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रविवार, 4 दिसंबर 2011

सात-सात साल का वर्तुल—(ओशो)

एक से सात साल तक--
     बच्‍चा बहुत मासूम होता है, बिलकुल संत जैसा। वह अपनी जननेंद्रियों से खेलता है लेकिन उसे पता नहीं होता कि वह गलत है। वह नैसर्गिक ढ़ंग से जीता है।

सात से चौदह साल तक--
      सात साल में बच्‍चा बचपन से बहार आ जाता है। एक नया अध्‍याय खुलता है। अब तक वह निर्दोष था, अब दुनियादारी और दुनिया की चालाकियां सीखने लगता है। झूठ बोलने लगता है, मुखौटे पहनने लगता है। झूठ की पहली पर्त उसे घेर लेती है।

चौदह से इक्‍कीस साल तक--
      चौदह साल से पहले सेक्‍स उसके लिए कभी समस्‍या नहीं थी। लेकिन अब अचानक उसके अंतरतम में काम ऊर्जा पैदा हो जाती है। उसकी पूरी दुनिया ही बदल जाती है। पहली बार विपरीत लिंगी व्‍यक्‍ति में उत्‍सुकता जगती है। जीवन की एक अलग ही दृष्‍टि पैदा होती है।

इक्‍कीस से अट्ठाईस साल तक--
      अब उसकी सता की दौड़ शुरू है। महत्‍वाकांक्षा, धन कमाने का लालसा, नाम कमाने की लालसा, कुछ कर गुजरने की इच्‍छा। उसका मैं जग जाता है। यह सब इक्‍कीस वर्ष से शुरू होता है। उसे अपने आपको सिद्ध करना है, जीवन में जड़े जमानी है।

अट्ठाईस से पैंतीस साल तक--
      यहां आकर वह सुरक्षा के बारे में सोचने लगता है। सुविधाएं, बैक बैलेंस...अपनी पूंजी कहीं न कहीं सुरक्षित रखने का सोचता है। अट्ठाईस साल तक उसकी गाड़ी खतरे से खेलती रही। मुश्‍किलों का सामना करना पसंद करती रहीं। सारे विद्रोही और हिप्‍पी तीस साल से पहले होते है। तीस साल के बाद सारा हिप्‍पी वाद खत्‍म हो जाता है। तीस साल के आते ही सारी खलबली शांत होने लग जाती है। सब कुछ व्‍यवस्‍था का हिस्‍सा होना शुरू हो जाता है।
पैंतीस से बयालीस साल तक--
      पैंतीस वर्ष की आयु फिर एक बदलाव की शुरूआत। पैंतीस वर्ष जीवन का शिखर है। अगर सत्‍तर वर्ष का जीवन हो तो पैंतीस उसका मध्‍य बिंदु है। जीवन वर्तुल आधा समाप्‍त हुआ। अब व्‍यक्‍ति मृत्‍यु के बारे में सोचने लगता है। उसे भय पैदा होता है। यही उम्र है जब अल्‍सर, रक्‍तचाप, दिल का दौरा, कैंसर, टी. बी. और अन्‍य संधातम रोग सिर उठाने लग जोते है। भय के कारण। भय इन सबको पैदा करता है। व्‍यक्‍ति हर तरह की दुर्घटनाओं का शिकार होने लगता है। क्‍योंकि उसके भीतर भय पैदा हो गया है। मृत्‍यु निकट आती मालूम होती है। भय उसका पहला चरण लगता है।
बयालीस से उनचास साल तक--
      हर व्‍यक्‍ति को धर्म की जरूरत होती है। अब उसे धार्मिक संबंध की जरूरत होती है—ईश्‍वर या गुरु या कोई ऐसी जगह जहां वह समर्पण कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्‍का कर सके; जहां जाकर वह अपना बोझ हल्‍का कर सके। यदि धार्मिक व्‍यक्‍ति न मिला और लोग एडोल्‍फ हिटलर या स्‍टैलिन को खोज लेते है तो उन्‍हें भगवान बना देते है। यदि वे भी न मिलें तो फिर मनोशिचकित्‍सक है, थेरेपिस्‍ट हे।
उनचास से छप्‍पन साल तक--
      व्‍यक्‍ति धर्म में चल पड़ता है, तो उस मार्ग पर अपनी जड़े जमा लेता है। ध्‍यान और सुगंध के नये-नये अंकुर निकलने लग जाते है। जीवन में एक सरसता आ जाती है। गुरु की खोज समप्‍त हो जाती है। उसे राह मिल जाती है। और जीवन की डगर रस से भरी महसूस होती है...

छप्‍पन से त्रेसठ साल तक--
      अगर वह ध्‍यान में डूबता है, और सही मार्ग पर चलता चला जाता है। उसके जीवन में पत्‍तों के साथ फूलों का खिलना भी महसुस होने लग जाता है। कलियां चटकने लग जाती है। शांति और आनंद का उन्‍माद उसे घेरे रहता है। आंखों में एक गहराई आ जाती है। उसके संग साथ रहने से शांति फैलने लग जाती है। और एक दिन उसे सतोरी की झलक मिल जाती है।
त्रेसठ से सत्‍तर साल तक--
      ये जीवन के अंतिम पड़ाव की सुगंध और मंदिर के कलस दिखाई देने लग जाते है। फिर चाहे वो 80-90 साल तक जीए, इस से कोई फर्क नहीं पड़ता। वह मृत्‍यु के अगमन का स्‍वगत-सत्‍कार शुरू कर देता है। उस में डूब जाने की कला निपूर्ण हो जाता है। सतोरी के बाद में आदमी को मृत्‍यु का जो भय समया होता है वह खत्‍म हो जाता है। हम मृत्‍यु को बीना जाने ही भय भीत रहते है। सतोरी के बाद मृत्‍यु एक सुंदर अनुभव है। जिस की वह सतत प्रतिक्षा करता है। ये नहीं की वह आत्‍म हत्‍या करना चाहता है। वह जीवन भी बीना मृत्‍यु के भय के भार हीन जीता है। बिना कोई बोझ लिये। और धीरे-धीर वह एक दिव्‍यता में प्रवेश कर जाता है।
ओशो
फॉर मैडमैन ओनली

    

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