सायकोएनेलिसिस एंड दि अनकांशस—(डी. एच. लॉरेन्स)
ओशो की प्रिय पुस्तकें
ओशो की प्रिय पुस्तकें
Psychoanalysis and the Unconscious-Lawrence, D. H.
बीसवीं सदी के आरंभ में सिगमंड फ्रायड और उसके शिष्योत्तम युग ने पहली बार मनुष्य के मन की गहराई में दबे हुए अवचेतन या अनकांशस का उॅहापोह किया। ओशो स्पष्ट कहते है कि लॉरेन्स एक स्थापित मनोवैज्ञानिक न होते हुए भी वह मन की गहराइयों में अधिक कुशलता से पहुंचा है। और उसने बड़ी सुंदरता से अवचेतन की बारीकियां को शब्दांकित किया है।
यह किताब सबसे पहले 1923 में प्रकाशित हुई। इन दो निबंधों में लॉरेन्स का मूल बिंदू यह है कि ‘’अवचेतन’’ जीवन का ही दूसरा नाम है। उसका मानना है कि मानव जीवन में जो भी कहा नहीं जा सकता वह उसकी निजता और भावनाओं का सबसे गहरा स्त्रोत है। फ्रायड ने मनुष के अवचेतन को बड़ा की कुरूप, अंधियारा, और रूग्ण दिखाया है। और इसी कारण लॉरेन्स अवचेतन के संबंध में अपने विचार जाहिर करने के लिए प्रेरित हो उठा। इन निबंधों में वह अवचेतन के जैविक और शारीरिक पहलुओं को उजागर करता है। और कहता है कि समाज और व्यक्ति दोनों ही अवचेतन का उपयोग अपने काम संबंधों में और पारिवारिक रिश्तों में न कर सकें। उसका आग्रह है कि अवचेतन को विकसित करने के लिए वर्तमान शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन किये जाये।
इस किताब में लॉरेन्स अपना अनकांशस अर्थात मनोविश्लेषण वह अवचेतन। इस लधु किताब के छह छोटे परिच्छेद है।
1. मनोविश्लेषण विपरीत नैतिकता
2. अनैतिक संबंधों का उद्देश्य और आदर्शवाद
3. चेतना का जन्म
4. मां-बच्चा
5. प्रेमी और प्रेमिका
6. मानवीय संबंध और अवचेतन
इस किताब का जन्म जिस वातावरण में हुआ है उसे ध्यान में लिये बगैर इसे समझा नहीं जा सकता। 1920 में फ्रायड और उसका मनोविश्लेषण धूमकेतु की तरह यूरोप के आकाश में प्रकट हुआ था। और न केवल प्रगट हुआ था बल्कि लोगों के दिनो-दिमाग पर छा गया। मनोविश्लेषण एक फैशन बन गया था।
लॉरेन्स लिखता है:
‘’मनोविश्लेषण ने हमारे ऊपर बहुत आश्चर्य उछालें है। हम मनश्चिकित्सक नाम के प्राणी से परिचित हुए ही थे जिसने हमारे सारे कृत्यों की जड़ों में कुंडली मारकर बैठे हुए कामवासना के सांप को बलपूर्वक दिखा दिया। हम हमारी छिपी हुई कुंठओं को लेकिर ईमानदारी से बेचैन होना सीख ही रहे थे कि ये मनो विश्लेषक सज्जन विशुद्ध मनोविज्ञान का सिद्धांत लेकर पुन: प्रकट हुए।
मनोविश्लेषण एक सार्वजनिक खतरा बन चुका था। जनता चौकन्नी हो गई थी। ईडिपस-कॉम्पेल्क्स (ग्रीक राजकुमार ईडीपस का अपनी मां के साथ यौन संबंध) घरेलू शब्द हो गया था, बहन-भाई के बीच अनैतिक संबंध की इच्छा एक चाय के टेबल की गपशप हो गई थी। ‘’तुम्हारा मनोविश्लेषण होने दो, फिर देखना.....लोग एक दूसरे को कहते थे।
मनोविश्लेषण हमारे बीच वैद्य बनकर सवाल बनकर घुस गय थे। दो मिनट और, और वे फ़रिश्ते बनकर प्रकट होंगे।
मनोविश्लेषण एक नैतिक मसला है। सवाल नये नैतिक मूल्यों को लाने का नहीं है। यह नैतिकता के जीवन मरण का सवाल है। मनो विश्लेषकों के नेतागण इस बात से वाकिफ है। उनके शिष्य भले ही न हो, लेकिन चिकित्सा की आड़ में ही सही, मनोविश्लेषण मनुष्य के नैतिक अंग को नेस्तनाबूद करने पर तुला है।
एक अरसा हुआ हम भयभीत पूर्वाभ्यास के साथ देख रहे थे कि किस तरह फ्रायड मानव चेतना के भीतर पैठने के अभियान पर चल पडा था। वह चेतना के उस रहस्यमय प्रवाह को खोजने निकला था। अमर विलियम जेम्स का अमर मुहावरा: चेतना का प्रवाह। वह प्रवाह मेरे मस्तिष्क को भेद कर आरपार निकल गया था।
और फ्रायड अचानक मनुष्य के चेतन मन से अवचेतन में। छलांग लगा गया। नींद की दीवाल को भेद कर सपनों की गुफा में गड़गड़ाते हुए हमने उसे सुना। जो अभेद्य है, वह वस्तुत: अभेद्य नहीं है। मूर्च्छा शून्यता नहीं है, नींद है—वह अंधकार की दीवाल जो हमारे दिन को सीमित कर देती है। दीवाल में टकराओं, और पाओ कि दीवाल है ही नहीं। वह गुफा है मुंह पर फैला विराट अंधकार है। आंतरिक अंधकार की गुफा, जहां से चेतना का प्रवाह निकलता है।‘’
चेतना का जन्म:
यह तय करना बेकार है कि चेतना क्या है, और ज्ञान क्या है। किसे पड़ी है, जब हम जानते ही है। लेकिन जो हम नहीं जान पाते, फिर भी जो हमें जानना जरूरी है वह है विशुद्ध चेतना जो हर जीवित वस्तु में निहित है और विकसित होती है। मस्तिष्क आदर्श चेतना का सिर्फ मुर्दा छोर है—बुने हुए रेशम की भांति। चेतना का विराट विस्तार मस्तिष्क के पार है। वह हमारे जीवन का, बल्कि सभी जीवन का रस है।
गर्भ में स्थित शिशु को देखें। क्या गर्भ सावचेत है? होना ही चाहिए, क्योंकि वह स्वतंत्र रूप से विकसित होता रहता है। यह चेतना निश्चय ही, आदर्श नहीं होगी। दिमागी नहीं होगी। क्योंकि वह मस्तिष्क के तंतुओं के विकसित होने से पहले होती है। और फिर भी वह अंतरंग, व्यक्तिगत चेतना है जिसका अपना उद्देश्य और विकास है। वह कहां होगी? मज्जा तंतुओं के बनने से पहले वह कैसे कार्यरत होती होगी? वह काम करती तो है—धीरे-धीरे, अनवरत, मकड़ी की मानिंद मज्जा तंतु और मस्तिष्क का जाल बुनती रहती है।
सर्व प्रथम मनुष्य चेतना की मकड़ी कहां रहती होगी? वह कौन सा केंद्र होगा जहां से यह चेतना काम करती है? यदि नन्हें से गर्भ में ही चेतना का केंद्र होगा तो उसे पहले से वहां होना चाहिए।
और विकसित गर्भ में इस सृजनशील चेतना का केंद्र कहां होगा? मस्तिष्क में या ह्रदय में? हमारी अपनी व्यक्तिगत प्रज्ञा कहती है, जिसकी पुष्टि विज्ञान करता है, कि वह केंद्र नाभि के नीचे है। निश्चय ही वह केंद्र जो कि बीजाणु का सबसे पहला केंद्र है, समस्त गर्भ में पैदा होनेवाले जीवों की नाभि के नीचे रहता है। शुरू में वह बाहर के क्रियाशील जगत के साथ संबंध बनाये रखता है।
मां और उसका बच्चा:
स्तनों के भीतर जो केंद्र है वह ह्रदय का मन है। स्तन के मेल पूर्ण केंद्र के द्वार से अवचेतन अपने विषय को खोजता हुआ बहार आता है। जब बच्चा अपनी छाती अपनी मां की छाती से चिपकाता है तब वह उसकी आदिम सत्ता के प्रति जागता है—उससे कुछ पाने की इच्छा से नहीं उसके स्वयं के प्रति, जैसी कि वह अपनी आप में है।
स्तन अपने आप में दो आंखों की भांति है। हम नहीं जानते कि स्तनाग्र—स्त्री और पुरूष दोनों के—कहां तक चेतन प्रवाह के दो बिंदुओं की तरह है। हम नहीं जानते कि क्या स्तनाग्र फ़व्वारे की तरह है जो विश्व में उछलते है, या छोटे से चमकीले दीये है जो खोज में भटकती हुई आत्मा को रोशनी दिखाते है। इतनी बात तय है कि स्तन के केंद्र में स्थित वासना प्रेमी या प्रेमिका की पहली आनंदपूर्ण उपलब्धि है, बह्म विश्व की सर्व प्रथम खोज है।
लॉरेन्स की यह किताब बहुत सूक्ष्म है। यह आम आदमी के लिए नहीं है। उसकी खुद की यह इच्छा है कि हर कोई इस किताब को न पढ़े।
बड़ी अजीब इच्छा जाहिर की है। आम लेखक चाहते है कि अधिक से अधिक लोगों तक उनकी बात पहुंचे। लेकिन लॉरेन्स आम लेखक नहीं है। लॉरेन्स अपनी कोटि आप है। ‘’सायकोएनेलिसिस एंड अनकांशस’’ के आमुख में लॉरेन्स अपनी भूमिका स्पष्ट करता है--
प्रस्तुत किताब ‘’सायकोएनेलिसिस एंड अनकांशस’’ का एक सिलसिला है। सामान्य पाठक इसे अकेला छोड़ दें। और सामान्य आलोचक भी। मैं किसी को प्रभावित करना नहीं चाहता। मेरे स्वभाव के लिए खिलाफ है यह बात। मेरी किताबें सामान्य पाठकों के लिए नहीं है। अपने गलत लोकतंत्र की मैं यह गलती मानता हूं कि हर आदमी जो छपी हुई चीज को पढ़ सकता है उसे हर आदमी जो छपी हुई चीज को पढ़ने की इजाजत दी जाये। यह दुर्भाग्य है कि गहरी किताबें बाजार में सरे आम उघाड़ी जाती है। जैसे गुलामों को नग्न कर बेचने के लिए खड़ा किया जाता है।
सामान्य पाठकों को मैं चेतावनी देना चाहता हूं कि यह किताब उन्हें शब्दों का वितृष्ण दायक अंबार लगेगा। सामान्य आलोचकों को मैं चेतावनी देता हूं कि वे इसे फौरन कचरे के डिब्बे में फेंक दें। और थोड़े से चुनिंदा लोगों को जो उत्तर के प्यासे हैं, मैं सीधे कहना चाहता हूं। कि मैं सोलर फ्लैक्स (ह्रदय चक्र के थोड़ा नीचे) में बसता हूं। यह एकमात्र वक्तव्य पाठकों को नंबर पर्याप्त रूप से कम कर देगा।
ओशो का नज़रिया:
डी. एच. लॉरेन्स की एक और किताब—यह मेरे लिए परम चुनाव है। ‘’सायकोएनेलिसिस एंड अनकांशस’’ यह किताब बहुत कम पढ़ी जाती है। अब कौन पढ़ेगा इसे?
जो उपन्यास पढ़ते है वे इसे पढ़ेगे नहीं, और जो लोग मनोविश्लेषण की किताबें पढ़ते है वे भी नहीं पढ़ेगे, क्योंकि वे लॉरेन्स को मनोवैज्ञानिक नहीं मानते। लेकिन मैं पढ़ता हूं। मैं न तो उपन्यासकारों का प्रशंसक हूं, न मनोविश्लेषकों का दीवाना हूं। मैं दोनों से मुक्त हूं। मैं बिलकुल स्वतंत्र हूं। यह किताब मेरी प्रिय है।
‘’सायकोएनेलिसिस एंड अनकांशस’’ मेरी सर्वाधिक प्रिय और मनपसंद किताबों में एक रही है। और रहेगी। हालांकि अब मैंने पढ़ना बंद कर दिया है लेकिन अगर मैं फिर से पढ़ने लगुंगा तो यह पहली किताब होगी जिसे मैं पढूंगा। न वेद, न बाईबिल लेकिन ‘’सायकोएनेलिसिस एंड अनकांशस’’ और पता है, यह किताब मनोविश्लेषण के खिलाफ है। डी. एच. लॉरेन्स एक क्रांतिकारी था। सिग्मडं फ्रायड तो मध्यवर्गीय था।
ओशो
बुक्स आय हेव लव्ड
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें