विमल कीर्ति बुद्ध के वरिष्ठ शिष्य थे और स्वयं बुद्धत्व को उपलब्ध हो चूके थे। उनके द्वारा कथित निर्देश सूत्र महायान बौद्धो के साहित्य के कोहिनूर हे। लेकिन इन बहुमूल्य सूत्रों की मूल संहिता कहीं भी उपलब्ध नहीं है। विमल कीर्ति बुद्ध के समय थे (500-600 ईसा पूर्व) लेकिन लगभग पाँच सौ वर्षों तक उनके सूत्रों का कोई अता-पता नहीं था। वह तो नागार्जुन ने ईसा पूर्व पहली सदी या पहली शताब्दी ईसवी के बीच महायान परंपरा के ग्रंथ खोज निकाले। उन्हीं में से एक थे विमल कीर्ति निर्देश सूत्र। ये सूत्र सात बार चीनी भाषा में अनुवादित हुए, फिर तिब्बती भाषा में अनुवादित हुए लेकिन मूल संस्कृत सूत्र खो गये। हमारे हाथों में उनका सिर्फ अनुवाद आया है।
विमल कीर्ति एक अद्भुत प्रबुद्ध पुरूष थे। वे लिच्छवी वंश में पैदा हुए और वैशाली नगरी के पास आम्रपाली वन में रहते थे। वे बहुत धनवान थे और कई दासियां थी। विमल कीर्ति की विशेषता यह थी की वह संसारी जीवन जीते हुए उससे बिलकुल अछूते थे। वे बाजार में जाते, विद्यालयों और मद्यालयों में प्रविष्ट होते, खेलकूद के मैदानों और जुआघरों में भी दिखाई देते थे। भीड़ के बीच सामान्य होकर विचरते लेकिन उनका बुद्धत्व निष्कलुष रहता है। इन साधारण जनों को वे धर्म की शिक्षा देने के हेतु उनके बीच जाते।
फिर आयु समाप्त होने पर जब उनका शरीर प्रकृति के नियम के अधीन होकर बीमार हुआ तो बिस्तर पर पीड़ा झेलते हुए उनके मन में हुआ, ‘’यहां मैं इतना अस्वस्थ हूं, फिर भी तथागत ने मेरा हाल पूछने के लिए किसी को नहीं भेजा।‘’
जेतवन में बैठे हुए बुद्ध ने उसका भाव पकड़ लिया और अपने पास बैठे हुए शिष्यों में से दस प्रमुख शिष्यों को विमल कीर्ति के पास जाने के लिए कहा, लेकिन दसों ने कोई न कोई कारण बताकर जाने से इंकार कर दिया। असली कारण यह था कि विमल कीर्ति बहुत मेधावी और वाक्पटु थे उनकी प्रखरता के आगे कोई टिक नहीं पाता । इन शिष्यों में से प्रत्येक शिष्य एक बार उनसे हार चुका था।
बुद्ध का अपने शिष्यों से पूछना और उन सबका विमल कीर्ति के पास जाने से इंकार करना, इस पूरे संवाद से एक परिच्छेद बना है। वस्तुत: विमल कीर्ति की महानता का बखान करने की यह एक तरकीब है। प्रत्येक शिष्य उसके और विमल कीर्ति के बीच हुए संवाद को जस का तस बयान करता है। इन शिष्यों में सारे मुख्य शिष्य है जो बाद में बुद्धत्व को उपलब्ध हुए। महाकाश्ययप, मौदग्लायन, आनंद, सारिपुत्र, इत्यादि और उनका बेटा राहुल भी।
आनंद से जब कहते है कि वह विमल कीर्ति के पास जाये। तो आनंद एक घटना सुनातेे है।
‘’हे तथागत, एक दिन जब आपकी देह ग्लानि में थी और उसे दूध की आवश्यकता थी तो मैं पूर्वाह्न में अपना भिक्षा पात्र और चीवर धारण कर वैशाली में एक ब्राह्मण कुल के घर में गया। वहां पर आँगन में खड़े में खड़े होकर मैंने दूध की भिक्षा मांगी। तो लिच्छवी विमल कीर्ति ने मेरे पाँवों पर मस्तक रखकर मेरा अभिवादन किया और पूछा, ‘’भदन्त आनंद, आप प्रात: काल से ही पात्र लेकर यहां क्यों खड़े है?’’
मैंने कहा: ‘’तथागत की देह ग्लानि से ग्रसित है, उन्हें दूध की आवश्यकता है अंत: मैं आया हूं।‘’
विमल कीर्ति बोले: ‘’भदन्त आनंद ऐसा न कहें। तथागत की देह वज्र समान कठिन है। उससे समूची अकुशल धर्म वासना को नष्ट किया है और कुशल धर्म वासना को अंगभूत किया है। फिर उसे दुःख और कष्ट कैसे होगा?’’
‘’भदन्त आनंद, बिना कुछ कहं मौन ही वापिस चले जाएं। आपके निकृष्ट शब्दों को कोई और न सुने। एक चक्रवर्ती राजा, जिसकी जड़ें, भलाई में बहुत कम है वह भी रोग से मुक्त होता है, फिर तथागत जिनके अनंत कुशल मूल है, अनंत पुण्य और ज्ञान है, उन्हें रोग कैसे हो सकता है?’’
‘’भदन्त आनंद, शीध्र ही मौन वापस जाओ ताकि हम लज्जा से झुक न जाएं। अन्य तीर्थक, चरक, परिव्राजक, निर्ग्रंथ और जीवन आपके निकृष्ट शब्दों को न सुनें। वे कहेंगे, अहो वत। इन लोगों का शास्ता कैसा है, यदि वह अपने रोग को निरोग नहीं कर सकता तो हमारे रोग कैसे दूर करेगा?’’ चुपचाप चलते बनो, ताकि आपको काई सुन न ले।
‘’भदन्त आनंद तथागत धर्मकाय है: उनकी काया मल से दूषित नहीं है। वह काया आहार से स्वस्थ नहीं की जा सकती। तथागत की काया लोकोत्तर काया है। वह सर्व लोक धर्म का अतिक्रमण करती है। उसमें कोई आश्रव अर्थात अशुद्धि नहीं है। तथागत की काया असंस्कृत काया है, वह नित्य शांत है। भदन्त आनंद, ऐसी काया को रूग्ण कहना असंभव तथा मूर्खतापूर्ण है।‘’
‘’जब मैंने इन शब्दों को सुना तो मुझे लगा, बुद्ध के इतने निकट रहते हुए भी क्या मैंने उन्हें गलत सुना और समझा? और मैं बहुत लज्जित हुआ।
‘’उस क्षण मैंने एक अंतरिक्ष से आया हुआ निर्घोष सूना: आनंद, गृहपति ने तुझे जो कहा वह सत्य है। तथागत की असली काया वस्तुत: रोग विहीन है। तथापि तथागत पंच कषाय काल में अवतरित हुए है इसलिए वे यह सब अभिनय जो लोग दुःखी है, दरिद्र है और दुराचारी है उन्हें अनुशासन देने के लिए करते है। इसलिए आनंद, लज्जित न होओ, तुम दूध लेकर वापिस चले जाओ।‘’
‘’हे तथागत, विमल कीर्ति प्रश्नों के उत्तर बहुत कुशलता से देता है। उनके उत्तर सुनने के पश्चात मैं अवाक हो गया। इस कारण में उनका हाल पूछने नहीं जाऊँगा।‘’
अंतत: बुद्ध ने मंजुश्री से पूछा तो मंजुश्री जाने के लिए तैयार हुआ। यह किताब मंजुश्री और विमल कीर्ति के संवाद से बनी है। मंजुश्री ने भले ही निवेदन किया था कि विमल कीर्ति की तेजस्विता के सामने मैं बिलकुल छोटे से जुगनू की तरह हूं, लेकिन आपके आशीष के सहारे मैं उनके पास जाकर वार्तालाप करूंगा।
कहानी इस तरह है कि बुद्ध के संध में बैठे आठ हजार बोधिसत्व, पाँच सौ लोकपाल और सैंकड़ों देवी-देवता राजकुमार मंजुश्री के साथ विमल कीर्ति के घर गये क्योंकि उन्होंने सोचा, इन दोनों के संवाद में बड़ी गहन चर्चा होगी। उसे सुनने से हम क्यों वंचित रहे? और उन सबको वास्तव में निराश नहीं होना पडा। मंजुश्री और उसके दृश्य-अदृष्य कारवां को देख कर विमल कीर्ति बोल उठे स्वागत है। तुम यहाँ बिना आये हुए आये हो। तुम प्रतीत होते हो लेकिन तुम्हें देखा नहीं जा सकता। तुम सुनाई देते हो बिना सुने हुए।
मंजुश्री ने कहा: ‘’गृहपति, जैसा आपने कहा वैसा ही है। जो आता है वह नहीं आता। क्यो? जो आता है वह वस्तुत: आता नहीं। जो जाता है वह वस्तुत: जाता नहीं।‘’
इन दोनों का संवाद इसी प्रकार दार्शनिक और रहस्य का पुट लिये आगे बढ़ता है। विमल कीर्ति के स्वास्थ्य के संबंध में पूछने पर वे कहते है--
मंजुश्री: ‘’आपकी व्याधि कहां से आयी? वह कब तक रहेगी? उसका मूूल क्या है? और वह कब ठीक होगी?’’
विमल कीर्ति: ‘’मंजुश्री, मेरी व्याधि तब तक रहेगी जब तक प्राणियों में अविद्या है और भव तृष्णा है। मेरी व्याधि दूर से आती है, जन्म–जन्मांतर से। जब तक प्राणी अविद्या ग्रस्त है तब तक मैं भी अस्वस्थ रहूंगा। बोधिसत्व के लिए, जन्म-मृत्यु का चक्र व्याधि का उत्पती स्थान है। जब सब प्राणी इस पीड़ा के पार हो जायेंगे तब बोधिसत्व भी स्वस्थ हो जायेंगे।
‘’हे मंजुश्री, जैसे श्रेष्ठ का एकमात्र पुत्र अस्वस्थ हो जाए तो उसके माता-पिता भी बीमार हो जाते है। उसी प्रकार बोधिसत्व, जो प्राणियों को पुत्रवत् प्रेम करता है। व्याधि ग्रस्त होता है व जब प्राणी अस्वस्थ हो जाते है, और वह ठीक होता है वब वे स्वस्थ हो जाते है। मंजुश्री, तुम मुझे पूछते हो, आपकी व्याधि कहां से आती है। बोधिसत्व के शरीर में व्याधि उसकी महा करूणा से पैदा होती है।‘’
मंजुश्री और विमल कीर्ति के बीच एक और अर्थपूर्ण संवाद है: जिसका शीर्षक है, ‘’सर्वत्र छायी हुई शून्यता।‘’
मंजुश्री : ‘’गृहपति, आपका गृह शून्य क्यों है? और आपका परिवार क्यों नहीं है।‘’
विमल कीर्ति : ‘’मंजुश्री, सभी बुद्ध क्षेत्र शून्य होते है।‘’
मंजुश्री : ‘’वे किस बात से शुन्य होते है।‘’
विमल कीर्ति : ‘’वे शून्यता-शून्य होते है।‘’
मंजुश्री : ‘’शून्यता-शून्य क्या है?’’
विमल कीर्ति : ‘’संकल्प शून्यता-शून्य है।
मंजुश्री : ‘’क्या शून्यता की कल्पना की जा सकती है?’’
विमल कीर्ति : ‘’परिकल्प अपने आप में शून्य है, और शून्यता-शून्यता की कल्पना नहीं कर सकती।‘’
मंजुश्री : ‘’गृहपति, शून्यता कहां मिलती है।‘’
विमल कीर्ति : ‘’शून्यता बासठ असत्य दृष्टियों में मिलती है’’
विमल कीर्ति के आलीशान भवन में केवल मनुष्यों की भीड़ नहीं वरन देवी-देवता भी आये हुए थे। सारिपुत्र का एक देवी से हुआ संवाद अद्भुत है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस युग में अशरीरी आत्माओं का अनायास शरीर धारण करना आम बात थी। सारिपुत्र उस समूह में सबसे वृद्ध थे अंत: उन्हें लोग, ‘’स्थविर’’ कहते थे। सारिपुत्र और देवी के संवाद में देवी अधिक ज्ञानी मालूम होती है। इससे यही परिलक्षित होता है कि ज्ञानी स्त्रियों की प्रतिष्ठा थी। और वे वार्तालाप में पुरूष को हरा सकती थी। कहानी प्यारी है, कि विमल कीर्ति के घर बैठे हुए विशाल समूह पर देवी ने दिव्य पुष्प वृष्टि की, तो हुआ यह कि जो अभी तक वासना से ग्रसित थे उनके शरीर से फिसल कर फूल नीचे गिर गये। और निर्वासना थे उन पर चिपके रहे।
विमल कीर्ति का भवन बुद्ध क्षेत्र बन गया था। महायान बौद्धो का मानना है कि बुद्ध क्षेत्र शून्य होते है। वे यदि दिखाई देते है तो उनका दिखाई देना किसी खास उद्देश्य से होता है। अन्यथा सब कुछ शुन्य है और अद्वैत है।
इस किताब की संरचना, इसका वातावरण, संकल्पना, सब कुछ एक दम निराला है। इस तरह तीन-चार योनियों की आत्माएं एक साथ धुल-मिलकर अब रहती नहीं। पहले भी वस्तुत: रहती थी या केवल कल्पना थी, कहा नहीं जा सकता। संवादों के माध्यम से आध्यात्मिक ज्ञान को उंडेला गया है। एक-एक संवाद ऐसा है जैसा धार पर रखी तलवार। बुद्ध के शिष्य एक से बढ़कर विद्वान, महा पंडित थे। दुर्भाग्य से मूल संहिता अब उपलब्ध नहीं है। जो है वह तिब्बती या चीनी अनुवाद से पुनश्च संस्कृत में रूपांतरित करने का उल्टा प्रयास है। फिर भी जो संस्कृत शब्द है वह बहुत सुंदर और सुगंधित है। जैसे खुशबूदार बग़ीचे की उपेक्षा कर गुजर जाना असंभव है वैसे ही इन शब्दों को नजर अंदाज कर आगे बढ़ा नहीं जा सकता है। एक-एक शब्द इतना गहन आशय लिए हुए है कि निगाह को रोक लेता है। मन उसमें डूबने लगता है।
इन निर्देश सूत्रों का नेपथ्य भी मजेदार है। विमल कीर्ति संसारी पुरूष है, बाहर से देखने पर राग-विलास में आकंठ डूबे हुए मालूम होते है। लेकिन बुद्ध के सभी संन्यासी जो परिव्राजक है,
श्रेष्ठ है, उनके आगे स्वयं को हीन अनुभव करते है। और सभी भिक्षु उन्हें ‘’गृहपति’’ कहते है। राहुल के अहंकार पर अच्छी खासी चोट कर विमल कीर्ति उसे प्रव्रज्या (त्याग) का अर्थ समझाते है। विमल कीर्ति उसे दो टूक कहते है, ‘’राज्य छोड़ने से प्रव्रज्या नहीं होती। जिस प्रव्रज्या की पंडितों ने प्रशंसा की है और आर्यों ने परिग्रहण किया है, वह वस्तुत: मार (कामदेव) के ऊपर विजय है, पंचगति और पाँच चक्षुओं के व्यवधानों की मुक्ति है। वह काम-पंक (काम की कीचड़) के ऊपर बनाया गया सेतु है। वह स्वचित का नियमन करता है। और परिचित की रक्षा करता है। जिन्होंने इस तरह से संसार को छोड़ा है वे ही वास्तविक संन्यासी है।‘’
इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि इन सूत्रों को महायान बौद्धों ने बुद्ध के निर्वाण के बाद किसी समय रचा है। स्वभावत: उनके लिए विमल कीर्ति को सर्वश्रेष्ठ बताना परम आवश्यक था। शायद गृहस्थ जीवन को संन्यास से अधिक बेहतर साबित करना भी। जो भी हो विमल कीर्ति के माध्यम से जो ज्ञान प्रकट हुआ वह वस्तुत: अद्भुत है; इसमे कोई दो राय नहीं: सत्य और सौंदर्य, दोनों का रमणीय संगम इन सूत्रों में झलकता है।
ओशो का नज़रिया:
अब मैं उस आदमी के बारे में बात कर रहा हूं जो सभी आंकड़ों के पार है। उसका नाम है विमल कीर्ति। इस किताब का नाम है निर्देश सूत्र। उसके वक्तव्य है ‘’विमल कीर्ति’’ निर्देश सूत्र--
विमल कीर्ति सबसे अद्भुत लोगों में से एक था। इतना कि बुद्ध भी उसकी ईर्ष्या से भर उठे। वह बुद्ध का शिष्य था लेकिन बुद्ध ने कभी औपचारिक रूप से उसे दीक्षित नहीं किया। इसलिए बहार से उसे बुद्ध का शिष्य कहा नहीं जा सकता था। और वह इतना खतरनाक व्यक्ति था कि बुद्ध के शिष्य उससे डरते थे। वे चाहते थे कि वह शिष्य न बने तो ही अच्छा है। उससे महज राह चलते मिलना या उसका अभिवादन करना काफी था, वह फौरन कोई न कोई पुख्ता बात कह देता। चोट करना उसकी विधि थी। गुरजिएफ उसे पसंद करता; या कौन जाने, गुरजिएफ को भी धक्का लगता। वह आदमी सचमुच खतरनाक था, असली आदमी था।
कहते है वह बीमार था और बुद्ध ने सारिपुत्र से कहा कि वह जाकर उसका हाल पूछ ले। सारिपुत्र ने कहा : ‘’मैंने आपको कभी इंकार नहीं किया लेकिन इस बर मैं सीधे साफ़ कह रहा हूं। किसी और को भेजें। वह आदमी भयंकर है। मरण शय्या पर भी वह मेरी खटिया खड़ी कर देगा। मैं नहीं जाना चाहता।‘’ मैं नहीं जाना चाहता।
बुद्ध ने हर एक पूछा और काई भी जाने को तैयार नहीं था सिवाय मंजुश्री के। और मंजुश्री बुद्ध का पहला शिष्य था जो बुद्धत्व को उपलब्ध हुआ। वह गया, और इस तरह यह किताब बनी। वह संवाद है। मंजुश्री प्रश्न पूछता और विमल कीर्ति उत्तर देता, या कहें उसके प्रश्नों के उत्तर देता। इस प्रकार विमल कीर्ति निर्देश सूत्र तैयार हुआ—एक महान रचना है।
कोई इसकी बात नहीं करता क्योंकि यह किसी एक धर्म की किताब नहीं है। यह बौद्धों की किताब भी नहीं है। क्योंकि वह बुद्ध का औपचारिक शिष्य नहीं था। लोग बाह्य रूप को इतना महत्व देते है कि आत्मा को भूल जाते है। मैं सभी सच्चे साधकों से कहता हूं कि इसे पढ़े। उन्हें इससे हीरों की खदान मिलेगी।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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