सूत्र:
15—सिर
के सात
द्वारों को
अपने हाथों से
बंद करने
पर
आंखों के बीच
का स्थान
सर्वग्राही
हो जाता है।
16—हे
भगवती, जब
इंद्रियां
ह्रदय में
विलीन हों,
कमल
के केंद्र पर
पहुंचो।
17—मन
को भूलकर मध्य
में रहो—जब
तक।
ऐसा है मानो
बिना केंद्र
का वर्तुल।
उसका जीवन
सतही है, उसका जीवन
बस परिधि पर
है। तुम बाहर—बाहर
रहते हो, कभी
भीतर नहीं
रहते। तुम
भीतर नहीं रह
सकते, जब
तक कि केंद्र
उपलब्ध न हो।
तुम भीतर नहीं
रह सकते हो।
सच तो यह है कि
केंद्र के
बिना अंतस भी
नहीं होता है।
यही
कारण है कि हम
अंतस की बात
किए जाते हैं
कि कैसे भीतर
जाएं, कि
कैसे अपने को
जानें, लेकिन
ये बातें कुछ
प्रामाणिक
अर्थ नहीं रखतीं।
शब्दों का
अर्थ तो तुम
जानते हो, लेकिन
भीतर गए बिना
उनके अर्थ को
अनुभव नहीं कर
सकते।
और तुम
कभी वहां गए
नहीं हो। जब
तुम अकेले भी
होते हो तब भी
मन से तुम भीड़
में होते हो।
जब बाहर कोई
नहीं है तब भी
तुम भीतर नहीं
होते, तुम
दूसरों की ही
सोचे जाते हो,
तुम बाहर ही
गति करते हो। यहां
तक कि नींद
में भी तुम
दूसरों के
सपने देखते
रहते हो। तुम
भीतर कभी होते
ही नहीं।
सिर्फ बहुत
गहरी नींद में,
जब स्वप्न
नहीं चलते, तुम भीतर
होते हो; लेकिन
तब तुम
मूर्च्छित हो
जाते हो।
इस
तथ्य को याद
रखो कि जब तुम
सचेत होते हो
तब भीतर नहीं
होते, और
जब गहरी नींद
में कभी भीतर
होते हो तब
तुम अचेत होते
हो। इसलिए
तुम्हारा
पूरा चेतन
बाहर—बाहर से
बना है। और
इसलिए जब हम
भीतर जाने की
बात करते हैं
तो शब्द तो
समझ लेते हैं,
लेकिन उनके
अर्थ हाथ नहीं
आते। क्योंकि
अर्थ शब्दों
से नहीं आते, अर्थ अनुभव
से आते हैं।
शब्द
तो बिना अर्थ
के हैं। जब
मैं 'भीतर'
शब्द बोलता
हूं तो तुम
शब्द को समझ
लेते हो, लेकिन
केवल शब्द को,
उसके अर्थ
को नहीं। यह
भीतर क्या है,
तुम नहीं
जानते; क्योंकि
सचेतन रूप से
तुम कभी भीतर
नहीं गए।
तुम्हारा मन
सतत बाहर ही
बाहर जा रहा
है। तुम्हें
कुछ भी बोध
नहीं है कि
अंतस क्या है,
उसका अर्थ
क्या है।
जब मैं
कहता हूं कि
तुम बिना
केंद्र के
वर्तुल हो, केवल
परिधि हो, उसका
यही मतलब है।
केंद्र तो है,
लेकिन तुम
उसमें तब
उतरते हो जब
अचेत रहते हो।
और जब तुम
सचेत होते हो
तो बाहर
यात्रा करते
हो। और यही
कारण है कि
तुम्हारे
जीवन में
त्वरा नहीं है,
तुम्हारे
जीवन में जीवन
नहीं है।
तुम्हारा
जीवन कुनकुना—कुनकुना
है। तुम ऐसे
जीवित हो जैसे
मरे हुए हो, या साथ—साथ।
तुम मृत जीवन
जीते हो। तुम
उच्चतम पर
नहीं, तुम
उच्चतम पर
नहीं। शिखर पर
नहीं, घाटी
में। तुम इतना
ही कह सकते हो
कि मैं हूं बस।
तुम्हारे
जीवित होने का
इतना ही अर्थ
है कि तुम मरे
नहीं हो।
लेकिन
जीवन को परिधि
पर कभी नहीं
जाना जा सकता
है। जीवन को
तो उसके
केंद्र पर ही
जाना जा सकता
है, केंद्र
पर ही जीया जा
सकता है।
परिधि पर तो
सिर्फ
कुनकुना जीवन
संभव है।
इसलिए यथार्थ
में तुम बहुत
ही अप्रामाणिक
जीवन जीते हो।
और तब
तुम्हारी
मृत्यु भी
अप्रामाणिक
हो जाती है।
क्योंकि जो
ठीक से जीता
नहीं है वह
ठीक से मर भी
नहीं सकता।
प्रामाणिक
जीवन ही
प्रामाणिक
मृत्यु बन सकता
है। और तब
मृत्यु सुंदर
है, क्योंकि
जो भी
प्रामाणिक है
वह सुंदर है।
और अगर जीवन
भी अप्रामाणिक
हो तो वह
कुरूप है।
उसका कुरूप
होना लाजिमी
है।
और
तुम्हारा
जीवन कुरूप है, सड़ा हुआ
है। वहां कुछ
भी तो नहीं
होता है। तुम
महज आशा और
प्रतीक्षा
किए जा रहे हो
कि किसी दिन
कुछ होगा। इस
क्षण तो वहां
रिक्तता ही
रिक्तता है।
और ऐसे ही
तुम्हारे
अतीत का
प्रत्येक
क्षण रिक्त और
खाली गया है।
तुम तो मात्र
भविष्य के
इंतजार में हो
कि किसी दिन
कुछ होगा। तुम
महज आशा में
जीते हो।
और ऐसे
प्रत्येक
क्षण नष्ट हो
रहा है। जैसे
अतीत में कुछ
नहीं हुआ वैसे
ही भविष्य में
भी कुछ नहीं
होने वाला है।
जो भी होता है, हमेशा
वर्तमान में
होता है।
लेकिन तब
तुम्हें
त्वरा और
तीव्रता की
जरूरत होगी—गहन
तीव्रता की।
तब तुम्हें
केंद्र में
अपनी जड़ें
फैलानी होंगी,
परिधि से
काम नहीं
चलेगा। तब
तुम्हें अपना
क्षण खोज लेना
होगा। सच तो
यह है कि हम
कभी सोचते ही
नहीं कि हम क्या
हैं! और जो कुछ
हम सोचते भी
हैं वह कचरा
है।
एक समय
मैं
विश्वविद्यालय
कैम्पस में एक
प्रोफेसर के
साथ रहता था।
एक दिन वे आए
और बोले कि
मैं बहुत
बेचैन हूं।
मेरे पूछने पर
उन्होंने
बताया कि
उन्हें बुखार
है। मैं कुछ
पढ़ रहा था, सो मैंने
उनसे कहा कि
जाकर सो जाओ, यह कंबल ओढ़
लो और आराम
करो। वे लेट
भी गए, लेकिन
थोड़ी ही देर
में बोले कि
मुझे बुखार
नहीं है, दरअसल
मैं क्रुद्ध
हूं गुस्से
में हूं क्योंकि
किसी ने मेरा
अपमान कर दिया।
और मैं उसके
प्रति हिंसा
से भरा हूं।
तो
मैंने कहा कि
तब आपने ऐसा
क्यों कहा कि
मुझे बुखार है? उन्होंने
कहा कि मैं
कबूल नहीं कर
पाया कि मैं
गुस्से में
हूं लेकिन सच
में मुझे
बुखार नहीं, क्रोध पकड़े
है। और यह
कहकर
उन्होंने
कंबल फेंक
दिया। तो
मैंने उनसे
कहा कि यदि यह
बात है तो यह
तकिया लो और
उसे पीटो, उसके
साथ मार—पीट
करो, इससे
तुम्हारी
हिंसा निकल
जाएगी। और अगर
तकिया काफी
नहीं है तो
मैं उपलब्ध हूं, तो मुझे
मारो और इस
हिंसा को
निकाल फेंको।
मेरी
यह बात सुनकर
वे हंस पड़े, लेकिन
उनकी हंसी
नकली थी, उसे
उन्होंने
अपने चेहरे पर
ओढ़ लिया था।
इसलिए वह हंसी
उनके चेहरे पर
आकर तुरंत
विलीन हो गई।
वह अंतस से
नहीं आयी थी, ऊपर से
आरोपित थी।
लेकिन वह नकली
हंसी भी एक
अंतराल तो बना
ही गई। और तब
उन्होंने कहा
कि मैं सच में
क्रुद्ध भी नहीं
हूं किसी ने
सबके सामने
कुछ कह दिया
और मैं उससे
मन ही मन बहुत
लज्जित अनुभव
करने लगा।
सच्ची बात यह
है।
मैंने
उनसे कहा कि
तुमने आधे
घंटे के अंदर
अपने भाव के
बारे में अपना
वक्तव्य तीन—तीन
बार बदला।
पहले तुमने
कहा कि
तुम्हें
बुखार है, फिर कहा
कि तुम्हें
गुस्सा है, और
त्रिनेत्र अब
कहते हो कि
तुम लज्जित हो,
कुंठित हो।
आखिर सच क्या
है? उन्होंने
कहा कि कुंठा
सच है।
मैंने कहा कि
जब तुमने कहा
कि बुखार है
तब भी तुम
उसके बारे में
निश्चित थे; और जब कहा
कि क्रोध है
तब भी निश्चित
थे, और तुम
इस लज्जा के
बारे में भी
निश्चित हो।
तुम एक
व्यक्ति हो या
अनेक? यह
नया निश्चय कब
तक टिकने वाला
है?
उस
आदमी ने कहा
कि मैं ठीक—ठीक
नहीं जानता कि
मेरा भाव क्या
है; मेरा
असल भाव क्या
है, मैं
नहीं जानता।
मैं सिर्फ
विचलित हूं
अशात हूं। इसे
क्रोध कहूं? लज्जा कहूं?
क्या कहूं
कुछ समझ में
नहीं आता। और
यह समय भी
नहीं है कि
मेरे साथ इस
पर बहस करो।
मुझे अकेला
छोड़ दो। तुमने
मेरी स्थिति
को एक दर्शनिक
समस्या बना
दिया है। तुम
पूछ रहे हो कि
क्या
प्रामाणिक है,
क्या
यथार्थ है, और मैं बहुत
परेशानी में
हूं।
यह बात
किसी अ, ब, स
व्यक्ति की
नहीं है। यह
तुम्हारी बात
है, तुम्हारी
सच्चाई है।
तुम कभी
निश्चित नहीं
हो, क्योंकि
निश्चय
केंद्रित
होने से आता
है। तुम अपने
संबंध में भी
निश्चित नहीं
हो। और दूसरों
के संबंध में
निश्चित होना
तो असंभव ही
है जब तुम
अपने संबंध
में ही
अनिश्चित हो।
तुम अपने
संबंध में
धुंधले—धुंधले
हो।
कुछ ही
दिन पहले एक
व्यक्ति यहां
आया था। उसने
मुझसे कहा कि
मैं किसी लड़की
को प्रेम करता
हूं और मैं
उससे शादी
करना चाहता
हूं। मैं कुछ
क्षणों के लिए
उसकी आंखों
में गहरे
झांककर देखता
रहा—बिना कुछ
कहे। वह बेचैन
हो उठा और
उसने कहा, आप क्यों
मुझे इस तरह
देख रहे हैं? मैं अजीब सा
अनुभव कर रहा
हूं। पर मैं
उसे देखता ही
रहा। फिर उसने
कहा, क्या
आप सोचते हैं कि
मेरा प्रेम
झूठा है? फिर
भी मैंने कुछ
नहीं कहा, उसे
देखता ही रहा।
और तब उसने
कहा, आप
ऐसा क्यों
समझते हैं कि
यह विवाह
अच्छा नहीं
होगा? और
वह अपने ही आप
बोला, मैंने
खुद इस पर
बहुत सोच—विचार
नहीं किया था।
और यही कारण
है कि मैं
आपके पास आया
हूं। मैं नहीं
जानता कि मैं
प्रेम में हूं
भी या नहीं।
मैंने
एक शब्द भी
नहीं कहा था।
मैं सिर्फ
उसकी आंखों
में झांकता
रहा था। लेकिन
वह बेचैन हो
गया और जो
बातें उसके
अंतस में छिपी
थीं वे उभरकर
बाहर आने लगीं।
तुम
निश्चित नहीं
हो। तुम किसी
भी चीज के
बाबत निश्चित
नहीं हो सकते—न
अपने प्रेम के
बाबत, न
अपनी घृणा के
बाबत, न
अपनी मित्रता
के बाबत। तुम
किसी भी चीज
के बाबत
निश्चित नहीं
हो सकते, क्योंकि
तुम्हारा
केंद्र नहीं
है। केंद्र के
बिना निश्चय
नहीं है।
तुम्हारे
निश्चय के सभी
भाव झूठे और
क्षणिक हैं।
एक क्षण
तुम्हें
लगेगा कि मैं
निश्चित हूं, लेकिन
दूसरे ही क्षण
वह निश्चय जा
चुका होगा; क्योंकि
प्रत्येक
क्षण
तुम्हारा
केंद्र भिन्न
है। तुम्हारा
कोई स्थायी
केंद्र नहीं
है, कोई
क्रिस्टलाइज्ड
केंद्र नहीं
है। प्रत्येक
क्षण का अपना
आणविक केंद्र
है, इसलिए
प्रत्येक
क्षण की अपनी
अस्मिता है।
जार्ज गुरजिएफ
कहते थे कि
आदमी एक भीड़
है।
व्यक्तित्व
एक धोखा है, क्योंकि
तुम एक
व्यक्ति नहीं,
अनेक
व्यक्ति हो।
इसलिए जब एक
व्यक्ति
तुम्हारे
भीतर बोलता है
तो वह उस क्षण
का केंद्र हुआ।
दूसरे क्षण
दूसरा आ जाता
है। प्रत्येक
क्षण के साथ, प्रत्येक
आणविक स्थिति
के साथ तुम
निश्चित
महसूस करते हो,
लेकिन तुम
कभी इस बोध को
उपलब्ध नहीं
होते कि मैं
बस एक बहाव
हूं जिसमें
लहरें ही
लहरें हैं, केंद्र नहीं।
और तब अंत में
तुम पाओगे कि जीवन
व्यर्थ हुआ।
ऐसा होना
अनिवार्य है।
वह महज एक
प्रयोजनहीन, अर्थहीन
भटकाव है।
तंत्र, योग, धर्म,
सबकी
बुनियादी
फिक्र है कि
पहले केंद्र
को कैसे पा
लें, पहले
कैसे व्यक्ति
हो जाएं। वे
फिक्र करते
हैं कि कैसे
उस केंद्र को
प्राप्त करें
जो कि
प्रत्येक
स्थिति में
भीतर विराजमान
रहता है; जब
जीवन बाहर
बदलता रहता है,
जब जीवन—प्रवाह
की लहरें आती
हैं और जाती
हैं, तब भी
भीतर कोई
केंद्र बना
रहता है। तब
तुम एक हुए—आधारित
और केंद्रित।
ये
सूत्र उस
केंद्र को
पाने के सूत्र
हैं। केंद्र
है, क्योंकि
संभव नहीं है
कि वर्तुल
बिना केंद्र के
हो। वर्तुल
केंद्र के साथ
ही हो सकता है।
इसका अर्थ है
कि केंद्र
विस्मृत हो
गया है। वह है,
लेकिन हमें
उसका पता नहीं
है। वह है, लेकिन
हमें उसे
देखना नहीं
आता; हमें
पता नहीं है
कि कैसे उस पर
अपनी चेतना को
एकाग्र करें।
केंद्रित
होने की तीसरी
विधि :
सिर
के सात
द्वारों को
अपने हाथों से
बंद करने पर आंखों
के बीच का
स्थान
सर्वग्राही
हो जाता है।
यह एक पुरानी
से पुरानी
विधि है और
इसका प्रयोग
भी बहुत हुआ
है। यह सरलतम
विधियों में
से एक है। सिर
के सभी
द्वारों को, आंख, कान,
नाक, मुंह,
सबको बंद कर
दो। जब सिर के
सब द्वार—दरवाजे
बंद हो जाते
हैं तो
तुम्हारी
चेतना जो सतत
बाहर बह रही
है, एकाएक
रुक जाती है, ठहर जाती है।
वह अब बाहर
नहीं जा सकती।
तुमने
खयाल नहीं
किया होगा कि
अगर तुम
क्षणभर के लिए
श्वास लेना
बंद कर दो तो
तुम्हारा मन भी
ठहर जाएगा।
क्यों? क्योंकि
श्वास के साथ
मन चलता है।' वह मन का एक
संस्कार है।
तुम्हें
समझना चाहिए
कि यह संस्कार
क्या है, तभी
इस सूत्र को
समझना आसान
होगा।
रूस के
अति प्रसिद्ध
मनस्विद
पावलफ ने
संस्कारजनित
प्रतिक्रिया
को, कंडीशंड
रिफ्लेक्स को
दुनियाभर में
आम बोलचाल में
शामिल करा
दिया है। जो
व्यक्ति भी
मनोविज्ञान
से जरा भी
परिचित है, इस शब्द को
जानता है।
विचार की दो
श्रृंखलाएं, कोई भी दो श्रृंखलाएं
इस तरह एक—दूसरे
से जुड़ सी
जाती हैं कि
अगर तुम उनमें
से एक को चलाओ
तो दूसरी अपने
आप शुरू हो
जाती है। इस
प्रसंग में
पावलफ का
प्रसिद्ध
उदाहरण इस प्रकार
है।
पावलफ
ने एक कुत्ते
पर प्रयोग
किया। उसने
देखा कि तुम
अगर कुत्ते के
सामने खाना रख
दो तो उसकी जीभ
से लार बहने
लगती है, जीभ बाहर
निकल आती है
और वह भोजन के
लिए तैयार हो
जाता है।
कुत्ता जब
भोजन देखता है
या उसकी
कल्पना भी करता
है तो लार
बहने लगती है।
लेकिन पावलफ
ने इस
प्रक्रिया के
साथ दूसरी बात
जोड़ दी। जब भी
भोजन रखा जाए
और कुत्ते की
लार टपकने लगे,
वह दूसरी
चीज करता, उदाहरण
के लिए, वह
एक घंटी बजाता
और कुत्ता उस
घंटी को सुनता।
पंद्रह
दिन तक जब भी
भोजन रखा जाता, घंटी भी
बजती। और तब
सोलहवें दिन
कुत्ते के
सामने भोजन
नहीं रखा गया,
केवल घंटी
बजाई गई।
लेकिन तब भी
कुत्ते की लार
बहने लगी और
उसकी जीभ बाहर
आ गयी, मानो
भोजन सामने
रखा हो।
वहां
भोजन नहीं था, सिर्फ
घंटी बजी थी।
अब घंटी बजने
और लार टपकने
के बीच
त्रिनेत्र कोई
स्वाभाविक
संबंध नहीं था,
लार का
स्वाभाविक
संबंध भोजन के
साथ है। लेकिन
अब घंटी का
रोज—रोज बजना
लार के साथ
जुड़ गया था, संबंधित हो
गया था। और
इसलिए मात्र घंटी
के बजने पर भी
लार बहने लगी।
पावलफ
के अनुसार—और
पावलफ सही है—हमारा
समूचा जीवन एक
कंडीशंड
प्रोसेस है।
मन संस्कार है।
इसलिए अगर तुम
उस संस्कार के
भीतर कोई एक
चीज बंद कर दो
तो उससे जुड़ी
और सारी चीजें
भी बंद हो
जाती हैं।
उदाहरण
के लिए विचार
और श्वास है।
विचारणा सदा
ही श्वास के
साथ चलती है।
तुम बिना
श्वास लिए
विचार नहीं
करते। तुम
श्वास के
प्रति सजग
नहीं रहते, लेकिन
श्वास सतत
चलती रहती है,
दिन—रात
चलती रहती है।
और प्रत्येक
विचार, विचार
की प्रक्रिया
ही श्वास की
प्रक्रिया से
जुड़ी है।
इसलिए अगर तुम
अचानक अपनी
श्वास रोक लो
तो विचार भी
रुक जाएगा।
वैसे
ही अगर सिर के
सातों छिद्र, उसके
सातों द्वार
बंद कर दिए
जाएं तो
तुम्हारी
चेतना अचानक
गति करना बंद
कर देगी। तब
चेतना भीतर
थिर हो जाती
है। और उसका
यह भीतर थिर
होना
तुम्हारी आंखों
के बीच स्थान
बना देता है।
वह स्थान ही
त्रिनेत्र, तीसरी आंख
कहलाती है।
अगर सिर के
सभी द्वार बंद
कर दिए जाएं
तो तुम बाहर
गति नहीं कर
सकते, क्योंकि
तुम सदा
इन्हीं
द्वारों से
बाहर जाते रहे
हो। तब तुम
भीतर थिर हो
जाते हो। और
वह थिर होना, एकाग्र होना
इन दो आंखों, साधारण आंखों
के बीच घटित
होता है।
चेतना इन दो आंखों
के बीच के
स्थान पर
केंद्रित हो
जाती है। उस
स्थान को ही
त्रिनेत्र
कहते हैं।
'यह
स्थान
सर्वग्राही, सर्वव्यापक
हो जाता है।’ यह सूत्र
कहता है कि इस
स्थान में सब
सम्मिलित है,
सारा
अस्तित्व
समाया है। अगर
तुम इस स्थान
को अनुभव कर
लो तो तुमने
सब को अनुभव
कर लिया। एक
बार तुम्हें
इन दो आंखों
के बीच के
आकाश की
प्रतीति हो गई
तो तुमने पूरे
अस्तित्व को
जान लिया, उसकी
समग्रता को
जान लिया।
क्योंकि यह आंतरिक
आकाश
सर्वग्राही
है, सर्वव्यापक
है; कुछ भी
उसके बाहर
नहीं है।
उपनिषद
कहते हैं 'एक को
जानकर सब जान
लिया जाता है।’
ये दो आंखें
तो सीमित को
ही देख सकतई.
हैं; तीसरी
आंख असीम को
देखती है। ये
दो आंखें तो
पदार्थ को ही
देख सकती हैं;
तीसरी आंख
अपदार्थ को, अध्यात्म को
देखती है। इन
दो आंखों से
तुम कभी ऊर्जा
की प्रतीति
नहीं कर सकते,
ऊर्जा को
नहीं देख सकते,
सिर्फ पदार्थ
को देख सकते
हो। लेकिन
तीसरी आंख से
स्वयं ऊर्जा
देखी जाती है।
द्वारों
का बंद किया
जाना
केंद्रित
होने का उपाय
है। क्योंकि
एक बार जब
चेतना के
प्रवाह का
बाहर जाना रुक
जाता है, वह अपने
उदगम पर थिर
हो जाती है।
और चेतना का
यह उदगम ही
त्रिनेत्र है।
अगर तुम इस
त्रिनेत्र पर
केंद्रित हो
जाओ तो बहुत
चीजें घटित
होती हैं।
पहली चीज तो
यह पता चलती
है कि सारा
संसार तुम्हारे
भीतर है।
स्वामी
राम कहा करते
थे कि सूर्य
मेरे भीतर चलता
है, तारे
मेरे भीतर
चलते हैं, चाँद
मेरे भीतर
उदित होता है,
सारा
ब्रह्मांड
मेरे भीतर है।
जब उन्होंने
पहली बार यह
कहा तो उनके
शिष्यों ने
सोचा कि वे
पागल हो गए
हैं।
रामतीर्थ के
भीतर सितारे
कैसे हो सकते
हैं?
वे इसी
त्रिनेत्र के
संबंध में बोल
रहे थे, इसी आंतरिक
आकाश के संबंध
में। जब पहली बार
यह आंतरिक
आकाश उपलब्ध होता
है तो यही भाव
होता है। जब
तुम देखते हो कि
सब कुछ
तुम्हारे
भीतर है तब
तुम
ब्रह्मांड ही
हो जाते हो।
त्रिनेत्र
तुम्हारे
भौतिक शरीर का
हिस्सा नहीं
है, वह
तुम्हारे
भौतिक शरीर का
अंग नहीं है।
तुम्हारी दो आंखों
के बीच का
स्थान
तुम्हारे
शरीर तक ही
सीमित नहीं है।
वह तो वह अनंत
आकाश है जो
तुम्हारे
भीतर प्रवेश
कर गया है। और
एक बार यह
आकाश जान लिया
जाए तो तुम
फिर वही व्यक्ति
नहीं रहोगे।
जिस क्षण
तुमने इस
अंतरस्थ आकाश
को जान लिया उसी
क्षण तुमने
अमृत को जान
लिया। तब कोई
मृत्यु नहीं
है।
जब तुम
पहली बार इस
आकाश को
जानोगे, तुम्हारा
जीवन
प्रामाणिक और
प्रगाढ़ हो
जाएगा; तब
पहली बार तुम
सच में जीवंत
होओगे। तब
किसी सुरक्षा
की जरूरत नहीं
रहेगी। अब कोई
भय संभव नहीं
है। अब
तुम्हारी
हत्या नहीं हो
सकती, अब
तुमसे कुछ भी
छीना नहीं जा
सकता। अब सारा
ब्रह्मांड
तुम्हारा है,
तुम ही
ब्रह्मांड हो।
जिन लोगों ने
इस अंतरस्थ
आकाश को जाना
है उन्होंने
ही आनंदमग्न
होकर उदघोषणा
की है अहं ब्रह्मास्मि!
मैं ही
ब्रह्मांड
हूं मैं ही
ब्रह्म हूं।
सूफी
संत मंसूर को
इसी तीसरी आंख
के अनुभव के
कारण कत्ल
किया गया था।
जब उसने पहली
बार इस आंतरिक
आकाश को जाना, वह
चिल्लाकर
कहने लगा.
अनलहक! मैं ही
परमात्मा हूं।
भारत में वह
पूजा जाता, क्योंकि
भारत ने ऐसे
अनेक लोग देखे
हैं जिन्हें
इस तीसरी आंख,
आंतरिक
आकाश का बोध
हुआ। लेकिन
मुसलमानों के
देश में यह
बात कठिन हो गई।
और मंसूर का
यह वक्तव्य कि
मैं परमात्मा
हूं अनलहक, अहं
ब्रह्मास्मि,
धर्म—विरोधी
माना गया।
क्योंकि
मुसलमान यह
सोच नहीं सकते
कि मनुष्य और
परमात्मा एक
है। मनुष्य
मनुष्य है, मनुष्य
सृष्ट है और
परमात्मा
स्रष्टा है।
सृष्ट
स्रष्टा कैसे
हो सकता है?
इसलिए
मंसूर का यह
वक्तव्य नहीं
समझा गया और उसकी
हत्या कर दी
गई। लेकिन जब
उसको कत्ल
किया जा रहा
था तब वह हंस
रहा था। तो
किसी ने पूछा
कि हंस क्यों
रहे हो मंसूर? कहते हैं
कि मैसूर ने
कहा मैं इसलिए
हंस रहा हूं
कि तुम मुझे
नहीं मार रहे
हो, तुम
मेरी हत्या
नहीं कर सकते।
तुम्हें मेरे
शरीर से धोखा
हुआ है, लेकिन
मैं शरीर नहीं
हूं। मैं इस
ब्रह्मांड को
बनाने वाला
हूं; यह
मेरी अंगुली
थी जिसने आरंभ
में समूचे
ब्रह्माड को
चलाया था।
भारत
में मैसूर
आसानी से समझा
जाता, सदियों—सदियों
से यह भाषा
जानी—पहचानी
है। हम जानते
हैं कि एक घड़ी
आती है जब यह आंतरिक
आकाश जाना
जाता है। तब
जानने वाला
पागल हो जाता
है। और यह
ज्ञान इतना
निश्चित है कि
यदि तुम मैसूर
की हत्या भी
कर दो तो वह
अपना वक्तव्य
नहीं बदलेगा।
क्योंकि
हकीकत में, जहां तक
उसका संबंध है,
तुम उसकी
हत्या नहीं कर
सकते। अब वह
पूर्ण हो गया
है, उसे
मिटाने का
उपाय नहीं है।
मंसूर
के बाद सूफी
सीख गए कि चुप
रहना बेहतर है।
इसलिए मैसूर
के बाद सूफी
परंपरा में
शिष्यों को
सतत सिखाया
गया कि जब भी
तुम तीसरी आंख
को उपलब्ध करो, चुप रहो,
कुछ कहो मत।
जब भी घटित हो,
चुप्पी साध
लो। कुछ भी मत
कहो, या वे
ही चीजें औपचारिक
ढंग से कहे
जाओ जो लोग
मानते हैं।
इसलिए
अब इस्लाम में
दो परंपराएं
हैं। एक
सामान्य
परंपरा है—बाहरी, लौकिक।
और
दूसरी परंपरा
असली इस्लाम
है, सूफीवाद,
जो गुह्य है।
लेकिन सूफी
चुप रहते हैं।
क्योंकि
मैसूर के बाद
उन्होंने सीख
लिया कि उस
भाषा में
बोलना जो कि
तीसरी आंख के
खुलने पर
प्रकट होती है
व्यर्थ की
कठिनाई में
पड़ना है, और
उससे किसी की
मदद भी नहीं
होती।
यह
सूत्र कहता है
: 'सिर
के सात
द्वारों को
अपने हाथों से
बंद करने पर आंखों
के बीच का
स्थान
सर्वग्राही, सर्वव्यापी
हो जाता है।’
तुम्हारा
आंतरिक आकाश
पूरा आकाश हो
जाता है।
केंद्रित
होने की चौथी
विधि:
हे
भगवती जब इंद्रियां
हृदय में
विलीन हो कमल
के केंद्र पर
पहुंचो।
प्रत्येक
विधि किसी मन—विशेष
के लिए उपयोगी
होती है। जिस
विधि की अभी
हम चर्चा कर
रहे थे—तीसरी
विधि, सिर
के द्वारों को
बंद करने वाली
विधि—उसका
उपयोग अनेक
लोग कर सकते
हैं। वह बहुत
सरल है और
बहुत खतरनाक
नहीं है। उसे
तुम आसानी से
काम में ला
सकते हो।
यह भी
जरूरी नहीं है
कि द्वारों को
हाथ से बंद करो, बंद करना
भर जरूरी है।
इसलिए कानों
के लिए डाट और आंखों
के लिए पट्टी
से काम चल
जाएगा। असली
बात यह है कि
कुछ क्षणों के
लिए या कुछ सेकेंड
के लिए सिर के
द्वारों को
पूरी तरह बंद
कर दो।
इसका
प्रयोग करो, अभ्यास
मत करो। अचानक
करने से ही यह
कारगर है, अचानक
में ही राज
छिपा है।
बिस्तर में
पड़े—पड़े अचानक
सभी द्वारों
को कुछ सेकेंड
के लिए बंद कर
दो, और तब
भीतर देखो कि
क्या होता है।
जब
तुम्हारा दम घुटने
लगे, क्योंकि
श्वास भी बंद
हो जाएगी, तब
भी इसे जारी
रखो। और तब तक
जारी रखो जब
तक कि असह्य न
हो जाए। और जब
असह्य हो
जाएगा, तब
तुम द्वारों
को ज्यादा देर
बंद नहीं रख
सकोगे, इसलिए
उसकी फिक्र
छोड़ दो। तब आंतरिक
शक्ति सभी
द्वारों को
खुद खोल देगी।
लेकिन जहां तक
तुम्हारा
संबंध है, तुम
बंद रखो। जब
दम घुटने लगे,
तब वह क्षण
आता है, निर्णायक
क्षण; क्योंकि
घुटन पुराने
एसोसिएशन तोड़
डालती है।
इसलिए कुछ और
क्षण जारी रख
सको तो अच्छा।
यह काम
कठिन होगा, मुश्किल
होगा, और
तुम्हें
लगेगा कि मौत
आ गई। लेकिन
डरो मत। तुम
मर नहीं सकते,
क्योंकि
द्वारों को
बंद भर करने
से तुम नहीं मरोगे।
लेकिन जब लगे
कि मैं मर
जाऊंगा, तब
समझो कि वह
क्षण आ गया।
अगर
तुम उस क्षण
में धीरज से
लगे रहे तो
अचानक हर चीज
प्रकाशित हो
जाएगी। तब तुम
उस आंतरिक
आकाश को महसूस
करोगे जो कि
फैलता ही जाता
है और जिसमें
समग्र समाया
हुआ है। तब
द्वारों को
खोल दो और तब
इस प्रयोग को
फिर—फिर करो।
जब भी समय
मिले, इसको
प्रयोग में
लाओ।
लेकिन
इसका अभ्यास
मत बनाओ। तुम
श्वास को कुछ
क्षण के लिए
रोकने का
अभ्यास कर
सकते हो, लेकिन उससे
कुछ लाभ न
होगा। एक
आकस्मिक, अचानक
झटके की जरूरत
है। उस झटके
में तुम्हारी
चेतना के
पुराने स्रोतों
का प्रवाह बंद
हो जाता है और
कोई नयी बात
संभव हो जाती
है।
भारत
में अभी भी
सर्वत्र अनेक
लोग इस विधि
का अभ्यास
करते हैं।
लेकिन कठिनाई
यह है कि वे
अभ्यास करते
है, जब व
यह एक अचानक
विधि है। अगर
तुम अभ्यास
करो तो कुछ भी
नहीं होगा, कुछ भी नहीं
होगा। अगर मैं
तुम्हें
अचानक इस कमरे
से बाहर निकाल
फेंकूं तो
तुम्हारे
विचार बंद हो
जाएंगे।
लेकिन अगर हम
रोज—रोज इसका
अभ्यास करें
तो कुछ नहीं
होगा। तब वह
एक यांत्रिक
आदत बन जाएगी।
इसलिए
अभ्यास मत करो; जब भी हो
सके, प्रयोग
करो। तो धीरे—
धीरे तुम्हें
अचानक एक आंतरिक
आकाश का बोध
होगा। वह आंतरिक
आकाश
तुम्हारी
चेतना में तभी
प्रकट होता है
जब तुम मृत्यु
के कगार पर
होते हो। जब
तुम्हें लगता
है कि अब मैं
एक क्षण भी
नहीं जीऊंगा,
अब मृत्यु
निकट है, तभी
वह सही क्षण
आता है। इसलिए
लगे रहो, डरो
मत।
मृत्यु
इतनी आसान
नहीं है। कम
से कम इस विधि
को प्रयोग में
लाते हुए कोई
व्यक्ति अब तक
नहीं मरा है।
इसमें
अंतर्निहित
सुरक्षा के
उपाय हैं, यही कारण
है कि तुम
नहीं मरोगे।
मृत्यु के
पहले आदमी
बेहोश हो जाता
है। इसलिए होश
में रहते हुए
यह भाव आए कि
मैं मर रहा
हूं तो डरो मत।
तुम अब भी होश
में हो, इसलिए
मरोगे नहीं।
और अगर तुम
बेहोश हो गए
तो तुम्हारी
श्वास चलने
लगेगी, तब
तुम उसे रोक
नहीं पाओगे।
और तुम
कान के लिए
डाट काम में
ला सकते हो, आंखों
में पट्टी
बांध सकते हो,
लेकिन नाक
और मुंह के
लिए कोई डाट
उपयोग नहीं करने
हैं, क्योंकि
तब वह संघातक
हो सकता है।
कम से कम नाक
को छोड़ रखना
ठीक है। उसे
हाथ से ही बंद
करो। उस हालत
में जब बेहोश
होने लगोगे तो
हाथ अपने आप
ही ढीला हो
जाएगा और
श्वास वापस आ
जाएगी। तो
इसमें
अंतर्निहित
सुरक्षा है।
यह विधि
बहुतों के काम
की है।
चौथी
विधि उनके लिए
है जिनका हृदय
बहुत विकसित
है, जो
प्रेम और भाव
के लोग हैं, भाव—प्रवण
लोग हैं।
'हे
भगवती, जब
इंद्रियां
हृदय में
विलीन हों, कमल के
केंद्र पर
पहुंचो।’
यह
विधि हृदय—प्रधान
व्यक्ति के
द्वारा काम
में लायी जा सकती
है। इसलिए
पहले यह समझने
की कोशिश करो
कि हृदय—प्रधान
व्यक्ति कौन
है। तब यह
विधि समझ
सकोगे।
जो
हृदय—प्रधान
है, उस
व्यक्ति के
लिए सब कुछ
हृदय ही है।
अगर तुम उसे
प्यार करोगे
तो उसका हृदय
उस प्यार को
अनुभव करेगा,
उसका
मस्तिष्क
नहीं।
मस्तिष्क—प्रधान
व्यक्ति
प्रेम किए
जाने पर भी
प्रेम का
अनुभव
मस्तिष्क से
लेता है। वह
उसके संबंध
में सोचता है,
आयोजन करता
है; उसका
प्रेम भी
मस्तिष्क का
ही सुचिंतित
आयोजन होता है।
लेकिन
भावपूर्ण
व्यक्ति तर्क
के बिना जीता
है। वैसे हृदय
के भी अपने
तर्क हैं, लेकिन
हृदय सोच—विचार
नहीं करता है।
अगर
कोई तुम्हें
पूछे कि क्यों
प्रेम करते हो
और तुम उस
क्यों का जवाब
दे सकी तो तुम
मस्तिष्क—प्रधान
व्यक्ति हो।
और अगर तुम
कहो कि मैं
नहीं जानता, मैं
सिर्फ प्रेम
करता हूं तो
तुम हृदय वाले
व्यक्ति हो।
अगर तुम इतना
भी कहते हो कि
मैं उसे इसलिए
प्यार करता
हूं कि वह
सुंदर है तो वहां
बुद्धि आ गई।
हृदयोन्यूख
व्यक्ति के
लिए कोई सुंदर
इसलिए है कि वह
उसे प्रेम
करता है।
मस्तिष्क
वाला व्यक्ति
किसी को इसलिए
प्रेम करता है
कि वह सुंदर
है। बुद्धि
पहले आती है
और तब प्रेम
आता है। हृदय—प्रधान
व्यक्ति के
लिए प्रेम
प्रथम है और
शेष
चीजें प्रेम
के पीछे—पीछे
आती हैं। वह
हृदय में
केंद्रित है, इसलिए जो
भी घटित होता
है वह पहले
उसके हृदय को
छूता है।
जरा
अपने को देखो।
हरेक क्षण
तुम्हारे जीवन
में अनेक
चीजें घटित हो
रही है। वे
किस स्थल को
छूती हैं? तुम जा
रहे हो और एक
भिखारी सड़क पार
करता है। वह
भिखारी
तुम्हें कहां
छूता है? क्या
तुम आर्थिक
परिस्थिति पर
सोच—विचार
शुरू करते हो?
या क्या तुम
यह विचारने
लगते हो कि
कैसे कानून के
द्वारा
भिखमंगी बंद
की जाए? या
कि कैसे एक
समाजवादी
समाज बनाया
जाए जहां भिखमंगे
न हों?
यह एक
मस्तिष्क—प्रधान
आदमी है जो
ऐसा सोचने
लगता है। उसके
लिए भिखारी
महज विचार
करने का आधार
बन जाता है।
उसका हृदय
अस्पर्शित रह
जाता है, सिर्फ
मस्तिष्क
स्पर्शित
होता है। वह
इस भिखारी के
लिए अभी और
यहां कुछ नहीं
करने जा रहा
है। नहीं, वह
साम्यवाद के
लिए कुछ करेगा,
वह भविष्य
के लिए, किसी
ऊटोपिया के
लिए कुछ करेगा।
वह उसके लिए
अपना पूरा
जीवन भी दे दे,
लेकिन अभी,
तत्क्षण
वह कुछ नहीं
कर सकता है।
मस्तिष्क सदा
भविष्य में
रहता है, हृदय
सदा यहां और
अभी है।
एक
हृदय—प्रधान
व्यक्ति अभी
ही भिखारी के
लिए कुछ करेगा।
यह भिखारी
आदमी है, आंकड़ा नहीं।
मस्तिष्क
वाले आदमी के
लिए वह गणित
का आंकड़ा भर
है। उसके लिए
भिखमंगी बंद
करना समस्या
है, इस
भिखारी की मदद
की बात
अप्रासंगिक
है।
तो
अपने को देखो, परखो।
देखो कि तुम
कैसे काम करते
हो, देखो
कि तुम्हें
हृदय की फिक्र
है या मस्तिष्क
की। अगर तुम
समझते हो कि
तुम हृदयोन्यूख
व्यक्ति हो तो
यह विधि
तुम्हारे बहुत
काम की होगी।
लेकिन यह बात
भी ध्यान रखो
कि हर आदमी
अपने को यह
धोखा देने में
लगा है कि मैं
हृदयोम्मुख
व्यक्ति हूं।
हर आदमी सोचता
है कि मैं
बहुत
प्रेमपूर्ण
व्यक्ति हूं
भावुक किस्म
का हूं।
क्योंकि
प्रेम एक ऐसी
बुनियादी
जरूरत है कि अगर
किसी को पता
चले कि मेरे
पास प्रेम
करने वाला
हृदय नहीं है
तो वह चैन से
नहीं रह सकेगा।
इसलिए हर आदमी
ऐसा सोचे और
माने चला जाता
है।
लेकिन
विश्वास करने
से क्या होगा? निष्पक्षता
के साथ अपना
निरीक्षण करो,
ऐसे जैसे कि
तुम किसी
दूसरे का
निरीक्षण कर
रहे हो और तब निर्णय
लो। क्योंकि
अपने को धोखा
देने की जरूरत
क्या है? और
उससे लाभ क्या
होगा? और
अगर तुम अपने
को धोखा भी दे
दो तो तुम
विधि को धोखा
नहीं दे सकते।
क्योंकि तब
विधि को
प्रयोग करने
पर तुम पाओगे
कि कुछ भी
नहीं होता है।
लोग
मेरे पास आते
हैं। मैं उनसे
पूछता हूं कि
तुम किस कोटि
के हो। उन्हें
यथार्थत: कुछ
पता नहीं है।
उन्होंने कभी
इस संबंध में
सोचा ही नहीं
कि वे किस
कोटि के हैं।
उन्हें अपने
बारे में
धुंधली
धारणाएं हैं।
और वे धारणाएं
दरअसल मात्र
कल्पनाएं हैं।
उनके पास कुछ
आदर्श हैं, कुछ
प्रतिमाएं
हैं और वे
सोचते हैं—सोचते
क्या चाहते है—कि
हम वे
प्रतिमाएं
होते। सच में
वे हैं नहीं।
और अक्सर तो
यह होता है कि
वे उसके ठीक
विपरीत होते
हैं।
इसका
कारण है। जो
व्यक्ति जोर
देकर कहता है
कि मैं हृदय—प्रधान
आदमी हूं हो सकता
वह ऐसा इसलिए
कह रहा हो कि
उसे अपने हृदय
का अभाव खलता
है। और वह
भयभीत है। वह
इस तथ्य को
नहीं जान
सकेगा कि उसके
पास हृदय नहीं
है।
इस
संसार पर एक
नजर डालो! अगर
अपने हृदय के
बारे में हरेक
आदमी का दावा सही
है तो यह
संसार इतना ह्रदयहीन
नहीं हो सकता।
यह ससार हम
सबका कुल जोड़
है। इसलिए
कहीं कुछ
अवश्य गलत है।
वहां हृदय
नहीं है।
सच तो
यह है कि कभी
हृदय को
प्रशिक्षित
ही नहीं किया
गया। मन
प्रशिक्षित
किया गया है, इसलिए मन
है। मन को
प्रशिक्षित
करने के लिए
स्कूल, कालेज
और
विश्वविद्यालय
हैं, लेकिन
हृदय के
प्रशिक्षण के
लिए कोई जगह
नहीं है। और
मन का
प्रशिक्षण
लाभदायी है, लेकिन हृदय
का प्रशिक्षण
खतरनाक है।
क्योंकि अगर
तुम्हारा
हृदय
प्रशिक्षित
किया जाए तो
तुम इस संसार
के लिए बिलकुल
व्यर्थ हो
जाओगे। यह
सारा संसार तो
बुद्धि से
चलता है। अगर
तुम्हारा
हृदय
प्रशिक्षित
हो तो तुम पूरे
ढांचे से बाहर
हो जाओगे। जब
सारा संसार
दाएं जाता
होगा, तुम
बाएं चलोगे।
सभी जगह तुम
अड़चन में
पड़ोगे।
सच तो
यह है कि
मनुष्य जितना
अधिक सुसभ्य
बनता है, हृदय का
प्रशिक्षण
उतना ही कम हो
जाता है। हम
तो उसे भूल ही
गए हैं, भूल
गए हैं कि
हृदय भी है या
उसके
प्रशिक्षण की
जरूरत है। यही
कारण है कि
ऐसी विधियां
जो आसानी से
काम कर सकती
थीं, कभी
काम नहीं
करतीं।
अधिकांश
धर्म हृदय—प्रधान
विधियों पर
आधारित हैं।
ईसाइयत, इस्लाम, हिंदू
तथा अन्य कई
धर्म हृदयोन्मुख
लोगों पर
आधारित हैं।
जितना ही
पुराना कोई
धर्म है वह
उतना ही अधिक हृदय—
आधारित है। जब
वेद लिखे गए
और हिंदू धर्म
विकसित हो रहा
था तब लोग हृदयोन्मुख
थे। उस समय मन—प्रधान
लोग खोजना
मुश्किल था।
लेकिन अभी
समस्या उलटी
है। तुम
प्रार्थना
नहीं कर सकते,
क्योंकि
प्रार्थना
हृदय—आधारित
विधि है।
यही
कारण है कि
पश्चिम में, जहां
ईसाइयत का
बोलबाला है—और
ईसाइयत, खासकर
कैथोलिकी
ईसाइयत
प्रार्थना का
धर्म है—प्रार्थना
कठिन हो गई है।
ईसाइयत में
ध्यान के लिए
कोई स्थान
नहीं है।
लेकिन अब
पश्चिम में भी
लोग ध्यान के
लिए पागल हो
रहे हैं। कोई
अब चर्च नहीं
जाता है, और
अगर कोई जाता
भी है तो वह
महज
औपचारिकता है,
रविवारीय
धर्म। क्यों?
क्योंकि आज
पश्चिम का जो
आदमी है उसके
लिए प्रार्थना
सर्वथा असंगत
हो गई है।
ध्यान
ज्यादा
मनोन्मूख है; प्रार्थना
ज्यादा हृदयोन्मूख
व्यक्ति की
ध्यान—विधि है।
यह विधि भी
हृदय वाले
व्यक्ति के
लिए ही है।
'हे
भगवती, जब
इंद्रियां
हृदय में
विलीन हों, कमल के
केंद्र पर
पहुंचो।’
इस
विधि के लिए
करना क्या है? 'जब
इंद्रियां
हृदय में
विलीन हों.....।’ प्रयोग करके
देखो। कई उपाय
संभव हैं। तुम
किसी व्यक्ति
को स्पर्श
करते हो; अगर
तुम हृदय वाले
आदमी हो तो वह
स्पर्श शीघ्र
ही तुम्हारे
हृदय में
पहुंच जाएगा
और तुम्हें
उसकी
गुणवत्ता
महसूस हो सकती
है। अगर तुम
किसी
मस्तिष्क
वाले व्यक्ति
का हाथ अपने
हाथ में लोगे
तो उसका हाथ
ठंडा होगा—शारीरिक
रूप से नहीं, भावात्मक
रूप से। उसके
हाथ में एक
तरह का
मुर्दापन
होगा। और अगर
वह व्यक्ति
हृदय वाला है
तो उसके हाथ में
एक ऊष्मा होगी, तब उसका हाथ
तुम्हारे साथ
पिघलने लगेगा,
उसके हाथ से
कोई चीज
निकलकर
तुम्हारे
भीतर म् बहने
लगेगी और तुम
दोनों के बीच
एक तालमेल होगा,
ऊष्मा का
संवाद होगा।
यह
ऊष्मा हृदय से
आ रही है। यह
मस्तिष्क से
नहीं आ सकती, क्योंकि
मस्तिष्क सदा
त्रिनेत्र
ठंडा और हिसाबी
है। हृदय
ऊष्मा वाला है,
वह हिसाबी
नहीं है।
मस्तिष्क सदा
यह सोचता है
कि
कैसे ज्यादा
लें। हृदय का
भाव रहता है
कि कैसे
ज्यादा दें।
वह जो ऊष्मा
है वह दान है—ऊर्जा
का दान, आंतरिक
तरंगों का दान,
जीवन का दान।
यही वजह है कि
तुम्हें
उसमें एक अलग
गुणवत्ता
मिलती। अगर वह
व्यक्ति सच
में तुम्हें
आलिंगन में ले
तो तुम्हें
उसके साथ गहरे
घुलने का
अनुभव होगा।
स्पर्श
करो, छुओ।
आंख बंद करो
और किसी चीज
को स्पर्श करो।
अपने प्रेमी
या प्रेमिका
को छुओ, अपनी
मां को या
बच्चे को छुओ,
या मित्र को,
या वृक्ष, फूल, या
महज धरती को
छुओ। आंखें
बंद रखो और
धरती और अपने
हृदय के बीच, प्रेमिका और
अपने बीच होते
आंतरिक संवाद
को महसूस करो।
भाव करो कि
तुम्हारा हाथ
ही तुम्हारा
हृदय है जो
धरती को
स्पर्श करने
को बढ़ा है।
स्पर्श की अनुभूति
को हृदय से
जुड्ने दो।
तुम
संगीत सुन रहे
हो, उसे
मस्तिष्क से
मत सुनो। अपने
मस्तिष्क को
भूल जाओ और
समझो कि मैं
बिना
मस्तिष्क के
हूं मेरा कोई
सिर नहीं है।
अच्छा है कि
अपने सोने के
कमरे में अपना
एक चित्र रख
लो जिसमें सिर
न हो। उस पर
ध्यान को
एकाग्र करो और
भाव करो कि
तुम बिना सिर
के हो। सिर को
आने ही मत दो
और संगीत को
हृदय से सुनो।
भाव करो कि
संगीत
तुम्हारे
हृदय में जा
रहा है, हृदय
को संगीत के
साथ उद्वेलित
होने दो।
तुम्हारी
इंद्रियों को
भी हृदय से
जुड्ने दो, मस्तिष्क से
नहीं।
यह
प्रयोग सभी
इंद्रियों के
साथ करो और
अधिकाधिक भाव
करो कि प्रत्येक
ऐंद्रिक
अनुभव हृदय
में जाता है
और उसमें
विलीन हो जाता
है।
'हे
भगवती, जब
इंद्रियां
हृदय में
विलीन हों, कमल के
केंद्र पर
पहुंचो।’
हृदय
ही कमल है। और
इंद्रियां
कमल के द्वार
हैं, कमल
की पंखुड़ियां
हैं। पहली बात
कि अपनी
इंद्रियों को
हृदय के साथ जुड्ने
दो। और दूसरी
कि सदा भाव
करो कि
इंद्रियां
सीधे हृदय में
गहरी उतरती
हैं और उसमें
घुल—मिल जाती
हैं। जब ये दो
काम हो जाएंगे
तभी तुम्हारी
इंद्रियां
तुम्हारी
सहायता
करेंगी। तब वे
तुम्हें
तुम्हारे
हृदय तक
पहुंचा देंगी
और तुम्हारा
हृदय कमल बन
जाएगा।
यह
हृदय—कमल तुम्हें
तुम्हारा
केंद्र देगा।
और जब तुम
अपने हृदय के
केंद्र को जान
लोगे तब नाभि—केंद्र
को पाना बहुत
आसान हो जाएगा।
यह बहुत आसान
है। यह सूत्र
उसकी चर्चा भी
नहीं करता, उसकी
जरूरत नहीं है।
अगर तुम सच
में और
समग्रता से
हृदय में विलय
हो गए, और
बुद्धि ने काम
करना छोड़ दिया,
तो तुम नाभि—केंद्र
पर पहुंच
जाओगे।
हृदय
से नाभि की ओर
द्वार खुलता
है। सिर्फ सिर
से नाभि की ओर
जाना कठिन है।
या अगर तुम
कहीं सिर और
हृदय के बीच
में हो तो भी
नाभि पर जाना
कठिन है। एक
बार तुम हृदय
में विलय हो
जाओ तो तुम
हृदय के पार
नाभि—केंद्र
में उतर गए।
और वही
बुनियादी है, मौलिक है।
यही
कारण है कि
प्रार्थना
काम करती है।
और इसी कारण
से जीसस कह
सके कि प्रेम ईश्वर
है। यह बात
पूरी—पूरी सही
नहीं है, लेकिन प्रेम
द्वार है। अगर
तुम किसी के
गहरे प्रेम
में हो—किसके
प्रेम में हो
यह महत्व का
नहीं है, प्रेम
ही महत्व का
है—इतने प्रेम
में कि संबंध मस्तिष्क
का न रहे, सिर्फ
हृदय काम करे,
तो यही
प्रेम
प्रार्थना बन
जाएगा और
तुम्हारा
प्रेमी या
प्रेमिका
भगवत्ता बन
जाएगी।
सच तो
यह है कि हृदय
की आंख और कुछ
नहीं देख सकती
है। यह बात तो
साधारण प्रेम
में भी घटित
होती है। अगर
तुम किसी के
प्रेम में
पड़ते हो तो वह
तुम्हारे लिए
दिव्य हो उठता
है। हो सकता
है कि यह भाव
बहुत स्थायी न
हो और बहुत गहरा
भी नहीं, लेकिन तत्क्षण
तो प्रेमी या
प्रेमिका
दिव्य हो उठती
है। देर—अबेर
बुद्धि आकर
पूरी चीज को
नष्ट कर देगी,
क्योंकि
बुद्धि
हस्तक्षेप कर
सब व्यवस्था
बिठाने लगेगी।
उसे प्रेम की
भी व्यवस्था
बिठानी पड़ती
है। और एक बार
बुद्धि
व्यवस्थापक
हुई कि सब
चीजें नष्ट हो
जाती हैं।
अगर
तुम सिर की
व्यवस्था के
बिना प्रेम
में हो सको तो
तुम्हारा
प्रेम
अनिवार्यत:
प्रार्थना
बनेगा और
तुम्हारी
प्रेमिका
द्वार बन
जाएगी।
तुम्हारा
प्रेम
तुम्हें हृदय
में केंद्रित कर
देगा। और एक
बार तुम हृदय
में केंद्रित
हुए कि तुम अपने
ही आप नाभि—केंद्र
में गहरे उतर
जाओगे।
केंद्रित
होने की
पांचवीं विधि
:
मन
को भूलकर मध्य
में रहो— जब तक।
सूत्र इतना ही
है। किसी भी
वैज्ञानिक
सूत्र की तरह
यह छोटा है, लेकिन ये
थोड़े से शब्द
भी तुम्हारे
जीवन को समग्रत:
बदल सकते हैं।
'मन
को भूलकर मध्य
में रहो—जब तक।’
'मध्य
में रहो'—बुद्ध
ने अपने ध्यान
की विधि इसी
सूत्र के आधार
पर विकसित की।
उनका मार्ग मज्झिम
निकाय या मध्य
मार्ग कहलाता
है। बुद्ध
कहते हैं, सदा
मध्य में रहो—प्रत्येक
चीज में।
एक बार
राजकुमार
श्रोण
दीक्षित हुआ, बुद्ध ने
उसे संन्यास
में दीक्षित
किया। वह
राजकुमार
अदभुत
व्यक्ति था।
और जब वह
संन्यास में
दीक्षित हुआ
तो सारा राज्य
चकित रह गया।
लोगों को यकीन
नहीं हुआ कि
राजकुमार
श्रोण
संन्यासी हो
गया है। किसी
ने स्वप्न में
भी यह नहीं
सोचा था!
क्योंकि
श्रोण पूरा
सांसारिक था,
भोग—विलास
में सर्वथा
लिप्त, डूबा
हुआ। सुरा—सुंदरी
ही उसका पूरा
संसार था।
तभी
अचानक एक दिन
बुद्ध उसके
नगर में आए।
राजकुमार
श्रोण उनके दर्शन
को गया। वह
बुद्ध के
चरणों में
गिरा और बोला
कि मुझे दीक्षित
कर लें, मैं संसार
छोड़ दूंगा।
जो लोग
उसके साथ आए
थे उन्हें भी
इसकी कुछ खबर नहीं
थी। ऐसी अचानक
घटना थी यह।
उन्होंने
बुद्ध से पूछा
कि यह क्या हो
रहा है! यह तो
चमत्कार है।
श्रोण उस कोटि
का व्यक्ति
नहीं है, वह तो भोग—विलास
में रहा है।
हमने तो
कल्पना भी
नहीं की थी कि
श्रोण संन्यासी
होगा। यह क्या
हो रहा है? आपने
कुछ कर दिया
है।
बुद्ध
ने कहा कि
मैंने कुछ
नहीं किया है।
मन एक अति से
दूसरी अति पर
जा सकता है।
वह मन का ढंग
है—एक अति से
दूसरी अति पर
जाना। श्रोण
कुछ नया नहीं
कर रहा है। यह
होना ही था।
क्योंकि तुम
मन के नियम
नहीं जानते, इसलिए
तुम चकित हो
रहे हो।
मन एक
अति से दूसरी
अति पर गति
करता रहता है।
मन का यही ढंग
है। यह रोज—रोज
होता है। जो
आदमी धन के
पीछे पागल था
वह अचानक सब
कुछ छोड्कर
नंगा
फकीर हो
जाता है। हम
सोचते हैं कि चमत्कार
हो गया। लेकिन
यह सामान्य
नियम के सिवाय
त्रिनेत्र
कुछ नहीं है।
जो आदमी धन के
पीछे पागल
नहीं है उससे
यह अपेक्षा
नहीं की जा
सकती कि
वह
त्याग करेगा।
क्योंकि तुम
एक अति से ही
दूसरी अति पर
जा सकते हो—वैसे
ही जैसे घडी का
पेंडुलम एक अति
से दूसरी अति पर
डोलता रहता है।
इसलिए
जो आदमी धन के
लिए पागल था
वह पागल होकर धन
के खिलाफ
जाएगा, लेकिन उसका
पागलपन कायम
रहेगा। वही मन
है। जो आदमी
कामवासना के
लिए ही जीता
था वह ब्रह्मचारी
हो जा सकता है,
एकांत में
चला जा सकता
है, लेकिन
उसका पागलपन
कायम रहेगा।
पहले वह
कामवासना के
लिए जीता था, अब वह
कामवासना के
खिलाफ होकर
जीएगा। लेकिन
उसका रुख, उसकी
दृष्टि वही की
वही रहेगी।
इसलिए
ब्रह्मचारी
सच में
कामवासना के
पार नहीं गया
है, उसका
पूरा चित्त
काम—प्रधान है।
वह सिर्फ
विरुद्ध हो
गया है, उसने
काम का
अतिक्रमण नहीं
किया है।
अतिक्रमण का
मार्ग सदा
मध्य में है, वह कभी अति
में नहीं है।
तो
बुद्ध ने कहा
कि यह होना ही
था, यह
कोई चमत्कार
नहीं है। मन
ऐसे ही व्यवहार
करता है।
श्रोण भिक्खू
बन गया, संन्यासी हो
गया। शीघ्र ही
बुद्ध के
दूसरे
शिष्यों ने
देखा कि वह
दूसरी अति पर
जा रहा था।
बुद्ध ने किसी
को नग्न रहने
को नहीं कहा
था, लेकिन
श्रोण नग्न हो
गया। बुद्ध
नग्नता के
पक्ष में नहीं
थे। उन्होंने
कहा कि यह
दूसरी अति है।
लोग हैं जो
कपड़ों के लिए
ही जीते हैं, मानो वही
उनका जीवन हो।
और ऐसे लोग भी
हैं जो नग्न
हो जाते हैं।
लेकिन दोनों
वस्त्रों में
विश्वास करते
हैं।
बुद्ध
ने कभी नग्नता
की शिक्षा
नहीं दी, लेकिन श्रोण
नग्न हो गया।
वह बुद्ध का
अकेला शिष्य
था जो नग्न
हुआ। श्रोण
आत्म—उत्पीड़न
में भी गहरे
उतर गया।
बुद्ध ने अपने
संन्यासियों
को दिन में एक
बार भोजन की
व्यवस्था दी थी,
लेकिन
श्रोण दो
दिनों में एक
बार भोजन लेने
लगा। वह बहुत
दुर्बल हो गया।
दूसरे भिक्षु
पेड़ की छाया
में ध्यान
करते थे, लेकिन
श्रोण कभी
छाया में नहीं
बैठता था। वह
सदा कड़ी धूप
में रहता था।
वह बहुत सुंदर
आदमी था, उसकी
देह बहुत
सुंदर थी।
लेकिन छह
महीने के भीतर
पहचानना
मुश्किल हो गया
कि यह वही
आदमी है। वह
कुरूप, काला,
झुलसा—झुलसा
दिखने लगा।
एक रात
बुद्ध श्रोण
के पास गए और
उससे बोले:
श्रोण, मैंने सुना
है कि जब तुम
राजकुमार थे,
तब तुम्हें
वीणा का शौक
था और तुम एक
कुशल वीणावादक
और बड़े
संगीतज्ञ थे।
तो मैं तुमसे
एक प्रश्न
पूछने आया हूं।
अगर वीणा के
तार बहुत ढीले
हों तो क्या
होता है? श्रोण
ने कहा कि अगर
तार ढीले
होंगे तो कोई
संगीत संभव
नहीं होगा।
और फिर
बुद्ध ने पूछा
कि अगर तार
बहुत कसे हों तो
क्या होगा? श्रोण ने
कहा कि तब भी
संगीत नहीं
पैदा होगा।
तारों को मध्य
में होना
चाहिए; वे
न ढीले हों और
न कसे हुए, ठीक
मध्य में हों।
और श्रोण ने
कहा कि वीणा
बजाना तो आसान
है, लेकिन
एक परम
संगीतज्ञ ही
तारों को मध्य
में रख सकता
है।
तो
बुद्ध ने कहा
कि छह महीनों
तक तुम्हारा
निरीक्षण
करने के बाद
मैं तुमसे यही
कहने आया हूं
कि जीवन में भी
संगीत तभी
जन्मता है जब
उसके तार न
ढीले हों और न
कसे हुए,
ठीक
मध्य में हों।
इसलिए त्याग
करना आसान है, लेकिन
परम कुशल ही
मध्य में रहना
जानता है।
इसलिए श्रोण,
कुशल बनों
और जीवन के
तारों को मध्य
में, ठीक
मध्य में रखो।
इस या उस अति
पर मत जाओ। और
प्रत्येक चीज
के दो छोर हैं,
दो अतियां
हैं, लेकिन
तुम्हें सदा
मध्य में रहना
है।
लेकिन
मन बहुत बेहोश
है। इसलिए
सूत्र में कहा
गया है. 'मन को भूलकर।’
तुम यह बात
सुन भी लोगे, तुम इसे समझ
भी लोगे, लेकिन
मन उसको नहीं
ग्रहण करेगा।
मन सदा अतियों
को चुनता
रहेगा। मन में
अतियों के लिए
बड़ा आकर्षण है,
मोह है।
क्यों? क्योंकि
मध्य में मन
की मृत्यु हो
जाती है।
घड़ी के
पेंडुलम को
देखो। अगर
तुम्हारे पास
कोई पुरानी
घड़ी हो तो
उसके पेंडुलम
को देखो।
पेंडुलम सारा
दिन चलता रह
सकता है यदि
वह अतियों तक
आता—जाता रहे।
जब वह बाएं
जाता है तब
दाएं जाने के
लिए शक्ति अर्जित
करता है। जब
वह दाएं जा
रहा है तो मत
सोचो कि वह
दाएं जा रहा
है, वह
बाएं जाने के
लिए ऊर्जा
इकट्ठी कर रहा
है। अतियां ही
दाएं—बाएं हैं।
पेंडुलम को
बीच में ठहरने
दो और सब गति
बंद हो जाएगी।
तब पेंडुलम
में ऊर्जा
नहीं रहेगी, क्योंकि
ऊर्जा तो एक
अति से आ रही
है। एक अति
उसे दूसरी अति
की ओर फेंकती
है, उससे
एक वर्तुल
बनता है और
पेंडुलम
गतिमान होता
है। उसको बीच
में होने दो
और तब सब गति
ठहर जाएगी।
मन
पेंडुलम की
भांति है। और
अगर तुम इसका
निरीक्षण करो
तो रोज ही
इसका पता
चलेगा। तुम एक
अति के पक्ष
में निर्णय
लेते हो और तब
तुम दूसरी अति
की ओर जाने
लगते हो। तुम
अभी क्रोध
करते हो, फिर
पश्चात्ताप
करते हो। तुम
कहते हो, नहीं,
बहुत हुआ, अब मैं कभी
क्रोध न करूंगा।
लेकिन तुम कभी
अति को नहीं
देखते।
यह 'कभी नहीं'
अति है। तुम
कैसे निश्चित
हो सकते हो कि
तुम कभी नहीं क्रोध
करोगे? तुम
कह क्या रहे
हो? एक बार
और सोचो। कभी
नहीं? अतीत
में जाओ और
याद करो कि
कितनी दफे
तुमने निश्चय
किया कि मैं
कभी नहीं
क्रोध करूंगा।
जब तुम कहते
हो कि मैं कभी
क्रोध नहीं
करूंगा तो तुम
नहीं जानते हो
कि क्रोध करते
समय ही तुमने
दूसरे छोर पर
जाने की ऊर्जा
इकट्ठी कर ली
थी। अब तुम
पश्चात्ताप
कर रहे हो। अब
तुम्हें बुरा
लग रहा है।
तुम्हारी
आत्म—छवि हिल
गई है, गिर
गई है। अब तुम
नहीं कह सकते
कि मैं अच्छा
आदमी हूं धार्मिक
आदमी हूं।
मैंने क्रोध
किया और
धार्मिक
व्यक्ति
क्रोध नहीं
करता है।
अच्छा आदमी
क्रोध कैसे
करेगा?
तो तुम
अपनी अच्छाई
को वापस पाने
के लिए पश्चात्ताप
करते हो। कम
से कम अपनी
नजर में
तुम्हें
लगेगा कि मैंने
पश्चात्ताप
कर लिया, चैन हो गया
और अब फिर
क्रोध नहीं
होगा। इससे
तुम्हारी
हिली हुई आत्म—छवि
पुरानी
अवस्था में
लौट आएगी। अब
तुम चैन महसूस
करोगे।
क्योंकि अब
तुम दूसरी अति
पर चले गए।
लेकिन
जो मन कहता है
कि अब मैं फिर
कभी क्रोध नहीं
करूंगा, वह फिर
क्रोध करेगा।
अब जब तुम फिर
क्रोध में
होगे तो तुम
अपने
पश्चात्ताप
को, अपने
निर्णय को, सब
को
बिलकुल भूल
जाओगे। और
क्रोध के बाद
फिर वह निर्णय
लौटेगा। और
पश्चात्ताप
वापस आएगा और
तुम कभी उसके
धोखे को नहीं
समझ पाओगे।
ऐसा सदा हुआ
है। मन क्रोध
से पश्चात्ताप
और
पश्चात्ताप
से क्रोध के
बीच डोलता
रहता है।
बीच
में रहो। न
क्रोध करो, न
पश्चात्ताप।
और अगर क्रोध
कर गए तो कृपा
कर क्रोध ही
करो, पश्चात्ताप
मत करो। दूसरी
अति पर मत जाओ।
बीच में रहो।
कहो कि मैंने
के केंद्र और
किया, मैं
बुरा आदमी हूं
हिंसक हूं।
मैं ऐसा ही
हूं। लेकिन
पश्चात्ताप
मत करो, दूसरी
अति पर मत जाओ।
मध्य में रहो।
अगर तुम मध्य
में रह सके तो
फिर तुम क्रोध
करने के लिए
ऊर्जा इकट्ठी
नहीं कर पाओगे।
इसलिए
यह सूत्र कहता
है : 'मन
को भूलकर मध्य
में रहो—जब तक।’
इस 'जब तक' का
क्या मतलब है?
मतलब यह है
कि जब तक तुम्हारा
विस्फोट न हो
जाए। मतलब यह
है कि तब तक
मध्य में रहो
जब तक मन की मृत्यु
न हो जाए। तब
तक मध्य में
रहो जब तक मन अ—मन
न हो जाए। अगर
मन अति पर है
तो अ—मन मध्य
में होगा।
लेकिन
मध्य में होना
संसार में
सबसे कठिन काम
है। दिखता तो
सरल है, दिखता तो यह
आसान है।
तुम्हें
लगेगा कि मैं
कर सकता हूं।
और तुम्हें यह
सोचकर लगेगा
कि
पश्चात्ताप
की कोई जरूरत
नहीं है।
लेकिन प्रयोग
करो। और तब
तुम्हें पता
चलेगा कि जब
तुम क्रोध करोगे
तो मन
पश्चात्ताप
करने पर जोर
देगा।
पति—पत्नियों
का झगड़ा सदा
से चलता आया
है। और सदियों
से महापुरुष
और सलाहकार
समझा रहे हैं
कि कैसे रहें
और प्रेम करें, और यह
झगड़ा जारी है।
पहली दफा
फ्रायड को इस
तथ्य का बोध
हुआ कि जब भी
तुम प्रेम, तथाकथित
प्रेम में
होओगे, तुम्हें
घृणा में भी
होना पड़ेगा।
सुबह प्रेम
करोगे और शाम
घृणा करोगे।
और इस तरह
पेंडुलम
हिलता रहेगा।
प्रत्येक पति—पत्नी
को इसका पता
है। लेकिन
फ्रायड की
अंतर्दृष्टि
बड़ी अदभुत है,
वह कहता है
कि अगर किसी
दंपति ने झगड़ा
बंद कर दिया
है तो समझो कि
उनका प्रेम मर
गया। घृणा और
लड़ाई के साथ
जो प्रेम है, वह मर गया।
इसलिए
अगर किसी जोड़े
को तुम देखो
कि वह कभी लड़ता
नहीं है तो यह
मत समझो कि यह
आदर्श जोड़ा है।
उसका इतना ही
अर्थ है कि यह
जोड़ा ही नहीं
है। वे समांतर
रह रहे हैं, लेकिन
साथ—साथ नहीं
रहते हैं। वे
समांतर
रेखाएं हैं जो
कहीं नहीं
मिलतीं, लड़ने
के लिए भी
नहीं। वे
दोनों साथ
रहकर भी अकेले—अकेले
हैं—अकेले—अकेले
और समांतर।
मन
विपरीत पर गति
करता है।
इसलिए अब
मनोविज्ञान
के पास
दंपतियों के
लिए बेहतर
निदान है—बेहतर
और गहरा। वह
कहता है कि
अगर तुम सचमुच
प्रेम—इसी मन
के साथ—करना
चाहते हो तो
लड़ने—झगड़ने से
मत डरो। सच तो
यह है कि
तुम्हें
प्रामाणिक
ढंग से लड़ना
चाहिए, ताकि तुम
प्रामाणिक
प्रेम के
दूसरे छोर को
प्राप्त कर
सको। इसलिए
अगर तुम अपनी
पत्नी से लड़
रहे हो तो
लड़ने से चूको
मत, अन्यथा
प्रेम से भी
चूक जाओगे।
झगड़े से बचो
मत, उसका
मौका आए तो
अंत तक लड़ो, तभी संध्या
आते—आते तुम
फिर प्रेम
करने योग्य हो
जाओगे, मन
तब तक शक्ति
जुटा लेगा।
सामान्य
प्रेम संघर्ष
के बिना नहीं
जी सकता, क्योंकि
उसमें मन की
गति संलग्न है।
सिर्फ वही
प्रेम संघर्ष
के बिना जीएगा
जो कि मन का
नहीं है।
लेकिन वह बात
ही और है।
बुद्ध का
प्रेम ही बात।’'
लेकिन
अगर बुद्ध
तुम्हें
प्रेम करें तो
तुम बहुत
अच्छा नहीं
महसूस करोगे।
क्यों?
क्योंकि
उसमें कुछ दोष
नहीं रहेगा।
वह मीठा ही
मीठा होगा और
उबाऊ होगा, क्योंकि
दोष तो झगड़े
से आता। बुद्ध
क्रोध नहीं कर
सकते, वे
केवल प्रेम कर
सकते है।
तुम्हें उनका
प्रेम पता
नहीं चलेगा, क्योंकि पता
तो विरोध में,
विपरीतता
में चलता है।
जब
बुद्ध बारह
वर्षों के बाद
अपने नगर वापस
आए तो उनकी
पत्नी उनके
स्वागत को
नहीं आई। सारा
नगर उनके
स्वागत के लिए
इकट्ठा हो गया, लेकिन
उनकी पत्नी
नहीं आई।
बुद्ध हंसे और
उन्होंने
अपने मुख्य
शिष्य आनंद से
कहा कि यशोधरा
नहीं आई, मैं
उसे भलीभांति
जानता हूं।
ऐसा लगता है
कि वह मुझे
अभी भी प्रेम
करती है। वह
मानिनी है, वह आहत
अनुभव करती है।
मैं तो सोचता
था कि बारह
वर्ष लंबा समय
है, वह अब
प्रेम में न
होगी। लेकिन
मालूम होता है
कि वह अब भी
प्रेम में है,
अब भी क्रोध
में है। वह
मुझे लेने
नहीं आई, मुझे
ही उसके पास
जाना होगा।
और
बुद्ध गए।
आनंद भी उनके
साथ था। आनंद
को एक वचन
दिया हुआ था।
जब आनंद ने
दीक्षा ली थी
तो उसने एक
शर्त रखी—और
बुद्ध ने मान
ली—कि मैं सदा
आपके साथ
रहूंगा। वह
बुद्ध का बड़ा
चचेरा भाई था, इसलिए
उन्हें मानना
पड़ा था। सो
आनंद राजमहल
तक उनके साथ
गया। वहां बुद्ध
ने उससे कहा
कि कम से कम यहां
तुम मेरे साथ
मत चलो, क्योंकि
यशोधरा बहुत
नाराज होगी।
मै बारह
वर्षों के बाद
लौट रहा हूं।
और उसे खबर
किए बिना मैं
यहां से भाग
निकला था, वह
अब भी नाराज
है, तो तुम
मेरे साथ मत
आओ। अन्यथा वह
समझेगी कि
मैंने उसे कुछ
कहने का भी अवसर
नहीं दिया। वह
बहुत कुछ कहना
चाह रही होगी।
तो उसे क्रोध
कर लेने दो, मेरे साथ मत
आओ।
बुद्ध
भीतर गए।
यशोधरा
ज्वालामुखी
बनी बैठी थी, वह फूट
पड़ी। वह रोने—चिल्लाने
लगी, बकने
लगी। बुद्ध
चुपचाप बैठे
सुनते रहे।
धीरे—धीरे वह
शात हुई और तब
वह समझी कि उस
बीच बुद्ध एक
शब्द भी नहीं
बोले हैं।
उसने अपनी आंखें
पोंछीं और
बुद्ध की ओर
देखा। बुद्ध
ने कहा कि मैं
यह कहने आया
हूं कि मुझे कुछ
मिला है, मैंने
कुछ जाना है, मैंने कुछ
उपलब्ध किया
है। अगर तुम
शात होओ तो
मैं तुम्हें
वह संदेश, वह
सत्य दूं जो
मुझे उपलब्ध
हुआ है। मैं
इतनी देर
इसलिए रुका
रहा कि
तुम्हारा
रेचन हो जाए।
बारह साल लंबा
समय है। तुमने
बहुत घाव
इकट्ठे किए
होंगे। और
तुम्हारा
क्रोध समझने
योग्य है।
मुझे इसकी
प्रतीक्षा थी।
उसका अर्थ है
कि तुम अब भी
मुझे प्रेम
करती हो।
लेकिन इस
प्रेम के पार
भी एक प्रेम
है, और उसी
प्रेम के कारण
मैं तुम्हें
कुछ कहने वापस
आया हूं।
लेकिन
यशोधरा उस
प्रेम को नहीं
समझ सकी। इसे
समझना कठिन है, क्योंकि
यह इतना शात
है। यह प्रेम
इतना शांत है
कि अनुपस्थित
सा लगता है।
जब मन
विसर्जित
होता है तो एक
और ही प्रेम
घटित होता है।
लेकिन उस
प्रेम का कोई
विपरीत पक्ष
नहीं है, विरोधी पक्ष
नहीं है। जब
मन विसर्जित
होता है तब जो
भी घटित होता
है उसका
विपरीत पक्ष
नहीं रहता। मन
के साथ सदा
उसका विपरीत
खड़ा रहता है, और मन एक
पेंडुलम की
भांति गति
करता है।
यह
सूत्र अदभुत
है, उससे
चमत्कार घटित
हो सकते हैं।
'मन को भूलकर
मध्य में रहो—जब
तक।'
इसे प्रयोग
में लाओ। और
यह सूत्र
तुम्हारे
पूरे जीवन के
लिए है। ऐसा
नहीं है कि उसका
अभ्यास यदा—कदा
कर लिया और
बात खतम हो गई।
तुम्हें
निरंतर इसका
बोध रखना होगा, होश रखना
होगा। काम
करते हुए, चलते
हुए, भोजन
करते हुए
संबंधों में,
सर्वत्र
मध्य में रहो।
प्रयोग करके
देखो और तुम
देखोगे कि एक
मौन, एक
शांति
तुम्हें
घेरने लगी है
और तुम्हारे भीतर
एक शांत
केंद्र
निर्मित हो
रहा है।
अगर
ठीक मध्य में
होने में सफल
न हो सको तो भी
मध्य में होने
की कोशिश करो।
धीरे— धीरे
तुम्हें मध्य
की अनुभूति
होने लगेगी।
जो भी हो, घृणा या
प्रेम, क्रोध
या
पश्चात्ताप, सदा ध्रुवीय
विपरीतताओ को
ध्यान में रखो
और उनके बीच
में रहो। और
देर—अबेर तुम
ठीक मध्य को
पा लोगे।
और एक
बार तुमने इसे
जान लिया तो
फिर तुम उसे नहीं
भूलोगे।
क्योंकि मध्य
बिंदु मन के
पार है। और वह
मध्य बिंदु
अध्यात्म का
सार—सूत्र है।
आज
इतना ही।
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