प्यारे
ओशो।
शतपथ ब्राह्मण
में एक प्रश्न
है:
को
वेद मनुष्यस्य?
(मनुष्य को
कौन जानता है?)
प्यारे
ओशो! क्या मनुष्य
इतना जटिल और
रहस्यपूर्ण
है कि उसे कोई
नहीं जान सकता
है?
पुरुषोत्तम
माहंती!
मनुष्य जटिल
नहीं है, रहस्यपूर्ण
जरूर है। जटिल
होता तो जानना
कठिन न होता।
कितना ही जटिल
हो, जटिलता
सुलझायी जा
सकती है।
जटिलता एक
पहेली है, जो
बुद्धि की
सीमा के पार
नहीं, बुद्धि
की सीमा के
भीतर है। जो
जटिल था उसे
मनुष्य ने
सुलझा लिया है,
या नहीं
सुलझाया है तो
सुलझा लेगा।
जो कल अज्ञात
था, आज
ज्ञात है। जो
आज अज्ञात है,
कल ज्ञात हो
जाएगा।
विज्ञान
ये दो कोटियां
ही मानता है—शात
और अज्ञात। इन
दोनों के बीच
कोई गुणात्मक
भेद नहीं है; थोड़ा समय
का अंतराल है।
अशात वह है जो
ज्ञात होने
में समर्थ है—सिर्फ
थोड़ी और
चेष्टा, थोड़ी
और खोज, थोड़ी
और शोध, थोड़ा
और तर्क, थोड़ा
और विज्ञान।
लेकिन रहस्य
गुणात्मक रूप
से भिन्न है, परिमाणात्मक
रूप से ही
नहीं। रहस्य
का अर्थ
अज्ञात नहीं
है; रहस्य
का अर्थ है
अज्ञेय, जो
जाना ही न जा
सके; जो
बुद्धि की
सीमा के पार
है—जिसे जीया
तो जा सकता है
लेकिन जाना
नहीं जा सकता।
जानने का अर्थ
होता है—शब्द
में ढाला जा
सके, तर्क
में तौला जा
सके, बुद्धि
माप सके।
रहस्य का अर्थ
होता है—अमाप;
जिसको
जानने. का, तौलने
का कोई उपाय
नहीं, लेकिन
जो है; लेकिन
अनंत है, असीम
है। जितना
जानोगे उतना
ही पाओगे कि
जानना
मुश्किल है।
जितना
पहचानोगे
उतना ही पाओगे,
पहचानने को
बहुत और शेष
है, सदा
शेष है।
सुकरात
का वचन
प्रीतिकर है।
सुकरात कहता
है : मैं एक ही
बात जान पाया
कि मैं कुछ भी
नहीं जानता
हूं! उपनिषद—
कहते हैं : जो
जानता है वह
नहीं जानता।
जो नहीं जानता
है, वही
जानता है। यह
भी उपनिषद्
कहते हैं कि
अज्ञानी तो
अंधकार में
भटक जाते हैं,
ज्ञानी
महाअंधकार
में भटक जाते
हैं। यह वचन
बहुत आग्नेय
है, बहुत क्रांतिकारी
है। इसकी
चिनगारी भी
तुम्हारे
भीतर पड़ जाए
तो तुम्हारे
जीवन के जंगल
में आग लग जाए।
सब कूड़ा—कर्कट
जल जाए। फिर
वही बचे जो
खालिस सोना है।
—तुम
पूछते हो, 'क्या
मनुष्य इतना
जटिल और
रहस्यपूर्ण
है कि उसे कोई
नहीं जान सकता?
तुम जटिलता
और रहस्य को
पर्यायवाची
समझ रहे हो।
वे
पर्यायवाची
नहीं हैं।
जटिलता तो
सिर्फ एक
चुनौती है
बुद्धि के लिए।
रहस्य बड़ी
गहरी बात है।
बुद्धि तो
सतही है।
रहस्य को
जानना हो तो
जानने का ढंग
काम नहीं आता।
वहां तो
सुकरात जैसा
अज्ञानी हो
जाना पड़े।
जीसस
ने कहां है : जौ
बच्चों की
भांति
निर्दोष
होंगे, वे ही केवल
मेरे प्रभु के
राज्य में
प्रवेश कर
सकेंगे। वहां
ज्ञानी की
बिसात नहीं।
वहां
जाननेवाले के
लिए कोई
प्रवेश नहीं;
वहां
निर्दोष, सरल—चित्त,
इतना सरल—चित्त
जैसे कोरा
कागज.। जब तुम
कोरे कागज की
भांति हो जाते
हो तो परिचय
होता है, प्रत्यभिज्ञा
होती है; तो
स्वाद आता है,
तो रस बहता
है; तो
जीवन में
उत्सव सधता है।
और
शतपथ
ब्राह्मण का
यह सूत्र ठीक
कहता है. को वेद
मनुष्यस्य? 'मनुष्य
को कौन जानता
है?' कौन—सा
वेद है जो
मनुष्य को
जानता है? कौन—सा
ज्ञान है जो
मनुष्य को
जानता है? कौन—सा
सिद्धांत है
जो मनुष्य को
जानता है? कौन—सा
धर्म है जो
दावा कर सके
मनुष्य को
जानने का? और
मनुष्य को ही
क्यों चुना है?
क्योंकि
मनुष्य
पराकाष्ठा है
जीवन के रहस्य
की। यूं. तो
सारा जीवन रहस्यपूर्ण
है। यूं तो एक
गुलाब के फूल
को भी जानना
कहां संभव है!
अंग्रजी
के महाकवि
टेनीसन ने कहां
है... एक सुबह
घूमते हुए, पत्थर की
एक दीवाल में
घास का एक
पौधा वर्षा के
दिनों में
क्या आया है
और उस पर एक
छोटा—सा घास
का फूल खिला
है। सुबह की
ताजी हवा, सूरज
की ऊगती हुई
नयी—नयी
किरणें, पक्षियों
के गीत और
पत्थर को
तोडकर ऊग आए
इस घास के
पौधे का राज!
नहीं कि सिर्फ
पौधा क्या आया
है, वरन्
फूला भी है।
टेनीसन
ठिठककर खड़ा हो
गया। और
टेनीसन ने जो
वचन कहां... कहां
कि काश! मैं इस
घास के फूल को
पूरा का पूरा
जान लूं जड़ से
लेकर शिखर तक,
तो मैं सारे
अस्तित्व को
जान लूंगा।
फिर कुछ और
जानने को शेष
न रह जाएगा।
घास का
एक छोटा—सा
फूल भी पूरा—पूरा
नहीं जाना जा
सकता है, कुछ छूट ही
जाता है। जो
छूट जाता है
वह भी राज है।
जो छूट जाता
है वही रहस्य
है। जो पकड़
में आ जाता है,
दो कौड़ी का
है। जो पकड़
में नहीं आता
वही प्राण है।
घास का फूल
अगर इतना
रहस्यपूर्ण
हो तो फिर गुलाब
की तो क्या
बात है! फिर
झील में खिल
आए कमल को तो
समझना बहुत
मुश्किल होगा।
और यह जो
चेतना का
सहस्रदल कमल
है, यह जो
मनुष्य के
भीतर छिपा हुआ
सहस्रार है, यह जो
मनुष्य की
चेतना का फूल
है, यह तो
इस पृथ्वी पर,
इस सारे
अस्तित्व में
अनूठा है, अद्वितीय
है। पदार्थ
में खिले
फूलों को भी
नहीं जाना जा
सकता तो चेतना
के फूल को तो
कैसे जाना जा
सकेगा?
— को
वेद
मनुष्यस्य?
'कौन
जानता है
मनुष्य को?' कौन—सा वेद
जानता है? कौन—सा
शास्त्र
जानता है? कौन—सी
किताब है जो
मनुष्य के राज
को खोल सकी है?
सारे
शास्त्रों ने,
सारी
किताबों ने, सारे
ज्ञानियों ने,
सारे
प्रबुद्ध
पुरुषों ने
मनुष्य के
रहस्य की तरफ
ही इशारा किया
है। यही कहां
है : चुप हो जाओ
तो शायद कुछ
पहचान हो; खोजो
मत, ठहर
जाओ, तो
शायद कुछ झलक
मिले। मन का
उपयोग न करो, क्योंकि मन
की सीमा है और
यह चेतना असीम
है। सीमित
साधन का उपयोग
करोगे तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
साधन ही बाधा
बन जाएगा।
मनुष्य
को पहचानना हो
तो मन से गहरे
जाना होगा।
मनुष्य शरीर
नहीं है, मन भी नहीं
है; इन दोनों
के पीछे छिपा
हुआ चैतन्य है,
साक्षी है।
जो मन के पार
है, उसे
जानने की भाषा
में नहीं जाना
जा सकता। उसे
तो प्रेम की
भाषा में पीया
जा सकता है।
और मन के पार
हो जाने की
प्रक्रिया का
नाम ही ध्यान
है। इसलिए
जिसे ध्यान
में प्रवेश
करना है उसे
सारे
शास्त्रों को अग्नि
को समर्पित कर
देना होता है।
वही एक यज्ञ
करने जैसा है।
वही एक हवन
धार्मिक
व्यक्ति के
योग्य है। खाक
कर दे सारे
शब्दों को, चाहे वे
कितने ही
सुंदर हों, कितने ही
प्यारे लोगों
ने कहे हों
इससे कुछ भेद
नहीं पड़ता।
क्योंकि शब्द
तो मन तक ही
जाएंगे। उनकी
दौड़ उसके आगे
नहीं। जहां
निःशब्द शुरू
होता है वहीं
मनुष्य की असली
सत्ता का
प्रारंभ है।
जहां विचार
गिर जाते हैं
और निर्विचार
का आयाम खुलता
है, वहीं
मनुष्य की
चेतना में
पहली दफे
तुम्हारा प्रवेश
होता है। जहां
तक मन वहां तक
तुम नहीं। जहां
अ—मन आया वहीं
तुम हो।
फिर
स्वभावत: इस
रहस्य को कोई
और नहीं जी
सकता है।
प्रत्येक
व्यक्ति को
अपना रहस्य
स्वयं जानना
होगा। इसलिए
यह शतपथ
ब्राह्मण ठीक
ही कहता है— को
वेद
मनुष्यस्य? 'मनुष्य
को कौन जानता
है?' तुम्हारे
अतिरिक्त
तुम्हें कोई
भी नहीं जान सकता
है। और तुम भी
तभी जान सकोगे
जब अतिक्रमण
कर जाओ देह, मन का। जब इन
दोनों की
सीढ़ियों पर चढ़
जाओ तो मंदिर
में प्रवेश हो।
केवल
तुम्हारे और
कोई तुम्हें
नहीं जान सकता।
और तुम्हारा
भी जानना
जानना नहीं कहां
जा सकता, जीना
ही कहां जा
सकता है।
जानने में
फासला होता है।
जिसे तुम
जानते हो वह
और, जो
जानता है वह
और। जानने में
द्वैत होता है—अनिवार्य,
बिना द्वैत
के जानना
सधेगा नहीं।
वहां जिसको
तुम जान रहे
हो, ज्ञेय;
जो जान रहा
है, ज्ञाता—इन
दोनों के बीच
के संबंध का
नाम ही ज्ञान
है। लेकिन
स्वयं को
जानने में तो
द्वैत नहीं हो
सकता। वहां तो
जाननेवाला और
जाना जानेवाला
एक है। इसलिए
जानने की भाषा
वहा काम नहीं
आएगी। जीने की
भाषा काम आएगी।
जीना ही वहां
जानना है, जीना
ही वहां
पहचानना है।
और
तुम्हारे
जीवन को सब
तरह से
अवरुद्ध कर
दिया गया है।
जीवन की इतनी
निंदा की गया
है और
शास्त्रों की
इतनी प्रशंसा
की गयी है।
शब्दों को सिर
पर ढोओ और
अपनी निंदा और
ग्लानि के बोझ
से दबे रहो—यही
सिखाया गया है
सदियों से।
जबकि यह स्वयं
से परिचित
होने का मार्ग
नहीं है; स्वयं से
अपरिचित रह
जाने की विधि
है।
लेकिन
सत्ताधारी
यही चाहते हैं
कि तुम अपने को
न जान पाओ, तुम अपने
को न पहचान
पाओ, तुम
अपने को न जी
पाओ, ताकि
तुम्हें
गुलाम बनाया
जा सके। और
गुलामियों के
बहुत नाम हैं।
धर्मों के नाम
पर गुलामी है।
राष्ट्रों के
नाम पर गुलामी
है, सिद्धांतों
के नाम पर
गुलामी है।
गुलामी के
इतने ढंग हैं,
इतने रूप
हैं, जंजीरें
ऐसे— ऐसे
सुंदर रंगों
में सोने और
चांदी से मढ़ी हुई
हैं कि लगता
है आभूषण हैं।
लोग भूल ही गए
हैं कि चाहे
सोने और चांदी
से मढ़ी क्यों
न हो जंजीर, चाहे
बेड़ियां हीरे—जवाहरातों
से क्यों न
टंकी पड़ी हों,
बेड़ियां
बेड़ियां हैं।
हथकड़ियां
हथकड़ियां हैं।
और कारागृह
चाहे संगमरमर
से ही क्यों न
बनाया गया हो,
इससे कुछ
भेद नहीं पड़ता।
कारागृह
कारागृह है।
वह खुला आकाश
नहीं है।
उसमें आकाश के
न चांद हैं, न सूरज हैं, न तारे हैं, न आकाश में
उड़ने की
संभावना है।
तुम सब
पींजड़ों में
बंद हो और
खुले आकाश में
उड़ता हुआ
पक्षी—बात और।
वही पक्षी
पींजड़े में
बंद हो जाए तो
बात और। खुले
आकाश में उड़ते
हुए उसके
पंखों का जादू
उसकी
स्वच्छंदता, उसकी मुक्ति
और सारा आकाश
उसका अपना, चांद—तारे
उसके, सूरज
उसका, वृक्ष
उसके, फूल
उसके। आकाश
में उड़ते हुए
बादलों को पार
करने का आनंद
उसका। दूर—दूर
के सितारों को
लक्ष्य बना
लेने की मौज
उसकी। और फिर
इस मौज से
उठता हुआ गीत,
खुलते हुए
पंख, खुलता
हुआ कंठ भी।
वही पक्षी तुम
बंद कर लो
सोने के
पींजड़े में सही,
सारी
सुविधाएं
जुटा दो, भोजन
की चिंता न
रहे उसे, लेकिन
फिर यह पक्षी
वही नहीं है
जो बादलों को पार
करता हुआ देखा
गया था। यह
पक्षी वही
नहीं है जिसने
सुबह—सुबह
सूरज का स्वागत
किया था और
गीत गाये थे।
यह पक्षी वही
नहीं है जो
सांझ अपने
आनंद से अपने
नीड़ में वापिस
लौटता था। यह
चहल—पहल वही
नहीं; यह
पक्षी मर गया,
नाममात्र
को जिंदा है।
यूं ही
हिंदू हैं, यूं ही
मुसलमान हैं,
यूं ही ईसाई
हैं, यूं
ही जैन हैं।
ये सब पींजड़ों
में बंद लोग हैं।
इनमें से कोई
भी मनुष्य की
चेतना को नहीं
जान सकता। इन
सबके सिद्धांत
हैं। और जो सिद्धांतों
को पकड़कर चलता
है, मन के
पार कैसे
जाएगा? उसके
सिद्धांत ही
उसे अटका
लेंगे। उसके सिद्धांत
ही उसके पैरों
को खींच लेंगे,
उसके पंखों
को काट देंगे।
वह अपने सिद्धांतों
को सिद्ध करने
की चेष्टा में
संलग्न रहेगा।
उसकी आतुरता
सत्य के लिए
नहीं है, उसकी
आतुरता एक है
कि मेरा सिद्धांत
सत्य सिद्ध
होना चाहिए।
सत्य का
अन्वेषण सिद्धांतों
को छोड़कर ही
हो सकता है।
जब तुम्हारी आंखों
पर सिद्धांत
लदे हों तो
तुम कैसे सत्य
को देख पाओगे?
और
सारे लोग सिद्धांतों
से भरे हुए
हैं। उनकी आंखें
सिद्धांतों
ने अंधी कर दी
हैं। वे वही
देख पाते हैं
जो उनके सिद्धांत
उन्हें आज्ञा
देते हैं
सत्ताधिकारी
चाहे धार्मिक
हों, चाहे
राजनैतिक हों,
उनकी आकांक्षा
नहीं है कि
तुम सत्य को
जान लो।
क्योंकि जो
सत्य को जान
लेगा उसे
गुलाम नहीं
बनाया जा सकता।
जो सत्य को
जान लेगा, फिर
उसे इन टुच्ची
और क्षुद्र
सीमाओं में
नहीं बांधा जा
सकता। वह न तो
भारतीय होगा,
न चीनी होगा,
न जापानी
होगा। वह न
काला होगा, न गोरा होगा।
जिसने सत्य को
जाना वस्तुत:
वह न स्त्री
होगा, न
पुरुष होगा।
वह सिर्फ
शुद्ध चैतन्य
होगा। वहां
कोई कोटियां
काम न आएंगी।
वहा विभाजन
नहीं हो सकता।
और विभाजन
सत्ताधिकारी
का सूत्र है : बांटो
और राज्य करो।
पुरोहित वही
करता है, राजनेता
वही करता है :
बांटी, लोग
बंटे रहें, लोग आपस में
लड़ते रहें, यही
सत्ताधिकारी
का बल है। और
लोग अंधे रहें
तो ही तो
नेताओं की
कीमत है। तो
ही
धर्मगुरुओं
की जरूरत है। आंख
तुम्हारी खुल
जाए तो फिर
बहुत मुश्किल
हो जाती है। आंख
खुल गयी तो
फिर किसी नेता
की तुम्हें
जरूरत नहीं है।
तुम अपने
मार्ग—द्रष्टा
हो। तुम अपने
प्रकाश स्वयं
हो। तुम्हारी
भीतर की
ज्योति जल उठी।
मनुष्य
को जटिल मत
समझना।
मनुष्य बहुत
सरल है। लेकिन
जितना सरल है
उतना ही
रहस्यपूर्ण
है। जटिलता को
समझना आसान है, क्योंकि
जटिलता को
बांटा जा सकता
है, काटा
जा सकता है, विभाजित
किया जा सकता
है। सरलता को
जानना असंभव
है, क्योंकि
उसका कोई
विश्लेषण
नहीं हो सकता
है। यूं समझो,
वैज्ञानिक
से अगर पूछो
कि पानी क्या
है तो वह जवाब
देगा कि उद्जन
और
अक्षजन का जोड़
है—एच. टू? ओ.। उसका दो
हिस्सा उद्जन,
एक हिस्सा
अक्षजन; बस
इन तीन
हिस्सों से
मिलकर पानी बन
जाता है। उससे
पूछो, उद्जन
क्या है? तो
भी वह जवाब
देने में
समर्थ है कि
उद्जन कितने
इलेक्ट्रान, कितने इलेक्ट्रान
और प्रोटॉन से
बनती है।
लेकिन अगर
उससे पूछो कि
इलेक्ट्रान, और प्रोटीन,
इलेक्ट्रान
क्या हैं, तब
मुश्किल खड़ी
हो जाती है।
क्योंकि उनका
विभाजन नहीं
हो सकता।
इलेक्ट्रान
का कोई विभाजन
नहीं हो सकता।
पानी को
विभाजित किया
जा सकता है, इसलिए उत्तर
दिया जा सकता
है कि यह दो का
जोड़ है। लेकिन
इलेक्ट्रान
का कोई विभाजन
संभव नहीं है—अविभाज्य
है, सरल है;
उसमें
द्वैत नहीं है,
दुविधा
नहीं है; एक
है। क्या
उत्तर दो, इलेक्ट्रान
इलेक्ट्रान
है। इसलिए
वैज्ञानिक के
पास कोई उत्तर
नहीं। वहां जाकर
सब उत्तर गिर
जाते हैं।
पदार्थ
की दुनिया में
जब यह घटता है
तो चेतना की
दुनिया में
तुम सोच सकते
हो, और
भी अनंत—गुने
रूप में यह
घटना घटती है।’चेतना तो
बिलकुल सरल है,
बिलकुल
अविभाज्य है।
यह हो सकता है
कभी
इलेक्ट्रान
का भी विभाजन
हो सके, तब
उत्तर हो
जाएगा। लेकिन
उत्तर केवल
प्रश्न को
थोड़ा और आगे
सरका देगा।
जिनसे
इलेक्ट्रान
बना होगा उन
पर प्रश्न चला
जाएगा। बात
बनेगी भी और
बनेगी भी नहीं।
विज्ञान
प्रश्नों को
पीछे सरकाता
जाता है, लेकिन
अंततः एक जगह
जाकर तो रुक
ही जाना पड़ता है।
वह चेतना है।
चेतना को न
विभाजित किया
जा सकता, न
विज्ञान के
दूरदर्शक
यंत्रों से
देखा जा सकता,
न
सूक्ष्मदर्शक
यंत्रों से
देखा जा सकता,
न विज्ञान
के तराजुओं के
पास ऐसे कोई
मापदंड हैं
जिन पर तौला
जा सके। इसलिए
विज्ञान तो
इनकार ही कर
देता है कि
चेतना है ही
नहीं—यह झंझट
से बचने के
लिए। क्योंकि
अगर चेतना है
तो विज्ञान को
उत्तर देना
होगा। और
उत्तर नहीं है
पास। और कोई
अपने अज्ञान
को मानने को
राजी नहीं है।
अहंकार मानने
नहीं देता
अज्ञान को।
इसलिए यही
उचित है कि जो
हल न होता हो, कह दो कि है
ही नहीं।
लेकिन
ध्यान में
चेतना का
साक्षात्कार
होता है।
इनकार तो किया
नहीं जा सकता, निरपवाद
रूप से जब भी
किसी व्यक्ति
ने मन के पार छलांग
लगायी है और
ध्यान को जन्म
दिया है, उसने
जाना है चेतना
को। इस एक
सत्य के संबंध
में कोई
प्रबुद्ध
पुरुष किसी
दूसरे से
भिन्न नहीं है।
यह एक ही तत्य
है जिसके
संबंध में
सारे प्रबुद्ध
पुरुष राजी
हैं, सहमत
हैं। लेकिन
जानना होगा
स्वयं ही, खुद
ही। तुम्हारे
भीतर ही यह
रहस्य है।
तुम्हें उस
गहराई में
अपने भीतर
डूबना होगा जहां
इस रहस्य से
तुम्हारा
तालमेल हो जाए,
जहां संगीत
बज उठे, जहां
एक हाथ की
ताली बजे, जहां
अद्वैत का बोध
हो।
शतपथ
ब्राह्मण ठीक
ही कहता है : को
वेद
मनुष्यस्य? 'कौन जान
सका मनुष्य को?'
नहीं कोई
दूसरा कभी जान
सका। और जब तक
मनुष्य भी
मनुष्य ही है...।
'मनुष्य'
शब्द को
सोचना, विचारना—मन
से बना है।
जिसके पास मन
है, वह
मनुष्य।
इसलिए मनुष्य
भी जब तक
मनुष्य है, इसे न जान
सकेगा।
मनुष्य से
थोड़ा पार जाना
होगा। मन के
पार जाओगे तो
मनुष्य .के
पार चले जाओगे।
वही भगवत्ता
का लोक है।
मेरे
लिए कोई भगवान
नहीं है
अस्तिस्व में, भगवत्ता
है।
प्रत्येक
मनुष्य बीज है
भगवत्ता का।
मनुष्यता
पीछे छूट जाए
तो भगवत्ता का
फूल खिल जाता
है।
प्रत्येक
व्यक्ति छिपा
हुआ भगवान है।
नहीं जानता, नहीं
पहचानता—यह और
बात है। और
यही उसका
रहस्य है।
भगवत्ता
है रहस्य
मनुष्यता का।
और जब तक तुम
भगवत्ता से
परिचित न हो
जाओ तब तक नहीं
अपने को जान
सकोगे, नहीं पहचान
सकोगे।
शास्त्रों को
दोहराते रहो
तोतों की तरह,
प्यारे वचन
हैं, सुंदर
शब्द हैं, मधुर
काव्य है, सब
है, मगर
मुर्दा है।
जीवंत तो तभी:
होगा जब स्वयं
की प्रतीति
होगी। और वह
तुम्हारा
जन्म—सिद्ध
अधिकार है।
लेकिन
अपने भीतर
जाना होगा।
मंदिरों में
जाने से नहीं
होगा, मसजिदों
में जाने से
नहीं होगा, चर्चो और
गुरुद्वारों
में वह नहीं मिलेगा।
वह तुम्हारे
भीतर
विराजमान है।
ठहरो, आंख
बंद करो, अपने
भीतर डूबो। जब
सब ठहर जाएगा
तुम्हारे
भीतर, कोई
हलन—चलन न
होगी, कोई
विकल्प न होगा,
निर्विकल्पता
होगी—तत्क्षण
जैसे सूर्य
क्या आए, सुबह
हो जाए, और
तुम्हारे
प्राणों की
वीणा भी बज
उठेगी! तुम्हारे
गीत भी मुखर
हो उठेंगे। तब
तुम जानोगे, मगर गूंगे
का गुड़ ही
रहेगा जानना।
जान लोगे
लेकिन कह न
सकोगे। जीने
लगोगे मगर
अभिव्यक्ति न
दे सकोगे।
इसलिए
सद्गुरु सत्य
नहीं दे सकता,
लेकिन उसके
जीने की आभा, उसकी
मौजूदगी का
प्रसाद, उसकी
उपस्थिति
निश्चित ही, तुम्हारे
भीतर जो सोया
है, उसे
सुगबुगा सकती
है। तुम्हारे
भीतर जो जागा
नहीं सदियों
से, शायद
करवट ले ले।
तुम्हारे
भीतर जो
मूर्च्छा है
वह उसके जागरण
की चोट से टूट
सकती है। और
तुम्हारा
बुझा दीया
उसके जले दीये
के करीब आ जाए...
और यही सत्संग
का अर्थ है :
जले दीये के करीब
बुझे दीये का
आ जाना। यही
गुरु और शिष्य
का संबंध और
नाता है। यह
प्रेम की
पराकाष्ठा है—जले
हुए दीये के
करीब बुझे हुए
दीये का आ
जाना और एक
घड़ी ऐसी है, एक स्थान
ऐसा है, जहां
जले दीये से
ज्योति एक
क्षण में बुझे
दीये में
प्रवेश कर
जाती है। और
इसका गणित बड़ा
अनूठा है।
बुझे दीये को
सब कुछ मिल
जाता है और
जले दीये का
कुछ भी खोता
नहीं है।
आज इतना
ही।
'राम नाम
जान्यो नाहिं'
प्रवचनमाला
से
दिनांक
20 मार्च 1981; श्री
रजनीश आश्रम
पूना।
thank you guruji
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