टर्शियम ऑगेंनम—(डी.पी. ऑस्पेन्सकी)-ओशो की प्रिय पुसतकें
इस पूस्तक का लेखक पी.डी ऑस्पेन्सकी गणितज्ञ ओर तर्कशास्त्री, दोनों था। ओर इन दोनों विषयों में उसकी जो पैठ थी उसका इत्र निचोड़कर उसने एक दर्शन खड़ा किया जिसका लोकप्रिय नाम था: चौथा आयाम। उसकेआधार पर उसने पश्चिमी तर्कसरणी तथा रहस्यवाद के बीच सेतू बनाया।
Tertium Organum-P.D. Ouspensky
इस पूस्तक का लेखक पी.डी ऑस्पेन्सकी गणितज्ञ ओर तर्कशास्त्री, दोनों था। ओर इन दोनों विषयों में उसकी जो पैठ थी उसका इत्र निचोड़कर उसने एक दर्शन खड़ा किया जिसका लोकप्रिय नाम था: चौथा आयाम। उसकेआधार पर उसने पश्चिमी तर्कसरणी तथा रहस्यवाद के बीच सेतू बनाया।
ऑस्पेन्सकी कहता है: आकाश का आयाम चेतना के विकास से तालमेल रखता है। वहकहता है कि चौथा आयाम, चेतना की अभिव्यक्ति है। ओर वह चौथा आयाम; अंत:प्रज्ञा। आज मनुष्यजाति चेतना के जिस उच्चतर स्तर पर खड़ी है, विश्व चेतना का उदय हो रहा है। उसके लिएएक नये किस्म की तर्कसारणी की आवश्यकत होगी—ऐसी तर्कसरणी जो अरस्तु ओर बेकन के पार है। इसीलिए वह शीषक दिया गया है: दर्शियम आर्गोनम विचार का नवीन सिद्धांत। नवीन गणित और सापेक्षता के सिद्धांत का ऊहापोह करने वाला हये पहला महत्वपूर्ण ग्रंथ है।
‘’उच्चतर तर्क शास्त्र को मैंने ‘’टर्शियम ऑर्गेनम’’ इसलिए कहा है क्योंकि अरस्तु और बेकर के बाद हमारे पास उपलब्ध यह विचार का तीसरा साधन है। पहला था: ऑर्गेनम, दूसरा था: नोवम ऑर्गेनम ओर लेकिन तीसरा पहले सक पूर्व मौजूद था।‘’
ऑस्पेन्सकी के इस गुह्म तथा विशुद्ध विज्ञान-निष्ठ किताब के परिचय में उपरोक्त पंक्तियां लिखी गई है। तार्किक बुद्धि के लिए हय वक्तव्य तर्क संगत नही है लेकिन ऑस्पेन्सकी ने यह किताब तर्क की चौखट में बंद लोगों के लिए लिखी भी नहीं। यह उनके लिए प्रस्तुत की गई है जो ज्ञात के पर के आयामों की खोज कर रहे है। इस वक्तव्य मे अतीत-वर्तमान-भविष्य की धारा को उलटाकर वह समय की छलांग लेता है। लेकिन इसे समझा जा सकता है। अगरचे हम अपनी समय की धारणा को बदल लें।
इमेन्युएल कांट समय की कल्पना इस प्रकार करता है जैसे वह भविष्य से अनंत अतीत की और जाने वाली रेखा हो। और हम सदा इस रेखा के एक बिंदु के प्रति सजग होते है—सिर्फ एक ही बिंदु। और इस बिंदु का कोई आयाम नहीं है। क्योंकि जिसे हम सामान्यतया वर्तमान कहते है वह अभी-अभी गुजरा अतीत होता है या फिर निकट भविष्य। हम वर्तमान क्षण को कभी नहीं पकड़ सकते, वह हमेशा बच निकलता है, हमेशा हमारी पहुंच के बाहर होता है।
फिर अनंतता क्या है?
ऑस्पेन्सकी कहता है कि हकीकत में अनंतता, समय का समयातित आयाम नहीं है। बल्कि समय की रेखा के ऊर्ध्व दिशा की और गया हुआ आयाम है। अगर अनंतता है तो फिर हर क्षण अनंत होगा।
विषय और वस्तु के संबंध में जो भी स्थापित ज्ञान और चिंतन है उसे यह पुस्तक चुनौती देती है। यहां गणित अपनी सीमा से निकल कर दर्शन में प्रविष्ट होता है। और उसे घेर लेता है। इतने अहिस्ता-अहिस्ता कि पता भी नहीं चलता कि यह है। एक तरह से यह किताब एक प्रश्न उपनिषद है। लेखक स्वयं को और पाठक को, प्रश्न पर प्रश्न पुछता चला जाता है। समय, आकाश, समय का चौथा आयाम। प्रेम और मृत्यु, संवेदना और प्रतीति, इत्यादि अनेक विषय पर प्रश्न करता है। उसकी खोज की विधि गणित की है।
समय क्या है?
अवकाश क्या है?
सतह क्या होती है?
इस तरह के बुनियादी प्रश्न के उत्तर देने का दिखावा ऑस्पेन्सकी नहीं करता। उलटे उसकी खोज का अंदाज कुछ ऐसा है कि वह पाठक को अंतहीन खाई में ले जाता है। उसके भीतर का रहस्यदर्शी विराट ब्रह्मांड के सम्मुख अवाक खड़ा रहता है। क्योंकि ब्रह्मांड की गहराई नापना उतना ही मुश्किल मालूम होता है जितना कि पहले था। वह कहता है कि हमारी इंद्रियाँ सिर्फ ‘’संवेदक’’ है जो विश्व को टटोल सकती है। लेकिन उस टटोलने से उन्हें जो प्रतीत होता है वह जरूरी नहीं की यथार्थ हो। वह बहुआयामी अस्तित्व का मात्र त्रि-आयामी नजरिया है।
फिर अस्तित्व क्या है?
ऑस्पेन्सकी के अनुसार अस्तित्व के दो तल है: भौतिक और आध्यात्मिक। जैसे एक मकान ‘’है’’ और शुभ-अशुभ भी है। लेकिन मकान का होना और शुभ-अशुभ का होना, अस्तित्व के सर्वथा भिन्न तल है। पहला तल विषयगत है और दूसरा विषयीगत....।
इस प्रज्ञापूर्ण ग्रंथ के तेईस परिच्छेदों में ऑस्पेन्सकी मानव मन के उन सभी पहलुओं का मौलिक अन्वेषण करता है जो बह्म जगत से जुड़ते है। वह कहता है कि ‘’समय’’ सर्वाधिक कठिन और दुर्जेय समस्या है। जिसका मनुष्य जाति को सामना करना पड़ता है।
उसके कांट के विवेचन का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया है। कांट ने कहा है: समय को हम निर्मित करते है। बह्म जगत को सुविधापूर्ण रूप से जानने के लिए हमने जो ग्रहणशील साधन खोजा है वह है समय।
ऑस्पेन्सकी का तर्क है: समय होता ही नहीं। समय का अहसास होने के लिए हमें उसे तीन अंशों में बांटना पड़ता है। और त्रि-आयामी समय तीन में बंट जाता है। अगर अतीत-वर्तमान-भविष्य न हों, तो क्या हम समय को पकड़ पायेंगे। फिर समय हमारी कल्पना मात्र रह जायेगा।
दूसरे समय का अहसास गति के कारण होता है। चीजें अवकाश में गतिमान होती है। और एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए उन्हें समय की आवश्यकता होती है। उनकी गति की अवधि समय कहलाती है?
मनुष्य ब्रह्मा जगत में ज्ञान कैसे ग्रहण करता है। ऑस्पेन्सकी कहता है ज्ञान ग्रहण करने का जो मानवीय साधन है उसके तीन अंग है; संवेदना, प्रतीति और कल्पना। ग्रहणशीलता का बुनियादी अंग है, संवेदना। संवेदना का मतलब है मस्तिष्क में पैदा हुआ प्राथमिक परिर्वतन। यह संवेदना हमारी स्मृति में एक छाप छोड़ जाती है। और समय-समय पर हुई भिन्न-भिन्न संवेदनाएं कल्पना बन जाती है। जैसे एक बच्चा वृक्ष को देखना है। ऐसे कई वृक्ष देखने के बाद उसके मस्तिष्क में वृक्ष की एक छवि उभरती है। प्रतीतियों से शब्द बनते है और उससे वाणी पैदा होती है।
ऑस्पेन्सकी कुछ संगत मुद्दे उठाता है: जैसे, विज्ञान अज्ञात और अन्वेषण होना चाहिए। उसे दुख होता है कि शैक्षिक विज्ञान केवल वह सिखाता है जो स्वतंत्र चिंतकों ने प्राचीन और व्यर्थ समझ कर इनकार कर दिया है।
ऑस्पेन्सकी जब प्रेम और मृत्यु को एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह प्रस्तुत करता है और दोनों को एक इकाई जानकर उनकी खोज करता है तब वह अस्तित्व की गहरी पर्त को छू लेता है।
‘’जीवन का ऐसा कोई पहलू नहीं है जो हमें अनपेक्षित और अभिनव तत्व की अनंतता नहीं दिखा सकता। यदि हम अपना दृश्य ज्ञान लेकिर उसे परखें तो उसके पीछे एक समूचा अदृश्य जगत है—नये और अज्ञेय शक्तियों और संबंधों का। इस अदृश्य जगत के होने का अहसास पहली कुंजी है।
‘’अस्तित्व के अत्यंत रहस्यपूर्ण पक्ष से मुखातिब हो तो हमारे सम्मुख नये पन का ऐश्वर प्रगट होता है वे है। जिसे दो पहलुओं में हम अनंतता का संस्पर्श करते है वे है: प्रेम और मृत्यु, एक ही देवता के दो चेहरे। शिव के। प्रकृति की सृजनात्मक शक्ति का जो देवता है वहीं एक साथ हिंसक मृत्यु का भी है। हत्या और विनाश का। उसकी अर्धांगिनी पार्वती सौंदर्य, प्रेम और खुशी की प्रतीक है; लेकिन वह काली या दुर्गा अर्थात अशुभ और विध्वंस की, मृत्यु की भी प्रतीक है।
...विज्ञान के लिए जो कि जीवन का इस छोर से अध्यन करता है, प्रेम का उद्देश्य जीवन की निरंतरता है। ठीक से कहें तो, जीवन की निरंतरता बनाए रखने में जो तत्व सहयोगी होता है उसमे प्रेम एक कड़ी है। दो विपरीत लिंगों को जो शक्ति एक-दूसरे के पास खींचती है वहीं शक्ति जातियों को बरकरार रखने में जीवन की मदद कर रही है। यदि हम प्रेम को इस दृष्टि से देखते है तो इस तथ्य को स्वीकारना असंभव होगा कि यह शक्ति आवश्यकता से अधिक मात्रा में उपलब्ध है। इसी में प्रेम का मुल स्वभाव जानने की कुंजी छुपी है। यह शक्ति जरूरत से ज्यादा उपलब्ध है। कहीं ज्यादा। हकीकत में प्रेम का एक छोटा सा हिस्सा मनुष्य जाति के लिए उपलब्ध है। और इसका भी उपयोग संतान उत्पती के लिए होता है। लेकिन इस शक्ति का अधिकांश हिस्सा कहां जाता है।
इस अद्भुत प्रस्तुति को पढ़ना रहस्यपूर्ण अस्तित्व की यात्रा करने जैसा है। उसकी पहेली सुलझती तो नहीं वरन अस्तित्व की महीन अंतर्जाल और विराटता देखकर मन मंत्रमुग्ध हो जाता है। अंत में पाठक को बरबस न्यूटन का विमोहित वक्तव्य स्मरण हो जाता है। ‘’विज्ञान के द्वार से अस्तित्व की गहराइयों में उतर कर मुझे लगा कि मैं सिर्फ एक छोटा बच्चा हूं, जो समुंदर किनारे कंकड़-पत्थरों से खोल रहा हूं।‘’
एक सच्चे अज्ञेय वादी की मानिंद ऑस्पेन्सकी हमें बिना किसी उत्तर के छोड़ देता है—पहले से अधिक किंकर्ततव्यविमूढ़, अधिक अज्ञानी, लेकिन अस्तित्व में अधिक जड़ें जमाये हुए। क्योंकि वह हमारे भीतर जिज्ञासा प्रज्वलित करने में सफल हुआ है।
उसके शब्दों में ही समाप्त करें तो—‘’जीवन का अर्थ क्या है? मनुष्य शाश्वत रूप से इसका चिंतन कर रहा है। सारे दर्शन शास्त्र, सारी धर्म देशनाएं इसे खोजने के लिए प्रयेत्नरत है। अर्थ जीवन के बाहर नहीं, भीतर है। मनुष्य के अंतस में धधकती हुई सबसे शक्तिशाली भावना है: अज्ञात की अभीप्सा। सत्य को असत्य से हर कोई अलग नहीं कर सकता, लेकिन श्रम, अपरिसीम संघर्ष करना होगा जिसके लिए आवश्यक साधन हैं—विचारों की निर्भीकता और भावों की बुलंदी।‘’
ओशो का नज़रिया:
जार्ज गुरूजिएफ के बहुत बड़े शिष्य, पी. डी. ऑस्पेन्सकी ने एक किताब लिखी है। मैंने हजारों किताबें देखी होंगी—और शायद पूरे संसार में मेरे अलावा ऐसा कोई आदमी नहीं होगा जो किताबों की जानकारी रखने का दावा कर सके। लेकिन हजारों किताबों के इस अनुभव के दौरान मुझे ऐसी एक किताब नहीं दिखाई दी जो ऑस्पेन्सकी के टर्शियम ऑर्गेनम की बराबरी कर सके।
टर्शियम ऑर्गेनम का मतलब है: विचार का तीसरा सिद्धांत। ऑस्पेन्सकी ने इस अद्भुत और अतुलनीय किताब का नाम ऐसा रखा है क्योंकि इससे पहले और दो किताबें लिखी गई है। पहली लिखी थी एरिस्टोटल ने; उसने उसे ऑर्गेनम कहा: विचार का पहला सिद्धांत, और दूसरी बेकन ने लिखी थी। उसने उसे नाम दिया: नोवम ऑर्गेनम, विचार का नवीन सिद्धांत।
फिर ऑस्पेन्सकी ने विचार का तीसर सिद्धांत लिखा। और उसने शुरूआत में दर्ज किया: तीसरा पहले से पूर्व मौजूद था।
इस किताब में इतने रहस्य भरे पड़े है कि हर पन्ना, हर परिच्छेद, हर पंक्ति अर्थगर्भित है।
मैं अपनी किताबों को अधोरेखांकित करना पसंद करता था। इसलिए मुझे कभी किसी लाइब्रेरी से किताब लाकर पढ़ना अच्छा नहीं लगता था। लाइब्रेरी की किताबों में मैं रेखाएं नहीं खींच सकता हूं। मैं उस पर मेरी मुहर नहीं लगा सकता। और किसी और द्वारा रेखांकित किताबें पढ़ नहीं सकता क्योंकि वे रेखाएं उभरकर मेरी अपनी धारणों में, मेरी अपनी धारा में व्यवधान डालती है।
यह एकमात्र किताब है जिसमें मैंने रेखाएं खींचना शुरू किया तो कुछ पृष्ठों बाद मुझे पता चला कि हार वाक्य के नीचे रेख खींचनी होगी। लेकिन मैं किताब के साथ नाइंसाफी नहीं कर सका। इस किताब में इतनी सारी बातें है....
पी. डी. ऑस्पेन्सकी अपने समय के बहुत बड़े गणितज्ञों में से एक था। वह भलीभाँति जानता है कि वह क्या लिख रहा है। ओ वह कहता है कि गणित में अंश पूर्ण से कभी बड़ा नहीं हो सकता। जाहिर है अंश पूर्ण से बडा नहीं होगा। लेकिन आगे वह कहता है कि गणित सब कुछ नहीं है।
मैंने अपने गुरु गुरूजिएफ के साथ रहस्य को अनुभव किया है। और अब मैं कह सकता हूं कि श्रेष्ठतर गणित है, रहस्यपूर्ण गणित है जहां अंश ने केवल पूर्ण के समान होता है, बल्कि पूर्ण से बड़ा भी हो सकता है।
अब तुम अद्भुत लोक में प्रवेश कर रहे हो। यहां अंश पूर्ण के समान ही नहीं होता बल्कि पूर्ण से बड़ा होता है। तर्क की दृष्टि में यह बिलकुल बेतुकी बात है। और एक गणितज्ञ के मुंह से तो यह बिलकुल असंगत जान पड़ता है। वह कहता है, ‘’यह वक्तव्य देते हुए मुझे झिझक होती है। लेकिन मैं क्या करू? यह अस्तित्वगत अनुभव है। जब अनुभव की बता आती है तब गणित हो या और कुछ, मुझे वैसा ही कहना है जैसा है।‘’
ओशो
सत्यं शिवं सुंदरम्
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