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रविवार, 18 दिसंबर 2011

लल्‍लवाख—(लल्ला)-025

लल्‍लाावाखनी-(लल्‍ला की वाणी)-ओशो की प्रिय पुस्तकें
Lalla-Vakyani 
     योग मार्ग स्‍त्री-पुरूष, दोनों के लिए समान रूप से उपल्‍बध है। लेकिन न जाने क्‍यों स्‍त्रियां उस मार्ग पर बहुत कम चलीं। और जो चलीं भी, उनमें पहुंचने वाली अत्‍यंत कम है। कश्‍मीरी रहस्‍यदर्शी स्‍त्री लल्‍ला ऐसी अद्वितीय स्‍त्रियों में से एक है। वह योगिनी थी इसलिए उसे नाम मिला, लल्‍ला योगेश्‍वरी।

      लल्‍ला की एक और अद्वितीयता यह थी कि वह आजीवन नग्‍न रही। शायद विश्‍व में एक मात्र स्‍त्री होगी जो निर्वस्‍त्र होकर बीच बाजार रही। पुरूष भी इतनी हिम्‍मत नहीं कर पाते जो आज से सात सौ साल पहले एक भारतीय स्‍त्री ने की। स्‍त्रियों के लिए अपनी देह के पार जाना लगभग असंभव है। एक लल्‍ला ही अनोखी थी जो विदेही अवस्‍था में मुक्‍त मन से विचरती रही। इसलिए कश्‍मीरी लोग कहते थे, ‘’हम दो ही नाम जानते है; एक अल्‍लाह और दूसरा लल्‍ला।‘’
      चौदहवीं सदी का कश्‍मीर आज के कश्‍मीर से बिलकुल अलग था। उस समय हिंदू शासन था। और शिव की उपासना खूब चलती थी। मुसलमान राज की शुरूआत होने के करीब थी। श्रीनगर से नौ-दस किलोमीटर दूर, रसमपूर गांव में, एक शैव ब्राह्मण के घर लल्‍ला का जन्‍म हुआ। लड़की बहुत बुद्धिमान थी इसलिए उसने बचपन से ही गीता, वेद, उपनिषद कंठहस्‍त किये। अपनी पढ़ाई के बारे में लल्‍ला लिखती है:
      ‘’परान-परान ज्‍यब ताल फजिम’’
      पढ़ते-पढ़त जीभ और तालू घिस गये।
      चुकीं उन दिनों बालविवाह का चलन था, लल्‍ला का विवाह भी छोटी उम्र में हुआ। उस समय उनका नाम पद्मावती था। सास सौतेली थी। सो उसने और लल्‍ला के पति ने मिलकर लल्‍ला पर बेहद अत्‍याचार किये। वे अत्‍याचार लल्‍ला ने अपूर्व धैर्य के साथ सहे। लेकिन उससे वह पागल सी हो गई। और वहीं स्‍थिति उसकी आत्म खोज का कारण बनी।
      लल्‍ला स्‍वयं के विषय में लिखती है:
      ‘’सम्‍सारस आयस तपसैइ,
      ब्‍वद्धि प्रकाश लोबुम सहज़।‘’
      ‘’मैं संसार में तपस्विनी की तरह आई और बुद्धि के प्रकाश से मैंने सहज को पा लिया।‘’
      योग साधना करते-करते लल्‍ला ने सिद्धि पा ली। उसकी वजह थी उसकी पूर्व जन्‍म तपस्‍या।
      लल्‍ला के गीतों में चंद्रमा का प्रतीक कई बार आता है। चंद्रमा को वह ‘’शशि कला’’ कहती है। लल्‍ला का स्‍त्री ह्रदय खोज भी करता है तो कसी दूर गगन में बसे हुए परमात्‍मा की नहीं अपने अंतस में बैठे चंद्रमा की।
      ‘’अँद्रिय आयस् च़न्‍द्रॅरूय गारान्’’
      अंतर्मन में चन्‍द्रमा की खोज करते-करते मैं बाहर आई।‘’
      यही लल्‍ला की अद्वितीयता है। आम तौर पर स्‍त्रियां गहने, कपड़े, साज-सिंगार, परिवार या ज्‍यादा से ज्‍यादा प्रेम को खोजती है; लेकिन लल्‍ला की खोज ही आलोकिक थी।
      लल्‍ला जो जन्‍म से पद्मावती थी, लल्‍ला कैसे हुई? उसकी कहानी इस तरह है:
      कश्‍मीरी भाषा में लल्‍ला याने पेट का मांस। कहानी है कि वह नंग-धडंग घूमती थी। कुछ लोगों ने उससे कहा, ‘’एक स्‍त्री इस तरह घूमे यह अच्‍छा नहीं लगता। कम से कम पेट के नीचे के अंग तो ढाँक ले।‘’ उस पर लल्‍ला ने पेट का मांस खींचकर अपने गुप्‍त अंग ढांके और बालों से छाती को छुपा लिया।‘’ इससे उसका नाम लल्‍ला पडा।
      जैसे संतों के संबंध में जन मानस में कहानियां तैरती रहती है। वैसे लल्‍ला के संबंध में भी कई कहानियां है। वह उन्मणी दशा में गांव-गांव घूमती रहती थी। बच्‍चें उसे चिड़ाते हुए उसके पीछे-पीछे भागते। वे उसे पागल ही समझते। एक गांव में एक कपड़े का दुकानदार उसका भक्त था। उसने जब लड़कों को उसे चिढ़ाते हुए देखा तो उन्‍हें बुलाकर खूब डांट लगाई।
      लल्‍ला उसके पास गई और एक कपड़ा मांगा। दुकानदार ने फौरन एक कपड़ा पेश किया। लल्‍ला ने उसके दो समान टुकडे कर एक बाँय कंधे पर डाला और एक दाँय कंधे पर। फिर वह बाजार में घूमने लगी। रास्‍ते में कोई उसे गाली देता, कोई उसे नमस्‍कार करता। जैसे ही कोई गाली देता वह दाँय कंध के कपड़े पर एक गांठ लगाती। और जब कोई नमस्‍कार करता तो वह बाएं कंधे के कपड़े पर गांठ लगाती। श्‍याम होते-होते तक वह लौटकर उस दूकानदार के पास गई और उसे दोनों कपड़ों का वज़न करने को कहा। दोनों बराबर थे। तब लल्‍ला ने उसे समझाया देख आज मुझे जितनी गाली मिली उतना ही सम्‍मान मिला है। तो क्‍या फिक्र करनी। कोई पत्‍थर फेंके या फूल, हिसाब बराबर है।‘’
      लल्‍ला कश्‍मीरी साहित्‍य की पहली कवयित्री है। उन्‍होंने संस्‍कृत जैसी प्रतिष्‍ठित भाषा को त्‍यज कर आम लोगों की कश्‍मीरी भाषा में आनी अभिव्‍यक्‍ति के लिए अपनाया।
      कश्‍मीरी साहित्‍य के समीक्षक शम्‍भुनाथ भट्ट ’’हलीम’’ उसके बारे में लिखते है, ‘’लल्‍लेश्‍वरी की वाणी को लोगों ने इतना पसंद किया कि वह आज तक कश्‍मीर के हर पढ़े-लिखे और अनपढ़ की जबान पर है। काश्‍मीर के खेतों में काम करने वाला किसान हो या बोझ ढोने वाला मजदूर, बेलबूटे काढ़ने वाला कारीगर हो या नाव खेने वाला मांझी, सभी में लल्‍लेश्‍वरी का कोई न कोई बाख स्‍वर में गाने की चाह मौजूद है। कश्‍मीर की संगीत सभाओं का आरंभ लल्ला–वाक्‍य से किया जाता है। लल्‍ला-वाक्य कश्‍मीरी भाषा में मुहावरे और सूक्‍तियां बने है।
      लल्‍ला के पार्थिव शरीर का अंत कब और कैसे हुआ? इसके गिर्द फिर एक बार अफ़वाहों की धुंध है। हिंदू कहते है, वह आग की लपट बन गई, और मुसलमान कहते है उसे बिजबिहाड़ा मस्जिद के पास दफनाया गया। जो भी हो, कश्‍मीर के हिंदू और मुसलमान दोनों ही एक दिल से उसके मुरीद है।
      काश, कश्‍मीर के आज के खौफ़नाक दौर में , एक दूसरे के दुश्‍मन बने हुए वहां बसने वाले लोग लल्‍ला को याद करें। और उसके साथ उन दिनों को, जब उनका भाईचारा मजहब की हदों को पार कर अनहद में बिसराम कर सकता था। लल्‍ला की ममतामयी याद कश्‍मीर के ज़ख़्मों पर मरहम लगा सकती है।

लल्ला—बाख
1--   कश्‍मीरी---
      अमि पॅन सोदरस नावि छ्यस लमान।
      कति बेजि दय म्‍योन म्‍य ति दिये तार।।
      आम्‍यन टाक्‍यन पौज ज़न शमान,
      जुब छुम भ्रमान घरॅ गछॅ हाँ।।
      अनुवाद—सागर में कच्‍चे धागे से मैं नैया खींच रही हूं। काश, दई (ईश्‍वर) मेरी सुने और मुझे पार लगा दे। मेरी दशा उस कच्‍चे मिट्टी के बर्तन की सी है जो सदा पानी चूसता रहता है। मेरा जी कर रहा है अपने घर चली जाऊं।
2--   कंधों पर पताशो की गठरी है, उसकी रस्‍सी ढीली पड़ गई। बोझ ढोकर देह कमान जैसी झुक गई। गुरु शिक्षा की ऐसी कड़ी चोट लगी कि जो कुछ था, सब खो गया। मेरी स्‍थिति ऐसी है कि भेड़ें गडरिया के बगैर रह गइ।
3--   पाँच, दस और ग्‍यारह को क्‍या करूं? ये सब मेरी हँड़िया खाली कर गये। अगर ये सब रस्‍सियों को खींचते तो गाय को खो नहीं बैठते। एक गाय के ग्‍यारह मालिक उसे अपनी-अपनी और खींचते है तो फिर गया कहीं की नहीं रहती।
(नोट—यह बाख एक प्रतीक रूप है। पाँच तत्‍व, दस इंद्रियाँ और ग्‍यारहवां मन—ये सब मिल कर व्‍यक्‍ति को सब दिशाओं में खिंचते है। और उसे आत्‍मा से, अपने केंद्र से अलग करते हे।)
4--   दिल के बाग़ से कचरा दूर कर। तब कहीं फूलों का गुलशन खिलेगा। मरने के बाद तुझसे पूछा जायेगा कि तू ने उम्र भर क्‍या हासिल किया। मौत तहसीलदार की तरह तेरे पीछे पड़ी है।

5--   गुरु ने मुझसे एक ही वचन कहा: ‘’बाहर से भीतर की तरफ जा।‘’ यही वचन लल्‍ली को राह दिखाता रहा। तभी से मैं नग्‍न होकर नाचने लगी।
     
6--   एक गाफिल, तेज कदम बढ़ा। अभी सवेरा है, अपने यार की तलाश कर। पर पैदा कर, तुझे परवाज़ बनना है। अभी भी वक्‍त है, अपने याद को ढूंढ ले।
     
7--   देह के मकान के सारे द्वार-झरोखे मैंने बंद कर लिए। और प्राण चोर को पकड़कर उसके भागने के सब रास्‍ते बंद कर दिये। फिर ह्रदय कोठरी में उसे बांधा और ओम् के चाबुक से खूब पीटा।
8--   चित के घोड़े को लगाम लगाई। दस नाड़ियों पर नियंत्रण कर श्‍वासोश्‍वास को बाँध लिया। तब कहीं शशि कला पिघली और मेरे शरीर में उतर आई। और शून्‍य में शून्‍य मिल गया।
9--   चित-तुरंग पूरे गगन में भ्रमण करता है। एक निमिष में लाखों योजन पार करता है। जिसने बुद्धि और विवेक की लगाम से इसे थामना सीख लिया उसी के प्राण-अपान वायु नियंत्रित हो जाते है।

10-- शिशिर में (छत से चूने वाली) बूँदों को कौन रौंक सकता है? हवा को मुट्ठी में कौन पकड़ सकता है? जो पाँच इंद्रियों को समेट कर उन्‍हें कूट कर रखे, वही हवा को मुट्ठी में समेट सकता है।
11-   मैं एक थी और अनेक हो गई। नजदीक थी और दूर जा पड़ी। भीतर और बाहर उसी शिव को देखा। चौवन चोर (इंद्रियाँ, विषय, मन, बुद्धि इत्‍यादि) मेरा सब कुछ चुराकर ले गये।
12-- हर क्षण मन को ओंकार का पाठ कराया। स्‍वयं ही पढ़ती रही, स्‍वयं ही सुनती रही। ‘’सो हम् पद में मैंने अहं को समाप्‍त किया तब मैं ‘’लल्‍ला‘’ प्रकाश स्‍थान तक पहुंची।
ओशो का नजरिया:
      काश्‍मीर के लोग लल्‍ला से इस कदर प्रेम करते है कि वे आदर वश कहते है, ‘’हम दो ही शब्‍द जानते है, एक अल्‍लाह और दूसरा लल्‍ला।‘’
      कश्‍मीर में निन्यानवे प्रतिशत मुसलमान है। फिर भी वे अल्‍लाह के साथ लल्‍ला को जोड़ते है। यह महत्‍वपूर्ण है।
      लल्‍ला ने कभी किताब नहीं लिखी। वह इतनी हिम्‍मतवर थी कि जीवन भर निर्वस्‍त्र रही। और ध्‍यान रहे, यह सैंकड़ों साल पुरानी बात है। और पूरब में घटी हे। लल्‍ला सुंदर स्‍त्री थी। कश्‍मीरी सुंदर होते है। भारत में वही जाति वास्‍तविक सुंदर होती है।
      लल्‍ला बहुत सुंदर थी। वह नाचती और गाती थी। उसके कुछ गीत बचाये गये है। उन्‍हें मैं अपनी मनपसंद किताबों में शामिल करता हूं।
      मुसलमान लोग किसी को अपनी औरतों का चेहरा भी नहीं देखने देते। तुम मुसलमान औरतों की सिर्फ आंखे ही देख सकते हो, और कुछ भी नहीं। लेकिन वे अल्‍लाह के बराबर लल्‍ला की इबादत करते है। इस स्‍त्री ने पूरे कश्‍मीर को प्रभावित किया होगा। मैंने पूरे कश्‍मीर में यात्रा की है और मैंने बार-बार ये दो नाम एक साथ दोहराएं देखा है: अल्‍लाह और लल्‍ला।
      वह एक महान सदगुरू थी। उसके कई शिष्‍य थे। उसका बहुत बड़ा गुण था जो मुझे बेहद पसंद है: वह किसी भी संगठित धर्म में शामिल नहीं हुई। वह स्‍वतंत्र सदगुरू थी। फिर भी अन्‍य धर्मों के लोग उसे मानते थे—माने बगैर नहीं रह सकते थे।
ओशो
दि स्‍वार्ड एंड दि लोटस
  

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