ओशो
(ओशो
द्वारा पंच महाव्रत
पर दिए गए
तेरह अमृत
प्रवचनों का
अपूर्व संकलन।)
धर्म
एक चुनौती है।
और चुनौती सीख
जायें तो कहीं
से भी वह
चुनौती मिल
सकती है। जीवन
बंधे—बंधाये—सूत्र
नहीं है। जीवन
कहीं से भी आपको
पकड़ ले सकता
है। खुले रखें
द्वार मन के।।
राह चलते,
सोते, उठते, बैठते,
सीखते रहे।
लेते रहे
चुनौती। किसी
दिन चोट गहरी
पड़ जाएगी। और
वीणा झंकृत हो
जाएगी।
जिंदगी
दूसरे का
अनुसरण नहीं,
जिंदगी स्वयं
का उदघाटन है।
जिंदगी दूसरे
जैसे होने की प्रक्रिया
नहीं, स्वयं
जैसे होने का
आयोजन है। और
जो इस स्वयं
होने की
चुनौती को स्वीकार
करता है,
वह महावीर का
अनुयायी नहीं
बनेगा। लेकिन
वहीं पहुंच
सकता है;उसी
ऊँचाई पर,
जहां जीसस
पहुंचे है;
उसी ऊंचाई पर
जहां बुद्ध
पहुंचे हे।
उसी समाधि उसी
निर्वाण में, उसी मोक्ष
में उसी स्वर्ग
में उसी प्रभु
के राज्य में
प्रत्येक का
प्रवेश हो
सकता है।
ओशो
अहिंसा—(पहला—प्रवचन)
1 सितंबर
1970,
षणमुखानंद
हाल, मुम्बई
मेरे
प्रिय आत्मन्,
आज मैं
अहिंसा पर
आपसे बात
करूंगा। पंच महाव्रत
नकारात्मक
हैं, अहिंसा
भी। असल में
साधना नकारात्मक
ही हो सकती है,
निगेटिव ही
हो सकती है।
उपलब्धि पॉजिटिव
होगी, विधायक
होगी। जो
मिलेगा वह
वस्तुतः होगा
और जो हमें
खोना है, वही
खोना है जो
वस्तुतः नहीं
है।
अंधकार
खोना है, प्रकाश
पाना है।
असत्य खोना है,
सत्य पाना
है। इससे एक
बात और खयाल
में ले लेनी
जरूरी है कि
नकारात्मक
शब्द इस बात
की खबर देते हैं
कि अहिंसा
हमारा स्वभाव
है, उसे
पाया नहीं जा
सकता, वह
है ही। हिंसा
पायी गयी है, वह हमारा
स्वभाव नहीं
है। वह अर्जित
है, एचीव्ड। हिंसक
बनने के लिए
हमें कुछ करना
पड़ा है। हिंसा
हमारी
उपलब्धि है।
हमने उसे खोजा
है, हमने
उसे निर्मित
किया है।
अहिंसा हमारी
उपलब्धि नहीं
हो सकती।
सिर्फ हिंसा न
हो जाये तो जो
शेष बचेगा वह
अहिंसा होगी।
इसलिए
साधना
नकारात्मक
है। वह जो
हमने पा लिया
है और जो पाने
योग्य नहीं है, उसे खो देना
है। जैसे कोई
आदमी स्वभाव
से हिंसक नहीं
है, हो
नहीं सकता।
क्योंकि कोई
भी दुख को चाह
नहीं सकता और
हिंसा सिवाय
दुख के कहीं
भी नहीं ले
जाती। हिंसा एक्सीडेंट
है, सांयोगिक
है। वह हमारे
जीवन की धारा
नहीं है। इसलिए
जो हिंसक है
वह भी चौबीस
घंटे हिंसक
नहीं हो सकता।
अहिंसक चौबीस
घंटे अहिंसक
हो सकता है।
हिंसक चौबीस
घंटे हिंसक
नहीं हो सकता।
उसे भी किसी
वर्तुल के भीतर
अहिंसक ही
होना पड़ता है।
असल में, अगर
वह हिंसा भी
करता है तो
किन्हीं के
साथ अहिंसक हो
सके, इसीलिए
करता है। कोई
आदमी चौबीस
घंटे चोर नहीं
हो सकता। और
अगर कोई चोरी
भी करता है तो
इसीलिए कि कुछ
समय वह बिना
चोरी के हो
सके। चोर का
लक्ष्य भी अचोरी
है, और
हिंसक का
लक्ष्य भी
अहिंसा है। और
इसीलिए ये
सारे शब्द
नकारात्मक
हैं।
धर्म
की भाषा में
दो शब्द
विधायक हैं, बाकी सब
शब्द
नकारात्मक
हैं। उन दोनों
को मैंने
चर्चा से छोड़
दिया है। एक
"सत्य' शब्द
विधायक है, पॉजिटिव है; और एक
"ब्रह्मचर्य'
शब्द
विधायक है, पॉजिटिव है।
यह भी
प्राथमिक रूप
से खयाल में
ले लेना जरूरी
है कि जो पांच
शब्द मैंने
चुने हैं, जिन्हें मैं
पंच महाव्रत
कह रहा हूं, वे
नकारात्मक
हैं। जब वे
पांचों छूट
जायेंगे तो जो
भीतर उपलब्ध
होगा वह होगा
सत्य, और
जो बाहर
उपलब्ध होगा
वह होगा
ब्रह्मचर्य।
सत्य
आत्मा बन
जायेगी इन
पांच के छूट
जाने पर और
ब्रह्मचर्य
आचरण बन
जायेगा इन
पांच के छूटने
पर। वे दो
विधायक शब्द
हैं। सत्य का
अर्थ है, जिसे
हम भीतर
जानेंगे। और
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है, जिसे हम
बाहर
जीयेंगे।
ब्रह्मचर्य
का अर्थ है--ब्रह्म
जैसी चर्या, ईश्वर जैसा
आचरण। ईश्वर
जैसा आचरण उसी
का हो सकता है,
जो ईश्वर
जैसा हो जाये।
सत्य का अर्थ
है--ईश्वर
जैसे हो जाना।
सत्य का अर्थ
है--ब्रह्म।
और जो ईश्वर
जैसा हो गया
उसकी जो चर्या
होगी, वह
ब्रह्मचर्य
होगी। वह
ब्रह्म जैसा
आचरण होगा। ये
दो शब्द धर्म
की भाषा में
विधायक हैं, पॉजिटिव हैं; बाकी
पूरे धर्म की
भाषा
नकारात्मक
है। इन पांच
दिनों में इन
पांच नकार पर
विचार करना
है। आज पहले
नकार
पर--अहिंसा...।
अगर
ठीक से समझें
तो अहिंसा पर
कोई विचार
नहीं हो सकता
है, सिर्फ
हिंसा पर
विचार हो सकता
है और हिंसा
के न होने पर
विचार हो सकता
है। ध्यान रहे
अहिंसा का मतलब
सिर्फ इतना ही
है--हिंसा का न
होना, हिंसा
की एबसेन्स,
अनुपस्थिति--हिंसा
का अभाव।
इसे
ऐसा समझें।
अगर किसी
चिकित्सक को
पूछें कि
स्वास्थ्य की
परिभाषा क्या
है? कैसे आप डेफिनीशन
करते हैं
स्वास्थ्य की?
तो दुनिया
में
स्वास्थ्य के
बहुत से
विज्ञान विकसित
हुए हैं, लेकिन
कोई भी
स्वास्थ्य की
परिभाषा नहीं
करता। अगर आप
पूछें कि
स्वास्थ्य की
परिभाषा क्या
है? तो
चिकित्सक
कहेगा: जहां
बीमारी न हो।
लेकिन यह
बीमारी की बात
हुई, यह
स्वास्थ्य की
बात न हुई। यह
बीमारी का न
होना हुआ।
बीमारी की
परिभाषा हो
सकती है, डेफिनीशन हो सकती है
कि बीमारी
क्या है? लेकिन
स्वास्थ्य की
कोई परिभाषा
नहीं हो सकती--स्वास्थ्य
क्या है? इतना
ही ज्यादा से
ज्यादा हम कह
सकते हैं कि जब
कोई बीमार
नहीं है तो वह
स्वस्थ है।
धर्म
परम
स्वास्थ्य है!
इसलिए धर्म की
कोई परिभाषा
नहीं हो सकती।
सब परिभाषा
अधर्म की है।
इन पांच दिनों
में हम धर्म
पर विचार नहीं
करेंगे।
अधर्म पर
विचार
करेंगे।
विचार
से, बोध से, अधर्म छूट
जाये तो जो
निर्विचार
में शेष रह जाता
है, उसी का
नाम धर्म है।
इसलिए
जहां-जहां
धर्म पर चर्चा
होती है, वहां
व्यर्थ चर्चा
होती है!
चर्चा सिर्फ
अधर्म की ही
हो सकती है।
चर्चा धर्म की
हो नहीं सकती।
चर्चा बीमारी
की ही हो सकती
है, चर्चा
स्वास्थ्य की
नहीं हो सकती।
स्वास्थ्य को
जाना जा सकता
है, स्वास्थ्य
को जीया जा
सकता है, स्वस्थ
हुआ जा सकता
है, चर्चा
नहीं हो सकती।
धर्म को जाना
जा सकता है, जीया जा
सकता है, धर्म
में हुआ जा
सकता है, धर्म
की चर्चा नहीं
हो सकती।
इसलिए सब
धर्मशास्त्र
वस्तुतः
अधर्म की
चर्चा करते
हैं। धर्म की
कोई चर्चा
नहीं करता।
पहले
अधर्म की
चर्चा हम
करें--हिंसा।
और जो-जो हिंसक
हैं, उनके लिए
यह पहला व्रत
है। यह समझने
जैसा मामला है
कि आज हम जो
विचार करेंगे
वह यह मान कर
करेंगे कि हम
हिंसक हैं। इसके
अतिरिक्त उस
चर्चा का कोई
अर्थ नहीं है।
ऐसे भी हम
हिंसक हैं।
हमारे हिंसक
होने में भेद हो
सकते हैं। और
हिंसा की इतनी
पर्तें हैं, और इतनी सूक्ष्मताएं
हैं, कि कई
बार ऐसा भी हो
सकता है कि
जिसे हम
अहिंसा कह रहे
हैं और समझ
रहे हैं, वह
हिंसा का बहुत
सूक्ष्म रूप
हो। और ऐसा भी
हो सकता है कि
जिसे हम हिंसा
कह रहे हैं, वह भी
अहिंसा का
बहुत स्थूल
रूप हो।
जिंदगी बहुत
जटिल है।
उदाहरण
के लिए, गांधी
की अहिंसा को
मैं हिंसा का
सूक्ष्म रूप
कहता हूं और
कृष्ण की
हिंसा को
अहिंसा का स्थूल
रूप कहता हूं।
उसकी हम चर्चा
करेंगे तो खयाल
में आ सकेगा।
हिंसक को ही
विचार करना
जरूरी है
अहिंसा पर।
इसलिए यह भी
प्रासंगिक है
समझ लेना, कि
दुनिया में
अहिंसा का
विचार
हिंसकों की जमात
से आया।
जैनों
के चौबीस तीर्थंकर
क्षत्रिय थे।
वह जमात
हिंसकों की
थी। उनमें एक
भी ब्राह्मण
नहीं था।
उनमें एक भी
वैश्य नहीं
था। बुद्ध
क्षत्रिय थे।
दुनिया में अहिंसा
का विचार
हिंसकों की
जमात से आया
है। दुनिया
में अहिंसा का
खयाल, जहां
हिंसा घनी थी,
सघन थी, वहां
पैदा हुआ है।
असल
में हिंसकों
को ही सोचने
के लिए मजबूर
होना पड़ा है
अहिंसा के
संबंध में। जो
चौबीस घंटे
हिंसा में रत थे, उन्हीं को
यह दिखाई पड़ा
है कि यह
हमारी बहुत अंतर-आत्मा
नहीं है। असल
में हाथ में
तलवार हो, क्षत्रिय
का मन हो, तो
बहुत देर न
लगेगी यह
देखने में कि
हिंसा हमारी
पीड़ा है, दुख
है। वह हमारा
जीवन नहीं है।
वह हमारा आनंद
नहीं है।
आज का
व्रत हिंसकों
के लिए है।
यद्यपि जो
अपने को
अहिंसक समझते
हैं वे आज के
व्रत पर विचार
करते हुए
मिलेंगे! मैं
तो मान कर
चलूंगा कि हम
हिंसक इकट्ठे
हुए हैं। और
जब मैं हिंसा
के बहुत से
रूपों की आपसे
बात करूंगा तो
आप समझ
पायेंगे कि आप
किस रूप के
हिंसक हैं। और
अहिंसक होने
की पहली शर्त
है, अपनी
हिंसा को उसकी
ठीक-ठीक जगह
पर पहचान लेना।
क्योंकि जो
व्यक्ति
हिंसा को ठीक
से पहचान ले, वह हिंसक
नहीं रह सकता
है। हिंसक
रहने की तरकीब,
टेकनीक एक ही है कि
हम अपनी हिंसा
को अहिंसा
समझे जायें।
इसलिए असत्य,
सत्य के
वस्त्र पहन
लेता है। और
हिंसा, अहिंसा
के वस्त्र पहन
लेती है। वह
धोखा पैदा होता
है।
सुनी
है मैंने एक
कथा, सीरियन कथा है।
सौंदर्य
और कुरूप की
देवियों को जब
परमात्मा ने
बनाया और वे
पृथ्वी पर
उतरीं, तो
धूल-धवांस
से भर गए
होंगे उनके
वस्त्र, तो
एक झील के
किनारे
वस्त्र रख कर
वे स्नान करने
झील में गईं।
स्वभावतः
सौंदर्य की
देवी को पता
भी न था कि
उसके वस्त्र
बदले जा सकते
हैं। असल में
सौंदर्य को
अपने
वस्त्रों का
पता ही नहीं
होता है।
सौंदर्य को
अपनी देह का
भी पता नहीं
होता है।
सिर्फ
कुरूपता को
देह का बोध
होता है, सिर्फ
कुरूपता को
वस्त्रों की
चिंता होती है।
क्योंकि
कुरूपता
वस्त्रों और
देह की व्यवस्था
से अपने को
छिपाने का
उपाय करती है।
सौंदर्य की
देवी झील में
दूर स्नान
करते निकल गई,
और तभी
कुरूपता की
देवी को मौका
मिला; वह बाहर
आई, उसने
सौंदर्य की
देवी के कपड़े
पहने और चलती
बनी। जब
सौंदर्य की
देवी बाहर आई
तो बहुत हैरान
हुई। उसके
वस्त्र तो
नहीं थे। वह
नग्न खड़ी थी।
गांव के लोग
जागने शुरू हो
गये और राह
चलने लगी थी।
और कुरूपता की
देवी उसके
वस्त्र ले कर
भाग गई थी तो
मजबूरी में
उसे कुरूपता
के वस्त्र पहन
लेने पड़े। और
कथा कहती है
कि तब से वह
कुरूपता की
देवी का पीछा
कर रही है और
खोज रही है; लेकिन अब तक
मिलना नहीं हो
पाया।
कुरूपता अब भी
सौंदर्य के
वस्त्र पहने
हुए है, और
सौंदर्य की
देवी अभी भी
मजबूरी में
कुरूपता के
वस्त्रों को ओढ़े हुए
है।
असल
में असत्य को
जब भी खड़ा
होना हो तो
उसे सत्य का
चेहरा उधार
लेना पड़ता है!
असत्य को भी
खड़ा होना हो
तो उसे सत्य
का ढंग
अंगीकार करना
पड़ता है।
हिंसा को भी
खड़े होने के
लिए अहिंसा
बनना पड़ता है।
इसलिए अहिंसा
की दिशा में
जो पहली बात
जरूरी है, वह यह है कि
हिंसा के
चेहरे पहचान
लेने जरूरी
हैं। खास कर
उसके अहिंसक
चेहरे, नान-वायलेंट फेसेज़
पहचान लेना
बहुत जरूरी
है। हिंसा, सीधा धोखा
किसी को भी
नहीं दे सकती।
दुनिया में
कोई भी पाप, सीधा धोखा
देने में
असमर्थ है।
पाप को भी
पुण्य की आड़
में ही धोखा
देना पड़ता है।
यह पुण्य के गुण-गौरव
की कथा है।
इससे पता चलता
है कि पाप भी अगर
जीतता है तो
पुण्य का
चेहरा लगा कर
ही जीतता है।
जीतता सदा
पुण्य ही है!
चाहे पाप के
ऊपर चेहरा बन
कर जीतता हो
और चाहे खुद
की अंतरात्मा
बन कर जीतता
हो। पाप कभी
जीतता नहीं।
पाप अपने में
हारा हुआ है।
हिंसा जीत नहीं
सकती। लेकिन
दुनिया से
हिंसा मिटती
नहीं, क्योंकि
हमने हिंसा के
बहुत से
अहिंसक चेहरे खोज
निकाले हैं।
तो पहले हम
हिंसा के
चेहरों को
समझने की
कोशिश करें।
हिंसा
का सबसे पहला
रूप, सबसे
पहली
डायमेंशन, उसका
जो पहला आयाम
है, वह
बहुत गहरा है,
वहीं से पकड़ें।
सबसे पहली
हिंसा, दूसरे
को दूसरा
मानने से शुरू
होती है: टू कन्सीव
द अदर, एज द
अदर। जैसे ही
मैं कहता हूं
आप दूसरे हैं,
मैं आपके
प्रति हिंसक
हो गया। असल
में दूसरे के
प्रति अहिंसक
होना असंभव
है। हम सिर्फ
अपने प्रति ही
अहिंसक हो
सकते हैं, ऐसा
स्वभाव है। हम
सिर्फ अपने
प्रति ही
अहिंसक हो
सकते हैं, हम
दूसरे के
प्रति अहिंसक
हो ही नहीं
सकते। होने की
बात ही नहीं
उठती, क्योंकि
दूसरे को
दूसरा
स्वीकार कर
लेने में ही
हिंसा शुरू हो
गई। बहुत
सूक्ष्म है, बहुत गहरी
है।
सार्त्र
का वचन है--द
अदर इज
हेल, वह जो
दूसरा है वह
नरक है। सार्त्र
के इस वचन से
मैं थोड़ी दूर
तक राजी हूं।
उसकी समझ गहरी
है। वह ठीक कह
रहा है कि
दूसरा नरक है।
लेकिन उसकी
समझ अधूरी भी
है। दूसरा नरक
नहीं है, दूसरे
को दूसरा
समझने में नरक
है! इसलिए जो
भी स्वर्ग के
थोड़े से क्षण
हमें मिलते
हैं, वह तब
मिलते हैं जब
हम दूसरे को
अपना समझते
हैं। उसे हम
प्रेम कहते
हैं।
अगर
मैं किसी को
किसी क्षण में
अपना समझता
हूं, तो उसी
क्षण में मेरे
और उसके बीच
जो धारा बहती
है वह अहिंसा
की है; हिंसा
की नहीं रह
जाती। किसी
क्षण में
दूसरे को अपना
समझने का क्षण
ही प्रेम का
क्षण है। लेकिन
जिसको हम अपना
समझते हैं वह
भी गहरे में
दूसरा ही बना
रहता है। किसी
को अपना कहना
भी सिर्फ इस
बात की स्वीकृति
है कि तुम हो
तो दूसरे, लेकिन
हम तुम्हें
अपना मानते
हैं। इसलिए
जिसे हम प्रेम
कहते हैं उसकी
भी गहराई में
हिंसा मौजूद
रहती है। और
इसलिए प्रेम
की फ्लेम, वह
जो प्रेम की
ज्योति है, कभी कम कभी
ज्यादा होती
रहती है। कभी
वह दूसरा हो
जाता है, कभी
अपना हो जाता
है। चौबीस
घंटे में यह
कई बार बदलाहट
होती है। जब
वह जरा दूर
निकल जाता है और
दूसरा दिखाई
पड़ने लगता है,
तब हिंसा
बीच में आ
जाती है। जब
वह जरा करीब आ
जाता है और
अपना दिखाई
पड़ने लगता है,
तब हिंसा
थोड़ी कम हो
जाती है।
लेकिन जिसे हम
अपना कहते हैं,
वह भी दूसरा
है। पत्नी भी
दूसरी है, चाहे
कितनी ही अपनी
हो। बेटा भी
दूसरा है, चाहे
कितना ही अपना
हो। पति भी
दूसरा है, चाहे
कितना ही अपना
हो। अपना कहने
में भी दूसरे
का भाव सदा
मौजूद है। इसलिए
प्रेम भी पूरी
तरह अहिंसक
नहीं हो पाता।
प्रेम के अपने
हिंसा के ढंग
हैं।
प्रेम
अपने ढंग से
हिंसा करता
है।
प्रेमपूर्ण
ढंग से हिंसा
करता है।
पत्नी, पति
को
प्रेमपूर्ण
ढंग से सताती
है। पति, पत्नी
को
प्रेमपूर्ण
ढंग से सताता
है। बाप, बेटे
को
प्रेमपूर्ण
ढंग से सताता
है। और जब
सताना
प्रेमपूर्ण
हो तो बड़ा
सुरक्षित हो
जाता है। फिर सताने में
बड़ी सुविधा
मिल जाती है, क्योंकि
हिंसा ने
अहिंसा का
चेहरा ओढ़
लिया। शिक्षक
विद्यार्थी
को सताता है
और कहता है, तुम्हारे
हित के लिए ही
सता रहा हूं।
जब हम किसी के
हित के लिए
सताते हैं, तब सताना
बड़ा आसान है।
वह
गौरवान्वित, पुण्यकारी हो जाता है।
इसलिए ध्यान
रखना, दूसरे
को सताने
में हमारे
चेहरे सदा साफ
होते हैं।
अपनों को सताने
में हमारे
चेहरे कभी भी
साफ नहीं
होते। इसलिए
दुनिया में जो
बड़ी-से-बड़ी
हिंसा चलती है
वह दूसरे के
साथ नहीं, वह
अपनों के साथ
चलती है।
सच तो
यह है कि किसी
को भी शत्रु
बनाने के पहले
मित्र बनाना
अनिवार्य
शर्त है। किसी
को मित्र
बनाने के लिए
शत्रु बनाना
अनिवार्य
शर्त नहीं है।
शर्त ही नहीं
है। असल में
शत्रु बनाने के
लिए पहले
मित्र बनाना
जरूरी है।
मित्र बनाये
बिना शत्रु
नहीं बनाया जा
सकता। हां, मित्र बनाया
जा सकता है
बिना शत्रु
बनाये। उसके
लिए कोई शर्त
नहीं है
शत्रुता की।
मित्रता सदा
शत्रुता के
पहले चलती है।
अपनों
के साथ जो
हिंसा है, वह अहिंसा
का गहरे से
गहरा चेहरा
है। इसलिए जिस
व्यक्ति को
हिंसा के
प्रति जागना
हो, उसे
पहले अपनों के
प्रति जो
हिंसा है, उसके
प्रति जागना
होगा। लेकिन
मैंने कहा कि
किसी-किसी
क्षण में
दूसरा अपना
मालूम पड़ता
है। बहुत निकट
हो गये होते
हैं हम। यह
निकट होना, दूर होना, बहुत तरल
है। पूरे वक्त
बदलता रहता
है।
इसलिए
हम चौबीस घंटे
प्रेम में
नहीं होते किसी
के साथ। प्रेम
के सिर्फ क्षण
होते हैं।
प्रेम के घंटे
नहीं होते।
प्रेम के दिन
नहीं होते।
प्रेम के वर्ष
नहीं होते। मोमेंट्स ओनली।
लेकिन जब हम
क्षणों से
स्थायित्व का
धोखा देते हैं
तो हिंसा शुरू
हो जाती है।
अगर मैं किसी
को प्रेम करता
हूं तो यह
क्षण की बात
है। अगले क्षण
भी करूंगा, जरूरी नहीं।
कर सकूंगा, जरूरी नहीं।
लेकिन अगर
मैंने वायदा
किया कि अगले
क्षण भी प्रेम
जारी रखूंगा,
तो अगले
क्षण जब हम
दूर हट गये
होंगे और
हिंसा बीच में
आ गई होगी तब, तब हिंसा
प्रेम की शक्ल
लेगी। इसलिए
दुनिया में
जितनी अपना
बनानेवाली
संस्थाएं हैं,
सब हिंसक
हैं। परिवार
से ज्यादा
हिंसा और किसी
संस्था ने
नहीं की है, लेकिन उसकी
हिंसा बड़ी
सूक्ष्म है।
इसलिए
अगर संन्यासी
को परिवार छोड़
देना पड़ा, तो उसका
कारण था। उसका
कारण
था--सूक्ष्मतम
हिंसा के बाहर
हो जाना। और
कोई कारण नहीं
था, और कोई
भी कारण नहीं
था। सिर्फ एक
ही कारण था कि
हिंसा का एक
सूक्ष्मतम जाल
है जो अपना कहनेवाले
कर रहे हैं।
उनसे लड़ना भी
मुश्किल है, क्योंकि वे
हमारे हित में
ही कर रहे
हैं। परिवार
का ही फैला
हुआ बड़ा रूप
समाज है, इसलिए
समाज ने जितनी
हिंसा की है, उसका हिसाब
लगाना कठिन
है!
सच तो
यह है कि समाज
ने करीब-करीब
व्यक्ति को
मार डाला है!
इसलिए ध्यान
रहे जब आप
समाज के सदस्य
की हैसियत से
किसी के साथ
व्यवहार करते
हैं तब आप
हिंसक होते
हैं। अगर आप
जैन की तरह
किसी व्यक्ति
से व्यवहार
करते हैं तो
आप हिंसक हैं।
हिंदू की तरह
व्यवहार करते
हैं तो आप
हिंसक हैं।
मुसलमान की
तरह व्यवहार
करते हैं तो
आप हिंसक हैं।
क्योंकि अब आप
व्यक्ति की
तरह व्यवहार नहीं
कर रहे, अब
आप समाज की
तरह व्यवहार
कर रहे हैं।
और अभी व्यक्ति
ही अहिंसक
नहीं हो पाया
तो समाज के अहिंसक
होने की
संभावना तो
बहुत दूर है।
समाज तो
अहिंसक हो ही
नहीं सकता, इसलिए
दुनिया में जो
बड़ी हिंसाएं
हैं, वह
व्यक्तियों
ने नहीं की
हैं, वह
समाजों ने की
हैं।
अगर एक
मुसलमान को हम
कहें कि इस
मंदिर में आग लगा
दो, तो अकेला
मुसलमान, व्यक्ति
की हैसियत से,
पच्चीस बार
सोचेगा।
क्योंकि
हिंसा बहुत
साफ दिखाई पड़
रही है। लेकिन
दस हजार
मुसलमानों की
भीड़ में उसको
खड़ा कर दें तब
वह एक बार भी
नहीं सोचेगा,
क्योंकि दस
हजार की भीड़
एक समाज है।
अब हिंसा साफ
न रह गई, बल्कि
अब यह हो सकता
है कि वह धर्म
के हित में ही
मंदिर में आग
लगा दे। ठीक
यही मस्जिद के
साथ हिंदू कर
सकता है। ठीक
यही सारे
दुनिया के समाज
एक-दूसरे के
साथ कर रहे
हैं।
समाज
का मतलब है
अपनों की भीड़।
और दुनिया में
तब तक हिंसा मिटानी
मुश्किल है जब
तक हम अपनों
की भीड़ बनाने
की जिद बंद
नहीं करते।
अपनों की भीड़
का मतलब है कि
यह भीड़ सदा
परायों की भीड़
के खिलाफ खड़ी
होगी। इसलिए
दुनिया के सब
संगठन हिंसात्मक
होते हैं।
दुनिया का कोई
संगठन अहिंसात्मक
नहीं हो सकता।
संभावना नहीं
है अभी, शायद
करोड़ों वर्ष
लग जायें। जब
पूरा मनुष्य रूपांतरित
हो जाये तो
शायद कभी
अहिंसात्मक
लोगों का कोई
मिलन हो सके।
अभी तो
सब मिलन
हिंसात्मक
लोगों के हैं, चाहे परिवार
हो। परिवार दूसरे
लोगों के
खिलाफ खड़ी की
गई इकाई है।
परिवार बायोलॉजिकल
यूनिट है।
जैविक इकाई है,
दूसरी
जैविक
इकाइयों के
खिलाफ। समाज,
दूसरे
समाजों के
खिलाफ
सामाजिक इकाई
है। राज्य, दूसरे
राज्यों के
खिलाफ
राजनैतिक
इकाई है। ये
सब इकाइयां
हिंसा की हैं।
मनुष्य उस दिन
अहिंसक होगा
जिस दिन
मनुष्य निपट
व्यक्ति होने
को राजी हो।
इसलिए
महावीर को जैन
नहीं कहा जा
सकता, और जो
कहते हों, वे
महावीर के साथ
अन्याय करते
हैं। महावीर
किसी समाज के
हिस्से नहीं
हो सकते।
कृष्ण को हिंदू
नहीं कहा जा
सकता, और
जीसस को ईसाई
कहना निपट
पागलपन है। ये
व्यक्ति हैं,
इनकी इकाई
ये खुद हैं।
ये किसी दूसरी
इकाई के साथ जुड़ने को
राजी नहीं
हैं।
संन्यास
समस्त
इकाइयों के
साथ जुड़ने
से इनकार है।
असल में
संन्यास इस
बात की खबर है
कि समाज हिंसा
है, और समाज
के साथ खड़े
होने में
हिंसक होना ही
पड़ेगा। अपनों
का चेहरा, हिंसा
का सूक्ष्मतम
रूप है।
इसलिए
प्रेम जिसे हम
कहते हैं वह
भी अहिंसा नहीं
बन पाता। अपना
जिसे कहते हैं
वह भी "मैं' नहीं हूं।
वह भी दूसरा
है। अहिंसा उस
क्षण शुरू
होगी जिस दिन
दूसरा नहीं है;
द अदर इज
नॉट। यह नहीं
कि वह अपना
है। वह है ही
नहीं। लेकिन
यह क्या बात
है कि दूसरा, दूसरा दिखाई
पड़ता है। होगा
ही दूसरा, तभी
दिखाई पड़ता
है।
नहीं, जैसा दिखाई
पड़ता है वैसा
हो ही, ऐसा
जरूरी नहीं
है। अंधेरे
में रस्सी भी
सांप दिखाई
पड़ती है।
रोशनी होने से
पता चलता है
कि ऐसा नहीं
है। खाली
आंखों से
देखने पर
पत्थर ठोस
दिखाई पड़ता
है। विज्ञान
की गहरी आंखों
से देखने पर
ठोसपन विदा हो
जाता है। पत्थर
सब्स्टेन्शिअल
नहीं रह जाता।
असल में पत्थर
पत्थर ही नहीं
रह जाता।
पत्थर
मैटीरियल ही
नहीं रह जाता।
पत्थर पदार्थ
ही नहीं रह
जाता, सिर्फ
एनर्जी रह
जाता है। नहीं,
जैसा दिखाई
पड़ता है वैसा
ही नहीं है।
जैसा दिखाई पड़ता
है वह हमारे
देखने की
क्षमता की
सूचना है सिर्फ।
दूसरा है, इसलिए
दिखाई पड़ता है?
नहीं, दूसरे
के दिखाई पड़ने
का कारण दूसरे
का होना नहीं
है। दूसरे के
दिखाई पड़ने का
कारण बहुत
अदभुत है। उसे
समझ लेना
जरूरी है। उसे
बिना समझे हम
हिंसा की
गहराई को न
समझ सकेंगे।
दूसरा
इसलिए दिखाई
पड़ता है कि
मैं अभी नहीं
हूं। यह शायद
खयाल में नहीं
आयेगा एकदम
से। मैं नहीं
हूं, मुझे
मेरा कोई पता
नहीं है। इस
मेरे न होने
को, इस
मेरे पता न
होने को, इस
मेरे
आत्म-अज्ञान
को मैंने
दूसरे का
ज्ञान बना
लिया है। हम
दूसरे को देख
रहे हैं, क्योंकि
हम अपने को
देखना नहीं
जानते। और
देखना तो पड़ेगा
ही। देखने की
दो संभावनाएं
हैं: या तो वह
अदर डायरेक्टेड
हो, दूसरे
की तरफ हो तीर
देखने का; या
इनर डायरेक्टेड
हो, अंतर
की ओर तीर हो।
इनर एरोड
या अदर एरोड
हो। दूसरे को
देखें या अपने
को देखें, ये
देखने के दो
विकल्प हैं।
ये देखने के
दो डायमेंशन
हैं। चूंकि हम
अपने को देख
ही नहीं सकते,
देख ही नहीं
पाते, देखा
ही नहीं, हम
दूसरे को ही
देखते रहते
हैं। दूसरे का
होना
आत्म-अज्ञान
से पैदा होता
है। असल में
ध्यान के
डायमेंशन
हैं।
एक
युवक हॉकी के
मैदान में खेल
रहा है, पैर
में चोट लग गई,
खून बह रहा
है। हजारों
दर्शकों को
दिखाई पड़ रहा
है कि पैर से
खून बह रहा है,
सिर्फ उसे
पता नहीं है।
क्या हो गया
है उसको? होश
में नहीं है? होश में
पूरा है, क्योंकि
गेंद की
जरा-सी गति भी,
छोटी-सी गति
भी उसे दिखाई
पड़ रही है।
बेहोश है? बेहोश
बिलकुल नहीं
है, क्योंकि
दूसरे खिलाड़ियों
का जरा-सा
मूवमेंट, जरा-सी
हलचल उसकी आंख
में है। बेहोश
वह नहीं है, क्योंकि खुद
को पूरी तरह
संतुलित करके
वह दौड़ रहा
है। लेकिन यह
पैर से खून
गिर रहा है, यह दिखाई
क्यों नहीं पड़
रहा है? यह
उसे पता क्यों
नहीं चल रहा
है?
उसकी
सारी अटेंशन
अदर डायरेक्टेड
है। उसकी
चेतना इस समय
वन-डायमेंशनल
है। वह बाहर
की दिशा में
लगी है। वह
खेल में
व्यस्त है। वह
इतने जोर से
व्यस्त है कि
चेतना का
टुकड़ा भी नहीं
बचा है जो
भीतर की तरफ
जा सके। सब
बाहर चेतना बह
रही है। खेल
बंद हो गया है, वह पैर पकड़
कर बैठ गया है
और रो रहा है!
और कह रहा है, बहुत चोट लग
गई! मुझे पता
क्यों नहीं
चला?
आधा
घंटा वह कहां
था? आधा घंटा
भी वह था, लेकिन
दूसरे पर
केंद्रित था।
अब लौट आया
अपने पर। अब
उसे पता चल
रहा है कि पैर
में चोट लग गई,
दर्द है, पीड़ा है। अब
उसका ध्यान
अपने शरीर की
तरफ गया। लेकिन
गहरे में वह
अभी भी अदर डायरेक्टेड
है। अभी भी
ध्यान उसका
शरीर पर गया
है। वह भी दूसरा
ही है। वह भी
बाहर ही है।
अभी भी उसे
पता चल रहा है
कि पैर में
दर्द हो रहा
है। अभी भी
उसे "उसका' पता
नहीं चल रहा
है जिसे पता
चल रहा है कि
दर्द हो रहा
है। अभी उसका
उसे कोई पता
नहीं। अभी भी
उसका उसे कोई
पता नहीं है।
अभी और भीतर
की भी यात्रा
संभव है। अभी
वह बीच में
खड़ा है। दूसरा
बाहर है, मैं
भीतर हूं, और
दोनों के बीच
में मेरा शरीर
है। हमारी
यात्रा, या
तो दूसरा या
अपना
शरीर--इनके
बीच होती रहती
है। हमारी
चेतना इनके
बीच डोलती रहती
है। या तो हम
दूसरे को
जानते हैं या
अपने शरीर को
जानते हैं, वह भी दूसरा
है।
असल
में अपने शरीर
का मतलब केवल
इतना है कि हमारे
और दूसरे के
बीच संबंधों
के जो तीर हैं, तट हैं, जहां
हमारी चेतना
की नदी बहती
रहती है, वह
मेरा शरीर और
आपका शरीर
इनके बीच बहती
रहती है। आपसे
भी मेरा मतलब
आपसे नहीं है,
क्योंकि जब
मेरा मतलब
मेरे शरीर से
होता है तो
आपसे मतलब
सिर्फ आपके
शरीर से होता
है। न आपकी
चेतना से मुझे
कोई प्रयोजन
है, न मुझे
आपकी चेतना का
कोई पता है।
जिसे अपनी चेतना
का पता नहीं, उसे दूसरे
की चेतना का
पता हो भी
कैसे सकता है?
मुझे
मेरे शरीर का
पता है और
आपके शरीर का
पता है। अगर
ठीक से कहें
तो हिंसा दो
शरीरों के बीच
का संबंध
है--रिलेशनशिप
बिटवीन
टू बॉडीज।
और दो शरीरों
के बीच अहिंसा
का कोई संबंध
नहीं हो सकता।
शरीरों के बीच
संबंध सदा
हिंसा का
होगा। अच्छी
हिंसा का हो
सकता है, बुरी
हिंसा का हो
सकता है; खतरनाक
हिंसा का हो
सकता है, गैर- खतरनाक
हिंसा का हो
सकता है। लेकिन
तय करना
मुश्किल है कि
खतरा कब
गैर-खतरा हो जाता
है, गैर-खतरा
कब खतरा बन
जाता है।
एक
आदमी प्रेम से
किसी को छाती
से दबा रहा
है। बिलकुल
गैर-खतरनाक
हिंसा है। असल
में दूसरे के
शरीर को दबाने
का सुख ले रहा
है। लेकिन और
थोड़ा बढ़ जाये, और जोर से
दबाये तो घबड़ाहट
शुरू हो
जायेगी। छोड़े
ही ना, और
जोर से दबाये
और श्वास
घुटने लगे, तो जो प्रेम
था वह तत्काल
घृणा बन
जायेगा, हिंसा
बन जायेगा।
ऐसे
प्रेमी हैं
जिनको हम सैडिस्ट
कहते हैं, जिनको हम परपीड़क
कहते हैं। वे
जब तक दूसरे
को सता न लें
तब तक उनका
प्रेम पूरा
नहीं होता।
वैसे हम सब
प्रेम में
एक-दूसरे को
थोड़ा सताते
हैं। जिसको हम
चुंबन कहते
हैं, वह सताने
का एक ढंग है।
लेकिन धीमा, माइल्ड। हिंसा
उसमें पूरी है
लेकिन बहुत
धीमी। लेकिन
थोड़ा और बढ़
जाये, काटना
शुरू हो जाये,
तो हिंसा
थोड़ी बढ़ी। कुछ
प्रेमी काटते
भी हैं। लेकिन
तब तक भी
चलेगा, लेकिन
फिर फाड़ना-चीरना
शुरू हो
जाये...जिन्होंने
प्रेम के शास्त्र
लिखे हैं
उन्होंने
नख-दंश भी
प्रेम की एक
व्यवस्था दी
है। कि नाखून
से प्रेमी को
दंश पहुंचाना,
वह भी प्रेम
है।
हिंदुस्तान
में, हिंदुस्तान
के जो
कामशास्त्र
के ज्ञाता हैं,
वे कहते
हैं: जब तक
प्रेमी को
नाखून से खुरेचें
नहीं, तब
तक उसके भीतर
प्रेम ही पैदा
नहीं होता।
लेकिन नाखून
से खुरेचना!
तो फिर एक
औजार लेकर खुरेचने
में हर्ज क्या
है? वह बढ़
सकता है! वह बढ़
जाता है!
क्योंकि जब
नाखून से खुरेचना
रोज की आदत बन
जायेगी, तब
फिर रस खो
जायेगा। फिर
एक हथियार
रखना पड़ेगा।
जिस आदमी के
नाम पर सैडीज्म
शब्द बना, द
सादे के नाम
पर, वह
आदमी अपने साथ
एक कोड़ा
भी रखता था, एक कांटा भी
रखता था पांच
अंगुलियों
वाला, पत्थर
भी रखता था, और भी प्रेम
के कई साधन
अपने बैग में
रखता था। और जब
किसी को प्रेम
करता तो
दरवाजा लगा कर,
ताला बंद
करके, बस कोड़ा
निकाल लेता।
पहले वह दूसरे
के शरीर को
पीटता। जब
उसकी प्रेयसी
का सारा शरीर कोड़ों से
लहू-लुहान
हो जाता, तब
वह कांटे
चुभाता।...यह
सब प्रेम था।
आप
कहेंगे, यह
अपना वाला
प्रेम नहीं
है। बस यह
सिर्फ थोड़ा
आगे गया।
डिफरेंस इज
ओनली ऑफ डिग्रीज।
इसमें कोई
ज्यादा, कोई
क्वालिटेटिव
फर्क नहीं है,
कोई
गुणात्मक
फर्क नहीं है,
क्वांटिटेटिव,
परिमाण का,
मात्रा का
फर्क है। असल
में दूसरे के
शरीर से हमारे
जो भी संबंध
हैं, वे कम
या ज्यादा, हिंसा के
होंगे। इससे
ज्यादा कोई
फर्क नहीं पड़ता।
कई
प्रेमियों ने
अपनी प्रेयसियों
की गर्दन दबा
डाली है प्रेम
के क्षणों में, मार ही डाला
है! उन पर
मुकदमे चले
हैं। अदालतें
नहीं समझ पायीं
कि यह कैसा
प्रेम है? लेकिन
अदालतों को
समझना चाहिए,
यह थोड़ा आगे
बढ़ गया प्रेम
है! यह संबंध
जरा घनिष्ठ हो
गया। वैसे सभी
प्रेमी
एक-दूसरे की
गर्दन दबाते हैं।
कोई हाथ से
दबाता है, कोई
मन से दबाता
है, कोई
और-और तरकीबों
से दबाता है।
लेकिन प्रेमी को
दबाना हमारा
ढंग रहा है।
कम-ज्यादा की
बात दूसरी है।
दो
शरीरों के बीच
में जो संबंध
है, वह चाहे
छुरा मारने का
हो और चाहे
चुंबन का और आलिंगन
का हो, उसमें
बुनियादी
फर्क नहीं है।
उसमें मूलतः फर्क
नहीं है। यह
जान कर आपको
हैरानी होगी
कि दूसरे के
शरीर में छुरा
भोंकने में
कुछ लोगों को
जो आनंद आता
है, क्या
कभी आपने खयाल
किया कि उसका
खयाल सेक्सुअल
पेनीट्रेशन
से ही पैदा
हुआ है? दूसरे
के शरीर में
छुरा भोंकने
का जो रस है, या दूसरे के
शरीर को गोली
मार देने का
जो रस है, क्या
वह यौन-परवर्शन
से ही पैदा
नहीं हुआ है?
असल
में यौन का
सुख भी, दूसरे
के शरीर में
प्रवेश का सुख
है। अगर किसी
आदमी का दिमाग
थोड़ा विकृत हो
गया तो वह
प्रवेश के
दूसरे रास्ते
खोज सकता है।
विकृत कहें या
इन्वेन्टिव
कहें, आविष्कारक
हो गया। वह कह
सकता है कि
दूसरे के शरीर
में यौन की
दृष्टि से
प्रवेश तो
जानवर भी करते
हैं, इसमें
आदमी की क्या
खूबी? आदमी
और भी तरकीबें
खोजता है
जिनसे वह
दूसरे के शरीर
में प्रवेश कर
जाये। जो गहरे
में खोजते हैं
वे कहते हैं
कि दूसरे की
हत्या का सुख
परवर्टेड
सेक्स है। वे
कहते हैं कि
दूसरे को मार डालने
का रस, दूसरे
में प्रवेश का
रस है।
कभी-कभी
छोटे बच्चे, आपने खयाल
किया, अगर
चलता हुआ कीड़ा
देखते हैं तो
तोड़ कर देखेंगे;
फूल मिलेगा
तो उसको फाड़कर
देखेंगे।
क्या आप सोच
सकते हैं कि
किसी आदमी को
दूसरे आदमी को
फाड़कर
देखने में वही
जिज्ञासा काम
कर रही है? क्या
आप कह सकते
हैं कि
विज्ञान भी
बहुत गहरे में
वायलेंस
है? चीजों
को फाड़कर
देखने की
चेष्टा है।
लेकिन
स्वीकृत है।
अगर आप मेंढक
को मार रहे
हैं बाहर, तो
लोग कहेंगे, बुरा कर रहे
हैं। लेकिन लेबोरेट्री
के टेबल पर
मेंढक को काट
रहे हैं तो
कोई बुरा नहीं
कहेगा। लेकिन
हो सकता है यह
काटनेवाला जो रस
ले रहा है, वह
वही रस है।
अभी
बहुत देर है
कि हम
वैज्ञानिक के
चित्त को ठीक
से समझ पायें, अन्यथा हमें
पता चलेगा कि
उसने अपनी
हिंसा की वृत्ति
को वैज्ञानिक
रुख दे दिया
है, जो
स्वीकृत रुख
है। और हम
हिंसा की
वृत्ति को बहुत
से रुख दे
सकते हैं। कभी
हमने यज्ञ का
रुख दे दिया
था, वह रिलीजियस
ढंग था हिंसा
का।
किसी
आदमी को किसी
जानवर को
काटना है।
काटने में
बुराई है, पाप है--तो
फिर काटने को
पुण्य बना
लिया जाये। तो
हम यज्ञ में
काटें, देवता
की वेदी पर
काटें, तो
पुण्य हो
जायेगा।
काटने का मजा
लेना है।
लेकिन
अब वह पागलपन
हो गया। अब हम
जानते हैं कि
देवता की कोई
वेदी नहीं है; अब हम जानते
हैं कि कोई
यज्ञ की वेदी
नहीं है, जहां
काटा जा सके।
और अगर काटना
है तो ईमानदारी
से यह कहकर
काटो कि मुझे
काटना है!
इसमें देवता
को क्यों फंसाते
हो? इसमें
भगवान को
क्यों बीच में
लाते हो?
रामकृष्ण
की जिंदगी में
एक उल्लेख है
कि एक आदमी
रामकृष्ण के
पास निरंतर
आता था। हर
वर्ष काली के
उत्सव पर वह सैकड़ों
बकरे कटवाता
था। फिर बकरे
कटने बंद हो
गये। फिर उस
आदमी ने जलसा
मनाना बंद कर
दिया। फिर दो वर्ष
बीत गये।
रामकृष्ण के
पास वह बहुत
दिन नहीं आया।
फिर अचानक
आया।
रामकृष्ण ने
कहा, क्या
काली की भक्ति
छोड़ दी? अब
बकरे नहीं
कटवाते? उसने
कहा, अब
दांत ही न रहे,
अब बकरे
कटवाने से
क्या फायदा? तो रामकृष्ण
ने कहा, क्या
तुम दांतों की
वजह से बकरे
कटवाते थे? तो उसने कहा,
जब दांत
गिरे तब मुझे
पता चला कि अब
मुझे कोई रस न
रहा। ऐसे मांस
खाने में
कठिनाई पड़ती
है, काली
की आड़ ले
कर खाना आसान
हो जाता है।
लेकिन
पुरानी वेदियां
गिर गईं धर्म
की। अब का
धर्म विज्ञान
है। इसलिए
विज्ञान की
वेदी पर अब
हिंसा चलती है, बहुत तरह की
हिंसा चलती
है। विज्ञान
हजार तरह के टार्चर के
उपाय कर लेता
है, लेकिन
कोई इनकार हम
नहीं करेंगे।
इसी तरह कभी
हमने धर्म की
वेदी पर इनकार
नहीं किया था,
क्योंकि उस
समय धर्म की
वेदी स्वीकृत
थी। अब विज्ञान
की वेदी
स्वीकृत है।
अगर एक
वैज्ञानिक की
प्रयोगशाला
में जायें तो
बहुत हैरान हो
जायेंगे।
कितने चूहे
मारे जा रहे
हैं। कितने
मेंढक काटे जा
रहे हैं।
कितने जानवर
उल्टे-सीधे लटकाये
गये हैं।
कितने जानवर
बेहोश डाले
गये हैं। कितने
जानवरों की
चीर-फाड़
की जा रही है।
यह सब चल रहा
है। लेकिन
वैज्ञानिक को
बिलकुल पक्का
खयाल है कि वह
हिंसा नहीं कर
रहा है। उसका
खयाल है कि वह
आदमी के लिए
सुख खोजने के
लिए कर रहा
है। बस, तब
हिंसा ने अहिंसा
का चेहरा ओढ़
लिया। अब
चलेगा!
अब आप
जब किसी को
प्रेम करते
हैं तो खयाल
करना कि आपके
भीतर की हिंसा
प्रेम की शक्ल
तो नहीं बन
जाती? अगर
बन जाती है तो
वह खतरनाक से
खतरनाक शक्ल है,
क्योंकि
उसका स्मरण
आना बहुत
मुश्किल है।
हम समझते
रहेंगे, हम
प्रेम ही कर
रहे हैं।
दूसरा, तब तक दूसरा
है, जब तक
मुझे मेरा पता
नहीं है। इसे
मैं हिंसा की
बुनियाद कहता
हूं। हिंसा का
अर्थ है: द अदर ओरियेंटेड
कांशसनेस, दूसरे
से उत्पन्न हो
रही चेतना।
स्वयं से उत्पन्न
हो रही चेतना
अहिंसा बन
जाती है, दूसरे
से उत्पन्न हो
रही चेतना
हिंसा बन जाती
है। लेकिन
हमें दूसरे का
ही पता है। हम
जब भी देखते
हैं, दूसरे
को देखते हैं।
और अगर हम कभी
अपने संबंध
में भी सोचते
हैं, अपने
बाबत भी सोचते
हैं, तो
हमेशा वाया
द अदर, वह
दूसरे हमारी
बाबत क्या
सोचते हैं, उसी तरह
सोचते हैं।
अगर मेरी अपनी
भी कोई शक्ल
है, तो वह
आपके द्वारा
दी गई शक्ल
है।
इसलिए
मैं सदा डरा
रहूंगा कि
कहीं आपके मन
में मेरे
प्रति बुरा
खयाल न आ जाये, अन्यथा मेरी
शक्ल बिगड़
जायेगी।
क्योंकि मेरी
अपनी तो कोई
शक्ल है नहीं।
अखबारों की
कटिंग काटकर
मैंने अपना
चेहरा बनाया
है। आपकी बातें
सुनकर, आपकी
ओपीनियन
इकट्ठी करके,
मैंने अपनी
प्रतिमा बनाई
है। अगर उसमें
से एक पीछे
खिसक जाता
है--कोई भक्त
गाली देने
लगता है, कोई
अनुयायी
दुश्मन हो
जाता है, कोई
मित्र साथ
नहीं देता, कोई बेटा
बाप को इनकार
करने लगता
है--तो बाप की प्रतिमा
गिरने लगती है,
गुरु की
प्रतिमा
गिरने लगती है।
वह घबड़ाने
लगता है कि
मरा। क्योंकि
मेरी तो अपनी
कोई शक्ल नहीं
है, मेरी
अपनी कोई
प्रतिमा
नहीं। इन्हीं
सबने मुझे एक
प्रतिमा दी
थी।
बाप को
अपने बाप होने
का पता नहीं
है, किसी के
बेटा होने भर
का पता है।
उसके बेटा होने
की वजह से वह
बाप है। अगर
वह बेटा, बेटा
होने से इनकार
करने लगे, तो
बाप का बाप
होना मुश्किल
में पड़ गया!
पति को पति
होने का कोई
पता नहीं है, वह पत्नी के
संदर्भ में
पति है। अगर
पत्नी जरा ही
स्वतंत्रता
लेने लगे तो
उसका पति होना
गड़बड़ हो गया।
हम सब दूसरों
के ऊपर निर्भर
हैं। वह जो
दूसरे पर
निर्भर है, वह निरंतर
दूसरे को
देखता रहेगा।
स्वप्न
में भी हम
दूसरे को
देखते हैं।
जागने में भी
दूसरे को
देखते हैं।
ध्यान के लिए बैठें तो
भी दूसरे का
ध्यान करते
हैं। अगर
ध्यान को भी
बैठेंगे, तो
महावीर का
ध्यान करेंगे,
बुद्ध का
ध्यान करेंगे,
कृष्ण का
ध्यान
करेंगे। वहां
भी "द अदर' मौजूद
है। जिस ध्यान
में दूसरा
मौजूद है, वह
हिंसात्मक
ध्यान है। जिस
ध्यान में आप
ही रह गये
सिर्फ, वह
शायद आपको
अहिंसा में ले
जाये।
दूसरा
है, इसलिए
नहीं दिखाई पड़
रहा। हम दिखाई
नहीं पड़ रहे
हैं तो हमारी
चेतना दूसरे
पर केंद्रित
हो गई है। जिस
दिन मैं दिखाई
पडूंगा मुझे,
उस दिन आप
दूसरे की तरह
दिखाई पड़ने
बंद हो जायेंगे।
इसलिए
महावीर जब
चींटी से बच
कर चल रहे हैं
तो आप इस
भ्रांति में
मत रहना कि आप
भी जब चींटी से
बच कर चलते
हैं, तो वही
कारण है जो
महावीर का
कारण है। आप
जब चींटी से
बच कर चलते
हैं, तो
चींटी से बच कर
चल रहे हैं।
और महावीर जब
चींटी से बच
कर चलते हैं
तो अपने पर ही
पैर न पड़ जाये,
इसलिए बच कर
चल रहे हैं! इन
दोनों में
बुनियादी
फर्क है।
महावीर का
बचना अहिंसा।
आपका बचना हिंसा
ही है। दूसरा
मौजूद है कि
चींटी न मर जाये।
और चींटी न मर
जाये इसकी
चिंता आपको
क्यों है? इसकी
चिंता सिर्फ
इसलिए है कि
कहीं चींटी के
मरने से पाप न
लग जाये। वह
अदर ओरियेंटेड
कांशसनेस है।
कि कहीं चींटी
के मरने से
पाप न लग जाये,
कहीं चींटी
के मरने से
नरक में न
जाना पड़े, कहीं
चींटी के मरने
से पुण्य न
छिन जाये, कहीं
चींटी के मरने
से स्वर्ग न खो
जाये! चींटी
से कोई
प्रयोजन नहीं
है, प्रयोजन
सदा अपने से
है। लेकिन
चींटी पर ओरियेंटेड
है। दिमाग
चींटी पर
केंद्रित है,
चींटी से बच
रहे हैं।
नहीं, आपको ऐसा
नहीं लगता
जैसा महावीर
को लगता है। महावीर
का चींटी से
बचना बहुत
भिन्न है। वह
चींटी से बचना
ही नहीं है।
अगर महावीर से
हम पूछें कि
क्यों बच रहे
हैं? तो वह
कहेंगे, अपने
पर ही पैर
कैसे रखा जा
सकता है? नहीं,
यह बचना
नहीं है। असल
में अपने पर
पैर रखना असंभव
है।
रामकृष्ण
एक दिन गंगा
पार कर रहे
हैं। बैठे हैं
नाव में।
अचानक
चिल्लाने
लगते हैं जोर
से, कि मत
मारो, मत मारो,
क्यों मुझे
मारते हो? पास,
आस-पास बैठे
लोग कोई भी
उनको नहीं मार
रहे हैं। सब
भक्त हैं, उनके
पैर छूते हैं,
पैर दबाते
हैं, उनको
कोई मारता तो
नहीं। सब कहने
लगे, आप
क्या कह रहे
हैं? कौन
आपको मार रहा
है? रामकृष्ण
चिल्लाये जा
रहे हैं।
उन्होंने पीठ
उघाड़ दी। पीठ
पर देखा तो कोड़े
के निशान हैं।
खून झलक आया
है। सब बहुत
घबड़ा गये।
रामकृष्ण से
पूछा, यह
क्या हो गया? किसने मारा
आपको? रामकृष्ण
ने कहा, वह
देखो, वे
मुझे मार रहे
हैं।
उस
किनारे पर
मल्लाह एक
आदमी को मार
रहे हैं कोड़ों
से, और उसकी
पीठ पर जो
निशान बने हैं
वे रामकृष्ण
की पीठ पर भी
बन गये। ठीक
वही निशान। और
जब तट पर उतर
कर भीड़ लग गई
है और दोनों
के निशान देखे
गये हैं तो तय
करना मुश्किल
हो गया कि कोड़े
किसको मारे
गये? ओरिजिनल
कौन है? रामकृष्ण
को चोट ज्यादा
पहुंची है
मल्लाह से।
निशान वही हैं,
चोट ज्यादा
है। क्योंकि
मल्लाह तो
विरोध भी कर
रहा होगा भीतर
से, रामकृष्ण
ने तो पूरा
स्वीकार ही कर
लिया! चोट ज्यादा
गहरी हो गई।
लेकिन
रामकृष्ण के
मुख से जो
शब्द
निकला--"मुझे
मत मारो', इसका
मतलब समझते
हैं? एक
शब्द है हमारे
पास, सिम्पैथी,
सहानुभूति।
यह सहानुभूति
नहीं है।
सहानुभूति
हिंसक के मन
में होती है।
वह कहता है, मत मारो
उसे। दूसरे को
मत मारो।
सहानुभूति का मतलब
है कि मुझे
दया आती है।
लेकिन दया सदा
दूसरे पर आती
है। यह
सहानुभूति
नहीं है, यह
समानुभूति है,
इम्पैथी है। सिम्पैथी
नहीं है। यहां
रामकृष्ण यह
नहीं कह रहे
हैं कि "उसे' मत मारो। रामकृष्ण
कह रहे हैं
"मुझे' मत
मारो--यहां
दूसरा गिर
गया!
असल
में दूसरे से
जो हमारा
फासला है वह
शरीर का ही
फासला है, चेतना का
कोई फासला
नहीं। चेतना
के तल पर दो नहीं
हैं। हम दूसरे
को बचायें
तो वह अहिंसा
नहीं हो सकती।
हम दूसरे को बचायें, तो वह भी
हिंसा ही है। जिस
दिन हम ही रह
जाते हैं, और
बचने को कोई
भी नहीं रह
जाता, उस
दिन अहिंसा
फलित होती है।
इसलिए
अहिंसा के
बाबत इस गहरी
हिंसा को समझ
लेना जरूरी है, कि वह जो
दूसरा है उससे
छुटकारा कैसे
होगा। वह
सार्त्र ठीक
कहता है कि द
अदर इज
हेल, पर
ज्यादा अच्छा
होगा कि
सार्त्र के
वचन में थोड़ा
फर्क कर दिया
जाये--द अदर इज
नाट हेल, द अदरनेस इज हेल।
दूसरा नहीं है
नर्क, दूसरापन। दूसरापन
गिर जाये तो
दूसरा भी
दूसरा नहीं
है।
महावीर
की अहिंसा को
नहीं समझा जा
सका, क्योंकि
हम हिंसकों ने
महावीर की
अहिंसा को हिंसा
की शब्दावली
दे दी। हमने कहा,
दूसरे को
दुख मत दो।
लेकिन ध्यान
रहे जब तक दूसरा
है तब तक दुख
जारी रहेगा।
चाहे उसकी
छाती में छुरा
भोंको और
चाहे उसे
दूसरे की नजर
से छुरा भोंको,
उससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
क्या
आपको खयाल है
कि आप कमरे
में अकेले
बैठे हों और
कोई भीतर आ
जाये तो आप
वही नहीं रह
जाते जो आप
अकेले थे।
क्योंकि
दूसरे ने आकर
हिंसा शुरू कर
दी। उसकी आंख, उसकी
मौजूदगी! वह
आपको मार नहीं
रहा है, आपको
चोट नहीं
पहुंचा रहा है,
बहुत अच्छी
बातें कर रहा
है, कह रहा
है, आप
कुशल से तो
हैं; लेकिन
उसका देखना...।
जैसे
ही दूसरा भीतर
आता है--ही हैज
मेड यू द अदर।
जैसे ही कोई
कमरे में भीतर
आया उसने आपको
भी दूसरा बना
दिया। हिंसा
शुरू हो गई।
अब उसकी आंख, उसका
निरीक्षण, उसका
देखना, उसका
बैठना, उसका
होना, उसकी
प्रजेन्स,
हिंसा है।
अब आप डर गये, क्योंकि हम
सिर्फ हिंसा
से डर जाते
हैं। अब आप
भयभीत हो गये।
अब आप संभल कर
बैठ गये। आप
अपने बाथरूम
में और तरह के
आदमी होते हैं,
आप अपने बैठकखाने
में और तरह के
आदमी हो जाते
हैं। क्योंकि बैठकखाने
में हिंसा की
संभावना है।
बैठकखाना वह
जगह है जहां
हम दूसरों की
हिंसा को
झेलते हैं।
जहां हम
दूसरों का
स्वागत करते
हैं, जहां
हम दूसरों को
निमंत्रित
करते हैं।
अहिंसात्मक
ढंग से हमने
बैठकखाना
सजाया है। इसलिए
बैठकखाना हम
खूब सजाते हैं
कि दूसरे की हिंसा
कम-से-कम हो
जाये। वह
सजावट दूसरे
की हिंसा को
कम कर दे।
इसलिए बैठकखाने
के चेहरे
हमारे
मुस्कुराते
होते हैं।
क्योंकि
मुस्कुराहट
दूसरे की
हिंसा के
खिलाफ आरक्षण
है। अच्छे
शब्द बोलते
हैं बैठकखाने
में, शिष्टाचार
बरतते हैं, सभ्यता
बरतते हैं। यह
सब इंतजाम है,
यह सब
सिक्योरिटी
और सेफ्टी मेजर्स
हैं कि दूसरे
आदमी की हिंसा
को थोड़ी कम
करो।
अगर आप
भी गाली देंगे
तो दूसरे की
हिंसा को प्रबल
होने का मौका
मिलेगा। आप
कहते हैं: बड़ी
कृपा की कि आप
आये! अतिथि तो
भगवान है! विराजिये!
तो उस दूसरे
की हिंसा को
आप कम कर रहे
हैं। अब उसे
हिंसक होने
में कठिनाई
पड़ेगी। दूसरा
भी आपकी हिंसा
को कम कर रहा
है। इसलिए जब
दो आदमी पहली
दफे मिलते हैं
तब उनके बीच
बड़ा
शिष्टाचार होता
है। तीन-चार
घंटे के बाद
शिष्टाचार
गिर जाता है।
तीन-चार दिन
के बाद समाप्त
हो जाता है।
तीन-चार महीने
के बाद वे
एक-दूसरे को
गाली देने
लगते हैं। हालांकि
कहते हैं, प्रेम में
दे रहे हैं, दोस्ती में
दे रहे हैं!
पहले
मिलते हैं तो
कहते हैं, "आप', दोत्तीन महीने के
बाद मिलते हैं
तो कहते हैं,
"तू'। यह
बात क्या हो
गई तीन महीने
में? असल
में अब दोनों
की हिंसा सेटेल्ड,
व्यवस्थित
हो गई। अब
इतना ज्यादा
सुरक्षा का इंतजाम
करना जरूरी
नहीं है।
दूसरे
की मौजूदगी भी
हिंसा बन जाती
है। आपके लिए
ही नहीं, आपकी
मौजूदगी भी
दूसरे के लिए
हिंसा बन जाती
है।
महावीर
की जिंदगी में
एक बहुत अदभुत
घटना है। महावीर
संन्यास लेना
चाहते थे। तो
उन्होंने अपनी
मां से कहा कि
मैं जाऊं
संन्यास ले
लूं? उनकी मां
ने कहा, मेरे
सामने दुबारा
यह बात मत
कहना। जब तक
मैं जिंदा हूं
तब तक संन्यास
नहीं ले सकते।
मुझ पर बड़ा
दुख पड़
जायेगा।
महावीर लौट
गये।
मां ने
न सोचा होगा, क्योंकि आम
तौर से
संन्यासी
इतने अहिंसक
नहीं होते कि
इतनी जल्दी
लौट जायें।
अगर हिंसक वृत्ति
होती महावीर
की तो और जिद
पकड़ जाते।
कहते कि नहीं,
लेकर ही
रहूंगा। यह
संसार तो सब
माया-मोह है! कौन
अपना? कौन
पराया? यह
सब तो झूठ है!
संन्यास लेकर
रहूंगा। तुम
रोकने वाली
कौन हो? बंधन
कैसा? लेकिन
नहीं, महावीर
चुपचाप लौट
गये। मां भी
हैरान हुई होगी,
क्योंकि
ऐसा संन्यासी,
जो एक दफे
कहे कि
संन्यास लेना
चाहता हूं और
मां कह दे, पिता
कह दे, पत्नी
कह दे कि नहीं
मुझे बहुत दुख
होगा, और
लौट जाये! ऐसा
आदमी कभी
संन्यासी हो
सकता है? कभी
नहीं हो सकता।
होने की जरूरत
भी नहीं है। ऐसा
आदमी
संन्यासी है!
मां मर
गई! पिता मर
गये। मरघट से
लौट रहे हैं
महावीर! अपने
बड़े भाई से
कहा कि बात
हुई थी माता-पिता
से, तो वे
बोले थे जब तक
वे हैं तब तक
संन्यास न लूं,
उन्हें दुख
होगा। अब
संन्यास ले
सकता हूं? घर
लौट रहे हैं
मरघट से! भाई
ने कहा, तुम
पागल हो गये
हो? मां
चली गई, पिता
चले गये, हम
अनाथ हो गये, और तुम भी
छोड़ कर चले
जाओगे? ऐसा
दुख मैं न सह
सकूंगा।
महावीर चुप हो
गये। फिर
उन्होंने
दुबारा बात न उठायी
संन्यास की।
बड़े अजीब
संन्यासी रहे
होंगे। इतना
भी दुख दूसरे
को पहुंचे यह
भी अर्थहीन
मालूम हुआ
होगा। और ऐसे
मोक्ष को भी
लेकर क्या
करेंगे
जिसमें किसी
को दुख देकर
जाना पड़ता हो।
रुक गये।
लेकिन
एक अजीब घटना
घटी उस घर
में। ऐसी घटना
शायद पृथ्वी
पर और कहीं कभी
भी नहीं घटी।
एक अजीब घटना
घटी। वर्ष-दो
वर्ष में घर
के लोगों को
ऐसा लगने लगा
कि महावीर हैं
या नहीं, यह
संदिग्ध हो
गया! थे घर
में--उठते थे, बैठते थे, आते थे, जाते
थे, खाते
थे, पीते
थे, सोते
थे--मगर घर के
लोगों को
संदेह पैदा
होने लगा कि
वह हैं या
नहीं। उनकी
उपस्थिति, अनुपस्थिति
जैसी हो गई।
उनका होना, न होने जैसा
हो गया।
असल
में दूसरे के
प्रति जो
दूसरे का बोध
है अगर खो
जाये तो दूसरे
आदमी की
उपस्थिति का
पता चलना
मुश्किल होने
लगेगा। हमें
अपनी उपस्थिति
का पता करवाना
पड़ता है। हजार
ढंग से हम
करवाते हैं।
अगर घर में
पति आता है तो
उसकी चाल से
खबर करवाता है
कि आ गया।
उसकी आंख से
खबर करवाता है
कि मैं हूं।
और मैं कौन
हूं यह साफ
होना चाहिए।
शिक्षक क्लास में
आता है तो खबर
करवा देता है।
गुरु शिष्यों
के बीच में
आता है तो सब
ढंग, सारी
व्यवस्था, खबर
करवा देती है
कि जानो कि
मैं हूं।
महावीर
अनुपस्थित
जैसे हो गये।
वे न किसी को देखते, न वे किसी को
दिखाई पड़ते, ऐसे हो गये।
वे चुपचाप घर
में रहने लगे,
चुपचाप
गुजरने लगे। न
वे किसी को
बाधा देते, न किसी की
बाधा लेते। वे
एक अर्थ में, जिसको जीवित
मृत्यु कहें,
उसमें
प्रवेश कर
गये। घर के
लोगों ने एक
दिन बैठक की, और सबने कहा,
अब उन्हें
रोकना फिजूल
है। क्योंकि
वे हैं ही नहीं,
रोकते
किसको हो? हवा
को मुट्ठी
बांध कर रोका
जा सकता है? पत्थर को
रोका जा सकता
है। पत्थर को
मुट्ठी बांध
कर रोका जा
सकता है, क्योंकि
पत्थर है, बहुत
मजबूती से है।
पत्थर कहता है,
मैं हूं।
लेकिन हवा को
मुट्ठी बांध
कर रोको तो
जितनी थी वह
भी बाहर निकल
जाती है, क्योंकि
हवा है ही
नहीं। पत्थर
के अर्थों में
नहीं है।
इसलिए हवा को
फेंक कर मारा
नहीं जा सकता
किसी को।
पत्थर को फेंक
कर मारा जा
सकता है। हवा
का अस्तित्व
बहुत नॉनवायलेंट
है। पत्थर का
अस्तित्व
बहुत वायलेंट
है।
महावीर
हवा की तरह हो
गये, तो घर के
लोगों ने कहा:
अब बेकार हम
मुट्ठी बांध
रहे हैं, वह
आदमी जा चुका।
और जितनी
हमारी मुट्ठी बंधती है
उतना वह आदमी
बाहर होता चला
जा रहा है। हम
न रोकें। अब
वह है ही
नहीं। अब
रोकना फिजूल
ही है। रोकना
भी तभी तक
उचित है जब तक
कोई रुकता हो,
या न रुकता
हो। दो में से
कुछ भी करता
हो तो रोकने
का अर्थ है।
अब तो वह आदमी
है ही नहीं! तो
घर के लोगों
ने महावीर से
कहा कि अब आप
जाना चाहें तो
जा सकते हैं।
और उन्होंने
कहा, अब तो
बहुत देर हो
चुकी है! मैं
तो जा चुका
हूं! अब मैं
यहां नहीं
हूं।
हिंसा
की पहली गहरी
चोट इन दो
बातों से है
जो खयाल में
ले लेनी
चाहिए। क्या
दूसरा है? जब तक दूसरा
है तब तक
हिंसा जारी
रहेगी। और दूसरे
के कारण आप एक
झूठा मैं, एक
झूठा अहंकार
पैदा करेंगे,
जो आप नहीं
हैं। लेकिन
दूसरों से काम
चलाने के लिए पैदा
करना पड़ेगा।
अहंकार
कामचलाऊ
अस्तित्व है।
हमें अपना कोई
पता नहीं है
कि मैं कौन
हूं? लेकिन हम
कहते हैं कि
मैं हूं। जिसे
यह भी पता नहीं
है कि मैं कौन
हूं, वह भी
कहे मैं हूं, यह जरा
ज्यादती है।
क्योंकि होने
का दावा तभी किया
जा सकता है जब
कौन होने का
पता हो।
मुझे
पता नहीं है
कि मैं कौन
हूं? लेकिन
मैं कहता हूं
कि मैं हूं।
यह मेरा "मैं'
कहां से आया
है? यह
कहां से पैदा
हुआ? अगर
यह मेरे ज्ञान
से पैदा हुआ
है मैं, तब
तो बड़े मजे की
बात है, क्योंकि
जिन्होंने भी
स्वयं को जाना,
उन्होंने
मैं कहना बंद
कर दिया।
जिन्होंने
स्वयं को पाया,
उन्होंने
कहा, हम तो
नहीं हैं।
जिन्होंने
स्वयं को पाया,
उन्होंने
स्वयं को खो
दिया।
जिन्होंने
स्वयं को नहीं
पाया, वे
कहते हैं, मैं
हूं। यह मैं
कहां से आया
है? यह
आपके भीतर से
नहीं आया है।
इसे कहना
चाहिए सोशल
बाई प्रोडक्ट
है। यह समाज
ने पैदा करवा
दिया है। वह
जो दूसरे हैं,
उनके साथ
व्यवहार करने
के लिए आपको
एक शब्द खोज
लेना पड़ा है
कि मैं हूं।
जैसे हमने नाम
खोज लिया है।
बच्चा पैदा
होता है बिना
नाम के, नेमलेस। फिर हम
उसको एक नाम
दे देते
हैं--राम, कृष्ण,
कुछ भी नाम
दे देते हैं।
वह नाम बच्चे
के भीतर से
नहीं आता, समाज
उसे दे देता
है। फिर वह
जिंदगी भर राम
बना रहता है।
वह इस शब्द के
लिए लड़ेगा, अगर किसी ने
गाली दे दी तो
लड़ेगा।
रामतीर्थ
अमरीका में
थे। कुछ लोगों
ने गालियां
दीं, तो वे
हंसते हुए घर
लौटे। और जब
लोगों को पता
चला, उनके
मित्रों को, कि उनको
गालियां दी
गईं तो वे
बहुत नाराज
हुए।
रामतीर्थ को
हंसते हुए देख
कर उन्होंने
पूछा कि आप
पागल तो नहीं,
आप हंसते
क्यों हैं? गालियां दी
गई हैं।
रामतीर्थ ने
कहा, मुझे
कोई गाली देता
तो मैं कोई
जवाब देता। वे
लोग राम को
गाली दे रहे
थे। राम से
अपना क्या
लेना-देना है?
इस नाम के
बिना भी मैं
हो सकता था।
दूसरे नाम का
भी हो सकता
था। तीसरे नाम
का भी हो सकता
था। कोई ए बी
सी डी को गाली
दे दे, इससे
लेना-देना
क्या? जब
वे राम को
गाली दे रहे
थे तब हम भी
भीतर बड़े खुश
हो रहे थे, कि
देखो राम, कैसी
गालियां पड़
रही हैं, आया
मजा? बनोगे राम तो गाली
पड़ेगी।
उन्होंने नाम
दिया, उन्होंने
गालियां दीं।
हम बाहर थे।
नाम भी उनका, गाली भी
उनकी। वे खुद
ही खेल रहे
थे। कुछ लोगों
का खेल होता
है। कुछ लोग
ताश के पत्ते
अकेले खेलते
हैं। दोनों
तरफ से चाल
चलते हैं।
होना चाहिए
उन्हें
पागलखाने में,
लेकिन होते
बहुत
बुद्धिमान
लोग हैं।
समाज
दोहरी चाल
चलती है--नाम
भी देती है, गाली भी
देती है।
प्रशंसा भी
देती है, निंदा
भी देती है।
आदर भी देती
है, अपमान
भी देती है।
दोहरी चाल है
समाज की। और उस
दोहरी चाल में
आदमी बुरी तरह
फंसता
है। वह दूसरा
भी झूठ है और
यह मैं? यह
मेरा "मैं' भी
झूठ है। ये दो
झूठ एक साथ
जिंदा रहते
हैं। जिस दिन
दूसरा गिरता
है, उसी
दिन मैं गिर
जाता है। इधर
मैं गिरता, उधर दूसरा
गिर जाता है।
मैं और
तू के गिर
जाने पर जो
शेष रह जाता
है वह अहिंसा
है। तो जब तक
हम कह सकते
हैं, तू, तब
तक हिंसा जारी
रहेगी। जब तक
हम कह सकते
हैं, मैं...मैं
यह नहीं कह
रहा हूं कि आप
"मैं' शब्द
का उपयोग न
करेंगे। मैं
शब्द का उपयोग
करना ही
पड़ेगा।
महावीर भी
करते हैं, लेकिन
तब वह शब्द है,
लिंग्विस्टिक ट्रिक, तब वह भाषा
का खेल है। तब
वह अस्तित्व
नहीं है। तब
"मैं' सिर्फ
एक शब्द है, जो उपयोगी
है। बहुत से
शब्द उपयोगी
हैं, लेकिन
अस्तित्व में
नहीं हैं, अस्तित्व
से उनका कोई
संबंध नहीं
है।
ध्यान
रहे, इस मैं और
तू के बीच जो
उपद्रव पैदा
हुआ है, वह
हिंसा है। मैं
और तू के बीच
पैदा हुआ
उपद्रव होगा
ही। दो झूठ
खड़े हैं। दो
झूठों के बीच
जो भी होगा, वह उपद्रव
ही हो सकता
है। हां, यह
उपद्रव कभी प्रीतिपूर्ण
हो सकता है, कभी अप्रीतिपूर्ण
हो सकता है।
कभी यह उपद्रव
प्रेम बन सकता
है, कभी
घृणा बन सकता
है। यह बात
दूसरी है।
लेकिन जब तक
"मैं' है और
जब तक "तू' है
तब तक हिंसा
है। यह हिंसा
का पहला और
सूक्ष्मतम
रूप है। फिर
हिंसा के बहुत
रूप हैं जो
इससे फैलते
चले जाते हैं।
उनको तो ऐसे
ही गिना दूं, क्योंकि अगर
ओरिजनल
सोर्स हमारे
खयाल में आ
जाये। फिर तो
अनंत हिंसाएं
हैं। उनका
सारा हिसाब
लगाना तो बहुत
मुश्किल है।
अहिंसा
तो एक है, हिंसाएं अनंत हैं।
हिंसा
मल्टी-डायमेंशनल
है। लेकिन निकलती
एक ही झरने से
है। मैं और तू
का झरना, या
कहें
आत्म-अज्ञान
का झरना।
महावीर
से अगर कोई
पूछे: अहिंसा
क्या है? तो
वे कहेंगे:
आत्मज्ञान।
हिंसा क्या है?
तो वे
कहेंगे:
आत्म-अज्ञान।
अपने को न
जानना हिंसा
है।
यह बड़ी
अजीब बात है।
हम तो समझते
हैं कि दूसरे
को दुख देना
हिंसा है। हम
तो समझते हैं, दूसरे को
सुख देना
अहिंसा है।
लेकिन ध्यान
रहे, दूसरे
को चाहे सुख
दो, चाहे
दुख दो, हर
हालत में दुख
ही पहुंचता
है। देने की
सब आकांक्षाएं
व्यर्थ हो
जाती हैं, क्योंकि
दूसरे को सुख
दिया ही नहीं
जा सकता। सुख
सिर्फ स्वयं
को दिया जा सकता
है। जिस दिन
आप आप नहीं रह
जाते, दूसरे
नहीं रह जाते,
उस दिन ही
आपकी तरफ
मुझसे सुख बह
सकता है। और जब
तक आपको सुख
देने की मैं
कोशिश करता
हूं, तब तक
दुख ही देता
हूं। लेकिन
हमें खयाल में
नहीं आता।
कभी
आपने सोचा कि
जिन-जिन को
आपने सुख दिया, उन-उन को दुख
पहुंचा! लोग
रोज शिकायत
करते हैं कि
हम जिसको भी
सुख देते हैं,
वह हमें सुख
नहीं लौटाता।
आप सुख देते
होंगे, पहुंचता
दुख है। वह भी
सुख देता है, पहुंचता दुख
है। बड़ी
गलतफहमी होती
है। जो हम देते
हैं वह
पहुंचता नहीं,
कभी नहीं
पहुंचा।
इसलिए
जितने हम उन
पर नाराज होते
हैं जो हमें सुख
देते हैं, उतने हम उन
पर नाराज नहीं
होते जो हमें
दुख देते हैं।
क्योंकि
कम-से-कम
लेन-देन
साफ-सुथरा तो
होता है कि वे
दुख दे रहे
हैं। लेकिन जो
हमें सुख देने
की बात करते
हैं और जब दुख
पहुंचता है--जैसे
मैं किसी को
प्रेम करने
लगूं और कल
उससे विवाह कर
लूं तो मैं सब
सुख देने की
कोशिश करूंगा
और दुख
पहुंचेगा।
किस
पति ने किस
पत्नी को कब
सुख दिया? किस पत्नी
ने किस पति को
कब सुख दिया? लेकिन शायद
मैं समझूंगा
कि मैं सुख
पहुंचा रहा
हूं और दूसरा
दुख पहुंचा
रहा है। वही
भूल हो रही है
दूसरे को भी, वह भी सोच
रहा है, मैं
सुख पहुंचा
रहा हूं, दूसरा
दुख पहुंचा
रहा है।
मनुष्य
जीवन का सारा
अंतर्द्वंद्व, सुख
पहुंचाने की
कोशिश और दुख
पहुंचने की
स्थिति से
पैदा होता है।
पहुंचाते सभी
सुख हैं, पहुंचता
सदा दुख है।
असल में दूसरे
को हम सुख
पहुंचा ही
नहीं सकते, दूसरे के
साथ हम अहिंसक
हो ही नहीं
सकते। यह इम्पॉसिबिलिटी
है। इसका कोई
उपाय नहीं है
कि हम दूसरे
के साथ अहिंसक
हो सकें। हम
दूसरे को फूल
भी फेंक कर मारेंगे,
जब वह लगेगा,
तो पत्थर हो
जायेगा।
एक
फकीर को सूली
दी जा रही थी।
लोग उस पर पत्थर
फेंक रहे थे, अंगारे फेंक
रहे थे। मंसूर
लटका था सूली
पर और लोग
फेंक रहे थे।
एक फकीर
जुन्नैद नाम
का भी उनमें
मौजूद था। वह
भी एक सूफी
संत था। भीड़
बड़ी थी और सभी
कुछ-न-कुछ
फेंक रहे थे।
जुन्नैद के मन
में दुख तो था
कि मंसूर की
हत्या ठीक
नहीं हो रही, लेकिन इतनी
हिम्मत भी न
थी कि कह सके
कि यह ठीक
नहीं हो रहा है।
सब लोग कुछ
फेंक रहे थे।
जुन्नैद कुछ न
फेंके तो शायद
लोग उसको भी मारें कि
तुम ऐसे क्यों
खड़े हो? तो
जुन्नैद ने एक
फूल फेंक कर
मारा। सोचा
उसने कि मंसूर
को लगेगा भी
नहीं, मंसूर
समझेगा कि फूल
फेंका, भीड़
भी समझेगी
कुछ फेंका, खाली हाथ
नहीं खड़ा रहा।
लेकिन लोगों
के पत्थर तो
मंसूर झेल गया,
जुन्नैद का
फूल न झेल
सका।
जुन्नैद
का फूल लगते
ही मंसूर तो धाड़ मार कर
रोने लगा। अब
तक हंस रहा
था। जुन्नैद तो
घबड़ा गया।
जुन्नैद ने
कहा, मैंने
फूल फेंक कर
मारा और आप
रोते हो और
इतने पत्थर खा
गये? मंसूर
ने कहा, फूल
भी फेंक कर
मारा न? मारने
से दुख
पहुंचता है।
कोई पत्थर
फेंके, सीधा
लेन-देन है।
लेकिन फूल? मारते भी हो
और छिपाते भी
हो। मारना भी
चाहते हो और
बताना भी नहीं
चाहते। चोट
गहरी पहुंच गयी
जुन्नैद! और
ये तो नासमझ
थे, इन्हें
माफ किया जा
सकता था, पर
तुम भी मारते
हो! पर
जुन्नैद ने
कहा कि मैंने
फूल फेंका है।
मंसूर ने कहा,
कुछ भी
फेंको, चोट
लग जाती है!
असल में
फेंकते ही हम
तब हैं जब दूसरा
है, नहीं
तो हम फेंकेंगे
कहां?
ध्यान
रहे भगवान की
मूर्ति पर चढ़ाये
गये फूल भी
हिंसा हो जाती
है। क्योंकि हम
दूसरे को
स्वीकार कर
रहे हैं। भक्त
वह नहीं है
जिसने भगवान
की मूर्ति पर
फूल चढ़ाये।
भक्त वह है जो
खोजने निकला
और जिसने
भगवान के
सिवाय कुछ भी
न पाया। फूल
में भी उसे
पाया, और
पत्थर में भी
उसे पाया। चढ़ाने
वाले में भी
उसे पाया, चढ़ने
वाले में भी
उसे पाया। और
वह पूछने लगा
कि किस पर चढ़ाऊं
और किसको चढ़ाऊं?
और किसके
लिए चढ़ाऊं?
और कैसे चढ़ाऊं?
और कौन चढ़ाये?
जब कोई
अहिंसा को
उपलब्ध होता
है तो दूसरा
मिट जाता है।
और दूसरा कब
मिटता है? जब कोई
स्वयं को
जानता है तब
दूसरा मिटता
है, उसके
पहले नहीं
मिटता। फिर
हमारी बहुत
तरह की हिंसाएं
पैदा होती चली
जाती हैं। हम
चलते हैं तो
हिंसा है, हम
उठते हैं तो
हिंसा है, हम
बैठते हैं तो
हिंसा है, हम
बोलते हैं तो
हिंसा है, हम
देखते हैं तो
हिंसा है।
इसलिए
इस खयाल में
कोई न पड़े कि
अगर हमने बहुत
स्थूल हिंसाएं
रोक लीं तो
कोई फर्क हो
जायेगा। कोई
आदमी
मांसाहार न
करे, अच्छा है
न करे, लेकिन
इस भ्रम में न
पड़े, वह
बहुत बुरा है
कि अहिंसा हो
गयी। इतना ही
कहे कि
थोड़ी-सी हिंसा
रुकी। लेकिन
ध्यान रहे, यह हिंसा
किसी दूसरी
जगह से निकलना
शुरू न हो जाये।
यह
निकलेगी, यह
मार्ग खोजेगी।
क्योंकि
हिंसा मिटी
नहीं है, वह
मिट नहीं सकती,
इस भांति
नहीं मिट
सकती। अगर
मांस खाना छोड़
दिया है तो
अक्सर आप
देखेंगे कि
मांसाहारी
जितना भला
आदमी मालूम
पड़ेगा, गैर-मांसाहारी
उतना भला आदमी
नहीं मालूम
पड़ेगा। यह बड़ी
अजीब-सी बात
है, बड़ी
दुखद है, लेकिन
है। साधारणतः
जो शराब पी
लेता है, सिगरेट
पी लेता है, होटल में
खाना खा लेता
है, वह
थोड़ा-सा
विनम्र आदमी
मालूम पड़ेगा।
जो सिगरेट
नहीं पीता, मांस नहीं
खाता, होटल
में नहीं खाता,
ऐसा जीता है,
ऐसा नहीं
जीता, वह
अविनम्र और
कठोर होता चला
जायेगा।
जो
हिंसा उसकी
निकलती नहीं
है वह इकट्ठी
होकर उसके
भीतर संगृहीत
होनी शुरू हो
जाती है।
इसलिए आमतौर
से जिनको हम
अच्छे आदमी
कहते हैं, वे अच्छे
सिद्ध नहीं
होते।
दुर्घटना है
यह। बुरा आदमी
कई बार बहुत
अच्छा सिद्ध
होता है, और
अच्छे आदमी
अक्सर बुरे
सिद्ध होते
हैं। अच्छे
आदमी के साथ
दोस्ती तो
मुश्किल ही है,
बुरे आदमी
के साथ ही दोस्ती
हो सकती है।
और दोस्ती के
लिए भी थोड़ा-सा
विनम्र दिल
चाहिए, अच्छे
आदमी के पास
वह नहीं रह
जाता। इसलिए
महात्माओं से
दोस्ती बहुत
मुश्किल है।
दो महात्माओं
की भी मुश्किल
है, औरों
की तो मुश्किल
ही है।
आप
महात्मा के
अनुयायी हो
सकते हैं या
दुश्मन हो
सकते हैं, दोस्त नहीं
हो सकते।
अच्छे आदमी के
पास दोस्ती खो
जाती है, कठोर
हो जाता है।
हाथ फैलाता है
जो वह दोस्ती के
लिए, वह
खतम हो जाता
है। अक्सर जो
समाज, जिसको
हम कहें कि
सहज जीते हैं,
बुरे-भले का
बहुत फर्क
नहीं करते, वहां बड़ी
मात्रा में
भले लोग मिल
जाते हैं। जो
समाज असहज
जीते हैं, बुरे-भले
का बहुत फर्क
करते हैं, वहां
अच्छा आदमी
खोजना
मुश्किल हो
जाता है। क्योंकि
बुराई बाहर से
तो रुक जाती
है और भीतर इकट्ठी
हो जाती है।
इसलिए अक्सर
ऐसा हुआ है कि
ऋषि-मुनियों
से ज्यादा
क्रोधी आदमी
को खोजना कठिन
हो जाता है।
दुर्वासा
ऋषि-मुनि में
ही पैदा हो
सकते हैं।
कहीं और नहीं
पैदा हो सकते
हैं।
इधर
मैं निरंतर
सोचता रहा तो
मेरे खयाल में
आया कि अगर
हिटलर थोड़ी
सिगरेट पीता, थोड़ा मांस
खा लेता, थोड़ा
बे-वक्त जग
जाता, थोड़ा
जाकर कहीं
नृत्यगृह में
नाच कर लेता, तो शायद
दुनिया में
करोड़ों आदमी
मरने से बच
सकते थे।
लेकिन हिटलर
सिगरेट नहीं
पीता, मांस
नहीं खाता, चाय नहीं
पीता। पक्का
शाकाहारी, प्युरिटन,
शुद्धतावादी;
नियम से
सोता, नियम
से उठता
ब्रह्म-मुहूर्त
में। सख्त
नीतिवादी
आदमी है, चारों
तरफ से सख्त
है। सारी
शक्ति इकट्ठी
हो गयी है।
कई बार
ऐसा लगता है
कि थोड़े अच्छे
आदमी भी थोड़े
से, जिसको इनोसेंट नानसेंस
कहें, निर्दोष
बेवकूफियां
कहें, ऐसे
थोड़े-से काम
करें, तो
विनम्र और सरल
हो जाते हैं।
लेकिन अच्छे
आदमी सदा ही
अच्छा करने की
इतनी चेष्टा
करते हैं!
अच्छा होना
बहुत दूसरी
बात है, अच्छा
करना बहुत
दूसरी बात है।
अच्छा करने से
कोई कभी अच्छा
नहीं होता।
अच्छा होने से
अच्छा करना
निकल सकता है।
वह बहुत दूसरी
बात है। लेकिन
हम सदा उल्टा पकड़ते
हैं।
हमने
देखा महावीर
को कि महावीर
मांस नहीं खाते, तो हमने
सोचा हम भी
मांस न
खायेंगे तो
महावीर जैसे अच्छे
हो जायेंगे।
भूल हो गयी, तर्क गलत हो
गया, कहीं
गणित चूक गया।
महावीर कुछ हो
गये हैं, इसलिए
मांस खाना
असंभव है।
मांस न खाने
से कोई महावीर
नहीं हो सकता।
और अगर मांस न
खाने से कोई
महावीर हो सके
तो महावीर
होना दो कौड़ी
का हो गया।
जितनी कीमत
मांस की, उतनी
ही कीमत
महावीर की हो
गयी। उससे
ज्यादा न रही।
इतना सस्ता
मामला नहीं
है। धर्म इतना
सस्ता नहीं है
कि हम यह न
खायेंगे तो हम
धार्मिक हो
जायेंगे; कि
हम यह न पीयेंगे
तो हम धार्मिक
हो जायेंगे; कि हम रात
में पानी न पीयेंगे
तो धार्मिक हो
जायेंगे।
मैं
नहीं कहता हूं
कि आप पीयें।
ध्यान रहे, मैं यह नहीं
कह रहा हूं कि
रात में पानी पीयें।
पीने से भी
धार्मिक नहीं
हो जायेंगे।
नहीं पीते हैं,
भला है; लेकिन
इस भूल में न
पड़ जाना कि
धार्मिक हो
गये, अहिंसक
हो गये। वह
बड़ा खतरा है, बहुत सस्ता
काम किया और
बहुत महंगा
विश्वास पैदा
हो गया। ना
कुछ किया और
सब कुछ पाने
का खयाल हो
गया। कंकर-पत्थर
बीने और
समझा कि
हीरे-जवाहरात
हाथ आ गये। यह
भूल हो गयी, अहिंसा के
साथ यह भूल
बहुत गहरी हो
गयी है। क्योंकि
अहिंसा को
हमने पकड़ा है
आचरण से, गहरे
से नहीं, अध्यात्म
से नहीं। आचरण
से अहिंसा पकड़ी
जायेगी तो खतरनाक
है। और जब
आचरण से कोई
अहिंसा को पकड़ता
है, तब
सूक्ष्म रूप
से हिंसक होता
चला जाता है।
इस
संबंध में एक
बात और फिर
मैं अपनी बात
पूरी करूं। जब
हिंसा
सूक्ष्म बनती
है तो पहचान
के बाहर हो
जाती है। मैं
आपको कई तरह
से दबा सकता हूं।
एक दबाना
हिटलर का भी
है--आपकी छाती
पर छुरी रख
देगा। एक
दबाना
महात्मा का भी
होता है--आपकी
छाती पर छुरी
नहीं रखेगा, अपनी छाती
पर छुरी रख
लेगा। एक
दबाना मेरा यह
हो सकता है कि
मार डालूंगा
अगर मेरी बात
न मानी। और एक
दबाना यह हो
सकता है कि मर जाऊंगा
अगर मेरी बात
न मानी। लेकिन
दबाना, कोअर्शन जारी है।
अच्छे लोग
अच्छे ढंग से
दबाते हैं, बुरे लोग
बुरे ढंग से
दबाते हैं।
लेकिन बुरे लोग
फिर भी सिनसियर
हैं, सीधी
है बात, जानते
हैं कि हाथ
में छुरी है।
अच्छे आदमी
जानते हैं कि
हाथ में माला
है। लेकिन
माला से भी फांसी
लगायी जा सकती
है। इसका बोध
नहीं होता।
और अगर
हिंसा
सूक्ष्म हो तो
दो रूप लेती
है। एक तो
दूसरे की तरफ
अहिंसा का
चेहरा बनाती
है, हिंसा का
काम करती है; और दूसरी
तरफ अगर हिंसा
और भी सूक्ष्म
हो जाये तो
अपने को भी
सताना शुरू कर
देती है। मजा
यह है कि
अहिंसा दूसरे
को भी नहीं
सता सकती, हिंसा
अंततः अपने को
भी सता सकती
है। तो हिंसा
अंत में
सेल्फ-टार्चर
भी बन जाती
है।
जैसे
मैंने कहा--सैडिस्ट।
दो तरह के लोग
होते हैं। आम
तौर से दो ही
तरह के लोग
होते हैं, तीसरी तरह
का आदमी
कभी-कभी होता
है। कभी कोई महावीर,
कोई कृष्ण,
कोई बुद्ध,
कोई जीसस, कभी...। आम तौर
से दो तरह के
आदमी होते
हैं: दूसरों
को सताने
वाले लोग और
अपने को सताने
वाले लोग, परपीड़क
और आत्मपीड़क।
जैसा मैंने
कहा द सादे के
बाबत कि वह
प्रेम करेगा
तो दूसरे को
सतायेगा, वैसा
एक आदमी हुआ मैसोच। वह
अपने को ही
सतायेगा। जब
तक सुबह से उठ
कर अपने को
दस-पचास कोड़े
न मार ले, तब
तक दिन में
उसको ताजगी न
आयेगी।
तो
दुनिया में कोड़े
मारने वाले
संन्यासी हुए
हैं, कांटों
पर लेटने वाले
संन्यासी हुए
हैं, कांटों
के जूते पहनने
वाले
संन्यासी हुए
हैं, घाव
बना लेने वाले
संन्यासी हुए
हैं। ये किस तरह
के लोग हैं? यह संन्यास
हुआ? यह
धर्म हुआ?
एक
आदमी दूसरे को
भूखा मारे तो
हम कहेंगे
अधार्मिक, और एक आदमी
अपने को भूखा
मारे तो हम
जुलूस निकालेंगे!
बड़े आश्चर्य
की बात है।
क्या दूसरे को
सताना
अधार्मिक तो
अपने को सताना
धार्मिक हो सकता
है? सताना
अगर अधार्मिक
है तो इससे
क्या फर्क पड़ता
है कि किसको
सताया? हां,
दूसरे को
सताते तो
दूसरा रक्षा
भी कर सकता था,
अपने को सतायेंगे
तो रक्षा का
भी उपाय नहीं
है। अपने को
सताना बहुत
आसान है।
दूसरे को सताने
में हजार तरह
की कठिनाइयां
हैं--समाज है, कानून है, पुलिस है, अदालत है।
अभी तक अपने
को सताने
के खिलाफ न
कोई कानून है,
न कोई पुलिस
है, न कोई
अदालत है।
होनी तो चाहिए,
क्योंकि
कुछ दुष्ट
अपने को सताते
हैं। जिस दिन
अच्छी दुनिया
होगी उस दिन
उनके लिए भी
अदालत होगी।
और
ध्यान रहे जो
अपने को सताता
है, वह सब तरह
से दूसरे को
सतायेगा ही।
क्योंकि जो
अपने को नहीं
छोड़ता है, वह
दूसरे को कैसे
छोड़ सकता है? यह असंभव
है। यह बिलकुल
असंभव है। अगर
मैंने अपने को
भूखा रख कर
जुलूस निकलवा
लिया तो ध्यान
रखिये
मैं आपको भी
भूखा रखवाने
के सब उपाय
करूंगा। और जब
तक आपका जुलूस
न निकल जाये
तब तक चैन न लूंगा।
हिंसा और गहरी
और सूक्ष्म हो
जाती है तो मैसोचिस्ट
बन जाती है, आत्म-पीड़क
बन जाती है।
महावीर
की मूर्ति
देखी? यह
आदमी मालूम
पड़ता है कि
इसने खुद को
सताया होगा? इस आदमी का
शरीर देखा? इस आदमी की
शान देखी? इस
आदमी का
सौंदर्य देखा?
ऐसा लगता है
कि इसने खुद
को सताया होगा?
कथाएं झूठी
होंगी या फिर
यह मूर्ति
झूठी है! इस आदमी
ने अपने को
सताया नहीं
है। महावीर
जैसी सुंदर
प्रतिमा, मैं
समझता हूं, किसी की भी
नहीं है। मैं
तो ऐसा ही
सोचता हूं निरंतर
कि महावीर के
नग्न हो जाने
में उनका सौंदर्य
भी कारण है।
असल में कुरूप
आदमी नग्न नहीं
हो सकता।
कुरूप आदमी
वस्त्र को सदा
संभाल कर
रखेगा, क्योंकि
वस्त्रों में
सौंदर्य को
कोई नहीं छिपाता,
वस्त्रों
में सिर्फ
कुरूपता छिपायी
जाती है।
जो-जो
अंग सुंदर
होते हैं वह
तो हम
वस्त्रों के
बाहर कर देते
हैं। जो-जो
अंग कुरूप
होते हैं, उन्हें हम
वस्त्रों में
छिपा लेते
हैं। महावीर
सर्वांग-सुंदर
मालूम होते हैं।
ऐसे अनुपात
वाला शरीर
मुश्किल से
दिखाई पड़ता
है। इस आदमी
की जितनी सताने
की कथाएं हैं,
मुझे नहीं
लगता, इस
आदमी पर घटी
होंगी।
अन्यथा हमें
मूर्ति बदल
देनी चाहिए।
यह मूर्ति
सच्ची नहीं
मालूम होती।
मैं
मानता हूं कि
मूर्ति सच्ची
है, कथाएं
झूठी हैं। असल
में कथाएं मैसोचिस्ट्स
ने लिखी हैं।
कथाएं
उन्होंने
लिखी हैं जो
स्वयं को सताने
के लिए
उत्प्रेरित
हैं। वे कथाएं
ढाल रहे हैं।
वे महावीर के
आनंद को भी
दुख बना रहे
हैं। वे महावीर
की मौज को भी
त्याग बना रहे
हैं। वे महावीर
के भोग को भी, परम भोग को
भी, त्याग
की व्याख्या
दे रहे हैं।
मेरी दृष्टि
में महावीर
महल को छोड़ते
हैं, क्योंकि
बड़ा महल
उन्हें दिखाई
पड़ गया है।
उनकी दृष्टि
में वे सिर्फ
महल को छोड़ते
हैं, कोई
बड़ा महल दिखाई
नहीं पड़ता।
मैं जानता हूं
कि महावीर
सोने को छोड़ते
हैं, क्योंकि
वह मिट्टी हो
गया और परम
स्वर्ण उपलब्ध
हो गया है।
अगर
महावीर किसी
दिन खाना नहीं
खाते तो वह
अनशन नहीं है, उपवास है।
अनशन का मतलब
है भूखे मरना।
उपवास का मतलब
है इतने आनंद
में होना कि
भूख का पता भी न
चले। वह बहुत
और बात है। वह
बात ही और है।
उपवास शब्द आप
सुनते हैं!
उपवास शब्द
में रोटी, भोजन,
खाना-पीना कुछ
भी नहीं आता।
उस शब्द में
ही नहीं है
वह। उपवास का
मतलब है: भीतर,
भीतर, और
पास और पास
होना। टु बी नीयरर टु
वन सेल्फ।
उपवास का इतना
ही मतलब है, अपने पास
होना। जब कोई
आदमी बहुत
गहरे में, भीतर
अपने पास होता
है, तो
शरीर के पास
नहीं हो पाता;
इसलिए शरीर
की भूख-प्यास
का उसे स्मरण
नहीं होता।
अगर शरीर के पास
होंगे तभी तो
खयाल आयेगा।
जब
ध्यान बहुत
भीतर है तो
शरीर से ध्यान
चूक जाता है।
उपवास का मतलब
है, ध्यान की
अंतर्यात्रा।
उपवास अनशन
नहीं है। लेकिन
मैसोचिस्ट
उपवास को अनशन
बना देगा। वह
कहेगा कि बिना
भूखे रहे
आत्मा नहीं
मिल सकती।
भूखे रहने से
आत्मा के
मिलने का क्या
संबंध हो सकता
है? आत्मा
भूख को प्रेम
करती है?
भूखे
रहने से आत्मा
के मिलने से
कोई संबंध नहीं
है। हां, आत्मा
के मिलने की
घड़ी में भूखा
रहना हो सकता है।
कभी आपने खयाल
किया हो, न
किया हो तो अब
करना, जिस
दिन आप आनंदित
होंगे, उस
दिन भोजन
ज्यादा नहीं
कर पायेंगे।
अगर कोई प्रियजन
घर में आ जाये
और आप बहुत
आनंदित हों तो
भोजन कम हो
जायेगा। आनंद
इतना भर देता
है, इट इज
सो फुलफिलिंग,
कि भीतर कुछ
खाली नहीं रह
जाता जिसमें
भोजन डालो।
महावीर ने जिस
आनंद को जाना
है वह तो परम
आनंद है, वह
इतना भर देता
है, इतना
भर देता है
भीतर, कि
जगह खाली नहीं
रह जाती।
दुखी
आदमी ज्यादा
खाना खाते
हैं। ध्यान
रहे जिस दिन
आप दुख में
होंगे उस दिन
आप ज्यादा खाना
खा जायेंगे, क्योंकि आप
इतने खाली
होंगे। तो जो
आदमी जितना
दुखी है, उतना
ज्यादा खाना
खाने लगेगा।
असल
में बचपन में
बच्चे को पहली
दफे ही यह बोध हो
जाता है कि
सुख और खाने
में कोई संबंध
है। मां जब
बच्चे को पूरा
प्रेम करती है
तो दूध भी देती
है और उस
प्रेम में उसे
आनंद भी मिलता
है। जिस बच्चे
को पक्का
आश्वासन है कि
जब उसे दूध चाहिए
मिल जायेगा, वह बच्चा ज्यादा
दूध नहीं
पीता। मां
परेशान रहती
है कि ज्यादा पिलाये।
वह ज्यादा
नहीं पीता, क्योंकि वह
जानता है, जब
भी चाहिए तब
मिल जायेगा।
लेकिन अगर
नर्स हो दूध
पिलाने
वाली...और कई
माताएं सिर्फ नर्सेस
हैं, उन्होंने
बच्चे को पेट
में लिया, उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता! अगर मां
इससे दुखी
होती और बच्चे
को जबर्दस्ती
दूध से अलग
करती है तो
बच्चा ज्यादा
पीने लगेगा, क्योंकि
भविष्य का
भरोसा नहीं
है। बच्चा चिंतित
है, एंक्जाइटी से भरा हुआ
है। इसलिए
जहां जितनी
ज्यादा चिंता
होगी वहां
उतना ही भोजन
ज्यादा शुरू
हो जायेगा।
चिंतित लोग
ज्यादा खाना
खाने लगते
हैं।
चिंतित
लोग खाली हो
जाते हैं।
चिंता एक तरह
की एंपटीनेस
है। वह भीतर
सब खाली कर
देती है। आदमी
ज्यादा खाने
लगता है।
ज्यादा खाना
सिर्फ इस बात
की सूचना है
कि यह आदमी
दुखी है। कम
खाना सिर्फ इस
बात की सूचना
है कि यह आदमी
सुखी है।
आनंद
तो और आगे की
बात है। जब
कोई आनंद से
भर जाता है तो
महीनों भी बीत
सकते हैं। और
ध्यान रहे, महावीर के
महीनों उपवास
में बीते।
महीनों उन्होंने
भोजन नहीं
किया, ऐसा
नहीं
कहूंगा--भोजन
नहीं कर पाये,
ऐसा
कहूंगा। ऐसे
भरे हुए थे!
लेकिन महीना
इतने आनंद से
बीता हो तो भी
महावीर के शरीर
पर तो नुकसान
होना ही चाहिए
भोजन के न होने
का। यह बड़े
मजे की बात है
कि शरीर को
नुकसान जितना
भोजन के न
होने से
पहुंचता है, उतना भोजन
नहीं मिला
इससे पहुंचता
है। भोजन के न
होने से इतना
नुकसान नहीं
पहुंचता, जितना
नहीं मिला
इससे पहुंचता
है। गहरे में
शरीर को जो
नुकसान
पहुंचते हैं
वह मनोदशाओं
से पहुंचते
हैं।
अभी
यूरोप में एक
महिला थी...और
कुछ दिनों
पहले बंगाल
में एक महिला
थी। बंगाल में
प्यारी बाई नाम
की एक महिला
थी, जिसने
तीस साल, पूरे
तीस साल भोजन
नहीं किया और
शरीर को कोई नुकसान
ही नहीं
पहुंचा। और यह
महावीर की बात
तो पुरानी हो
गयी, इसलिए
इसकी मेडिकल
परीक्षा का
कोई उपाय नहीं
है। लेकिन इस
प्यारी बाई के
सारे के सारे
मेडिकल
परीक्षण हुए।
तीस साल उसने
कोई भोजन नहीं
किया। उसके
पेट में एक
दाना नहीं
गया। उसकी सारी
अंतड़ियां
सिकुड़ कर सूख
गयीं। लेकिन
उसके
स्वास्थ्य में
कोई फर्क नहीं
पहुंचा। क्या
हुआ? एक मिरैकल
हुआ? एक
चमत्कार हुआ!
इसे क्या हो
गया? मेडिकल
साइंस को
समझाना
मुश्किल हो
गया कि इसे
क्या हुआ।
असल
में वह इतनी
आनंदित थी कि
हम सोच भी
नहीं सकते कि
आनंद भी भोजन
बन सकता है।
हम सिर्फ एक ही
बात जानते हैं
कि भोजन आनंद
बनता है।
दूसरा छोर
हमें पता नहीं
कि आनंद भी
भोजन बन सकता
है। हम सिर्फ
एक छोर जानते
हैं कि भोजन
आनंद बनता है, दूसरा छोर
भी है। सब
चीजें कनवर्टीबल
हैं। अगर पानी
बरफ बन सकता
है तो बरफ
पानी बन सकता
है। अगर
एनर्जी मैटर
बन सकती है तो
मैटर एनर्जी
बन सकता है।
अगर भोजन आनंद
बनता है तो
आनंद भोजन बन
सकता है। बना
है! प्यारी
बाई तीस साल
तक भूखे रह कर
कह गयी कि भूखे
महावीर ने अगर
बारह साल में
कुल तीन सौ
पैंसठ दिन
भोजन किया
होगा तो यह
अनशन नहीं था,
अन्यथा
शरीर चला गया
होता। आनंद
भोजन बन गया।
अभी
यूरोप में एक
महिला थी। उस
पर तो और भी
प्रयोग हो
सके। वह परम
स्वस्थ थी, असाधारण रूप
से स्वस्थ थी।
और वर्षों
उसने भोजन
नहीं किया।
क्या हुआ? वह
कृष्ण की
दीवानी नहीं
थी। यह प्यारी
बाई कृष्ण की
दीवानी थी, वह क्राइस्ट
की दीवानी थी।
और प्यारी बाई
से भी ज्यादा
महत्वपूर्ण
घटना उसकी
जिंदगी में थी।
क्योंकि हर
शुक्रवार को,
जब
क्राइस्ट को
सूली लगी, तब
उसके दोनों
हाथों से खून
बहने लगता था,
बिना किसी
चोट पहुंचाये।
इतनी एक हो
गयी थी
एम्पैथी में
कि वह ऐसा नहीं
बोलती थी कि
जीसस ने कहा, वह ऐसा ही
बोलती थी कि
मैंने कहा
था--जब मुझे सूली
लगी थी तो
मैंने कहा था,
इन सबको माफ
कर दो, क्योंकि
ये निर्दोष
हैं और नहीं
जानते कि क्या
कर रहे हैं।
तो ठीक
शुक्रवार के
दिन, जिस
दिन जीसस को
सूली लगी, उसके
हाथ फैल जाते,
आंखें बंद
हो जातीं और
उसके हाथ की
साबित गद्दियों
में से खून
गिरना शुरू हो
जाता। स्टिगमैटा
शुरू हो जाता।
शुक्रवार की
रात घाव विदा
हो जाते। खून
बंद हो जाता।
दूसरे दिन हाथ
बिलकुल ठीक हो
जाते। और सैकड़ों
बार उसके हाथ
से खून बहा, और भोजन
उसका बंद! और
तब तो बड़ी
मुश्किल हो
गयी, उसका
वजन कम न हो! तो
क्या हुआ?
एक
बहुत कीमती
बात आपसे कहना
चाहता हूं। वह
यह कि कुछ
सूत्र हैं, कुछ राज हैं,
जिनके
द्वारा आनंद
भी भोजन बन
जाता है।
लेकिन वह
उपवास है, वह
अनशन नहीं है।
अहिंसा
न तो किसी और
को सताती, न स्वयं को
सताती।
अहिंसा सताती
ही नहीं। हिंसा
ही सताती है।
हिंसा के
गृहस्थ रूप
हैं, हिंसा
के संन्यस्त
रूप हैं; हिंसा
के अच्छे रूप
हैं, बुरे
रूप हैं। और
अगर दोनों से
हम सजग हो
जायें तो शायद
अहिंसा की खोज
हो सकती है।
चार
दिन तक एक-एक
सूत्र की खोज
आपके साथ करना
चाहूंगा और
पांचवें दिन, अंतिम दिन
इन चारों
सूत्रों में
कैसे उतरा जा सकता
है, उसकी
बात करूंगा।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य,
अकाम, ये
चार परिणाम
हैं और
पांचवां
सूत्र
अप्रमाद, अवेयरनेस,
इन
परिणामों तक
पहुंचने का
मार्ग है। जो
मिलेगा, वह
है सत्य। जो
खिलेगा जीवन
में, जिसकी
फ्लावरिंग
होगी, वह
है
ब्रह्मचर्य।
मेरी
बातें इतने
प्रेम और
शांति से सुनीं, उससे बहुत
अनुगृहीत हूं
और अंत में
सबके भीतर बैठे
प्रभु को
प्रणाम करता
हूं, मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
आज
इतना ही।
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