कुछ व्यक्तियों का वजूद इतना बड़ा होता है कि उनके देश का नाम उनके नाम सक जुड़ जाता है। जैसे ग्रीस सुकरात और प्लेटों की याद दिलाता है। चीन लाओत्से का देश बन गया। वैसे ही जर्मनी फ्रेडरिक नीत्शे का पर्यायवाची हुआ। नीत्शे—जिस महान दार्शनिक को ओशो ‘’जायंट’’ या विराट पुरूष कहते है। नीत्शे की प्रतिभा को ओशो ने बहुत सम्मान दिया है। नीत्शे के महाकाव्य ‘’दसस्पेक जुरतुस्त्र’’ पर प्रवचन माला कर ओशो ने नीत्शे को अपनी साहित्य संपदा में अमर कर दिया है। उसी नीत्शे की अंतिम किताब ‘’दि विल टु पावर’’ ओशो की मनपसंद किताबों में शामिल है।
यह किताब कई अर्थों में अनूठी है। एक—यह किताब प्रकाशित करने के लिए लिखी ही नहीं गई थी। नीत्शे का निधन 1900 में हुआ। 1884-1888 के बीच उसने जो टिप्पणियां अर्थात नोटस लिखे थे उन्हें एकत्रित कर उसकी बहन फ्रॉ एलिज़ाबेथ फ्रॉस्टर नीत्शे ने 1901 में प्रकाशित किया।
नीत्शे ने जो नोटस लिखे थे वे केवल सुत्र थे। इनमें कभी-कभी पूरा वाक्य भी नहीं पाया जाता। लेकिन इससे बहुत फर्क नहीं पड़ता क्योंकि यही नीत्शे की शैली है। उसके वाक्य तराशे हुए हीरे है। ‘’दि विल टु पावर’’ शीर्षक से नीत्शे किताब प्रकाशित करना चाहता था। मुख्य शीर्षक के साथ उसने एक उपशीर्षक भी दिया हुआ है: ‘’सभी मूल्यों का पुनर् मूल्यांकन करने का प्रयास।‘’ किताब में नीत्शे ने जो विचार प्रगट किये है उन्हें देखते हुए यह शीर्षक अधिक सम्यक लगता है। वास्तव में , मनुष्य के इतिहास में जो भी मूल्य श्रेष्ठ माने गए है उन्हें उलटा कर नीत्शे उन्हें फिर से परखता है। उन पर प्रश्नचिन्ह लगाता है।
नीत्शे की अनोखी लेखन शैली का नमूना उसके द्वारा लिखी गई भूमिका में मिलता है—‘’जो भी महान है उसके बारे में या तो महानता से बोलना चाहिए या मौन रहना चाहिए। ‘’महानता’’ से मतलब है नकारात्मक दृष्टि से और मासूमियत से देखना।‘’
‘’ मैं जो लिख रहा हूं वह अगली दो सदियों का इतिहास है। मैं उसका वर्णन कर रहा हूं जो आनेवाला है, जो इससे अलग तरीके से नहीं आ सकता-विनाशवाद का उदत बनकर ही आ सकता है। यह इतिहास अभी लिखा जा सकता है। क्योंकि इसकी जरूरत सक्रिय हुई है। यह भविष्य इस क्षण भी सैकड़ों इशारों में बात कर रहा है। यह नियति खुद को हर संगीत को सुनने के लिए सभी कान आतुर है। कुछ समय से हमारी समूची यूरोपियन संस्कृति दुर्घटना की तरफ गतिमान है। एक दशक से दशक की ओर बढ़ता चला जा रहा है: बेचैनी से, हिंसकता से, सिर के बल, उस नदी जैसा जो लक्ष्य तक पहुंचना चाहती है। जो सोचना नहीं चाहती; जो सोचने से डरती है।‘’
नीत्शे को एक बात सुस्पष्ट है कि पुराने मूल्य अंतिम साँसे गिन रहे है। उनका समय बीत गया है। हमें नए मूल्यों की जरूरत है। लेकिन उससे पहले हमें यह देखना है कि पुराने मूल्यों की कीमत क्या है। उसके देखे, विनाशवाद (निहिलिज्म) उन समूचे मूल्यों की तार्किक निष्पति है।
नीत्शे के नोट्श चार हिस्सों में बांटे गये है।
यहां हमें सतत ध्यान रखना है कि यह किताब, इसके परिच्छेद और उनके शीर्षक नीत्शे ने नहीं दिये हे। उसकी मृत्यु के बाद उसकी बहन एलिज़ाबेथ ने इसकी संरचना की है।
प्रथम परिच्छेद: निहिलिज्म या विनाशवाद।
दूसरा परिच्छेद: आज तक जो भी श्रेष्ठतम मूल्य थे उनकी समालोचना।
तीसरा परिच्छेद: नये विकास के सिद्धांत।
चौथा परिच्छेद: अनुशासन ओर संवर्धन।
विनाशवाद का आशय नीत्शे इस प्रकार कहता है, ‘’श्रेष्ठ मूल्य खूद-ब-खूद नीचे गिर जाते है। लक्ष्य का अभाव है। क्यों? का कोई जवाब नहीं है।‘’
इस परिच्छेद में नीत्शे का हमला मुख्य रूपेण ईसाइयत ने निर्मित किये हुए मूल्यों पर है। उनमें सबसे बड़ा मूल्य है, नैतिकता। नीत्शे की दृष्टि में नैतिकता और नीति सबसे झूठा और खतरनाक मूल्य है। जिसकी पकड़ मनुष्य जाति पर रही है। और इसकी दोषी है ईसाइयत। नीति प्राकृतिक नहीं है। कृत्रिम है। हर नैतिक सभ्यता निश्चित ही विनाशवाद में बदल जायेगी।
नीत्शे कहता है—‘’समय आ गया है जब हमें दो हजार वर्ष तक ईसाई बने रहने की कीमत चुकानी पड़ेगी। हम अपना वह चुंबकीय केंद्र खो रहे है। जिसके सहारे हम जी रहे थे। हम भटक गये है।‘’
नैतिक सभ्यता की पैदाइश क्या है? दुख वादी दर्शन, निराशा, नियंत्रण, प्रेम का आभाव, विवाह, गरीबी, सामाजिक असमानता, मनुष्य की गरिमा का विनष्ट होना, आत्महत्या की और झुकाव, शरीर और मन की रूग्णता...इत्यादि।
विनाशवाद के परिच्छेद में एक खास हिस्सा है: यूरोप का विनाशवाद। जाहिर है कि अठारहवीं शताब्दी में लोग दूर की यात्राएं नहीं करते थे। नीत्शे का अनुभव जगत यूरोप तक ही सीमित है। इसका मतलब यह नहीं है वह संकीर्ण है। क्योंकि उस सदी में पूरी पृथ्वी पर यूरोप की संस्कृति ही चरम शिखर पर थी। तो मनुष्य चेतना का सार-निचोड़ यूरोप में ही उपलब्ध था।
दूसरा परिच्छेद है: श्रेष्ठतर मूल्यों की समालोचना। यह परिच्छेद बहुत बड़ा है। और यही इस किताब की रीढ़ है। मनुष्य की संस्कृति के जो भी समा दूत मूल्य थे। उन सब पर नीत्शे व्यंग करता है और उनकी खाल उधेड़ कर रखता है। जैसे, ‘’ज्ञान और प्रज्ञा अपने आप में मूल्यवान नहीं है। न ही शुभ। मानवीय जीवन को देखते हुए ‘’सत्य’’ ‘’शुभ’’ ‘’पवित्र’’ ‘’दिव्य’’ इत्यादि ईसाई शैली के मूल्य बहुत खतरनाक सिद्ध हुए है। अभी भी मनुष्य जाति उस आदर्शवाद के कारण विनष्ट होने की कगार पर है। जीवन की दुश्मनी करना सिखाता है।‘’
पुराने मूल्यों को अच्छी तरह धराशायी कर नीत्शे नये विकास के सिद्धांत प्रस्तुत करता है। इस परिच्छेद की शुरूआत ‘’विल टु पावर-एज नॉलेज’’ से होती है। ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा भी शक्ति की आकांक्षा ही है। नीत्शे के अनुसार उन्नीसवीं सदी की सबसे बड़ी जीत है, वैज्ञानिक विधि की विज्ञान पर हुई जीत। विज्ञान की खोज ने मनुष्य को एक वैज्ञानिक विधि एक मेथड़ दी है।
शक्ति की आकांक्षा जहां-जहां दिखाई देती है उनमें एक है: समाज और व्यक्ति।
इसके अंतर्गत नीत्शे लिखता है:
‘’मूल सिद्धांत सिर्फ व्यक्ति ही स्वयं को जिम्मेदार मानते है। समूह इसलिए बनाये गये है ताकि वे काम किये जायें जिन्हें करने का साहस व्यक्ति में नहीं होता। व्यक्ति अपनी खुद की इच्छाओं को पूरा करने का साहस भी नहीं रखता। परोपकार करने की अपेक्षा हमेशा व्यक्तियों से ही की जाती है। समाज से नहीं। ‘’अपने पड़ोसी वास्तविक पड़ोसी को शामिल नहीं करता। वह संबंध तो मनु के आदेश के अनुसार ही चलता है; ‘’जिन देशों की सीमाएं एक ही है वह सब, और उनके दोस्त भी, अपने दुश्मन है यही मानकर चलें।‘’
‘’समाज की अध्ययन करना बहुत कीमती है क्योंकि मनुष्य समाज की तरह बहुत सरल है, एक व्यक्ति की उपेक्षा।‘’
पुलिस, कानून, वर्ग, व्यापार और परिवार इनको नीत्शे शासन द्वारा आयोजित ‘’अनैतिकता’’ कहता है।
जब तक हाथ में ताकत नहीं होती तब तक व्यक्ति स्वतंत्रता चाहता है। एक बार हाथ में ताकत आ गई तो फिर वह दूसरे को दबाना चाहता है। अगर ऐसा नहीं कर सकता तो फिरा वह न्याय चाहता है; जिसका अर्थ है; समान ताकत।‘’
श्रेष्ठ मनुष्य और भीड़ का मनुष्य। जब महान लोग नहीं होते तब व्यक्ति ‘’मिनी भगवान’’ या अतीत के महान लोगों को अवतार बनाते है। धर्म का उद्रेक यही दिखाता है कि मनुष्य अपने आपसे खुश नहीं है।
किताब का अंत नीत्शे के उन विचारों से किया गया है जिनमें वह विश्व की नई अवधारण प्रस्तुत करता है।
‘’विश्व है। वह कुछ ऐसा नहीं है, जिसे होना है, या जो विदा होता है। वह न कभी हुआ है, न कभी विदा होगा। वह अपने आप पर जीता है। हमें एक क्षण के लिए भी निर्मित विश्व के सिद्धांत पर ध्यान नहीं देना चाहिए। आज ‘’निर्माण’’ की अवधारण क्या है। इसे बताया नहीं जा सकता। वह महज एक शब्द है, अंधविश्वास के युग का एक बचा-खुचा खंडहर।
‘’और पता है मेरे लिए यह विश्व क्या है? क्या मैं आपको उसे मेरे आइनें में दिखा सकता हूं? यह विश्व: ऊर्जा का राक्षस। न आदि, न अंत। एक मजबूत लोह चुंबक की शक्ति जो कभी चुकती नहीं, अपने आपको सिर्फ रूपांतरित करती है। पूर्ण, जिसका आकार कभी बदल नहीं सकता। ऐसा घर जिसमें न ता फायदा है न नुकसान। ‘’नथिंगनेस’’ ‘’नाकुछ’’ इसकी सीमा है।
बहती हुई, एक साथ दौड़ती हुई शक्तियों का सागर.....यह विश्व स्वयं को बनाता और मिटाता हुआ, निरूद्देश्य अगर इसके वर्तुल का आनंद अपने आप में उद्देश्य न कहलाया जाये। क्या इस विश्व को आप कोई नाम देना चाहेंगे? उसकी पूरी पहेली के लिए कोई हल? क्या आप अपने लिए एक प्रकाश चाहेंगे—आप जो कि ढँके रहें तो अच्छा, ताकतवर, बहुत निर्भय, अत्यंत निशाचर लोग? यह विश्व केवल शक्ति के लिए आकांक्षा है, और कुछ भी नहीं। ओर आप भी यही है; शक्ति के लिए आकांक्षा और कुछ भी नहीं।‘’
ओशो का नजरिया:
यह प्रतिभाशालियों की किस्मत में लिखा है कि वे गलत समझे जायेंगे। यदि प्रतिभाशाली को, जीनियस को गलत न समझा गया तो यह जीनियस है ही नहीं। यदि सामान्य जन उसे समझते है तो उसका अर्थ हुआ वह उसी के तल से बोल रहा है। फ्रेडरिक नीत्शे को गलत समझा गया। इससे बहुत बड़ी दुर्घटना घटी है। लेकिन शायद ऐसा ही होना था। नीत्शे जैसे आदमी को समझने के लिए उसके जैसी ही चेतना चाहिए। एडोल्फ हिटलर इतना मूढ़ है कि यह सोचना कतई संभव नहीं है। कि वि नीत्शे के दर्शन को समझा होगा। लेकिन वह नीत्शे के दर्शन का पैगंबर बना। और उसके मूढ़ दिमाग के अनुसार उसने व्याख्या की; न केवल व्याख्या की, उस पर अमल किया। और उसका नतीजा था, दूसरा विश्व युद्ध।
जब नीत्शे ‘’विल टु पावर’’ शक्ति की आकांक्षा के बारे में लिख रहा था। तो उसका अर्थ दूसरे पर हुकूमत चलाने का नहीं है। लेकिन नाझियों ने यही अर्थ लिया। शक्ति की आकांक्षा हुकूमत की आकांक्षा से बिलकुल उल्टी है। हुकूमत की आकांक्षा हीन ग्रंथि से आती है। दूसरे पर हुकूमत चलाकर आदमी यही सिद्ध करना चाहता है कि वह हीन नहीं है। लेकिन इसके लिए उसे सबूत चाहिए। बगैर सबूत के वह जानता है कि वह एक अदना सा आदमी हे। जो वास्तव में महान है उसे अपनी महानता का कोई सबूत नहीं चाहिए। क्या गुलाब उसके सौंदर्य की दलील देता है? क्या चाँद उसकी महिमा को सिद्ध करने की फ्रिक करता है? क्योंकि महान व्यक्ति जानता है कि वह महान है।
शक्ति की आकांक्षा का दूसरे से कोई लेना-देना नहीं है। वह अपनी ही निजता में अपनी ही खिलावट की गरिमा में डोलता रहता है। नीत्शे के वचनों की गलत व्याख्या कर हिटलर और उसके अनुयायी नाझियों ने संसार का इतना नुकसान किया है कि उसका कोई हिसाब नहीं। नीत्शे से पहले किसी भी रहस्यदर्शी या कवि को यह भुगतना नहीं पडा था। न जीसस, न सुकरात की इतनी बुरी किस्मत थी। कि वे इतने बड़े पैमाने पर गलत समझे जायें; और जिसका अंत अस्सी लाख यहूदियों की हत्या पर हो।
थोड़ा वक्त लगेगा। जब हिटलर, नाझी और दूसरी विश्व युद्ध भुला दिये जायेंगे तभी नीत्शे अपनी गरिमा प्रगट कर सकेंगे। नीत्शे का पुनरागमन हो ही रहा है। नीत्शे की नई व्याख्या होनी जरूरी है ताकि नाझियों ने उसके सुंदर दर्शन पर जो कचरा डाल रखा है वह दूर हो जाए। नीत्शे को शुद्ध करना है, पुनरुज्जीवित करना है।
नीत्शे का नाझी के हाथ में पड़ना एक संयोग है। उन्हें लड़ने के लिए कोई दर्शन चाहिए था। नीत्शे सैनिक की सुंदरता का प्रशंसक था। नीत्शे ने उन्हें एक बहाना दिया—सुपरमैन का। उन्होंने तत्क्षण ‘’सुपरमैन’’ की कल्पना को उठा लिया। नॉडिक जर्मन जाति नीत्शे का सुपरमैन बनने वाली थी। वे विश्व पर हुकूमत करना चाहते थे। और नीत्शे बहुत सहायक बना। अब उनके पास पूरा दर्शन था कि जर्मन जाति श्रेष्ठ जाति है। और वे ही सुपरमैन को जन्म देंगे।
नीत्शे ने सोचा भी नहीं होगा कि वे लोग इतने खतरनाक हो जायेंगे और मनुष्य जाति के लिए एक दुस्वप्न बन जायेंगे। लेकिन नीत्शे इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि उसके विचारों को स्वच्छ, निर्मल करना सार्थक है। और आश्चर्य यह है कि न केवल नाझी बल्कि सभी दार्शनिक नीत्शे को गलत समझे। शायद उसकी प्रतिभा इतनी बुलंद थी तुम्हारे तथाकथित महान लोग भी उसके आगे बौने पड़ गए।
मौलिक चिंतन के जगत में वह इतनी नई अंतदृष्टियां ला रहा था कि उनमें से एक भी दृष्टि उसकी गिनती विश्व के सर्वश्रेष्ठ दार्शनिकों में कर सकती थी। और उसकी दर्जनों अंतदृष्टियां है जो नितांत मौलिक है। अगर ठीक समझा जाये तो नीत्शे सचमुच वह वातावरण और वह आबोहवा बना सकता है जिसमे सुपरमैन पैदा हो सकता है। वह मनुष्य जाति को रूपांतरित कर सकता है।
मैं इस आदमी का अत्यधिक समादर करता हूं। और उदास भी हूं कि उसे गलत समझा गया। इतना अधिक की उसे पागल खाने में भेज दिया गया। डॉक्टरों ने कह दिया कि वह पागल है। उसके विचार साधारण आदमी से इतने परे थे कि साधारण आदमी को उसे पागल करार देने में बड़ी खुशी हुई। ‘’अगर वह पागल नहीं है तो हम बिलकुल नाचीज हुए।‘’ उसे जबरदस्ती पागल खाने भेज दिया गया।
मेरा अपना मानना है कि वह पागल हुआ ही नहीं। वह सिर्फ अपने समय से आगे था; बहुत ज्यादा ईमानदार और सच्चा था। राजनीतिक, पुरोहित और बौने लोगों के बारे में उसे जो ठीक लगता, वह कहता था। लेकिन बौने बहुत ज्यादा है, और आदमी अकेला था। उसकी कौन सुनता? उसकी आखिरी किताब ‘’विल टू पावर’’ इसका सबूत है कि वह पागल नहीं था। इसे उसने पागलख़ाने में लिखा। मैं पहला आदमी हूं जो कह रहा है कि नीत्शे पागल नहीं था। पूरी दूनिया इतनी चालाक, इतनी राजनैतिक हे लोग वे ही बातें करते है जो उन्हें प्रतिष्ठा देती है। जिनके लिए भीड़ तालियां बजाती है। तुम्हारे बड़े-बड़े विचारक भी नहीं है।
जो किताब उसने पागल खाने में लिखी वह श्रेष्ठतम है, और उस बात का सबूत है कि वह पागल नहीं था। ‘’विल टू पावर’’ उसकी आखिरी किताब है। लेकिन वह उसे प्रकाशित नहीं करवा सका। पागल की किताब कौन छापेगा? उसके कई प्रकाशकों के द्वार खटखटाये लेकिन उन्होंने मना कर दिया। और अब सभी यह मानते है कि वह उसकी सर्वश्रेष्ठ किताब है। उसकी मृत्यु के बाद उसकी बहन ने उसका मकान और चीजें बेचकर किताब छपवाई क्योंकि यह नीत्शे की अंतिम इच्छा थी।
यदि एक पागल ‘’विल टु पावर’’ जैसी किताब लिख सकता है तो इस दूनिया में पागल होना ही बेहतर है।‘’
ओशो
दि ग्रेट झेन मास्टर ताई हुई
दि विल टु पावर
(भूमिका जो स्वयं नीत्शे लिखना चाहता था)
सोचने के लिए एक किताब; और कुछ नहीं। वह उनकी है जिनके लिए सोच-विचार एक आनंद है—और कुछ नहीं।
इसका जर्मन भाषा में लिख जाना समय से पहले है—कम से कम। काश में इसे फ्रैंच में न लिखता ताकि जर्मन राइकी की आकांक्षाओं का समर्थन न बनता।
आज के जर्मन सोचते नहीं है। उन्हें कुछ और ही आनंदित और प्रभावित करता है
‘’विल टू पावर’’ एक सिद्धांत की तरह उन्हें प्रभावित कर सकती है।
आज के जर्मन लोगे को सोचने की आदत नहीं है बजाएं किन्हीं अन्य लोगों की अपेक्षा। लेकिन किसे पता? दो पीढ़ियों के बाद, अपनी सत्ता को बरबाद करने का राष्ट्रीय रिवाज कायम रखने के लिए जो ‘’कुरबानी करनी पड़ती है, और मूढ़ बनना पड़ता है, उसकी जरूरत न रह जायेगी।
(इसके पहले मुझे लगा था, काश मैं जुरतुस्त्र जर्मन में न लिखता)
नीत्शे
Us Desh ka durbhagy jo Nitse ko n samjh saka.samay ki bhavisyWani aur Sam at ka darshan prastut karana samay se aage jana hota hai bus yahi vivasta Nitse ko pagal bana gayi.usane God ke astitva ko nakara nahi unki kam hoti upyogita par sawal uthate huye aisa viswSh byakt kiya kijaise God mar chuke Hon. It means people behave like this as God isn't there and we can do everything and free. The Philosophy of the Nitse is full of secrecy like Indian saint kabir das.
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