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मंगलवार, 15 सितंबर 2009

मैं यह नहीं हूं---''ध्‍यान''


मन कचरा है, ऐसा नहीं है कि आपके पास कचरा है और दूसरे के पास नहीं है। मन ही कचरा है। और अगर आप कचरा बहार भी फेंकते रहें, तो जितना चाहे फेंकते रह सकते है, लेकिन यह कभी खतम होने वाला नहीं है। यह खुद ही बढ़ने वाला कचरा है। यह मुर्दा नहीं है, यह सक्रिय है। यह बढ़ता रहता है और इसका अपना जीवन है, तो अगर हम इसे काटें तो इसमें नई पत्तियां अंकुरित होने लगती है। तो इसे बहार निकालने का यह मतलब नहीं है कि हम खाली हो जाएंगे। इससे केवल इतना बोध होगा कि यह मन, जिसे हमने अपना होना समझ रखा था। जिससे हमने अब तक तादात्माय बना रखा था, यह हम नहीं है। इस कचरे को बहार निकालने से हम पृथकता के प्रति सजग होंगे, एक खाई के प्रति, जो हमारे और उसके बीच है। कचरा रहेगा, लेकिन उसके साथ हमारा तादात्मएय नहीं रहेगा, बस हम अलग हो जाएंगे, हम जानेंगे कि हम अलग हैं। तो हमें सिर्फ एक चीज करनी है—न तो कचरे से लड़ने की कोशिश करें और न उसे बदलने की कोशिश करें—सिर्फ देखे, और सजग रहें और देखें क्याक होता है। तत्क्षहण एक बदलाहट होती है। कचरा अपनी जगह रहेगा, लेकिन अब वह हमारा हिस्साऔ नहीं रह जाता। वह स्मारण ही उसका छूटना हो जाता है।

ओशो—( आरेंज बुक )

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