ताओ तेह किंग—(लाओत्से)-ओशो की प्रिय पुस्तकें
Tao Teh King-Lao Tzu
लाओत्से ने जो कहा : वह पच्चीस सौ साल पुराना जरूर है। लेकिन, एक अर्थ में यह इतना ही नया है। जितनी सुबह की ओस की बुंदे नयी होती है। नया इसलिए है कि उस पर अब तक प्रयोग नहीं हुआ। नया इसलिए है कि मनुष्य की आत्मा उस रास्ते पर एक कदम भी नहीं चली। रास्ता बिलकुल अछूता और कुंआरा है।
भारत की तरह चीन ने भी धरती पर सबसे पुरानी वह समृद्ध सभ्यता की विरासत पायी है। कोई छह हजार वर्षों का उसका ज्ञात इतिहास है—अर्जनों और उपलब्धियों से लदा हुआ। यदि पूछा जाए कि चीन के इस लंबे और शानदार इतिहास में सबसे उजागर व्यक्तित्व, एक ही व्यक्तित्व कौन हुआ, तो आज का प्रबुद्ध जगत बिना हिचकिचाहट के लाओत्से का नाम लेगा। कुछ समय पूर्व इस प्रश्न के उत्तर में शायद कंफ्यूशियस का नाम लिया जाता। कंफ्यूशियस लाओत्से का समकालीन था। और यह भी सच है कि बीते समय में चीनी समाज पर लाओत्से की जीवन दृष्टि के बजाय कंफ्यूशियस के नीतिवादी विचार अधिक प्रभावी सिद्ध हुए।
समय के थोड़े से अंतर के साथ भारत के बुद्ध और महावीर तथा यूनान के सुकरात भी लाओत्से के समकालीन थे।
अचरज की बात है कि चीन इतिहास को अपने सर्वाधिक मूल्यवान महापुरुष के जीवन वृत के संबंध में सबसे कम तथ्य मालूम है। लेकिन यह दुर्घटना लाओत्से की असाधारण दृष्टि के बिलकुल अनुकूल पड़ती है। उनका ही यह वचन है : ‘’इसलिए संत अपने व्यक्तित्व को सदा पीछे रखते है।‘’
प्रसिद्ध चीनी विद्वान लिन यूतांग ने अपनी पुस्तक ‘’दि विजडम आफ लाओत्से’’ में लिखा है : ‘’लाओत्से के बारे में हम अत्यंत कम जानते है। इतना ही जानते है कि उनका जन्म 571 ई. पू. हुआ था। वे कंफ्यूशियस के समकालीन थे। और एक पुराने, सुसंस्कृत घराने से आते थे। राजधानी में सम्राट के अभिलेखागार के संरक्षक के पर लाओत्से कभी काम भी करते थे। मध्य जीवन में ही उन्होंने अवकाश ले लिया और गायब हो गये। संभवत: वे नब्बे वर्षों से अधिक दिनों तक जीए और पोते-पोतियों की संतति छोड़ कर मरे। उनमें से एक शासनधिकारी भी बना।
यह भी आश्चर्य की बात है कि इतनी लंबी उम्र रही हो जिनकी और इतनी गहरी प्रज्ञा को जो उपलब्ध हुआ हो, उनके वचनों की मात्र छोटी सी पुस्तिका मनुष्य जाति को प्राप्त हुई। ‘’ताओ तेह किंग’’ या दि बुक आफ ताओ। ताओ उपनिषद उस का ही नाम है। इसमें लगभग इक्यासी छोटे-छोटे अध्याय है। जिन्हें सूत्र कहना अधिक उचित होगा। वर्तमान पुस्तक के आकार के पच्चीस-तीस पन्नों में वे पूरे वचन समा सकते है।
और यह छोटासा धर्म ग्रंथ गीता और उपनिषाद, धम्म पद या महावीर वाणी, बाइबिल या कुरान या झेन्दावेस्ता की ही कोटि में आता है। किसी से जरा भी कम हैसियत नहीं है इसकी। और कुछ अर्थों में तो यह बिलकुल ही अनूठा और अतुलनीय है।
यह प्रज्ञा-पुस्तक कैसे प्रणीत हुई, इसकी भी रोचक कथा है। जब लाओत्से की ख्याति बहुत बढ़ गई, तब उनके शिष्यों ने यहां तक की राज ने बहुत आग्रह किया कि उन्होंने जो जाना है, जो अनुभव किया है। उसे वे कहीं अभिलिखित कर दें। लेकिन ताओ के ऋषि लाओत्से सदा ही इनकार करते रहे। ओर`जब आग्रह का जोर बहुत बढ़ा, तब इससे बचने के लिए एक रात चुपके से अपनी कुटिया छोड़कर, कुटिया क्या देश छोड़ कर भाग निकले। लेकिन देश की सीमा पर सम्राट ने उन्हें पकड़वा लिया और कहलवा भेजा कि बिना चुंगी कर चुकाए आप सरहद के पार नहीं जा सकते। सो, चुंगी नाके पर ही चुंगी के रूप में यह अद्भुत उपनिषाद उद्भूत हुआ। जिसका आरंभ ही इन शब्दों के साथ होता है: सत्य कहा नहीं जा सकता। और जो कहा जा सकता है, वह सत्य नहीं है।
और यह चुंगी चुका कर फिर ताओ तेह किंग के ऋषि कहां अंतर्धान हो गए, उसकी भी कोई खबर इतिहास में नहीं है। और यह भी उस संत के सर्वथा अनुरूप ही हुआ। कथा, कहती है, लाओत्से सशरीर अनंत शून्य में लीन हो गए।
यह ग्रंथ गागर में सागर भरने की अपूर्व और सफल चेष्टा है। प्राचीन समय के ज्ञानी अपनी बात, अपना दर्शन सूत्र रूप में या बीज-मंत्रों की तरह अभिव्यक्त करते थे। ताओ उपनिषाद इस दृष्टि में भी अप्रतिम है। उसकी वाणी पाठकों को हमारे देश के संत कबीर की उलटवांसियों की याद दिलाती है। जीवन की आदिम सहजता और स्वभाविक की, निर्दोषिता और रहस्यमयता की जैसी हिमायत की है लाओत्से ने, यह कबीर के अत्यंत निकट पड़ती है।
किताब की एक झलक:
1-इसलिए यदि जीवन के रहस्य की अतुल गहराइयां
को मापना हो तो निष्काम जीवन
ही उपयोगी है। कामयुक्त मन को
इसकी बह्म परिधि ही दिखती है
2-यदि योग्यता को पद-मर्यादा न मिले,
तो न तो विग्रह हो और न संघर्ष
यदि दुर्लभ पदार्थों को महत्व नहीं दिया जाए,
तो लोग दस्यु-वृति से भी मुक्त रहें
यदि उसकी और, जो स्पृहणीय है
उनका ध्यान आकर्षित न किया जाए
तो उनके ह्रदय अनुद्विग्न रहें।
3-घाटी की आत्मा कभी नहीं मरती
इसे हम स्त्रैण रहस्य,
ऐसा नाम देते है।
इस स्त्रैण रहस्यमयी का द्वार
स्वर्ग और पृथ्वी का मुल स्त्रोत है।
4-यह सर्वथा अविच्छिन्न है
इसकी शक्ति अखंड है,
ओर इसकी सेवा सहज उपलब्ध होती है।
5-र्स्वोत्कृष्टता जल के सदृश होती है
जल की महानता पर हितैषणा में निहित होता है
और उस विनम्रता में हाथी है
जिसके कारण यह अनायास ही
ऐसे निम्नतम स्थान ग्रहण करती है
जिनकी हम निंदा करते है।
इसीलिए तो जल का स्वभाव ताओ के निकट हे।
6- आवास की श्रेष्ठता स्थान की उपयुक्तता में होती है
मन की श्रेष्ठता उसकी अतल निस्तब्धता में,
संसर्ग की श्रेष्ठता पुण्यात्माओं के साथ रहने में
शासन की श्रेष्ठता अमन-चैन की स्थापना में
कार्य-पद्धति की श्रेष्ठता कर्म की कुशलता में
और किसी आंदोलन के सूत्रपात की श्रेष्ठता उसकी सामयिकता में है।
और जब तक कोई श्रेष्ठ व्यक्ति
अपनी निम्न स्थिति के संबंध में कोई
वितंडा खड़ा नहीं करता,
तब तक वि समादृत होता है।
ओशो का नज़रिया :
लाओत्से ने ये अकेली एक ही किताब लिखी है। और यह उसने लिखी जिंदगी के आखिरी हिस्से में। उसने कोई किताब कभी नहीं लिखी। और जिंदगी भर लोग उसके पीछे पड़े थे। साधारण से आदमी से लेकर सम्राट तक ने उससे प्रार्थना की थी कि लाओत्से, आपने अनुभव को लिख जाओ। लाओत्से हंसता और टाल देता। और लाओत्से कहता, कौन कब लिख पाया है? मुझे उस नासमझी में मत डालों। पहले भी लोगों ने कोशिश की है। और जो जानते है उनकी कोशिश पर हंसते है। क्योंकि वे असफल हुए है। और जो नहीं जानते, वे उनकी असफलता को सत्य समझ कर पकड़ लेते है। मुझसे यह भूल मत करवाएं। जो जानते है, वे मुझ पर हंसेंगे की देखो, लाओत्से भी वहीं कर रहा है। जो नहीं कहा जा सकता, उसे कह रहा है। जो नहीं लिखा जा सकता उसको लिख रहा है। नहीं, ये मैं नहीं करूंगा।
लाओत्से जिंदगी भर टालता रहा, टालता रहा। मौत करीब आने लगी; तो मित्रों का दबाब और शिष्यों का आग्रह भारी पड़ने लगा। लाओत्से के पास सच में संपदा तो बहुत थी। बहुत कम लोगों के पास इतनी संपदा होती है। बहुत कम लोगों ने इतना गहरा जाना और देखा है। तो स्वभाविक था, आस-पास के लोगों का आग्रह भी उचित और ठीक ही था। लाओत्से लिख जाओ, लिख जाओ।
जब आग्रह बहुत बढ़ गया और मौत दिखाई देने लगी आते हुए। और लाओत्से मुश्किल में पड़ गया, तो एक रात निकल भागा। निकल भागा। उन लोगों की वजह से, जो पीछे पड़े थे। कि लिखो, बोलों, कहो, सुबह शिष्यों ने देखा कि लाओत्से की कुटिया खाली है। पक्षी उड़ गया। पिंजड़ा खाली पडा है। वे बड़ी मुश्किल में पड़ गए। सम्राट को खबर की गई और लाओत्से को देश की सीमा पर पकड़ा गया। सम्राट के अधिकारी भेजे और लाओत्से को रूकवाया, चुंगी पर देश की, जहां चीन समाप्त होता था। और लाओत्से से कहा कि सम्राट ने कहा है कि चुंगी दिये बीन तुम जा न सकोगे। तो लाओत्से ने कहा की मैं तो कुछ भी साथ नहीं लिए जा रहा हूं। जिससे की मुझे चुंगी देनी पड़े। सम्राट ने कहलवा भेजा की तुमसे ज्यादा संपत्ति इस मुल्क के बाहर कभी कोई आदमी लेकर नहीं भागा। रुको चुंगी नाके पर और जो भी तुमने जाना है, लिख जाओ।
यह किताब उस चुंगी नाके पर लिखी गई थी। वह लिख जाओ, तो मुल्क के बाहर निकल सकोगे। अन्यथा मुल्क के बाहर नहीं जा सकोगे। मजबूरी में, पुलिस के पहरे में, यह किताब लिखी गई थी। लाओत्से ने कहा, ठीक है, मुझे जाना ही है बाहर, तो मैं कुछ लिख जाता हूं।
यह ताओ तेह किंग अनूठी किताब है। इस तरह कभी नहीं लिखी गई कोई किताब। भाग रहा था लाओत्से इसी किताब को लिखने से बचने के लिए। निश्चित कठोरता लगती है, सम्राट ने जो किया। लेकिन दया भी लगती है। यह किताब न होती, तो लाओत्से जैसे और लोग भी हुए है। जो नहीं लिख गए है। लेकिन जो नहीं लिख जाते उन से भी तो क्या फायदा होता है। जो नहीं लिख जाते, उन पर कम से कम विवाद नहीं होता। जो लिख जाते है, उन पर विवाद होता है। जो लिख जाते है उनके एक-एक शब्द पर हम विचार करते है। कि इसका क्या मतलब है। और मतलब शब्दों के बाहर रह जाता है। कभी अगर मनुष्य जाति का अंतिम लेखा-जोखा होगा, तो कहना मुश्किल है कि जो लिख गए है वे बुद्धिमान समझे जायेगे कि जो नहीं लिख गए है वे बुद्धिमान समझे जाएंगे। वैसे दो में एक कुछ भी चुनो, द्वैत का ही चुनाव है। कोई लिखने के खिलाफ चुप रहने को चुन लेता है; बाकी द्वैत से बचने का उपाय नहीं है।
ओशो
बुक्स आय हैव लव्ड
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