यह देश बड़ा मूढ़ हो गया है।
इस देश ने कभी गौरव के दिन भी देखे है,
कभी महमामंडित दिन भी देखे है।
तब इसने खजुराहो बनाए थे, कोणार्क बनाया था।
पुरी के और भुवनेश्वर के मंदिर बनाए थे।
वे जीवन के मंदिर थे, उमंग के मंदिर थे, उत्सव के मंदिर थे।
नाच-नृत्य-गीत, वे प्रेम के मंदिर थे।
फिर यह देश पतित हुआ, यह देश बूढ़ा हुआ, सड़ा।
फिर यह भूल ही गया जीवन की तरंगें।
जीवन का खुमार उतर गया।
आवागमन से कैसे छुटकारा हो, लोग मरणवादी हो गए।
लोग आत्मघाती हो गए, जिसको तुम आवागमन से छुटकारा कहते हो।
यह देश पतित हुआ, इसने अपने शिखर खो दिए सूर्यमंडि़त।
यह बहुत नीची तराइयों में उतर गया,
वहां से अब इसको सिवाय मृत्यु के कुछ भी नहीं सूझता है।
यह बहुत डर गया है, यह हर चीज से भयभीत है।
यह मनुष्य की प्रकृति से भयभीत है।
यह किसी प्राकृतिक तत्व को स्वीकृति नहीं देना चाहता।
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