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गुरुवार, 24 सितंबर 2009

प्रसादपूर्ण जीवन---

मैं धर्म को जीने की कला कहता हूँ।
धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है।
धर्म का मंदिर और मस्जिद से कुछ लेना देना नहीं है।
धर्म तो है जीवन की कला।
जीवन को ऐसे जिया जा सकता है--
ऐसे कलात्‍मक ढंग से, प्रसाद पूर्ण ढंग से।
कि तुम्‍हारे जीवन में जार पंखुडि़यों वाला कमल खिले।
कि तुम्‍हारे जीवन में समाधि लगे,
कि तुम्‍हारे जीवन में भी ऐसे गीत उठे जैसे कोयल के,
कि तुम्हारे भीतर भी ह्रदय में ऐसी-ऐसी भाव-भंगिमाएँ जगें।
जो भाव-भंगिमाएँ अगर प्रकट हो जाएं,
तो मीरा का नृत्‍य पैदा होता है, चैतन्‍य के भजन बनते है।

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