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शुक्रवार, 9 दिसंबर 2011

श्री भाष्‍य–-(आचार्य रामानुज)-019

श्री भाष्य-रामानुज आचार्य-ओशो की प्रिय पुस्तकें  

brahma Sutra-Rama Nujama
      रामानुज लिखित श्री भाष्‍य उस युग का प्रतिनिधित्‍व करता है जिस युग में भारत चित पर पांडित्‍य राज करता था। बुद्धत्‍व की अनुभूति तो बहुत तो बहुत संक्षिप्‍त सुत्रों में लिखी जाती है। ठीक वैसे जैसे विज्ञान के सूत्र होते है। तीन या चार सुगठित शब्‍दों में समुंदर जैसा अनुभव भर देना प्रबुद्ध पुरूषों की प्रिय क्रीड़ा थी। लेकिन इन आणविक सूत्रों पर लंबी-लंबी दार्शनिक टीकाएं लिखना पंडितों का मनपसंद खेल था। इन टीकाओं का जंगल इतना घना होता कि उसमें से रास्‍ता खोजते हुए मूल सूत्रों तक पहुंचना माउंट एवरेस्‍ट पर चढ़ने से कम दूभर नहीं था। पढ़ने वाले भी दार्शनिकों के वाग वैभव का खूब आनंद लेते थे।

      रामनुजाचार्य का श्री भाष्‍य भी इसी परंपरा का वहन करता है। बादरायण ने लिखे हुए ब्रह्मसूत्र विश्‍व विख्यात है। वे इतने गुह्म है कि आदि शंकराचार्य जैसे परम स्‍थिति को उपलब्‍ध महापुरुष भी उसकी टीका लिखे बगैर नहीं रह सके। इन्‍हीं ब्रह्मसूत्रों पर टीका लिखी है रामानुज ने। शंकराचार्य अद्वैत वादी थे। तो रामानुज ने विशिष्‍टाद्वैत को स्‍थापित किया। अद्वैत को मानने वाले विशुद्ध ज्ञान के पक्ष में थे। रामानुज भक्‍ति की राह चले थे और फिर भी भक्‍ति को ज्ञान के साथ जोड़ सके। एकदम रूखे-सूखे ब्रह्मसूत्रों में उन्‍हें भक्‍ति का रस कैसे दिखाई दिया यही ऐ चमत्‍कार है।
वे कहते है, भक्‍ति और ज्ञान, दोनों एक साथ हो सकते है, क्‍योंकि ह्रदय और मस्‍तिष्‍क, इनमें कोई विरोध नहीं है। दोनों एक ही मनुष्‍य के दो पहलू है। विशिष्‍टाद्वैत वेदांतियों की ही धारा रही है। जो शंकराचार्य से भी प्राचीन समय से बह रही है।
      रामानुज की विशिष्‍टता श्री भाष्‍य ग्रंथ के मंगलाचरण में ही स्‍पष्‍ट हो जाती है। ‘’मेरी प्रज्ञा भक्‍तिरूपा हो’’ यह कहकर बड़ी खूबसूरती से रामानुज ज्ञान के मरुस्थल को भक्‍ति के रसभीने मरूद्यान से जोड़ देते है। प्रारंभ तो रसपूर्ण हुआ लेकिन इसके बाद यह धारा उसी प्राचीन शैली में प्रविष्‍ट हो जाती है जो खंडन-मंडन के टेढ़े-मेढ़े-रास्‍ते से गुजरती है। तर्क की बारीक युक्‍तियों के द्वारा लेखक अपना सिद्धांत मजबूत करता जाता है। अपने सिद्धांत के खिलाफ जो भी दलीलें दी जा सकती थी। वे सब खुद लेखक खुद ही खड़ी कर देता है। ओशो कहते है, बुद्धि की यह विशालता उस युग का खास अंदाज था। मंडन मिश्र, बल्लभाचार्य, निंबार्क, शंकराचार्य इत्‍यादि एक से एक मेधावी पूरे देश में भ्रमण करते शास्‍त्री पंडितों की विद्वता को चुनौती देते थे। विराट सभाओं में शास्‍त्रार्थ होते थे और बुद्धिमान श्रोता अवाक होकर इस विचार-उन्‍मेष को सुनते और देखते थे। प्रतिपल को पूरी स्‍वतंत्रता देकर सारे विपरीत पहलूओं को एक साथ देखने की उदारता थी। रामानुज जैसे आचार्यों की रचना उसी युग के अमृत मंथन से निकला हुआ नवनीत है।
      यदि यह प्रश्‍न उठे कि इन प्राचीन रचनाओं को हम आज क्‍यों पढ़ें? उनके संदर्भ पुराने हो गए है—पूर्व मीमांसा, उत्‍तर मीमांसा, अंजान उपनिषद, इन सबका आज के युग से क्‍या संबंध? सच है, पुरानी हो गई है इन महान ग्रंथों की भाषा और शैली, जिन्‍हें पढ़ते हुए बुद्धि जागती नहीं, उबासियां देने लगती है। तो इतना कहा जा सकता है कि प्रतिद्वंद्वी के प्रति सहिष्‍णुता, विचारों की विभिन्‍नता और पराजय के प्रति सहज स्‍वीकार भा देखना हो तो ये ग्रंथ पथ प्रदर्शक हो सकते है।
      मेरे मन में कौतूहल था कि ब्रह्म सूत्र जैसे नितांत सूखे पन में रामानुज भक्‍ति का भीगापन कैसे खोजा होगा। उनका समन्‍वय बड़ा मजेदार है। मुलाहज़ा फरमाईये--
      ‘’वेदन अर्थात ज्ञान का अर्थ उपासना मानना चाहिए। क्‍योंकि शास्‍त्रों में विद् और उपनिषाद ये शब्‍द पर्यायवाची है। अपने वक्‍तव्‍य के सबूत में वे उपनिषदों के वचन उद्गत करते है। जिसमे ब्रह्म को जानना या उसकी उपासना करना एक समान माना हुआ है। इसलिए परम मुक्‍ति के लिए परमात्‍मा की उपासना या भक्‍ति की जा सकती है या उसका ज्ञान प्राप्‍त किया जा सकता है। ध्‍यान है चित की अबाध धारा—ठीक वैसे ही जैसे तेल की धार होती है। जब ध्‍यान की धार सुदृढ़ होती है तो सुरति जगती है। सुरति है स्‍मृति का अविच्‍छिन्‍न प्रवाह। सुरति ही भक्‍ति है जो भगवान को पाने का द्वार बनती है। श्रुति और स्‍मृति में कहा गया है, ‘’जो ‘’उसे’’ जानता है वह मृत्‍यु के पार जाता है।‘’ ध्‍यान का प्रतिदिन अभ्‍यास करने से वह प्रगाढ़ होती है। और साधक के भीतर ऊर्जा का स्‍तंभ बनता है। अंतत: देह त्‍यागने के समय यही ऊर्जा ब्रह्म में विलीन हो जाती है।
      प्राचीन युग की एक और खूबी इस ग्रंथ में झलकती है, और वह है, अपने एक वक्‍तव्‍य को सिद्ध करने के लिए सैकड़ों शास्‍त्रों का आधार लेना। रामानुज या शंकराचार्य जैसे ब्रह्मज्ञानी स्वतःप्रमाण थे। उन्‍हें दूसरों का आधार लेने की जरूरत नहीं थी। लेकिन उन्‍होंने भी जनरीति का पालन किया। हर कदम पर शास्‍त्रों के सहारे वे अपने अनुभव को खड़ा करते रहे। बीसवीं सदी के रहस्‍यदर्शी जे. कृष्णामूर्ति ने इससे ठीक उल्‍टा किया। उन्‍होंने एक भी शास्‍त्र को स्‍वीकार नहीं किया। अपने अनुभव को उन्‍होंने सीधा, क्वाँरा ही प्रगट किया।
      इन प्राचीन बुद्धों की तुलना में ओशो की अद्वितीयता प्रखरता से दिखाई देती है। वे किसी परंपरा के अंश नहीं है। समूचे अतीत को नकार कर वे पृथक अकेले खड़े है। उनके लिए समय को करवट बदलकर नए सिरे से शुरूआत करनी होगी। उन्‍होंने भी अपने सत्‍य को कहने के लिए प्रमाण लेकिन प्राचीन ऋषियों के नहीं, वेद-उपनिषदों के नहीं बल्‍कि आधुनिक वैज्ञानिकों और मनोवैज्ञानिकों के। प्राचीन ग्रंथों पर उन्‍होंने प्रवचन किये लेकिन उनकी बैसाखियां लेने के लिए नहीं, उन पर अपनी प्राणों की संजीवनी छिड़क कर उन्‍हें पुनरुज्जीवित करने के लिए। रामानुज उनके प्रिय आचार्य है। उनके संबंध में एक कहानी ओशो कई बार कहते है। वह कहानी रामानुज को समझने में उपयोगी होगी।
      ‘’एक बार ऐसा हुआ, एक आदमी रामानुज के पास आया। रामानुज रहस्‍यदर्शी थे, एक भक्‍त रहस्‍यदर्शी। अनूठे व्‍यक्‍ति थे। दार्शनिक और फिर भी प्रेम, भक्ति। यह मुश्‍किल से होता है—पैनी बुद्धि, बहुत प्रखर बुद्धि और ओतप्रोत छलकता हुआ ह्रदय।
      एक आदमी रामानुज के पास आया और उसने पूछा, मैं परमात्‍मा को कैसे पा सकता हूं?
      रामानुज ने कहा, मैं एक प्रश्‍न पूछता चाहता हूं। तुमने कभी किसी से प्रेम किया है?
      वह आदमी सचमुच धार्मिक किस्‍म का रहा होगा। उसने कहा, क्‍या बात कर रहे है? प्रेम? मैं ब्रह्मचारी हूं। मैं स्‍त्रियों से इस तरह बचता हूं जैसे कोई रोग से बचे।‘’
      रामानुज ने कहा, ‘’फिर भी, जरा सोचो। अतीत में उतरो, खोजों। तुम्‍हारे ह्रदय में कही कोई प्रेम की तरंग उठी हो? वह आदमी बोला, लेकिन यहां मैं प्रार्थना सीखने आया हूं, प्रेम नहीं। मुझे प्रार्थना सिखाएं। आप संसार की बातें कर रहे है। और मैंने सुना था आप महान रहस्‍यदर्शी हे। मैं यहां परमात्‍मा में प्रवेश करने आया हूं। सांसारिक बातें करने के लिए नहीं।
      रामानुज उदास हुए। उन्‍होंने कहा, ‘’फिर मैं तुम्‍हारी मदद नहीं कर सकता। यदि तुम्‍हें प्रेम का कोई अनुभव नहीं है तो प्रार्थना का भी अनुभव नहीं हो सकता। पहले संसार में जाओं और प्रेम करो। एक बार प्रेम करोगे, उसके अनुभव से समृद्ध होओगे तब मेरे पास आना। क्‍योंकि सिर्फ प्रेमी ही जान सकता है कि प्रार्थना क्‍या है। यदि तुमने तर्क के पार कुछ न जाना हो तो नहीं समझोगे। प्रेम ही प्रार्थना है जो प्रकृति से तुम्‍हें सहज मिली है।‘’
ओशो
(वेदांत: सेवन स्टैप टू समाधि)

ओशो का नजरिया:
      जिस किताब के बारे में मैं बोलने जा रहा हूं। वह एक हिंदू रहस्‍यदर्शी रामानुज ने लिखी है। उसका नाम ‘’श्री भाष्‍य’’ है। वह ब्रह्मसूत्र पर लिखा गया भाष्‍य है। ब्रह्मसूत्र पर कई भाष्‍य लिखे गये है। बादरायण के ब्रह्मसूत्र के बारे में बोल ही चूका हूं। रामानुज ने उस पर जो टीका लिखी है वह एक तरह से अनूठी है।
      मूल ग्रंथ बहुत रूखा-सूखा है, बिलकुल रेगिस्‍तान जैसा। हां, रेगिस्‍तान का भी अपना सौंदर्य है, अपना यथार्थ है। लेकिन ‘’श्री भाष्‍य’’ में रामानुज उसे एक मरूद्यान बना देते है। उसमे रस उंडेल देते है। रामानुज की किताब मुझे बहुत पसंद है। यद्यपि स्‍वयं रामानुज मुझे पंसद नहीं है क्‍योंकि वे परंपरावादी थे। परंपरावादी रूढ़िवादी मुझे कतई अच्‍छे नहीं लगते। मैं उन्‍हें कट्टर धार्मिक समझता हूं। लेकिन मैं क्‍या करूं। यह किताब अत्‍यंत सुंदर है। कभी-कभी कट्टरपंथी भी कुछ सुंदर रच सकते है। अंत: किताब को शामिल करने के लिए मुझे क्षमा करें।
ओशो
बुक्‍स आय हैव लव्‍ड
     


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