ए मैन्युअल ऑफ प्रिंसिपल्स एंड टेकनिक्स—असोजियोली एम. डी.
ओशो की प्रिय पुस्तकें
ओशो की प्रिय पुस्तकें
Psychosynthesis: A manual of principles and techniques -Roberto Assagioli
(यद्यपि असोजियोली बुद्ध पुरूष नहीं है, और वह चेतना की परम स्थिति का वर्णन नहीं करता, तथापि अंतर् याता की समूची प्रक्रिया को वह अत्यंत विधायक दृष्टिकोण से और वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है। लगता है कहीं उसका तार ओशो चेतना द्वारा होने वाली आगामी आध्यात्मिक क्रांति से मिला हुआ है। अंत: आश्चर्य नहीं कि ओशो कहते है, मैं चाहूंगा कि मेरे सभी संन्यासी असोजियोली को पढ़े।)
मनोविश्लेषण के क्षेत्र में यह एक ऐसी किताब है जो फ्रायड की मनोवैज्ञानिक सलिला को एक नया मोड़ देती है। मानव मन की अचेतन वृतियां को समझने के लिए सिगमंड फ्रायड ने मन को विश्लेषण कर अवचेतन की बारीक से बारीक तरंग को पकड़ने की कोशिश की है। और इटालियन मनोवैज्ञानिक रॉबर्ट असोजियोली ने उससे ठीक उलटी प्रणाली ईजाद की। विश्लेषण से छिन्न-भिन्न हुए मन के टुकड़ों को समेट कर उसे एक अखंड संपूर्णता प्रदान करने की विधि विकसित की। असोजियोली के इस विज्ञान का नाम है: सायकोसिंथेसिस। इसकी सही अनुवाद होगा: मानसिक संश्लेषण या मन को जोड़ना।
सन 1910 में उसने फ्रायड के मनोविश्लेषण के सिद्धांत पर एक शोध प्रबंध लिखा जिसमें सिर्फ एक परिछेद था ‘’सायकोसिंथेसिस’’। उसके बाद उसने धीरे-धीरे अपने दवाखाने में मानसिक रोगियों के साथ सायकोथैरेपी की अनेक विधियां सम्मिलित की। उसके भीतर मानसिक रोगियों का इलाज करने की एक नई चिकित्सा विकसित हो रही थी। सन 1926 में, रोम में ‘’इंस्टीट्यूट ऑफ सायकोसिंथेसिस की स्थापना हुई। 1957 में इसकी शाखा अमेरिका में खोली गई। यही नहीं, 1965 में भारत में इसकी शाखा मुरादाबाद शहर में प्राध्यापक अत्रेय ने भी सायकोसिंथेसिस के संस्थान की नींव रखी। विश्व भर में सायकोसिंथेसिस पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते है।
असोजियोली के लगभग पचास साल के अनुसंधान और अनुभवों को समृद्ध फल है यह किताब। इस चिकित्सा की जननी है सायकोथैरेपी, लेकिन आगे चलकर इसका अपना स्वतंत्र विस्तार हुआ है। 315 पृष्ठों के इस गहन गंभीर ग्रंथ के दो मुख्य हिस्से है: सिद्धांत और प्रयोगात्मक विधियां। प्रारंभ में ही लेखक विनम्रता से स्वीकार करता है कि उससे पहले जेनेट, फ्रायड, युंग कई और मनोवैज्ञानिकों ने इस शब्द का प्रयोग किया है। व्यक्ति के परिपूर्ण और सुरीले विकास को युंग ‘’सिंथेसिस’’ कहता था। बीसवीं सदी की शुरूआत में मनोवैज्ञानिकों का छोटा सा समूह अपने-अपने चिकित्सालयों में मनुष्य के अवचेतन की गुत्थी सुलझाने में मशगूल था। यह छोटा सा निर्झर शीध्र ही विशाल सरिता में बदल गया। उनकी खोजों की बदौलत ‘’साइकोसोमैटिक औषधियां’’, ‘’धर्म का मनोविज्ञान’’, ‘’सुपरकॉंशस की एकात्मता’’ जैसी कई अव धारणाएं’’ प्रचलित हुई। अवचेतन(अनकांशस) का जो विशाल अज्ञात प्रदेश था उसके विभिन्न हिस्से कर असोजियोली ने व्यक्तित्व की संकीर्ण भूमि से लेकर सामूहिक अचेतन के महाद्वीप तक का नक्शा बनाया। वह कहता है, आत्म ज्ञान प्राप्त करने के चार चरण है।
1-- स्वयं के व्यक्तित्व की गहरी पहचान।
2-- उसके विभिन्न पहलुओं पर (जैसे विचार, भाव, ग्रंथियां) नियंत्रण।
3-- स्वयं के वास्तविक केंद्र का अनुभव।
4-- सायकोसिंथेसिस: इस नये केंद्र के इर्द-गिर्द व्यक्तित्व का निर्माण।
असोजियोली का विशेषता यह है कि स्वयं की खोज करने में वह किसी प्रकार की धार्मिक या आध्यात्मिक शब्दावली का सहारा नहीं लेता। उस भाषा में वि सोचता भी नहीं। ‘’आध्यात्मिक’’ शब्द का प्रयोग भी वह ‘’सजगता की स्थिति’’ के अर्थों में करता है। पूरी अंतर्यात्रा को ही उसने बिलकुल नई भाषा का परिधान देकर एक नई शक्ल और एक अनूठी ताजगी दे दी है। आध्यात्मिक शब्दावली में कुछ ऐसा गुण है कि वह साधक के भीतर एक सधन और महीन आध्यात्मिक अहंकार पैदा करती है। वह सोचता है कि वह सामान्य जनों से कुछ ऊपर है। और मनोवैज्ञानिक भाषा की विशेषता है, मन, के गहन से गहन अनुभवों को डीमिस्टिफाई करना, साधारण बना देना। जबकि असोजियोली का पूरा चिंतन किसी प्रबुद्ध चेतना के चिंतन से कम नहीं है। शायद इसीलिए ओशो, पश्चिम के प्रतिभाशाली मनोचिकित्सकों में उसकी गिनती हमेशा करते है।
असोजियोली के सिद्धांत का सारांश यही है कि मनुष्य के निम्न व्यक्तित्व की जो ख़ामियाँ है उन्हें दूर कर वह अपनी उर्जा का रूपांतरण करे—उस रूपांतरण को ढेर सारी विधियां भी वह देता है। रूपांतरण की आग से गुजरने के बाद वह एक नया सुगठित केंद्र खोजें और उसके अनुरूप एक नया व्यक्तित्व बनाएँ जो कि पूर्णतया विधायक और अध्यात्मिक होगा। मन की इस संशिलष्ट स्थिति को वह सायकोसिंथेसिस कहता है।
चूंकि असोजियोली क्लिनिकल थेरेपिस्ट था, उसके दो तिहाई किताब हर तरह की प्रायोगिक विधियों के प्रयोगों के लिए रख छोड़ी है। कैथार्सिस अर्थात रेचन सबसे महत्वपूर्ण विधि है जिससे अवचेतन में प्रवेश किया जा ता है। यह विधि मनस्विदों को आधारभूत साधन है। असोजियोली शारीरिक (मांसपेशियों में प्रविष्ट तनाव) तथा मानसिक रेचन पर जोर देता था। कल्पना करना, डायरी लिखना, शरीर के साथ तादात्म्य को जोड़ना, इस तरह की कतिपय विधियों को सविस्तार वर्णन करके असोजियोली ने अपने ग्रंथ को मात्र दार्शनिक ऊहापोह होने से बचा लिया है।
रोजमर्रा के जीवन में करने जैसे अनेक प्रयोग प्रस्तुत कर असोजियोली संकल्प को जगाने के छोटे-छोटे गुर बताता है। उनमें से एक गुर वाकई विचारणीय है: ‘’मैक हेस्ट स्लोली’’ ‘’आहिस्ता–आहिस्ता शीध्रता करो।‘’ धीरज को विकसित करने के लिए यह प्रयोग बहुत बढ़िया है। उन सारे मौक़ों पर जहां आदमी को झुंझलाहट होनी स्वाभाविक है, वहां प्रयत्नपूर्वक धीरज रखना—जैसे, दूसरे का दरवाजा खुलने से पहले, लंबे क्यू में खड़े रहने पर, वरिष्ठ द्वारा अपमानित होने पर, कनिष्ठ सेवक की चालाकी पकड़ में आने पर, इस सब स्थितियों में बराबर आत्म स्मरण करने से संकल्प का केंद्र निर्मित होता है।
मनोविज्ञान और विज्ञान ने मानव के आध्यात्मिक विकास में एक बहुत बड़ा योगदान दिया है: वह साधक को संसार से तोड़ता नहीं बल्कि उससे और भी सुंदर ढंग से जोड़ता है। और बुद्धत्व की खोज पूरी तरह ज़ोरबा से जूड़ी रहती है।
मन को केंद्रित करने की विधियां प्रस्तुत करते हुए असोजियोली उन्हें दो हिस्सों में बाँटता है। व्यक्तिगत और सायकोसिंथेसिस की विधियां और आध्यात्मिक सायकोसिंथेसिस की विधियां। व्यक्तिगत विधियों में उसका पूरा जोर इस बिंदू पर है कि व्यक्तित्व के साथ प्रत्येक व्यक्ति का जो तादात्म्य होता है उससे मुक्त कैसे हुआ जाये।
आध्यात्मिक सायकोसिंथेसिस का विवेचन करते हुए लेखक कहता है: अन्य मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों से यह भिन्न है। वह उतनी ही मूलभूत है जितनी फ्रायड द्वारा वर्णित अंतरस्थ ऊर्जाऐं। हम मानते है कि मनुष्य के भौतिक हिस्से की भांति उसका आध्यात्मिक तल भी उतना ही महत्वपूर्ण हे। हम मनोविज्ञान के ऊपर दार्शनिक, धार्मिक या पौराणिक धारणाएं थोपना नहीं चाहते, वरन मनोवैज्ञानिक तथ्यों के अध्यन के अंतर्गत हम मनुष्य की वे सब श्रेष्ठ प्रेरणाओं को शामिल करना चाहते है जो अपने आत्मिक केंद्र की और उन्नत होने में उसकी सहायता करते है।
मानव मन के विशाल विश्व में जो भी उच्चतर पहलू है, जैसे कल्पना, अंत: प्रज्ञा, सृजनात्मकता, प्रतिभा वे सारी इतनी यथार्थ और वास्तविक है कि उन पर वैज्ञानिक अनुसंधान निश्चय ही हो सकता है।
संगीत: बीमारी और स्वास्थ्य का स्त्रोत
इस विचार प्रवर्तक ग्रंथ के तीसरे परिच्छेद में कुछ खास विधियों की चर्चा की गई है जिनमें संगीत का उपयोग चिकित्सा के लिए करने के अद्भुत उपाय बताये गये है।
यदि यहां पर असोजियोली की किताब समाप्त हो जाती है तो वह फ्रायड से नाता नहीं जोड़ सकता था। अंतिम परिछेद में उसने सेक्स ऊर्जाओं के रूपांतरण तथा उदात्तीकरण के विशेष रूप से चर्चा की है।
असोजियोली के अंतर जगत की सैर करते हुए एक बात बार-बार जेहन में उभरती है। उसके और ओशो के विचार और अभिव्यक्ति की समानता। कई स्थानों पर हम यह भूल जाते है कि हम पचास वर्ष पुराने इटालियन मनोवैज्ञानिक को पढ़ रहे है या ओशो को। यद्यपि असोजियोली बुद्ध पुरूष नहीं है। और वह चेतना की परम स्थिति का वर्णन नहीं करता। तथापि अंतर्यात्रा की समूची प्रक्रिया को वह अत्यंत विधायक दृष्टिकोण से और वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत करता है। लगता है कहीं उसका तार ओशो चेतना द्वारा होने वाली आगामी आध्यात्मिक क्रांति से मिला हुआ है। अंत: आश्चर्य नहीं कि ओशो कहते है, ‘’मैं चाहूंगा कि मेरे सभी संन्यासी असोजियोली को पढ़े।
किताब की एक झलक:
मनुष्य का अध्यात्मिक विकास एक लंबा और दूभर सफर है। एक साहस जो अजीबोगरीब प्रदेशों से गुजारता है। उसमे कई तरह के विस्मय चकित करने वाले प्रसंग, कठिनाइयां और खतरे भी आते है। व्यक्तित्व के जो सामान्य पहलू है उनका आमूल रूपांतरण करना पड़ता है। ऐसी क्षमताएं जाग जाती है। जो इससे पहले अज्ञात थीं। चेतना नये लोको तक उन्नत होती है। और एक अभिनव आंतरिक आयाम काम करने लगाता है।
इसलिए हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि इतना बड़ा रूपांतरण, इतना बुनियादी परिवर्तन कई मुश्किल स्थितियों से पटा होता है। और उसके दौरान अनेक भावनात्मक, बौद्धिक और मज्जा तंतुओं की गड़बड़ियाँ पैदा होती है। अपने क्लिनिक में का करनेवाले तटस्थ थेरेपिस्ट को ये सारी उथल-पुथल उसी किस्म की प्रतीत होगी जैसी सामान्यता मरीजों में होती है। लेकिन वस्तुत: उनकी अर्थवत्ता और कारण बिलकुल अलग है। उन्हें चिकित्सा की जरूरत होती है।
आजकल आध्यात्मिक कारणों से पैदा होने वाली उथल-पुथल बढ़ती जा रही है। क्योंकि ऐसे लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। जो जाने अनजाने अधिक संपूर्ण जीवन की तलाश कर रहे है। साथ ही आधुनिक मानव के व्यक्तित्व की विकास और उसी वजह से आयी हुई जटिलता और उसके आलोचक मस्तिष्क के आध्यात्मिक विकास को अधिक और जटिल प्रक्रिया बना दिया है।
अतीत में ऐसा था कि थोड़ा बहुत नैतिक परिवर्तन शिक्षक या गुरु के प्रति सरल सी हार्दिक भक्ति ईश्वर के प्रति प्रेमपूर्ण सम्पूर्ण चेतना के उच्च्तर तलों के और आंतरिक मिलन और कृतकृत्यता के द्वार खोलने के लिए पर्याप्त थे। अब इस प्रक्रिया में आधुनिक मानव व्यक्तित्व के अधिक विरोधाभासी और विभिन्न पहलू संलग्न है जिन्हें रूपांतरित करना तथा उनका परस्पर सामंजस्य करना जरूरी है। इन पहलुओं में शामिल है:
मनुष्य की बुनियादी वृतियां, उसके भाव और संवेग, उसकी सर्जनशील कल्पना शक्ति, उसका जिज्ञासु मस्तिष्क, उसका आक्रामक संकल्प और व्यक्तियों के तथा सामाजिक संबंध।
इन कारणों से आध्यात्मिक बोध के भिन्न-भिन्न चरणों में जो गड़बड़ी पैदा हो सकती है उनकी एक सामान्य रूपरेखा तथा उनके इलाज के कुछ सूत्र हम समझते है। उपयोगी होंगे। स्पष्टता की दृष्टि से हम इस विकास के चार मुख्य चरण कर सकते है।
1-- आध्यात्मिक जागरण के पहले के संकट
2-- आध्यात्मिक जागरण के कारण आनेवाले संकट
3-- आध्यात्मिक जागरण की प्रतिक्रिया
4-- रूपांतरण की प्रक्रिया के पड़ाव
हमने ‘’जागरण’’, ‘’अवेकनिंग’’ के प्रतीक का प्रयोग किया है क्योंकि उससे अनुभव ने नये लोक की संवेदना का बोध होता है। उस आंतरिक सत्य के प्रति आंखों का खुलना जो अब तक उपेक्षित था।
ओशो का नजरिया:
मनोविश्लेषण सायकोएनेलिसिस की खोज कर सिगमंड फ्रायड ने अनूठा काम किया है। लेकिन वह केवल आधा-अधूरा है। उसका दूसरा आधा हिस्सा है: सायकोसिंथेसिस। लेकिन वह भी आधा हिस्सा है। मेरा काम संपूर्ण है जो कि है: सायक थीसिस।
मनोविश्लेषण और सायकोसिंथेसिस, ये दोनों ही विज्ञान अध्ययन करने जैसे है। यह किताब, सायकोसिंथेसिस, बहुत कम पढ़ी जाती है। क्योंकि असोजियोली फ्रायड जैसा बुलंद व्यक्तित्व नहीं है। वह उन ऊंचाईयों तक नहीं पहुंच पाया। लेकिन सभी संन्यासियों ने उसे पढ़ना चाहिए। ऐसा नहीं है कि वह सही है और फ्रायड गलत है। उन्हें अलग-अलग देखा तो दोनों की गलत हे। वे जब इकट्ठे देखे जायें तभी यही है। और यही मेरा काम है: सभी टुकड़ों को इकट्ठा करना।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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