दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसॉफी—(बर्ट्रेंड रसेल)-ओशो की प्रिय पुस्तकें
A History of Western Philosophy - Bertrand Russell
इंग्लैंड के विश्व विख्यात दार्शनिक, लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपरिसीम श्रम करके विचार के विकास की कहानी लिखी है। यह कहानी उसके एक महाकाव्य पुस्तक में उंडेली है। जिसका नाम है: ‘’दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसॉफी’’ पाश्चात्य दर्शन का इतिहास अर्थात मनुष्य के विचारों का इतिहास। इस पुस्तक में रसेल ने 2500 वर्षों के काल-खंड को समेटा है। लगभग 585 ईसा पूर्व से लेकिर 1859 के जॉन डूयुए तक सैकड़ों दार्शनिकों के चिंतन, दार्शनिक सिद्धांत और मनुष्य जाति पर हुए उनके परिणामों का संकलन तथा सशक्त विश्लेषण इस विशाल ग्रंथ में ग्रंथित है।
A History of Western Philosophy - Bertrand Russell
इंग्लैंड के विश्व विख्यात दार्शनिक, लेखक बर्ट्रेंड रसेल ने अपरिसीम श्रम करके विचार के विकास की कहानी लिखी है। यह कहानी उसके एक महाकाव्य पुस्तक में उंडेली है। जिसका नाम है: ‘’दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसॉफी’’ पाश्चात्य दर्शन का इतिहास अर्थात मनुष्य के विचारों का इतिहास। इस पुस्तक में रसेल ने 2500 वर्षों के काल-खंड को समेटा है। लगभग 585 ईसा पूर्व से लेकिर 1859 के जॉन डूयुए तक सैकड़ों दार्शनिकों के चिंतन, दार्शनिक सिद्धांत और मनुष्य जाति पर हुए उनके परिणामों का संकलन तथा सशक्त विश्लेषण इस विशाल ग्रंथ में ग्रंथित है।
इस पुस्तक का नाम सुनकर यदि कोई यह सोचे कि यह तो पश्चिम के मनुष्य के काम की चीज है, हमारा उससे क्या लेना देना, तो यह गलत सोच रहा है। मनुष्य पश्चिम का हो या पूरब का, आज इक्कीसवी सदी की दहलीज पर पूरब-पश्चिम एक हो गए है। और हम सभी पश्चिम से प्रभावित है। हम सब अरस्तू के वंशज है। हमारा तर्क, हमारी सोच, हमारी बुद्धि अरस्तू की तर्क सरणी से बनी है। अरस्तू ने तर्क का जो ढांचा दिया है वह मनुष्य के मस्तिष्क में इतना गहरा खुद गया है कि आधुनिक मनुष्य उससे अन्यथा सोच भी नहीं सकता।
पुस्तक का प्रारंभ होता है ग्रीक सभ्यता के उदय से। समय है600 ईसा पूर्व। रसेल ने दर्शन के इतिहास को तीन मोटे हिस्से में बांटा है: प्राचीन दर्शन, ईसाइयत के उदय के बाद के बाद पैदा हुआ धार्मिक दर्शन और विज्ञान युग के प्रारंभ के पश्चात जन्मा आधुनिक दर्शन।
प्राचीन दर्शन ईसा पूर्व समय का है जिसमें ग्रीक दार्शनिकों का योगदान है। पाइथागोरस, हेराक्लाइटस, इनक्सा, गोरस और अन्य दार्शनिक जिनकी ख्याति इनमें कम है। वह समय था जब चीजें संयुक्त थीं, जीवन बंटा हुआ नहीं था।
पाइथागोरस गणितज्ञ था और दार्शनिक भी। आज हम इन दो विषयों में कोई तालमेल नहीं देख सकते लेकिन गणित जब गहरे उतरता है तो दर्शन के अवकाश में प्रवेश करता है। ग्रीक दार्शनिकों ने जो गणित और ज्यामिति में खोजें की है उससे आज भी हमारा संगीत, खगोल विज्ञान, ज्योतिष दर्शन प्रभावित है। पाइथागोरस के साथ गणित और धर्मविज्ञान का समन्वय शुरू हुआ।
‘’सुकरात, प्लेटों और अरस्तू–यह त्रिमूर्ति पूरे दर्शन शास्त्र की आधारशिला है। अपनी विचार यात्रा में रसेल उन्हें असाधारण महत्व देता है। एक पूरा विभाग उसने इन तीन दार्शनिकों को समर्पित किया है। सुकरात रहस्यदर्शी था, उसे दार्शनिक कहना ठीक नहीं होगा। लेकिन पश्चिम में बुद्धों की कोई परंपरा नहीं है। इसलिए इतिहासकार या उसके स्वयं के शिष्य भी उसे समझ नहीं पाये। वे उसे एक विचित्र, बेबूझ व्यक्ति मानते थे। सुख-दूःख या सर्दी-गर्मी उसके लिए सब एक बराबर था। उसे बार-बार घंटो टाँस में खो जाने की आदत थी। लोग कहते थे उसकी आत्मा ने शरीर पर विजय पा ली है। उसकी एक ही बुरी आदत थी: लोगों के साथ संवाद करना। और संवाद के द्वारा सत्य को उघाड़ना। एथेन्स के सारे नेता उस की हरकत से परेशान थे। वे उसके बोलने को रोक नहीं सके तो आखिर उसकी आवाज को ही बंद करवा दिया।
सुकरात की चेतना में इतनी सृजन की क्षमता थी कि वह आगे दो पीढ़ियों तक अपनी धारा को चला सका। जिस प्रकार ईसा मसीह समय के प्रवाह में मुस्तैदी से खड़े हो गए और उन्होंने समय को दो खंडों में बांट दिया: ईसा पूर्व और ईसा के बाद। उसी प्रकार सुकरात दार्शनिकों की श्रृंखला में प्रज्ञा की मीनार बन कर खड़ा है। दर्शन का प्रवाह भी दो भागों में बंट गया है: सुकरात के पूर्व और सुकरात के बाद। उसके शिष्य प्लेटों और प्लेटों के शिष्य अरस्तू के दर्शन के इतिहास में महत्वपूर्ण और मौलिक योगदान दिया। हालांकि सुकरात की बुलंदी इन दोनों में नहीं है। इनमें हम चेतना की ढलान साफ देखते है। सुकरात मन के पास था, प्लेटों मन के अंतरिक्ष में था और अरस्तू बुद्धि की जमीन पर उतर आया। विश्लेषण और तर्क उनके भवन की आधारशिला थी।
यह न केवल दर्शन में बल्कि पूरी मनुष्य जाति के जीवन में एक नया मोड़ था। अरस्तू के संबंध में रसेल कहता है:
‘’किसी भी महत्वपूर्ण दार्शनिक को, और सबसे ज्यादा अरस्तू को पढ़ते समय, दो तरीकों से उसका अध्यन करना चाहिए: उसके पूर्ववर्तियों के संदर्भ में और उसके अंतर्वर्तियों के संदर्भ में। वह ग्रीक विचार के रचनात्मक काल के अंत में आया। उसकी मृत्यु के बाद दो हजार साल तक संसार उसकी बराबरी के दार्शनिक को पैदा नहीं कर पाया। इस लंबे समय के अंत में उसका अधिकार लगभग चर्च जैसा हो गया था। और विज्ञान में तथा दर्शन में वि विकास की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बना गया था। सत्रहवी सदी के प्रारंभ में कोई भी कीमती बौद्धिक कदम अरस्तू पर हमला किये बगैर नहीं उठ सकता था। तर्क शास्त्र के बाबत यह आज भी सच है।
सुकरात, प्लेटों और अरस्तू ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में हुए। इसके बाद धीरेधीरे ग्रीक संस्कृति की खिलावट कम होती चली गई। और रोम में एक नया उत्थान शुरू हुआ। रोम शीध्र ही एक नये धर्म को केंद्र बनने वाला था। जेरूसलेम में ईसा मसीह की सूली के बाद पश्चिम में बड़े जोर से ईसाइयत का उदय हुआ। यहां रसेल एक मजेदार बात कहता है: पहले ईसाइयत की शिक्षा यहूदी लोग यहूदियों को देते थे। और वह यहूदी धर्म का परिष्कृत संस्करण कहलाता था। लेकिन उस धर्म के दो नियम: पुरूषों का खतना करवाना और खान-पान के कठोर नियम। लोगों को मुश्किल मालूम पड़ने लगे। इससे धीरे-धीरे ईसाई धर्म यहूदी से अलग हो गया। लगभग तेरह शताब्दियों तक चर्च का साम्राज्य और हुकूमत छायी रही। दर्शन अब धार्मिक दर्शन बन गया। उसके विचार नहीं, विश्वास प्रधान बन गया। पोप लगभग ईश्वर का विकल्प बन गया। चौदहवीं सदी तक यह सिलसिला चलता रहा। चौदहवीं सदी में सत्रहवी सदी तक का दौर मध्ययुग कहलाता है।
मध्ययुग में, जो ‘’रेनेसां’’ सांस्कृतिक पुनर्जागरण के नाम से प्रसिद्ध है, विचार का अर्थात मानव मन का अधिक विकास नहीं हुआ। लोग साम्राज्यवाद में उलझे रहे। पास-पड़ोस के देशों पर आक्रमण, युद्ध, कुटिल राजनीति, नैतिक पतन....यही कहानी है यूरोप की। राजनीति ने मनुष्य के जीवन को इस कदर ग्रस लिया कि दर्शन भी दर्शन भी राजनैतिक बन गया। पूरी हवा, परिवेश, मानसिकता कुछ ऐसी थी कि उसने एक बहुत अर्थपूर्ण है कि कोई युग कैसे किसी महान शक्ति को जन्म देता है। और वह शक्ति नये युग का निमार्ण करती है। मैक्यावेली बेबाक और स्पष्ट वक्ता था। राजनीति और समाज में फैले हुए पाखंड और बेईमानी के लिए उसकी सीधे नुकीले वक्तव्य झेलना बर्दाश्त के बाहर था। जैसे, उसका प्रसिद्ध वाक्य: Power corrupts and corrupts absolutely , सत्ता भ्रष्ट करती है। और पूरी तरह से भ्रष्ट करती है। सत्ताधीशों को इसे सुनकर चोट लगती थी। मैक्यावेली में इतनी ईमानदारी और स्पष्टता थी कि वह कहता था, राजा सौ प्रतिशत स्वर्ण हो तो नष्ट हो जायेगा। उसे लोमड़ी की तरह चालाक और शेर की तरह दबंग होना चाहिए। वह अशुभ का उपयोग करे लेकिन शुभ के लिए।
सत्रहवी शताब्दी ने र्स्वथा नया मोड़ लिया, या कहें एक क्वांटम लीप, समग्र छलांग ली, जिससे मानव जीवन की ही नहीं, पूरी पृथ्वी की शक्ल ही बदल गई। इस शताब्दी से विज्ञान का उदय के लिए जिस तरह के वैज्ञानिक मस्तिष्क की जरूरत थी उसके बीज अरस्तू ने दो हजार साल पहले बो रखे थे। वे मिट्टी की पर्तों के बीच दबे पड़े अपने समय की राह तक रहे थे। अब पूरी ताकत से अंकुरित हो गये। क्योंकि तर्क और विश्लेषण के बगैर कोई वैज्ञानिक खोज हो ही नहीं सकती थी।
सत्रहवी सदी में चार वैज्ञानिक हुए जिन्होंने विज्ञान युग की नींव रखी: कोपरनिसक, केपलर, गैलीलियो, और न्यूटन। इन वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशाला में जो खोजें की उसने मनुष्य को एकदम यर्थाथ के धरातल पर खड़ा कर दिया। इनकी भाषा, इनकी मानसिकता इतनी अलग थी कि रसेल कहता है, अगर प्लेटों और अरस्तू को फिर से लाया जाये तो वे न्यूटन की एक भी बात समझ न पाएंगे। जिन्होंने आधुनिक विज्ञान की नींव रखी उन वैज्ञानिकों के पास दो असाधारण गुण थे: अपरिसीम धीरज के साथ निरीक्षण करना और अपने निष्कर्षों को बहुत साहस के साथ प्रस्तुत करना। क्योंकि उनके निष्कर्ष पूरा धर्म, बाइबल, स्थापित विश्वासों के विपरीत होते थे। अब तक पृथ्वी ब्रह्मांड का केंद्र थी और गैलीलियो ने देखा दिया कि बेचारी छोटी सी पृथ्वी बहुत बड़े सूरज के चक्कर लगा रही है। विज्ञान की खोजें धार्मिक अहंकार पर बहुत बड़ी चोटें थी।
वैज्ञानिक वातावरण ने एक नये किस्म के दर्शन को जन्म दिया: वैज्ञानिक दर्शन। मनुष्य की पूरी मानसिकता ही बदल रही थी। आधुनिक वैज्ञानिक दर्शन का जनक है डे कार्ट। उसमे मस्तिष्क को दो चीजों ने संस्कारित किया था: आधुनिक विज्ञान और खगोल विज्ञान। अरस्तू के बाद यह पहला बुलंद दार्शनिक था जिसके विचारों में ताजगी थी और अपने पहले जो विचारक हुए उन्हें बनाये हुए महलों को धराशायी करने का साहस था। डे कार्ट के दर्शन में संदेह सबसे बड़ी विधि थी। वह हर चीज पर संदेह करता चला जाता, यहां तक कि स्वयं पर भी। फिर भी अंतत: कुछ ऐसा बचता है। जिस पर संदेह नहीं किया जाता। डे कार्ट का प्रसिद्ध वाक्य है: think therefore I am, मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।
डे कार्ट के बाद फिर एक बार दर्शन का अभ्युत्थान हुआ और दार्शनिकों की लंबी शृंखला चली। स्पिन झा, फ्रांसिस, बेकन, लॉक, ह्मूम, बर्कले, हीगल, कांट....इत्यादि। इसे हम बुद्धिवादी दर्शन कह सकते है। ये दार्शनिक कोई क्रांतिकारी किस्म के नहीं थे। इनका मिज़ाज सामाजिक था और ये खूद एक प्रतिष्ठित संभ्रांत जीवन जीते थे। उनका दर्शन व्यक्तिनिष्ठ, सब्जेक्टिविज्म़ की और उन्मुख था।
उन्नीसवीं शताब्दी में दर्शन का एक शिखर पैदा हुआ जर्मनी में—इमेन्युएल कांट कहता था। चाहे बच्चा हो या बड़ा आदमी, वह किसी और की मर्जी से या दूसरे के इशारों पर चले, यह सबसे भयंकर बात है। बाहर जो संसार दिखाई देता है वह वैसा नहीं है जैसा हम उसे देखते है। हर व्यक्ति अपनी-अपनी मानसिक क्षमता के अनुसार बह्म जगत की व्याख्या करता है।
यहां से ईश्वर का आस्तित्व डांवाडोल हो जाता है। और अंतत: उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में पैदा हुआ नीत्से घोषित करता है: गॉड इज़ डेड, ईश्वर मर चूका है। ईश्वर के साथ ही नीत्से ईसाइयत पर भी कठोर प्रहार करता है। उसे मनुष्य की जड़ों में बसी हुई नैसर्गिक अकृत्रिम, अनिर्बंध जंगल( वाइल्ड) प्रवृतियां अधिक यर्थाथ लगती है। बजाएं पालतू नैतिकता के।
पाश्चात्य दर्शन के इतिहास की रसेल की यात्रा विलियम जेम्स और जॉन डूयुए पर समाप्त हो जाती है। जॉन डूयुए से रसेल को विशेष प्रेम है। शायद इसीलिए वह अपना दार्शनिक सफर जॉन ड्यूक पर पूरा करता है। विलियम जेम्स मनोवैज्ञानिक था। इन दोनों को बर्ट्रेंड रसेल ने संभवत: इसलिए शामिल किया है क्योंकि अमरीकन दर्शन को इन दो दार्शनिकों ने प्रभावित किया है। रसेल को अमरीका के प्रति एक सुप्त आकर्षण था लेकिन वह अमरीका में कभी सम्मानित नहीं हो सका।
विलियम जेम्स अमरीकन दर्शन का नेता माना जाता है। उसने पहली बार अपने दर्शन में ‘’कांशसनेस’’ चेतना शब्द का प्रयोग किया है। अब तक पूरा दर्शन ‘’विषय और विषयों’’ के द्वंद्व पर खड़ा था। विलियम जेम्स इस आधार को ही इनकार करता है। वह कहता है, ‘’सृष्टि का मूल स्त्रोत एक कोई तत्व है जिसे हम ‘’विशुद्ध अनुभव’’ कह सकते है। उससे ही विचार और जानने की प्रक्रिया पैदा होती है।
यह अर्थपूर्ण है कि ओशो ने भी मन के पार की चित दशा के लिए ‘’चेतना’’ कांशसनेस शब्द का प्रयोग किया है। और ओशो शब्द के जो विभिन्न अर्थ समझायें है उनमें एक अर्थ यह भी बताया है कि ओशो शब्द विलियम जेम्स के ‘’Oceanic Consciousness‘’ से लिया गया है।
जॉन डूयुए अमरीका का प्रमुख दार्शनिक था। अमरीकी शिक्षा प्रणाली, सौंदर्यशास्त्र और राजनीतिक सिद्धांत पर उसका गहरा प्रभाव था। खुद बर्ट्रेंड रसेल भी उससे प्रभावित था और कई मुद्दों पर उसके विचारों से सहमत था। जॉन डूयुए 1859 में पैदा हुआ और जिस वक्त रसेल ने यह किताब लिखी, अमरीका में रहता था।
यहां आकर पाश्चात्य दार्शनिकों का इतिहास समाप्त होता है। किताब का अंतिम परिछेद है: ‘’दि फिलॉसॉफी ऑफ लॉजिकल एनालिससि’’, तर्कसंगत विश्लेषण का दर्शन। यहां दर्शन शास्त्र के विकास पर विहंग दृष्टि डालते हुए रसेल अपनी धाराप्रवाही शैली में कुछ अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करता है।
दर्शन अपने पूरे इतिहास में दो हिस्सों से बना है और इन दो हिस्सों का आपस में कोई मेल नहीं है। एक तरफ वह एक सिद्धांत है जो इस संबंध में सोचता है, कि विश्व कैसे बना है और दूसरी तरफ एक नैतिक या राजनैतिक नियम जो हमारे जीवन को बेहतर बना सके। एक भी दार्शनिक इन दोनों को अगल नहीं कर सका। प्लेटों से लेकिर विलियम जेम्स तक सभी दार्शनिक मनुष्य के जीवन को अधिक विकसित करने के लिए दर्शन का यानी उनके अपने मतों का उपयोग कर रहे थे। उनकी दृष्टि में जो विश्वास मनुष्य को अच्छा आचरण करने में सहयोगी थे उनके लिए बहुत परिष्कृत दलीलें जुटाकर उन्होंने उसका एक शास्त्र बना लिया। मैं इस प्रवृति की भर्त्सना करता हूं। मूलत: दर्शन सत्य की निष्पक्ष खोज है, और जो दार्शनिक अपनी व्यवसायिक क्षमता का इसके अलावा किसी अन्य उदेश्य से उपयोग करता है वह एक तरह का विश्वासघात करता है।
...सच तो यह है कि मानवीय बुद्धि उन सभी प्रश्नों के सुनिश्चित उत्तर पाने में असमर्थ है जो मनुष्य जाति के लिए बहुत गहन अर्थों में महत्वपूर्ण है। लेकिन दार्शनिक यह मानने को तैयार नहीं है कि एक श्रेष्ठतर ‘’जानना’’ है जिसके द्वारा हम उन सत्यों को जान सकते है जो विज्ञान और बुद्धि के लिए अगम्य है। ऐसे कई प्रश्न जो अध्यात्म के कुहरे में ढँके हुऐ थे, अगर दार्शनिक के भीतर उन्हें समझने की इच्छा और धीरज हो तो समझे जा सकत है।
जैसे ‘’संख्या क्या है? स्थान और समय क्या है? मन और पदार्थ के क्या मायने है? मैं यह नहीं कहता कि हम इन प्राचीन प्रश्नों के सही उत्तर दे सकते है, लेकिन अब ऐसी एक विधि खोज ली गई जिसके द्वारा हम उत्तर दे सकते है। जो सत्य के बहुत करीब हो।
यह विधि है वैज्ञानिक अन्वेषण और निरीक्षण।
किताब की एक झलक—
दर्शन( Philosophy) एक ऐसा शब्द है जो कई तरह से प्रयोग किया गया है। मैं बहुत व्यापक अर्थ में इसका प्रयोग करूंगा। दर्शन, जैसा कि मैं इस शब्द को समझाता हूं, धर्मविज्ञान और विज्ञान के बीच की कड़ी है। धर्मविज्ञान (Theology) की तरह यह अनुभव करता है कि कौन सा सुनिश्चत ज्ञान है जिसका पता चल गया है लेकिन विज्ञान की तरह वह तर्क को जँचता है, पद (Authority) को नहीं। सभी सुनिश्चित ज्ञान विज्ञान का हिस्सा है, और वे सारे सिद्धांत जो इस संबंध में खोजते है। कि सुनिश्चित ज्ञान के पार क्या है। धर्मविज्ञान का हिस्सा है। लेकिन धर्मविज्ञान और विज्ञान के बीच एक निर्मनुष्य स्थान है जिस पर दोनों तरफ से विचार किया जा सकता है। यह निर्मनुष्य स्थान है दर्शन।
चिंतनशील मस्तिष्क जिन प्रश्नों में रस लेता है लगभग वे सारे प्रश्न ऐसे है जिन्हें विज्ञान कल नहीं कर सकता। और धर्म वैज्ञानिकों के सारे आत्मविश्वासपूर्ण उत्तर अब उतने बलवान नहीं प्रतीत होते जितने अतीत में होते थे। जैसे, क्या यह विश्व मन और पदार्थ में बंटा हुआ है? यदि ऐसा है तो फिर मन क्या है और पदार्थ क्या है? क्या मन पदार्थ के अधीन है या उसकी अपनी स्वतंत्र शक्ति है? क्या इस विश्व में कोई में कोई एकात्मता या इसका कोई उदेश्य है? क्या यह किसी लक्ष्य की दिशा में विकसित हो रहा है? क्या मनुष्य वही है जो किसी खगोल शास्त्री को प्रतीत होता है—अशुद्ध कार्बन और जल का छोटा सा गोला जो कमजोर ती तरह एक गैर-महत्वपूर्ण ग्रह पर रेंग रहा है? क्या वास्तव में प्रकृति के कोई नियम है? या हम व्यवस्था के प्रति अपने जन्मजात प्रेम की वजह से उनमें विश्वास करते है? क्या जीने के दो ढंग है—उदात्त और निकृष्ट या कि जीने के सारे ढंग व्यर्थ? क्या प्रज्ञा नाम की कोई अंतिम वस्तु है या कि वह मूढ़ता का ही अंतिम परिष्कार है?
इनमें से एक भी प्रश्न का उत्तर प्रयोगशाला में नहीं मिल सकता। धर्म विज्ञानों ने उत्तर देने का दावा क्या है, कुछ ज्यादा ही निर्णायक ढंग से। लेकिन उनके इस निर्णायक ढंग की वजह से ही आधुनिक मस्तिष्क उन्हें संदेह से देखता है। इन प्रश्नों का अध्यन करना दर्शन का काम है। उत्तर भले ही दे कि नहीं।
फिर आप पूछेंगे कि इन अनुत्तरित प्रश्नों को हल करने में वक्त क्यों बरबाद करना? इसका जवाब या तो इतिहासविद् की तरह दिया जा सकता है या ब्रह्मांड में हमारे अकेलेपन के भय का सामना करने वाले एक व्यक्ति की तरह दिया जा सकता है। इतिहासविद् का जवाब, जहां तक मैं देने में समर्थ हूं, इस ग्रंथ में यथास्थान प्रस्तुत किया जाएगा। जब से मनुष्य में स्वतंत्र चिंतन करने की क्षमता आ गई। उसके कृत्य कई सिद्धांतों पर निर्भर करने लगे। जैसे विश्व और मानव जीवन का संबंध शुभ क्या है, अशुभ क्या है? यह आज भी उतना ही सच है जितना कि पहले भी था। किसी युग को या राष्ट्र को समझने के लिए उसके दर्शन को समझना चाहिए। और उसके दर्शन को समझने के लिए हमें किसी मात्रा में दार्शनिक होना चाहिए। यहां कार्य-कारण नियम लागू होता है। मनुष्य के जीवन की परिस्थिति को निर्धारित करने का कारण बनता है। सदियों-सदियों की यात्रा में घटा यह अंतर संबंध आगामी पृष्ठों का विषय होगा।
ओशो का नज़रिया--
मुझे बार-बार ख्याल आ रहा है, पता नहीं क्यों कि मुझे बर्ट्रेंड रसेल को सम्मिलित करना है। मैंने उसे हमेशा पसंद किया है। यह भली-भांति जानते हुए कि हम दोनों में जमीन आसमान का अंतर है। वस्तुत: हम दो विपरीत छोर है—शायद इसीलिए। विपरीत ध्रुव एक-दूसरे को आकर्षित करते है।
तुम फिर से मेरी आंखों में आंसू देखते हो? वे बर्ट्रेंड रसेल के लिए है। उसके दोस्त उसे ‘’बर्टी’’ कहते थे। उसकी किताब का नाम है: ‘’दि हिस्ट्री ऑफ वेस्टर्न फिलॉसॉफी।’’
इससे पहले पाश्चात्य दर्शन शास्त्र मे किसी ने इस तरह का काम नहीं किया है। कोई दार्शनिक ही कर सकता था इसे। इतिहासविदों ने कोशिश की है। और दर्शन के इतिहास कई है। लेकिन उनमें से एक भी इतिहासविद् दार्शनिक नहीं था। पहली बार बर्ट्रेंड रसेल की कोटि के दार्शनिक ने दर्शन का इतिहास भी लिखा है। और वह इतना प्रामाणिक है कि उसे दर्शन का इतिहास नहीं कहता। क्योंकि उसे अच्छी तरह पता है कि वह पूरब के दर्शन का संपूर्ण इतिहास नहीं है। केवल पाश्चात्य अंश—अरस्तू से बर्ट्रेंड रसेल तक।
मुझे दर्शन शास्त्र पसंद नहीं है। लेकिन रसेल की किताब सिर्फ इतिहास नहीं है, एक कलाकृति है। वह इतनी व्यवस्थित है, इतनी सौंदर्य पूर्ण है, इतनी सुंदर रचना है...शायद इसलिए क्योंकि रसेल एक गणितज्ञ था।
भारत को अभी तक कोई बर्ट्रेंड रसेल नहीं मिला जो भारतीय दर्शन के और उसके इतिहास के संबंध में लिखे। इतिहास बहुत है लेकिन वे इतिहासविदों ने लिखें है, दार्शनिकों ने नहीं। और स्वभावत: इतिहासविद् आखिर इतिहासविद् है, वह प्रवहमान विचार की आंतरिक लय और उसकी गहराई को नहीं समझ सकता है। राधाकृष्ण ने भारतीय दर्शन का इतिहास लिखा है इस आशा में कि वह बर्ट्रेंड रसेल की किताब जैसी बनेगी, लेकिन वह चोरी है। वह राधाकृष्णन की किताब नहीं है। वह एक गरीब विद्यार्थी का शोध प्रबंध है। जिसके राधाकृष्णन परीक्षक थे। और उन्होंने पूरी थीसिस ही चुरा लिया।
अब ऐसे लोग भारतीय दर्शन के साथ न्याय नहीं कर सकते। भारत को, चीन को, बर्ट्रेंड रसेल की जरूरत है। खास कर इन दो देशों को। पश्चिम सौभाग्यशाली है, कि उसे बर्ट्रेंड रसेल जैसा क्रांतिकारी विचारक मिला। उसने बहुत खूबसूरत वर्णन लिखा है—अरस्तू से लेकर स्वयं तक के पश्चिमी विचार का विकास।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
Awesome
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