया कि नया
चर्च बनाएंगे
और बिलकुल
पुराने जैसा बनाएंगे, ठीक हूबहू
यही होगा, ऐसा
ही होगा।
लेकिन अपराध—भाव
बड़ा था, इतनी
पुरानी चीज को
तोड़ने जा रहे
थे, तो
तीसरा
प्रस्ताव
किया कि नया
चर्च बनाएंगे
तो पुराने
चर्च की ही
ईंट, द्वार,
दरवाजे, खिड़कियां,
कांच, सब
पुराने चर्च
के ही लगाएंगे,
नयी एक चीज
जरा भी न
लगाएंगे।
लेकिन अपराध—भाव
बहुत गहरा था,
तो चौथा
प्रस्ताव
उन्होंने पास
किया कि जब तक नया
न बन जाएगा, तब तक
पुराने को
गिराएंगे
नहीं।
हमारे
मोह शब्दों से, सिद्धांतों
से, शास्त्रों
से, मंदिर—मस्जिदों
से, ऐसे
सघन हैं कि
तुम जब पंडित—पुरोहितों
के पास जाते
तो वे
तुम्हारे मोह
को ही मजबूत
करते हैं; तुम्हारे
संतोषों
को ही और पानी
सींच देते हैं,
और थोड़ी टेक
लगा देते हैं
कि गिर न जाएं—पुराने
मंदिरों में
ही टेक लगा
देते हैं।
मेरे पास तो
पुराना
गिरेगा, और
नया बन जाए तब
पुराना
गिरेगा, इतनी
देर हम रुक
सकते नहीं; पुराने को
गिराना ही नये
को बनाने का
पहला कदम है।
और नया नयी
ईंटों से
बनेगा, पुरानी
ईंटों से
नहीं। नया
बिलकुल नया
होगा जिसकी
तुम्हें
कल्पना भी
नहीं है।
तुम्हारे
भीतर सच्ची
सांत्वना जब
पैदा होगी तब
तुम चकित होओगे
कि जिसको
तुमने अब तक
सांत्वना
समझा था वह
सांत्वना
नहीं थी, केवल
अपने मन को
समझा लिया था,
अपने
अज्ञान को ढांक
लिया था, अपने
घाव पर फूल रख
लिया था गुलाब
का। लेकिन गुलाब
के फूल रखने
से घाव मिटता
नहीं और न
मवाद समाप्त
होती है। फूल
रखने से और
बढ़ेगा, मवाद
और बढ़ेगी
क्योंकि घाव
छिप जाएगा, आंख से ओझल
हो जाएगा।
भूलकर भी
घावों पर फूल
मत रखना।
मेरे
पास आये हो तो
रात तो अंधेरी
होगी, रोज—रोज
अंधेरी होगी।
जैसे—जैसे मैं
तुमसे छीनूंगा—तुम्हारी
धारणाएं, तुम्हारे
विश्वास, तुम्हारी
मान्यताएं—वैसे—वैसे
तुम लगोगे कि
और अंधेरे में
भटकने लगे; कुछ थोड़ी—सी
रोशनी दिखाई
पड़ती थी वह भी
हाथ से छूटी
जा रही है। परायी
रोशनी रोशनी
नहीं है, उसका
छूट जाना शुभ
है। और जिस
दिन कोई रोशनी
न रह जाएगी
तुम्हारे हाथ
में परायी,
उस दिन
तुम्हें, पीड़ा
में आंखें
खोलनी ही
पड़ेंगी।
जब
किसी को हम
सोते से जगाते
हैं तो उसे
पीड़ा होती है, पीछे चाहे
धन्यवाद दे कि
धन्यवाद, आभारी
हूं कि मुझे
जगा दिया।
लेकिन जब हम
जगाते हैं तो
उसे पीड़ा होती
है क्योंकि वह
मीठे सपने देख
रहा है। पता
नहीं सपने में
सम्राट हो। पता
नहीं सपने में
सुंदर
रानियां हों।
पता नहीं सपने
में सोने के
महल हों। पता
नहीं सपनों
में स्वर्ग
पहुंच गया हो,
कल्पवृक्षों
के नीचे बैठा
हो। पता नहीं
सपनों में
कहां की
यात्राएं कर
रहा हो।...
सपने
प्रीतिकर हो
सकते हैं। और
नींद सुखद हो
सकती है। और
सुबह—सुबह की
नींद तो बड़ी
सुखद होती है।
और एक करवट
लेकर आदमी सो
जाना चाहता
है। एक झपकी
और। और जब तुम
किसी को जगाते
हो सुबह—सुबह
तो उसे
नाराजगी पैदा
होती है। यह
भी हो सकता है
कि सांझ तुमसे
कहा हो कि
सुबह मुझे उठा
देना, लेकिन
सुबह जब तुम
उठाओगे तो वह
कुछ प्रसन्न नहीं
होने वाला है,
नाराज ही
होगा।
जर्मनी
का प्रसिद्ध
विचारक हुआ इमेनुअल
कांट। वह बड़ा
नियमबद्ध
आदमी था, घड़ी
के कांटे की
तरह चलता था।
कहते हैं लोग
उसे जब
विश्वविद्यालय
जाते देखते थे—विश्वविद्यालय
में शिक्षक था—तो
लोग अपनी
घड़ियां ठीक कर
लेते थे। तीस
साल तक निरंतर
उसका
विश्वविद्यालय
जाना ठीक एक—एक
क्षण के हिसाब
से बंधा हुआ
था, लोग
उसे देखते और
घड़ी मिला
लेते। उसने
कभी देर की ही
नहीं। वह कभी
एक गांव को
छोड़कर दूसरे
गांव नहीं
गया। एक बार
तो
विश्वविद्यालय
जाते हुए—कीचड़
थी रास्ते में—एक
जूता उसका
कीचड़ में फंस
गया तो उसने
उसे निकाला
नहीं क्योंकि
निकाले तो
मिनट आधा मिनट
देर हो जाए; उसे वहीं
छोड़ दिया, एक
ही जूता पहने
हुए
विश्वविद्यालय
पहुंचा।
पूछा
उससे कि दूसरे
जूते का क्या
हुआ?
तो
उसने कहा: वह
कीचड़ में उलझ
गया; वह लौटते
वक्त अगर बचा
रहा, कोई न
ले गया तो
कोशिश करूंगा,
लेकिन अभी
देर हो जाती।
आधा मिनट की
शायद देर हो
जाती।
वह
बिलकुल लकीर
का फकीर आदमी
था। दस बजे
सोना तो दस
बजे सोता था।
फिर दस बजे
अगर मेहमान भी
बैठे हों तो
उनसे यह भी
नहीं कहता था
कि भाई, अब
मैं सोता हूं।
इतनी देर भी
नहीं कर सकता
था। मेहमान
बैठे रहें वह
जल्दी से उचकर
अपने बिस्तर में
होकर कंबल ओढ़
ले। लोग जानते
थे उसकी आदतें।
नौकर आकर कहता
था कि अब आप
जाइए; वे
तो सो गये।
सुबह
चार बजे उठता
था। एक तो
जर्मनी और
सुबह चार बजे
उठना—भारत हो
तो चले—बड़ा
मुश्किल काम
था। लेकिन
नौकर से उसने
कह दिया था
चाहे मार—पीट
भला हो जाए, मैं चाहे
गाली दूं, चाहे
मारूं, मगर उठाना
है चार बजे सो
चार बजे उठाना
है। उसके पास
नौकर नहीं
टिकते थे।
सिर्फ एक ही
नौकर था मजबूत
जो उसके पास
टिका। वह उसके
ऊपर निर्भर हो
गया था, बिलकुल
निर्भर हो गया
था। क्योंकि
दूसरा नौकर
कौन टिके! एक
तो चार बजे
नौकर को उठाना
तो उसको साढ़े
तीन बजे, तीन
बजे उठना पड़े,
तैयार होना
पड़े, फिर
इसको उठाना।
और उठाना बड़ी
जद्दोजहद की
बात क्योंकि
वह मारे और
चिल्लाये और
उपद्रव करे।
और उसी ने कहा
है कि उठाना
और यह भी कह
दिया है कि मारूंगा
भी, चिल्लाऊंगा भी। और अगर
तुम्हें भी
मुझे मारना
पड़े तो मारना
मगर छोड़ना मत,
उठाना तो है
चार बजे तो
चार बजे।
लोग
इतनी बड़ी
मात्रा में तो
लकीर के फकीर
नहीं हैं मगर
छोटी
मात्राओं में
सब लकीर के
फकीर हैं।
आदतें बना ली
हैं।
परमात्मा को
स्मरण करना भी
तुम्हारी आदत
हो सकती है।
सत्य के संबंध
में प्रश्न
पूछना भी आदत
हो सकती है।
शास्त्र को पढ़
लेना भी आदत
हो सकती है।
पूजा, प्रार्थना,
ध्यान कर
लेना भी आदत
हो सकती है।
और आदत
से कोई सत्य
तक नहीं
पहुंचता। आदत
तो यांत्रिकता
है। फिर किसी
को शराब पीने
की तलब लगती
है, और किसी
को सिगरेट
पीने की तलब
लगती है, और
किसी को भजन
करने की तलब
लगती है, मगर
तलब तो तलब है,
अच्छी और
बुरी से कोई
फर्क नहीं
पड़ता। तुम अगर
रोज सुबह उठकर
भजन कर लेते
हो और एक दिन न
करोगे तो दिन—भर
कुछ खाली—खाली
लगेगा। उस
खाली—खाली
लगने को तुम
यह मत समझना
कि तुम्हारे
जीवन में भजन
फलित हो गया
है इसलिए खाली—खाली
लग रहा है। वह
तो किसी को भी
लगता है। तुम
कोई भी उपद्रव
पकड़ लो—सुबह
उठकर कुर्सी
को सात दफे
बायें से
दायें रखना, दायें से
बायें रखाना,
यह भी अगर
तुम रोज करो
और एक दिन न
करो तो दिन—भर
याद आएगी कि
आज कुर्सी को
सात दफे उठाया
नहीं, रखा
नहीं। फिर
चाहे माला
फेरो, चाहे
मंत्र पढ़ो,
कोई अंतर
नहीं है।
सवाल
तुम क्या करते
हो, इसका
नहीं है; सवाल
तुम कितने होश
से भरे हो, इसका
है। इसलिए
सुबह कैसे
होगी, आंख
कैसे खुलेगी—इसका
पहला चरण तो
यह होगा कि
तुम से
तुम्हारी सारी
आदतें छीन ली
जाएं।
तुम्हारी
सारी टेकें
जिनके सहारे
तुम खड़े हो
हटा ली जाएं।
तुम्हारी
बैसाखियां
छीन ली जाएं।
निश्चित ही, बैसाखियां छीनेंगी
तो तुम एकदम
से गिर पड़ोगे।
मगर वह गिरना
अच्छा है
क्योंकि वह
अपने पैर पर
खड़े होने की
पहली शुरुआत
है। रात तो
अंधेरी होगी। सदगुरु के
पास आओगे तो
पहले तो अमावस
हो जाएगी।
लेकिन अगर
हिम्मत रखी और
साहस रखा और अमावस
को भी स्वीकार
कर लेने के
लिए छाती तुम्हारी
बड़ी हुई तो
पूर्णिमा के
होने में देर
नहीं लगेगी।
पूर्णिमा
होने के पहले
अमावस होनी जरूरी
है।
रात
डूबी, चांद
ऊबा, पश्चिमा
के अंक
नीलिमा
के निपट दलदल
में फंसा आकंठ
दिवस
ऊगा है न पूरा, छा रहा आतंक;
चार
पंछी चहचहाते
भर रहे हैं
पंख।
फट
रही चादर
पुरानी है
अंधेरे की
मर
गयी नीली
गुलामी के लहू
सी दूब,
यह
घड़ी ऐसी अजब
हम हार जाते
ऊब;
बज
रहे ताले खुली
जंजीर घेरे
की।
चांद
डूबा है, उजेला भी
टहलता है,
यह
घड़ी ऐसा अजब
हम हार जाते
ऊब;
बज
रहे ताले खुली
जंजीर घेरे
की।
चांद
डूबा है, उजेला भी
टहलता है,
बीत
जाएगा उमस उकताहटों
का क्या?
रंग
वर्षा में
पुराने पाश
तोड़े आ।
देख
तो खामोश
नजरों में
तहलका है।
दुख
कीचड़ में धंसे
का रो नहीं
दुखड़ा
तैर
आवेगा
तिमिर में
सूर्य का मुखड़ा।
आज
तो कीचड़ है, घबड़ाओ मत,
दुख
की कीचड़ है, दुख का
अंधेरा है—
दुख
कीचड़ में धंसे
का रो नहीं
दुखड़ा,
तैर
आवेगा
तिमिर में
सूर्य का मुखड़ा।
घबड़ाओ
मत; अंधेरा
जितना सघन हो
रहा है, सूरज
आता ही होगा, द्वार पर
दस्तक देने ही
वाला है।
दुख
कीचड़ में धंसे
का रो नहीं
दुखड़ा,
तैर
आवेगा
तिमिर में
सूर्य का मुखड़ा।
जल्दी
ही सूर्य के
दर्शन होंगे।
लेकिन जब मैं
कहता हूं
जल्दी ही सूर्य
के दर्शन
होंगे, तो
तुम मेरी बात
को गलत मत समझ
लेना; मेरी
बात को गलत
समझने की बहुत
सुविधा है। जब
मैं कहता हूं
जल्दी ही
सूर्य के
दर्शन होंगे,
तो तुम कहीं
जल्दबाजी में
न लग जाना; कहीं
तुम आतुरता से
न भर जाना; कहीं
तुम अशांत न
हो जाना, अधैर्यवान न हो जाना।
जल्दी ही सूरज
निकलेगा
लेकिन जल्दी
उनका निकलता
है—शर्त समझ
लो—जो धैर्य
रखते हैं। और
जो जितना
अधैर्य रखते हैं
उतनी देर हो
जाती है।
धैर्य
अनिवार्य गुण
है साधक का, आधारभूत गुण
है।
जल्दी
नहीं करनी है।
ध्यान करो! होश
को जगाओ!
व्यर्थ के कूड़े—करकट, से अपने को
मुक्त करो!
सुबह होगी, जल्दी ही
होगी मगर तुम
जल्दी मत करना,
नहीं तो देर
हो जाएगी।
तुम्हें भी
अनुभव है इस
बात का—जब भी
तुम जल्दी
करते हो तब
देर हो जाती
है। तुमने
देखा—ट्रेन पकड़नी है
और तुम जल्दी
में हो, तो
कोट का बटन
ऊपर का नीचे
लग जाता है, फिर से खोलो,
फिर से लगाओ,
और देर हो
गयी। इतनी
जल्दी है कि
सूटकेस में कुछ
का कुछ रख
लेते हो, फिर
खोलो, निकालो,
जो रखना था
वह बाहर रह
गया, जो
नहीं रखना था
वह भीतर चला
गया। इतनी
जल्दी है कि
सामान लेकर
नीचे भागते हो,
कुछ सामान
धर ही छूट
गया। वह
स्टेशन पर
जाकर पता चलता
है कि टिकट तो
घर ही भूल
आये। जितनी
जल्दी
करोगे...जल्दी
का मतलब होता
है तुम बेचैन
हो गये और
बेचैनी में
भूलचूक हो
जानी बिलकुल
स्वाभाविक
है।
जितना
धैर्य रखोगे, जितने शांत,
उतनी ही
जल्दी होगी।
और जितनी
जल्दी करोगे,
उतनी ही जल्दी
की संभावना कम
है। फिर जीवन
अनंत है, क्या
जल्दी? आज
जागे, कल
जागे। कब जागे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, अनंत
काल है। जिस
दिन जागोगे उस
दिन ऐसा थोड़े ही
लगेगा कि
बुद्ध पच्चीस
सौ साल पहले
जागे और तुम
पच्चीस सौ साल
बाद जागे।
पच्चीस सौ साल
की क्या गणना
है, इस
अंतहीन समय की
यात्रा में!
पृथ्वी को बने
वैज्ञानिक
कहते हैं चार
अरब वर्ष हो
गये। चार अरब
वर्षों में
पच्चीस सौ साल
की क्या गणना
है! और पृथ्वी
बहुत नया—नया
ग्रह है। सूरज
को बने कोई
हजार अरब वर्ष
हो गये। और
सूरज कोई बहुत
पुराना सूरज
नहीं है, उससे
भी पुराने
सूर्य हैं।
ऐसे भी सूर्य
हैं जिनकी अब
तक गणना नहीं बिठायी जा
सकी कि वे
कितने पुराने
हैं! इस
अंतहीन विस्तार
में पच्चीस सौ
साल का क्या
हिसाब—पलक
मारते बीत गये
ऐसा लगेगा। जब
तुम जागोगे तब
तुम्हें ऐसा
लगेगा कि
बुद्ध जागे और
मैं जागा, बीच
में पलक शायद
झपकी।
तुमने
फिल्मों में
देखा न समय की
गति को बताने
के लिए केलेन्डर
की तारीखें
एकदम बदलती
जाती हैं, महीने बदलते
जाते हैं, घड़ी
का कांटा तेजी
से घूमता जाता
है—समय की गति
बताने के लिए।
मगर अगर अनंत
को हम ख्याल
में रखें तो
पच्चीस सौ साल
ऐसे बीत जाते हैं
जैसे पल बीता।
हजारों साल का
कोई हिसाब
नहीं।
इस
विस्तीर्ण
जगत में
तुम्हारी
जल्दबाजी सिर्फ
नासमझी है। और
तुम अपनी
जल्दबाजी में
सब खराब कर
लोगे; कुछ
का कुछ हो
जाएगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक दिन बाथरूम
से जोर से
आवाज दी अपनी
पत्नी को कि
दौड़, जल्दी आ;
जिसका डर था
वह बात हो
गयी। पत्नी
आयी तो मुल्ला
बिलकुल झुका
खड़ा है, कमर
झुकी हुई है।
किसी तरह
सम्हाल कर
मुल्ला को ले
जाकर बिस्तर
पर लिटाया।
पूछा कि हुआ
क्या?
मुल्ला
ने कहा कि
डॉक्टर ने कहा
था कभी—न—कभी
यह होने वाला
है, लकवा लग
जाएगा, लकवा
लग गया।
डॉक्टर
को फोन किया।
डॉक्टर भागा
हुआ आया। जांच—पड़ताल
की। सब ठीक
मालूम पड़े।
नाड़ी देखी! सब
ठीक है। ब्लड—प्रेशर
ठीक है। फिर
जरा गौर से
देखा, फिर
हंसने लगा।
उसने कहा कि
बड़े मियां, कोई और
मामला नहीं है,
तुमने कोट
की बटन पेंट
की बटन से लगा
ली है इसलिए
तुम उठ नहीं
पा रहे, घबड़ाओ मत।
मुल्ला
की तो कहानी
है लेकिन बड़े
साहित्यकार
अंग्रेजी के, डॉक्टर जान्सन
के जीवन में
वस्तुतः
उल्लेख है। एक
भोज में सम्मिलित
हैं। उनके ही
सम्मान में
भोज दिया गया
है। लोग भोजन
में लगे हैं।
और अचानक
डॉक्टर जान्सन
ने कहा कि भई
क्षमा करो, डॉक्टर को बुलाओ; लगता
है कि जिस बात
का डर था, वह
हो गयी बात।
डॉक्टरों ने
कहा है मुझे
कि लकवा लग
सकता है। मेरा
बायां पैर
बिलकुल सुन्न
हो गया है।
मैं च्यूंटी
भी ले रहा हूं
तो भी पता
नहीं चल रहा
है।
तभी
बगल की महिला
बोली: क्षमा
करिए, आप
मेरे पैर च्यूंटी
ले रहे हैं, तो पता कैसे
चलेगा आपको!
जान्सन
जरा पी गया
होगा, जरा
ज्यादा पी गया
होगा। ज्यादा
पी जाने पर कहां
पता चलता है—कौन
अपना पैर और
कौन किसका
पैर! मगर इतनी
याद रह गयी
होगी कि
डॉक्टरों ने
कहा है कभी
बुढ़ापे में
लकवा लग सकता
है।
जल्दी
न करना; कोई
जल्दी नहीं है—आहिस्ता
चलो, हौले—हौले
चलो, शनैः—शनैः।
प्राण
बहुत जीते हैं,
गीतों
के मरने का
दर्द बहुत
पीते हैं।
प्राण
बहुत जीते
हैं।
गीतों
की लड़ियों
से,
तारों
के झरने का एक
तार टूट गया;
चंदा
से, चांदी
से,
अंतर
की धरती का
नाता—सा टूट
गया।
सांसों
का चरखा है, गरमी है, बरखा
है;
इस
पर भी तानों
में, मुर्दा
मुसकानों में,
गान
बहुत जीते हैं, प्राण बहुत
जीते हैं।
जीतों
की लड़ियों
से
हारों
के झरने का एक
तार टूट गया;
हिरनी
के छौने—सा,
किसी
एक बच्चे के लाड़ले
खिलौने—सा,
छूट
गिरा हाथों से, सहसा ही फूट
गया!
ऐसे
में यादें
क्या? ढहती
बुनियादें
क्या?
इस
पर भी राहों
में, साधों में, चाहों
में
दान
बहुत जीते हैं, प्राण बहुत
जीते हैं।
प्यासों
की लड़ियों
से
अधरों
के झरने का एक
तार टूट गया;
लहरों
के अंदर की
धानी
परछाई को कोई
ज्यों लूट
गया।
करती—अनकरती को, वाजिब को, भरती को,
पाला—सा
मार गया;
अपनी
ही हिम्मत से
कोई ज्यों हार
गया।
लेकिन, यह पूरब है, नई सांस
लेता है;
लेकिन, यह सूरज है, बहुत आग
देता है।
ऐसे
में ऊबो
क्यों? आहों
में डूबो
क्यों?
तुमने
क्या देखा है? लम्बी—सी
रेखा है—
बहुत—बहुत
प्यारी है, आशा—सी क्वांरी
है;
कई
मोड़ खाती है, जीवन तक
जाती है;
हावों
में, भावों
में, इसके
फैलावों में,
बस्ती
तो बस्ती है—
बियावान—निर्जन—वीरान
बहुत जीते
हैं।
प्राण
बहुत जीते
हैं।
गीतों
के मरने का
दर्द बहुत
पीते हैं;
प्राण
बहुत जीते
हैं।
जल्दी
नहीं है कोई।
यह देह भी
जाएगी तो भी
तुम नहीं जाने
वाले हो। ऐसे
तो बहुत देहें
आयी और गयीं, तुमने बहुत
रूप धरे। यहां
प्रत्येक
व्यक्ति
बहुरूपिया
है। तुमने
बहुत वस्त्र,
परिधान
पहने और छोड़े।
तुम न मालूम
कितनी बार जनमें
और मरे; अंतहीन
शृंखला है। इस
अंतहीन
शृंखला को जो
याद रखता है
उसकी बेचैनी,
उसका तनाव,
उसकी
अशांति, सब
समाप्त हो
जाते हैं।
क्या
तुमने इस बात
का ख्याल किया—पश्चिम
में लोग बहुत
अशांत हैं, पूरब की
बजाय! होना तो
उल्टा चाहिए,
पूरब के लोग
ज्यादा अशांत
होने चाहिए—गरीब
हैं, दीन
हैं, पश्चिम
के लोग ज्यादा
शांत होने
चाहिए—समृद्ध
हैं, संपन्न
हैं, सुविधाशाली हैं, विज्ञान
ने संपदा के
नये—नये द्वार
खोल दिये हैं।
पश्चिम के लोग
ज्यादा शांत
और आनंदित
होने चाहिए।
पूरब भिखमंगा
है, दीन है,
दरिद्र है,
दुखी है, बीमार है—लेकिन
अजीब—सी बात
है, पूरब
के लोग थोड़े
ज्यादा शांत
मालूम होते
हैं पश्चिम की
बजाय। पूरब
में कम लोग
पागल होते हैं,
पश्चिम में
ज्यादा लोग
पागल होते
हैं। पूरब में
कम लोग आत्महत्याएं
करते हैं, पश्चिम
में ज्यादा
लोग आत्महत्याएं
करते हैं।
कारण
क्या होगा? कारण समझने
जैसा है। पूरब
में धारण है
अनंत जीवन की,
जीवन के बाद
जीवन। पूरब
जीता है अनंत
काल की छाया
में। इसलिए
जल्दी क्या, बेचैनी
क्या! आज नहीं
तो कल, कल
नहीं तो परसों,
इस जन्म नहीं
तो अगले जन्म—खूब
समय है, अतिशय
समय है, जितना
चाहो उससे
ज्यादा समय
है। पश्चिम
में समय बहुत
कम है इसलिए
आपाधापी है।
क्योंकि पश्चिमी
में जो धर्म
पैदा हुए—यहूदी,
ईसाई, और
उन्हीं से
जुड़ा हुआ धर्म
इस्लाम; उन
तीनों की
मान्यता है; एक ही जन्म
है।
जिंदगी
बड़ी छोटी हो
गयी। सत्तर
साल की जिंदगी
समझो। सत्तर साल
में तो पहले
पच्चीस साल
पढ़ने—लिखने
में बीत गये।
सत्तर साल में
बीस—पच्चीस
साल तो सोने
में बीत
जाएंगे। एक
तिहाई तो
सोओगे न!
सत्तर साल में
बीस—पच्चीस
साल तो मजदूरी, रोटी कमाने
में लग
जाएंगे। बचता
क्या है? हाथ
क्या बचता है?
जिंदगी
बहुत छोटी है।
एक हिस्सा
सोने में चला गया,
एक हिस्सा
रोटी—रोजी
कमाने में चला
गया, बड़ा
हिस्सा पढ़ने—लिखने
में चला गया।
कुछ थोड़ा—बहुत
जो बचा वह
पूना से बंबई
की ट्रेन पकड़ो,
बंबई से
पूना की ट्रेन
पकड़ो, उसमें
निकल गया। कुछ
थोड़ा—बहुत और
बचा तो पत्नी
से लड़ी—झगड़ो
कि मोहल्ला
पड़ोस के लोगों
से बकवास करो।
कुछ और बचा
थोड़ा—बहुत तो
ताश खेलो, शतरंज
बिछाओ। मगर
बचता क्या है?
तो एक घबड़ाहट
है। जिंदगी
भागी जा रही
है, हाथ से
निकली जा रही
है और अभी कुछ
हुआ नहीं, और
अभी कुछ हुआ
नहीं। और अब
तक न परमात्मा
का दर्शन है, न सुबह हुई, न आनंद के
द्वार खुले।
अभी तक मंदिर
का ही पता नहीं,
किन
सीढ़ियों को चढ़ें, किन
मंदिरों में प्रेवश
करें!
इसलिए
बहुत घबड़ाहट
है। उसी घबड़ाहट
का परिणाम है—पश्चिम
में बड़ा संताप
है। मुख की
सारी सुविधा होने
पर भी सुखी
होने योग्य
धीरज नहीं है; लोग भागे जा
रहे हैं। गति
का अपने—आप
में मूल्य हो
गया है! गति का
अपने आप में
कोई मूल्य
नहीं होता, गति का
मूल्य होता है
अगर कहीं पहुंचो
तो। गति का
अपने—आप में
क्या मूल्य है?
अगर कहीं पहुंचो ही
न और कोल्हू
के बैल की तरह
दौड़ते रहो तो
गति का मूल्य
है?
मैंने
सुना है एक हवाई
जहाज के पाइलट
ने यात्रियों
को कहा कि क्षमा
करें, रास्ता
भटक गया है और
रास्ता खोजने
का यंत्र खराब
हो गया है
लेकिन घबड़ाएं
न। इतना तो
बुरा समाचार
है कि रास्ता
खोजने का
यंत्र खराब हो
गया है, अब
हमें पता नहीं
हम कहां हैं
और कहां जा
रहे हैं—इतना
बुरा समाचार
है। लेकिन एक
अच्छी बात भी
है, एक
सुसमाचार भी
है। सुसमाचार
यह है कि हम
जहां भी जा
रहे हैं, गति
से जा रहे हैं,
पूरी गति से
जा रहे हैं।
लेकिन
अगर यही पता न
हो कि कहां जा
रहे हो, तो
कितनी ही गति
से जा रहे होओ,
क्या फर्क
पड़ता है? गति
का क्या मूल्य
है? लेकिन
पश्चिम में
गति का मूल्य
बहुत बढ़ गया
है; समय
बचता है। और
फिर समय बचाकर
लोग क्या करते
हैं? पहले
समय बचा लेते
हैं तो कारों
की गति बढ़ती जाती
है, ट्रेनों
की गति बढ़ती
जाती है, हवाई
जहाजों की गति
बढ़ती जाती है।
पहले समय बचाना
है, फिर
समय बचाकर
क्या करना है?
फिर समय काटो
क्योंकि समय
काटे नहीं
कटता।
यह खूब
मजा रहा। पहले
समय बचाओ, इसके लिए
बड़े
उपद्रव
मोल लो। और
फिर इसके बाद
जब समय बच जाए तो
सिर से हाथ
लगाकर सोचो कि
अब करना क्या!
अब शराब पियो, जुआ, खेलो,
सिनेमा जाओ,
टेलीविजन
देखो, ताश
खेलो, शतरंज
बिछाओ—करो
क्या, अब
समय बच गया!
लेकिन
यह समय बचाने
की दौड़ और यह
इतना अधैर्य, उस धारण का
परिणाम है जो
कहती है बस एक
जिंदगी सब कुछ
है, एक
जिंदगी के बाद
फिर कोई
जिंदगी नहीं
है। पूरब के
पास बड़ा
विस्तीर्ण
समय है। और
पूरब की धारणा
ज्यादा
अस्तित्व के
अनुकूल है। एक
जिंदगी का
क्या मूल्य हो
सकता है? और
एक जिंदगी
आकस्मिक
दुर्घटना
जैसी आएगी और चली
जाएगी।
नहीं, अनंत काल तक
आदमी सीखता है,
पकता है, प्रौढ़ होता
है। यह आदमी
की चेतना का
बीज कोई छोटा—मोटा
बीज नहीं है, इस बीज में
परमात्मा
छिपा है।
मौसमी फूल
नहीं है यह, बड़े—बड़े दरख्त
जो आकाश छूते
हैं, समय
लेते हैं बढ़ने
में। और यह
चेतना का दरख्त
तो सबसे बड़ा दरख्त है, यह तो
बदलियों के
पार जाता है, यह तो
आसमानों के
पार जाता है, यह तो सात
आसमानों को
पार करता है
और परमात्मा
के चरण छूता
है। इसलिए
जल्दी नहीं।
मत
पूछो कि सुबह
कब होगी। सुबह
होगी। सुबह हो
ही गयी है, मेरे हिसाब
से सुबह ही
है। तुम्हारे
हिसाब से नहीं
हुई तो
तुम्हें आंख
खोलने का
रास्ता सिखाएंगे।
और वही मैं कर
रहा हूं कि
आंख कैसे खोली
जाए। सुबह की
चिंता ही नहीं
है।
आंख
खोलने में दो
बातें
सर्वाधिक
महत्वपूर्ण
हैं। एक—विचारों
की भीड़ रहे तो
आंख बंद रहती
है, विचारों
की भीड़ छंट
जाए तो आंख
खुलने लगती
है। पतंजलि
कहते हैं:
"निर्विचार
हो जाओ तो आंख
खुल गयी।' और
दूसरी बात—विचार
से भी गहरी
भाव की दशा है;
अगर विचार
भी चले जाएं
और भावों की
तरंगें बनी
रहें तो आंख अधखुली ही
रहेगी, बस
जरा—जरा खुली,
एक कोर खुला,
थोड़ी—सी
सुबह दिखाई
पड़ेगी। लेकिन
अगर भाव की
तरंगें बनी
रहीं तो तुम
पूरे सूर्य के
दर्शन न कर पाओगे।
भरोसा आ जाएगा
कि सुबह है
लेकिन भरोसे
के साथ—साथ
संदेह भी खड़ा
रहेगा
क्योंकि आंख
जरा—सी खुली, एक
कोर खुला, थोड़ी—सी
सुबह दिखाई
पड़ेगी। लेकिन
अगर भाव की
तरंगें बनी रहीं
तो तुम पूरे
सूर्य के
दर्शन न कर
पाओगे। भरोसा
आ आएगा कि
सुबह है लेकिन
भरोसा के साथ—साथ
संदेह भी खड़ा
रहेगा
क्योंकि आंख
जरा—सी खुली
है। जितनी
खुली है, उतना
भरोसा प्रकाश
पर; और
जितनी नहीं
खुली है, उतना
भरोसा अंधकार
पर। तुम
दुविधा में
रहोगे, द्वंद्व
में रहोगे।
आंख पूरी खुली
चाहिए तो
निर्द्वंद्व
होता है आदमी।
तो
दूसरा सूत्र—निर्भाव
हो जाओ। न तो
विचार रहे, न भाव रहे।
शुद्ध चैतन्य
रह जाए दर्पण
की भांति, साक्षीमात्र। बस, खुल
गयी आंख, हो
गयी सुबह।
दूसरा
प्रश्न:
भगवान!
आपको याद होगा, आपने
द्वारका
शिविर में कहा
था: "जीवन बार—बार
नहीं मिलता।
मैं तुझे
मोक्ष दूंगा।
मैं जैसा कहूं,
वैसा करना।'
प्रभु!
मोक्ष तो दूर, अब तक बंबई
और पूना के
चक्कर काट रही
हूं। और आज
आपने स्वर्ग
और नर्क की
बात की, वह
भी मेरे से
अनजान है। पर
यह जो अहर्निश
सुमरन हो रहा
है, इस पर
तो मेरा वश
नहीं है।
अपन
दोनों पूना
में ही भले
हैं। जीवन
मजाक और हंसी
से ज्यादा
कहां है!
तरु!
जीवन तो बार—बार
मिलता है, लेकिन परम
जीवन बार—बार
नहीं मिलता।
यह जीवन तो
बार—बार मिला
है, बार—बार
मिलेगा, लेकिन
एक और जीवन है,
परमात्मा—जीवन
कहो, उसे
परम—जीवन कहो
उसे, दिव्य—जीवन
कहो उसे, वह
बार—बार नहीं
मिलता।
मैंने
द्वारका में
तुझसे उसी
जीवन की बात
कही थी। वह तो
एक ही बार
मिलता है।
क्यों एक ही
बार मिलता है? क्योंकि एक
बार मिला कि
मिला; फिर
छूटता नहीं।
यह जीवन तो
मिला और छूटा,
इसलिए बार—बार
मिलता है। यह
जीवन
क्षणभंगुर है,
बबूले की
तरह है—बना और
फूटा। इधर जन्में,
उधर मरे; देर कितनी
है! बीच में
थोड़ी आपाधापी
है, थोड़ी
भाग—दौड़ है
लेकिन झूले
में और कब्र
में बहुत
ज्यादा फासला
नहीं है। जो
अभी झूले में
है, बहुत
जल्दी कब्र
में होगा; और
जो अभी कब्र
में डाला है, देर नहीं
लगेगी कि झले
में पहुंच
जाएगा। तुम
इधर डालकर
लौटे भी नहीं
कि हो सकता है
वे झूले में
पहुंच गये
हों। और जो
झूले आया है, वह मरने को
ही आया है।
यहां
जन्म मरण की
शुरुआत है और
मृत्यु जन्म
का द्वार है।
यहां जन्म और
मृत्यु एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
तो यह
जीवन तो बहुत
बार मिला और
बहुत बार छीना
गया; बहुत बार
मिला और बहुत
बार टूटा।
इसके मिलने और
छीनने में एक
राज है। वह
राज यह है कि
धीरे—धीरे उस
परम जीवन की
आकांक्षा जगे
जो एक बार
मिले और फिर न
छीना जाए—जो
मिले सो मिले;
जिसमें बसे
तो बसे; जो
असली बस्ती हो;
जहां से फिर
उजड़ना न
पड़े; जो असली
घर है। फिर
वहां से छूटना
नहीं होगा, हटना नहीं
होगा, कोई
निकाल न
सकेगा।
इस जगत
में तो हम
परदेसी हैं।
और यह जगत तो
एक धर्मशाला
है—रात रुके, सुबह चलना
है। ज्यादा
देर यहां
टिकने नहीं दिया
जाता। ज्यादा
देर यहां
रुकने नहीं
दिया जाता। यह
स्थान रुकने
को नहीं है—यह पड़ाव है, यह मार्ग के
बीच का पड़ाव
है, मंजिल
नहीं है। मील
के पत्थर के
पास थोड़ी देर सो
लो लेकिन फिर
चलना होगा, फिर आगे
बढ़ना होगा।
मैंने
तुझसे उस परम
जीवन की ही
बात कही थी।
वह बार—बार
नहीं मिलता; वह एक ही बार
मिलता है। उस
परम जीवन का
नाम ही मोक्ष
है। क्यों उसे
हम मोक्ष कहते
हैं? उसे
मोक्ष कहते
हैं क्योंकि
जनम—मरण के
बंधन से
छुटकारा हो
जाता है; देह
में उतरना
नहीं पड़ता।
देह में उतरना
बड़ा कष्टपूर्ण
है। क्यों देह
में उतरना कष्टपूर्ण
है? क्योंकि
आत्मा है बहुत
विराट और देह
है बहुत छोटी।
इस छोटी देह
में उस विराट
आत्मा का
समाना पीड़ादायी
है।
एक
पिता अपने
बच्चे को
नेपोलियन का
जीवन पढ़ा रहा
था और
नेपोलियन के
प्रसिद्ध वचन
पर आया जहां
नेपोलियन
कहता है: "इस
जगत में असंभव
कुछ भी नहीं।' वह छोटा—सा
बेटा हंसने
लगा।
बाप ने
कहा: तू क्यों
हंसता है? नेपोलियन
ठीक कहता है—इस
जगत में असंभव
कुछ भी नहीं
है।
उसने
कहा कि मैं एक
चीज जानता हूं
जो असंभव है।
बाप ने
बहुत सिर मारा
और सोचा कि
कौन—सी चीज
होगी जो यह
जानता है जो
असंभव है।
उसने कहा कि
नहीं, कोई
चीज असंभव
नहीं है।
तो
उसने कहा कि
फिर मैं अभी
बताये देता
हूं। वह भागा
हुआ बाथरूम
में गया और
वहां से टुथपेस्ट
ले आया।
बाप ने
कहा: इससे
क्या होगा?
उसने
कहा: मैं
बताता हूं
क्योंकि मैं
प्रयोग करके
चुका हूं। टुथपेस्ट
बाहर निकालो
फिर इसको भीतर
करो—तब समझें, तब तुम्हारा
नेपोलियन
सही। यह देखो
निकाला मैंने टुथपेस्ट
बाहर। उसने
निकाल दी टुथपेस्ट
को बाहर और
कहा कि अब
इसको भीतर
करके दिखा दो।
बाप ने
हाथ सिर से
मार लिया।
उसने कहा: यह
नहीं होगा।
तो
बेटे ने कहा
कि फिर कुछ
चीजें असंभव
हैं।
लेकिन टुथपेस्ट
तो शायद वापिस
भेजा जा सकता
है; कोई उपाय
किये जा सकते
हैं। बड़ी—से
बड़ी असंभव बात
जो घटती है वह
है—आत्मा की
विराट क्षमता
देह की सीमा
में आबद्ध हो
जाती है।
आत्मा का आकाश
देह के आंगन
में समा जाता
है। आत्मा का
सागर देह की
गागर में भर
जाता है। यह पीड़ादायी
है।
जन्म
दुख है और
मृत्यु तो दुख
है ही। इसलिए
बुद्ध ने कहा:
"जन्म भी दुख, मृत्यु भी
दुख। यहां दुख
ही दुख हैं।' वह इसी बात
को ध्यान में
रखकर कह रहे
हैं कि यहां
हमें सीमाओं
में आबद्ध
होना पड़ता है;
सीमाओं में
आबद्ध होना
दुख है। हम
मूलतः असीम हैं।
हम स्वरूपतः
असीम हैं।
लेकिन एक बार
जब तक हम जान न
लें असीम के
स्वाद को, जब
तक हम छलांग न
लगा लें असीम
में, तब तक
हम सोचते हैं
यही देह हमारा
एकमात्र सत्य
है।
मैंने
उसी जीवन की
बात कही जो
असीम है, देहातीत
है, कालातीत
है, क्षेत्रात्तीत है, जो
सारी सीमाओं
के पार है, सारी
सीमाओं का
अतिक्रमण
करता है।
मैंने तुझसे
निश्चित कहा
था: जीवन बार—बार
नहीं मिलता।
मैं तुझे
मोक्ष दूंगा।
मैं जैसा कहूं,
वैसा करना।
मोक्ष दिया
नहीं जा सकता।
जो मैंने कहा
वह तो एक
व्यवहारिक
ढंग है—एक
पारमार्थिक
सत्य को कहने
का। मोक्ष
दिया नहीं जा
सकता क्योंकि
मोक्ष तो
तुम्हारी
अंतर संपदा
है। सिर्फ
तुम्हें
झकझोरा जा
सकता है ताकि
तुम्हें याद आ
जाए। तुम्हें
स्मरण दिलाया
जा सकता है।
मैं
तुम्हें
मोक्ष दूंगा,इसका
इतना ही अर्थ
होता है कि
मैं तुम्हें
याद दिला
दूंगा कि तुम
कौन हो। लेकिन
निश्चित ही वह
याद तभी हो
सकती है जब
मैं जैसा कहूं
वैसा करना।
एक
बहुत पुराना
सूत्र है—गुरु
जैसा कहे वैसा
करना, गुरु
जैसा करे वैसा
मत करना। यह
सूत्र अटपटा
मालूम होता है
क्योंकि
आमतौर से हमसे
कहा जाता है:
गुरु जैसा करे
वैसा करो। गुरु
का आचरण, गुरु
का व्यवहार, उसका अनुसरण
करो। लेकिन
पुराना सूत्र
कहता है कि
गुरु जैसा कहे
वैसा करो, जैसा
करे वैसा नहीं;
क्योंकि
गुरु की चेतना
की एक स्थिति
है, उसका
कृत्य उसकी
स्थिति से
निकलता है। और
जब वह कुछ कहता
है तो
तुम्हारी
स्थिति को
देखकर कहता
है। डॉक्टर
जैसा करे, वैसा
मत करना; डॉक्टर
जैसा कहे, वैसा
करना क्योंकि
वह तुम्हारी
बीमारी को देखकर
कह रहा है। अब
यह भी हो सकता
है कि डॉक्टर
तो मजे से
मिठाई खा रहा
हो और तुमसे कह
रहा हो कि
मिठाई खाना
बंद कर दो
क्योंकि तुम
डायबिटीज से
परेशान हो। और
तुम यह कहो कि
हम तो आपका ही
अनुसरण
करेंगे। अब जब
आपको डॉक्टर मान
लिया तो आपका
आचरण ही हमारा
आदर्श है। आप जैसा
करेंगे, हम
तो वैसा ही
करेंगे, तो
अड़चन हो
जाएगी।
गुरु
जीता है अपने
चैतन्य से और
बोलता है
विद्यार्थी, शिष्य, वह
जो सीखने आया
है, उसकी
अवस्था को
ध्यान में
रखकर। और
इसलिए गुरु के
वचनों में सदा
ही विरोधाभास
होगा क्योंकि
वह एक शिष्य
से एक बात
कहेगा, दूसरे
शिष्य से
दूसरी बात
कहेगा, दूसरे
शिष्य से
दूसरी बात
कहेगा। कहना
ही पड़ेगा
क्योंकि शिष्य
शिष्य की
बीमारी अलग
हैं डॉक्टर एक
ही प्रिस्फिपशन
सबको नहीं
दिये चला
जाता। बीमारी
अगल है तो निदान
अलग होगा; निदान
अलग होगा तो
उपचार अलग
होगा।
इसलिए
मैंने तुझसे
कहा: मैं जैसा
कहूं वैसा करना।
और तूने भरसक
चेष्टा की है।
मैं खुश हूं। और
तेरी चेष्टा
से फल आने
शुरू हो गये
हैं। और वह
घड़ी दूर नहीं
है जब परम
जीवन का भी
अनुभव होगा, रोज—रोज वह
घड़ी करीब आ
रही है। यह
संभव है कि यह
जीवन अंतिम
सिद्ध हो।
संभव इसलिए कह
रहा हूं कि कहीं
मैं कहूं कि
निश्चित है तो
तू शिथिल न हो
जाए! मैं कहूं
कि निश्चित है
तो तू फिर तान
चादर, ओढ़कर,
चादर तान कर
सो न जाए कि अब
जब निश्चित ही
है तो अब क्या
फिक्र। इसलिए
कह रहा हूं
बहुत संभव है
कि यह जीवन
आखिरी सिद्ध
हो। जागरूकता
को बनाये चल, बढ़ाये चल, होश
को सम्हाले
चलो।
तूने
पूछा: "प्रभु!
मोक्ष तो दूर, अब तक बंबई
और पूना के
चक्कर काट रही
हूं।' बंबई
और पूना के
चक्करों को ही
तो शास्त्रों
में आवागमन
कहा है। अभी
तो आवागमन
थोड़ा चलेगा। जब
तक सांस है तब
तक थोड़ा
आवागमन
रहेगा। सांस यानी
आना—जाना।
फिक्र न कर। साक्षीभाव
से आवागमन कर—पूना
से बंबई, बंबई
से पूना, मगर
साक्षीभाव
बना रहे। तो साक्षीभाव
तो पूना में
भी वही है, बंबई
में भी वही है;
बाजार में
भी वही है, हिमालय
पर भी वही है। साक्षीभाव
तो किसी स्थान
में आबद्ध
नहीं होता।
विषय बदल जाते
हैं लेकिन
साक्षी तो
नहीं बदलता।
जैसे दर्पण को
लेकर कोई चले
तो बाजार में
खड़ा हो जाए तो
दर्पण में
बाजार झलकता
है और नदी के किनारे
खड़ा हो जाए तो
नदी झलकती है
और चांदत्तारों
की तरफ दर्पण
कर दे तो चांदत्तारे
झलकते हैं मगर
दर्पण नहीं
बदलता। बाजार
झलके कि नदी
कि चांदत्तारे,
दर्पण तो
दर्पण है।
दर्पण झलकन से
रूपांतरित
नहीं होता और
वही तो मेरी
शिक्षा है कि
दर्पण बनो, साक्षी बनो,जहां भी रहो
होश सम्हाले
रहो। इतना ही
स्मरण रहे कि
मैं देखने
वाला हूं, द्रष्टा
हूं। बस
पर्याप्त है,
यही स्मरण
सघन होता जाए।
और तरु, यह
स्मरण सधन हो
रहा है। इसलिए
तो तू कहती है:
"पर यह जो
अहर्निश
सुमरन हो रहा
है, इस पर
तो मेरा वश
नहीं है।' निश्चित
ही एक घड़ी आ
जाती है साधते—साधते,
होते—होते
बात हो जाती
है। और जब हो
जाती है तो
फिर साधना
नहीं पड़ती; फिर
स्वाभाविक
सुमरन होगा, स्वाभाविक साक्षीभाव
बना रहेगा।
उसके लिए कोई
अलग से आयोजन
न करना पड़ेगा।
शुरू—शुरू
में बीज बोते
हैं तो चिंता
करनी पड़ती है—पानी
भी डालो, पौधा ऊगता
है तो बागुड़
भी लगाओ, नहीं
तो जानवर चर
जाएं या पड़ोसियों
के छोकरे उखाड़कर
ले जाएं। फिर
जब वृक्ष बड़ा
हो जाता है तो बागुड़ भी
हटा ली जाती
है, फिर
पानी भी नहीं
देना पड़ता, फिर वृक्ष
अपनी चिंता
स्वयं करने
लगता है। उसकी
जड़ें इतनी
गहरी चली गयीं
भूमि में कि
वह अपना रस खुद
खोज लेता है।
और वह इतना
मजबूत हो गया
है कि अब अपनी
रक्षा करने
में स्वयं
समर्थ है।
बस ऐसे
ही साधक के
भीतर साक्षी
की भी गति
होती है। धीरे—धीरे
जड़ें मजबूत
होती हैं; वृक्ष की
शाखाएं आकाश
में उठती हैं;
फूल आते हैं,
फल आते हैं।
फिर रक्षा की
जरूरत नहीं रह
जाती। फिर
प्रतिपल
स्मरण रखने की
चेष्टा नहीं
करनी पड़ती। और
जब अप्रयास, निष्प्रयत्न साक्षी बना
रहे तभी जानना
कि साक्षी
घटा। उसके
पहले तो केवल
तैयारी थी।
उसके पहले तो
केवल अभ्यास
था। उसके पहले
तो हम स्वभाव
को खोज रहे थे,
टटोल रहे थे,
अंधेरे में
टटोल रहे थे, अब द्वार
खुल गया।
ठीक हो
रहा है तरु! और
जीवन निश्चित
ही मजाक और हंसी
से ज्यादा
नहीं है, ऐसा
जान लेना ही
मोक्ष है।
जन्म और
मृत्यु का मूल्य
खो जाए, जन्म
और मृत्यु का
कुछ अर्थ न रह
जाए, सुख
और दुख बराबर
मालूम होने
लगें, समतुल
हो जाएं, बस
यही मोक्ष है।
और जिस दिन यह
घड़ी हो गयी, उस दिन
व्यक्ति वर्षान्त
का बादल हो
जाता है।
देखे वर्षान्त
के बादल? झर
चुके, दे
चुके, रिक्त
और शून्य, खाली
और हल्के, धीरे—धीरे
खो जाते शून्य
में। फिर घने
होंगे वर्षा के
पहले। लेकिन
जैसे ही कोई
रिक्त हो जाता
है, वैसे
ही शून्य में
विलीन होने लगता
है। तुमने कभी
सोचा कि वर्षा
में इतने बादल
आ जाते हैं, फिर कहां
चले जाते हैं?
फिर आकाश
में उनका कोई
पता भी नहीं
चलता। चुक गये,
निर्भार हो
गये।
साक्षी
होना इस जगत
में निर्भार
होकर जीने का नाम
है—वर्षान्त
के बादल की
भांति।
जा
रहे वर्षान्त
के बादल
हैं
बिछुड़ते वर्ष
भर को नील
जलनिधि से
स्निग्ध
कज्जलिनी
निशा की ऊर्म्मियों
से
स्नेह
गीतों की कड़ी—सी
राग रंजित ऊर्म्मियों
से
गगन
की शृंगार—सज्जित
अप्सराओं
से
जा
रहे वर्षान्त
के बादल
किस
महावन को चले
अब
न रुकते अब न
रुकते ये गगनचारी
नींद
आंखों में बसी
गति में शिथिलता
किस
गुफा में लीन
होंगे
सांध्य—विहगों से
थके डैने
लिए भारी
साथ
इनके जा रहा
अगणित
विरहिणी—विरहियों
का दाह
दे
रही अनिमेष
नयनों से हरित
वसुधा बिदाई
किस
सुदूर निभृत
कुटी में पूजिता
सुधि की
इन्हें फिर
याद आई
भर
गई आ रिक्त
कानों में
किस
कमल—वन में
अनिद्रित शारदीया
की करुण, चंचल रुलाई
जा
रहे आलोक—पथ
से मंद गति
वर्षान्त
के बादल
हैं
सलिल—प्लावित
नदी—नदत्ताल—पोखर
वेग—विह्लल झर
रहे गिरि—स्रोत
निर्झर
दे
रहे मन से
विदा, कर
कुसुम—किरणों
से नमन
छोड़कर
अंकुरित नूतन
फुल्ल—खेत
छोड़
लघु पौधे व्यथातुर
शस्य—शालि
अपार
जा रहे
वर्षान्त
के बादल
खोह
अंजन की कहां
वह गुरु गहन
आगार
वह विश्राम
मुग्ध विराम
की
जा
रहे जिसमें
चले ये थके वन—पशु
से
प्यास
होठों पर लिए
किससे मिलन की
भर
जगत में नव्य
जीवन
जा
रहे किस
प्रिया की
सुधि से घिरे
नई
आकांक्षा भरे वर्षान्त
के बादल
जा
रहे वर्षान्त
के बादल!
जब
व्यक्ति अपने
जीवन को सब
विचारों, सब
भावों, सब
कर्मों से
निर्भार कर
लेता है—और
निर्भार करने
की कला याद
दिला दूं साक्षी
के अतिरिक्त
और कुछ भी
नहीं है—तो
उसकी नयी
यात्रा शुरू
हुई। गंगा बही
गंगोत्री की
तरफ। लौट चले
अपने घर, अपने
मूल उद्गम की
ओर। वह मूल
उद्गम ही
मोक्ष है।
हमें वहीं
जाना है, जहां
से हम आये
हैं। हमें वही
होना है जो हम
प्रथमतः थे।
हमें अपने उस
मूल मुखड़े
को खोज लेना
है जो देह का
नहीं है, जो
आत्मा का है:
जो जन्म के
पहले भी हमारा
था और मृत्यु
के बाद भी
हमारा होगा।
स्वरूप को
अनुभव कर लेना
ही
सच्चिदानंद
को अनुभव कर
लेना है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान!
इस देश के
राजनेता देश
को कहां लिए
जा रहे हैं? समाजवाद का
क्या हुआ?
भोलेराम!
भोले ही रहे।
राजनेताओं से, और अपेक्षा!
और उनके
आश्वासनों पर
भरोसा! मगर तुम
ही भोले नहीं
हो, सारी
जनता भोली है।
इस देश में तो भोलेराम, भोलेराम,
भोलेराम ही हैं।
इसीलिए तो
आयाराम—गयाराम
उनको धोखा
देते रहते
हैं। तुम किसी
के भी
आश्वासनों पर
भरोसा कर लेते
हो।
यह देश
सरल है। लोग
सीधे—सादे
हैं। राजनेता
कुटिल हैं।
राजनेता लोगों
को उलझाये
रखते हैं। बड़े—बड़े
भरोसे, बड़े—बड़े
नारे और लोग
नारों और
शब्दों के
प्रभाव में आ
जाते हैं। इस
देश को थोड़ा
सीखना पड़ेगा,
इस देश को
थोड़ा
राजनीतिक चालबाजियों
के प्रति सजग
होना पड़ेगा।
नहीं तो इस
देश का भाग्योदय
होने वाला
नहीं है।
तीस
साल से ऊपर हो
चुके देश को
आजाद हुए, बस कोल्हू
की तरह हम
चक्कर लगा रहे
हैं। देश की लकलीफें
रोज बढ़ती ही
चली गयी हैं, कम नहीं हुई
हैं। और देश
की तकलीफें
रोज बढ़ती जा
रही हैं।
राजनेता को
देश की तकलीफों
से चिंता भी
नहीं; उसकी
अपनी तकलीफें
हैं। वह अपनी
फिक्र करे कि
तुम्हारी? जब
तक वह पद पर
नहीं होता तब
तक उसकी फिक्र
है कि पद पर
कैसे हो? सो
तुम जो भी कहो
वह आश्वासन
देता है। वह
बात ही
तुम्हारी तोड़
नहीं सकता।
तुम जो कहो वह
हां भरता है।
उसे "मत' चाहिए।
जब तक वह
सत्ता में
नहीं पहुंचता
तब तक उसकी
चिंता एक है
कि सत्ता में
कैसे पहुंचे?
और जब वह
सत्ता में
पहुंच जाता है
तब दूसरी चिंता,
और बड़ी चिंता
पैदा होती है
कि अब सत्ता
में बना कैसे
रहे? क्योंकि
चारों तरफ
उसकी टांगें
लोग खींच रहे हैं;
कोई हाथ
खींच रहा है, कोई कुर्सी
का एक पैर ही
ले भागा।
कुर्सी को कैसे
जोर से पकड़े
रहे; क्योंकि
कोई अकेला ही
नहीं है, और
भी बहुत हैं
जो जद्दोजहद
कर रहे हैं।
धक्कम—धुक्की
कुर्सियों पर
इतनी ज्यादा
है कि किस तरह
राजनेता थोड़े
दिन भी
कुर्सियों पर
बने रहते हैं,
यह भी
आश्चर्य की
बात है।
एक ही
तरकीब जानता
है राजनेता
कुर्सी पर बने
रहने की, कि
जो उसकी
कुर्सी को
छीनना चाह रहे
हैं, उनको लड़ाता
रहे। वे आपस
में लड़ते रहें,
उतनी देर वह
कुर्सी पर
बैठा रहता है।
वे अगर आपस
में लड़ना बंद
कर दें, उसकी
मुसीबत हुई।
जब तक पद पर
नहीं है, कैसे
पद पर पहुंचे?
और पहुंचना
कोई आसान नहीं
है; बड़ा
संघर्ष है, बड़ी
प्रतियोगिता
है। और पद पर
पहुंचते समय
तुम जो कहो वह
कहता है, हां;
तुम्हें ना
तो कह ही नहीं
सकता। ना कर
के क्या नाराज
करेगा? उसकी
भाषा में ना
होता ही नहीं
जब तक पद पर
नहीं पहुंचा।
और जब पद पर
पहुंच जाता है
तब उसकी मुसीबतें
हैं—पद पर
कैसे बना रहे?
और फिर तुम
उसे याद दिलाओ
अपने
आश्वासनों की, उसने
न तो कभी सुने
थे। उसने तो
हां भर दी थी; तुमने क्या
कहा था इसकी
चिंता ही नहीं
की थी। अब तुम
उसे याद दिलाओ
अपने
आश्वासनों की,
उसे याद ही
नहीं आएगा।
उसे तुम्हारा
चेहरा भी याद
नहीं आएगा।
तुमसे उसे
लेना—देना
क्या है? जो
लेना था, तुम्हारा
चोट, तुम्हारा
मत, वह तो
ले चुका, बात
खत्म हो गयी।
तुमसे उतना
नाता था। पांच
साल के लिए अब
वह सत्ता में
है और तुम कुछ
भी नहीं हो।
पांच साल के
बाद फिर
तुम्हारे
द्वार आएगा और
वह जानता है
कि तुम भोलेराम
हो। पांच साल
के बाद फिर
तुम्हारे
आश्वासनों, नारों को
फिर
पुनरुज्जीवित
करेगा। फिर
ऊंची बातें
करेगा। फिर
भविष्य के
सपने तुम्हें दिखाएगा।
फिर रामराज्य
लाने का
आश्वासन
देगा। और मजा
तो ऐसा है कि
फिर तुम धोखा
खाओगे।
सदियों—सदियों
से आदमी ऐसा
धोखा खा रहा
है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं:
मनुष्य की
स्मृति बहुत
कमजोर है।
पांच साल में
भूल—भाल जाता
है। और अगर
बहुत याद भी
रखा तो हर देश में
दो पार्टियां
हो जाती हैं।
वे सब चचेरे—मौसरे भाई
उनमें कुछ भेद
नहीं। वे सब
एक ही थैली के
चट्टे—बट्टे
हैं। मगर दो पार्टियां
हो जाती हैं।
दो पार्टियां
जनता पर राज
करने की कला
है, तरकीब
है। पांच साल
में एक पार्टी
की प्रतिष्ठा
गिर जाती है।
जो भी सत्ता
में होगा उसकी
प्रतिष्ठा गिरेगी;
क्योंकि
वचन पूरे नहीं
होंगे, लोगों
की तकलीफ बढ़ती
रहेगी, उसकी
प्रतिष्ठा
गिर जाएगी।
लेकिन पांच
साल में दूसरे
जो सत्ता में
नहीं हैं वे
अपनी प्रतिष्ठा
बढ़ा लेंगे; क्योंकि
पांच साल पहले
उन्होंने जो
किया था वह तो
जनता भूल—भाल
चुकी। पांच
साल बाद जनता
बदल देगी, एक
पार्टी को
हटाकर दूसरे
को बिठा देगी।
तुम
सोचते हो ये पार्टियां
दुश्मन हैं तो
तुम गलती में
हो। ये पार्टियां
दोस्त हैं, ये दुश्मन
नहीं हैं। ये
एक—दूसरे के
सहारे राज्य
करते हैं। एक
राज्य करता है,
तब तक दूसरा
जनता में
प्रतिष्ठा
कमाता है। फिर
दूसरा राज्य करता
है, फिर
पहला जनता में
प्रतिष्ठा
कमाता है। इन
दोनों में जरा
भी भेद नहीं
है। ये एक ही
सौदे में, एक
ही धंधे में
साझीदार हैं।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
आदमी आया और
रात जब गांव
के लोग सोये
थे तो उनकी खिड़कियों
पर, दरवाजों पर कोलतार
पोत गया। सुबह
लोग बड़े हैरान
हुए कि यह किस मूढ़ ने
मजाक किया! यह
कोई मजाक का
वक्त है! अभी
तो कोई होली
भी नहीं, हुड़दंग
भी नहीं। यह
कौन हरकत कर
गया? लेकिन
कोई कर गया।
बड़ा मुश्किल
कोलतार को साफ
करना। लेकिन
दूसरे दिन ही
सुबह एक आदमी
झोला लटकाये
आवाज लगाता
हुआ गांव में
आया—"कोलतार साफ
करवाना हो तो
मैं कोलतार
साफ करता हूं।'
"अरे—लोगों
ने कहा—"बड़े
मौके पर आये!
पहले
तुम्हारे कभी
दर्शन भी नहीं
हुए। अच्छे
मौके पर आये।
संयोग की बात,
सौभाग्य की
बात। हम
परेशान ही थे,
कि कोई
दुष्ट हमारी खिड़कियों
पर कोलतार पोत
गया है।'
उसने
कोलतार सफा
किया। महीना—पंद्रह
दिन काफी कमाई
की। तब तक
उसका साथी दूसरे
गांवों में
जाकर
कोलतार
पोतता रहा। वे
दोनों एक ही
धंधे में
साझीदार थे।
एक का काम था
कोलतार पोतना, दूसरे का
काम था कोलतार
साफ करना।
हालत वहीं रही।
कुछ फर्क होता
नहीं।
भोलेराम, तुम भी क्या
पूछते हो—इस
देश के
राजनेता देश
को कहां लिए
जा रहे हैं?
कहीं
नहीं लिए जा
रहे हैं, यहीं—यहीं
घुमा रहे हैं।
उनको फुर्सत
भी कहां इस इस
देश को कहीं
ले जाने की!
उत्तर
दो आखिर कब तक
तुम
अपने
ही वचनों से
फिर कर
लोकतंत्र
की पुनः
प्रतिष्ठा का
यों
जय—जयकार
करोगे।
कौन
उलट चश्मा पहने
जो
दिखती
नहीं तुम्हें
बदहाली
नव—निर्माण
नजर आती है
चौतरफा
फैली पामाली।
खुले
मंच से केवल
भाषण
नारों
का व्यापार
करोगे।
कानों
की लौ तक को
क्यों छू
पाती
नहीं करुण चीत्कारें
प्रतिध्वनियां
बन लौट—लौट
आती
हैं सब की सब मनुहारें।
जनजीवन
का बस आकर्षण
वादों
से सत्कार
करोगे।
क्या
होगी खामोश न
कुर्सी
पद, सत्ता की
घृणित लड़ाई
मानव
को बौना कर
बढ़ती
जाएगी
यों ही
परछाईं।
देश
व्यथा पर
अखबारों में
झूठा
हाहाकार
करोगे!
भोलेराम!
अब अपने
नेताओं से
कहो: कब तक यह
बकवास? अब
जब तुम्हारे
द्वार पर कोई
"मत' मांगने
आये तो आसानी
से हां मत भर
देना। बहुत हो
चुका। अब
पूछना उससे कि
यह कब तक
चलेगा?
लोक—मानस
थोड़ा सजग होना
चाहिए। लोक—मानस
थोड़ा जागरूक
होना चाहिए।
और यह मत
सोचना कि एक
से तुम थक गये
तो दूसरे को
पकड़ लोगे तो
हल हो जाएगा।
कुछ हल होने
वाला नहीं।
राम
कसम
सरकार
दुहाई
पांव
बड़े हैं जूते
छोटे।
सोना
स्थिर, गल्ला
मंदा
और
उछाला तिलहन
में
सिर
जुलूस में
फूटा था
आंखें
फटीं गरहन
में
हम
भी
किस
मुहूर्त में
जन्मे
सारे—के
सारे ग्रह
खोटे।
चूल्हे
में
आ
गये तवे से
किस्मत
हो तो ऐसी
किसे
कहें
किरकिरी
आंख की
किसको
कहें हितैषी
छत्तीस
तिरसठ, तिरसठ
छत्तीस
सब
हैं बेपेंदी
के लोटे
तुम
चाहे छत्तीस
तिरसठ, चाहे
तिरसठ
छत्तीस...कोई
फर्क नहीं
पड़ता। सब हैं
बेपेंदी के
लोटे...और
तकलीफ यह है:
पांव बड़े हैं
जूते
छोटे...देश की
समस्याएं बड़ी
हैं। बड़ी समस्याएं
हैं! और जिनको
तुम नेता
चुनते हो उनकी
बुद्धि बड़ी
छोटी है। पांव
बड़े हैं जूते
छोटे...।
अब
दुनिया
राजनीतिज्ञों
के हाथ के
बाहर होने के
करीब है। अब
दुनिया को
विशेषज्ञ
चाहिए, राजनीतिज्ञ
नहीं; क्योंकि
समस्याएं
इतनी बड़ी हैं
कि केवल विशेषज्ञ
ही हल कर सकते
हैं, राजनीतिज्ञ
नहीं।
राजनीतिज्ञ
की समझ के बाहर
है, राजनीतिज्ञ
की कोई
योग्यता ही
नहीं है।
योग्यताएं भी
अगर कुछ हैं
तो जिनका कोई
मूल्य नहीं
है। किसी की योग्यता
है कि वह छह
दफा जेल गया।
छह दफा नहीं, तुम छह हजार
दफे जेल गये, इससे देश की
समस्याएं हल
करने की
योग्यता थोड़े
ही आ जाती है।
इससे तुम
शिक्षा—शास्त्री
हो जाओगे, कि
अर्थ—शास्त्री
हो जाओगे? तुम
छह दफा जेल
गये तो तुमको
जेल जाने की
कला आ गयी, यह
समझ में आया।
तो तुम फिर से
जेल चले जाओ, तुम वहीं
रहने लगो। तुम
उसे ही अपना
घर बना लो।
तुम निकल
क्यों आये? तुम्हें
कहना चाहिए:
मैं छह दफा हो
आया हूं, मुझे
बाहर क्यों
करते हो? तुम
अपना अधिकार जमाओ, तुम
जेल में ही
रहे।
मगर
नहीं, जो छह
दफे जेल हो
आया है वह
कहता है कि
उसको हक है
प्रधानमंत्री
होने का। मगर
जेल जाने से
और प्रधानमंत्री
होने का क्या
नाता—रिश्ता
है? कोई
कहता है कि वह
चरखा कातता है
रोज तीन घंटे।
तीन घंटे नहीं,
तीस घंटे कातो! मगर
चरखा कातने
से तुम देश के
स्वास्थ्य—मंत्री
हो सकते हो।
चरखा कातने
से तुम चरखा कातने में
कुशल होओगे, यह बिलकुल
समझ में आयी
बात। तो तुम
तीन ही घंटे
क्यों कातते
हो? तुम कतिया
हो जाओ, तुम
चौबीस घंटे कातो। चलो
कुछ कपड़े
बनेंगे, कुछ
बुनाई होगी, कुछ लाभ
होगा।
मगर
अजीब—अजीब लोग
हैं! उनकी
अजीब—अजीब
योग्यताएं
हैं। और हम उन योग्यताओं
को स्वीकार
करते हैं। हम
कहते हैं देखो, फलां आदमी
सादगी से रहता
है। तो रहता
होगा सादगी से,
तो रहे मजे
से सादगी से।
मगर सादगी से
रहने से देश
की समस्याएं
कहां हल होती
हैं? अगर
सादगी से रहने
से देश की
समस्याएं हल
होती होतीं तो
बड़ा आसान
मामला था।
सादगी से रहने
से कुछ देश की
समस्याएं हल
नहीं होंगी।
तुम चाहे थर्ड—क्लास
डब्बे में
चलते रहो, तुम
चाहे पैदल
यात्रा करते
रहो, तुम
चाहे दो ही
कपड़े रखो अपने
पास—इनसे कुछ
फर्क नहीं
पड़ने वाला है।
इससे तुम्हारी
बुद्धिमत्ता
नहीं बढ़ती।
इससे तुम्हारी
तेजस्विता
नहीं बढ़ती।
इससे
तुम्हारी
प्रतिभा का
निखार नहीं
होता। इससे
तुम्हारे
जीवन में धार
नहीं आ जाती।
और इस
जिंदगी की
समस्याएं हल
करने के लिए
प्रतिभा
चाहिए, बड़ी
प्रतिभा
चाहिए! हल हो
सकती हैं सारी
समस्याएं, ऐसी
कोई भी समस्या
नहीं है आज जो
हल न हो सके।
अगर जमीन छोटी
पड़ रही है तो
आदमी जमीन के
नीचे घर बना
सकता है। अब
जमीन पर ही
रहना जरूरी
नहीं है। पुरानी
आदत को ही जिद
क्यों किये
जाना? अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
जमीन के नीचे
रहा जा सकता
है। क्योंकि
वातानुकूलित
किया जा सकता
है, पूरे—पूरे
नगरों को।
जमीन के नीचे
पूरे नगर
बसाये जा सकते
हैं। और पूरी
जमीन पर खेती—बाड़ी
हो सकती है।
इतनी खेती—बाड़ी
हो सकती है
जितनी कभी
नहीं हुई।
लेकिन
कोई सज्जन
सादगी से रहते
हैं, कोई जेल
हो आये, कोई
योगासन करते
हैं, कोई
जीवन—जल पीते
हैं! ये
योग्यताएं
हैं!
तुम्हारी
कार बिगड़ जाए
तो तुम उस
आदमी के पास थोड़े
ही ले जाओगे
जो सादगी से
रहता है। तुम गैरिज
जाओगे। तुम
कहोगे कोई
टेक्नीशियन
खोजना पड़ेगा।
एक आदमी
रास्ते में
मिल जाए, कहे
कि रुको, कहां
जा रहे हो? मैं
खादी भी पहनता
हूं, चरखा
भी कातता, हूं
जेल भी हो आया
हूं—मैं सुधारूंगा
तुम्हारी कार!
और मैं सादगी
से भी रहता
हूं। कार में
तो कभी बैठा
ही नहीं, कार
तो कभी छुई ही
नहीं, बैलगाड़ी से ही काम
चलाया है। मैं
तुम्हारी कार
ठीक कर दूंगा।
कहां जा रहे
हो, मुझ
जैसे सीधे—सादे
महात्मा को
छोड़कर?
तो तुम
सुनोगे
उसकी? तुम
कहोगे: भैया, और न बिगाड़
देना। तुम बैलगाड़ी
ही सुधारो,
तुम कारों
के चक्कर में
न पड़ो।
लेकिन
नहीं, राजनीति
में तुम इस
तरह के लोगों
को प्रतिष्ठा
देते हो। इनको
सिर पर बिठाते
हो। देश
समझदार हो
थोड़ा तो
विशेषज्ञ को चुनेगा।
तो उसको चुनेगा
जो देश की
समस्याएं हल
करने की क्षमता
रखता हो। इस
तरह की
क्षुद्र
बातें नहीं पूछोगे
तुम कि "आप
धूम्रपान
करते हैं कि
नहीं?' करो
या न करो। "कि
आप शराब पीते
हैं कि नहीं?' पियो या न
पियो। ये
क्षुद्र
बातें, व्यर्थ
की बातें, इनकी
पूछताछ करके
हम लोगों को
वोट दे रहे
हैं।
इस देश
की अजीब हालत
है, एक आदमी
शराब पीता है,
उसको वोट
नहीं मिलेगी।
या उसको छिपकर
शराब पीना
पड़ेगी। और जो
आदमी शराब
नहीं पीता वह
चाहे महाबुद्ध
हो, उसको
वोट मिलेगी!
सारे
पश्चिम के
प्रतिभाशाली
व्यक्ति, सारे
शराब पीते
हैं। और
उन्होंने
जिंदगी की बहुत
समस्याएं हल
कर ली हैं।
शराब पीने से
कुछ समस्याओं
को हल करने
में बाधा नहीं
आती, शायद
सहयोग भला
मिलता हो।
क्योंकि दिन—भर
जो चिंता में
और दिन—भर जो
बेचैनी में, और दिन—भर जो
विचार में पड़ा
रहा है, रात
शराब पी लेता
होगा तो सुबह
फिर ताजा होकर
लौट आता है।
मगर तुम्हारे भगतजी
शराब तो नहीं
पीते। मगर इससे
क्या होगा?
हमारी
धारणाएं हमें
बदलनी होंगी।
हमें विशेषज्ञ
पर ध्यान देना
होगा। हमें
फिक्र करनी होगी
उनके हाथ में
सत्ता जानी
चाहिए जो जीवन
की समस्याओं
के संबंध में
कुछ जानते हैं, हल कर सकते
हैं।
अब
कैसा मजा चल
रहा है। चौधरी
चरण सिंह जैसे
व्यक्ति
जिनको अर्थशास्त्र
का अब सभी
नहीं आता, वे तुम्हारे
देश के
अर्थशास्त्री
हैं! वे बरबाद
कर देंगे।
उन्होंने
सारे देश की
अर्थशास्त्र
की व्यवस्था
को गांव की
तरफ मोड़ दिया।
सारी दुनिया
गांव से शहर
की तरफ जा रही
है और जाना ही
पड़ेगा; शहर
का भविष्य है,
गांव का कोई
भविष्य नहीं है।
लेकिन
तुम राजनारायण
जैसे व्यक्ति
को स्वास्थ्य—मंत्री
बना देते हो।
पता नहीं कौन
से हिसाब से? ये डंड—बैठक
लगाते हैं
इसलिए, कि
ये मालिश करना
जानते हैं, इसलिए? राजनारायण कहते हैं कि
वे मालिश करना
जानते हैं। तो
मालिश करो। तो
चौपाटी पर
बहुत मालिश
करने वालों की
जरूरत है।
लेकिन
स्वास्थ्य
मंत्री! किसी
बड़े चिकित्सक
को खोजो जो इस
देश की
परेशानियां समझे,
इस देश के
स्वास्थ्य के
नियम समझे।
यह देश
स्वस्थ भी हो
सकता है, समृद्ध
भी हो सकता है,
संपन्न भी
हो सकता है।
इसके पास सब
है। और मनुष्यों
की इतनी संपदा
है, इतनी
प्रतिभा है।
मगर हमारी
धारणाएं गलत
हैं। और फिर
तुम रोते हो, और फिर तुम
परेशान होते
हो। फिर तुम
पूछते हो: इस
देश के
राजनेता देश
को कहां लिए
जा रहे हैं? तुमने
राजनेता
किसको चुना है?
तुमने
जिसको चुना है,
समझ लो उससे
कि वह तुम्हें
कहां ले
जायेगा।
राजनीति
युवकों के हाथ
में होनी
चाहिए, ताजे
मस्तिष्कों
के हाथ में
होनी चाहिए—जिनके
पास अभी
प्रयोग करने
का साहस है, क्षमता है, जो अभी
भूलचूक करने
की भी हिम्मत
कर सकते हैं।
लेकिन तुम
राजनीति में
लोगों को ले
जाते हो—पचहत्तर
साल हैं कोई, कोई अस्सी
साल, कोई
चौरासी साल।
और सब
जगह रिटायरमेंट
के नियम लागू
होते हैं—कहें
पचपन साल में, कहीं अठ्ठावन
साल में, कहीं
साठ साल में
आदमी को हम
रिटायर कर
देते हैं।
क्यों? क्योंकि
साठ साल के
बाद और सब जगह
आदमी सठिया जाते
हैं। और
राजनीति में?
साठ साल के
बाद ही समझदार
होते हैं। बड़ा
मजा है। जब तक सठियाओ
नहीं, तब
तक तो कोई
तुम्हारी
प्रतिष्ठा ही
नहीं है। तब
तक कौन
तुम्हें
पूछता है!
पहली बात तो
लोग यह पूछते
हैं कि सठियाये
कि नहीं? सठिया
गये तो नेता
होने के योग्य
हो।
मोरारजी
देसाई ने साठ
साल पहले
विश्वविद्यालय
छोड़ा होगा।
साठ साल पहले
उनकी जो
जानकारी थी विश्वविद्यालय
में, सब बदल
गयी। दुनिया
और से और हो
गयी। इन साठ
सालों में जो—जो
गति हुई है
विज्ञान की, ज्ञान की, उससे
मोरारजी का
कोई संबंध
नहीं, कोई
पहचान नहीं।
जरूरत भी नहीं
है, क्योंकि
लोगों को भी
इससे प्रयोजन
नहीं है। चरखा
कातने से
प्रयोजन है, तो वे चरखा कातते
रहे, अपनी
खादी बुनते
रहे, उपवास
करते रहे और गोटियां
बिठाते रहे।
इस साठ
साल में
दुनिया को
स्वर्ग बनाने
योग्य विज्ञान
का जन्म हो
चुका है। मगर
मोरारजी की उससे
क्या पहचान है, क्या संबंध
है? होश भी
नहीं है
उन्हें कि
दुनिया कहां
से कहां आ गयी
है। वे अगर इस देश
को चलाने की
भी कोशिश
करेंगे तो
उनका पुराना
ज्ञान, साठ
साल पुराना है
जिसका अब कोई
अस्तित्व नहीं
है कहीं भी।
ज्ञान रोज नया
हो रहा है और
नया ज्ञान
द्वार खोल रखा
है।
तुम
राजनीति को
धीरे—धीरे
विदा करो।
विशेषज्ञ को
लाना होगा।
राजनीति के
दिन लद गये।
राजनीति अब
मुर्दा है।
लाश है; तुम
ढो रहे हो, जब
तक ढोना है
ढोते रहो।
लेकिन जल्दी
ही सारी दुनिया
को यह तय करना
पड़ेगा कि हमें
विशेषज्ञ की
जरूरत है।
विशेषज्ञ हल
कर सकता है।
और इस देश में
विशेषज्ञ को
कोई सुनने को
राजी नहीं है।
इस देश के
विशेषज्ञ को
देश छोड़ देना
पड़ता है। इस
देश के
विशेषज्ञ
प्रतिष्ठा
दूसरी जगह होती
है, दूसरे
मुल्कों में
होती है। इस
देश में तो
विशेषज्ञ को
कोई पूछता ही
नहीं; यहां
तो पूछ
राजनीतिज्ञ
की है। यहां
विशेषज्ञ का
कोई सम्मान
नहीं, कोई
समादर नहीं
है।
एक तरफ
राजनीति है जो
जान देश की
लिए ले रही है और
दूसरी तरफ
राजनीतिज्ञों
के पलड़े
में बैठी हुई
ब्यूरोक्रेसी
है, नौकरशाही
है। बची—खुची
जान वह लिये
ले रही है। इन
दोनों के बीच,
इन दो पाटों
के बीच भारत
मर रहा है। इन
दोनों से
छुटकारा होना
चाहिए।
ब्यूरोक्रेसी
इतनी फैल गयी
है कि छोटा—मोटा
काम होने में
वर्षों लग जाते
हैं। बस
फाइलें सरकती
रहती हैं, कोई
काम कभी होता
नहीं। सबसे
ज्यादा
होशियार अधिकारी
वह है जो कुछ
काम नहीं करता
और फाइलें
सरकाता है।
मैंने
सुना है, एक
दफ्तर में, एक आदमी की
टेबल पर
फाइलों की कभी
भीड़ नहीं होती
थी। रोज सांझ
को टेबल खाली।
सारे दफ्तर के
लोग चकित थे।
सबकी टेबिलों
पर ढेर लगे
हैं, फाइलों
पर फाइलें, सबकी टेबिलों
पर फाइलें लदी
हैं; हल
नहीं होती हैं
इतनी उलझनें
हैं। और इस
आदमी की टेबल
पर फाइल आती
ही नहीं!
घटना
होगी
महाराष्ट्र
की, महाराष्ट्र
के सचिवालय
की। फिर किसी
ने पूछा कि
भाई, एक
राज तो बताओ, तुम किस
भांति हल कर
लेते हो सब
मामले, तुम्हारी
टेबल पर कभी
फाइलें
इकट्ठी नहीं
होतीं?
उसने
कहा: मेरी भी
एक तरकीब है।
जो भी फाइल
मेरे पास आई, मैं उस पर
लिख देता हूं
ऊपर: ‘सेन्ड इट टू
मिस्टर
पाटिल।' क्यों?
क्योंकि
कोई—न—कोई
पाटिल तो होगा
ही। एक नहीं
कई पाटिल हैं।
पाटिलों
से भरा है
पूरा—का—पूरा
सचिवालय। तो
किसी न किसी
पाटिल के पास
जाएगी, अपने
को मतलब क्या
कहीं भी जाए—"सेन्ड इट
टू मिस्टर
पाटिल'!
जो
आदमी पूछ रहा
था उसने कहा:
हद हो गयी, मैं ही
मिस्टर पाटिल
हूं! तभी तो
मैं कहूं कि मेरी
टेबल पर तो
फाइलें बढ़ती
ही जाती हैं।
और जो देखो
वही फाइल चली
आ रही है—सेन्ड
इट टू मिस्टर
पाटिल!
यहां
होशियार आदमी
वह है जो टाले।
वह भेजता रहता
है एक से
दूसरे...फिर
लौटती है, फिर जाती है,
फिर आती है,
बस फाइलें
चलती रहती
हैं।
राजनीतिज्ञ
लगे रहते हैं झगड़ों में
और नौकरशाही लालफीते
में उलझी रहती
है और देश
मरता जा रहा
है। देश में
एक त्वरित गति
चाहिए काम की।
जो काम क्षणों
में हो सकते
हैं वे सालों
में नहीं
होते। ऐसा
लगता है कोई
करना ही नहीं
चाहता काम। दफ्तरों
में लोग मक्खियां
उड़ा रहे हैं।
देश मरता जाता
है। क्योंकि
भारत सदियों
से
जिम्मेवारी
लेने की आदत
छोड़ चुका है—टालो, स्थगित करो,
कल पर छोड़
दो, किसी
और के कंधे पर
सवार कर दो।
एक
उत्तरदायित्व
का बोध नहीं
है देश में।
किसी भी
व्यक्ति को
ऐसा नहीं है
कि मेरा भी
कोई उत्तरदायित्व
है, कुछ मैं
करूं। और
दूसरी तरफ
राजनेताओं को
लड़ने से फर्सत
नहीं है। वे
अपने—अपने
दांव—पेंच
बिठाने में
लगे रहते हैं।
पार्टी
मीटिंग में
अपने
साथियों से
खूब
लड़—झगड़कर
वे
अंतर्राष्ट्रीय
बाल वर्ष के
भव्य
समारोह में
आये
जबरन
मुसकराये
बच्चों
से
उन्होंने
खूब प्यार
किया
और
संदेश दिया,
"हमेशा
एकता के लिए
जीयें
और मरें
भूल
कर भी आपस में
लड़ाई—झगड़ा न
करें!'
बस एक
उपदेश है—पर
उपदेश कुशल
बहुतेरे—और एक
उनकी जिंदगी
है जहां सिवाय
लड़ाई—झगड़ा
के, गाली—गलौज
के...! शायद ही
दुनिया में
ऐसी कहीं
पार्लियामेंट
हों जहां जूते
चलते हैं, कुर्सियां चलती हैं, चप्पलें
चलती हैं, लोग
बाहें
चढ़ा लेते हैं,
कुश्तम—कुश्ती हो
जाती है। ऐसे
पहलवान तो
भारत में ही हैं।
मल्लयुद्ध है
यहां तो!
अभी
गोवा की
पार्लियामेंट
में जो हुआ वह
देखा! उसमें
और तो लोग पिटे—कुटे
सो ठीक ही, महात्मा
गांधी तक पिट
गये! उनकी
मूर्ति बीच
में थी, किसी
ने उसको ही
धक्का मार
दिया। वे भी
चारों खाने
चित जमीन पर
पड़े। और जूते
इत्यादि
फेंकना तो
बिलकुल सहज
बात है।
एक
राजनेता से
उसका बेटा पूछ
रहा था, कि
पिताजी, अस्त्र
और शस्त्र में
क्या भेद होता
है?
तो उस
राजनेता ने
कहा: बेटा, शस्त्र वह
जो फेंक कर
मारा जाए, अस्त्र
वह जो पकड़कर
मारा जाए।
तो
उसके बेटे ने
कहा: अब एक
सवाल और।
चप्पल क्या है? अस्त्र कि
शस्त्र? क्योंकि
कुछ लोग पकड़कर
भी मारते हैं
और कुछ लोग
फेंक कर भी
मारते हैं।
भोलेराम!
ये अस्त्र—शस्त्र
वाले
राजनीतिज्ञों
से सावधान
रहो। चित्त को
थोड़ा राजनीति
से मुक्त करो।
और राजनीतिज्ञों
का सम्मान
समाप्त करो।
राजनीतिज्ञों
की उपेक्षा
करो। न जाओ, न भीड़—भाड़
करो न स्वागत—समारोह
करो, बंद
करो यह सब।
जरा
राजनीतिज्ञों
को अपेक्षा झेलने
दो। मैं तुमसे
कहता हूं:
काले झंडे
दिखाने भी मत
जाओ, क्योंकि
उसको देखकर भी
वे प्रसन्न
होते हैं कि
चलो आये तो!
काले झंडे
दिखाने भी मत
जाओ, दूसरे
झंडों की तो
बात छोड़ दो।
जाओ ही मत।
राजनीतिज्ञों
की उपेक्षा
करो। दो कौड़ी
की मूल्य है
उनका। और उनकी
तुम जितनी
उपेक्षा
करोगे उतना
उनको बोध आएगा
और उतनी ही
राजनीति की
दौड़ कम होगी, आपा—धापी कम
होगी, कम
लोग उत्सुक रह
जाएंगे। और
धीरे—धीरे
विशेषज्ञ पर
ध्यान दो।
राजनीतिज्ञ
को तुम्हारी
पड़ी क्या है, देश की पड़ी
क्या है? उसे
अपनी फिक्र है,
अपने बाल—बच्चों
की फिक्र है, अपने भाई—भतीजों
की फिक्र है।
एक
राजनीतिज्ञ
दवाई की दुकान
पर दवा लेने
के लिए जल्दी
मचा रहा था।
राजनीतिज्ञ
था, हर जगह
सबसे पहले
उसके ऊपर
ध्यान दिया
जाना चाहिए। केमिस्ट
ने खीझ कर कहा:
धीरज रखिये
नेताजी! कहीं
मैं जल्दी में
आपको जहर की
गोलियां दे डालूं तो?
"कोई
बात नहीं'—राजनीतिज्ञ
ने कहा—"दवा
मुझे अपने लिए
नहीं, पड़ोसी
के लिए चाहिए।'
किसको
पड़ी है पड़ोसी
की! "जल्दी
करो। जहर हो
तो भी चलेगा।'
और
राजनीतिज्ञों
से जरा सावधान
रहना, क्योंकि
राजनीति की
सारी कला यह
है।...
किसी
ने पूछा था विंसटन
चर्चिल से एक
बार।
राजनीतिज्ञ, विंसटन चर्चिल—राजनेताओं
का राजनेता।
किसी ने पूछा
था कि क्या यह
भी संभव है कि
कोई आदमी
जिंदगी—भर
अपने पैंटों
में हाथ डाले,
गाना
गुनगुनाता, मौज से
जिंदगी गुजार
दे!
चर्चिल
ने कहा: हां, संभव है; सिर्फ
एक बात का
ख्याल रहे, हाथ अपने
हों और जेब
दूसरे की। फिर
क्या दिक्कत
है? गाओ
गीत, गुनगुनाओ गीत! अपनी
जेब में हाथ
डालकर काम न
चलेगा।
दुकानदार
को कोई वस्तु
लेने के लिए
भीतर भेज कर
नेताजी ने
सामने रखी
नारियल की
बोरी में से
एक नारियल
उठाकर चुपके
से अपने थैले
में रख लिया
और बाहर से ही
पूछा: क्यों
सेठ, आजकल
मिर्च का क्या
भाव है?
दुकानदार
ने भीतर से ही
जवाब दिया:
नारियल आजकल
एक रुपये का
है, मिर्च का
भाव बाहर आकर
बताता हूं।
जरा
तुम्हें
सावधान होना
पड़ेगा। जरा
ध्यान रखाना, नेताजी
आसपास हों, अपनी जेब
पकड़ लेना।
नेताजी आसपास
दिखाई पड़ जाएं,
सावधान! ऐसे
अवसर पर सम्यक
स्मृति
साधना। क्योंकि
नेताजी यानी
सूक्ष्म
जेबकट—जो जेब
काटें इस
तरकीब से कि
तुम्हें पता न
चले।
और तुम
पूछते हो
समाजवाद का
क्या हुआ?
नेताजी
ये
टूटते हुए
शिलान्यास के
पत्थर
यह
सूखी नदी
अधबना
पुल,
यह
बस के लाल
डिब्बों की
तरह
उड़ती
हुई समृद्धि
की धूल,
यह
बाढ़
यह
अकाल
यह
महामारी
क्षमा
करें,
क्या
आप बता सकते
हैं,
इस
देश में
समाजवाद कब तक
आएगा?
यह
बोले यह तो
आपको
यह
टूटा हुआ
शिलान्यास का
पत्थर बताएगा,
जिसके
भवन की ईंटें
सहकारी
संस्था वाले
खा गये हैं
आप
नदी और पुल पर
आ गये हैं
समस्या
भारी है
नदी
जनता की है और
पुल सरकारी है,
फिर
भी सूचना
विभाग कह चूका
है—
बारह
पुल सरकारी
फाइलों पर
पूरी
तरह बन चुके
हैं, आठ
का काम जारी
है।
वह
भी एक या दो
वर्ष में पूरी
तरह बन
जाएंगे।
नेताजी
का कहना है घबराने
की बात नहीं
जब
पुल बन गया है
तो
नदी भी लाएंगे।
आपको
आब्जेक्शन
है
लोग
अकाल बाढ़, महामारी से
जिंदा
जी तर गये
हैं।
यार, आप भी हद कर
गये हैं
हम
आपको कैसे
समझाएं
उनके
तो भाई—भतीजे
थे,
पर
हमारे तो वोटर
मर गये हैं।
नेता
का दुख अलग
है। महामारी
होती है तो
उसको यह फिक्र
नहीं होती कि
लोग मर रहे हैं, उसे फिक्र
होती है अपने
वोटर कितने मर
गये! अगर
दूसरे के वोटर
मर गये हैं तो
चित्त
प्रसन्न होता
है; भगवान
को वह धन्यवाद
देता है कि
खूब किया, ठीक
किया, जो
करना था वही
किया।
समाजवाद
की चिंता किसे
है? समाजवाद
तो एक नारा है,
एक थोथा
नारा, जिसकी
छाया में, थोथे
नारे की छाया
में तुम सपने
देखते रहो, सोये रहो।
देश को
थोड़ा सजग होना
पड़ेगा, इतना
सजग होना
पड़ेगा कि
राजनीतिज्ञ
देश को और धोखा
न दे सकें।
मेरा राजनीति
से कुछ लेना—देना
नहीं है, लेकिन
इतना तो मैं
कहना चाहूंगा
देश के
प्रत्येक
व्यक्ति को कि
सजग रहो, थोड़े
जागो, नहीं
तो यह शोषण
जारी रहेगा; इस शोषण का
फिर कोई अंत
नहीं हो सकता।
यह जो
क्रांतियां
राजनेता करते
हैं इन क्रांतियों
से कुछ होने
वाला नहीं है।
ये दो कौड़ी
की
क्रांतियां
हैं। यह जो
अभी—अभी
जयप्रकाश
नारायण ने
समग्र क्रांति
कर डाली—इसमें
न तो कुछ
क्रांति है, न कुछ समग्र
है। मुर्दों
को सत्ता में
बिठा दिया, समग्र
क्रांति हो
गयी। सब वही
का वही है, वही
के वही लोग, इस पार्टी
में थे, वही
मोरारजी
देसाई, वही
दूसरी पार्टी
में हो गये।
वही जगजीवन
राम उस पार्टी
में थे, वही
जगजीवन राम
दूसरी पार्टी
में हो गये—और
समग्र
क्रांति हो
गयी! आदमी वही
के वही हैं, धंधा वही का
वही जारी है, काम वही का
वही जारी—और
समग्र
क्रांति हो
गयी।
इन
क्रांतियों
से कुछ भी न
होगा। ये
क्रांतियां
सिर्फ लोगों
के लिए अफीम
हैं और ये
समाजवाद की
बड़ी—बड़ी बातें
सिर्फ लोगों
को सुलाये
रखने के उपाय
हैं। ये ऐसे
ही है जैसे
छोटा बच्चा
शोरगुल मचाता
है, रोता है,
तो उसके
मुंह में हम चूसनी दे
देते हैं। रबर
को चूसता रहता
है गरीब बच्चा,
उसको समझ
में ही नहीं
आता कि यह
स्तन नहीं है
मां का। यह तो
जरा बड़ा होगा
तब समझ में
आएगा, तब
वह फेंक देगा चूसनी, वह
कहेगा, किसको
धोखा दे रहे
हो? ये
समाजवाद
वगैरह चुसनियां
हैं। इनसे जरा
सावधान! जरा
गौर से तो
देखो, इनमें
से कुछ निकल
नहीं रहा है, रबर को चूस
रहे हो।
समाजवाद
इस तरह आने
वाला नहीं, न इस देश का
सूर्योदय इस
तरह होने वाला
है। इस देश का
सूर्योदय हो
सकता है—लोग
थोड़े जागरूक
हों, लोग
चैतन्य हों, लोग थोड़ा
सोचें—विचारें,
और लोग
राजनीति को
गौण करें।
प्रतिष्ठा
ज्ञान की हो, राजनीति की
नहीं।
प्रतिष्ठा
विज्ञान की हो,
राजनीति की
नहीं।
प्रतिष्ठा
धर्म की हो, राजनीति की
नहीं।
राजनीति सबसे
गयी—बीती चीज
है; उसके ऊपर
बहुत चीजें
हैं—ज्ञान है,
विज्ञान है,
दर्शन है, धर्म है।
राजनीति सबसे
नीचे का सोपान
है इस सीढ़ी का,
लेकिन वह
सिरताज होकर
बैठ गयी है।
वह मुकुट बन
कर बैठ गयी
है। उसे उसकी
जगह पर वापिस
लाओ। उससे
ज्यादा मूल्य
ज्ञान का है, उससे ज्यादा
मूल्य
अध्यात्म का
है।
तुम्हारे
मूल्य
रूपांतरित
होने चाहिए।
मूल्यों का एक
रूपांतरण
जरूरी है। भोलेराम, और भोले
रहने से नहीं
चलेगा।
भोलापन छोड़ो।
और भोलापन छोड़ो
तो मैं यह
नहीं कहता कि
चालबाज हो जाओ,
चालाक हो
जाओ, नहीं
तो तुम्हीं
राजनीतिज्ञ
हो जाओगे।
भोलापन छोड़ो,
तो मेरा
अर्थ है: होश संभालो; थोड़ा
विचारवान हो
जाओ; थोड़ा
देखकर चलो; थोड़ी आंख खोलो
और धोखे में न पड़ो। इतना
आसान न रह जाए
लोगों का धोखा
देना कि हर कोई
आये और
तुम्हें धोखा
दे।
सादियों
इस देश ने
धोखा खाया है।
अब तो समय है
कि हम जागें, यह नींद
टूटे, यह
सपना टूटे। यह
देश अपनी
गरिमा को वापस
पाये, अपने
गौख को पुनः
उपलब्ध हो!
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें