प्यारे
ओशो,
सर्वे
भवंतु सुखिन:
सर्वे संतु
निरामया:।
सर्वे
भद्रणि पश्यंतु
मा कशिचद्
दु:खभाग्भवेत।।
‘सब सुखी हों, सब निरोग
हों, सब
कल्याण को
प्राप्त हो,
कोई
भी दुखभागी न
हो।’
आप्तपुरूषों
का यह मंगल—वचन
क्या कभी सच
होगा?
पूर्णानंद!
यह तुम पर
निर्भर है। यह
तो आशीष है, लेकिन
इसे पूरा करने
के लिए भूमिका
जुटानी होगी।
जिन्होंने
जाना है, उन्होंने
तो चाहा है कि
सभी जान लें।
जिन्होंने
पाया है, उन्होंने
प्रार्थना की
है प्रभु को
कि सब को मिले।
स्वाभाविक है
कि जिन्होंने
आनंद को पिया
है, वे जब
तुम्हें दुख
में डूबा हुआ
देखते हैं, तो हैरान भी
होते हैं, पीड़ित
भी होते हैं।
हैरान इसलिए
होते हैं कि
दुख का कोई भी
कारण नही—और
तुम दुखी हो!
दुख
तुम्हारे
झूठे आधारों
पर निर्भर है।
दुख के तुम
स्रष्टा हो।
कोई और उसे
बनाता नहीं; तुम
ही रोज सुबह
से सांझ मेहनत
करते हो। जिस
चिता में तुम
जल रहे हो, उसकी
लकड़ियां
तुमने जुटाई
हैं। उसमें आग
भी तुमने लगाई
है। चीखते—चिल्लाते
भी हो कि कैसे
इस जलन से
छूटूं लेकिन
हटते भी नहीं
वहा से! सरकते
भी नहीं! कोई
सरकाना चाहे,
तो दुश्मन
मालूम होता है।
कोई हटाना
चाहे, तो
तुम उससे
झगड़ने को
तैयार हो।
तुम्हारी
चिता है!
तुम्हारी
संस्कृति है!
तुम्हारा
धर्म है!
तुम्हारे
संस्कार हैं—कैसे
तुम छोड़ दोगे!
तुम्हारे
शास्त्र हैं,
कैसे तुम
छोड़ दोगे!
छाती से लगाये
हुए हो—अपनी
मौत को। और जब
मैं कहता— 'अपनी
मौत को'—तो
मेरा अर्थ है.
जो भी मर चुका
है, उसे जब
तक तुम छाती
से लगाये हो, तब तक सडोगे,
परेशान
होओगे।
आप्तपुरुष
प्रार्थना
करेंगे, आशीष
देंगे। यूं तो
बरसा भी होती
है, लेकिन
घड़ा उलटा रखा
हो, तो
बरसा क्या
करे! मेघ तो
आये थे कि भर
देते, मगर
घड़ा उलटा रखा
था। और घड़ा
सीधा होना न
चाहे! उसके
उलटे होने में
ही मोह—
आसक्तियां बन
गयी हों। उलटे
होने को ही
उसने जीवन—चर्या
समझ लिया हो!
उलटा होना ही
उसकी दृष्टि
हो, उसका
दर्शन हो।
उसका भरोसा हो
कि शीर्षासन
करने से ही
परमात्मा
मिलता है—तो
लाख बरसा करें
बादल, चमके
बिजलियां, लेकिन
घड़ा खाली का
खाली रहेगा।
फिर
कुछ घड़े हैं, जो
उलटे भी नहीं
हैं, मगर
फूटे हैं। और
उन्होंने
फूटे होने में
अपने न्यस्त
स्वार्थ जोड़
रखे हैं। फूटे
होने में वे
गौरव का अनुभव
करते हैं! छिद्रों
को वे आभूषण
मानते हैं! तो
लाख बरसा करें
बादल, और
घड़ा सीधा भी
रखा हो, लेकिन
सछिद्र हो, तो कैसे
भरेगा? भरता
भी रहेगा और
खाली भी होता
रहेगा।
एक
सूफी फकीर के
पास एक युवक
ने आकर पूछा
कि 'मैं बहुत
दार्शनिकों
के पास गया
हूं बहुत
मनीषियों का
सत्संग किया
है, लेकिन
मेरी समस्या
सुलझती नहीं।
किसी ने मुझे
आपके पास भेजा
है। कहा है कि
वहा सुलझ
जायें, तो
सुलझ जायें, नहीं तो फिर
समझना कि
सुलझेंगी ही
नहीं।
क्योंकि यह
आखिरी
व्यक्ति है, जो सुलझा
दें तो सुलझा
दें।’
उस
फकीर ने कहा
कि 'तेरी
समस्याएं
पीछे
सुलझाऊगां।
अभी तो मैं
कुएं पर पानी
भरने जा रहा
था। मगर यह हो
सकता है कि तू
भी मेरे साथ
चल, और कौन
जाने पानी
भरते— भरते ही
बात बन जाये, तो बन जाये!
तेरी
समस्याएं भी
सुलझ जायें—मेरा
पानी भी भर
जाये!'
युवक
तो समझा कि यह
आदमी पागल है!
इसके पानी
भरने से और
मेरी
समस्याओं का
क्या संबंध? लाख
यह पानी भरे, मेरी
समस्याएं
इसने सुनीं भी
नहीं अभी; पूछी
भी नहीं!
मैंने अभी कुछ
कहा भी नहीं
कि मेरी तकलीफ
क्या है, मेरी
पीड़ा क्या है!
और यह पानी
भरने से हल
करने लगा। मैं
भी किस पागल
के पास आ गया!
दूर से यात्रा
करके आया!
जिन्होंने
भेजा है, मालूम
होता है, मजाक
किया है। लगता
है : थक गये
होंगे मेरे
प्रश्नों से,
तो इस
महामूढ़ के पास
भेज दिया है!
लेकिन अब आ ही गया
हूं तो चलो, इतना और सही।
चार कदम और
सही; कुंए
तक और चला
चलूं।
रास्ते
में उस फकीर
ने कहा, 'लेकिन
एक शर्त खयाल
रखना। जब मैं
पानी भरूं, तो बीच में
मत बोलना—बोलना
ही मत। अगर
इतनी सबर कर
सके तू इतना
संयम कर सके
तो मैं पक्का
वायदा करता
हूं कि तेरी
सारी समस्याओं
को सुलझा
दूंगा। समझ कि
सुलझा ही दीं।
तू फिक्र छोड़।
मगर इतना संयम
तू दिखाना कि
जब मैं पानी
भरूं, तो बीच
में मत बोलना,
चाहे लाख
उत्तेजना उठे।
जैसे खुजली
उठती है, ऐसी
उठेगी
उत्तेजना!'
वह
युवक भी सोचने
लगा कि मेरी
समस्याओं का
इसको पता नहीं।
कहां की खुजली; कहां
का पानी! ये
बातें क्या कर
रहा है! पर
उसने कहा, 'मैं
क्यों
बोलूंगा; तू
भर पानी!'
लेकिन
मुश्किल हो गया—न
बोलना
मुश्किल हो
गया। क्योंकि
जब उस फकीर ने
बालटी अपनी
कुएं में डाली, तो
वह देखकर दंग
रह गया। बालटी
में छेद ही
छेद थे! जैसे
छेदों से ही
मिलकर बनायी
गयी हो! इस
बालटी में कब
पानी भरेगा! अनंतकाल
में भी नहीं
भरनेवाला है।
पक्का पागल है
यह आदमी—और
मुझसे कहता है
बोलना मत! अब न
बोलूं तो
कैसे! मगर फिर
भी उसने कहा
कि थीड़ी देर
तो संयम रखूं।
देखूं—यह करता
क्या है!
उस
फकीर ने बालटी
डाली, खड़खड़ायी
बहुत; आवाज
की बहुत कुएं
में। और कुएं
में बालटी गयी,
तो छेदवाली
थी, तो भी
भर गयी। जब
पानी में डूबी
रही, तो
भरी हुई रही।
देख ले झांककर.......
उसने कि बालटी
भर गयी है, फिर
खींचना शुरू
किया। इधर
बालटी ऊपर उठी
पानी से कि
पानी गिरना
शुरू हुआ। बड़ा
शोरगुल कुएं
में मचा पानी
के गिरने का।
ऊपर तक आते—
आते बालटी फिर
खाली हो गयी
थी। उसने फिर
बालटी डाली।
जब तीसरी बार
उसने बालटी
डाली, उस
युवक ने कहा, 'ठहरिये
महानुभाव! अब
बहुत हो गया।
बरदाश्त की एक
सीमा होती है।
इस बालटी में
जन्मों—जन्मों
तक पानी
भरनेवाला
नहीं। मैं कब
तक खड़ा
रहूंगा! इस
बालटी में
पानी भर सकता
ही नहीं!'
उस
फकीर ने कहा, 'तुमने
शर्त तोड़ दी।
अब तुम रास्ते
लग जाओ। अब
तुम बात ही मत
उठाओ। मुझे
तुमसे कुछ
लेना—देना
नहीं। तुममें
शिष्य होने की
पात्रता ही
नहीं है।
मैंने कहा था—चुप
रहना।’
उस
युवक ने कहा, 'तो
मैं भी आपको
कहे देता हूं
कि अगर यह
शिष्य होने की
पात्रता है, तो तुम्हें
जिंदगी में
कोई शिष्य
नहीं मिलेगा।
कब तक चुप
रहते! तीन बार
देख चुका अपनी
आंखों से। यह
तो तीस हजार
बार में भी
नहीं
भरनेवाली! गिनती
का कोई सवाल
ही नहीं है।
यह जन्मों —जन्मों
में नहीं
भरनेवाली है।’
उस
फकीर ने कहा, ' अगर
इतनी अकल
तुझमें है, सच में अगर
इतनी अकल
तुझमें है, तो मेरे पास
आने की जरूरत
ही न होती। लग—
अपने रास्ते लग
जा।’
जब
उसने यह कहा—युवक
चल तो पड़ा, लेकिन
रास्ते में
सोचने लगा :
उसने बात तो
पते की कही कि
अगर इतनी अकल
तुझमें होती!
कुछ मामले में
राजू तो मालूम
पड़ता है! यह
आदमी पागल तो
मालूम होता है,
लेकिन सुना
है कि कभी—कभी
परमहंसों में
भी पागल जैसी
लक्षणा होती है।
कौन जाने—मैं थीड़ी
देर चुप ही
रहता, देखता!
आखिर यह भी तो
थकता। मुझे तो
खड़े ही रहना
था; इसको
तो भरना भी था।
खींचता, फिर
गिराता; फिर
खींचता, फिर
गिराता। इसको
पहले थकने
देना था। और
यह बूढ़ा आदमी,
मैं जवान
आदमी; मैं
देखने में थक
गया। इतनी
जल्दी क्या
थी! थीड़ी देर रुक
ही जाता घंटे
दो घंटे!
रातभर
सो न सका।
सुबह ही वापस
फकीर के पास
पहुंच गया।
पैरों पर गिरा
और कहा, 'मुझे
माफ कर दो, मेरी
भूल थी। मैं संयम
न रख सका। मैं
शर्त पूरी न
कर सका।’
फकीर
ने कहा, 'लेकिन
मुझे कुछ और
कहना नहीं है।
इतना ही कहना
है कि बालटी
फूटी हो, तो
जन्मों—जन्मों
तक भी कुंए से
पानी भरो, तो
नहीं भरेगा।
यह तुझे
दिखायी पड़ गया।
अब तू अपनी
बालटी की
फिक्र ले।
तेरी
समस्याएं
क्या हैं—तेरी
बालटी का फूटा
होना।’
यूं
तो अमृत
प्रतिपल बरस
रहा है; परमात्मा
हर घड़ी मौजूद
है; रोशनी
चारों तरफ तैर
रही है—और तुम
अंधेरे में
खड़े हो! जरूर आंख
बंद होगी! और
तुम चीख—पुकार
मचा रहे हो कि
बड़ा अंधेरा
है! आंख भी
नहीं खोलते! आंख
बंद करने में
तुम्हारे
न्यस्त
स्वार्थ हैं।
अंधे होने में
तुम्हें
सुविधा है कुछ।
आंख खोलने में
तुम्हें डर है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ट्रेन में
यात्रा कर रहा
था। टिकिट
चेकर आया।
मुल्ला से
टिकिट पूछी
उसने। सूटकेस
खोल डाला; बिस्तर
खोल डाला। एक—एक
सामान उलट—पलट
डाला। पूरे
डब्बे में
सामान फैला
दिया। टिकिट
चेकर भी घबड़ा
गया। उसने कहा
कि 'भई
मुझे पूरी
ट्रेन के
यात्रियों की
टिकिटें देखनी
हैं। अगर एक—एक
यात्री इतना
समय ले! ऐसा क्या
छिपाकर रखा है
टिकिट! क्या——मामला
क्या है? सारा
बिस्तर खोल
डाला। तकिये
की खोल खींचकर
बाहर कर ली, जैसे उसके
अंदर टिकिट
हो! बिस्तर
में रखे एक—एक
कोट—कमीज की
जेबें टटोल
डालीं। तुम कर
क्या रहे हो?' सारे कपड़े
देख डाले। खुद
के कपड़े जो
पहने हुए थे
वे देख डाले।
और जब वह
टिकिट
कलेक्टर की
जेब में हाथ
डालने लगा, तो उसने कहा,
'ठहर! तू
बिलकुल पागल
है। तेरी
टिकिट मेरी
जेब में कहां
से होगी! और तू
तो ऐसा लगता
है जैसे पूरी
ट्रेन के
आदमियों का
सामान देखेगा!
भाड़ में जाने
दे टिकिट। तू
जा भैया। तुझे
जहां जाना हो,
जा! मगर एक
बात पूछना है
तुझसे। कि
तूने सब देख
डाला, मगर
यह तेरे कोट
की जो ऊपर की
जेब है, यह
तूने नहीं
देखी?'
उसने
कहा,
'उसकी तो
तुम बात ही मत
उठाना। उस जेब
को मैं कभी
देखूंगा ही
नहीं। जब तक
मेरी सांस
चलती है, मैं
उस जेब को
नहीं देखूंगा!'
उसने
कहा,
'क्यों? यह.......!'
तब
तक तो पूरा
डब्बा भी
उत्सुक हो गया
धीरे— धीरे।
भीड़ लग गयी कि 'बात
क्या है! आखिर
इस जेब की
क्या बात है!
इसको क्यों
नहीं देखते
हो! दूसरों तक
की जेबें
देखने लगा।
टिकिट
कलेक्टर की
जेब में कहां
से तेरा टिकिट
हो सकता है!
मगर अपनी जेब
नहीं देखता!'
उसने
कहा,
'देखो जी, यह है बात
निजी। यह तो
सभ्य आदमियों
को पूछनी नहीं
चाहिए।
असभ्यता है यह।
मगर अब तुम
जिद्द ही किये
हो, तो कहे
देता हूं। यह
जेब मैं जिंदा
रहते नहीं
देखूंगा, इसलिए
नहीं देखूंगा
कि यही जेब तो
अब मेरी एकमात्र
आशा है कि
शायद इसमें
टिकिट हो! अगर
इसको भी मैंने
देख लिया और
टिकिट न पायी,
फिर क्या
होगा! अंतिम
संभावना भी
गयी! पहले मुझे
औरों की जेबें
देख लेने दो।
पूरा डब्बा
छानूंगा।
ट्रेन पड़ी है।
अरे कहीं भी
सरक गयी हो; इधर—उधर हो
गयी हो। किसी
ने उठाकर रख
ली हो। इस जेब
को तो मैं
बचाये रखूंगा।
इसमें मेरी
सारी आशा सुरक्षित
है!'
इस
पर तुम हंसते
हो,
मगर यह
तुम्हारी दशा
भी है। कुछ
जेबें हैं, जो तुम कभी
नहीं देखते।
उनमें
तुम्हारी आशा
सुरक्षित है।
तुम डरते हो, तुम भयभीत
होते हो।
मैं
विद्यार्थी
था,
तो मेरे एक
शिक्षक थे, जो बड़े
आस्तिक थे। और
उनसे मेरा लगाव
था। तो उनके
घर मैं पहुंच
जाता था और
उनकी पूजा—प्रार्थना
में संदेह खडे
करता कि आप यह
क्या कर रहे
हैं? यह
पत्थर की
मूर्ति के
सामने आप बैठे
घंटी बजा रहे
हैं! कुछ तो
होश लाओ! ऐसे
आप होशियार
आदमी हैं, बुद्धिमान
आदमी हैं।
आपको शरम नहीं
आती। एक पत्थर
की मूर्ति के
सामने घंटी
बजा रहे हो!
अरे, अगर मूर्ति
भी घंटी आपके
सामने बजाये,
तो भी शर्म
आनी चाहिए कि
यह मूर्ति और
मेरे सामने
घंटी बजा रही
है!
तो
भी बरदाश्त के
बाहर हो जाना
चाहिए। मगर
तुम तो हद्द
कर रहे हो! मूर्ति
तो कुछ करती
नहीं; बैठी है
गुमसुम। तुम
घंटी बजा रहे
हो! और जनम हो
गये तुम्हें
घंटी बजाते, मिला क्या
है?'
वे
आदमी सच्चे और
ईमानदार थे।
उन्होंने
मुझसे कहा कि 'मिला
तो कुछ भी
नहीं है। बात
तो तुम ठीक
कहते हो। मगर
जिंदगीभर हो
गया मुझे इसी
पूजा में, अब
तुम मत छेड़ो
यह बात। अब
मेरे संदेह
पुन: मत जगाओ।
अब मैं का
होने के करीब
हूं अब यह मौत
कब मेरे द्वार
पर आ जायेगी, पता नहीं।
तुम्हें
देखकर मैं
डरता हूं। तुम
आते हो, तो
कुछ संदेह खड़ा
कर जाते हो।
तुम तो फिर
चले जाते हो; तुम्हें तो
कुछ फिक्र
नहीं पड़ी।
लेकिन मुझे वह
संदेह काटता
है। मेरे भीतर
चिंता बन जाता
है।’
फिर
मैं
विश्वविद्यालय
चला गया, तो
साल में एकाध
बार ही लौटता
था। जब जाता, तो उनके घर
जरूर जाता। वे
मुझसे एक दिन
बोले कि 'अब
तुम मत आया
करो। हालांकि
मैं राह देखता
हूं सालभर
तुम्हारी कि
कब तम आओगे।
पता नहीं इस
बार जीवित
रहूंगा कि
नहीं रहूंगा;
तुमसे मिल
सकूंगा या
नहीं! लेकिन
जब तुम आते हो,
तो मुझे डर
लगता है कि
फिर तुम कुछ
उपद्रव की बात
करोगे। तुम
कुछ कह जाओगे।
तुम मानेगे
नहीं। तुम
मेरी श्रद्धा
को झकझोर डाल
रहे हो। तुमने
धीरे— धीरे
मेरी श्रद्धा
की सब ईंटें
खींच ली। पूरा
मंदिर मेरा
गिर गया है।
अब मैं पूजा
करता हूं तो
भी मैं जानता
हूं कि मैं यह क्या
मूढ़ता कर रहा
हूं। रुक भी
नहीं सकता, क्योंकि
जिंदगीभर
पूजा की है।
अब क्या मरते
वक्त—अब कैसे
पूजा छोड़ दूं!
माना कि नहीं
कुछ सार दिखायी
पड़ता है, नहीं
कुछ पाया है।
मगर फिर भी
कहीं एक भरोसा
बना हुआ है कि
इतने लोग करते
हैं, तो सब
गलत तो न करते
होंगे! करोड़ों—करोड़ों
लोग सारी
दुनिया में
पूजा कर रहे
हैं अलग— अलग
ढंग से। तो सब
पागल तो नहीं
हो सकते!'
मैंने
उनसे कहा, 'वे
भी यही सोचते
हैं। वे भी जब
करोड़ों को
गिनते हैं, तो तुम भी
उसमें एक होते
हो। और उनको
क्या पता कि
तुम्हारी
क्या हालत हो
रही है! तुम भी
उनको गिन रहे हो।
और मैं बहुतों
को जानता हूं
जितने मुझसे
परिचित हैं, उनमें से एक
की पूजा भी
सार्थक नहीं
मैंने पायी है।
और सब घबड़ाते
हैं कि उनका
संदेह न छेड़
देना। उनके
भीतर दबी हुई
शंकाएं न उठा
देना। मगर अगर
इन शंकाओं को
नहीं जगाओगे,
तो
तुम्हारी
आस्था सदा
झूठी रहेगी।’
आखिरी
बार मैं गया, तो
उन्होंने खबर
पहुंचाई अपने
लड़के से कि 'मेरी तबियत
बहुत खराब है,
इसलिए कृपा
करके देखने मत
आना। क्योंकि
अब मैं बिलकुल
मरण—शैया पर
पड़ा हूं। यूं
मन में बड़ी
इच्छा है कि
एक बार
तुम्हें देख
लूं मगर नहीं,
तुम आना मत।
क्योंकि मैं
नहीं चाहता कि
किसी नास्तिक
भाव में मर
जाऊं!'
मैंने
उनके लडके से
कहा कि 'एक
बार तो मैं
आऊंगा, मुझे
कोई रोक सकता
नहीं। तुम
जाकर कह दो कि
मैं आ रहा हूं
वे तैयारी रखें।
उन्हें जितनी
आस्तिकता
मजबूत करनी हो,
वह करके
रखें। मैं आ
रहा हूं। और
यह मेरा आखिरी
आना है, फिर
मैं नहीं आऊंगा।’
मैं
उनके पास गया।
मैंने कहा कि 'सोचो
तो, मैं न
भी आऊं, तो
भी यह
तुम्हारी
आस्तिकता कोई
आस्तिकता है! जो
इतनी भयभीत है,
जो इतनी
कायर है! यूं
तुम मरोगे, तो तुम
नास्तिक ही मर
रहे हो। क्यों
धोखा ओढ़े हुए
हो!'
उन्होंने
कहा,
'तुम न माने,
तुम आ गये!
मुझे मर जाने
दो। मुझे मेरी
आस्थाओं को
पकड़े मर जाने
दो।’
मैंने
कहा,
'अगर वे
झूठी हैं
आस्थाएं, तो
क्या होगा
पकड़कर मर जाने
से! कम से कम
मरते वक्त इस
भाव से तो मरो
कि मैं किसी
झूठ को पकड़े हुए
नहीं मर रहा
हूं। भला मुझे
सत्य न मिला
हो, लेकिन
मैंने किसी
झूठ को नहीं
पकड़ा है। कम
से कम इतनी
निष्ठा तो
तुम्हारी
परमात्मा के
सामने रहेगी।
इतना तो तुम
कह सकोगे कि
नहीं पा सका
सत्य, मानता
हूं लेकिन झूठ
को भी नहीं
पकड़ा। और
जिसने झूठ को
नहीं पकड़ा, वह सत्य को
पाने का हकदार
हो जाता है।
मरते वक्त तो
कम से कम ईमान
ले आओ। और
मेरे लिए तो
ईमान का यही
अर्थ होता है :
सत्य में
निष्ठा—झूठे
आश्वासनों
में नहीं।’
पूर्णानंद!
तुम्हारा
प्रश्न
महत्वपूर्ण
है। तुम कहते
हो : 'आप्तपुरुषों
का यह मंगल—वचन
क्या कभी सच
होगा?'
मेरा
स्वर्णिम
भारत
आप्तपुरुष तो
आशीष ही देते
हैं। उनके पास
और कुछ देने
को है भी नहीं।
उनसे तो फूल
ही झरते हैं।
वे तो
तुम्हारे लिए
प्रार्थनाओं
से ही भरे हुए
हैं। वे तो
चाहते हैं कि
तुम्हारे
जीवन में
सुगंध उड़े, गीत
जगें, नृत्य
हो। तुम्हारे
जीवन में हजार—हजार
कमल खिले।
तुम्हारे
जीवन में
रसधार बहे।
लेकिन तुम
बहने दो, तब
ना! तुम तो हर तरह
से अड़ंगा खड़ा
करते हो। और
तुम्हारे
बिना कोई
जबरदस्ती
तुम्हें सुखी
नहीं कर सकता।
यह
प्रार्थना तो
प्यारी है : 'सब
सुखी हों।’ लेकिन
तुम्हारे
स्वार्थ तो
दुख से जुड़े
हैं। तुम कैसे
सुखी होओगे!
तुम मेरी बात
सुनकर शायद
चौंको। लेकिन
मैं दोहरा दूं
ताकि तुम समझ
लो ठीक से।
तुम्हारे
स्वार्थ दुख
से जुड़े हैं।
तुम्हारा
सारा जीवन दुख
में जड़ें
जमाये बैठा है।
तुम सुखी नहीं
होना चाहते, हालांकि
तुम कहते हो
कि मैं सुखी
होना चाहता' हूं। मगर
तुम्हारे
सुखी होना
चाहने का जो
ढंग है, वह
भी तुम्हें
सिर्फ दुखी
करता है, और
कुछ भी नहीं।
क्योंकि सुखी
होने की पहली
शर्त है : सुख
को मत चाहो।
अब तुम थीड़ी
मुश्किल में
पड़ोगे। इस
शर्त को जो
पूरी करे, वही
सुखी हो सकता
है।
सुख
को मत चाहो।
क्योंकि
जिसने सुख
चाहा, वह दुखी
हुआ। इस
दुनिया में
सारे लोग सुख
चाहते हैं।
कौन है जो सुख
नहीं चाहता!
लेकिन फिर सारे
लोग दुखी
क्यों हैं? सुख की चाह
में ही दुख के
बीज छिपे हैं।
सुख
को चाहता कौन
है?
पहली तो बात
: दुखी आदमी
चाहता है। जो
दुखी है, वह
सुख चाहता है।
दुखी क्यों है?
यह तो कभी
नहीं सोचता।
लेकिन सुख
चाहता है।
दुखी है, तो
कारण होंगे।
दुखी है, तो
बीज उसने नीम
के बोये होंगे;
हां, चाहता
है कि आम लग
जायें! मगर
उसकी चाह से थीड़े
ही आम लगेंगे।
बीज अगर नीम
के बोता है, और चाह अगर
आम की करता है,
तो पागल है।
तो रोज—रोज
दुखी होगा।
रोज—रोज विषाद
से भरेगा।
क्योंकि जब भी
फल लगेंगे, कड़वे नीम के
ही फल लगेंगे।
बीज ही नीम के
तुम बो रहे हो।
पहली
तो भ्रांति यह
है—समस्त
बुद्धपुरुषों
ने कहा है—तृष्णा
दुष्पूर है।
यह समस्त धर्म
की आधारशिला
है : तृष्णा दुष्पूर
है। जब तक तुम
मांग कर रहे
हो,
वासना से
भरे हो, तब
तक तुम दुखी
रहोगे।
क्योंकि
तुम्हारी
सारी वासना
तुम्हें रोज—रोज
असफलता के
गट्टों में गिरायेगी।
लाओत्सु
ने कहा है : 'मुझे
कोई दुखी तो
करे! मुझे कोई
दुखी नहीं कर
सकता, क्योंकि
मैं सुख
मांगता ही
नहीं।’ उसने
यह भी कहा है : 'मुझे कोई
हराये तो!
मुझे कोई हरा
ही नहीं सकता।’
और यह मत
समझना कि
लाओत्सु कोई
पहलवान है; कि कोई
मोहम्द अली
है! लेकिन
लाओत्सु कहता
है : 'कोई
मुझे हराये
तो! मुझे कोई
हरा नहीं सकता।
क्योंकि मैं
विजय मांगता
ही नहीं।’ लाओत्सु
कहता है, 'तुम
मुझे कैसे
हराओगे, अगर
मैं विजय
चाहता ही
नहीं! अगर मैं
हार से भी राजी
हूं तो तुम
मुझे कैसे
हराओगे, अगर
मैं हार में
भी आनंदित हूं
तो तुम मुझे
कैसे हराओगे!'
मैं
छोटा था, तो
मेरे पड़ोस में
एक अखाड़ा था।
पहले तो मैं
यूं ही चला
जाता था देखने।
वहां अकसर
पहलवान आते
रहते। एक
पहलवान में
मैं जरा
उत्सुक हो गया।
उसे मैं कभी
भूला ही नहीं
फिर। आज भी
उसकी तस्वीर
मुझे याद है!
उसका नाम भी
मुझे पता नहीं।
अजनबी था। नया—नया
आया था।
नागपंचमी का
दिन था, उस
अखाड़े में
कुश्तियां हो
रही थीं। मैं
भी देखने
पहुंचता था।
उस पहलवान को
मैं नहीं भूला।
पता नहीं क्या
उसका नाम था, कहा से आया
था, कौन था—कुछ
पता नहीं।
लेकिन उसकी
तसवीर नहीं
भूलती। वह जब
कुश्ती लड़ा, तो उसके
लड़ने का लहजा
ही कुछ और था।
ऐसे मैंने
बहुत पहलवान
कुश्ती लड़ते
देखे थे, क्योंकि
मेरे मोहल्ले
में ही अखाड़ा
था और जब भी
मुझे फुर्सत
होती, चला
जाता। वहा
चलता ही रहता
कुछ न कुछ
उपद्रव। वहा
बैड—बाजा बजता
ही रहता। जब
देखो तब वहां
अखाड़ा। जब
देखो तब वहां
कुश्ती! गांव
में कुश्ती का
शौक था और कई
अखाड़े थे।
छोटा—सा गांव,
लेकिन बहुत
अखाड़े थे। और
हर अखाड़े में
प्रतिद्वंद्विता
थी।
उस
दिन मैंने जो
कुश्ती देखी, वह
आदमी इस मस्ती
से लड़ा, जिससे
लड़ा वह उससे
कम से कम
दुगने वजन का
आदमी था। उसकी
हार निश्चित
थी। मगर वह
इतनी प्रफुल्लता
से लड़ा! हार भी
गया। वह चारों
खाने चित्त
पड़ा है, और
वह मजबूत
पहलवान उसकी
छाती पर बैठा
है, और
सारे लोग
तालियां बजा
रहे हैं, प्रशंसा
में जो जीता
है उसकी!
लेकिन जो नीचे
पड़ा था, वह
खिलखिलाकर
हंसा। उसकी
खिलखिलाहट
मुझे नहीं
भूलती। उसका
खिलखिलाकर
हंसना—एक सन्नाटा
छा गया! भीड़ जो
ताली बजा रही
थी, वह
एकदम रुक गयी।
हारा हुआ आदमी—और
खिलखिलाकर
हंसे!
वह
पहलवान जो
उसकी छाती पर
बैठा था, एक
क्षण को
हतप्रभ हो
गया! उसकी भी
समझ के बाहर था।
कुश्तियां
उसने जिंदगी
में बहुत लड़ी
होंगी; जीता
होगा, हारा
होगा। हारा
होगा तो रोया
होगा। जीता
होगा तो हंसा
होगा। मगर
हारे हुए को
हंसते उसने
कभी नहीं देखा
था! उसने पूछा
कि 'तुम
क्यों हंस रहे
हो?'
वह
पहलवान कहने
लगा कि 'मैं
इसलिए हंस रहा
हूं कि मेरे
लिए पहलवानी
सिर्फ खेल है।
न हारना—न जीत।
मौज है। तुम
ऊपर, कि
मैं ऊपर—क्या
फर्क पड़ता है!'
उस
व्यक्ति को
कुछ सूत्र है
याद। इस
व्यक्ति को
कैसे हराओगे!
क्या फर्क
पड़ता है—कोई
तो ऊपर होगा, कोई
तो नीचे होगा!
दो आदमी
लड़ेंगे, तो
एक नीचे आयेगा,
एक ऊपर
आयेगा। यह
स्वाभाविक है।
दोनों तो ऊपर
हो नहीं सकते!
दोनों नीचे
नहीं हो सकते।
उसकी बात मुझे
भूली ही नहीं।
और जब वर्षों
बाद में
लाओत्सु को
पढ़ा, तो
तल्ला मुझे उस
पहलवान की बात
याद आ गई।
शायद उसने
लाओत्सु का
नाम भी न सुना
हो। लेकिन
सूत्र तो उसे
याद था। वह
हार में हंस
सका था, क्योंकि
हार और जीत सब
खेल है।
जीतने
के लिए लड़ा ही
नहीं था। उसके
लड़ने का ढंग
भी अलग था।
बहुत मैंने
पहलवान लड़ते
देखे। मगर
उसका लड़ने का
ढंग अलग था।
वह पहले नाचा!
पूरे अखाड़े
में नाचा। लोग
चौंककर देखने
लगे कि वह
क्या कर रहा
है! उछला—कूदा—बड़ा
प्रफुल्लित
हुआ! जैसे
छोटे बच्चे, वैसा
ही हलका—फुलका
आदमी था।
दुबला—पतला था।
लड़ा भी बड़ी
शानदार
कुश्ती। अपने
से दुगने वजनी
आदमी से लड़ा।
जरा भी संकोच
नहीं। हार का
कोई सवाल ही
नहीं, कोई
डर ही नहीं, कोई भय ही
नहीं। यूं लड़ा
जैसे खेल—खिलवाड़
हो। जैसे छोटे
बच्चे से उसका
बाप लड़े। तो
अब बच्चे को
हराता थीड़े ही
है बाप, जब
कुश्ती लड़ता
है। खुद जल्दी
से लेट जाता
है। बच्चे को
छाती पर चढ़
जाने देता है।
और बच्चा
किलकारी
मारता है छाती
पर बैठकर! और बच्चा
सोचता है : 'जीत
गये! देखो, पापा
को हराया!
डैडी को
चारोखाने
चित्त कर दिया!'
उसे क्या
पता कि पापा
खुद ही
चारोखाने
चित्त हो गये
हैं।
इस
ढंग से लड़ा।
लड़ने में एक
मौज थी, एक
नृत्य का भाव
था। हारकर भी
हंसा। हारकर
भी नाचा।
जीतनेवाले की
जीत को मिट्टी
कर दिया उसने!
जीतनेवाले को
लोग भूल गये!
लोगों ने फूल—मालायें
उसके गले में
डाल दीं।
जीतनेवाला
यूं खड़ा रहा
किनारे पर! आंखें
फाड़े देखता
रहा कि यह हो
क्या रहा है!
कि हारे हुए
आदमी के गले
में फूल—मालायें
डाली गयीं। और
जिन्होंने
डालीं, वे
कोई बहुत बड़े
ज्ञानी नहीं
थे; सीधे—साधे
लोग थे। मगर
उनको भी यह
बात समझ में आ
गयी कि यह
आदमी कुछ
अनूठा है! यह
हारना जानता
ही नहीं। इसे
तुम हरा ही
नहीं सकते।
और
उसने सारी फूल—मालायें
ले जाकर जो
जीत गया था, उसको
दे दीं कि 'तुम
ऐसे दुखी न
होओ; ऐसे
परेशान न होओ।
तुम तो जीते
हो, तुम
उदास खड़े हो!
अरे, जब
मैं हारकर नाच
रहा हूं तो
तुम भी नाचो।
तुम तो जीते
हो !''
मगर
वह जो जीता था, क्या
खाक नाचे! वह
जीतकर भी न
नाच सका। वह
जीतकर भी
विषादग्रस्त
हो गया।
पछताया होगा
कि कैसे आदमी
से कुश्ती
लड़ी! ऐसे आदमी
से लड़ना ही
नहीं था।
फिर
वह पहलवान
गांव में कोई
दस—पंद्रह दिन
रहा,
लेकिन कोई
उससे लड़ने को
राजी नहीं था।
कोई लड़ा ही
नहीं! मैं रोज
अखाड़े
पहुंचता कि उसकी
कोई कुश्ती
होनेवाली है!
मैं उससे भी
पूछता कि 'भई,
कुश्ती
तुम्हारी कब
होगी?' वह
कहता, 'मैं
खुद परेशान
हूं। कोई लड़ता
ही नहीं!'
मैंने
कहा,
'फिर मैं ही
हूं!' मैं
छोटा था। उसने
कहा, 'भई तू!
अभी तू बहुत
छोटा है!' मैंने
कहा, 'रहने
दो, क्या
फिक्र पड़ती
है! तुम्हें
हारना ही है, मुझसे हार
जाना।
तुम्हें
हंसना ही है, मुझसे हारकर
हंस लेना! और
तुम्हें दिल
हो मुझे हराने
का, तो
मुझे हराकर
हंस लेना!'
उससे
मेरी दोस्ती
हो गयी। वह
कहने लगा, 'तुमसे
तो मैं हारा
ही हुआ हूं।
तुम फिक्र मत
करो।’ वह
जब तक रहा, रोज
मुझे बुला ले
जाता था—नदी
नहाने जाता, तो मुझे
बुला लेता।
खाना खाने
कहीं उसका
निमंत्रण होता,
तो मुझे
बुला ले जाता।
अखाड़े में
घंटों हम साथ बैठे
रहते। मैं
बहुत छोटा था,
उसकी उम्र
तो बहुत थी।
मगर एक दोस्ती
हमारे बीच बन
गयी। एक सूत्र
सध गया।
तृष्णा
दुष्पूर है
और इसलिए
दुखों में ले
जाती है। यह
पा लूं वह पा
लूं यह जीत
लूं—बस, फिर
हार के तुमने
बीज बोये। फिर
तुमने अपने
लिए संताप
पैदा किया।
तो
ऋषि तो कहते
हैं : 'सब सुखी हों—
सर्वे भवन्तु
सुखिन: —यह
उनकी
प्रार्थना
शुभ; ये
उनके आशीष
प्यारे, मगर
तुम सुखी कैसे
हो सकोगे? तुम्हारे
तो दुख में
बहुत गहरे
नियोजन हैं।
पहला तो यह कि
तुम सुख चाहते
हो, इसलिए
सुखी न हो
सकोगे। दूसरा
यह कि तुम
बहुत गहरे में
दुख के साथ
विवाहित हो, तुम्हारे
गठबंधन हो गये
हैं; तुम्हारे
सात फेरे पड़
गये हैं।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
हम प्रत्येक
बच्चे को
जीवनभर दुखी
रहने के लिए
शिक्षा देते
हैं। और यह
बात सच है।
बच्चा जब दुखी
होता है, बीमार
होता है, तो
मां भी उसके
पास बैठती है,
पिता भी
उसके पास
बैठता है। कोई
उसका माथा
दबाता है, कोई
पैर दबाता है;
दवा कोई
लाता है। जब
भी वह दुखी
होता है, तब
उसे संवेदना
मिलती है, सहानुभूति
मिलती है। और
जब भी वह
नाचता—कूदता
है, तो
डांट—फटकार
मिलती है। जब
भी हंसता है, किलकारी
मारता है, दौड़ता
है, छलांग
लगाता है, चीजें
गिरा देता है,
चीजें तोड़
देता है, तब
उसको डांट—फटकार
मिलती है। जब
वह
प्रफुल्लित
होता है, सारा
घर उसका
दुश्मन हो
जाता है। और
जब वह बीमार
होता है, मुरदा
होने के करीब
होता है—सब
उसके मित्र हो
जाते हैं!
कहीं गहरे में
यह बात बैठ
जाती है। ये
फेरे पड़ने लगे।
यह दुख के साथ
विवाह रचाया
जाने लगा। यह
शहनाई बजी। एक
बात किसी
अचेतन में
उतरने लगी कि
दुख में लोगों
की सहानुभुति
होती है; सुख
में लोगों की सहानुभुति
नहीं होती।
दुखी
आदमी के प्रति
लोग सद्भाव से
भरे होते हैं!
तुम्हारे घर
में आग लग
जाये, तो सारा
मुहल्ला
तुमसे सहानुभुति
प्रगट करेगा।
और तुम एक नया
मकान बना लो, तो सारे
मोहल्ले में
जलन और
ईर्ष्या की आग
फैल जायेगी।
कोई
तुम्हें सुखी
नहीं देखना
चाहता! तुम
सुखी होते हो, तो
लोग दुखी होते
हैं। और इतने
लोगों को दुखी
करना खतरे से
खाली नहीं है।
और तुम जब
दुखी होते हो,
तो सारे लोग
तुम्हारी
प्रशंसा करते
हैं, सहानुभूति
देते हैं।
सहानुभूति
में तुम्हें
रस आने लगता
है। अच्छा
लगता है, प्रीतिकर
लगता है। तो
दुखी होने में
तुम्हारे
स्वार्थ जुड़
जाते हैं।
मेरे
विरोध में अगर
हजारों—लाखों
लोग हैं, तो
उसका कुल कारण
इतना है कि यहां
एक आनंद का
तीर्थ
निर्मित हो
रहा है। यहां
मेरे पास
आनंदमग्न
लोगों की जमात
इकट्ठी हो रही
है। यहां
मस्तों की
दुनिया है, मतवालों की
दुनिया है।
इससे ईर्ष्या
जग रही है।
इससे हजार तरह
की ईर्ष्याएं
पैदा हो रही
हैं। इससे
बहुत जलन पैदा
हो रही है।
अगर मैं भी
लंगोटी लगाकर
और धूप में और
झाड़ के नीचे
बैठ जाऊं, तो
बड़ी
सहानुभूति
पैदा होगी। और
अपने आसपास भी
अगर मैं भूखे—नंगे
लोगों को बिठा
लूं तो बड़ी
सहानुभूति
प्रगट होती।
नोबल प्राइज
पक्की है!
लेकिन
अभी तो मुझे
सिर्फ
गालियां पड़ने
वाली हैं। मुझे
नोबल प्राइज
चाहिए भी नहीं।
मुझे गालियां
ही अच्छी हैं।
क्योंकि एक
राज मेरी समझ
में आ गया है :
अगर तुम्हें
आनंदित होना
है,
तो तुम्हें
इसकी फिक्र ही
छोड़ देनी
चाहिए।
तुम्हें
गालियां
पड़ेंगीं, तुम्हें
पत्थर पड़ेंगे,
मगर वे खा
लेने जैसे हैं।
आनंद इतनी
बहुमूल्य चीज
है कि उसके
लिए सारी
ईर्ष्याएं
झेल लेने जैसी
हैं।
लोग, जिस
भीड़ में तुम
रहते हों—तुम्हें
सुखी नहीं
देखना चाहते;
तुम्हें
दुखी देखना
चाहते हैं। इस
भीड़ के खिलाफ
तुम हिम्मत कर
सकोगे सुखी होने
की? तुम
राजी हो कि
लोगों की
गालियां पड़े,
तो कोई
फिक्र नहीं; सहानुभुति न
मिले, तो
कोई फिक्र
नहीं? तुम
तैयार हो? —तो
तुम्हारे
जीवन में सुख
का अवतरण हो
सकता है।
लेकिन गहरे
में तो तुम भी
जुड़े हो दुख
से।
स्त्रियां
इतनी दुखी
दिखाई पडती
हैं;
उसका कुल
कारण इतना है।
नहीं तो
स्त्रियां आमतोर
से प्रसन्न—चित्त
होती हैं, पुरुषों
से ज्यादा
प्रसन्न—चित्त
होती हैं।
ज्यादा
प्रफुल्लित
होती हैं, क्योंकि
ज्यादा
पार्थिव होती
हैं। उनमें
पृथ्वी का अंश
ज्यादा है।
उनमें फूल
ज्यादा खिल
सकते हैं।
लेकिन उदास और
दुखी और
परेशान—और
उसका कारण—क्योंकि
उनके पति की
सहानुभूति
मिलती ही तब
उन्हें है.......।
अगर पत्नी
प्रसन्न —चित्त
है; तो पति
की उसे कोई सहानुभुति
नहीं मिलती।
वह बीमार है, तो पति की
सहानुभूति
मिलती है। और
हम इतने
दीनहीन हो गये
हैं कि हम
सहानुभूति को
ही प्रेम समझ
लेते हैं। सहानुभुति
झूठा सिक्का
है। वह प्रेम
का धोखा है।
वह प्रेम नहीं
है। लेकिन
क्या करें!
प्रेम तो
मिलता नहीं, तो चलो
सहानुभूति
सही। न सही
असली सिक्के—नकली
सिक्के सही। न
कुछ से तो कुछ
भी अच्छा!
तो
तुम्हारे
जीवन की जड़ें
दुख में जमी
हुई हैं।
ऋषियों के
आशीष बरसते
रहे हैं।
उन्होंने सदा
चाहा कि तुम
सुखी हो जाओ।
मगर तुमने यह
चाहा है कि
तुम्हारे ऋषि
भी दुखी रहें!
तुम
तपस्वियों की
पूजा करते हो, अर्चना
करते हो।
तपस्वी का
अर्थ क्या है?
तपस्वी का
अर्थ है :
जिसकी मूढ़ता
इतनी सघन है कि
जिसे कोई
दूसरा दुख
नहीं दे रहा
है, तो वह
मूढ़ खुद ही
अपने को दुख
दे रहा है!
तपस्वी का और
क्या अर्थ
होता है!
जिसको कोई दुख
देनेवाला
नहीं मिल रहा
है, तो भी
वह सुख से
नहीं बैठ सकता।
वह खुद अपने
लिए दुख के
सारे आयोजन
करेगा। गरमी
होगी, आग
बरस रही होगी,
वह अंगीठी
जलाकर धूनी
रमायेगा अपने
चारों तरफ।
जैसे कि वैसे
ही गरमी की
कोई कमी है! कम
से कम इस देश
में तो धूनी
रमाने की कोई
जरूरत नहीं है।
मगर इस गरम
देश में भी, गरमी के
दिनों में भी
जब आग बरसती
हो, तब भी
लोग धूनी
रमायें बैठे
हैं! और जब कोई
धूनी रमाकर
बैठता है कि
तुम्हें पास
जाने में प्राण
कंपें, और
वह लपटों के
बीच बैठा है—तुम्हारा
चित्त कितना
आह्लादित
होता है कि
अहा! यह है
तपस्वी! यह है
महात्मा! और
तुम्हारे
महात्मा कहने
के कारण, तपस्वी
मानने के कारण
उसके अहंकार
की तृप्ति होती
है। और अहंकार
की तृप्ति के
लिए वह सब सुख
छोड़ने को राजी
है; वह हर
तरह से दुखी
होने को राजी
है।
तुम
भूखे को, उपवासी
को आदर देते
हो। किसी ने
दस दिन का
उपवास कर लिया
पयुर्षण के
दिनों में, तो हाथी पर
जुलूस निकालो!
बैंड—बाजे
बजाओ! कि
इन्होंने बड़ा
गजब का काम
किया कि दस
दिन भूखे रहे!
कोई दस दिन
मस्ती से खाया—पिया
इसका तुम कभी
जुलूस नहीं
निकालते! कि
यह आदमी बड़ा
मस्त है, इसको
हाथी पर
बिठायें! इसका
बैंड—बाजा
बजायें।
अच्छी दुनिया
तो तब होगी, जब कोई आदमी
दस दिन मस्त
रहा, जी भर
के खाया—पिया,
खूब पैर—पसारकर
सोया—और तुमने
उसका जुलूस
निकाला। तब
तुम थीड़ी
बुद्धिमानी
का सबूत दोगे।
तब तुम यह
सबूत दोगे कि
तुम्हारे मन
में अब सुख का
भी सम्मान
पैदा हुआ है।
अभी तो तुम
सुखी को भोगी
कहते हो। और
दुखी को
त्यागी कहते
हो। अभी दुख
को आदर देते 'हो; सुख
को अनादर देते
हो। तुम्हारे
अजीब
मूल्यांकन
हैं! तुम्हारी
जीवन—सरिणी
उलटी है!
तुम्हारा
तर्क कैसा है?
तो
लाख आप्त—वचन
बोलते रहें
ऋषि,
आशीष देते
रहें, क्या
होगा? तुम्हारी
जीवनचर्या, तुम्हारी
जीवनशैली अभी
दुख निर्भर है।
तुम कब सुख का
सम्मान करोगे?
यह
जो सूत्र है
उपनिषद् का, यह
उन दिनों का
सूत्र है, जब
अभी हमने दुख
में अपने
न्यस्त
स्वार्थों को
बहुत नहीं
जोड़ा था। यह
उन ऋषियों का
सूत्र है, जो
अभी अंगीठी
जलाकर नहीं
बैठे थे। और
जिन्होंने
कीटों की सेज
नहीं बिछाई थी।
यह उन ऋषियों
का सूत्र है, जिन्होंने
अभी तक भूखे
मरने को, उपवास
को समादर नहीं
दिया था। यह
उन ऋषियों का
सूत्र है, जो
अभी सुख को
अधार्मिक
नहीं मानते थे।
तब तो वे
प्रार्थना कर
सके. 'सर्वे
भवन्तु
सुखिनः।’ सब
के सुख के लिए
प्रार्थना कर
सके। नहीं तो
प्रार्थना
करनी थी कि हे प्रभु,
सब को
तपस्वी बना —सुखी
नहीं! सब के
लिए काटो की
सेज बिछा! कि
सब काटो पर
सोये! साधारण
काटे काम न
देते हों, तो
लोहे के खीले!
ईसाइयों
में फकीर होते
हैं,
जो अपनी कमर
में एक पट्टा
बाधे रखते हैं,
जिसमें
खीले लगे होते
हैं, जो
उनकी कमर मैं
अंदर धंस गये
होते हैं। उन
खीलों से घाव
बने रहते हैं
और वे खीले
घावों में पड़े
रहते हैं। वे
चलते हैं, हिलते
हैं, डुलते
हैं, तो
खीले चुभते
रहते हैं।
उनसे मवाद और
खून बहता रहता
है! उनका बड़ा
सम्मान किया
जाता है।
ईसाइयों
में एक
सम्प्रदाय
होता है, जिसके
फकीर अपने को
कोड़े मारते
हैं। सुबह से
उठकर जो पहला
काम है, वह
है कोड़े मारना।
जो जितने
ज्यादा कोड़े
मारता है, वह
उतना बड़ा
तपस्वी!
स्वभावत: देह
का दुश्मन है।
देह से मुक्त
हो रहा है!
जूते पहनते
हैं वे, जिनमें
नीचे खीले
अंदर लगे होते
हैं, जिनसे
पैर में घाव
बने रहते हैं;
मवाद बहती
रहती है। गैर—ईसाइयों
को इसमें
दिखाई पड़ेगा
कि यह तो
पागलपन है।
मगर ईसाइयो को
नहीं दिखाई
पड़ेगा।
ईसाइयों को
पागलपन दिखाई
पड़ता है जैन
मुनियों में!
कि यह क्या
पागलपन है कि
नंगे फिर रहे
हो! दिगंबर
जैन मुनि!
शरीर को सड़ा
रहे हो, सुखा
रहे हो! मगर
जैनों का हृदय
बड़े सम्मान से
भरा हुआ है, गद्गद् हो
उठता है कि
अहा! यह है
तपश्चर्या! ये
हैं असली
मुनि!
ये
सिर्फ
रुग्णचित्त
लोग हैं। ये
सिर्फ बीमार
हैं। ये
मानसिक रूप से
विक्षिप्त
हैं। और चूंकि
मैं सत्य को
वैसा ही कह
रहा हूं जैसा
है,
इसलिए मुझे
गाली
पड़नेवाली है।
ईसाई गाली
देंगे, जैन
गाली देंगे, हिंदू गाली
देंगे। यह मैं
जानता हूं कि
.गालियां
पड़नेवाली हैं,
अगर सत्य को
सत्य की तरह
कहना है। मगर
वक्त आ गया है
कि सत्य को
सत्य की तरह
कहा जाये।
बहुत दिन हो
गया झूठ में
तुम्हें जीते
हुए!
इस
ऋषि की
प्रार्थना को
मैं भी पूरी
करना चाहता
हूं तुम्हारे
लिए,
मगर तुम
पूरी नहीं
होने देना
चाहते। तुम
कुछ न कुछ
उपद्रव चाहते
हो, क्योंकि
उपद्रव में
लगता है कुछ
कर रहे हों—साधना,
योग। शरीर
को उलटा—तिरछा
करना, मोड़ना—मरोड़ना—तुम
समझते हो : योग
साध रहे हो
तुम! तो फिर
सर्कस में ही
सिर्फ योगी होते
हैं, जिनके
शरीर बिलकुल
रबर जैसे हो
जाते है—कि
जैसा चाहो, वैसा मोड़ो!
सर्कस
नहीं है योग।
योग शब्द का
अर्थ समझो।’योग'
शब्द का
अर्थ होता है—मिलन,
परमात्मा
से मिलन; उसकी
कला। उसकी कला
प्रेम है।
उसकी कला ये
योगासन नहीं
हैं। यह सिर
के बल खड़े
होना कोई
परमात्मा से
नहीं मिला
देगा। कोई
परमात्मा तुम
जैसा घनचक्कर
नहीं है! कि सिर
के बल खड़े हो
गये, तो
बड़ा प्रसन्न
हो जाये! अगर
मिलन भी आ रहा
होगा, तो
लौट जायेगा कि
इस उलटी खोपड़ी
से क्या मिलना!
पहले खोपड़ी तो
सीधी करो। कम
से कम आदमी की
तरह खड़े होना
तो सीखो! यह तो
जानवर भी नहीं
करते
शीर्षासन, जो
तुम कर रहे हो।
और अगर
परमात्मा को
शीर्षासन ही
करना था, तो
सिर के बल ही
खड़ा करता ना!
तुम्हें पैर
के बल खड़ा
क्यों किया
है! परमात्मा
ने कुछ भूल की
है, जिसमें
तुम्हें
सुधार करना है?
परमात्मा
ने तुम्हारे
भीतर
आनंदमग्न
होने की पूरी
क्षमता दी है।
मगर तुम्हारा
समादर गलत है, रुग्ण
है। उस कारण
सुख कैसे हो!
तुम
कृपण हो, कंजूस
हो। और सुखी
तो वही हो
सकता है, जिसको
बाटने में
आनंद आता हो।
तुम्हें तो
इकट्ठा करने
में आनंद आता
है! हम तो
कंजूसों को
कहते हैं—सरल
लोग हैं, सीधे—सादे
लोग हैं!
मैं
एक गांव में
एक कंजूस के
घर में मेहमान
हुआ—महाकंजूस!
मगर सारे गांव
में उसका आदर
यह है कि
सादगी इसको
कहते हैं!
सादा जीवन—ऊंचे
विचार! क्या
ऊंचा जीवन और
ऊंचा विचार
साथ—साथ नहीं
हो सकता? और
सादा जीवन ही
जीना हो, तो
यह तिजोड़ी को
काहे के लिए
भरकर रखे हुए
हो! मगर हर
गांव में तुम
पाओगे :
कंजूसों को
लोग कहते हैं—सादा—जीवन!
कि है लखपति, लेकिन देखो,
कपड़े कैसे
पहनता है!
सेठ
धन्नालाल की
पुत्री जब
अट्ठाइस वर्ष
की हो गई, और
आसपास के लोग
ताना देने लगे
कि यह कंजूस दहेज
देने के भय से
अपनी बेटी को
क्यारी रखे हुए
है, तो
सेठजी ने सोचा
कि अब जैसे भी
हो लड़की का
विवाह कर ही
देना चाहिए, क्योंकि जिन
लोगों के बीच
रहना है, उठना—बैठना
है, धंधा—व्यापार
करना है, उनकी
नजरों में
गिरना ठीक
नहीं।
उन्होंने
लड़के की खोज
शुरू कर दी।
पड़ोस के ही
गांव के एक
मारवाड़ी
धनपति का बेटा
चंदूलाल
उन्हें पसंद
आया। जब वे
लोग सगाई करने
के लिए
धन्नालाल के यहां
आये तो
चंदूलाल के
बाप ने पूछा—' आपकी बेटी
बुद्धिहीन
अर्थात्
फिजूलखर्ची तो
नहीं है, इस
बात का क्या
प्रमाण है? क्योंकि
हमारे घर में
आज तक कोई
फिजूलखर्च
व्यक्ति नहीं
हुआ है, और
हम नहीं चाहते
कि कोई आकर
हमारी परंपरा
से जुड़ती चली
आ रही संपत्ति
को नष्ट करे, बाप—दादों
की जमीन—जायदाद
हमें जान से
भी ज्यादा
प्यारी है। यह
देखिये मेरी
पगड़ी; मेरे
बाप को मेरे
दादा ने दी थी,
दादा को
उनके बाप ने; उन्हें उनके
पितामह ने; और उनके
पितामह ने
अपने एक बजाज
दोस्त से उधार
खरीदी थी।
क्या आपके पास
भी ऐसा
फिजूलखर्ची न
होने का कोई
ठोस प्रमाण है?'
धन्नालाल
जी बोले—'क्यों
नहीं, क्यों
नहीं। हम भी
पक्के
मारवाड़ी हैं,
कोई ऐरे —गैरे
नत्थू खैरे
नहीं।’ फिर
उन्होंने जोर
से भीतर की ओर
आवाज देकर कहा—'बेटी धन्नो,
जरा
मेहमानों के
लिए सुपाड़ी
वगैरह तो ला।’
चंद
क्षणोपरात ही
धन्नालाल की
बेटी सुंदर अल्युमीनियम
की तश्तरी में
एक बड़ी—सी
सुपाड़ी लेकर
हाजिर हुई, सबसे
पहले उसने
अपने बाप के
सामने प्लेट
की। धन्नालाल
ने सुपाड़ी को
उठाकर मुंह
में रखा; आधे
मिनिट तक यहां—वहां
मुंह में
घुमाया, फिर
सुपाड़ी बाहर
निकाल कर
सावधानीपूर्वक
रूमाल से
पोंछकर
तश्तरी में रख
अपने भावी
समधी की ओर
बढ़ाते हुए कहा—'लीजिए, अब
आप सुपाड़ी
लीजिए!'
चंदूलाल
और उसका बाप
दोनों यह
देखकर ठगे से
रह गये।
उन्हें
हतप्रभ देखकर
धन्नालाल
बोले—'अरे संकोच
की क्या बात, अपना ही घर
समझिये।
तकल्लक्क की
कतई जरूरत
नहीं। यह
सुपाड़ी तो
हमारी
पारंपरिक
संपदा है।
पिछली चार
शताब्दियों
से हमारे
परिवार के लोग
इसे खाते रहे
हैं। मेरे बाप,
मेरे बाप के
बाप, मेरे
बाप के दादा, मेरे दादा
के दादा सभी
के मुंहों में
यह रखी रही है।
मेरे दादा के
दादा के दादा
को बादशाह
अकबर के राजमहल
के बाहर यह
पड़ी मिली थी!'
ऐसा—ऐसा
सादा जीवन
जिया जा रहा
है! सुख हो तो
कैसे हो?
सुखी
होने के लिए
जीवन के सारे
आधार बदलने
आवश्यक हैं।
कृपणता में
सुख नहीं हो
सकता। सुख
बाटने में
बढ़ता है; न
बांटने से
घटता है।
संकोच से मर
जाता है; सिकोड़ने
से समाप्त हो
जाता है।
फैलने दों—बांटों।
और कभी—कभी
ऐसा भी हो
सकता है कि
जिनको तुम आमतोर
से गलत आदमी
समझते हो, वे
गलत न हों।
मेरे
एक प्रोफेसर
थे,
डाक्टर
श्री कृष्ण
सक्सेना।
उनसे मेरा
बहुत प्रेम था।
एक बात के
कारण सारे
विश्वविद्यालय
में उनकी
बदनामी थी और
वह थी शराब।
लेकिन मैं
उनके बहुत
निकट रहा।
उनके घर पर भी
बहुत दिनों तक
रहा। मैंने उन
जैसे भले आदमी
बहुत मुश्किल
से देखे। जब
मैं उनके घर
रहता, तो
वे शराब न
पीते। मैंने
एक दिन उनको
कहा कि 'फिर
मैं आपके घर न
आऊगा।
क्योंकि जब आप
मुझे घर ले
आते हैं कभी, कहते हैं, अब छुट्टी
है
विश्वविद्यालय
में एक चार
दिन की, तो
चलो मेरे साथ
मेरे घर पर
रहना, तो
मैं देखता हूं
आप शराब नहीं
पीते। मेरे
कारण यह बाधा
आपको पड़े—ठीक
नहीं।’
उन्होंने
कहा कि 'नहीं;
तुम्हारा यहां
होना मुझे
शराब से भी
ज्यादा मस्ती
देता है।
इसलिए नहीं
पीता। पीने की
जरूरत नहीं है।
कोई कारण नहीं
है।’
मैंने
उनसे कहा कि 'आपकी
आदत है!'
उन्होंने
कहा,
'आदत भी
नहीं है मेरी।
और अकेले तो
मैंने कभी
जिंदगी में पी
नहीं। जब तक
चार लोगों को
न बुला लूं जब
तक चार पीने वाले
न हों, तब
तक तो मैं
पीता ही नहीं।
कभी—कभी
महीनों नहीं
पीता, क्योंकि
जब पीनेवाले
ही साथ न हों, तो क्या
पीने का मजा।‘
इनका
बड़ा अपमान था
सारे
विश्वविद्यालय
में कि ये
शराबी हैं। बस, इस
आदमी की एक
खराबी कि यह
शराब पीता था।
एक खराब बात
हो गयी, तो
अधार्मिक है!
लेकिन इस आदमी
के जीवन की
धार्मिकता को
कोई भी नहीं
समझा।
जब
भी वे मेरे
साथ रहे, उन्होंने
कभी शराब न पी।
मैंने लाख
उन्हें कहा
किं ' आप
पियें, आपकी
आदत है!'
वे
बोलते, 'आदत
का सवाल ही
नहीं। मेरी
कोई आदत नहीं।’
और
यह मैंने जाना
कि उनकी कोई
आदत न थी। एक
बार तो मैं दो
महीने उनके घर
रहा।
उन्होंने दो
महीने शराब
नहीं पी! और
जरा भी रंचमात्र
शराब की बात
ही न उठी।
मैंने उनसे
कहा,
'दो महीने
हो गये, आप
शराब नहीं
पिये!'
उन्होंने
कहा,
'दो साल तुम
मेरे घर रहो।
यह मेरी कोई
आदत नहीं है।’
अब
मैं उस आदमी
को धार्मिक
कहूंगा, जो
शराब भी पीता
हो, और
शराब पीने की
जिसे आदत न हो।
आदतें तो सड़ी—गली
चीजों की बन
जाती हैं।
शराब जैसी चीज
की आदत न बनना
तो बड़ी साधना
की बात है।
आदतें
तो ऐसी छोटी—छोटी
चीज की बन
जाती हैं, जिसका
हिंसाब नहीं!
अगर अखबार रोज
सुबह पढ़ने की
आदत है, एक
दिन न मिले, तो दिनभर बेचैनी
होती है! अब
अखबार कोई
शराब है! नहीं
पढ़ा, तो
नहीं पढ़ा।
लेकिन बेचैनी
होती है। सुबह
से ही बस एक ही
धुन लग जाती
है—अखबार!
और
आदत तो लोगों
को पूजा तक
करने की हो
जाती है! अगर
एक दिन पूजा न
करें, तो
बेचैनी! अच्छी
आदतें नहीं
होतीं; बुरी
आदतें नहीं
होतीं। सब आदतें
बुरी होती हैं।
आदत का मतलब—गुलामी।
और गजब का है
वह आदमी, जिसको
शराब भी गुलाम
न बना पाये!
मैं तो धार्मिक
कहूंगा।
और
वे एक सुखी
आदमी थे।
धार्मिक आदमी
सुखी होगा ही।
हालांकि मेरी
धर्म की तुम
परिभाषा
देखोगे, तो
बड़े हैरान
होओगे। न वे
कभी पूजा करते
थे, न कभी
प्रार्थना।
मैंने उनसे
कहा कि ' आप
जैसा आदत से
मुक्त आदमी—आप
तो बिलकुल
धार्मिक हैं!
लेकिन न पूजा
है, न
प्रार्थना है,
न आस्तिकता
है! आपको कभी
इन सब चीजों
का खयाल नहीं
उठा?'
उन्होंने
कहा,
'मैं मस्त
हूं आनंदित
हूं। मैं
प्रसन्न हूं
संतुष्ट हूं।
और क्या करना
है! किस चीज की
पूजा करूं? क्यों करूं?
अगर मेरा
संतुष्ट होना
पूजा नहीं है,
तो क्या
पूजा होगी और?'
और
निश्चित ही वे
संतुष्ट
व्यक्ति थे।
अति संतुष्ट
व्यक्ति थे।
मैंने कभी
उन्हें
शिकायत करते न
देखा। नहीं तो
जिंदगी में हर
आदमी शिकायत
से भरा हुआ है।
और तथाकथित धार्मिक
आदमी तो बहुत
शिकायतों से
भरे होते हैं!
उनको तो हर
चीज में
शिकायत दिखाई
पड़ती है। और
धार्मिक आदमी
तो वही है, जिसके
जीवन में
संतोष, संतुष्टि
की सुगंध उड़ती
हो। जिसे
शिकायत ही न
हो, न कोई
शिकवा हो।
जिसे इस
दुनिया में
कुछ बुरा ही न
दिखाई पड़ता हो।
मैंने
कभी उनके मुंह
से किसी की
निंदा नहीं
सुनी।
हालांकि और
जितने
विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
थे,
सब उनकी
निंदा करते थे।
और इस सब का
उन्हें पता था,
लेकिन
उन्होंने कभी
किसी की निंदा
नहीं की।
किसको
मैं धार्मिक
कहूं! ये
निंदा
करनेवाले लोग
धार्मिक हैं? इन
निंदा
करनेवाले लोगों
में नियमित
पूजा—पाठ
करनेवाले लोग
थे। अभी — अभी
चल बसे डाक्टर
रसाल; हिंदी
के बड़े पुराने
कवि थे। बड़े
आलोचक थे।
सैकड़ों
किताबों के
लेखक थे। उनका
शब्दकोष बहुत
प्रसिद्ध है।
बड़े गुणी
व्यक्ति थे।
लेकिन जब मुझे
मिल जाते, और
मुझे अकसर मिल
जाते, क्योंकि
जिस हास्टल
में मैं रहता
था, उसके
वे
सुपरिंटेंडेंट
थे। तो आते—
आते, निकलते—उनके
दरवाजे के
सामने से मुझे
निकलना ही
पड़ता था, मुझे
बुला लेते। और
जब मुझे मिलते,
तो उनका
पहला काम था—डाक्टर
सक्सेना की
निंदा करना!
मैंने
एक दिन उनसे
कहा कि 'डाक्टर
रसाल, आपको
पता है कि डाक्टर
सक्सेना ने
कभी आपके
संबंध में एक
शब्द नहीं
कहा!
कभी
मैंने बात भी
छेड़ी जानने के
लिए कि वे भी आपकी
निंदा करते
हैं कि नहीं!
क्योंकि उनको
लोग खबरें
देते हैं कि
आप उनकी बहुत
निंदा करते हैं
कि शराबी है, पियक्कड़
है; इसको
तो
विश्वविद्यालय
से निकाल देना
चाहिए। ऐसा
आदमी भ्रष्ट
करेगा
विद्यार्थियों
को।
और
वे निश्चित ही
बडे निष्णात
धार्मिक
व्यक्ति थे।
सुबह से ही
पूजा—पाठ; ब्रह्ममुहूर्त
में उठना!
शुद्ध भोजन—शाकाहारी
भोजन करना।
शराब की तो
बात दूर, वे
पान न खायें, सुपाड़ी न
खायें।
सिगरेट न
पियें, शराब
तो बहुत दूर!
उनमें कोई लते
नहीं। हर
धार्मिक दिन
पर उनके घर
कभी
सत्यनारायण
की कथा हो रही
है; कभी
अखंड रामायण
चल रही है।
कुछ न कुछ
वहां होता ही
रहे। पंडित —पुजारी
इकट्ठे!
मैंने
कहा,
'वे कभी
आपकी निंदा
नहीं किये और
आप जब मुझे मिलते
हैं, मुझे
लगता ही ऐसा है
कि सिर्फ आप
उनकी निंदा
करने के लिए
मुझे बुलाते
हैं! मैं बाहर
से निकलता हूं
और आप मुझे बुलाते
हैं और बात तो
आप कुल इतनी
करते हैं कि उनकी
निंदा! आपको
क्या बेचैनी
है इस आदमी से!
इसने आपका कुछ
नहीं। होंगे
शराबी, तो
आपका क्या
बिगाड़ते हैं?
और नर्क
जायेंगे, तो
वे जायेंगे; कोई आपको
नहीं जाना
पड़ेगा। आपका
तो स्वर्ग
बिलकुल
निश्चित है।
सीढ़ी आप लगा
रहे हैं। आपको
उनमें इतना रस
है! उनको तो
मैंने कभी आप
में कोई रस
लेते नहीं
देखा! कई दफा
मैंने उकसाने
की भी कोशिश
की है उनको, कि रसाल
आपके संबंध
में ऐसा कह
रहे थे, वे
बात ही नहीं
उठाते। वे
हंसकर टाल
देते हैं। वे
कहते हैं, लोग
कहते रहते
हैं! रसाल
अच्छे आदमी
हैं, अच्छे
कवि हैं, भले
आदमी हैं।
उनको कोई बात
न जंचती होगी,
तो मेरी
निंदा करते
हैं। उनको
नहीं जंचती, तो अब मैं
क्या करूं? लेकिन एक
शब्द आपके
विपरीत नहीं!'
किसको
मैं धार्मिक
कहूं? किसको
मैं आस्तिक
कहूं?
जिंदगी
इतनी आसान
नहीं है, जितना
हम ऊपर से समझ
लेते हैं।
मंदिर जो रोज
जा रहा है, वह
धार्मिक! इतना
कहीं होता
सिर्फ
धार्मिक होना,
तो सारी
दुनिया
धार्मिक थी।
यहां सुख ही
सुख होता। यहां
सुख नहीं है।
सुख न होने के
साफ—साफ कारण
हैं।
पहली
तो बात :
तुम्हारे मन
में दुख का
आदर है। इस
आदर को जड़—मूल
से काट डालो।
सुख को आदर
देना शुरू करो, क्योंकि
तुम जिस चीज
को आदर दोगे, वही तुम्हें
उपलब्ध होगा।
फूलों की तरफ आंख
उठाओगे, तो
आंखों में
फूलों के रंग
छा जायेंगे।
चांद—तारों की
तरफ आंख
उठाओगे, तो
आंखों में
चांद—तारे
झांकेंगे।
मगर तुम सिर्फ
काटे गिनते हो।
अगर
मैं कहूं कि
फलां आदमी
सुंदर
बांसुरी बजाता
है,
तुम तत्क्षण
कहोगे : 'अरे, वह
क्या बांसुरी
बजायेगा, शराबी
कहीं का!
जुआरी—वह क्या
बांसुरी
बजायेगा!' और
अगर मैं किसी
आदमी के संबंध
में कहूं कि
वह जुआरी है, शराबी है, तो तुम कभी
यह न कहोगे कि
नहीं, नहीं,
शराबी वह
कैसे हो सकता
है! वह कितनी
प्यारी बांसुरी
बजाता है!
जुआरी नहीं हो
सकता। और हो
तो भी क्या
हर्जा; उसकी
बांसुरी इतनी
प्यारी है!
और
परमात्मा
कांटे गिनता
है कि फूल? तुम्हारे
हिंसाब से तो
काटे गिनता है,
जैसे तुम
कांटे गिनते
हो; मेरे हिंसाब
से नहीं। मेरे
हिंसाब से तो
वह यह पूछेगा
कि कितनी
बांसुरी
बजायी। यह
नहीं पूछेगा
कि कितना जूआ
खेला। यह
पूछेगा कि
कितने गीत
गाये। यह नहीं
पूछेगा कि
कितनी
गालियां दीं।
जीवन
को विधायक
दृष्टि से
देखो। आनंद को
सम्मान देना शुरू
करो। मगर
तुम्हारे
भीतर आनंद के
प्रति
ईर्ष्या है—बहुत
बहुत गहन
ईर्ष्या है।
तुम आनंदित
व्यक्ति को
देखकर जलन से
भरते हो; प्रफुल्लित
नहीं होते।
तुम्हारे
जीवन की
प्रक्रिया
ऐसी गलत है, कि
तुम सुखी नहीं
हो सकते। ऋषि
लाख
प्रार्थनाएं
करें, उनकी
प्रार्थनाएं
व्यर्थ चली
जाती हैं; अब
तक तो व्यर्थ
गयी हैं।
जाहिर है. यह
प्रार्थना
किये कम से कम
पांच हजार साल
हो चुके होंगे।’सर्वे भवंतु
सुखिन: सर्वे
संतु
निरामयाः।’ सब निरोग
हों। सब सुखी
हों। सब
कल्याण को
प्राप्त हों।
कोई भी दुख का
भागी न हो।
यह
प्रार्थना
पांच हजार साल
हो गये किये
हुए,
शायद उससे
भी पुरानी हो,
लेकिन अब तक
इसका परिणाम
नहीं हुआ। यह
प्रार्थना
खाली चली
जायेगी।
क्योंकि घड़े
तुम्हारे
उलटे रखे हैं।
तुमने
तो जिद्द कर
रखी है दुख
उठाने की।
तुमने तो कसम
खा रखी है
नर्क निर्मित
करने की!
चंदूलाल
के बेटे झुम्मन
ने अचानक भोजन
करना बंद कर
दिया। हर तरह
से प्रयत्न
किये गये, मगर
वह भोजन करे
ही न। अंततः
उसे
मनोवैज्ञानिक
के पास ले
जाया गया।
मनोवैज्ञानिक
उसे जब लगातार
पांच घंटे तक
समझाता रहा, तो वह भोजन
करने को राजी
हो गया।
मनोवैज्ञानिक
ने प्रसन्न होकर
पूछा—' अच्छा
बेटे, बताओ
क्या खाओगे?'
उसने
मनोवैज्ञानिक
को क्रोध से
देखा। वह पांच
घंटे में राजी
ही इसलिए हुआ
था कि उसकी
खोपड़ी खाये जा
रहा था समझा—समझाकर।
कहां—कहां की
बातें समझा
रहा था! उसने
सोचा अच्छा चलो, झंझट
मिटाओ। भोजन
किये लेता हूं।
तो उसने मनोवैज्ञानिक
की तरफ गुस्से
से देखा और
कहा—'केंचुए
खाऊंगा!'
मनोवैज्ञानिक
पहले तो थीड़ा
झिझका, कि यह
क्या सार
निकाला पांच
घंटे का! मगर
मनोवैज्ञानिक
में नियम है
कि मरीज को
आहिस्ता—आहिस्ता
फुसलाओ; धीरे—
धीरे राजी करो।
चलो, अभी
केंचुए खाने
को राजी हुआ, कम से कम कुछ
खाने को तो
राजी हुआ। फिर
अब केंचुए
खाने की जगह
कुछ और खिलाने
की व्यवस्था
हो सकेगी।
एकदम से मरीज
को इनकार मत
करो। उसे
विरोध में मत
खड़ा कर दो।
उससे दोस्ती
बनानी जरूरी
है।
तो
मनोवैज्ञानिक
ने किसी तरह
केंचुओं की एक
प्लेट का
प्रबंध
करवाया। अपने
माली को कहा
कि बीन ला
बगीचे में से
जितने केंचुए
मिल सकें।
केंचुओं से
भरी प्लेट झुम्मन
की ओर बढ़ाते
हुए कहा—'लो
बेटे, खाओ।’
सोचा
उसने कि कौन
खायेगा
केंचुए! खुद
ही कहेगा कि
नहीं, केंचुए
मुझे नहीं
खाने। क्रोध
में कह गया है,
केंचुए
खाऊंगा।
सोचता होगा—कौन
केंचुए
खिलायेगा?
लेकिन
झुम्मन बोला— 'इन्हें
भून कर लाओ!
कच्चे नहीं
खाऊंगा। क्या
पेट खराब करना
है!'
मनोवैज्ञानिक
गया और किसी
तरह केंचुओं
को भूना। भुने
हुए केंचुए
लेकर प्लेट
में
मनोवैज्ञानिक
फिर आया और
बोला, 'लो बेटे,
अब तो खाओ!'
झुम्मन
बोला, 'मुझे
केवल एक चाहिए।
बाकी को फेंको।
इतने मुझे
नहीं खाने।
मैं कोई भोजन —
भट्ट हूं! एक
काफी है।’
'चलो ', मनोवैज्ञानिक
ने सोचा, 'यह
झंझट मिटी। कम
से कम एक पर तो
आया। अब धीरे —
धीरे रस्ते पर
आ रहा है।’ वह
सारे केंचुए
फेंक आया और
एक को बचा
लिया। बोला, 'बेटा, अब
खाओ!'
झुम्मन
बोला, 'पहले आप
आधा खाइये!
मेरे घर में
ऐसा नहीं कि
हम अकेले खा
लें! पहले
आपको खाना
पड़ेगा।
शिष्टाचार
मुझे मालूम है।’
अब
मनोवैज्ञानिक
घबड़ाया कि 'यह
तो हद्द हो
गयी। अब यह
आधा केंचुआ
खाना पड़ेगा!' मगर
मनोवैज्ञानिक
भी आधे पागल
तो होते ही
हैं। नहीं तो
मनोवैज्ञानिक
ही क्यों
होते! मनोविज्ञान
की तरफ जो
उत्सुक होते
हैं, उनके
दिमाग में कुछ
न कुछ गड़बड़
होती है। पहले
से ही गडबड़
होती है, तभी
वे
मनोविज्ञान
की तरफ उत्सुक
होते हैं।
.
घबड़ाया।
किसी तरह जी
भी मिचलाया—केंचुआ
देखकर। एक तो
इनको भूना
उसने। इनकी
बास और.! अब यह
क्या—क्या
करना पड़ रहा
है! मगर इसका
इलाज करना ही
है। किसी तरह
आधा केंचुआ खा
गया। और बाकी
का आधा हिस्सा
झुम्मन की तरफ
बढ़ाकर बोला कि
'ले भइया, अब तो खा!'
झुम्मन
रोने .लगा और
बोला, 'मेरे
हिस्से का तो
खुद खा गये, अब इसे भी खा
लो! वह मेरे
हिस्से का था
जो तुम खा गये।
मैं तुम्हारे
हिस्से का
नहीं खाऊंगा।’
अब
क्या करोगे!
ऋषि
तो कहते हैं : 'सर्वे
भवन्तु सुखिन:।'
मगर क्या
करें
तुम्हारे साथ!
तुम केंचुआ
खाने पर पड़े
हो। और वह भी
तुम खाओगे
नहीं। वह भी
कुछ बहाने
निकाल लोगे।
तुम्हारी
जिंदगी गलत
ढांचों पर 'दौड़ रही है।
तुम अपने
ढांचे बदलो। तो
ये आशीष पूरे
हो सकते हैं।
ये आशीष यूं
ही नहीं दिये
गये हैं। ये
कल्पना नहीं
हैं आशीष। ये
सत्य बन सकते
हैं। मगर सत्य
इनको कौन
बनायेगा? सिर्फ
आशीर्वाद से
ही मत सोचना
कि बात हो
जायेगी। काश
ऐसा होता, तो
एक बुद्ध ने
सारी पृथ्वी
को मुक्त कर
दिया होता।
ईसाई
कहते हैं कि
जीसस ने इसलिए
जन्म लिया कि
सारी पृथ्वी
को मुक्त कर
देना है। वह
तो ठीक कि
उन्होंने
इसलिए जन्म
लिया र लेकिन
पृथ्वी मुक्त
कहां हुई! यह
कोई नहीं
पूछता!
हिंदू
कहते हैं कि
भगवान अवतार
लेते हैं। और
कृष्ण ने कहा
गीता में कि 'आऊंगा—आऊंगा।
बार—बार आऊंगा—जब—जब
धर्म की हानि
होगी।’ भैया!
कब होगी? बहुत
हो चुकी, अब
आ जाओ! हे
कृष्ण
कन्हैया! अब आ
जाओ! लेकिन
मजा यह है कि
जब आये थे, तब
कितना अधर्म
मिटा पाये थे!
तो अब क्या
खाक मिटा
लोगे! आदमी तब
से अब और
होशियार हो
गया है। तब
नहीं मिटा
पाये, तो
अब क्या मिटा
पाओगे! कहते
तो हो कि जब
अंधकार होगा,
तो आऊंगा।
जब पाप बढ़
जायेगा, तो
आऊंगा।
साधुओं की
रक्षा के लिए
आऊंगा!
मगर
सदियां—सदिया
बीत गयीं।
साधु—सच्चे
साधु सदा
सताये गये; झूठे
साधु सदा पूजे
गये। और नहीं
तुम आये! और
आते भी तो
क्या करते? जब आये थे, तब क्या कर
लिया था? और
ऐसा नहीं कि
तुमने चेष्टा
न की हो। वह
मैं न कहूंगा।
चेष्टा की थी,
मगर परिणाम
महाभारत हुआ!
परिणाम
महायुद्ध हुआ।
जिसमें भारत
की रीढ़ टूट
गयी। उसके बाद
भारत कभी खड़ा
नहीं हो सका।
महाभारत सच
में ही भारत
को इस तरह से
तोड़ गया, इसकी
आत्मा को इस
तरह से मरोड़
गया कि फिर
उसके बाद भारत
कभी अपनी
गरिमा को, गौरव
को उपलब्ध
नहीं हो सका।
अभी तक भी हम
नहीं भर पाये,
जो गड्डा उस
समय हुआ था
उसको। जो
हमारे प्राण
दीनहीन हो गये
थे, वे आज
भी दीनहीन हैं।
तब
नहीं कर पाये, अब
क्या करोगे?
ये
हमारी आशायें
हैं,
जो हमने
शास्त्रों
में
प्रक्षिप्त
कर दी हैं। यह
हमारी आशा है
कि भगवान
आयेंगे और सब
दुखों से
मुक्त करा
देंगे। यह भी
तरकीब है
तुम्हारे
दुखी बने रहने
की, कि हम
क्या करें, भगवान आते
नहीं! आयें, तो दुख से
छुटकारा हो!
तब तो एक—बारगी
छुटकारा हो
चुका होता है;
वह अब तक
नहीं हुआ है।
आगे भी नहीं
होगा।
एक
बात तो समझ ही
लो तुम, गांठ
बांध ही लो, प्रणों पर
खोदकर रख लो—
भूलना मत, कि
तुम्हारे
बिना सहयोग के
स्वयं
परमात्मा भी
कुछ नहीं कर
सकता है। सब
आशीष व्यर्थ
चले जायेंगे।
तुमने अगर आंख
बंद करने की
जिद्द कर रखी
है, तो
उगता रहे सूरज,
आते रहें
चांद—तारे—क्या
करेंगे
बेचारे! सूरज
द्वार पर
दस्तक भी देता
रहे, तो भी
तुम कानों में
सीसा पिघलाकर
बैठे हुए हो।
तुम सुनते
नहीं।
चंदूलाल
का बेटा
झुम्मन एक दिन
उससे कह रहा
था कि 'पापा, वह नुक्कड़
पर जो जूतों
की मरम्मत
करनेवाला चमार
है, वह
मुझसे आते—जाते
अकसर कहता है
कि तुम्हारे पिताजी
ने जो पांच
साल पहले
मुझसे जूते
सुधरवाये थे,
उसकी
मरम्मत के दो
रुपये अभी तक
नहीं चुकाये।
उनसे कहो कि
अब मेरे पैसे
चुकाये।’
चंदूलाल
झुम्मन से
बोले कि 'उससे
जाकर कहो कि
भाई, इतना
घबड़ाओ मत। जब
उसकी बारी
आयेगी, तो
उसके पैसे भी
चुका दिये
जायेंगे। अभी
तो उस
दुकानदार के
पैसे ही नहीं
चुकाये गये, जिससे दस
साल पहले ये
के खरीदे गये
थे, और यह
पाच ही साल
में हाय—तोबा
मचाने लगा!
अरे, धैर्य
भी कोई चीज है!
मनुष्य को
धीरज रखना चाहिए।’
लोग
अपनी भूल को
तो देखते ही
नहीं। दूसरे
में भूल बताने
को तत्पर हो
जाते हैं। कि
पांच साल में
हाय—तोबा
मचाने लगा। धीरज
तो नाममात्र
को नहीं है!
धैर्य तो
दुनिया से उठ
गया है! अरे
आयेगा जब तेरा
समय! पहले
जूतेवाले के
पैसे तो चुक
जाने दे। वह
दस साल हो गये।
तब फिर देखा
जायेगा।
सुधराई के
पैसे तो फिर
बाद में ही
चुकेंगे न!
पहले तो जूते
के पैसे चुकने
चाहिए!
अपनी
तो कोई पुल
देखता ही नहीं।
और ये
प्रार्थनाएं
हमने अपने लिए
तरकीबें बना
ली हैं। हम भी
सोचते हैं.
भगवान का
अवतरण होगा—ईसा
आयेंगे, बुद्ध
आयेंगे, महावीर
आयेंगे और
हमें मुक्ति
दिला देंगे।
आज
से कोई बीस
साल पहले की
बात है। मैं
पहली दफा बंबई
बोलने आया था
महावीर जयंती
पर। मुझसे
पहले श्री
चिमनलाल
चकूभाई शाह
बोले। और
उन्होंने एक
बात कही कि ' भगवान
महावीर का
जन्म मनुष्य
जाति के
कल्याण के लिए
हुआ था।’ मैं
उनके बाद बोला।
मुझे तो उनका
तब तक कोई
परिचय नहीं था।
और वह पहली और
आखिरी मुलाकात
हो गयी। मेरे
लिए तो बात
वहा समाप्त हो
गयी, मगर
उनके लिए अभी
भी समाप्त
नहीं हुई। इन
बीस सालों में
जितना नुकसान
वे मुझे पहुंचा
सकते हैं, उन्होंने
हर तरह
पहुंचाने की
कोशिश की।
जितना मेरे
खिलाफ प्रचार
कर सकते हैं, हर तरह
उन्होंने
करने, 'की
कोशिश की। एक गांठ
बांध ली
दुश्मनी की!
और दुश्मनी की
गांठ बांधने
का कारण क्या
था—यह छोटी—सी
बात थी। मैं
तो उन्हें
जानता नहीं था।
मैं बंबई ही
पहली दफे आया
था। मैंने
इतना ही
निवेदन किया
कि यह धारणा
महावीर के
संबंध में
सच्ची नहीं है।
यह तो हमारी
आकांक्षा को
महावीर पर थोपना
है। महावीर ने
तो कहीं भी
नहीं कहा है
कि मैं
तुम्हारे
कल्याण कै लिए
जन्म ले रहा
हूं! कहीं भी
नहीं कहा है।
महावीर ऐसी
गलत बात कह ही
नहीं सकते।
और
यही तो फर्क
है अवतार की
और तीर्थंकर
की धारणा में।
अवतार का अर्थ
होता है
परमात्मा ऊपर
से उतरता है
नीचे, जो लोग भटके
हैं उनको
रास्ता
दिखाने के लिए।
वह आता ही
इसलिए है।
जैसे मरीज कै
घर मैं
चिकित्सक आता
है। बीमार है,
इसलिए आता
है। लेकिन
तीर्थंकर की
धारणा ही और
है। वही तो
तीर्थंकर की
धारणा का गौरव
है, गरिमा
है।
तीर्थंकर
की धारणा यह
नहीं है कि
कोई ऊपर से नीचे
उतरता है। ऊपर
कोई है ही
नहीं। महावीर
किसी
परमात्मा को
मानते नहीं, जो
आयेगा।
महावीर तो
मानते हैं कि
व्यक्ति की
आत्मा ही जब
परम शुद्ध
अवस्था को
उपलब्ध हो
जाती है, तो
परमात्मा है।
कहीं से कोई
आता नहीं; यहां
नीचे से ही
उठता है, उभरता
है, प्रकट
होता है।
और
महावीर यह भी
मानते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति ही
अपने को मुक्त
कर सकता है।
कोई दूसरा
किसी को मुक्त
नहीं कर सकता।
कोई किसी का
कल्याण नहीं
कर सकता। ही, 'कल्याण
की कामना कर
सकता है। मगर
कल्याण की
कामना से
कल्याण नहीं
होता। महावीर
का हृदय सब की
कल्याण भावना
से भरा है।
लेकिन इससे
क्या होगा!
महावीर जीवित
थे, तब भी
सभी का कल्याण
नहीं हो सका।
सब की तो बात
छोड़ दो, जो
उनके निकट थे,
उनका भी
कल्याण नहीं
हो सका! और
जिन्होंने यह आशा
बांध ली थी, जैसा
चिमनलाल
चकूभाई शाह ने
कहा, उनका
तो बिलकुल ही
नहीं हो सका।
महावीर
का प्रमुख
शिष्य था गौतम।
जिस दिन
महावीर का इस
पृथ्वी से
प्रयाण हुआ, जिस
दिन देह छोड़ी,
उस दिन गौतम
को उन्होंने
सुबह ही पास
के गांव में
शिक्षा देने
भेज दिया था।
जब वह सांझ को
लौट रहा था, तब उसको खबर
मिली कि
महावीर ने
प्राण छोड़
दिये हैं। वह
तो रोने लगा।
जिन्होंने
उसे खबर दी थी,
उन्होंने
कहा ' अब
रोओ मत। अब
क्या होता है!'
गौतम
ने कहा, 'यह भी
मेरा
दुर्भाग्य कि
सदा तो साथ
रहा और .आज मृत्यु
के क्षण में
पता नहीं
क्यों, उन्होंने
मुझे दूर भेज
दिया। आज के
दिन मुझे भेज
दिया दूसरे
गांव! मेरे
लिए कोई संदेश
छोड गये हैं? जाते वक्त
मेरी याद की
थी उन्होंने?'
तो
उन्होंने कहा, 'जरूर
याद की थी और
संदेश भी छोड़
गये हैं?
और
वह संदेश बड़ा
कीमती है। वही
संदेश उस दिन
आज से बीस साल
पहले मैंने दोहराया
था।
महावीर
कह गये थे
जाते वक्त कि
गौतम जब लौटे, तो
उससे कह देना
कि तू पूरी
नदी तो पार कर
गया, अब
किनारे को
पकड़कर क्यों
रुक गया है!
तूने सारा
संसार छोड
दिया, अब
मुझको पकड़
लिया है!
मुझको भी छोड़
दे। नदी पार
कर गया, अब
किनारे को भी छोड़
दे। किनारे को
पकड़े रहेगा, तो भी नदी
में ही रहेगा।
अब किनारे से
भी ऊपर उठ।
सारा संसार छोड़
दिया, अब
मुझे भी छोड़
दे।’ यह
अपूर्व संदेश!
'बिलकुल
मुक्त हो जा.......।’
कोई
और तुम्हारा
कल्याण कर
सकता है—इस
धारणा में ही
बंधन है। यह
सीधी—सादी बात
कही थी। उनको
चोट लग गयी!
भारी चोट लग
गयी! वे
दुश्मनी अब तक
भंजाये जाते
हैं। अभी भी
कच्छ के संबंध
को लेकर कल जो
बंबंई में
मेरे खिलाफ
सभा बुलाई गई, उसके
पीछे वे ही
सूत्र— धार
हैं। अब सारे
कच्छियों को
इकट्ठा करने
में लगे हैं
वे। कहीं मैं
कच्छ न चला
जाऊं! नहीं तो
कच्छ का अकल्याण
हो जायेगा! अब
मैं सोचता हूं
: पूना का तो काफी
अकल्याण कर
चुका, अब
कच्छ का भी तो
कुछ करूं! कि
कच्छ का कोई
अकल्याण
करेगा ही
नहीं! कि कच्छ
बेचारा यूं ही
पड़ा रहेगा!
अब
उनको एकदम
प्राणों में
पीड़ा पड़ी हुई
है कि कहीं
कच्छ का कोई
अकल्याण न हो
जाये!
जवाब
तो नहीं दे
सके,
क्योंकि जो
मैंने कहा था—वह
सीधी—साफ बात
है। मगर हम सब
के भीतर यह आकांक्षा
होती है कि
कोई हमारा
कल्याण कर दे।
यह बड़े मजे ही
बात है।
तुम
तो गंदगी
फैलाओ—और कोई
आकर सफाई करे!
मगर अगर तुम
गंदगी फैलाने
में कुशल हो, तो
वह सफा कर भी
नहीं पायेगा
और तुम फिर
गंदगी फैला
दोगे!
तुम्हारी
कुशलता कहां
जायेगी! गंदगी
तो साफ कर भी
देगा, मगर
तुम्हारी कुशलता
का क्या होगा?
तुम फिर
गंदगी फैला
लोगे।
तुमने
अगर जीवन को
गलत ढांचे में
ढाला हुआ है, तो
कोई तुम्हें
ठोंक—पीटकर
ठीक—ठाक कर दे;
वह जा भी
नहीं पायेगा
कि तुम फिर
अपने ढांचे पर
आ जाओगे!
तुम्हें
जबरदस्ती कोई
मुक्त नहीं कर
सकता है।
ऋषि
ठीक कहते हैं. 'सर्वे
भवंतु सुखिन'—सब सुखी हों।
बड़े प्यारे
लोग रहे होंगे।
तुम्हारे सुख
के लिए कामना
की है।’सर्वे
संतु निरामया?—और सब
स्वास्थ्य को
उपलब्ध हो
जायें।
स्वास्थ्य का
अर्थ सिर्फ
निरोग ही नहीं
होता।
स्वास्थ्य का
गहरा अर्थ है।
उसका ऊपरी
अर्थ है कि
तुम्हारा
शरीर स्वस्थ हो,
निरोग हो।
लेकिन उसका
भीतरी अर्थ है—निरामय।
उसका भीतरी
अर्थ है कि
तुम स्वयं में
स्थित हो जाओ।
हमारा
शब्द ' स्वास्थ्य'
बड़ा
बहुमूल्य है।
शरीर के लिए
उसका अर्थ
होता है. शरीर
की जो प्रकृति
है, शरीर
का जो धर्म है,
उसमें थिर
हो जाये शरीर।
जब शरीर अपनी
प्रकृति से स्मृत
हो जाता है, तो दुख
भोगता है। जब
शरीर अपनी
प्रकृति में
ठहर जाता है, तो सुख
भोगता है।
प्रकृति
में ठहर जाने
में सुख है; प्रकृति
से हट जाने
में विकृति है,
दुख है। यह
जो विराट
विश्व है, इसके
साथ एक
तल्लीनता सध
जाये, तो
सुख है! इसके
साथ टूट हो
जाये, तो
दुख है। और
ऐसी ही बात
भीतर के जगत
के संबंध में
भी सच है। और
तब स्वास्थ्य
के बड़े गहरे
अर्थ प्रगट
होते हैं।
दुनिया की
किसी भाषा में
स्वास्थ्य का
वैसा गहरा
अर्थ नहीं है—स्वयं
में स्थित हो
जाना।
जब
तुम अपनी
आत्मा में ठहर
जाते हो, तब
निरामय हुए।
अब सब रोग गये,
असली रोग
गये। शरीर के
रोग तो ठीक ही
हैं। शरीर है—खुद
ही चला
जानेवाला है।
उसके रोग भी
चले जायें, तो क्या
फर्क पड़ता है!
स्वस्थ शरीर
भी चले जायेंगे,
अस्वस्थ
शरीर भी चले
जायेंगे।
लेकिन
तुम्हारे
भीतर कुछ बैठा
है और भी; जो
अमृत है; जो
न आता, न
जाता। उसमें
जो ठहर गया, वह परम
स्वास्थ्य का
भागीदार हो
जाता है। उस
परम
स्वास्थ्य को
ही धर्म कहते
हैं। स्वयं की
प्रकृति में
ठहर जाने का
नाम धर्म है।
महावीर
ने धर्म की
परिभाषा की है
: 'वत्यु सहावो
धम्म—वस्तु का
जो स्वभाव है
उसमें ठहर
जाना धर्म है।’
अपूर्व
परिभाषा है। न
हिंदू न मुसलमान,
न ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध—इससे
कुछ लेना—देना
नहीं है धर्म
का। प्रकृति
में, स्वभाव
में, निजता
में ठहर जाने
का नाम धर्म
है। स्वस्थ हो
जाना धर्म है।
इसी
चेष्टा में हम
यहां संलग्न
हैं। ध्यान
उसकी ही
प्रक्रिया है।
ध्यान खोना
अर्थात्
स्वास्थ्य से
हट जाना; और
ध्यान में आना—जाना
अथीत् वापस
स्वास्थ्य
में आ जाना।
'सर्वे
भद्राणि
पश्यंतु—स्ब
कल्याण को
प्राप्त हों।’
बुद्ध कहते
थे कि जब तुम
प्रार्थना
करो, जब
तुम ध्यान करो,
जब तुम आनंद
में सरोबोर हो
जाओ, तो तृष्णा—भूलना
मत—कभी भूलना
मत—तत्क्षण अपने
आनंद को बांट
देना। कहना कि
यह मेरा आनंद
सारी प्रकृति
को मिल जाये—पशुओं
को, पक्षियों
को, पौधों
को, पत्थरों
को भी। यह
मेरा आनंद सबे
को मिल जाये।
उसे बांट देना;
तत्क्षण
बांट देना।
एक
व्यक्ति
बुद्ध को
सुनने रोज आता
था। उसने
बुद्ध से एक
दिन एकांत में
कहा कि 'आपकी
बात मानता हूं
पूरा—पूरा
मानता हूं।
सिर्फ एक बात
आपसे आज्ञा
चाहता हूं
इतनी आप आज्ञा
दे दें—कि वह
जों आदमी मेरा
पड़ोसी है, उसको
नहीं दे सकता
मैं! तो मैं
आपकी बात
मानकर चलता
हूं जब आनंदित
होता हूं जब
सुबह प्रार्थना
में डूबता हूं
या ध्यान में
उतरता हूं और
सुख का झरना
बहता है, तो
मैं कहता हूं :
मेरे पड़ोसी को
छोड़कर सारे जुगत
को मिल जाये!
उस हरामजादे
को नहीं दे
सकता!'
बुद्ध
ने कहा, 'तो
फिर तू बात को
ही नहीं समझा।’
जिनसे कुछ
लेना—देना
नहीं है, उनको
दे सकता है! अब
पत्थर—पहाड़.......
ले लो! क्या
हर्ज है! मगर
यह पड़ोसी—यह
तो जान पर
हमेशा उपद्रव
खड़े कर रखता
है। इसको कैसे
सुख दे दें!
बुद्ध ने कहा,
'जब तक तू पड़ोसी
को न दे
पायेगा, तब
तक तेरा सब
देना बेकार है;
तब तक तेरे
पास देने को
है भी नहीं।
तू भाति में
पड़ता होगा।
क्योंकि ऐसे
कलुषित चित्त
से कैसे आनंद
उठता होगा! तू
बैठता होगा
ध्यान को, मगर
ध्यान नहीं
बैठता होगा।
अगर ध्यान बैठ
जाता, तो
यह सवाल ही
नहीं उठना था।’
जीसस
ने दो वचन कहे
हैं। अलग—अलग
कहे हैं! मैं
कभी—कभी हैरान
होता हूं
क्यों अलग—अलग
कहे हैं! एक
वचन तो कहा है : 'अपने
शत्रु को भी
उतना ही प्रेम
करो, जितना
अपने को।’ और
दूसरा वचन कहा
है. 'अपने
पड़ोसी को भी
उतना ही प्रेम
करो, जितना
अपने को!' मैं
कभी—कभी सोचता
हूं कि जीसस
से कभी मिलना
होगा कहीं, तो उनसे
कहूंगा कि दो
बार कहने की
क्या जरूरत थी!
क्योंकि
पड़ोसी और
दुश्मन कोई
अलग—अलग थीड़े
ही होते हैं।
एक ही से बात
पूरी हो जाती
है कि अपने को
जितना प्रेम
करते हो, उतना
ही पड़ोसी को
करो। पड़ोसी के
अलावा और कौन
दुश्मन होता
है? दुश्मन
होने के लिए
भी पास होना
जरूरी है ना! जो
दूर है, वह
तो दुश्मन
नहीं होता।
मित्र
होना जरूरी है
शत्रु बनने के
पहले। तुम' किसी
को शत्रु बना
सकते हो—बिना
मित्र बनाये?
असंभव! यह
तो कैसे होगा
ई मित्रता
पहले, फिर
शत्रुता बनती
है। शायद लोग
इसीलिए मित्र
बनाते हैं कि
शत्रु बना
सकें! नहीं तो
शत्रु कैसे
बनायेंगे? शायद
इसीलिए प्रेम
रचाते है—कि
घृणा कर सकें।
शायद इसीलिए
मोह बनाते हैं;
ताकि क्रोध
कर सकें।
लोग
बड़े अजीब हैं!
उनके गणित को
समझो। और मैं
जब लोगों की
बात कर रहा
हूं तो खयाल
रखना—तुम्हारी
बात कर रहा
हूं तुम्हीं
हो—वे लोग!
यह
सूत्र तो
कीमती है,पूर्णानंद!
लेकिन इस आशीष
को पूरा करने
के लिए
तुम्हें
तैयारी
दिखानी होगी।
इस आशीष के
योग्य
तुम्हें बनना
होगा।
सेठ
चंदूलाल जिनके
माथे से खून
बह रहा था, नाक
छिली थी और एक आंख
सूजी हुई थी, लगड़ाते—लगड़ाते,
हाथ में एक
टूटा हुआ
कीमती चश्मा
लिए डाक्टर के
पास पहुंचे और
बोले, 'मेरा
कीमती चश्मा
फूट गया है, डाक्टर
साहब! मैंने
तो सुना है कि
आजकल ऐसी—ऐसी
रासायनिक
गोदें आने लगी
हैं, जिनसे
कांच वगैरह भी
जुड़ जाता है।
क्या आपके पास
उसकी ट्यूब है?'
डाक्टर
ने घबड़ाकर
चंदूलाल को
कोच पर लिटाते
हुए पूछा, 'क्या
हुआ सेठजी! ये
चेहरे पर इतनी
चोटें कैसे आ
गई? किसी
से झगड़ा हो
गया क्या?
सेठजी
बोले, 'अरे
चोटों की बात
छोड़ो भाई।
शरीर तो आखिर
शरीर ही है; मिट्टी का
नश्वर घड़ा है;
आज नहीं कल
फूटेगा।
तुम
तो यह बताओ कि
यह चश्मा जुड़
सकता है या
नहीं? बहुत
कीमती चश्मा
है, और नया
है। अभी सन्
पचपन में ही
तो मैंने
लगाना शुरू
किया है!
लेकिन अब दोष
भी किसे दूं!
किसी से झगड़ा
नहीं हुआ। मेरी
ही गलती से
फूट गया। साली
किस्मत ही
खराब है। यदि
नई की नई
चीजें इस तरह
बरबाद होने
लगीं, तब
तो शीघ्र ही
मेरा दिवाला
निकल जायेगा!'
डाक्टर
ने बामुश्किल
हंसी रोकते
हुए पूछा, 'जरा
यह तो बताइये
सेठजी, कि
आपसे और भला
ऐसी क्या गलती
हो गई?'
चंदूलाल
ने अपनी सूजी
हुई आंख पर हाथ
रखकर कहा, 'आज
सुबह की ही
बात है, मैं
और मेरी पत्नी
बाथरूम में
साथ—साथ नहा
रहे थे। हम
लोग सदा एक
साथ नहाते हैं,
फव्वारे के
नीचे खड़े होकर,
इससे पानी
की बचत होती
है। स्थान के
बाद ऐसा हुआ
कि मेरी
खर्चीली
पत्नी लघुशंका
के लिए बैठी
और उठकर उसने
झट से फ्लश चला
दिया। मैंने
सोचा 'फ्लश
तो चल ही रहा
है, लगे
हाथ मैं भी
इसी में पेशाब
कर दूं वरना
फिर व्यर्थ
पानी बहाना
पड़ेगा। बस इसी
जल्दबाजी में
मैं कमोड में
फिसल पड़ा और
फिर जो गति
हुई, वह सब
आप देख ही रहे
हैं। नगद साढ़े
तीन रुपये का
चश्मा हाथ से
गंवा बैठा, जिसे मेरे
एक अभिन्न.
मित्र ने मुझे
भेंट दिया था!'
इस कथा से
हमें तीन
शिक्षाएं
मिलती हैं
पहली, कि
जल्दबाजी कभी
नहीं करनी
चाहिए, इससे
आर्थिक हानि
होती है।
दूसरी, कि
कभी—कभी बहती
गंगा में हाथ
धोना भी ठीक
नहीं।
और
तीसरी, कि
गंगा में हाथ
धोने जब जायें,
तो कोई भी
कीमती सामान
अपने साथ न ले
जायें।
पूर्णानंद, कुछ
तुम्हें करना
पड़े।
तुम्हारी
जीवन की शैली
को कहीं बदलना
पड़े। इसमें
भूलें ही
भूलें हैं।
इसमें तुमने
सब गलत आधार
दे रखे हैं।
इसलिए असंभव
है कि ये
प्रार्थनाएं
ऋषियों की पूरी
हो सकें। संभव
हो सकती हैं।
मैं भी
प्रार्थना
करता हूं कि
कभी ऐसा हो
सके। यह
पृथ्वी आनंद
से भरे।
मैं
तो अपने
संन्यासी को
एक ही शिक्षा
दे रहा हूं—आनंदित
होने की, प्रफुल्लित
होने की। मैं
तो त्याग नहीं
सिखा रहा, मैं
तो कह रहा हूं :
धर्म परमभोग
है, महासुख
है। मैं तो कह
रहा हूं कि
संन्यास जीवन
से विरक्ति
नहीं है, जीवन
को भोगने की
कला है।
मेरी
सारी
शिक्षाओं का
सार—संक्षिप्त
इतना ही है
नृत्य सीखो, गीत
सीखो, आनंद
सीखो; बांटना
सीखो, जीना
सीखो। भगोड़े
मत बनो, पलायनवादी
मत बनो। अब तक
तथाकथित
धर्मों के नाम
पर तुमने जो
किया है, उससे
पृथ्वी दुख से
ही भरती गई है।
उससे तुम पीड़ित
ही हुए हो, परेशान
ही हुए हो।
मगर तुम मेरी
सुनोगे, इसकी
संभावना कम
दिखाई पड़ती है।
तुम्हारी
अपनी धारणाएं
ऐसी मजबूत हैं
कि तुम टस से
मस नहीं होते।
तुम बिलकुल
जमकर बैठे हुए
हो पत्थर की
तरह। लाख दुख
उठाने पड़े, मगर
तुम अपने
दृष्टिकोणों
को बदलोगे
नहीं! और मेरे
जैसे व्यक्ति
अगर तुम्हें
हिलाते—डुलाते
हैं, तो
दुश्मन मालूम
होते हैं।
लगता है कि
मैं तुम्हारी
संस्कृति
नष्ट कर रहा
हूं। जैसे दुख
तुम्हारी
संस्कृति है!
मैं तुम्हारा
धर्म नष्ट कर
रहा हूं जैसे
कि दुख
तुम्हारा धर्म
है!
तुम
आनंदित नहीं
होना चाहते हो
क्या? एक बार
तथ कर लो साफ।
नहीं होना है,
तो तुम
स्वतंत्र हो।
लेकिन तब
जानकर जियो कि
दुख ही हमारा
जीवन का लक्ष्य
है। हम तो
दुखी होंगे।
दुख ही हमारी
आत्यंतिक गति
है। हमें तो
नके ही जाना
है। तो कम से
कम बोधपूर्वक
नर्क जाओ!
लेकिन
तुम्हारी
अजीब हालत है।
जाते नर्क की
तरफ हो, बातें
स्वर्ग की
करते हो!
बनाते दुख हो,
आकांक्षा
सुख की करते
हो। फिर छाती
पीटते हो, रोते
हो, परेशान
होते हो!
तुम्हें
देखकर हंसी भी
आती है, दया
भी आती है।
तुम्हें
देखकर दोनों
बातें होती
हैं : आंसू भी
आते हैं, मुस्कुराहट
भी आती है। आंसू
आते हैं यह
देखकर कि क्या
दुर्दशा है
आदमी की! और
मुस्कुराहट
इसलिए आती है
कि हद्द हो गई!
इतनी
मूर्खतापूर्ण
दशा का भी
तुम्हें बोध
नहीं हो पा
रहा है! यह
क्या मजाक है!
यह तुम किसके
साथ मजाक कर
रहे हो! अपने
ही साथ मजाक
कर रहे हो।
खुद ही केले
के छिलके
फैलाते हो, फिर उन्हीं
पर फिसलकर
गिरते हो।
रोते हो।
पीड़ित होते हो।
परेशान होते
हो।
तुम्हारी
सारी जिंदगी
एक दुख की कथा
है,
व्यथा है।
और कोई
कसूरवार नहीं—सिवाय
तुम्हारे।
जिस दिन तुम
यह
उत्तरदायित्व
समझ लोगे कि
मैं ही
जिम्मेवार
हूं उस दिन यह
प्रार्थना
पूरी हो सकती
है। होनी तो
चाहिए—सारी
मनुष्य जाति
के लिए। क्यों,
सार्रा
मनुष्य जाति
के लिए? —पशुओं
के लिए, पौधों
के लिए, पक्षियों
के लिए
पत्थरों के
लिए भी! मगर
क्या पत्थरों
की बात करें, अभी तो आदमी
पत्थर बना है।
मगर
अब समय आ गया
है कि अगर तुम
न चेते, तो
आदमियत नष्ट होगी।
अब बहुत दुख
का घड़ा भर
चुका है। या
तो इसे खाली
करो या यह घड़ा
फूटेगा। अब
आदमी ज्यादा
से ज्यादा इस
सदी के अंत तक
जी सकता है
खींच—तानकर।
तुम्हारे
जीवन के जितने
गलत ढांचे—ढर्रे
थे, वे सब
अंतिम
पराकाष्ठा पर
पहुंच गये हैं।
उनका आखिरी
परिणाम तीसरा
महायुद्ध होगा,
जो सारी
मनुष्य जाति
को, सारे
जीवन को
पृथ्वी से
नष्ट कर देगा।
.......
या तुम
चौंको, जागो—और
या फिर इस
महायुद्ध के
लिए तैयार हो
जाओ!
इसलिए
मैं सोचता हूं
कि शायद
तुम्हें
जगाने के लिए
इतने बड़े खतरे
की ही जरूरत
है तो ही शायद तुम
चौंको। इसलिए
मैं बड़ी आशा
से भरा हूं।
इतना महान
खतरा आदमी के
सामने कभी
नहीं था, जितना
आज है। इसलिए
एक आशा की
किरण है कि
शायद यह खतरा
तुम्हें
झकझोर दे।
शायद धर्म की
एक नयी
अवतारणा हो
सके। शायद
संन्यास का एक
नया रूप
निर्मित हो
सके। शायद हम
पृथ्वी को
नाचते—गाते
लोगों से भर
सकें।
बहुत
हो चुकी उदासी; बहुत
हो चुकी
विरक्ति।
जीवन के रस को
भोगने की कला
को शायद आदमी
अब सीखने के
करीब आ रहा है,
इतना प्रौढ़
हो रहा है।
सीखना ही शायद
पड़े, क्योंकि
विकल्प या तो
महामृत्यु है
या महाक्रांति।
'जो बोलैं तो
हरिकथा' प्रवचनमाला
से
दिनांक 23
जुलाई 1980,
श्री रजनीश
आश्रम पूना
thank you guruji
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