सत्य विश्वास नहीं है, अनुभव है।
सब विश्वास झूठे होते है।
सब विश्वास अंधे होते है।
सिवाय विश्वासों के और कुछ भी नहीं।
तुम्हारी बुनियाद के पत्थर क्या है,
सिवाय विश्वास। को ई ईश्वर को मान रहा है,
कोई स्वर्ग को मान रहा है, कोई नरक को मान रहा है,
कोई पाप-पुण्य के सिद्धांत को मान रहा है,
कोई एक ही जीवन को मान रहा है।
तुम्हारे पास कोई भी प्रमाण नहीं किसी बात का।
लेकिन तुम माने चले जाते है, खोजते नहीं।
और आश्चर्य तो यह है कि यही समझाया गया है,
कि विश्वासी मन ही धार्मिक होता है,
और मैं तुमसे कहता हूँ कि विश्वासी मन अधामिर्क है।
फिर चाहे वह विश्वास नास्तिकता का हो,
चाहे आस्तिकता का, इससे कुछ भेद नहीं पड़ता।
विश्वास जहर है।
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