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कब:
प्रात: स्नान के पश्चात और रात्रि सोने से पूर्व अविधि; तीस मिनट
निर्देश:
फर्श पर या कुर्सी पर बैठ जाएं, अपने शरीर को बिना किसी प्रयत्न या तनाव के यथासंभव सीधा रखें ताकि आपकी रीढ़ की हड्डी 90 डिग्री के कोण पर हो। आँखों को जोर से बंद न करे, लेकिन सहज स्फुरणा से दोनों पलकों को आराम से बंद होने दे।
पहला चरण: ( दस मिनट श्वास को देखना)
बंद आंखों से भीतर और बाहर गहरी सांस लें, बलपूर्वक दबाब डाले बिना यथासंभव गहरी सांस लें, आती-जाती सांस के प्रति होश पूर्ण और सजग रहे।
जब आप अपने फेफड़ों को पूरी तरह भरते हुए श्वास भीतर लेते है, होश के साथ भीतर जाएं और जब श्वास बाहर छोड़ते है तो होश के साथ बाहर आये। श्वान को या तो नाक के किनारों को जब छूती हुई अंदर जाये तब देखे या नाभि केंद्र पर जहां श्वास भर कर वापस आने के लिए मुड़े। आती जाती श्वास का अनुगमन करे, किसी भी बिंदु पर ठहरे न, श्वास के साथ रिद्म का साथ दे। और होश बनाये रखने का प्रयास करें।
इस अवस्था में आपकी चेतना श्वसन-प्रक्रिया के साथ समस्वर हो जाती है।
यदि यह पहली ध्यान-विधि जिसका आप प्रयोग कर रहे है तो हो सकता है कि आप पहली बार अंतर् साक्षी या आत्मा को अनुभव करें। अंत साक्षी हमारा वह अंश है जो शाश्वत है। अपरिवर्तनशील है। हमारे ‘’होने’’ बीइंग का परमावश्यक मूलभूत रूप है।
समय के साथ-साथ हमारा बह्म-रूप परिवर्तित होता है। जीवन के अनुभवों के कारण हमारा व्यक्तित्व बदलता है। लेकिन हमारे भीतर कुछ सतत अपरिवर्तनशील अंश है जो विकास के दौरान भी विद्यमान रहता है; उसे ‘’देखना’’ (वॉचिंग) कहना अधिक उपयुक्त है; कारण भीतर वह सतत प्रक्रिया एक तत्व की भांति नहीं है।
गहरी श्वसन प्रक्रिया से और प्रत्येक श्वास को देखते रहने से, शरीर और हमारे उस अंश जिसे अन्तर दर्शक या साक्षी कहते है—एक अंतर स्थापित हो जाता है। शरीर और आत्मा के बीच संबंध के शिथिल हो जाने से एक मौन एक शांति और संतोष का अनुभव होता है।
दस मिनट के लिए पूर्ण स्वीकृति
दूसरा चरण:
अपनी श्वास के प्रति सजग रहत हुए अपनी होश अपनी चेतना को अपने चारों और की ध्वनियों या हलचलों को अपने में सम्मिलित करने के लिए फैलने दें; उन्हें स्वीकार करें; उन्हें बाधा न समझें बल्कि उन्हें ध्यान का अंग समझ कर अपने तक आने दे। मन कहेगा ये बाधा है। पर उसे समझा दे, कि ये बाधा नहीं है, मैं सब ग्रहण कर रहा हूं कोई अवरोध नहीं सब स्वीकार भाव से होने दे। कुछ ही देर में सब घ्वनियां अपनी मधुरता में बदल जायेगी। हम ध्वनियों को मस्तिष्क से कानों के माध्यम से सुनते है। आप उन ध्वनियों मो पूरे शरीर को कान समझ कर सुने। उन्हें अपने आप फैलने दे, उन्हें स्वीकार करें, आप पायेंगे कि काई भी ध्वनि आप सून रहे है, भीतर एक अनुगूँज उत्पन्न करती है। और फिर धीरे-धीरे विलीन हो जाती है। आप एक खाली मकान की भांति हो जाए, एक खाली गुम्बद की तरह, तब देखना कोई भी ध्वनि आपको परेशान नहीं कर सकती। आप कुछ ही देर में देखेंगे की ध्वनि अपनी अनुगूँज करती है, आप एक मंदिर के गुंबद की तरह खाली होते है। गुंज आपके तन की दीवारों को छूती नहीं, आप अंदर केंद्र पर एक शांति को केंद्र पाओगे। जहां ध्वनि जाकर उसे विचलित नहीं करती और दूर कहीं अनुगूँज धीरे-धीरे विलीन हो जाती है।
इस अवस्था की रहस्यमयी कुंजी है कि कुछ भी अस्वीकृत नहीं, सब कुछ अंगीकार है। केवल इस पूर्ण स्वीकृति के द्वारा आप जीवन के साथ एकात्मता अनुभव करने की और कदम उठाते है।
दस मिनट, अहं का विसर्जन।
तीसरा चरण:
गहरी सांस लेते रहें और प्रत्येक वस्तु को अपनी सजगता में सम्मिलित करते जायें। ऐसा अनुभव करें कि जैसे आप विलीन हो रहे है। समुद्र में ओस कण की भांति। जैसे ही ‘’आप’’ विलीन होते है। एक गहन सर्वव्यापक शांति और मौन प्रकट होता है।
ओशो
ध्यान प्रयोग
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