(सुख राज का बाल सखा)
ओशो कम्यून के बुद्ध कक्ष में हजारों लोग बैठे है, उस भरी सभा में ओशो कह रहे है, ‘’मेरा बचपन का दोस्त सुख राज यहां बैठा हुआ है। हमारी दोस्ती इतनी पुरानी है कि उस समय की स्मृति भी अब धुँधली हो गई है। और वह मेरा एकमात्र दोस्त है.....मेरे और भी कई दोस्त थे लेकिन वे आये और चले गये। लेकिन वह आज भी मेरे साथ है। अविचल क्योंकि यह किसी वैचारिक सहमति का सवाल नहीं था। प्रेम का सवाल था। इससे कोई लेना देना ही नहीं था कि मैं क्या कहता हूं, क्या करता हूं, वह क्या करता है, क्या कहता है। यह बात ही असंगत है।...सुख राज बड़ा प्यारा आदमी है।
सुख राज भारती हमेशा गदगद ही रहते है। बड़ी कच्ची उम्र में रजनीश चंद्र मोहन नामक प्रेमासिंधु ने उनका पैमाना ऐसा लबालब भर दिया हे कि वह अब सिर्फ छलक़ता ही रहता है। ओशो के वे सबसे पहले और शायद सबसे आखिरी मित्र है। ओशो के सर्वप्रथम दर्शन की छाप आज भी उनकी स्मृति पर अंकित है।
अपनी चित्रमय शैली में वे उन पहली मुलाकात का वर्णन कुछ इस प्रकार करते है। ‘’ओशो सीधे दूसरी कक्षा में भर्ती हुए। वह जब कक्षा में आये तो क्लास लग चुकी थी। जूट की पट्टियाँ बीछी थी। लड़के अपनी-अपनी जगह बैठे हुए थे। इतने में एक सांवला सा लड़का अपने चाचा के साथ दरवाजे पर आकर खड़ा हुआ। उसकी उम्र होगी कोई नौ-साढ़े नौ वर्ष की। घने घुंघराले बाल, बड़ी-बड़ी आंखे, निर्भीक मुद्रा। आते ही उसने पूरी कक्षा पर एक नजर घुमाई। उसे देखते ही मेरा मन चाहा कि इस लड़के से मेरी दोस्ती होनी चाहिए। और आश्चर्य पूरी क्लास का निरीक्षण कर वह लड़का मेरा चुनाव करता है। वह जैसे ही मेरे पास आत है, मैं खिसक कर उसके लिए जगह बनाता हूं।
वह लड़का मेरे पास आकर बैठ जाता है। मैं नाम पूछता हूं, तुम्हारा नाम क्या है?
रजनीश। तुम्हारी?
सुख राज। चलो, आज से हम दोस्त हो गये।
और हम दोनों ने अंगूठे से अंगूठा मिलाया और अपना-अपना अंगूठा चूम लिया। इसका मतलब हुआ अब यह बंधन अटूट हुआ।
फिर रजनीश ने अपना बस्ता खोला, उसमें से स्लेट निकाली। क्या बढ़िया स्लेट थी। मैं तो ईर्ष्या से भर गया। मेरी स्लेट तो बिलकुल घटिया थी। मास्टर जी थोड़ा इधर-उधर हो गये तो हमारी बात शुरू हुई।
रजनीश ने पूछा, तुम्हें क्या आता है?
हमको तो कुछ भी नहीं आता।
चित्रकारी आती है?
हमने कहा: नहीं आती।
मुझे आती है।
कुछ बनाकर दिखाओं तो जाने।
और पलक झपकते ही घोड़ा बन गया। फिर देखते ही देखते गाय बन गई। मैंने सोचा, इसको कोई कठिन विषय देना चाहिए। गाय-घोड़ा तो क्या कोई भी बना सकता है। मैंने उससे कहा, एक बैलगाड़ी बनाओ, जिसमें गाड़ीवान बैठा हो और गाड़ी को छत भी हो। और इधर मैंने कहा नहीं और उधर खटाखट-खटाखट बैलगाड़ी बनकर तैयार हो गई। हमने कहा, वाह यार, तुम तो बड़े होशियार हो।
मैं उसकी बुद्धि से बड़ा प्रभावित हुआ। और इसके साथ-साथ गर्व भी महसूस हुआ की ऐसा लड़का मेरा दोस्त है।
फिर शाम को स्कूल खत्म होने पर हम दोनों ने एक-दूसरे को अपना-अपना घर दिखाया। और हम दोनों के बीच यह तय हुआ कि दोनों साथ जाएंगे साथ आयेंगे। स्कूल के खत्म होने पर साथ खेलेंगे।
अब दोपहर की छुट्टियों में हम घर जाकर, कुछ खा-पीकर फिर स्कूल आते थे। आते वक्त ओशो के घर जाकर, उसको साथ लेकर स्कूल वापस आते थे। एक दृश्य जो मुझे सदा ख्याल में रहा है वह यह था कि मैंने ओशो को कभी अपने हाथों से खाना खाते नहीं देखा। 10-12साल की उम्र तक उनकी मां या नानी उन्हें खिलाती थी। और दोपहर में वे हमेशा दूध-रोटी खाते थे। मैं उनके घर जाता हूं और देखता हूं, ओशो बैठे है पालथी लगाकर और उनके मुंह में कौर दिये जा रहे है।
तो तब आपको यह दृश्य अजीब नहीं लगता था।
अब कौन जाने क्या लगता था। क्योंकि ओशो के साथ ऐसे-ऐसे अजीब दृश्य देखने को मिले है कि वह दृश्य तो बिलकुल धुल गया उनके सामने। और ओशो की क्या कहें। वे जो करें सो थोड़ा है। सुख राज जी ने अपने उसी सहज अंदाज में कहा।
यादों के भंडार में से किसी चिनगारी को कुरेदते हुए सुख राज जी कहने लगे, ओशो दूसरी हिंदी बहुत अच्छी पढ़ते लगे थे। मुझे ठीक से पढ़ना नहीं आता था। मैं अटक-अटक कर पढ़ता था। और वे जाने कहां-कहां से कहानियों की किताबें लाते थे और बोलते, सुख राज यह देख कितनी अच्छी कहानी है। हम कहते सुनाओ यार। वे कहते, चलो बग़ीचे में चलें। स्कूल के पीछे एक बग़ीचा था। उसमें चले गये। उसमें बिही के पेड़ के नीचे दोनों बैठ गये। सुन रहे है। सुनते-सुनते अपने को थोड़ी अलाली आ गई तो उनकी गोदी में लेट गया और रजनीश पेड़ से पीठ टिकाकर बैठे किताब पढ़े चले जा रहे है।
कहते-कहते सुख राज जी गाडरवारा की उस नीरव दुपहरी में फिर से लौट गये। तब उन्हें क्या पता था कि वह साक्षात परब्रह्म की गोदी में विश्राम कर रहे थे। लेकिन उस धन्य भागी बिही के पेड़ और निःशब्द आकाश ने इस निर्मल प्रेम की छवि निश्चित ही अपने अंतस में अंकित कर ली होगी।
उन दिनों सुख राज और रजनीश का यह अटूट नियम था कि सांझ होने से पहले खाना खा लिया और फिर सुख राज के घर अनाज मंडी में 10-15 बच्चे खेलने के लिए इकट्ठे हो गये।
बुद्ध कक्ष की तरफ इशारा करके सुख राज कहने लगे, यह महफिल आज जमी नहीं, यह बड़ी पुरानी है। हम 9-10 साल के थे तब की बात है। हमारा रोज का नियम था। शाम को एक डेढ़ घंटा खूब खेलना। और फिर जैसे ही खेल खत्म फारिग हुए, आ गये हमारे गोदाम में, वहां बोरे-मोर लगे थे। सब बच्चे अनाज के बोरों पर बैठ गये। एक बोरे पर रजनीश बैठे है। पहले बोलेंगे सुख राज एक गिलास पानी। मैं भाग कर घर से पानी ले आता। न जाने क्या, मुझे बड़ी खुशी होती थी पानी लाने में। और बस, फिर रजनीश शुरू। अब शुरू यानी शुरू। एक घंटे तक तो बीच में कोई बोल नहीं सकता।
बुद्ध सभागार के उस निपट देहाती, अनगढ़ रूप को मनश्चक्षु से देख मुझे बड़ी पुलक महसूस हो रही थी। अनाज मंडी में बोरों पर बैठी हुई वह बाल सभा आज के बुद्ध कक्ष से क्या कम शानदार थी?
लेकिन ये 9 वर्ष के बुजुर्ग प्रवचनकर्ता बात क्या करते थे?
बात चाँद-तारों की हो रही थी साब कि दूर आकाश में ऐसा है, और वैसा है। और अपने पृथ्वी के लोग यहां रह रहे है। अब डीटेल तो कोई याद नहीं रह गई। लेकिन इतना याद है कि हम भौंचक्का होकर सुनते थे—जैसे आज यहां पर सुनते है न, ठीक वैसे ही, और एक सिटिंग में एक कहानी तो पूरी नहीं होती थी। जैसे यहां सतत बोलते है। आज जहां खत्म किया कल वहीं से चालू हो गये। सुख राज कल हम कहां थे.....ओर यह सिलसिला तब से आज तक चला आ रहा है। र्निबाद्ध बिना रुके। ऐसा कभी नहीं हुआ कि रजनीश गाडरवारा में हों और शाम को उनका भाषण न हुआ हो। विषय बदलते गये। श्रोता बदलते गये। सभी का रूप बदलता गया लेकिन कार्यक्रम वही का वही।
बचपन की बातें बताते-बताते सुख राज जी का बचपन फिर लौट आया था। अब हम ओशो कम्यून में नहीं राम घाट पर बैठे थे। उनके सामने वही दस साल का शरारती रजनीश खड़ा है और वे उससे फिर लड़-झगड़ रहे है। उनका बोलने का खास प्रादेश लहजा उस माहौल को एक जीवंतता प्रदान कर रहा था।
क्रमश अगली पोस्ट में......
osho ko dekhne ki dil me badi tamanna thi......lekin tab meri samrthya nahi thi unse milne ki....lekin dil hamesha unhe pasand karta raha hai.......
जवाब देंहटाएंosho manmeet he, meri prit he shruddha ki.me roj unke vicharo ke saath hi sota jagtaa hu.......
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं🙏🤴🌺
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