दिनांक
31 मई,
1979;
ओशो कम्युन, पूना।
सूत्र:
ब्राह्मन
कहिये ब्रह्म—रत, है
ताका बड़
भाग।
नाहिंन पसु
अज्ञानता, गर
डारे तिन
ताग।।
संत—चरन
में लगि रहै, सो
जन पावै
भेव।
भीखा
गुरु—परताप तें, काढेव
कपट—जनेव।।
संत
चरन में जाइकै, सीस
चढ़ायो
रेनु।
भीखा
रेनु के लागते, गगन
बजायो
बेनु।।
बेनु
बजायो
मगन ह्लै, छूटी
खलक की
आस।
भीखा
केवल एक है, किरतिम
भयो अनंत।
एकै
आतम सकलघट, यह
गति जानहिं
संत।।
एकै
धागा नाम का, सब
घट मनिया माल।
फेरत
कोई संतजन, सतगुरु
नाम गुलाल।।
तिमिर
से संघर्ष
किरणें कर रही
हैं,
उदयगिरि के
द्वार खुलते
जा रहे हैं!
है
तमिस्रा के
क्षणों का अंत
संमुख,
ज्योति
के अरुणाभ
क्षण अब आ रहे
हैं!
जो चरण
रुकता मनुजता
का,
निशा है;
जो चरण
बढ़ता, उषा है
वह नवेली;
ज्योति
में संपर्क
पाती है मनुजता
और तम
के आवरण में
वह अकेली!
जो
निराशा की
निशा की मूकता
को!
प्रथम
कलरव का नवल
स्वर दान देती,
तिमिर
में अनजाना
खोई मनुजता को
जो नए
लोचन, नई
पहचान देती;
ज्योति
वह,
जो मुक्त्त
हो, बंटती,
बिखरती,
साम्य
का,
औदर्य का
वैभव लुटाती;
वह
नहीं, जो
सिमटती, संकीर्ण
होती,
मनुजता,भू,
प्रकृति का
कल्मष बढ़ाती।
ज्योति
वह,
जिसमें
मनुज देता
मनुज को
सरल
करुणा, स्नेह,
ममता का
सहारा;
ज्योति
वह,
जिसमें
मनुजता के
शिखर से
द्रवित
हो बहती; निखरती
भावधारा!
तिमिर
वह,
जिसमें
मनुजता बद्ध
होती,
रुद्ध
होती, खर्व
होती, हीन
होती,
घिर परिधि
में स्वार्थ
की वह कृपणता
का
भार ढो—ढोकर
निरंतर दीन
होती।
अप्रभावित
जो प्रतिक्षा
की निशा से,
उस
सुमन की सतत श्रद्धाभावना
से
ज्योति
के क्षण
अवतरित होते
जगत में,
चेतनापथ के
पथिक की साधना
से।
ज्योति—क्षण
आए,
न यों ही
लौट जावें,
कर्म
से इनको चलो
सार्थक बनावें!
तृप्ति, सुख,
उल्लास, हास,
विकास बनकर
मनुजजीवन
में अमर ये
स्थान पावें!
अनंत—अनंत
काल के बीत
जाने पर कोई सदगुरु
होता है।
सिद्ध तो बहुत
होते हैं, सद्गुरु
बहुत थोड़े।
सिद्ध वह
जिसने सत्य को
जाना; सद्गुरु
वह जिसने जाना
ही नहीं, जनाया
भी। सिद्ध वह
जो स्वयं तो
पा लिया लेकिन
बांट न सका; सद्गुरु वह,
पाया और
बांटा। सिद्ध
स्वयं तो लीन
हो जाता परमात्मा
के विराट सागर
में मगर वह जो
मनुष्यता की
भटकती हुई भीड़
है——अज्ञान
में, अंधकार
में, अंधविश्वास
म——उसे नहीं
तार पाया।
सिद्ध तो ऐसे
है जैसे छोटी—सी
डोंगी मछुए की,
बस एक आदमी
उसमें बैठ
सकता है।
सिद्ध का यान,
हीनयान है;
उसमें दो की
सवारी नहीं हो
सकती, वह
अकेला ही जाता
है। सद्गुरु
का यान, महायान
है; वह बड़ी
नाव है; उसमें
बहुत समा जाते
हैं; जिनमें
भी साहस है वे
सब उसमें समा
जाते है। एक
सद्गुरु अनंतों
के लिए द्वार
बन जाता है।
सिद्ध
तो बहुत होते
हैं,
सद्गुरु
बहुत थोड़े
होते हैं। और
सद्गुरु जब हो
तो अवसर चूकना
मत।
ज्योति—क्षण
आए, न यों ही
लौट जावें,
कर्म
से इनको चलो
सार्थक बनावें!
तृप्ति, सुख,
उल्लास, हास,
विकास बनकर
मनुजजीवन
में अमर ये
स्थान पावें!
सद्गुरु
का संदेश क्या
है?
फिर
सद्गुरु कोई
भी हो——गुलाल
हो, कबीर
हो कि नानक, मंसूर हो, राबिया कि
जलालुद्दीन——कुछ
भेद नहीं
पड़ता। सद्गुरुओं
के नाम ही अलग
हैं, उनका
स्वर एक, उनका
संगीत एक; उनकी
पुकार एक, उनका
आवाहन एक; उनकी
भाषा अनेक
होगी मगर उनका
भाव अनेक
नहीं। जिसने
एक सदगुरु
को पहचाना
उसने सारे सदगुरुओं
को पहचान लिया——अतीत
के भी, वर्तमान
के भी, भविष्य
के भी। सदगुरु
में समय के
भेद मिट जाते
हैं——जो पहले
हुए हैं, वे
भी उसमें
मौजूद; जो
अभी हैं, वे
भी उसमें
मौजूद। जो कभी
होंगे, वे
भी उसमें
मौजूद। सदगुरु
शुद्ध प्रकाश
है जिस पर कोई
भी अंधकार की
सीमा नहीं।
तिमिर
से संघर्ष
किरणें कर रही
हैं,
उदयगिरि के
द्वार खुलते
जा रहे हैं!
है
तमिस्रा के
क्षणों का अंत
संमुख,
ज्योति
के अरुणाभ
क्षण अब आ रहे
हैं!
जो झुकेगा
सदगुरु
के चरणों में
उसके लिए
द्वार खुलने
लगते हैं।
झुके बिना ये
द्वार नहीं
खुलते। जो अकड़ा
है उसके लिए
तो द्वार बंद
हैं। खुला
द्वार भी उसके
लिए बंद है
क्योंकि अकड़
के कारण उसकी आंख
बंद है।
अहंकार आदमी
को अंधा करता
है;
विनम्रता
उसे आंख देती
है। जो जितना
सोचता है "मैं
हूं', उतना
ही परमात्मा
से दूर होता
है। जो जितना
जानता है "मैं
नहीं हूं', उतना
परमात्मा के
निकट सरकने
लगा, उतनी
उपासना होने
लगी, उतना
उपनिषद जगने
लगा, उतनी
निकटता बढ़ने
लगी, उतना
सामीप्य। और
जिसने जाना कि
"मैं हूं ही नहीं',
वह
परमात्मा हो
जाता है।
जिसने जाना कि
"मैं हूं ही
नहीं', वह
कह सकता है——अहं
ब्रह्मास्मि——मैं
ब्रह्म हूं।
जो
चरण रुकता
मनुजता का, निशा
है;
जो
चरण बढ़ता, उषा
है वह नवेली;
ज्योति
में संपर्क
पाती है
मनुजता
और
तम के आवरण
में वह अकेली!
जिस
घड़ी तुम्हारा
कदम सत्य की
खोज में बढ़ता
है,
वह प्रकाश
है, वह
सुबह है। और
जिस घड़ी तुम
ठिठकते हो, झिझकते हो, अतीत को पकड़ते
हो, धारणाओं
को पकड़ते
हो; शास्त्रों,
सिद्धांतों
को पकड़ते
हो; सत्य
की जिज्ञासा
नहीं वरन्
सिद्धांतों
की सुरक्षा पकड़ते हो; सत्य का दूर
से आता हुआ
आवाहन नहीं, वरन् अतीत
से जड़ हो गयी
परंपराएं पकड़ते
हो——जानना वही
अंधकार है, जानना वही
अंधापन है।
जो चरण
रुकता मनुजता
का,
निशा है...!
वही है रात
अंधेरी, अमावास, जब तुम रुक
जाते, डर
जाते; जब
तुम भयभीत हो
जाते अज्ञात
से, अज्ञेय
से, और
ज्ञात को पकड़
लेते कि कहीं
ज्ञात हाथ से
छूट न जाए...!
ज्ञात क्या है?
हिंदू धर्म
ज्ञात है, मुसलमान
धर्म ज्ञात है,
सिक्ख धर्म
ज्ञात है, जैन
धर्म ज्ञात है,
ईसाई धर्म
ज्ञात है, लेकिन
परमात्मा
धर्म अज्ञात
है, सदा
अज्ञात है।
मंदिर ज्ञात
है, मस्जिद
ज्ञात है, गिरजा,
गुरुद्वारा
ज्ञात है, लेकिन
उस परमात्मा
का निवास
अज्ञात है, बिलकुल
अज्ञात है। वह
सदा ही अज्ञात
है।
तो जो
अज्ञात में
अपनी नाव को
उतारने को
तैयार हो जाते
हैं,
उनका ही
उससे संबंध
होता है। जो
बंधे रहते हैं——लीकों
में, लकीरों
में——वे अटके
रह जाते हैं, उनकी जिंदगी
अमावस है। और
तुम्हारी
जिंदगी अभी
पूर्णिमा हो
सकती है, इसी
क्षण
पूर्णिमा हो
सकती है।
अमावस और पूर्णिमा
के बीच बस एक
कदम का फासला
है। अमावस है
रुका हुआ कदम,
पूर्णिमा
है बढ़ा हुआ
कदम।
जो
चरण रुकता
मनुजता का, निशा
है;
जो
चरण बढ़ता, उषा
है वह नवेली;
ज्योति
में संपर्क
पाती है
मनुजता
और
तम के आवरण
में वह अकेली!
और एक
अदभुत घटना है
कि जब तक तुम
अंधेरे में हो, अकेले
हो; और
जैसे ही
प्रकाश हुआ, तुम अकेले
नहीं, सारा
अस्तित्व
तुम्हारे साथ
है। पौधे, पशु—पक्षी,
पहाड़, सरिताएं, सागर, चांदत्तारे,
प्रगट—अप्रगट——जो
भी है, सब
तुम्हारे साथ
है। अंधेरे
में तुम अकेले
हो। अंधेरे
में तुम
इसीलिए भयभीत
हो। प्रकाश में
तुम अकेले
नहीं हो, अस्तित्व
तुम्हारा
संगी—साथी है।
इसलिए प्रकाश
में भय नहीं
है, प्रकाश
में अभय है।
वह जो
ऋषि गाते रहे——
तमसो
मा ज्योतिर्गमय...हमें
अंधेरे से
प्रकाश की तरफ
ले चल प्रभु!...
असतो मा सद्गमय...हमें
असत्य से सत्य
की और ले चल
प्रभु!...मृत्योमां
अमृतं गमय...हमें
मृत्यु से
अमृत की और ले
चल प्रभु!
क्या
तुम सोचते हो
उन ऋषियों को
शास्त्रों का
पता न था? अगर
शास्त्रों
में सत्य
मिलता होता तो
वे प्रार्थना
करते आकाश से——असतो मा सद्गमय?
क्या
उन्हें
शब्दों की, सिद्धांतों
की, संपदा
का कुछ बोध न
था? अगर
शब्दों और
सिद्धांतों
से रोशनी
मिलती होती, अगर दीया
शब्द से
ज्योति मिलती
होती, अंधेरा
कटता होता, तो वे
प्रार्थना
करते——तमसो मा ज्योतिर्गमय?
और अगर
पंडित—पुरोहितों
से आश्वासन
मिलता होता
जीवन की शाश्वतता
का,
अमरता का, अगर परंपरा
से, बंधी—बंधायी
धारणाओं से
आस्था जगती
होती अमरत्व
की, तो वे
प्रार्थना
करते——मृत्योर्मा
अमृतं गमय?
उनकी
प्रार्थना
क्या कह रही
है?
उनकी
प्रार्थना कह
रही है——इस
किनारे पर जो
भी उपलब्ध है,
उससे उस
किनारे का कुछ
पता चलता
नहीं। यहां शास्त्र
बहुत हैं, सिद्धांत
बहुत हैं, शास्त्रों
को जानने वाले
बहुत हैं, वेद
हैं जिन्हें
कंठस्थ, कुरान
जिनकी जबान पर
रखी है——ऐसे तो बहुत
हैं, मगर
इस किनारे पर
उस किनारे की
खबर देने वाला
कभी—कभार बड़ी
मुश्किल से
होता है।
इस
किनारे पर उस
किनारे की खबर
तो वही दे
सकता है जो उस
किनारे पहुंच
गया हो। सिद्ध
भी उस किनारे
पहुंचते हैं
मगर वे लौटते
नहीं, वे गये
सो गये। जैन
और बौद्ध
शास्त्रों ने
उन्हें अर्हत
कहा है। गये
सो गये। वे
फिर लौटते नहीं,
वे खबर देने
भी नहीं
लौटते। डूबे
सो डूबे। वे इस
किनारे फिर
नहीं आते। और
जो उस किनारे
जाकर इस
किनारे आ जाते
हैं उन्हें
बौद्धों ने
बोधिसत्व कहा
है, जैनों
ने तीर्थकर
कहा है। उनकी
करुणा अपार है।
सत्य का
अपूर्व आनंद
छोड़कर, ब्रद्म का महासुख
छोड़कर, जहां
कमल खिले हैं
शाश्वतता के,
उन्हें
छोड़कर लौट आते
हैं इस किनारे
पर, कंटकाकीर्ण
किनारे पर, पीछे जो
भटकते आ रहे
हैं उन्हें
खबर देने——वे
सद्गुरु हैं।
ऐसे सद्गुरुओं
के साथ तुम एक
कदम भी उठा लो
तो पूर्णिमा आ
जाए जीवन में।
ऐसे तो अमावस
में और
पूर्णिमा में
पन्द्रह दिन
का फर्क होता
है लेकिन मैं
जिस अमावस और
जिस पूर्णिमा
की बात कर रहा
हूं,
उसमें एक
कदम का ही
फासला है——समर्पण
और पूर्णिमा;
अहंकार और
अमावस।
जो
निराशा की
निशा की मुकता
को
प्रथम
कलरव का नवल
स्वर दान देती,
तिमिर
में अनजान खोई
मनुजता को
जो
नए लोचन, नई
पहचान देती...
वही
वाणी उपनिषद्
है,
वेद है, कुरान
है——वही
जीवन्त वाणी
जो तुम्हें
नयी आंख दे।
तिमिर
में अनजान खोई
मनुजता को
जो
नए लोचन, नई
पहचान देती...
परमात्मा
को बार—बार
आविष्कृत
करना होता है
क्योंकि बार—बार
पंडितों और पुरोहितों
के शब्दजाल
में परमात्मा
का सत्य खो
जाता है।
बुद्ध ने पाया
उसे और बुद्ध
के मरते ही
पंडित—पुरोहितों
की भीड़ में खो
गया वह।
महावीर ने पाया
उसे,
महावीर के
जाते ही पंडित—पुरोहितों
की भीड़ में खो
गया वह। यह
कुछ स्वाभाविक
नियम है कि
सत्य तभी तक
जीता है, जब
तक सत्यधर
जीता है; सत्य
तभी तक जीता
है, जब तक
मिट्टी का
दीया उस
ज्योति को
सम्हाले रहता
है। इधर
मिट्टी का
दीया टूटा, उधर ज्योति
महाज्योति
में लीन हो
जाती है। फिर
मिट्टी के
टूटे—फूटे
दीये के पास, बिखर गये
तेल के आसपास,
पंडित—पुरोहितों
का शोरगुल
मचता रहता है।
सदियां बीत
जाती हैं, टूटे—फूटे
दीयों की पूजा
जारी रहती है——न
उनसे नयी आंख
मिलती, न
नयी अनुभूति
मिलती, न
नयी पहचान
मिलती।
और
आश्चर्य तो यह
है कि जब भी
कोई तुम्हें
नयी आंख देने
आएगा, तुम
उसकी आंखें फोड़ देने
को आतुर हो
जाते हो। जब
तुम्हें कोई
नयी पहचान
देने आएगा, तुम उसकी
गर्दन काट
देने को तत्पर
हो जाते हो।
क्योंकि नयी
पहचान के साथ
जाना जोखम
भरा है। नयी
पहचान की साख
क्या? क्योंकि
नयी पहचान के
पीछे अतीत का
कोई बल नहीं
होता।
अगर
मैं तुम्हें
नयी आंख दे
रहा हूं तो
मेरे
अतिरिक्त
मेरी आंख का
और कौन गवाह
है?
मैं पंडित—पुरोहितों
की कतार अपनी
गवाही में खड़ी
नहीं कर सकता।
जो मैंने जाना
है, मैं ही
उसका गवाह
हूं। मैं एक
दूसरा
व्यक्ति भी
गवाही के लिए
खड़ा नहीं कर
सकता।
जिसका
कोई गवाह न हो, उसकी
कौन माने? कौन
जाने वह भ्रांत
हो। कौन जाने
उसने सपना
देखा हो। कौन
जाने सिकी
विभ्रम में
पड़ा हो। कौन
जाने धोखा
देता हो, वंचना
करता हो। हजार
संदेह, शंकायें मन में उठती
है। अतीता
के साथ ज्यादा
भरोसा मालूम
होता है।
हजारों—हजारों
साल से लोग
मानते आ रहे
हैं, इतने
लोग मानते आ
रहे हैं, ठीक
ही होगी बात, नहीं तो
इतने लोग
मानते हैं!
हम भीड़
का बड़ा भरोसा
करते हैं, हम
भेड़ें
हैं, हम
आदमी नहीं। हम
भीड़ का भरोसा
करते हैं, सत्य
का नहीं। जैसे
भीड़ से कुछ तय
होता है! अक्सर,निंरतर यह पाया गया
है कि भीड़ गलत
पायी गयी और
व्यक्ति सही
पाये गये। न
केवल धर्म के
उस अलौकिक जगत
में बल्कि
विज्ञान के
लौकिक जगत में
भी ऐसा ही
होता रहा है।
जब
गैलीलियो ने
कहा कि "सूरज
पृथ्वी का
चक्कर नहीं
लगाता, पृथ्वी
ही सूरज का
चक्कर लगाती
है' तो वह
अकेला आदमी
था। सारी
दुनिया मानती
थी कि सूरज
पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है। अब भी
अधिकतर लोग पढ़
तो लेते हैं
मगर मानते यही
हैं कि सूरज
चक्कर लगाता
है। अभी भी
सारी दुनिया
की भाषाओं में
शब्द नहीं
बदले। संध्या
को हम कहते
हैं: सूर्यास्त!
सूर्य कभी
अस्त होता ही
नहीं। जब
हमारी पीठ हो
जाती है उसकी
तरफ तो हमें
दिखाई नहीं पड़ता;
जब हमारी
पीठ हो जाती
है उसकी तरफ
तो हमें दिखाई
नहब पड़ता;
जब हमारा मूंह हो
जाता उसकी तरफ,
हमें दिखाई
पड़ता है।
सूर्य कभी
अस्त होता ही
नहीं।
सूर्यास्त
जैसा झूठा कोई
शब्द नहीं हो
सकता। और हम
सुबह कहते हैं
सूर्योदय!
यह तो
ऐसे ही हुआ कि
मैं तुम्हारी
तरफ पीठ कर लूं
और कहूं कि
तुम्हारा
अस्त हो गया।
और फिर
तुम्हारी तरफ
मुंह कर लूं
और कहूं कि
तुम्हारा
जन्म हो गया।
तुम जैसे थे
वैसे के वैसे
हो,
सिर्फ मैं
घूम रहा हूं।
पृथ्वी
घूमती है, सूरज
थिर है। लेकिन
जब गैलीलियो
ने यह कहा तो चर्च
खिलाफ, धर्मगुरु
खिलाफ, पंडित—पुरोहित
खिलाफ। उनका
डर क्या है? उनका डर यह
है कि अगर
गैलीलियो सही
है तो फिर
बाइबिल में जो
उल्लेख है कि
"पृथ्वी सूरज
का चक्कर नहीं
लगाती, सूरज
पृथ्वी का
चक्कर लगाता
है' उसका
क्या होगा? और अगर
शास्त्र में
एक भूल मिल
जाए तो फिर
लोगों को
संदेह उठेंगे
कि जब एक भूल
हो सकती है तो और
भूलें भी हो
सकती हैं। और
जब इस जगत के
सूरज के संबंध
में तक भूल हो
रही है, तो
परमात्मा के
संबंध में
क्या पता कि
बाइबिल सच
कहती हो, न
कहती हो।
घबड़ाहट
फैल गयी।
गैलीलियो को
अदालत में
बुलाया गया। गैलीलियो
बहुत समझदार
आदमी रहा
होगा। गैलीलियो
से कहा गया, तुम
क्षमा मांग
लो। वह बूढ़ा
हो गया था, सत्तर—पचहत्तर
साल का था।
तुम क्षमा
मांग लो घुटने
टेककर, तुमने जो
कहा वह गलत
है। तुम
वक्तव्य दे दो
कि सूरज ही
चक्कर लगाता
है पृथ्वी का,
पृथ्वी का।
लेकिन मेरी
घोषणा से कुछ
होगा नहीं——सूरज
मेरी मानेगा
नहीं, पृथ्वी
मेरी सुनेगी
नहीं, चक्कर
तो पृथ्वी ही
लगाएगी।
बड़ा
समझदार आदमी
रहा होगा।
उसने कहा, तुम
जिद्द
करते हो तो
कौन झंझट करे!
ठीक है, चलो
माफी मांगे
लेते हैं। कोई
जिद्दी आदमी
नहीं था। मगर
उसने कहा: मैं
क्या करूंगा,
मेरी माफी
क्या करेगी? मेरे किये न
किये कुछ नहीं
होता, मेरी
कौन सुनता है?
तुम्हीं
नहीं सुनते, सूरज क्या
खाक सुनेगा!
आदमी नहीं
सुनते, पृथ्वी
क्या मेरी
मानेगी? जो
हो रहा है वह
वैसा ही होता
रहेगा।
गैलीलियो के
कहने से फर्क
नहीं पड़ता।
गैलीलियो तो
वही कह रहा है
जो हो रहा है।
मगर
सारी दुनिया
खिलाफ थी। अब
हम जानते हैं, गैलीलियो
सही था सारी
दुनिया गलत
थी।
भीड़
हमेशा गलत
पायी गयी
है...लेकिन फिर
भी हमारे मन
में एक
श्रद्धा है कि
जिसे अधिक लोग
मानते हैं...।
जैसे सत्य भी
कोई मत से तय
होता है, कि
वोट से तय
होता है!
कितने लोग
मानते हैं? अगर सत्य
ऐसे तय होता
हो तो ईसाई
धर्म सत्य है,
हिंदु धर्म
सत्य नहीं है।
अगर सत्य ऐसे
तय होता हो तो
हिंदु धर्म
सत्य है, जैन
धर्म सत्य
नहीं है। अगर
सत्य ऐसे तय
होता हो तो
पंडित—पुरोहित
सही हैं, मैं
सही नहीं हूं।
लेकिन
सत्य का यह तय
होने का ढंग
ही नहीं है। सत्य
अनुभव से तय
होता है। सत्य
तो इकहरी गवाहियों
से तय होता
है। सत्य का
साक्षात तो
व्यक्ति करता
है,
भीड़ नहीं
करती। आज तक
दुनिया में
ऐसा कोई उल्लेख
नहीं है कि दस
हजार आदमियों
ने सत्य का
साक्षात्कार
किया हो। सत्य
तो जब भी आता
है, व्यक्ति
के अंतस्ल
में आता है, उसकी निजता
में आता है, अत्यंत
एकांत में।
वहां कोई गवाह
नहीं होता।
और ऐसे
ही व्यक्ति नई
आंख दे सकते
हैं,
नई पहचान दे
सकते हैं। और
ऐसे ही
व्यक्तियों के
साथ जो हो जाए
वह धन्यभागी
है।
ज्योति
वह, जो
मुक्त हो, बंटती, बिखरती,
साम्य
का, औदार्य
का वैभव
लुटाती;
वह
नहीं, जो
सिमटती, संकीर्ण
होती,
मनुजता, भू,
प्रकृति का
कल्मष बढ़ाती।
और ज्योति
वही है जो
मुक्त हो——और
जो मुक्त करे।
ज्योति वह
नहीं है जो
बंधी हो और
बांधे। कोई
हिंदु होने
में बंधा है, कोई
मुसलमान होने
में बंधा है।
कोई मस्जिद को
कारागृह बना
लिया है, कोई
मंदिर को।
किसी का
कारागृह काशी
में है, किसी
का कारागृह
बना लिया है, कोई मंदिर
को। किसी का
कारागृह काशी
में है, किसी
कारागृह काबा
में है।
ज्योति
वह, जो
मुक्त हो, बंटती
बिखरती,
साम्य
का, औदार्य
का वैभव
लुटाती।
ज्योति
तो सारे
विशेषण छीन
लेती है।
मनुष्य को
समता देती है, साम्य
देती है, मित्रता
देती है, शत्रुता
नहीं। औदार्य
का वैभव लुटाती...ज्योति
तो उदार है, अनुदार
नहीं। और
तुम्हारे ये
सब तथाकथित
धर्म बहुत
अनुदार हैं, इनमें
उदारता का नाम
भी नहीं है।
ये उदारता की
बातें भी करें
तो थोथी...मुख
में राम बगल
में छुरी।
वह
नहीं, जो
सिमटती, संकीर्ण
होती,
मनजता, भू,
प्रकृति का
कल्मष बढ़ाती।
इन
सारे तथाकथित धर्मो ने
मनुष्य के
जीवन में
अंधेरा बढ़ाया
है,
घटाया
नहीं। धर्मो
के नाम पर
जितना खून
गिरा है इस
पृथ्वी पर और
किसी नाम पर
नहीं गिरा।
धर्मों के नाम
पर जितने मकान
जलाये गये, लोग जलाये
गए, जीवित
लोग, उतने
किसी और नाम
पर नहीं!
और इस
सबको तुम धर्म
कहे चले जाते
हो! कब तुम नई
आंख की भाषा सीखोगे? कब
तुम पहचान
करोगे
परमात्मा से?
परमात्मा
प्रेम है और
तुम्हारे ये
तथाकथित धर्म
तुम्हें घृणा
सिखाते हैं, सिर्फ घृणा।
ये तथाकथित
धर्म मनुष्य
को मनुष्य से
बांटते हैं, जोड़ते नहीं। और जो तोड़ता है, वह धर्म
नहीं; जो जोड़ता
है, वही
धर्म है।
ज्योति
वह, जिसमें
मनुज देता
मनुज को
सरल
करूणा, स्नेह,
ममता का
सहारा;
ज्योति
वह, जिसमें
मनुजता के
शिखर से
द्रवित
हो बहती, निखरती
भावघारा!
तिमिर
वह, जिसमें
मनुजता बद्ध
होती,
रुद्ध
होती, खर्च
होती, हीन
होती,
घिर
परिधि में
स्वार्थ की वह
कृपणताका
भार
ढो—ढोकर निरतंर
दीन होती।
चारों
तरफ देखो, तुम्हें
प्रमाण मिल
जाएंगे आदमी
कैसा दीन हो गया
है। कौन है
इसके लिए
उत्तरदायी? किसने
मनुष्य की यह
दुर्गति की? किसने
मनुष्य से
उसकी आत्मा
छीन ली? किसने
मनुष्य से
उसकी उदारता
छीन ली? किसने
मनुष्य की
करूणा का घात
किया? किसने
मनुष्य के
जीवन से प्रेम
का दीया बुझाया
और तुम चकित
हो जाओगे कि
तुम्हारे
मंदिर, मस्जिदों,
गुरुद्वारों,
शिवालयों, चैत्यालयों,
का हाथ है
इमें।
तुम्हारे
मंदिर अब
भगवान के मंदिर
नहीं, शैतान
के मंदिर हैं।
मूर्ति भगवान
की होगी, हाथ
पीछे शैतान के
हैं। और तुम
जब तक जागोगे
नहीं, जब
तक तुम खुलकर
आंख देखोगे
नहीं, तब
तक तुम इन्हें
जालों में पड़े
रहोगे।
जागो! और
जागने का एक
ही उपाय है——
गुरु—परताप
साध की संगति।
भीखा के ये
वचन सीधे—सादे, सुगम,
पर
चिनगारियों
की भांति हैं।
और एक चिनगारी
सारे जंगल में
आग लगा दे— एक
चिनगारी का
इतना बल है।
हृदय को खोलों,
इस चिनगारी
को अपने भीतर
ले लो। शिष्य
वही है जो
चिनगारी को
फूल की तरह
अपने भीतर ले
ले। चिनगारी
जलाएगी वह सब
जो गलत है, वह
सब जो व्यर्थ
है, वह सब
जो कूड़ा—करकट
है। चिनगारी
जलाएगी, भभकाएगी,
वह सब जो
नहीं होना
चाहिए और उस
सबको निखारेगी
जो होना
चाहिए।
चिनगारी
असत्य को
जलाती है, सत्य
को निखारती
है। और जो इस
अग्नि से
गुजरता है, एक दिन
कुंदन होकर
प्रगट होता है,
शुद्ध
स्वर्ण होकर
प्रगट होता
है।
ब्राह्मन
कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़
भाग।
नाहिंन पसु
अज्ञानता, गर डारे तिनताग।।
छोटे—से
सूत में परम
व्याख्या भर
दी, छोटे—से
सूत्र में
सारे वेपों
का सार भर, दिया—
ब्राह्मन
कहिये ब्रह्म—रत.
जो ब्रह्म में
डूब गया है, वह
ब्राह्मण।
ब्राह्मण
कोई जन्म से
नहीं होता। और
जिन्होंने
समझ लिया है
कि वे जन्म से ब्राह्मण
हैं, उनसे ज्यादा
भ्रांत और कोई
भी नहीं। उनकी
स्थिति तो शूद्रों
से भी गयी—बीती
है। शूद्र को
कम—से—कम यह तो
ख्याल है कि
मै शूद्र हूं।
महात्मा गांधी
जैसे लोगों ने
उसका भी ख्यालमिटाने
की कोशिश की
है। उसको भी
कहा कि हरिजन
है तू, शूद्र
नहीं। जैसे
ब्राह्मण की
भ्रांति है कि
जन्म से
ब्राह्मण, ऐसे
अब शूद्र को
भी भ्रांति
पैदा करवा दी
है—— भले—भले
लोगों ने, जिनको
तुम महात्मा
कहते हो——कि तू
हरिजन है।
हरिजन
ब्राह्मण का
ही दूसरा नाम
हुआ। जिसने
हरि को जाना
वह हरिजन, जिसने
ब्रह्म को
जाना वह
ब्रह्म, वह
ब्राह्मण।
हरिजन कह दिया,
उसको एक
भ्रांति चलती
ही थी कि कुछ
लोग जन्म से
ब्राह्मण हैं,
एक दूसरी
भ्रांति पैदा
करवा दी कि
कुछ लोग जन्म
से हरिजन हैं।
अब हरिजन अकड़े
हैं। क्योंकि
उनको भी
अहंकार जगा है
ब्राह्मण
होने का। ब्राह्म्ण
भी ब्राह्मण
नहीं है, हरिजन
भी हरिजन नहीं
हैं।
मुझसे
अगर तुम पूछो
तो मैं कहूंगा
हम सभी शूद्र
की तरह पैदा
होते हैं।
जन्म से तो हम
सब शूद्र होते
है——न कोई
ब्राह्मण
होता न कोई
वैश्य होता, न
कोई क्षत्रिय
होता, न
कोई हरिजन
होता। जन्म से
तो हम सब
शुद्र होते
हैं क्योंकि
जन्म से हम सब
अज्ञानी होते हैं।
फिर जन्म के
बाद हम क्या
यात्रा
करेंगे इस पर
निर्भर
करेगा। सौ में
निन्यानबे
लोग तो शूद्र
ही रह जाएंगे।
सद्गुरु को न पकड़ेंगे
तो शूद्र ही
रह जाएंगे। सौ
में से एकाध
ब्राह्मण हो
पाएगा। एकाध
भी हो जाए तो
बहुत। एकाध भी
हो जाए तो
काफी।
और
सबसे बड़ी जो
बाधा है वह यह
कि हम जन्म के
साथ ही मान
लेते हैं कि
ब्राह्मण
हैं। बस, वहीं
चूक हो गयी।
जैसे बीमार
आदमी मान ले
कि मैं स्वस्थ
हूं, तो
क्यों इलाज करवाये? क्यों
चिकित्सक के
पास जाए? क्यों
निदान करवाये?
क्यों औषधि
ले? बीमार
आदमी मान ले
कि मैं स्वस्थ
हूं, बात
खत्म हो गयी।
ब्राह्मण तो
बीमार था
सदियों से, इधर महात्मा
गांधी की कृपा
से शूद्र भी
बीमार हो गया
है। उसको भी
हरिजन होने की
अस्मिता छायी
जा रही है। यह
जो हिन्दुओं
और हरिजनों
के बीच जगह—जगह
संघर्ष हो रहा
है, इसमें
सिर्फ ब्राह्मणों
का हाथ नहीं
है, ख्याल
रखना, इसमें
हरिजनों
में पैदा हो
गयी अकड़ का भी
हाथ है। मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि जो
हो रहा है वह
ठीक हो रहा
है। ब्राह्मण
जो कर रहे हैं
वह तो बिलकुल
गलत है, पाप
है। मगर लोग
अगर यह सोचते
हों कि उसमें
सिर्फ
ब्राह्मणों
का हाथ. है, तो
गलत बात है, उसमें हरिजन
में जो अकड़n
पैदा
हो गयी है
हरिजन होने की, उसका
भी बड़ा हाथ
है। और
स्वभावत:
ब्राह्मण तो गलत
रहा है
सदियों—सदियों
से, इसलिए
उसकी अकड़ तो
बहुत पुरानी
है, मगर
ख्याल रखना, नया मुसलमान
जोर से नमाज
पढ़ता है। और
नया मुसलमान
रोज मस्जिद
जाता है, पुराना
मुसलमान कभी
चूक—चाक भी
जाए। नये मुसलमान
की अकड़ बहुत
होती है।
तौ जो पागलपन
धीरे—धीरे
ब्राह्मणों
में तो खून में
मिल गया था, जिसका
उन्हें
सीधा—साधा बोध
भी नहीं रह
गया था, वह
नया पागलपन हरिजनों
में भी छा गया
है। और उनका
नया—नया है।
और नये रोग
खतरनाक होते
हैं; उनका
आघात खतरनाक
होता है। वे
बड़ी अकड़ से चल
रहे हैं। वे
हर चीज में
अकड़ खड़ी करते
हैं। वह कहता
है, हमें
मंदिर में
जाने दो।
अब
बड़े मजे की
बात है,
महात्मा
गांधी जीवन—भर
कोशिश किये कि
हरि— जनों को
मंदिर में
प्रवेश मिलना
चाहिए। और
महात्मा
गांधी को इतनी
भी समझ न आयी
कि जो मंदिर
में बैठे
जन्मों—जन्मों
से पूजा कर
रहे हैं उनको
क्या खाक कुछ
मिला है! जब
ब्राह्मणों
को ही पूजा
करते—करते कुछ
नहीं मिला तो
ये गरीब हरिजनों
को भी उन्हीं
मंदिरों में
प्रवेश
करवाने से क्या
मिल जाने वाला
है? अगर
मुझसे पूछो तो
मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी
मंदिरों में
मत जाना। जो
मंदिरों में
हैं उनको ही
कुछ नहीं मिला,
तुम अब इस
झंझट में कहां
पड़ रहे हो! तुम
पर— मात्मा
को विराट आकाश
में खोजो, इन
दीवालों में
बद परमात्मा
नहीं है।
लेकिन, नहीं
महा—रमा गांधी
समझा रहे थे
कि महाक्रांति
है। हरिजनों
को मंदिरों
में प्रवेश
दिलवा देने से
महाक्रांति
हो जाएगी।
ब्राह्मण, क्षत्रिय,
वैश्य, तो
मंदिरों में
बैठे ही हुए
थे, इनकी
जिंदगी में
कौन—सी
क्रांति हो
गयी? इनकी
जिंदगी कूड़ा—करकट
है, उसी
में तुम हरिजनों
को भी
सम्मिलित कर
दो। और उस कूड़ा—
करकट होने के
लिए वे दीवाने
हो गये।
दंगे—फसाद
शुरू हो गये।
इस
दुनिया में
रोग पैदा करवा
देना बड़ा आसान
है। महात्मा
गांधी
धार्मिक
व्यक्ति नहीं
हैं, राजनैतिक
व्यक्ति हैं,
उन्होंने हरिजनों
का उपयोग
राजनैतिक
चालबाजी की
तरह कर लिया।
हरिजन शब्द
पुराना है, कोई महात्मा
गांधी की अपनी
ईजाद नहीं।
लेकिन हरिजन
हम कहते थे
उसको जो हरि का
था। नानक, कबीर,
दादू, भीखा,
ये हरिजन
थे। राबिया,
मीरा, सहजो,
ये हरिजन
थे।
हरिजन
बड़ी ऊंची बात
है। उसका ठीक
वही अर्थ है जो
ब्राह्मण का।
क्योंकि
ब्राह्मण का
अर्थ मर गया
था धीरे—धीरे
और शब्द थोथा
हो गया था जन्म
के साथ जुड़
गया था,
इसलिए
संतों ने
हरिजन खोजा।
गांधी ने उस
शब्द की भी
हत्या कर दी, उसको भी मार
डाला।
ऐसे
ही विनोबा ने
सर्वोदय शब्द
की हत्या कर
दी। वह भी
पुराना शब्द
है,
कोई सोलह सौ
साल पुराना
शब्द है। सबसे
पहले जैन
शास्त्रों
में उसका
उल्लेख हुआ
है। अमृतचन्द्राचार्य
ने सबसे पहले
उसका उल्लेख
किया है
सर्वोदय, और
बड़ा प्यारा
उल्लेख किया
है। खराब कर
दिया विनोबा
ने।
राजनीतिज्ञों
के हाथ में
असली सिक्के
भी चले जाएं
तो खोटे हौ
जाते हैं।
दुष्ट संगति
का बुरा
प्रभाव पड़ता है।
अमृतचन्द्राचार्य
ने सर्वोदय की
व्याख्या की
है——समाधि को
उपलब्ध वे लोग, जिनके
प्राणों में
सबके उदय की
आकांक्षा है। सबके—उसमें
पत्थर, पौधे,
पशु, पक्षी,
मनुष्य, सब
सम्मिलित
हैं। जिनके
भीतर समस्त
अस्तित्व को
समाधि की तरफ
ले जाने की
महत्वाकांक्षा
जगी है, वे सर्वोदयी है।
और
आजकल का सर्वोदयी? जिसको
विनोबाजी
सर्वोदयी
कहते हैं, वह
क्या है? वह
केवल राजनीति
के सोपान चढ़
रहा है।
सर्वोदय से
शुरू करता है
क्योंकि
सर्वोदय से ही
शु_रू करना
आसान है। किसी
की गर्दन दबानी
हो तो पैर
दबाने से शुरू
करना, ख्याल
रखना, गणित
ऐसा है, एकदम
गर्दन दबाओगे
तो किसी की
दबा न पाओगे।
पहले पैर
दबाना। पैर दबवाने को
तो कोई भी
राजी हो
जाएगा। फिर
धीरे—धीरे ऊपर
बढ़ते जाना, फिर गर्दन
दबा देना।
सर्वोदय
एक राजनैतिक
चालबाजी है।
और इसलिए जयप्रकाश
नारायण प्रगट
होकर रहे।
जीवन दान दिया
था सर्वोदय के
लिए, मगर जीवन का
अत हो रहा है
इस देश के
सबसे गर्हित
राजनीतिज्ञों
के बीच में।
सुंदर
शब्द भी गलत
लोगों के हाथ
में पड़कर
असुंदर हो
जाते हैं।
ब्राह्मण
शब्द बड़ा——प्यारा
है, अलौकिक है——ब्रह्म
को जो जाने।
बुद्ध ने भी
यही परिभाषा की
है——ब्रह्म को
जो जाने, ब्रह्म
मे जो रत हो।
ठीक
कहते हैं भीखा—
ब्राह्मन
कहिये ब्रह्म
रत,
है ताका
बड़ भाग।
लेकिन
ब्रह्म में
कौन रत हो
सकता है? किसकी
सामर्थ्य है
ब्राह्मण में
रत होने की? किसकी
सामर्थ्य है
ब्राह्मण
होने की? उसकी
ही सामर्थ्य
है जो शून्य—
समाधि को
जन्मा ले
क्योंकि
पूर्ण केवल
शून्य में
उतरता है, और
कोई न उपाय
कभी था, न
है, न
होगा। मिटने
को जो राजी हो,
जीते—जी मर
जाने को जो
राजी हो, जीते—जी
जो कफन ओढ़ ले।
तुम देखते हो
न इस देश में
मुर्दे को कफन
ओढाते
हैं तो लाल
रंग का कफन ओढाते
हैं, इसलिए
संन्यासी का
वस्त्र लाल
चुना है, वह
कफन है।
संन्यासी के
लाल वस्त्रों के
पीछे बहुत
अर्थ हैं, उसमें
एक अर्थ कफन
का भी है।
संन्यासी का
अर्थ है जिसने
कहा कि यह
जिंदगी
समाप्त, हो
गया बहुत देख
लिया बहुत।
जब
तक किसी की
मांग
में सिंदूर
कर
में चूड़ियां
झनझन
सुनाती
राग
जीवन का।
हमारे
द्वार पर आकर
न करना
बात
मरने की
न
भूले भी
कभी
लेना खुदा का
नाम यदि हो
गंध जलने की
चिता पर,
हो
भले ही सत्य।
लोग तो ऐसै चलते
हैं कि अभी
बात हीमत
करो मृत्यु
की। होगा सत्य, चिता
पर जब जलेंगे
तब देख लेंगे,
अभी तो
जिंदगी में
राग—रंग है, अभी तो चूड़ियां
बजती हैं, अभी
तो सिंदूर भरा
है, अभी तो
सगाई हुई, अभी
तो ताजा—ताजा
सब है।..... जब तक
किसी की
मांग
में सिंदूर
कर
में चूड़ियां
झनझन
सुनाती
राग
जीवन का।
हमारे
द्वार पर आकर
न
करना
बात
मरने की
न
भूले भी
कभी
खुदा का लेना
नाम
यदि
हो गंध जलने
की
चिता
पर,
हो
भले ही सत्य।
इसीलिए
तो इस देश में
लोगों ने
तरकीब खोज ली
है। जब आदमी
मर जाता है तो
उसकी अर्थी के
साथ वे कहते
हैं: ‘राम नाम
सत्य है '। जिंदगीभर
राम नाम असत्य
था, अब ये
मुर्दे के
आसपास कह रहे
हैं राम नाम
सत्य है। और यह
मुर्दे के लिए
कह रहे हैं, अपने लिए
नहीं, ख्याल
रखना। अगर
इनसे तुम पूछो
किसके लिए? तो कहेंगे
मुर्दे के लिए।
अब जो मर ही
गये, जो
उठकर कह ही
नहीं सकते कि
भई ठहरो, अभी
राम नाम न लो, अभी मुझे चूड़ियों
की खनकार
सुनाई पड़ती है,
अभी रुको।
तो 'राम
नाम सत्य है' इसी क्षण
रुक जाएगा। यह
अपने लिए नहीं
कह रहे हैं।
मैंने
सुना है, एक आदमी
मरा। स्वर्ग
पहुंचा, द्वार
पर दस्तक दी।
पीछे से पूछा
गया 'कौन
हो?' तो
उसने कहा. ''मैं
आया हूं
पृथ्वी से।' फिर पूछा गया : 'विवाहित
थे?' उसने
कहा. 'हां।’
तत्क्षण
राजदूत ने
द्वार खोल
दिये और कहा: ‘स्वागत है, आओ, अदर
आओ, क्योंकि
विवाहित थे तो
नर्क तो तुम
देख ही चुके।'
द्वार
बंद कर ही
नहीं पाया था
राजदूत कि फिर
किसी ने दस्तक
दी। पूछा 'कौन
हो?' कहा. 'पृथ्वी से
आता हू।’'विवाहित
थे'' उसनें कहा 'एक
बार नहीं, दो
बार।’राजदूत
ने कहा ६1 तो
फिर अब नरक
जाओ, मूर्खो के लिए यहां
कोई जगह नहीं।’
एक
बार भूल करना
समझ में आता
है, क्षम्य है, मगर दो बार!
और तुमने
कितनी बार की?
हजारों बार,
भूलों ही
भूलों से भरी
हुई जिंदगी
है। और सबसे
बड़ी भूल, सबसे
बुनियादी भूल,
जिसमें और
सारी भूलों के
पत्ते और
शाखाएं लगती
हैं, वह
अहंकार है।
दो
शब्द याद रखो, एक
को मैं कहता
हू : 'अहंचर्य '—— अहंकार
की चर्या; और
दूसरे को कहता
हूं. 'ब्रह्मचर्य'——
ब्रह्म की
चर्या। बस दो
ही तरह के लोग
हैं दुनिया
में। जो अहंचर्य
से जी रहा है, वह शूद्र, जो
ब्रह्मचर्या
से जी रहा है, वह
ब्राह्मण। जो
ब्राह्मण की
तरफ थोड़ा—थोड़ा
झुका है वह
क्षत्रिय, जो
शूद्र की तरफ
थोड़ा—थोड़ा
झुका है, वह
वैश्य। वे बीच
की सीढ़ियां
हैं। जिसमें
साहस है
ब्राह्मण
होने का लेकिन
अभी कदम उठाया
नहीं—वह
क्षत्रिय।
जिसके भीतर
शूद्र से ऊपर
उठने की
आकांक्षा है
मगर अभी साहस
नहीं किया——वह
वैश्य।
लेकिन
मौलिक रूप से
दो ही जातियां
हैं शूद्र की
और ब्राह्मण
की। अहंचर्य
शूद्र का
लक्षण है, ब्रह्मचर्य
ब्राह्मण का।
लेकिन
ब्रह्मचर्य
से मेरा वह
छोटा—मोटा
अर्थ नहीं जो
तुम समझते हो
कि किसी ने बच्चे
पैदा न किये
या किसी ने
विवाह न किया
तो ब्रह्मचर्य
हो गया। यह तो
ब्रह्मचर्य
जैसे विराट
शब्द को ऐसा
क्षुद्र अर्थ
दे देना है
जिसकी कोई
सीमा नहीं।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है
ब्रह्म जैसी
चर्या। विवाहित
व्यक्ति भी
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हो
सकता है, और
अविवाहित भी
हो सकता है न
उपलब्ध हो।
क्योंकि
ब्रह्म जैसी
चर्या का कोई
लेना—देना
विवाह या गैर—विवाह
से नहीं है; वह तो अंतस—भाव
है।
कृष्ण
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हैं
वैसे ही जैसे
बुद्ध,
रंचमाव भेद नहीं।
कृष्ण संसार
के बीच रहकर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हैं,
स्त्रियों
के बीच रहकर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध हैं;
बुद्ध छोड्कर
उपक्तध
हैं। अगर
दोनों में चनना
ही हो तो मैं
कहूंगा कृष्ण
को चुनना
क्योंकि संसार
को कितने लोग छोड्कर
भाग सकते हैं।
और अगर सारे
लोग भाग जाएंगे
तो बड़ी
मुश्किल खड़ी
हो जाएगी।
बुद्ध भी जी
सके इसलिए कि
बाकी लोग नहीं
भाग गये थे, इसे भूल मत
जाना। बाकी
लोग घरों में
थे, रोटी
पका रहे थे, भोजन बना
रहे थे, तो
बुद्ध को
भिक्षा भी मिल
जाती थी। जरा
सोचो कि बुद्ध
की मानकर सभी
लोगों ने कहा
होता. अच्छा
महाराज, अब
हम भी भिक्षु
हुए जाते हैं।
तो भिक्षा कौन
देता? तो
शायद बुद्ध को
फिर से दुकान
खोलनी पड़ती।
तो शायद
महावीर को फिर
सोचना पड़ता अब
क्या करना? लौटना पड़ता
घर। बुद्ध जी
सकते हैं
क्योंकि पूरा
समाज
संन्यासी
नहीं है, घर
छोड्कर
नहीं भाग गया
है।
तो
बुद्ध का जीवन
तो समाज—निर्भर
है। एक पूरा
समाज चाहिए
बौद्ध भिक्षु को
सम्हालने के
लिए, जैन मुनि को
सम्हालने के
लिए। इसलिए
स्वतंत्रता
पूरी नहीं है,
इसमें थोड़ी
कमी है। इसलिए
हम बुद्ध को
पूर्ण अवतार
नहीं कहते हैं,
कृष्ण को
पूर्ण अवतार
कहते हैं।
कारण? कारण
साफ है। कृष्ण
ठीक संसार के
बीच रहकर
ब्रह्मचर्य
को उपलब्ध
होते हैं। यह
ज्यादा गहराई,
ज्यादा
ऊंचाई, ज्यादा
गहनता की खोज
है। और जीवन
के ज्यादा अनुकूल,
और
परमात्मा की
व्यवस्था के
ज्यादा करीब
है। क्योंकि
परमात्मा
सर्जक है जीवन
का। छोड़ने के
लिए जीवन
बनाया नहीं
गया। जीवन
जागने के लिए
बनाया गया है,
भागने के
लिए नहीं।
ब्राह्मन
कहिये ब्रह्म—रत, है ताका बड़
भाग।
नाहिन पसु
अज्ञानता, गर डारे तिन
ताग।।
उनको
ब्राह्मण
नहीं कहते
भीखा——जो
पशुवत हैं, जिनके
जीवन में सारी
पशुता भरी है,
जिनके जीवन
में दिव्यता
की कोई किरण
नहीं, दिव्यता
तो दूर मनुष्यता
की भी कोई आभा
नहीं, सिर्फ
गले में तीन
धागे बांध लिए
हैं——गर डारे
तिन ताग!
जनेऊ
पहन लिया
बाह्मण हो
गये! गले में
तीन धागे डाल
लिए और
ब्राह्मण हो
गये! इतना
सस्ता ब्राह्मण
होना! यद्यपि
गले में जो
तीन तागे डाले
उनकी भी अपनी
अर्थवत्ता
है।
जिन्होंने
पहली दफा खोजे
थे उन्होंने
तो कुछ सोचकर खोजे थे।
वे तीन गुणों
के प्रतीक हैं——तामस, राजस,
सत्व। और इन
तीनों का ऐसा
संतुलन होना
चाहिए, ये
तीनों मिलकर
एक हो जाने
चाहिए, तो
चौथी अवस्था
पैदा होती है——गुणातीत।
उस
गुणातीत
अवस्था का नाम
ही
ब्रह्मचर्य
है। उस
गुणातीत अवस्था
को जान लेना
ही ब्रह्म—भाव
है।
जिसके
जीवन में केवल
तामस है, केवल
अंधकार——वह
शूद्र। जिसके
जीवन में
ऊर्जा है, कुछ
कर गुजरने की
उमंग है, संकल्प
है, संघर्ष
का बल है—वह
क्षत्रिय।
दोनों के बीच
में वैश्य। जो
कुछ कर गुजरने
से ऊब गया, जो
संकल्प से थक
गया, जो
संघर्ष की
व्यर्थता को
जान लिया है, जिसे लगता
है कि मेरे
किये कुछ भी न
होगा, यहां
तो जो होता है
परमात्मा के
किये होता है,
उसके
प्रसाद से
होता है—उसके
जीवन में सत्व,
वह साधु है,
वह
संन्यासी है।
और
जिन्होंने ये
तीनों बातें
एक समायोजन
मैं बांध लीं, जिनके
भीतर ये तीनों
स्वर एक संगीत
बन गये, जिनके
भीतर इन तीनों
में कोई विरोध
नहीं रहा, क्योंकि
तीनों की
जरूरत है, जब
क्रोध उठे तो
आलस्य अच्छा,
जब करुणा
उठे तो राजस
अच्छा। इनमें
बुरा कुछ भी
नहीं है, बुरा
तो संदर्भ से
होता है। अब
क्रोधी आदमी
अगर आलसी हो, तामसी हो, तो क्रोध
नहीं करेगा, कौन झंझट
में पड़े ' तुम
गाली भी दे
दोगे तो वह
कहेगा ठीक है,
जाओ।
तुमने
कहानी तो सुनी
न दो तामसियों
की, एक झाडू के
नीचे लेटे
हैं। जामुन का
झाडू है, जामुन
पक गये हैं और
गिर रहे हैं।
आखिर एक ने दूसरे
से कहा भई, यह
कैसी दोस्ती!
आधा घंटे से
पड़ा राह देख
रहा हू, जामुन
भी गिर रहे
हैं, मैं
भी हूं, तुम
भी होँ, तुमसे इतना
भी नहीं हो
सकता कि एक
जामुन उठाकर
मेरे मुंह में
डाल दो!
उस
आदमी ने कहा.
जा रे जा, देख ली
दोस्ती, अभी
एक कुत्ता
मेरे कान मेँ
मृत रहा था तो
तूने भगाया भी
नहीं!
एक
तीसरा आदमी
राह से गुजर
रहा था,
उसने यह बात
सुनी, बहु
बड़ा चकित हुआ।
उसने आलसी
बहुत देखे थे,
तामसी बहुत
देखे थे, मगर
ये तो
महापुरुष, ये
तो महात्मा
समझो तमस के।
दया आयी बड़ी, दोनों के मुंह
में उठाकर एक—एक
जामुन उसने
डाल दिये। और
जैसे ही चलने
को हुआ दोनों
ने कहा : अरे
रुक भाई, जाता
कहां है, गुठली
कौन निकालेगा?
अब
ऐसा आदमी
क्रोध नहीं कर
सकता,
हिंसा नहीं
कर सकता, पक्का
समझो। ऐसा
आदमी कोई
उपद्रव नहीं
कर सकता।
उपद्रव के
खिलाफ उसकी
पूरी
जीवनचर्या
है। उससे
अच्छा भी नहीं
होगा, उससे
बुरा भी नहीं
होगा। परम
जीवन में यही
आलस्य की
क्षमता दुर्गुणों
के विपरीत
बचाव बन जाती hऐ।
फिर
ऊर्जा से भरा
हुआ व्यक्ति
है, राजस से भरा
हुआ व्यक्ति
है, क्षत्रिय
है, वह
छोटी—मोटी बात
में तलवार
निकाल लेता
है। जरा. कुछ हो
जाए कि मूंछ
पर ताव मारने
लगता है। वह
उपद्रव करने
में बड़ा कुशल
है। सारा
इतिहास उसके
उपद्रवों से
भरा है।
क्षत्रियों
को हटा दो
दुनिया से, इतिहास एकदम
नब्बे
प्रतिशत
समाप्त हो
जाए। बच्चों
की झंझट मिट
जाए, उनको पढ़ना न पढे
इतना उपद्रव।
चीन
का एक सम्राट
एक झेन फकीर
से मिलने गया
था। सम्राट की
अकड़, क्षत्रिय की
अकड़! और जापान
में भी
क्षत्रिय की
अकड़ वैसी ही
है जैसी भारत
में, भारत
से भी ज्यादा।
वहा क्षत्रिय
का नाम है समुराई।
जैसा निखार
जापान में हुआ
है समुराई का।
वैसा भारत में
भी नहीं हुआ।
बड़े—बड़े
राजपूत भी
समुराई के
सामने फीके पड़
जाए। क्योंकि
समुराई ने
सदियों—सदियों
में जैसी धार
धरी है अपनी
तलवार पर, वैसी
किसी ने दुनिया
में नहीं धरी।
वह
सम्राट तो
समुराई था, फकीर
का दर्शन करने
गया था। फकीर
से कहा कि एक प्रश्न
पूछना है जो
मेरे मन में
सदा उठता है, कोई और जबाब
दे नहीं सका।
लोग कहते हैं
तुम दें सकते
हो इसलिए आया
हूं। सवाल है
मेरा——स्वर्ग
क्या, नर्क
क्या?
फकीर
खिलखिला कर हंसा
और उसने कहा 'जरा
अपनी शक्ल भी
आईने में देखी
थी? शिष्य
पास थे उनसे
कहा देखो यह
शक्ल इनकी——और
प्रश्न! शक्ल
तो ऐसी है कि मक्खियां
भी भिनभिनाने
में संकोच
करें।
सम्राट
तो एकदम
आगबबूला हो
गया, यह क्या बात
हो रही है!
मुंह
धोकर आ——उस
फकीर ने कहा——चार—छ
दिन पहले दाल—भात
खाया होगा, वह
भी लगा है।
इतना
सुनना था कि
उस सम्राट ने
तो अपनी तलवार
निकाल ली, उठाकर
बस गर्दन
काटने को था, तभी फकीर ने
कहा. रुक, यह
नर्क का द्वार
खुल रहा है।
एक झटके से
बात समझ में
आयी। तलवार
वापिस म्यान
में गयी। जैसे
ही तलवार
वापिस म्यान
में गयी। और
सम्राट के
चेहरे पर
करुणा का और
समझ का भाव दिखाई
पड़ा, फकीर
ने कहा. यह
स्वर्ग का
द्वार है। यह
तेरा उत्तर
है।
जहां
करुणा है, वहां
स्वर्ग है; जहां क्रोध
है, वही
नर्क है। जो
क्रोध कर सकता
है, वह
करुणा भी कर
सकता है।
इसलिए परम
समन्वय में
शूद्र का तामस
दुर्गुण से
बचाव बन जाता
है और
क्षत्रिय का
राजस सद्गुण
का संकल्प बन
जाता
और
सत्व है
साधुता,
सरलता, निर्दोषता——जैसे
छोटा बच्चा
भोला—भाला, जिसके कागज
पर कुछ लिखा
नहीं गया।
ध्यान से सत्व
मिलता है। जब
इन तीनों का
जोड़ हो जाता
है, जब ये
तीनों समान
अनुपात में
होते है, जब
इन तीनों का आर्केस्ट्रा
पैदा होता है;
जब बांसुरी
भी बजती है, सितार भी
बजता है, और
तबले पर थाप
भी पड़ती है, और तीनों
में तालमेल
होता है, और
तीनों में एक
ही स्वर
संयोजन
होता है, जब
तीनों की
त्रिवेणी बन
जाती है, तो
तीर्थ
निर्मित होता
है, तो
प्रयागराज निर्मित
होता है।
इसमें दो तो
दिखाई पड़ते
हैं, गंगा
और यमुना
सरस्वती दिखाई
नहीं पड़ती।
इसलिए तामस और
राजस तो दिखाई
पड़ते हैं, सत्व
दिखाई नहीं
पड़ता, सत्व
अदृश्य है, सरस्वती है।
इन
तीनों का
प्रतीक है
जनेऊ,
वह त्रिगुणों
का प्रतीक तै।
मगर प्रतीकों
का क्या करोगे
टे लोग तो
तीन धागे लपेटकर
अपने गले में
बैठ गये और
समझे कि
ब्राह्मण हो गये।
इतना सस्ता
अगर
ब्राह्मणत्व
मिलता होता तो
कठिनाई ही
क्या थी, सभी
को जनेऊ पहना
देते, सभी
ब्राह्मण हो
जाते।
नाहिंन पसु
अज्ञानता.....
पशु जैसा
अज्ञान है। यह
जरा सोचने
जैसी बात है।
ब्राह्मणों
को कहना पशु
जैसा अज्ञानी, जरा
सोचने जैसी
बात है
क्योंकि
ब्राह्मण पंडित
रहे हैं
सदियों से, कहना चाहिए
ज्ञानी रहे
हैं। लेकिन
उनका ज्ञान
थोथा है, शब्दिक
है, शास्त्रीय
है, अनुभवगत
नहीं, अस्तित्वगत
नहीं आत्मिक नहीं।
उनका ध्यान तो
जगा ही नहीं
है तो ज्ञान
झूठा होगा।
ध्यान कै जगने
पर सच्चे
ज्ञान की आभा आती
है। ध्यान का
दीया जले तो
ज्ञान का
प्रकाश फैलता
है। तो
जानकारी ही
जानकारी है।
जानकारी
मात्र ज्ञान
नहीं है, अज्ञान
को छिपा ले
भला, मगर
ज्ञान इससे
उपलब्ध नहीं
होता।
इसलिए
भीखा कहते
हैं. नाहिन
पसु
अज्ञानता
पशुओं जैसा
अज्ञान है और
तीन धागे गले
में लटका लिए और
हो गये
ब्राह्मण!
नहीं,
इतना आसान
नहीं।
ब्राह्मण
होना इस जगत
की सबसे बड़ी
सम्पदा है।
ब्राह्मण
होना बुद्धों
का लक्षण है।
बुद्ध
ब्राह्मण हैं,
महावीर
ब्राह्मण हैं,
जीसस
ब्राह्मण हैं,
जरथुस्त्र
ब्राह्मण हैं,
हालांकि
जरथुस्त्र ने
ब्राह्मण
शब्द शायद
सुना ही न हो।
शायद जीसस को
ब्राह्मण
शब्द का कुछ
पता ही न हो।
इससे क्या
फर्क पड़ता है।
मगर ब्राह्मण
का जो गुण है——स्वानुभव,
साक्षात्कार,
साक्षीभाव,
त्रिगुणातीत——वह
उनमें है।
जहां
कहीं कोई ऐसा
व्यक्ति मिल
जाए जो ब्राह्मण
है——ब्राह्मण
कहिये ब्रह्म—
रत——फिर पकड़
लेना उसके
चरण। मिल गया
तीर्थ,
अब डूबना
उसमें, डुबकी
लेना उसमें।
संत—चरन
में लगि रहै, सो
जन पावै
भेव।
भीखा
गुरु—परताप तें, काढेव कपट—जनेव।।
ऐसे
चरण कहीं मिल
जाएँ तो छोड़ना
मत। लाख मन समझाये
छोड़ देने को, लाख
मन तर्क दे...... क्योंकि
मन बड़ा कपटी
है, बड़ा
चालबाज है, और ऐसी जगह
से हटाएगा
जहां उसकी मौत
होनी निश्चित.....
है। मन सद्गुरुओं
के खिलाफ बहुत
तरह की बातें
पैदा करेगा।
कारण है——मन
अपनी रक्षा
करेगा। समझी जा
सकती है बात।
क्योंकि
सद्गुरु के
चरण में या तो
मन बचेगा या
ब्रह्म, दोनों
साथ नहीं हो
सकते।
जब
तुम अंधेरे
कमरे में दीया
जलाओगे,
अगर अंधेरे
के पास भी
बोलने के लिए
शब्द होते तो
कहता कि रुको,
दीया मत
जलाओ, दीये
के बड़े खतरे
हैं। हजार
दीये के खिलाफ
दलीलें देता
अंधेरा अगर
बोल सकता।
कहता कि देखो
अंधेरे में
कैसी शांति है,
दीये में सब
शांति चली
जाएगी। और
देखो अंधेरे
में तुम्हें
कोई देख नहीं
सकता, तुम
कितने
सुरक्षित हो,
दीया जल
जाएगा, असुरक्षित
हो जाओगे।
मैं
एक घर में
मेहमान था।
पुराने ढब का
घर था,
तो घर के
बाद बड़ा आंगन
था, आंगन
के बाद फिर
स्नानगृह, संडास
इत्यादि थे।
घर का एक बेटा
बड़ा डरपोक।
उसको रात अगर
पाखाना जाना
हो तो मां को
साथ जाना पड़े।
तो उसकी मां
ने मुझे कहा
कि अब इसकी
उम्र भी काफी
हो गयी, यह
बारह साल का
हो गया, छोटा
था तब ठीक था।
अब भी मुझे
दरवाजे पर खड़ा
रहना पड़ता है
जाकर संडास के,
अगर रात को
इसको जाना हो।
यह भूत—प्रेत
से बहुत डरता
है। आप इसे
समझाएं कि भूत—प्रेत
हैं ही नही।
मैंने
उस बच्चे को
कहा कि तू एक
काम कर,
अगर तुझे
भूत—प्रेत से
डर लगता है तो
लालटेन ले गये,
यह मां को
क्यों सताता
है '
उसने
कहा : रहने
दीजिए।
अंधेरे में तो
किसी तरह मै
अपने को बचा
भी लेता हूं, लालटेन
में तो वे
मुझे देख ही
लेंगे।
मुझे
उसकी बात भी
जंची। बात तो
उसने पते की
कही कि अंधेरे
में तो किसी
तरह हम बचकर
यहां—वहां से
कि वह उधर खड़ा
है, इधर से निकल
गये। आप और एक
उपद्रव दे रहे
हैं——लालटेन!
फिर तो वे घेर
ही लेंगे, फिर
तो बचकर
निकलने की भी
संभावना न रह
जाएगी।
अगर
अंधेरा बोल
सकता और तुम
दीया जलाते तो
अंधेरा भी
कहता कि अभी
तो किसी तरह
बचे हो,
सुरक्षित
हो, दीया
जला लिया, हजार
झंझटें
आएंगी; झझटें को दिखाई
पड़ने लगोगे।
चोर—बदमाश देख
लेंगे कि अरे,
घर मे ही
बैठे हो।
हत्यारे चले
आएंगे। अभी
अंधेरे में
सुरक्षित हो——न
कोई देख सकता
है.। दृश्य ही
नहीं हो, अदृश्य
हो। और फिर
दीये का भरोसा
क्या, तेल
चुक जाएगा, बुझ जाएगा, फिर क्या
करोगे? मै
सदा साथी है।
दीये आते हैं,
जाते है;
अंधेरा सदा
है। न मुझे
जलाना पड़ता, न बुझाना
पड़ता। और तुम
देख ही रहे हो,
घासलेट का
तेल मिलना
मुश्किल होता
जाता है, दाम
बढ़ते जाते।
दीया मुफ्त है
अंधेरे का, उजाले के
दीये में तो
पैसे लगते
हैं।
अंधेरा
भी समझाता, हजार
दलीलें
निकालता और
शायद तुम राजी
होते अंधेरे
से। अंधेरा
कहता देखो
मुझमें ही
तुम्हें
विश्राम
मिलता है। रात
कुछ रोशनी हो,
सो नहीं
सकते; रोशनी
न हो, सो सकते
हो। मैं
विश्राम हूं।
और विश्राम को
ही तो
शास्त्रों ने
राम कहा है।
परम विश्राम
को ही समाधि
कहा है। तर्क
खोजता, शास्त्र
के उल्लेख भी
करता। कहावत
है कि शैतान
भी शास्त्र के
उल्लेख कर
सकता है, तो
अंधेरा. भी
करता।
मगर
अंधेरा बोल
नहीं सकता है।
पर मन तो बोल
सकता है, बक्काड़ है, बोल
ही नहीं सकता
बड़ा बकवासी
है। चु_प
नहीं रहता, बोलता ही
रहता है। तुम
चाहे लाख कहो
कि भई चुप रहो,
थोड़ी देर तो
मुझे शांति
लेने दो। वह
कहता है कि
तुम शांति लो,
मैं बोलता
रहूंगा। मै
अपना अभ्यास
जारी रखुंगा।
मैं ऐसे चुप
होने वाला
नहीं हूं। क्यों
चुप हो जाऊं? चुप्पी मैं
सार क्या है? मन तो अपनी
बकवास जारी
रखेगा। जब तुम
सद्गुरु के
चरणों में
पहुंचोगे तो
सबसे बड़ी
सावधान होने
की बात है——अपने
ही मन से
सावधान रहना।
चूंकि तुम उस
मन से सावधान
नहीं रह पाते,
इसलिए पंडित—पुरोहित
तुम्हें जकड़
लेते हैं, वे
मन के प्रतीक
हैं बाहर के
जगत में।
तुम्हारे मन
को वे समझा
लेते हैं, मन
को पकड़ लेते
हैं, तुम
जकड़ जाते
आधी रात
ठगों का डेरा
सावधान
रे सावधान!
चूके
जरा ठगे जाओगे
फिर
धुनकर
सिर पछताओगे
काम
न दे पायेगा
ज्ञान।
बकुल
पंख कुल ये
मृदु भाषी
दर्शन
में हैं परम
उदासी
गांठ
लगाकर बन जाते
हुऐ
नाना
जन्मों के
विश्वासी
हर
लेते अनजाने
प्राण।
डसते
हैं तो लहर न
आती
युग
मंगल के अधमविघाती
बिना
जाति
सूत्रबद्ध ये
सुबह
बराती रात
घराती
भक्षक
दया धर्म ईमान
आओ
इनसे लोहा ले
लें
मिलकर
इनको छलनी कर
दें
बटमारों
से राह साफ कर
ताप
दुखी जीवन का
हर लें
मिले
धरा को जीवन
वाण।
सोचो
मत, रुकना घातक
है
मद
पी कर अंधा
पातक है
चलो
करो तत्क्षण
अभियान
आधी
रात ठगों का
डेरा
सावधान
रे सावधान।
एक
तो मन से
सावधान होना, तो
तुम पंडित से
बच सकोगे।
क्योंकि जो मन
भीतर है, पंडित
वही बाहर है।
पंडित मन का
ही प्रगट रूप
है। और मन
पंडित का अप्रगट
रूप है, वे
दोनों जुड़े
हैं। इसलिए
पंडित की मन
पर बड़ी छाप
पड़ती है, मन
बड़ा प्रभावित
होता है।
सद्गुरु
मिले तो पंडित
से भी छुडाए, मन
से भी छुडाए।
मगर तुम्हें
तैयारी तो
रखनी ही पड़े
छोड़ने की; तुम्हारे
सहयोग के बिना
तो कुछ भी न
होगा।
संत—चरन
में लगि रहै
जब मिल जाए
कोई चरण ऐसा
तो लगी रहे, फिर
तो पकड़ ही ले, फिर छोड़े ही
न। फिर लाख मन
चिल्लाये, लाख
मन समझाये,
छोड़े ही न।
सो
जन पावै
भेव...... बस ऐसे ही
व्यक्ति को
जीवन का भेद
और रहस्य पता चल
पाता है।
न जी
सकता न मर
सकता
तड़फता
ही रहूंगा क्या?
पपीहे की
रटन भी तो
लहर
कर बन्द हो
जाती
बरस
पड़ते दरक कर
हैं
गगन
से प्रेम के
स्वाती।
निशा
भर दीप जलने
पर
किरण
का फूल खिल
जाता,
सुना
जो साधना करते
उन्हें
भगवान मिल
जाता
मगर
मैं तो तरसता
ही
विकल
बहता रहूंगा
क्या?
न
जी सकता न मर
सकता
तड़फता
ही रहूंगा
क्या?
सब
तुम्हारे ऊपर
निर्भर है।
स्वयं को पकड़े
बैठे रहे तो तड़फते ही
रहोगे भटकते
ही रहोगे। फिर
रात का कोई
अंत नहीं। फिर
सुबह नहीं
होगी। लेकिन
अगर कहीं कोई
चरण पा लो
जहां प्रेम उमगे, जहां
श्रद्धा
जन्मे, तो
साहस करना, दुस्साहस
करना, जोखम उठा लेना।
झुक जाना, क्योंकि
उसीझुक
जाने में जीत
है। मिट जाना,
क्योंकि
उसी मिट जाने
में होना छिपा
है। गुरु—परताप
साध की संगति!
भीखा
गुरु—परताप तें काढेव
कपट—जनेव।।
अगर
पकड़े रहे
चरण तो गुरु
धीरे—धीरे
तुम्हारे
कपटी मन को, तुम्हारे
चालाक मन को
काट देगा।
आहिस्ता—आहिस्ता,
पता भी नहीं
चलेगा, धीरे—धीरे
छेनी— हथौड़ी
लेकर
तुम्हारे मन
को गढ़
देगा।
तुम्हारे
भीतर अनगढ़
पत्थर को
मूर्ति बना
देगा
परमात्मा की।
संत—चरन
में जाइकै, सीस चढ़ायो
रेनु।
भीखा
रेनु के लागते, गगन बजायो
बेनु।।
भीखा
अपने अनुभव की
कहते हैं कि
जब मैं अपने गुरु
के चरणों में
गया— संत—चरन
में जाइकै, सीस चढायो
रेनु——तो पैर
छूने का तो
मेरा अधिकार न
था। सुनते हो?
भीखा कहता
है, पैर
छूने का तो
मेरा अधिकार न
था, मैंने
तो पैरों के
नीचे पड़ी हुई
जो धूल थी उसे सिर
पर चढ़ाया।
उतना ही बहुत
था लेकिन, उतना
ही काफी था।
भीखा
रेनु के लागते, गगन बजायो
बेनु..... और जैसे
ही मेरे सिर
पर वह धूल लगी,
आकाश में दुदुम्भी
बजी, आकाश
में संगीतछिड़
गया अनाहत का,
ओंकार बज
उठा, परमात्मा
को पहली दफा
सुना, उसका
निनाद सुना।
—भीखा रेनु
के लागते,
गगन बजायो
बेनु... उसकी
वीणा बजी, उसकी
बांसुरी बजी,
अनाहत की, आकाश की, बरखा
हो गयी संगीत
की।
सावन
के दिन फिर
आये हैं झूला डालो रे।
धानी
चुनरी पहने
धरती
करती
नव शृंगार
पगली बदली
लुटा रही है
मोती
धुआधार
पायल
बांध जोहते
मोर उन्हें नचा लो रे।
संग
की सखी सहेली
पागल
गाने
वाली हैं
और
यहां राधा रस भींगी
मद
मतवाली हैं
छिप
छिप
श्याम बजाते
मुरली कजरी गा
लो रे।
उठो
दमक कर बिजली दमके
बिछुआ
झन झन झन
मरने
दो मरने वालों
को
झरने
दो रस कण
फिर
न मिलेगा अबस
अहेरी उठो छका
लो रे।
सावन
के दिन फिर
आये हैं झूला डालो रे।
काश झुक
सको तो सावन आ
जाए, घिर आयें
सावन की
बदलियां, मोर
नाच उठें,
कोयल गाये,
पपीहे पुकारें......!
सावन के दिन
फिर आये हैं, झूला डालो
रे! ....फिर जीवन
एक उत्सव है, एक उत्साह
है, एक
उमंग है। फिर
जीवन ऐसा नहीं
है जैसा तुमने
अब तक जाना——कुली
की तरह बोझ ढो
रहे हो, बोझ
भी अपना नहीं
दूसरों का।
धानी
चुनरी पहने
धरती
करती
नव शृंगार
पगली बदली
लुटा रही है
मोती
धुआंधार
पायल
बांध जोहते
मोर उन्हें नचा लो रे।
एक
बार तुम सुन
लो वेणु आकाश
की, एक बार तुम
सुन लो अनाहत
का नाद, एक
बार बस, एक
बार तुम्हारे
कान में एक
स्वर भी
समाविष्ट हो
जाए—— फिर तुम
वही न रह
सकोगे, जो
तुम थे। गया
पुराना, आया
नया। नयी खुली
आख, नये
मिले प्राण, नया मिला
जीवन, हुए
तुम द्विज! और द्विज जो
हो जाए वही
ब्राह्मण है।
सग की सखी
सहेली पागल
गाने
वाली हैं
और
यहां राधा रस भींगी
मद
मतवाली हैं
छिप
छिप
श्याम बजाते
मुरली कजरी गा
लो रे।
श्याम
की बांसुरी तो
बज ही रही है।
कभी रुक सकती
ही नहीं, अहर्निश
बज रही है। आज
भी बज रही है, उतनी ही
जितनी पहले
बजती थी, जरा
भी भेद नहीं
है। वह शाश्वत
नाद है, सिर्फ
हम बहरे हैं।
और हम बहरे
हैं, अपने
अहंकार से
हमने कानों को
बंद कर रखा
है। हम अंधे
हैं, हमने
अहंकार की पट्टियां
अपनी आंखों पर
बांध रखी हैं।
हमारा हृदय
अनुभव नहीं
करता, भाव—रस
नहीं उठता।
छाती पर पत्थर
बांध लिए हैं
अहंकार के।
बनो राधा, नाचो,
गाओ, गुनगुनाओ! छिप छिप
श्याम बजाते
मुरली कजरी गा
लो रे।
उठो
दमक कर बिजली दमके
बिछुआ
झन झन झन
मरने
दो मरने वालों
को
झरने
दो रसकण
फिर
न मिलेगा अबस
अहेरी उठो छका
लो रे।
और
जब कोई
सद्गुरु मिल
जाए तो चूकना
मत, क्योंकि पता
नहीं फिर कब, किन जन्मों
में, कितने
जन्मों में, मिले न मिले...
फिर न मिलेगा
अबस अहेरी उठो
छका लो रे!
और
जब सद्गुरु
तीर साधे
तुम्हारे
हृदय पर, खोल
देना अपनी
छाती। मरने की
तैयारी
दिखाना। मरने
की तैयारी जो दिखाये
वही शिष्य है।
मरने की
तैयारी जो दिखाये
उसी का नव
जन्म होता है।
बेनु
बजायो
मगन है, छुटी खलक की
आस।
और
जब से यह बीन
सुनी है, जब से यह
अनाहत का नाद
सुना——छुटी
खलक की आस——तब
से दुनिया में
अब कोई
आकांक्षा नण्प्रीं,
कोई वासना
नहीं। सुनो, समझो, तुम्हें
अब तक यही
समझाया गया है—पहले
संसार छोड़ो,
फिर अनाहत
का नाद सुनाई
पड़ेगा। लेकिन
भीखा कुछ और
कह रहे हैं, वही कह रहे
जो मैं तुमसे
रोज कहता हूं——बेनु
बजायों
मगन है, छुटी खलक की
आस। जब
बांसुरी बजने
लगी तब संसार
की आशा छूटी, तब संसार से
वासना छूटी।
अंधेरा
पहले नहीं
हटता। कोई कहे
कि अंधेरा हट जाए
फिर दीया
जलाएंगे, दीया
कभी नहीं
जलेगा। दीया
जलता है तो
अंधेरा हटता
है। त्याग से
ध्यान नहीं
मिलता, ध्यान
से त्याग फलता
है।
इसलिए
मैं अपने
संन्यासियों
को नहीं कहता
कुछ छोड़ो।
मैं तो कहता
हूं पाओ।
छोड़ना क्या? छोड़ने
की भाषा क्या?
छोड़ने की
भाषा भिखमंगे
की भाषा है।
सम्राटों की
भाषा सीखो।
पाओ! संसार
छोड़ना नहीं, परमात्मा को
पाना है। एक
विधायक
अभियान, नकारात्मक
नहीं। यह छोड़ो,
वह छोड़ो।
कैसे छोटे—
छोटे छोड़ने
में लोग लगे
हैं और सोचते
हैं इस छोड़ने
से परमात्मा
मिलेगा। एक
सज्जन ने नमक
छोड़ दिया खाना,
वे सोचते
हैं परमात्मा
मिलेगा। छोड़ा
क्या तुमने नमक
खाना छोड़ा, मिलेगा
परमात्मा, ब्रह्मज्ञान
हो जाएगा नमक
खाना छोड़ने
से! थोड़ी देह
को तकलीफ होगी
जरूर क्योंकि
देह को नमक की
जरूरत है। नमक
के बिना तुम
थोड़े सुस्त हो
जाओगे, थोड़े
निढाल हो
जाओगे, ऊर्जा
क्षीण हो
जाएगी, मगर
परमात्मा
कैसे मिल
जाएगा?
किसी
ने नमक छोड़
दिया है, किसी ने
घी छोड़ दिया
है। कोई एक
दिन उपवास करता
है, एक दिन
भोजन लेता है।
ये देह के जो
तुम आयोजन कर
रहे हो इनसे
परमात्मा के
मिलने का क्या
सबंध? जैन
मुनि एक ही
बार भोजन लेते
हैं। उन्हें
पता होना
चाहिए
अफ्रीका में
एक जाति है, पूरा का
पूरा कबीला एक
ही बार भोजन
लेता है, सदियों
से। तुम चौंकोगे
कि क्यों एक
ही बार भोजन
लेता है
क्योंकि तुम्हें
दो बार भोजन
लेने की आदत
पड़ी है। सिर्फ
आदत की बात है।
अमरीका में
लोग पांच बार
भोजन लेते हैं
दिन में, वे
हैरान होते
हैं कि तुम दो
ही बार में
कैसे निपटा
लेते हो
जो
पांच बार लेता
होगा उसको
हैरानी होगी
ही कि दो बार
लेने वाले लोग
महात्यागी।
और जो एक ही बार
में निपटा
लेता है और भी
हैरानी होगी
कि वह तो
महात्यागी।
अभ्यास की बात
है। शरीर इतना
ले लेता है एक
ही बार में कि
चौबीस घंटे
काम चल जाए।
इससे
कुछ परमात्मा
के मिलने का
संबंध नहीं, नहीं
तो उस कबीले
के सारे लोग
परमात्मा को
उपलब्ध हो
जाएं, सब
ब्रह्मज्ञानी
हो जाएं। कोई
रात पानी नहीं
पीता इससे
थोड़ी तकलीफ
तुम्हें होगी ठीक,
लेकिन इससे
परमात्मा के
मिलने का क्या
संबंध है।
परमात्मा को
तुमने कोई
दुष्ट समझा है
कि तुम अपने
को सताओ तो वह
प्रसन्न हो? यह तो बड़ी
उलटी—सी बात
है कि एक
बच्चा अपने को
सताये तो मां
का प्रेम उस
पर बढ़े! मां तो
उलटी पिटाई कर
देगी उसकी कि
यह क्या
नासमझी है, कि नमक छोड़
दिया, इससे
मेरा प्रेम
कैसे मिलेगा?
कि एक दफे
खाना नहीं
खाऊंगा।
अगर
परमात्मा है
तो तुम्हारे
तथाकथित मुनि इत्यादिओं
से दूर ही दूर
रहेगा,
इनसे
बचेगा। ये
रास्ते पर
कहीं भूल—चूक
से मिल जाएंगे
तो गली में से
निकल भागेगा।
ये रुग्णचित्त
लोग हैं। नकार
हमेशा रोग
लाता है।
नकारात्मकता
जीवन का धर्म
नहीं है——विधायकता।
नहीं, नहीं——हां।
हां को हां
कहो।
भीखा
कहते हैं :
बेनु बजायो
मगन है...... और जब
आकाश की वीणा
सुन ली तो
भीतर की वीणा
भी बज उठी।
उसके संघात
में बजउठती
है। जब आकाश
का प्रकाश तुम
पर पड़ता है, तुम्हारे
भीतर की
ज्योति जग
उठती है। सोयी
थी, आख खोल
देती है।
बेनु
बजायो
मगन ह्वै, छुटी खलक की
आस।
और
तब से एक
चमत्कार हुआ
कि जो वासना
छोड़े—छोड़े
नहीं छूटती थी——
धन की,
पद की, प्रतिष्ठा
की——वह अचानक
कहां तिरोहित
हो गयी पता
नहीं चलता। जैसे
दीया जला और
अंधेरा
तिरोहित हो
गया।
भीखा
गुरु—परताप तें, लियो
चरन में बास।।
फिर
तो बस चरण
नहीं छोड़े।
फिर भीखा
गुलाल को छोड्कर
नहीं गये। फिर
तो उन चरणों
में ही रेणु
होकर रह गये, वहीं
धूल हो गये।
अब कहा जाना? अब जाने को
जगह कहां बची?
भीखा
केवल एक है, किरतिम भयो अनंत।
और
जब अनाहत जाना
तो पता चला कि
है तो एक, हमें
अनेक दिरवाई
पड़ता है
क्योंकि
हमारे पास
सत्य को देखने
वाली आख नहीं,
हमारी आख
कृत्रिम
एक
राजमहल में कांचों ही कांचों से
दीवाल बनी थी।
दर्पण ही
दर्पण के टुकड़ों
से दीवाल बनी
थी। राजा का
कुत्ता एक रात
भूल से भवन
में बंद रह
गया। तुम उसकी
अड़चन समझो, वही
आदमी की अड़चन
है। उसने आख
खोलकर चारों
तरफ देखा। रात
हुई, बिजली
जली, जब तक
बिजली न जली
थी तब तक तो वह
निश्चित बैठा रहा,
जब बिजली
जली तो उसने
देखा एक
कुत्ता नहीं,
लाखों
कुत्ते हैं
चारों तरफ।
छोटे—छोटे
कांच, दर्पण
के टुकड़े
दीवालों पर
लगे हैं। हर
दर्पण के
टुकड़े में एक
कुत्ता है।
कुत्ते ही
कुत्ते हैं।
इतने कुत्ते
उस कुत्ते ने नहीं
देखे थे। उसकी
तो सांस बंद
होने लगी। उसने
कहा मारे गये।
भागने की भी
जगह नहीं
दिखाई पड़ती।
भागोगे भी
कहां? चारों
तरफ लाखों
कुत्तों ने
घेर रखा है।
वही कर सकता
था जो करना
जानता था——भौंका,
भौंका तो
लाखों कुत्ते
भौंके। झपटा
तो लाखों कुत्ते
झपटे। टूट पड़ा
कुत्तों पर तो
कुत्ते उस पर
टुट पड़े, ऐसा
उसे मालूम
पड़ा। टकरा गया
दीवालों से।
सिर फूट गया, लहूलुहान हौ गया।
रात—भर भौंकता
रहा, टकराता
रहा; भौंकता
रहा, टकराता
रहा। ... सुबह उसकी
लाश मिली और
सारी दीवालों
पर उसके खून
के दाग मिले।
ऐसी
आदमी की हालत
है। हमारे पास
सत्य को देखने
वाली आख नहीं।
हमने अभी अपने
को ही नहीं
देखा,
हम और क्या
देखेंगे! आत्म—दर्शन
भी नहीं हुआ, हम दूसरों
को देख रहे
हैं! और
दूसरों की आंखों
में अपनी छवि
देख रहे हैं।
ये दूसरों की आंखें
बस दर्पण हैं।
चारों तरफ
हजारों लोग
हैं, हजारों
चलते— फिरते
दर्पण हैं, घूमते हुए
आईने हैं। और
उन सब आईनो
में तुम अपने
को देख रहे
हो। वे
तुम्हारी आंखों
में देखते हैं,
तुम उनकी आंखों
में देखते हो!
कोई कह देता
है बड़े प्यारे,
तो चित्त
खिल जाता है, और कोई कह
देता है चलो
हटो—हटो, आगे
बढ़ो, सिर
न खाओ, तो
चित्त बढ़ा
दुखी हो जाता
है। किसी
दर्पण में
सुंदर दिखाई
पड़ जाते हो तो
मगन हो जाते
हो, किसी' दर्पण में
कुरूप दिखाई
पड जाते हो तो
चित्त ग्लानि
से भर जाता
है। और इतने
दर्पण हैं,
और इन सब
दर्पणों की अलग—अलग
भाषा है——कोई
कुछ, कोई
कुछ, कोई
कुछ——ये सब
दर्पण अलग—
अलग ढंग के
हैं।
और
इन सब दर्पणों
से तुम अपना मन्तव्य
इकट्ठा करते
हो कि मैं कौन
हूं! ये चिंदियां
इकट्ठी कर
लेते हो अलग—अलग
लोगों से। इन मब चिन्दियों
को इकट्ठा
बनाकर तुमने
अपनी आत्मा
समझ ली है।
यह
आत्मा नहीं
है। ऐसे आत्मा
नहीं जानी
जाती। आत्मा
जानने के लिए
किसी दर्पण की
जरूरत नहीं है।
फिर दर्पण में
तुम देखोगे
क्या?
अपने को ही देखोगे।
आखिर कुरते को
दर्पण में
कुत्ता ही
दिखाई पड़ा था
न?
मैंने
सुना,
मुल्ला नसरुद्दीन
को राह से
चलते वक्त एक
दिन एक दर्पण
पड़ा मिल गया, राह के
किनारे।
दर्पण उसने
कभी देखा नहीं
था। उठाकर
देखा, बहुत
चौंका, सोचा
कि बिलकुल
पिताजी जैसी
तस्वीर मालूम
होती है।
पिताजी तो मर
भी चुके, मगर
आज पता चला कि
बड़ी रंगीन
तबियत के आदमी
थे; फोटो उतरवायी!
सोचा भी नहीं
था कभी कि
पिता और ऐसी
रंगीन तबियत
के आदमी थें,
पांच दफा
नमाज पड़ते थे।
हद हो गयी।
जल्दी से खीसे
में छिपा ली
कि अब किसी को
पता चलना ठीक
नहीं। बड़ा नाम
था उनका, बड़े
महात्मा थे, कोई को पता
चल जाए कि
तस्वीर उतरवायी
थी तो और
बदनामी होगी।
अब मरे पर
क्या बदनामी,
अब तो
स्वर्गीय हो
चुके, जो
हो गया सो हो
गया। घर में
चलकर छिपा
दूंगा।
गया
ऊपर, मचान पर चढ़
गया घर में और
छिपा रहा था
दर्पण।. अब
पत्नियों से
तुम कुछ छिपा
तो सकते नहीं
कि छिपा सकते
हो? आज तक
कोई पति नहीं
छिपा पाया, कुछ भी नहीं
छिपा पाया। छिपाओ कि पकड़े गये।
सब पति जानते
हैं कि छिपाने
में कोई सार
ही नहीं है; पत्नी खोज
ही लेगी। देख
लिया पत्नी ने
कि ऊपर मचान
पर चढ़ा कुछ कर
रहा है। उसने
कहा ठीक कर लेने
दो पहले। कुछ
छिपाता होगा।
जब
मुल्ला उतर कर
नीचे आ गया और
दोपहर को भोजन
इत्यादि कर के
सो गया तो
पत्नी ऊपर चढ़ी।
खोज—खाज कर
दर्पण देखा, तो
देखा——अरे, इस
रांड के
चक्कर में पड़ा
है! बुढ़ापे
में इधर फोटो
छिपा कर रख
रहा है! उठ आये
तो इसे छटी
का दूध याद
दिला दूंगी।
आखिर
दर्पण में तुम
देखोगे
क्या?
दर्पण में
तुम्हारी ही
तस्वीर दिखाई
पड़ेगी और
तुम्हारी
तस्वीर भी
सिर्फ
तुम्हारे
बहिरंग की
तस्वीर होगी,
तुम्हारे अंतरंग
की तो कोई
तस्वीर नहीं
बनती। कोई
दर्पण नहीं है,
और कोई
कैमरा नहीं है
जो तुम्हारी
आत्मा की
तस्वीर ले।
एक्स-रे भी
वहां तक नहीं
जाती। हड्डियों
तक पहुंच जाती
है, मगर आत्मा
तक तो कोई
तस्वीर लेने
का उपाय नहीं
है। उसे जानना
है।
भीखा केवल
एक है......
जिसने उसे
जाना, उसनै फिर एक को
जान लिया।
अपने भीतर
जाना, सबके
भीतर जान लिया।
…..किरतिम भयो अनंत।
एकै
आतम सकल घट, यह
गति जानहिं
संत।।
एक ही समाया
है। जो मुझमें, वही
तुम में। एक
ही समाया है।
वही परमात्मा
में, वही
पत्थर में।
इसी सत्य को
प्रगट करने के
लिार
सबसे पहले
हमने पत्थर की
मूर्तियां
बनायी थीं।
मगर सत्य तो
खो जाते हैं, प्रतीक खो
जाते हैं, गलत
लोगों के हाथ
में पड़कर
अच्छी से
अच्छी चीजें
व्यर्थ हो
जाती हैं। इस
महा सत्य को
प्रगट करने के
लिए कि वही
परमात्मा है,
वही पत्थर
भी, हमने
पत्थर की
प्रतिमाएं
बनायी थीं।
ताकि तुम्हें
याद रहे, ताकि
तुम्हें याद दिलायी
जाती रहे कि
निकृष्ट में
भी श्रेष्ठ
छिपा है, क्षुद्र
में भी विराट
छिपा है, कण-कण
में भी अनंत
का आवास है।
एकै
आतम सकल घट, यह
गति जानहिं
संत।।
और जो ऐसा
जान ले वह संत।
संत की प्यारी
परिभाषा हो
गयी। जो एक को
जान ले. वह संत, जो
अनेक में भटका
रहे, भरमाता
रहे, भटकाता
रहे--असंत।
संत जैन नहीं
हो सकता। संत
हिन्दू नहीं
हो सकता। संत
मुसलमान नहीं
हो सकता। अगर
हो तो समझना
कि संत नहीं।
संत को कैसे
विशेषण
बचेंगे? एक
को ही देखेगा
तो कैसे
विशेषण
बचेंगे? मंदिर
भी उसका, मस्जिद
भी उसकी, गुरुद्वारा
भी उसका।
मै अमृतसर
में था तो
अमृतसर के गुरुद्वारा
के प्रधानों
ने मुझे
निमंत्रित किया।
निमंत्रित
किया तो मैं
गया। जो
प्रधान मुझे
दिखाने ले गय
अंदर अमृत- सर
के स्वर्ण-मंदिर
को, उन्होंने
पहली ही बात
दरवाजे पर कही
कि एक बात
आपको पहले ही
बता दूं कि
सिक्ख धर्म ही
एक ऐसा धर्म
है जहां
हिंदू-मुसलमान
का भेद नहीं।
मैंने कहा :
अगर भेद नहीं
है तो बात ही
क्यों उठाते
हो? अगर भेद
नहीं है तो यह
बात ही क्यों
उठाते हो? जरूर
कुछ भेद होगा।
इस अभेद की
चर्चा में भी
भेद है।
हिंदू-मुसलमान
में कोई भेद
नहीं तो तुमको
पहचान पता चल
जाती है कौन
हिंदू, कौन
मुसलमान?
कहने लगे
यहां सबको आने
देते
है--हिंदू को
भी, मुसलमान को
भी।
मैंने
कहा : जब तुम यह
कहते हो कि
सबको आने देते
हैं, हिंदू को भी,
मुसलमान को
भी, तो तुम
भेद रखते हो।
तुम नानक को
पहचाने नहीं,
चूक गये।
कहीं रुकावट
है, कहीं
रुकावट नहीं,
मगर भेद तो
जारी है।
वे
बड़े परेशान थे
मुझे भीतर ले
जाकर। मैंने उनसे
पूछा कि आप
बहुत परेशान
मालुम होते है'।
सुबह-सुबह
का वक्त और:
सर्दी के दिन
थे और उनके
माथे पर पसीना,
तो मैने
पूछा कि मामला
क्या है?
उन्हेंने कहा.
अब आपसे
छिपाना क्या, और
बिना कहे रहा
भी नहीं जाता
क्योंकि फिर पीछे
बहुत झंझट
होगी। आप टोपी
नहीं लगाये
हुए हैं और
बिना टोपी गुरुदारे
मे जाना अपमान
हो जाएगा।
जल्दी से
उन्होंने
अपना रूमाल
निकाला और कहा
कि यह मैं
आपके सिर पर
बांध देता हूं।
मैंने
उनसे कहा. अब
तुम्हारा
निमंत्रण मान
लिया है तो
चलो यह
बेहूदगी भी सहृगा। और
जब आ ही गया
हूं तब इतनी
छोटी सी बात
के लिए लौटना, तुम्हें
दुखी भी नहीं
करूंगा। और भी
बहुत लोग
इकट्ठे हो गये
हैं, वे भी
दुखी होंगे।
चलो बांध दो।
मगर मैंने
उनसे कहा कि
तुम सोचते हो
सिर पर कपड़े
के बांध देने
से सम्मान हौ
जाएगा? मैने
उनसे कहा कि
मैं नंगे सिर
भी जाऊं तो र्भा
सम्मान है और
तुम कितनी भी पगड़ियां
बांधकर जाओ तो
भी सम्मान
नहीं।
सम्मान
हार्दिक बात
है, टोपी न टोपी
का क्या सवाल
है! और
परमात्मा किसी
को टोपी लगाकर
भेजता भी नहीं
इस दुनिया में।
कम-से-कम टोपी
तो लगाता ही
अगर थोड़ा भी
शिष्टाचार
होता। न सही
लंगोट, न सही
चूड़ीदार
पाजामा, न
सही अचकन मगर
कम-से-कम टोपी..!
मुल्ला
नसरुद्दीन
के द्वार पर
एक दिन एक
आदमी ने दस्तक
दी; पत्नी सहित
मिलने आया था।
मुल्ला ने
डरते-डरते
जरा-सा दरवाजा
खोला, पति-पत्नी
दोनों चौंक
गये-टोपी
लगाये बिलकुल नंगा...।
अब दोहरी
जिज्ञासा उठी
एक तो नंगा
क्यों? और
नंगा ही होना
है तो टोपी
क्यों? अब
आ गये तो एकदम
लौट भी न सके
और मुल्ला भी
कुछ. कह नहीं
सका, कहना
ही पड़ा कि आइए बिराजिए। बिराज तो
गये, पत्नी
तो बड़ी
इधर-उधर देखे,
पति ने पूछा
कि एक सवाल
उठता है कि आप
नंगे क्यों
हैं?
तो
मुल्ला ने कहा
कि नंगा इसलिए
हूं कि इस समय
कोई आता ही
नहीं मिलने, तो
गर्मी के दिन
काहे के लिए
कष्ट भोगना? अपनी मस्ती
से नंगे बैठे
हैं। अब तो
पत्नी से न
रहा गया।
पत्नी ने कहा
कि ठीक है यह
जिज्ञासा का
तो हल हो गया, फिर टोपी
क्यों लगायी
है?
तो
मुल्ला ने कहा
: अरे, कभी कोई
भूल-चूक से आ ही
जाए तो
कम-से-कम टोपी
तो सिर पर रहे,
इज्जत हो
जाएगी।
यही
कहानी मैंने
उनसे कही।
मैंने कहा :
तुम कहते हो
तो ठीक है
बांध दो रूमाल
इज्जत हो
जाएगी,
मगर यह
इज्जत बस
दिखावा है।
अगर मेरे हृदय
में इज्जत है
तो टोपी से
कुछ फर्क नहीं
पड़ेगा और अगर
हृदय में
इज्जत नहीं है
तो भी टोपी से
कुछ फर्क नहीं
पड़ेगा। मगर
चलो तुम्हें कम—से—कम
तुम्हें
पसीना न आये
तुम्हें
परेशानी न हो,
तुम्हें
लोग पीछे
हैरान न करें
इसलिए बंधवाए
लेता हूं।
नानक के लिए
नहीं बंधवा
रहा हूं यह रूमाल,
यह
तुम्हारे लिए
बंधवा ले रहा
हूं यह सिर्फ
तुम्हारा
ध्यान रखकर।
और मै ने उनसे
कहा. अभी तो
तुम बताते थे
हिन्दू—
मुसलमान में
कोई फर्क नहीं
है, अब
टोपी और न
टोपी में भी
फर्क है!
संत
कौन है?
एकै आतम
सकल घट, यह
गति जानहिं
संत।।
परिचय
अगर न होता
तुमसे तो गीत
कहां लिख पाता
मैं?
पूनम
का चांद बहुत
सुन्दर
जग
पर अमृत
बरसाता है
पर
ज्वार नहीं जब
तक उठता
जाना
किसने क्या
नाता है?
आंखें
यदि परछ नहीं
पातीं कैसे
मुक्ता चुंग
पाता मैं?
परिचय
का प्यार न अब
पाहुन
घर
में रस का नित
नूतन स्वर
जिसकी
पुलकन म
मैं पाता
हंस
हंस कर
नित जीने का
वर
वरदान
बहुत मिल जाते
पर दानी कहां
कहा जाता मैं?
ये
गीत मुझे उतने
ही प्रिय
किरणें
जितनी प्रिय
शशि—रवि को
नीरव
वंशी की स्वर
लहरी
सुधि—बुधि दे
जाती है कवि
को।
पा
जाता गूंगे सा
मैं गुड़ सुंदर
किसको कह पाता
मैं।
संत को
जो मिलता है
वह गूंगे का
गुड़ है।
आंखें
यदि परछ नहीं
पातीं कैसे
मुक्ता चुग
पाता मैं?... उसको
आख मिलती है
नवीन, नये
लोचन, देख
पाता है—क्या
मुक्ता है, क्या कंकड़—पत्थर।
हंसा तो मोती
चुगैं! उसे
दिखाई पड़ने लगते
हैं कि क्या
मोती हैं! वह
मोती सब जगह
चुन लेता है।
उसे कुरान में
भी मोती मिल
जाएंगे और वेद
में भी, उपनिषद
में भी, धम्मपद
में भी।
इन्हीं
मोतियों की तो
तुमसे चर्चा
कर रहा हूं
रोज—रोज।
मुझसे लोग
पूछते हैं कि
आप कितने
संतों पर बोल
चुके हैं, कितनों
पर बोलेंगे?
मैं
तो मोतियों पर
बोल रहा हूं, संतों
से क्या लेना—देना
है! जहां—जहां
मोती हैं, जहां—जहां
मोती दिखाई
पड़ते हैं, बोले
बिना नहीं रहा
जाता।
मोतियों की
तुम्हें खबर
दे रहा हूं।
कौन जाने किस
घड़ी, किस शुभमुहूर्त
में तुम्हारी
भी आख खुल जाए
और मोती पहचान
में आ जाएं।
भीखा का गीत
चलता हो तब
पहचान में आ जाएं,
कबीर का गीत
चलता हो तब
पहचान में आ
जाएं, कि
मंसूर की
वार्ता होती
हो तब पहचान
मे आ जाएं——कौन
जाने किस महूर्त,
किस घड़ी, किस शुभ
क्षण में
तुम्हारी आख रवुल जाए
और मोती तुम
पहचान लो। मगर
एक दफा पहचान
लो तो बस फिर चूकोगे
नहीं, फिर भटकोगे
नहीं।
एकै धागा
नाम का, सब
घट मनिया माल।
फेरत कोई संतजन, सतगुरु
नाम गुलाल।।
एकै धागा
नाम का. यह
सारा
अस्तित्व ऐसे
है जैसे माला।
माला में गुरिये
तो दिखाई पड़ते
हैं, धागा दिखाई
नहीं पड़ता। तो
गुरिये
हैं हम सब, सारा
अस्तित्व गुरिये
जैसा है और
इसके भीतर
बंधा हुआ धागा
है जो इस सारे
अस्तित्व को
एक समायोजन
में लिए है, आबद्ध किये
है। गुरिये
बिखर नहीं
जाते, माला
टूट नहीं
जाती। वह
अदृश्य धागा
ही परमात्मा
है, उसे
राम कहो, अल्लाह
कहो——जो भी नाम
देना हो दो।
एकै धागा
नाम का, सब
घट मनिया माल।
बाकी
तो सब माणिक
हैं, मनिये हैं, मोती
हैं, मोतियों
में ही मत
उलझे रहना।
मोतियों को
परखो, मोतियों
में गहरे उतरो
और तुम एक ही
धागे को
पाओगे। भीखा में
डुबकी मारो
वही धागा।
कबीर में
डुबकी मारो
वही धागा। नानक
में डुबकी
मारो वही
धागा। ऐसे रोज—रोज
डुबकी लगाकर
तुम्हें उसी
धागे को पकड़ाने
की कोशिश कर
रहा हू।
फेरत कोई संतजन...
तुम जो मालाएं
फेरते हो उनका
कोई मूल्य
नहीं है। तुम
तो गुरियों
में ही अटक
जाते हो, जो धागे
को पकड़ लेता
है वह कोई संतजन...।
फेरत कोई संतजन, सतगुरु
नाम गुलाल।।
भीखा
कहते हैं, मैं
तो गुलाल को
पहचानता हूं,
वह उनके
गुरु का नाम
है। मैंने
गुलाल में ही
बुद्ध देख लिए,
मैंने
गुलाल में ही
महावीर देख
लिए, मैंने
गुलाल में ही
मुहम्मद देख
लिए। मैं तो गुलाल
से पहचाना
इसलिए गुलाल
मेरे हृदय में
बसे हैं।
गुलाल के
बहाने सब
सद्गुरु मेरे
हृदय में बसे
हैं। मगर मेरी
श्रद्धा और
मेरे प्राण तो
गुलाल के
चरणों में
अर्पित हैं
क्योंकि उनके ही
पद रेणु को माथे
पर रखकर
...... भीखा
रेनु के लागते,
गगन बजायो
बेनु.....
क्योंकि
ईश्वर ने उनके
ही चरणों में
झुकने पर मुझ
पर वर्षा की
थी अमृत की।
मेरे लिए तो
गुलाल सब कुछ
हैं।
शिष्य
के लिए तो
उसका अपना
गुरु सब कुछ
है, सारे गुरु
उसमें समाहित
हैं। उसे अपना
अपने गुरु की
बूंद में सारे
सागर समाहित
मालूम होते
हैं। इसलिए
उसे कहीं जाने
की कोई जरूरत
भी नहीं रह
जाती, कोई
प्रयोजन भी
नहीं रह जाता।
वह तो टिक
जाता है वह तो
एक जगह ठहर
जाता है। मगर
ये घड़ियां रोज—रोज
इस जमीन पर कम
होती गयी हैं;
ऐसा
सौभाग्य—क्षण
रोज—रोज कम
होता चला गया
है। सतगुरु
मुश्किल, अब
तो शिष्य भी
मुश्किल हो
गये हैं। सत—गुरु
तो सदा
मुश्किल थे
लेकिन शिष्य
इतने मुश्किल
नहीं थे——खोजी
थे, तलाशी
थे, जीवन
को दांव पर
लगाने वाले
लोग थे।
आज अपनी
ही धरा पर सिर
उठाना भी मना
है
क्या
नहीं अब तक
सुनी है
एक
बौने की कहानी?
क्या
नहीं तुम
जानते हो
बलि
चढ़ा था एक
दानी?
आज
बौनों की धरा
पर गुनगुनाना
भी मना है।
जो
न सहना चाहिए
वह
घात
हंस हंस
सह रहा हूं,
मानना
मत, इसलिए मै
बात
ऐसी कह रहा
हूं;
रक्त
से भींगी
धरा पर डग
बढ़ाना भी मना
है।
अब
नहीं है गीत
गाने का जमाना,
अब
नहीं है मीत
पाने का जमाना,
साधना
और सिद्धि का
दानी न कोई,
ढूंढते
सब घात करने
का बहाना,
मुस्कराओ मत
यहां पर, गीत
गाना भी मना
है।
अब तो
हालत बड़ी बुरी
हुई, आकाश का गीत
तो क्या सुनोगे,
अपना गीत भी
गाने की
सामर्थ्य
नहीं है। और
अगर गाओ तो
गुनगुनाना
मना है, हजार
पाबंदियां
हैं, हजार
संगीनों के पहरे
हैं। आदमी की
गर्दन को रोज—रोज
राज्य, चर्च,
पंडित, पुरोहित,
कसते चले
गये हैं, इस
कसी हुई गर्दन
में से गीत
उठे तो उठे
कैसे?
आज' बौनों
की धरा पर
गुनगुनाना भी
मना है।
और
बहुत छोटे—छोटे
बौने लोग बड़े
शक्ति में बैठ
गये हैं, इसलिए
कहीं कोई गीत
गाये, कहीं
कोई प्रतिभा
का जन्म हो, कहीं ईश्वर
का पदार्पण हो,
तो उन सब को
अड़चन हो जाती
है, बौने
बहुत नाराज हो
जाते हैं।
अब
तो सिर्फ वे
थोड़े से लोग
ही सत्य की
तलाश में निकल
सकते हैं
जिन्हें जीवन
को भी चुका
देने की
तैयारी है, जो
जोवन को भी
अर्पित कर
सकते हैं, जो
हजार कठिनाइयां,
हजार
मुसीबतें, झेलने
को राजी हैं।
मगर ये सब
मुसीबतें
झेलने जैसी
हैं। जिस दिन
सत्य का गीत जनमेगा, जिस दिन वह
वीणा बजेगी उस
दिन तुम पाओगे
जो हमने किया
था, वह तो
कुछ भी नहीं
है, जो
मिला है, वह
अपार है।
हमारा प्रयास
तो बूद
जैसा था, जो
पाया है, वह
सागर है।
गुरु—परताप
साध की संगति।
आज
इतना।
(समाप्त)
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