तिब्बत में काग्यु गुरूओं की एक लंबी परंपरा थी। जो सदियों-सदियों से चली आ रही थी: रहस्यदर्शी गुरु अपनी गहरी आध्यात्मिक अनुभूति को अभिव्यक्त करने के हेतु सहजस्फूर्त गीत रचते थे। तिब्बती साहित्य में इन बौद्ध शिक्षकों को गीत बहुत प्रसिद्ध है। इन गीतों में सत्य की अभीप्सा, ह्रार्दिक भक्ति और विनोद बुद्धि भी झलकती है।
काग्यु गुरूओं की परंपरा चर्च की तरह बहुत संगठित धर्म नहीं थी। इस परंपरा को तिलोपा ने स्थापित किया था। या कहें, उसके बाद काग्यु गुरूओं की परंपरा बनी। तिलोपा गुरूओं की शरण में गांव-गांव भटका, और उसने उनसे ध्यान के प्रयोग सीखें। अंतत: गंगा किनारे एक घास की झोंपड़ी बनाई और वहां रहने लगा। जो उसके पास आते उनको ध्यान सिखाता। उनमें एक था पंडित नारोपा। प्रसिद्ध नालंदा विद्यापीठ का कुलपति नारोपा आखिर सांसारिक सफलताओं के पीछे छुपा हुआ ह्रदय का खालीपन सह न सका। एक झटके में सब कुछ छोड़कर वह वास्तविक गुरु की तलाश में घूमने लगा। तिलोपा में उसे ऐसे गुरु के दर्शन हुए और वह वहीं टिक गया। बारह साल तक उसने ध्यान और योग किया और उसे महामुद्रा का बोध हुआ।
तिब्बत की धारा में महामुद्रा का असाधारण महत्व है। महामुद्रा का अर्थ है भौतिक जगत की दिव्यता के प्रति जागना। यह आध्यात्मिकता का चरम अनुभव है।
पीढ़ी दर पीढ़ी, आज तक काग्यु गुरूओं की परंपरा चली आयी है। इस समय में भी इसके जीवित रहने का राज एक ही है, हर पीढ़ी में कोई न कोई जाग्रत पुरूष होता है। अपने गुरु से दीक्षा लेकिर हर नया शिष्य अपने जीवन के अनुभवों से उसे गहराता है। हर पीढ़ी में महामुद्रा नवजात, सद्यस्नात होती है। इन तिब्बती गुरूओं के गीत उनके आंतरिक अनुभवों का उत्सव मनाते है।
इस अंक में हम दो तिब्बती रहस्यदर्शीयों को प्रस्तुत कर रहे है। जिनके गीतों को ओशो ने अपनी मनपसंद किताबों में शामिल किया है।
दि सॉंग्ज ऑफ मारपा—
मारपा तिब्बती था लेकिन उसने बारह साल नेपाल और भारत में गुज़ारे। भारत में आने की वजह थी, बहुत से गुरूओं से मिलना। उसमें सबसे बड़ा गुरु था नारोपा। बौद्ध परंपरा में विसित शिष्य को अभिषेक करने का रिवाज है। मारपा ने गौरवशाली नरोपा से कहा, ‘’मैं चक्र संवर का अभिषेक और तंत्र के भाष्य की दीक्षा चाहता हूं।‘’
नरोपा ने उसे संपूर्ण अभिषेक दिया और तंत्र-भाष्य को पढ़ने की जानकारी भी। और कहा, ‘’इन सूत्रों का अभ्यास करना अति महत्वपूर्ण है।‘’
मारपा दीक्षित होकर उसे प्राप्त हुई विद्या पर वर्षों ध्यान करता रहा। फलत: उसको भीतर बहुत से असाधारण अनुभव हुए। और रहस्यपूर्ण मंत्रों का ज्ञान हुआ। फिर मारपा ने सोचा, ‘’मैंने बारह साल भारत और नेपाल में बीताये। मुझे उन गहन विद्याओं और विज्ञान का पता चला, मंत्र दीक्षा मिली। अब मेरा स्वर्ण समाप्त हो गया है। मैं तिब्बत जाकर पुन: स्वर्ण ले आता हूं और मेरे गुरूओं को देता हूं।
तिब्बत लौटने से पहले उसने नरोपा के सम्मान में बहुत बड़ा उत्सव और प्रीतिभोज आयोजित किया। इस उत्सव को धन्यवाद का गण चक्र कहा जाता है।
मारपा ने मन ही मन सोचा, ‘’भारत और नेपाल आने का मेरा उद्देश्य पूरा हुआ। मुझे ऐसे विद्वान गुरु मिले जिन्होंने महान सिद्धियां प्राप्त की है। मैंने उनके द्वारा भाष्य लिखे हुए अनेक तंत्रों को पढ़ा है। मैं एक आदर्श अनुवाद बन गया हूं। जो बहुत सी भाषाएं जानता है। विशुद्ध अनुभव और बोध मेरे भीतर उदित हुए है। अब मैं बिना किन्हीं कठिनाइयों के तिब्बत लौट रहा हूं। मेरे लिए इससे बढ़कर खुशी का दिन नहीं हो सकता।‘’
फिर मारपा ने महापंडित नरोपा में गीत गाया। वह गीत उसने तानपूरे के गुंजन की मानिंद गाया--
है प्रामाणिक, बहुमूल्य गुरु,
चूंकि पहले किये अभ्यास के कारण
आपने योग्यता अर्जित की
आप निर्माण काय तिलोपा से प्रत्यक्ष मिले
होने का दुःख, जिसे छोड़ना कठिन है,
आपने आपके बारह परीक्षाओं के दौरान छोड़ दिया
आपके तप-अभ्यास की वजह से
आपने एक क्षण में सत्य को जान लिया
श्री ज्ञान सिद्धि, मैं आपके चरणों को वंदन करता हूं।
मैं, एक अनुवादक, तिब्बत का नौसिखिया
पिछले कर्मों के कारण आप,
महापंडित नरोपा मिले
मैंने हेवज़ तंत्र पढ़ा, जो कि गहनता के प्रसिद्ध है,
आपने मुझे सार दिया : महामाया
मैंने चक्र संवर आंतरिक सार पाया
तंत्र के चार प्रणालियों का सार मैंने निचोड़ा
जो कि माता सुभागिनी ने दिया था
जिसके आशीषों की धारा अक्षुण्ण है
आपने मुझे चार अभिषेक हस्तांतरित किये
मैंने निष्कलुष समाधि को जनम दिया
और सात दिन तक उसमे विश्वास को दृढ़ किया
स्थिर अवकाश के घर में
सूर्य-चंद्र, जीवन ऊर्जा और क्षय बंदी थे
आनंद, आलोक, और निर्विचार का युगपात अनुभव
मेरे ह्रदय में उदित हुआ
बह्म-दृश्य, संभ्रम का भ्रांतिपूर्ण चक्र
अजन्मी महामुद्रा की भांति प्रतीत हुआ
भीतर के बंधन, मन के अहसास ने
अपने स्वभाव को ऐसे जान लिया जैसे
पुराने मित्र से मिल रहे हो
एक अकथ अनुभव ऐसे प्रगट हुआ
जैसे गुँगे के द्वारा देखा गया सपना
एक अवर्णनीय अर्थ ऐसा जाना गया
जैसे युवती ने जानी हुई मस्ती
भगवान नरोपा, आप बहुत दयालु है
आपने मुझे आशीष और अभिषेक दिया
कृपया अपनी दया से मुझे स्वीकार करते रहे
यह सून कर महापंडित नरोपा ने मस्तक पर हाथ रखे और मौखिक आदेश गाया :
तिब्बत के अनुवादक मारपा
आठ सांसारिक लक्ष्यों को अपनी लक्ष्य मत बनाना
शत्रु या मित्र की निंदा मत करना
दूसरों के तरीकों को भ्रष्ट मत करना
सीखना और ध्यान मशालें है
जो अँधेरा दूर करती है
मोक्ष के परम पथ पर लुट मत जाना
पहले हम गुरु और शिष्य थे
भविष्य में इसे ध्यान रखना, भूलना मत
मन का यह कीमती रत्न--
इसे मूढ़ की तरह नदी में फेंक मत देना
अचल ध्यान के साथ इसकी रक्षा करना
और तुम सारी जरूरतें,
इच्छाएं और उद्देश्य को पा लोगे
मारपा ने आनंदित होकर सौगंध ली कि वह नरोपा के दर्शन करने वापिस आयेगा। फिर वह तिब्बत चला गया।
तिब्बत जाते हुए नेपाल और तिब्बत सीमा पर लिशोकर गांव में चुंगी नाके के अधिकारी ने मारपा को रोक लिया। कुछ दिन मारपा को वहां रहना पडा। आखिरी दिन मारपा को एक सपना आया। सपने में दो डाकिनियां मारपा को उठाकर श्री पर्वत ले गई। वहां मारपा को महाब्रह्मण सरहा मिला। सरहा ने मारपा की काय-वाणी और मन को आशीर्वाद दिये, और महामुद्रा के चिन्ह और उसके अर्थ बताये। मारपा का शरीर विशुद्ध आनंद से ओतप्रोत हुआ और उसके मन में अविकृत बोध जागा। उसका सपना खुशी से आपूरित हुआ।
मारपा तीन बार भारत गया। तीसरी बार जब वह जाने को हुआ तो उसके शिष्यों और परिजनों ने बहुत विनती की, ‘’आप न जायें। आपकी काया वृद्ध हो चुकी है। आपने बहुत ज्ञान ग्रहण कर लिया है, अब क्या आवश्यकता है?
लेकिन मारपा ने नारोपा का वचन दिया था कि मैं एक बार जरूर आऊँगा। इसलिए मारपा फिर एक बार नरोपा से मिलने गया। उन दोनों के बीच विलक्षण गहन प्रेम था। इतना कि अंतिम बार नरोपा ने मारपा से मस्तक पर हाथ रखकर कहा, ‘’हमारे बीच जो प्रेम, विरह और आत्मीय ता है उस वजह से प्रकाश लोक में हम मिलन और विरह के पार है। अगले जन्म में मैं तुझे शुद्ध स्वर्णीय जगत में मिलूगा, और हम अटूट साथी होंगे।‘’
मारपा के सात पुत्र थे, लेकिन नरोपा न उससे कहा कि ‘’तेरा वंश यही समाप्त होगा, और तेरा धर्म वंश लंबे समय तक चलेगा। तेरे सात पुत्र हों या सात हजार, वंश आगे नहीं बढ़ सकता। इसलिए तुम पिता पुत्र बिना किसी शोक के धर्म साधना में जीवन बिताओ।‘’
‘’पिछले जन्मों में तेरे कर्मों की शृंखला बहुत शुभ रही है। तू जमीन पर बसने वाला महासत्व है और तेरे द्वारा बहुत से जीवों का कल्याण होगा। इसलिए तिब्बत के बर्फ़ीले देश के शिष्यों को विनम्र बनाने की खातिर मैं तुझे अपना संदेश वाहन होने की शक्ति प्रदान करता हूं।‘’
दि सॉंग ऑफ तिलोपा--
पश्चिम दिशा में सोम पुरी मंदिर में योगियों के सिरताज तिलोपा ने लोगों से अनुरोध किया कि उसके पैरों में लोहे की जंजीर डाल दी जायें। फिर बारह साल उसने योग अभ्यास किया। इस प्रकार यिदम देवता के दर्शन करने की साधारण सिद्धि उसे प्राप्त हुई। आयतनों के स्थूल तल पर प्रवीणता पाने के बाद वह उसका प्रयोग करना चाहता था। लेकिन गुरूओं से इजाजत न मिलने के कारण वह उसका प्रयोग करना चाहता था। लेकिन गुरूओं से इजाजत न मिलने के कारण वह ऐसा न कर सका। लेकिन एक बार उसने मछली की चेतना को अवकाश में बदल कर दिखाया तब सब लोग मान गये कि उसे सिद्धि मिली है। उन्होंने उसे जहां मर्जी जाने की इजाजत दी।
तिलोपा आचार्य नागार्जुन की खोज में दक्षिण भारत चल पडा। वहां महेश्वर के एक मंदिर में उसे आचार्य मातंगी मिले। उन्होंने कहा, ‘’आचार्य नागार्जुन गंधर्वी के सम्राट को धर्म ज्ञान देने गये है। लेकिन उन्होंने तुम्हें, एक खानदानी व्यक्ति को, मेरा शिष्य बनाने का आदेश दिया है।‘’
तिलोपा ने बिना झिझक मातंगी को मंडल अर्पित किया। उस पर मातंगी ने तिलोपा को अभिषेक किया और उसे मौखिक दीक्षा दी: ‘’मन की तथाता ऐसी है, इधर-उधर भटक बगैर उस पर ध्यान कर।‘’
इस तरह तिलोपा का उच्च खानदान का घमंड चूर हुआ। उसके बाद मातंगी ने तिलोपा को बंगाल जाने के लिए कहा। वहां हरिकिला शहर में एक बाजार में जिसे पंचपण कहते है। वहां एक वेश्या रहती है। जिसका नाम है दारिमा। उसकी सेवा कर और आत्म ज्ञान के पथ पर गति कर। शीध्र ही तुझे महामुद्रा की सिद्धि प्राप्त होगी। और तू अनेक जीवों को मुक्त करेगा।
योगी राज तिलोपा अपने गुरु के आदेश का पालन करता रहा। रात को वह पुरूषों को घर के अंदर-बाहर ले जाकर वेश्या की मदद करता और दिन में तिल कूटनें का काम करता। इस विधि से उसने वस्तु स्वभाव को जान लिया। जब उसे महामुद्रा की परम सिद्धि प्राप्त हुई तब शहर के लोगों को उसमे दिव्य दर्शन होने लगे। किसी को उसकी जगह जलती हुई आग नजर आती, किसी को चौदह दीये जलते दिखाई देते। किसी को प्रकाश पुंज में बैठा हुआ भिक्षु नजर आता। कुछ एक ने देखा कि रत्न आभूषणों से युक्त योगी बैठा हुआ है। और बहुत सी युवतियां उसे दंडवत कर रही है।
लोग दारिमा के पास गये और उसे यह बात बताई। तभी उसके सामने एक दृश्य प्रगट हुआ : तिलोपा आकाश में प्रकाश के विशाल विस्तर में सम्राट की तरह बैठा हुआ था। और दाहिने हाथ में वि तिल कूट रहा था।
दारिमा को बहुत पश्चाताप हुआ। और उसका मन तड़पने लगा। उसने तिलोपा को साष्टांग दंडवत किया, उसकी परिक्रमा की और उसके लिए मंडल बनाया। फिर उसने तिलोपा के चरणों को अपने माथे पर रखकर कहा, ‘’हे भगवान, है जेट सन, मैंने तुझे नहीं पहचाना। आप सिद्ध है। मेरे दुष्कर्मों को माफ कर दें। आज के बाद कृपया मुझे स्वीकार करें।‘’
योगी ने कहा, ‘’ चूंकि मुझे काम देते समय तुम नहीं जानती थी की में साधु हूं, तुम्हें कोई दोष नहीं लगेगा। इस काम के द्वारा मैंने तपस्या की। अब यह सर्वव्यापी प्रज्ञा, सब धर्मों का अंतस्थ अजन्मा स्वभाव मेरे अंतस में प्रकट हुआ है। मैं चाहता हूं यह तुम्हारे अंतर में भी प्रविष्ट हो।‘’
इतना कह कर तिलोपा ने सिर्फ एक फूल दारिमा के मस्तक पर रखा, और वह मुक्त हो गई, योगिनी बन गई।
जब सम्राट ने सुना कि एक योगी के माध्यम से दारिमा योगिनी बन गई तो हाथी पर सवार होकर, विशाल काफिला लेकिर वह उसे देखने पहुंचा। योगी और दारिमा बाजार के चौरास्ते पर बैठे हुए थे और केले के सात पेड़ों की ऊँचाई तक ऊपर आकाश में उठ गये।
तब तिलोपा ने गूँजती हुई, महा ब्रह्म की सुरीली आवाज में वज्र दोहा गाया--
तिल का तेल अर्क है
यद्यपि अज्ञानी जानते है
कि वे तिल में है,
वे कारण, कार्य और रूपांतरण का परिणाम
नहीं जानते है
अंत: अर्क अर्थात तेल को निचोड़ नहीं सकते
यद्यपि जन्मजात स्वयंभू प्रज्ञा
हर ह्रदय में विराजमान है,
जब तक गुरु उसे नहीं दिखाता तब तक
प्रगट नहीं हो सकती--
तिल में छुपे हुए तेल की तरह
तिल को कूटकर भूसे को हटाना पड़ता है।
--और फिर तेल अर्थात अर्क प्रकट होता है,
उसी भांति गुरु तथाता का सत्य दिखाता है
और सभी घटनाएं एक ही तत्व में मिल जाती है
क्या हो,
दूरगामी, अथाह अर्थ इस क्षण में प्रगट है
अद्भुत।।
ओशो का नज़रिया:---
आज मैं एक विचित्र किताब का उल्लेख करना चाहता हूं—साधारण: कोई नहीं सोचेगा कि मैं अपनी मनपसंद किताबों में उसे सम्मिलित करूंगा, तिब्बती रहस्यदर्शी मारपा की अद्भुत किताब है यह। उसके शिष्य भी उसे नहीं पढ़ते, वह पढ़ने के लिए नहीं है, वह एक पहेली है। उस पर ध्यान करना है। उसे देखते रहो, और अचानक किताब खो जाती है—उसके शब्द खो जाते है। और चेतना रह जाती है।
तिलोपा , और उसके गीतों के कुछ स्वर जो शिष्यों ने पीछे छोड़े है। मुझे आश्चर्य होता है, इन शिष्यों के बगैर हम कितना कुछ चूक जाते। ये लोग वह सब लिखते रहे जो गुरु कहता, बगैर फिक्र किये कि सही है कि गलत। और फिर भी जहां तक बन सके। सही शब्दों में उसे पकड़ते रहे। यह बहुत कठिन है। गुरु तो पागल है: वह कुछ भी कह सकता है। कुछ भी गा सकता है। कुछ कर सकता है। या मौन रह सकता है। हाथ से कुछ इशारे कर सकता है। और वे इशारे समझने होते है।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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