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शनिवार, 31 दिसंबर 2011

दि बुक—(ऐलन वॉटस)-035

ऑन दि टैबू अगेंस्‍ट नोइग हू यू आर-ओशो की प्रिय पुस्तकें 

The Book on the Taboo Against Knowing Who You Are by 

     किताब में प्रवेश करने से पहले खुद ऐलन वॉटस संक्षेप में इसे लिखने की वजह बताता है।
      ‘’यह किताब मनुष्‍य के उस निषिद्ध लेकिन अनचीन्‍हें टैबू के संबंध में है जो एक तरह से हमारी साजिश है हमारे ही प्रति कि हम स्‍वयं को जानना नहीं चाहते। चमड़े के थैले में बंद हम जो एक अलग-थलग हस्‍ती बनकर जीते है वह एक भ्रांति है। यही वह भ्रांति है जिसकी वजह से मनुष्‍य ने टैकनॉलॉजी का उपयोग अपने पर्यावरण पर विजय पाने के लिए और फलत: खुद के अंतिम विनाश के लिए किया।

      ‘’इसलिए दरकार है इस अहसास की कि हम विश्‍व के साथ जो कट गये है इससे बाहर आ जायें और अपने वजूद को पहचाने। इसलिए मैंने वेदांत के सूत्रों को चुनकर उन्‍हें पूरी तरह से आधुनिक शैली में पेश किया है। ताकि वेदांत दर्शन का परिचय पश्‍चिम को हो। यह पाश्‍चात्‍य विज्ञान और पूर्वीय अंत: प्रज्ञा का क्रॉस ब्रीड है, संकर है।‘’
      ऐलन वॉटस के लेखन का एक ही मकसद था कि वह पूरब के अध्‍यात्‍म को पश्‍चिम के विज्ञान से मिलाकर प्रस्‍तुत करे। धर्मों के विषय में बाट की समझ बहुत गहरी है। पहले परिच्‍छेद में भीतर सूचना, Inside information में वह लिखता है—‘’वे सारे औरत ब्रांड धर्म जैसे कि इस समय आचरण में लाये जाते है ऐसी खदानें है जो खाली हो गई। अब उनकी खुदाई करके कुछ मिलनेवाला नहीं। मनुष्‍य और विश्‍व के संबंध में  उनकी अव धारणाएं, उनकी प्रतिमाएं, उनके क्रिया कांड, और अच्‍छे जीवन के बारे में उनके जो विश्‍वास है वे उस विश्‍व के माकूल नहीं है जिसे हम जानते है, या कि वे मनुष्‍य के उस जगत से मेल नहीं खाते जो इतनी तेजी से बदल रहा है कि स्‍कूल में हम जो सीखते है वह स्‍कूल से उत्‍तीर्ण होने के दिन तक पुराना पड़ चुका होता है।‘’
      ‘’मैं जिस किताब को लिखने की सोच रहा हूं वह आम अर्थों में धार्मिक नहीं है लेकिन वह उन सब बातों की चर्चा करेगी जिससे धर्म ताल्‍लुक रखते है। मसलन विश्‍व और उसमे मनुष्‍य का स्‍थान, अनुभव का वह रहस्‍यपूर्ण केंद्र जिसे हम ‘’मैं’’ कहते है; जीवन और प्रेम की समस्‍याएं, पीड़ा और मृत्‍यु और वह अहम सवाल—आस्‍तित्‍व का कोई अर्थ है कि नहीं। क्‍योंकि यह एक बढ़ता हुआ खौफ है कि अस्‍तित्‍व पिंजरे में बंद चूहों की एक दौड़ है। सारी जीवंत चीजें, जिनमें लोग भी शामिल है—पोंगरी की तरह है जिनमे एक छोर से चीजें अंदर जाती है और दूसरे छोर से बाहर।‘’
      जब आदमी खुद के बारे में सोचने लगता है तो सबसे पहले सवाल उठता है: ‘’मैं कहां से आया? इस पर ऐलन वॉटस का उत्‍तर है: ‘’हम विश्‍व के भीतर प्रवेश नहीं करते। हम विश्‍व से प्रगत होते है। हम विश्‍व से प्रगट होते है। जैसे पेड़ पर ऊगते है उसके पत्‍ते।  जिस प्रकार सागर लहराता है। उस प्रकार विश्‍व मनुष्‍य उत्‍पन्‍न करता है। प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति प्रकृति के पूरे साम्राज्‍य की अभिव्‍यक्‍ति है, समूचे विश्‍व की अनूठी व समग्र क्रिया है। और इस तथ्‍य को बहुत ही कम व्‍यक्‍ति अनुभव कर पाते है।‘’
      ‘’इसका परिणाम यह हुआ कि हम बह्म जगत के प्रति एक तरह की दुश्‍मनी पालते है। हम निरंतर पहाड़ों, रेगिस्‍तानों, बैक्टीरिया, प्रकृति या अवकाश को जीतते रहते है।‘’
      ऐलन वॉटस का यह निरीक्षण बहुत ही मौजूं है कि अब मनुष्‍य जाति को एक और नया धर्म या नई बाइबिल नहीं चाहिए। धर्मों ने केवल लड़ना और इंसान को इंसान से तोड़ना सिखाया है। हमें अपने बच्‍चों को एक नया अनुभव देना है कि इस ‘’मैं’’ का अर्थ क्‍या है। लेकिन आज एक अत्‍यंत निषिद्ध बात है स्‍वयं को जानना, पहचानना।
      बीसवीं सदी में बुद्धिवाद, विज्ञान और तकनीक के अपरिसीम विकास ने मनुष्‍य को पूर्णतया बहिर्मुखी बना दिया है। स्‍वयं का, स्‍वयं की खोज का द्वार ही मानों बंद हो गया। यह एक तरह का हादसा ही है। जिससे पाश्‍चात्‍य देश बुरी तरह से प्रभावित थे। ऐलन वॉटस की विशिष्‍टता यह है कि वह आधुनिक मानसिकता को पूरब के अध्‍यात्‍म की निगाहों से देखता है। मिसाल के तौर पर, बुद्धिवाद का सबसे बड़ा दुष्‍परिणाम यह हुआ है कि हम विरोधाभास, असंगति और द्वंद्व को एक साथ स्‍वीकार नहीं कर सकते। तर्क सिर्फ एक ही पक्ष को मानता है। दूसरे को नहीं। और तर्क की दृष्‍टि में दो विपरीत एक साथ सच नहीं हो सकते। इसके कारण मनुष्‍य इतनी बड़ी त्रासदी में घिर गया है कि कहना मुश्‍किल है। उसके सारे तनावों की जड़ यही है। इसे ऐलन वॉटस ने बढ़िया सा नाम दिया है: ‘’दि गेम ऑफ ब्‍लैक ऐ व्‍हाइट, सफेद और काले खेल।‘’
      अस्‍तित्‍व द्वंद्व से अर्थात दो विपरीत तत्‍वों से बना है। जब हम ध्‍वनि को सुनते है, तो उसके साथ निर्ध्‍वनि को भी सुनते है। बल्‍कि दो ध्‍वनियों के बीच का जो अंतराल है उसी की वजह से हम ध्‍वनि को सुन पाते है। प्रकाश भी सिर्फ प्रकाश नहीं है। उसमें अंधकार मिला हुआ है। अंधकार होता है इसलिए प्रकाश का पता चलता है।
      हमारा खेल सिर्फ विपरीत ध्रुव के इन्‍कार तक सीमित नहीं है। वह और भी खतरनाक हो जाता है। क्‍योंकि हम सोचते है सफेद की जीत होनी चाहिए और काले की हार। वह सोचना उतना ही मुर्खतापूर्ण होगा जितना कि यह चाहना कि सिर्फ शिखर ही शिखर हों और घाटियाँ न हों। जीवन तो हो लेकिन मृत्‍यु जैसी नैसर्गिक घटना एक मातम बन गई है। क्‍या पका हुआ पत्‍ता डाल से जब गिरता है तो पेड़ को मातम होता है। वह शोक मनाता है? मृत्‍यु उतनी ही सहज है? नैसर्गिक है, अब यह जरूरी है कि जिस तरह डॉक्‍टर प्रसूति तज्ञ होते है उसी तरह उन्‍हें मृत्‍यु तज्ञ भी होना चाहिए। वे आदमी को जनम लेने में मदद करते है तो यहां से विदा होने में मदद क्‍यों नहीं कर सकते?
      यह किताब इसलिए लिखी गई है ताकि लोग ‘’मैं’’ को खोजें, उसके होने पर सवाल उठाये-यह कौन है जो इस चमड़े के थैले में रहता है? और जब इधर मैं का प्रश्न उठता है तो उसके दूसरे छोर पर या ब्राह्म जगत में उसका जो परिपूरक है परमात्‍मा, उस पर भी शक होता है। यह कौन है जो हमारे जीवन में ताक-झांक करता रहता है। हमारे कामों में, यहां तक विचारों में भावों में भी दखल देता है? ऐलन वॉटस यहां कहते है परमात्‍मा जो महज एक कल्‍पना है, उसकी हमें कोई जरूरत नहीं है। और विश्‍व को भी जरूरत नहीं है। क्‍योंकि वह तो एक स्वयं चालित मशीन की तरह भलीभाँति चल रहा है।
       वस्‍तुत: जिसे हम ‘’मैं’’ कहते है वह हमारे आसपास बने हुए समाज के विचारों, धारणाओं, दृष्‍टिकोण, भाषा इत्‍यादि से बनता है। उसे बनाने में हमारे मां-बाप, शिक्षक, रिश्तेदार और दोस्‍तों का बड़ा हाथ है। हम उनके आईने में अपनी तस्‍वीर देखना सीख लेते है। लेकिन वह आईना टूटा हुआ है। हमें शायद यह पता नहीं है कि हम अपने सामाजिक परिवेश से हम कितना प्रभावित होते है। हमारे गहरे से गहरे विचार और नितांत व्‍यक्‍तिगत भावनाएं भी हमारी अपनी नहीं होती। क्‍यों? क्‍योंकि हम भाषा से सोचते है और हमारे भाव सचित्र होते है जिनका आविष्‍कार हमने नहीं किया। समाज में सदियों-सदियों से चलते आ रहे है। समाज मानो हमारा फैला हुआ शरीर और मन है। जब तक हम समाज दत संस्‍कारों से पूरी तरह मुक्‍त नहीं हो जाते तब तक हमारा वास्‍तविक ‘’मैं’’ नहीं उभर सकता। इसलिए आज जो मनुष्‍य है उसे ऐलन वॉटस ‘’फेंक’’ अर्थात नकली ‘’मैं’’ कहता है। उसके हाथ में इतना ही है कि वह कैसे प्रामाणिक रूप से नकली हो जाये।
      आधुनिक मनुष्‍य बहुत ज्‍यादा समाजिक हो गया है। समाज के साथ उसका संबंध विचित्र बन गया है। समाज को मान्‍यता और प्रतिष्‍ठा पाने के लिए वह स्‍वयं विचित्र बन गया है। जब तक कि समाज ही उसे प्रमाणपत्र नहीं देता तब तक वह अपने आपको स्‍वतंत्र, सृजनात्‍मक, लायक नहीं मानता। आज कल जो भी समाज सेवाएं या कार्य हो रहे है वे मनुष्‍य के अपराध भाव से निकले है। गरीबों को भोजन देना। कपड़े देना, मकान का इंतजाम करना, मान लें कि यह सब कर भी लिया तो उससे क्‍या होगा? फिर क्‍या उन गरीबों को अपने धर्म में दीक्षित करना होगा? या कि उनका बोट बैंक बनाना है? क्‍या वे भी आकर हमारी पागल दौड़ में शामिल हो जायें?
      नीति और नैतिकता की आलोचना करते हुए ऐलन वॉटस कहता है कि नीति ‘’जो है’’ उससे व्‍यक्‍ति का ध्‍यान हटाकर जो ‘’होना चाहिए’’ उस पर ले जाती है। झूठे आदर्श पैदा करती है। इन आदर्शों पर वह कभी चल नहीं सकता। इसलिए अक्‍सर देखा गया है कि दया, प्रेम, शांति, करूणा इत्‍यादि का आचरण करने वाले लोग पाखंडी हो जाते है। जिनकी वे मदद करना चाहते है वे लोग भी उनके ओढ़े हुए कछ गुणों से दूर भागते है।
      किताब का अंतिम परिच्‍छेद है: इट, वह। जाहिर है कि वह ‘’तत्व मसि’’ से प्रेरित हुआ है। इस परिच्‍छेद का प्रारंभ इस प्रकार है: जिस तरह सच्‍चा हास्‍य अपने आप पर हंसना है, वैसे ही सच्‍ची मानवता वह है जिसे आत्‍म ज्ञान हो।‘’
      ‘’आत्‍म ज्ञान से विस्‍मय पैदा होता है और विस्‍मय कौतूहल और अन्‍वेषण की दिशा में ले जाता है। व्‍यक्‍ति को दूसरे व्‍यक्‍तियों से अधिक कुछ आकर्षित नहीं करता। स्‍वयं का आकर्षण भी इसीलिए है कि वह एक व्‍यक्‍ति है। वह जानना चाहता है कि मैं कौन हूं, कैसे कार्य करता हूं। उसे इस बात का आकर्षण और हताशा दोनों एक साथ है। की स्‍वयं को जानना बहुत मुश्किल है। क्‍योंकि मानवीय संरचना इतनी जटिल है कि अपने ही करीब आकर खुद की चेतना को बारीकी से जानना अति कठिन है। इसलिए शायद यह विरोधाभास दिखाई देता है। कि चेतना की जड़ें जहां है उसे अवचेतन कहा जाता है।
      इस बदलते परिवेश में एक तरह ईश्‍वर का स्‍थान खो गया और उसी के साथ परिवार में पिता का आदर खो गया। औद्योगिक समाज में पिता वह शख्‍स है जो सुबह उठकर घर से मीलों दूर किसी कारखाने में जाकर पैसे लाने का काम करता है। अपने बच्‍चों की शिक्षा में उसका कोई योगदान नहीं है, वह काम स्‍कूलों के कोई अजनबी शिक्षक करते है।
      इस आधुनिक समाज रचना में व्‍यक्‍ति स्‍वयं को कैसे खोजें? और जिसे खुद का ही पता नहीं है वह ‘’उस’’ को ‘’तत्’’ को कैसे अनुभव करे?
      इसी प्रश्न को मुखरित करने के हेतु इस किताब की रचना की गई है। उत्‍तर देना ऐलन वॉटस के बस में नहीं है। उसके लिए प्रबुद्ध सदगुरू चाहिए। लेकिन उनके प्रश्‍न को जीवंत किया यही क्‍या कम है।
ओशो का नज़रिया:
      आखिरी किताब है, ऐलन वॉटस लिखित ‘’दि बुक’’। मैंने इसे बचाकर रखा था। ऐलन वॉटस बुद्ध नहीं था लेकिन एक दिन हो सकता था। वह उसके करीब चला गया था। ‘’दि बुक’’ अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण है। यह उसकी वसीयत है; झेन सदगुरूओं, झेन ग्रंथों के उसके अनुभव का सार निचोड़। और यह आदमी बेहद बुद्धिमान था। वह शराबी भी था, उसकी बुद्धि के साथ शराब धुलि और बड़ी रसपूर्ण किताब बनी। मुझे यह किताब हमेशा पसंद रही है। और मैंने इसे आखिरी क्षण के लिए बचा रखा।
      तुम्‍हें जीसस का वह वक्‍तव्‍य याद है? ‘’धन्‍य है वे जो अंतिम है। हां, वह किताब धन्‍य है। मैं उसे आशीर्वाद देता हूं और मैं इस प्रवचन माला को ऐलन वॉटस की स्मृति को समर्पित करता है।
ओशो
दि बुक्‍स आय हैव लव्‍ड



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