वह बाहर की रोशनी  से  नहीं  मिटता।
सच तो यह है कि बाहर जितनी रोशनी होती है,
उतना ही भीतर का  अंधकार  स्पष्ट होता है,
रोशनी के संदर्भ  में  और   भीकर  प्रकट  होता है।
जैसे रात  में तारे दिखाई पड़ने लगते है अंधेरे की पृष्टभूमि में,
जितनी भोतिकता बढ़ती है,
उतना ही भीतर  काअंधकार  स्पष्ट होता है। जितनी बाहर समृद्धि  बढ़ती है,
उतनी ही भीतर की दरिद्रता का पता  चलता है।
जितना बाहर सुख-वैभव के सामान  बढ़ते है,
उतना ही भीतर का दुःख सालता है। 
जो तुमसे कभी नहीं   कहीं गई है। 
मैं चाहता हूँ, पृथ्वी समृद्ध  हो, खूब  समृद्ध हो।
धन ही धन का अंबार  लगे, कोई गरीब  न हो। 
क्योंकि जितना ही तुम्हें भीतर   की निर्धनता का बोध होगा।
जितने तुम्हारे पास वैभव के साधन होंगे,
उतने ही तुम्हें पीड़ा मालूम होगी कि   

 
 
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