10
नवंबर 1970,
क्रास
मैदान, मुम्बई
प्रश्नसार :
आचार्य
श्री, षणमुखानंद हाल में हुए
एक प्रवचन में
आपने कहा है
कि हिंसा-वृत्ति
एक बीमारी है
और उसे उसके
समस्त रूपों
में पहचान
लेना अहिंसक
होने की पहली
शर्त है। तो
कृपया
हिंसा-वृत्ति
के
जीव-रासायनिक
(बायोकेमिकल)
तथा साइकिक
संरचना पर
प्रकाश डालें,
ताकि हिंसा
को हम अधिक
गहराई से पहचान
सकें।
मनुष्य
के लिए हिंसा
एक बीमारी है, लेकिन पशु
के लिए नहीं।
पशु के लिए
हिंसा स्वभाव
है। पशु के तल
पर अहिंसा की
कोई संभावना
नहीं है, इसलिए
हिंसा का उसे
कोई बोध भी
नहीं है।
हिंसा पशु के
लिए
स्वाभाविक
है--अहिंसा
असंभव है। मनुष्य
के लिए हिंसा
पशु से मिला
हुआ संस्कार
है। लेकिन
उसकी विकसित
चेतना के लिए
रोकने वाली
बीमारी है।
चेतना जैसे ही
विकसित होती
है, वैसे
ही उसका अतीत
भी उसके लिए
जंजीरें बन
जाता है। जो
विकासमान है,
उसके लिए
रोज ही उसका
"कल' बंधन
बन जाता है।
इसलिए
जिसे विकास
करना है, उसे
रोज अपने कल को
तोड़कर
आगे बढ़ जाना
पड़ता है। जो
अपने अतीत को
मिटाने के लिए
राजी नहीं है,
वह विकसित
होने से इनकार
कर रहा है।
मैं जो कल था, अगर आज भी
वही रहूं तो
मेरा आज
व्यर्थ गया।
और यदि मुझे
आज विकसित
होना है, तो
मेरे लिए कल
के पार जाने
के अतिरिक्त
और कोई मार्ग
नहीं है; द
पास्ट मस्ट
बी ट्रांसेंडेड।
वह जो अतीत है,
उसे
अतिक्रमण
करना ही होगा।
अतीत का
अतिक्रमण ही
विकास है।
मनुष्य
का अतीत है, उसकी पशुता;
उसका
भविष्य है, उसका
परमात्मा
होना। लेकिन
जो पशु को
अतिक्रमण न कर
पाये, तो
वह परमात्मा
के मंदिर में
प्रवेश भी
नहीं कर सकता।
और जिसे
भविष्य को
उपलब्ध करना
है, उसे
रोज अतीत के
प्रति मरना
होता
है--डाइंग टु द
पास्ट। और जो
अतीत के प्रति
नहीं मर पाता
है, वह
रुग्ण हो जाता
है, वह
बीमार हो जाता
है। वह
रुग्णता वैसी
ही है, जैसे
एक छोटे बच्चे
को पहनाये
गये कपड़े, और
वह बच्चा जवान
होने पर भी उन
कपड़ों को शरीर
से उतारने से
इनकार करे, तो शरीर
रुग्ण हो
जाये! शरीर के
विकसित होने के
साथ ही साथ
कपड़ों की
बदलाहट जरूरी
है। बच्चे के
कपड़े बच्चे के
लिए
स्वाभाविक, युवा के लिए
अस्वाभाविक, पीड़ादायी कारागृह बन
जाते हैं।
बच्चे की वे
रक्षा करते
रहे होंगे, जवानों के
लिए उन कपड़ों
से ही अपनी
रक्षा करनी
जरूरी हो जाती
है।
पशुता
मनुष्य का
अतीत है। हम
सभी उस यात्रा
से गुजरे हैं
जहां हम पशु
थे।
वैज्ञानिक भी
कहते हैं, और जो
आध्यात्मिक
हैं, वे भी
कहते हैं।
डार्विन ने तो
अभी-अभी थोड़े
ही समय पहले
ही घोषणा की
कि मनुष्य पशु
से आया है।
लेकिन महावीर
ने, बुद्ध
ने, कृष्ण
ने तो हजारों
वर्ष पहले यह
घोषणा की थी कि
मनुष्य की
आत्मा पशु से
विकसित हुई
है। मनुष्य की
पिछली कड़ी पशु
की थी। और
अगली कड़ी पर
कदम रखने के
पहले उसे
पिछली कड़ी को
तोड़ देना पड़ेगा।
मनुष्य
एक संक्रमण है; एक बीज का
सेतु है--जहां
से पशु
परमात्मा में
संक्रमित और
रूपांतरित
होता है।
लेकिन अतीत
बहुत वजनी
होता है, क्योंकि
परिचित होता
है। उससे
छूटना इतना आसान
नहीं है। उससे
मुक्त होना
इतना आसान
नहीं है।
क्योंकि ऐसा
मालूम होने
लगता है कि
हमारा अतीत ही
हम हैं। लाखों
साल बीत गये
जब कभी आदमी
गुहा- मानव था,
पहाड़ों की
कंदराओं में
रहता था--जहां
न आग थी, न
रोशनी का कोई
उपाय था--उस
वक्त रात के
अंधकार से जो
भय मनुष्य के
मन में समा
गया था, वह
आज भी उसका
पीछा कर रहा
है।
अब, न आज अंधकार
से कोई भय है, न अंधकार
किसी गुहा के
बाहर घिरा है,
न अंधकार
में जंगली पशु
आदमियों पर
हमला करेंगे।
लेकिन अंधकार
अभी भी भय का
कारण है!
लाखों-लाखों वर्ष
पहले मनुष्य
के मस्तिष्क
ने अंधकार से
जो भय का
संस्कार
अर्जित किया
था, वह
पीछा नहीं छोड़
रहा है, वह
उसके साथ ही
जुड़ा हुआ है।
यह उदारहण
के लिए मैंने
कहा।
हिंसा
भी मनुष्य का
पशु जीवन में
ग्रहण किया
गया संस्कार है।
पशु जी नहीं
सकता बिना
हिंसा के और
हम हिंसा के
साथ न जी
सकेंगे। पशु
नहीं जी सकता
बिना हिंसा के
और आदमी पैदा
ही नहीं होता
हिंसा के साथ।
इसलिए आदमी दस
हजार साल से
सिवाय लड़ने के
और कुछ भी
नहीं कर रहा
है; जी नहीं रहा
है, सिर्फ
लड़ रहा है।
अगर हम ऐसा
कहें कि आदमी
सिर्फ लड़ने के
लिए ही जी रहा
है, तो कोई
अतिशयोक्ति न
होगी।
पिछले
तीन हजार
वर्षों में
पंद्रह हजार
युद्ध लड़े गए।
और ये युद्ध
तो बड़े पैमाने
की बात है, चौबीस घंटे
भी हम लड़ रहे
हैं। चौबीस
घंटों में ऐसे
क्षण खोजने
कठिन हैं, जब
हम किसी तरह
की लड़ाई में
संलग्न न हों।
कभी हम धन के
लिए लड़ रहे
हैं। कभी हम
यश के लिए लड़
रहे हैं। कभी
हम पद के लिए
लड़ रहे हैं।
कभी हम शत्रुओं
से लड़ रहे
हैं। कभी
मित्रों से लड़
रहे हैं। और
हमारी लड़ाई
राजनीति बन
जाती है। और
कभी हम धन के
लिए लड़ रहे
हैं और हमारी
लोलुपता शोषण
बन जाती है।
और कभी हम
अकारण भी लड़
रहे हैं, क्योंकि
लड़ने की वह जो
आदत है, वह
मांग करती है
कि लड़ो।
एक
आदमी शिकार
करने जा रहा
है, वह अकारण
लड़ रहा है।
खेल में लड़
रहा है। अगर
कुछ न हो तो हम
ऐसे खेल
विकसित
करेंगे, जिनसे
लड़ने की
वृत्ति तृप्त
हो। हमारे सब
खेल लड़ने के
मिनिएचर हैं,
वह लड़ने के
छोटे-छोटे रूप
हैं। खेल
हमारी लड़ाइयां
हैं--व्यर्थ
की लड़ाइयां।
जहां कोई कारण
नहीं है। और
जब लड़ने के
लिए कोई कारण
न मिले, तो
भी हम अकारण
लड़ना
चाहेंगे। अगर
युद्ध में न
लड़ सकें, तो
शतरंज की गोटियां
बिठाकर युद्ध
करना
चाहेंगे।
शतरंज में भी
तलवारें खिच
जाती हैं, तो
बहुत आश्चर्य
नहीं है।
शतरंज भी, बहुत
गहरे में
दूसरे को
हराने की
आकांक्षा है,
और दूसरों
से लड़ने का रस
है।
हमारे
सारे खेल
युद्ध के रूप
हैं। या तो
ऐसा कहें कि
हमारे सारे
खेल युद्ध के
रूप हैं या ऐसा
भी कह सकते
हैं कि युद्ध
भी हमारा सबसे
भयंकर खेल है।
लेकिन आदमी लड़
रहा है।
जिन्हें हम
संबंध कहते
हैं, रिलेशनशिप
कहते हैं, वे
भी हमारी
लड़ाइयां हैं।
पति और पत्नी
को अगर कोई
मंगल ग्रह का
यात्री आकर
चौबीस घंटे
देखता रहे, तो वह यह न
मान सकेगा कि
ये दोनों आदमी
साथ रहने के
लिए राजी हुए
हैं। वह इतना
ही समझ पायेगा
कि ये दोनों
आदमी इस बात
के लिए राजी
हुए हैं कि हम
चौबीस घंटे
लड़ते रहेंगे।
शायद जिसे हम
परिवार कहते
हैं, वह उन
लोगों की
संस्था है, जिन्होंने
यह तय किया
हुआ है कि
लड़ेंगे भी और हटेंगे
भी नहीं! दूर
भी न होंगे!
जीवन
चारों तरफ
हिंसा है। यह
हिंसा रोग है
मनुष्य के
लिए। यह हिंसा
अब अनिवार्य
नहीं है, पशु
के लिए रही
होगी।
और साथ
में स्मरण
रखें, जैसे
ही विकास का
नया चरण उठाया
जाता है, नई
जिम्मेदारियों
और नए
दायित्वों
में भी चरण उठ
जाता है। एवरी
स्टेप आफ
इवोल्यूशन इज ए स्टेप
इन ग्रेटर
रिस्पांसिबिलिटी।
वह तो बड़े
दायित्व में
ले ही जायेगा।
जिस दिन से
पशु को छोड़कर
मनुष्य
मनुष्य हुआ है,
उसी दिन से
अहिंसा उसके
दायित्व का
हिस्सा हो गई।
क्योंकि
मनुष्य का फूल
खिल ही नहीं
सकता हिंसा के
बीच, वह
प्रेम के बीच
ही उसका पूरा
फूल खिल सकता
है। इसलिए
मैंने कहा कि
अहिंसा
स्वास्थ्य है,
हिंसा रोग
है। हिंसा से
बड़ा शायद और
कोई रोग नहीं
है।
और
हमारे
हजार-हजार रोग
शायद हिंसा से
ही पैदा होते
हैं। अगर
पागलखाने में
जायें तो सौ
पागलों में से
निन्यान्बे
पागल सिर्फ
इसलिए पागल
हुए मिलेंगे
कि साधारण
रहकर हिंसा
करनी उन्हें
असंभव हो गई
थी। हिंसा
करने के लिए
उन्हें पागल
होने की
स्वतंत्रता
जरूरी थी; इसलिए पागल
हो जाना पड़ा।
अगर हम अपने
मानसिक चिकित्सालयों
में जायें और
मानसिक
चिकित्सकों
से पूछें तो
पता चलेगा कि
वह भीतर
इकट्ठी हुई
हिंसा जब जोर
से एक्सप्लोड
हो जाती है, जब उसका
विस्फोट होता
है, तो मन
के सारे तंतु
बिखर जाते हैं
और आदमी विक्षिप्त
और रुग्ण हो
जाता है।
ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है जो
मानसिक रूप से
बीमार न हो।
मानसिक रूप से
जिन्हें हम नार्मल
कहते हैं, स्वस्थ कहते
हैं, उसका
केवल मतलब
इतना ही
है--उसका मतलब
स्वास्थ्य
नहीं है--उसका
इतना ही मतलब
है कि वह नार्मल
पागलपन है।
उसका कुल मतलब
इतना है कि
उतने पागल
बाकी लोग भी
हैं। वह एवरेज
पागलपन है।
जिसको हम पागल
कहते हैं, वह
एबनार्मल है।
वह जरा एवरेज
से आगे चला
गया है। उसने
जरा छलांग लगा
ली है। शायद
हम नब्बे
डिग्री पर उबलते
हुए पागल हैं,
और जिन्हें
हम पागल कहते
हैं, वे सौ
डिग्री पर भाप
बन गए पागल
हैं। हमारे उनके
बीच गुण का
कोई अंतर नहीं
है, मात्रा
का ही भेद है।
पागलखानों
में और पागलखानों
के बाहर जो
लोग हैं, उनके
बीच कदमों का
ही फासला है।
बड़ी दीवालें हम
कितनी ही उठायें
पागलखानों
के चारों तरफ,
इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता। हमारे
और पागलों के बीच
बहुत ही थोड़े
से कदमों का
फासला है। और
वह फासला भी
ऐसा नहीं है, जिसकी तरफ
हमारी पीठ हो।
वह फासला ऐसा
है, जिसकी
तरफ हमारा
मुंह है। और
वह फासला भी
ऐसा नहीं है
कि हम खड़े
हों। वह फासला
भी ऐसा है कि
हम प्रतिपल
उसकी तरफ बढ़
रहे हैं और
फासले को कम
कर रहे हैं।
जो
मनुष्य के मन
को देखने में
समर्थ हैं, वे कहते हैं
कि शायद पूरी
मनुष्यता
धीरे-धीरे एक
पागलखाना
होती जा रही
है। जिन्हें
हम शरीर के
रोग कहते हैं,
वे भी नब्बे
प्रतिशत से
ज्यादा मन के
रोगों से निर्मित
होते हैं और
शरीर तक फैलते
हैं। और मन का
बुनियादी रोग
हिंसा है।
हिंसा
का क्या मतलब
है, वह मैं
खयाल दे दूं, तो यह रोग
खयाल में आ
जाये।
हिंसा
का मतलब है
ऐसा चित्त, जो लड़ने को
आतुर है; ऐसा
चित्त, जिसका
रस लड़ने में
है; ऐसा
चित्त, जो
बिना लड़े
बेचैन हो जाएगा;
ऐसा चित्त,
जो बिना
किसी को चोट
पहुंचाए, बिना
किसी को दुख
पहुंचाए सुख
अनुभव न कर
सकेगा।
स्वभावतः
जो चित्त
दूसरे को दुख
पहुंचाने को आतुर
है, या जिस
चित्त का
दूसरे को दुख
पहुंचाना ही
एकमात्र सुख
बन गया है, ऐसा
चित्त सुखी
नहीं हो सकता।
ऐसा चित्त
भीतर गहरे में
दुखी होगा।
एक
बहुत गहरा
नियम है कि हम
दूसरे को वही
देते हैं जो
हमारे पास
होता है; अन्यथा
हम दे भी नहीं
सकते। जब मैं
दूसरे को दुख
देने को आतुर
होता हूं, तो
उसका इतना ही
अर्थ है कि
दुख मेरे भीतर
भरा है और उसे
मैं किसी पर
उलीच देना
चाहता हूं। जैसे,
बादल जब
पानी से भर
जाते हैं, तो
पानी को छोड़
देते हैं जमीन
पर; ऐसे ही,
जब हम दुख
से भीतर भर
जाते हैं, तो
हम दूसरों पर
दुख फेंकना
शुरू कर देते
हैं।
जो
कांटे हम
दूसरों को
चुभाना चाहते
हैं, उन्हें
पहले अपनी
आत्मा में
जन्माना होता
है; उन
कांटों को हम लाएंगे
कहां से? और
जो पीड़ाएं
हम दूसरों को
देना चाहते
हैं, उन्हें
जन्म देने की
प्रसव-पीड़ा
बहुत पहले स्वयं
को ही झेल
लेनी पड़ती है।
और जो अंधकार
हम दूसरों के
घरों तक
पहुंचाना
चाहते हैं, वह अपने
दीये को बुझाए
बिना
पहुंचाना
असंभव है।
अगर
मेरा दीया
जलता हो और
मैं आपके घर
अंधकार
पहुंचाने
जाऊं, तो
उलटा हो
जायेगा--मेरे
साथ आपके घर
में रोशनी ही पहुंचेगी,
अंधकार
नहीं पहुंच
सकता!
जो
व्यक्ति
हिंसा में
उत्सुक है, उसने अपने
साथ भी हिंसा
कर ली है--वह कर
चुका है हिंसा।
इसलिए एक
सूत्र और आपसे
कहना चाहूंगा,
और वह यह कि
हिंसा
आत्महिंसा का विकास
है। भीतर जब
हम अपने साथ
हिंसा कर रहे
होते हैं, तब
वही हिंसा ओवरफ्लो
होकर, बाढ़
की तरह फैलकर,
किनारे तोड़कर
स्वयं से
दूसरे तक
पहुंच जाती
है। इसलिए
हिंसक कभी भी
स्वस्थ नहीं
हो सकता, भीतर
अस्वस्थ होगा
ही। उसके भीतर
हार्मनी, सामंजस्य,
संतुलन, संगीत
नहीं हो सकता।
उसके भीतर विसंगीत,
द्वंद्व, कान्फ्लिक्ट,
संघर्ष
होगा ही। वह
अनिवार्यता
है। जो दूसरे के
साथ हिंसा
करना चाहता है,
उसे अपने
साथ बहुत पहले
हिंसा कर ही
लेनी पड़ेगी।
वह पूर्व
तैयारी है।
इसलिए, हिंसा मेरे
लिए
अंतर्द्वंद्व
है। दूसरे पर
फैलकर दूसरों
का दुख बनती
है और अपने
भीतर जब उसका
बीज अंकुरित
होता है और
फैलता है, तो
स्वयं के लिए
द्वंद्व और
अंतर-संघर्ष,
और
अंतर-पीड़ा
बनती है।
हिंसा
अंतर-संघर्ष,
अंतर-असामंजस्य,
अंतर-
विग्रह, अंतर-कलह
की स्थिति है।
हिंसा दूसरे
से बाद में लड़ती
है, पहले
स्वयं से ही लड़ती और
बढ़ती है।
प्रत्येक
हिंसक
व्यक्ति अपने
से लड़ रहा है।
और जो
अपने से लड़
रहा है, वह
स्वस्थ नहीं
हो सकता।
स्वस्थ का
अर्थ ही है, हार्मनी।
स्वस्थ का
अर्थ है, जो
अपने भीतर एक
समस्वरता को,
एकरसता को,
एक
लयबद्धता को,
एक रिदम
को उपलब्ध हो
गया है।
महावीर
या बुद्ध के
चेहरों पर
संगीत की जो
छाप है, वह
वीणा लिए बैठे
संगीतज्ञों
के चेहरों पर
भी नहीं है।
वह महावीर के
वीणा-रहित
हाथों में है।
वह संगीत किसी
वीणा से पैदा
होने वाला
संगीत नहीं, वह भीतर की
आत्मा से फैला
हुआ समस्वरता
का बाहर तक
बिखर जाना है।
बुद्ध के चलने
में वह जो
लयबद्धता
है--वह जो
बुद्ध के उठने
और बैठने
में--वह जो
बुद्ध की
आंखों में एक
समस्वरता है,
वह
समस्वरता
किन्हीं कड़ियों
के बीच बंधे
हुए गीत की
नहीं, किन्हीं
वाद्यों पर
पैदा किये गये
स्वरों की नहीं--वह
आत्मा के भीतर
से सब द्वंद्व
के विसर्जन से
उत्पन्न हुई
है।
अहिंसा
एक अंतर-संगीत
है। और जब
भीतर प्राण संगीत
से भर जाते
हैं, तो जीवन
स्वास्थ्य से
भर जाता है; और जब भीतर
प्राण विसंगीत
से भर जाते
हैं, तो
जीवन रुग्णता
से, डिसीज
से भर जाता
है।
यह
अंग्रेजी का
शब्द "डिसीज' बहुत
महत्वपूर्ण
है। वह डिस
ईज़ से बना
है। जब भीतर
विश्राम खो
जाता है, ईज़ खो
जाती है; जब
भीतर सब
संतुलन डगमगा
जाते हैं, और
सब लयें
टूट जाती हैं,
और काव्य की
सब कड़ियां
बिखर जाती हैं,
और सितार के
सब तार टूट
जाते हैं, तब
भीतर जो
स्थिति होती
है, वह
डिसीज है। और
जब भीतर कोई
चित्त रुग्ण
हो जाता है, तो शरीर
बहुत दिन तक
स्वस्थ नहीं
रह सकता है।
शरीर छाया की
तरह प्राणों
का अनुगमन
करता है।
इसलिए
मैंने कहा कि
हिंसा एक रोग
है, एक डिसीज
है; और
अहिंसा
रोगमुक्ति है,
और अहिंसा
स्वास्थ्य
है।
जैसे
मैंने कहा, अंग्रेजी का
शब्द डिसीज
महत्वपूर्ण
है, वैसा
हिंदी का शब्द
"स्वास्थ्य' महत्वपूर्ण
है।
स्वास्थ्य का
मतलब सिर्फ हेल्थ
नहीं होता, जैसे डिसीज
का मतलब सिर्फ
बीमारी नहीं
होती। स्वास्थ्य
का मतलब होता
है: स्वयं में
जो स्थित हो
गया है। स्वयं
में जो ठहर
गया है। स्वयं
में जो खड़ा हो
गया है। स्वयं
में जो लीन हो
गया है और डूब
गया है। स्वयं
हो गया है जो।
जो अपनी
स्वयंता को
उपलब्ध हो गया
है। जहां अब
कोई परता नहीं,
कोई दूसरा
नहीं कि जिससे
संघर्ष भी हो
सके; कोई
भिन्न स्वर
नहीं, सब
स्वर स्वयं बन
गए--ऐसी
स्थिति का नाम
"स्वास्थ्य' है।
अहिंसा
इस अर्थ में
स्वास्थ्य है, हिंसा रोग
है।
और
पूछा है कि बायोकेमिकली, जीव-रसायन
की दृष्टि से
मैं क्या कहना
चाहूंगा।
जीव-रसायन
की दृष्टि से
भी, बायोकेमिकल दृष्टि से
भी हिंसा
रुग्णता है।
जैसे ही चित्त
हिंसा से भरता
है, शरीर
विषाक्त
द्रव्यों से
भर जाता है।
जैसे ही चित्त
हिंसा से भरता
है, वैसे
ही सारे शरीर
में विषयुक्त
द्रव्य दौड़ने
शुरू हो जाते
हैं। शरीर में
ग्रंथियां
हैं जो पायज़न
को इकट्ठा
करती हैं, शरीर
में
ग्रंथियां
हैं जो जहरों
को अर्जित
करके इकट्ठा
रखती हैं, समय
पर जरूरत पड़े,
उसकी
सुरक्षा में।
जब आप
क्रोध से भरते
हैं, तो आपके
पास वही खून
नहीं रह जाता,
जो क्रोध के
पहले था। आपका
खून पायजन्ड
हो जाता है।
आपके खून में
वे ग्रंथियां
उन जहरों
को छोड़ देती
हैं, जो
आपको लड़ने और
मरने का
पागलपन दे
सकें। इसलिए
क्रोध की हालत
में आप इतना
बड़ा पत्थर उठा
सकते हैं, जो
आपने अक्रोध
की हालत में
कभी नहीं
उठाया था--नहीं
उठा सकते थे।
क्रोध की
स्थिति में आप
अपने से ताकतवर
आदमी को उठाकर
फेंक सकते हैं,
जो कि आप
शांत स्थिति
में कभी सोच
भी नहीं सकते
थे। आपके शरीर
में केमिकल
परिवर्तन हो
गए। आपका शरीर
वही नहीं है।
शरीर ने
इकट्ठे किए
हुए विष छोड़
दिए खून में।
अब आप होश में
नहीं हैं।
क्रोध टेम्पररी मैडनेस
है। क्रोध
अस्थायी
पागलपन है। और
इसलिए आदमी क्रोध
में ऐसे काम
कर लेता है, जो उसने
स्वयं कभी भी
न किए होते।
इसलिए क्रोध
में आदमियों
ने हत्याएं
की हैं और
पीछे जीवन भर रोए हैं, पछताए हैं। और
जिंदगी भर कहा
है कि यह
मैंने कैसे कर
लिया? यह
मेरे बावजूद
हो गया। यह
मैंने नहीं
किया। यह कैसे
हो गया?
क्रोध
में हम सब ने
वह किया है, जो हमने
करना नहीं
चाहा था। फिर
वह किसने किया
है? निश्चित
किया हमने ही
है, लेकिन
वैसे ही किया
है जैसे शराब
पीकर कोई कर लेता
है। लेकिन यह
शराब हमारे
खून में भीतरी
स्रोतों से आती
है, इसलिए
पता नहीं चलता;
शराब हम
बाहर की
बोतलों से ले
जाते हैं तो
पता चल जाता
है, यह
शराब भीतरी
स्रोतों से
आती है तो पता
नहीं चलता।
मनुष्य
के शरीर ने
लाखों-करोड़ों
वर्षों की यात्रा
में विषग्रंथियां
इकट्ठी की हैं
जो कि
इमरजेंसी के
लिए जरूरी रही
हैं; जब वह
जानवर था, पशु
था, तब
बहुत जरूरी
रही हैं। एक
शेर हमला कर
दे किसी पर, तो उसके पास
दौड़ने की
अमानवीय
क्षमता
तत्काल पैदा
होनी चाहिए।
ऐसा नहीं कि
वह दौड़ने का
अब अभ्यास
करेगा, और
दौड़ना सीखेगा,
और तब भाग
सकेगा। नहीं,
यह
इमरजेंसी है,
तत्काल
उसके शरीर में
इतना पागलपन आ
जाना चाहिए कि
वह होश छोड़कर
भाग सके। क्योंकि
अगर होश रखा
तो शायद बचना
मुश्किल होगा।
इसलिए शरीर ने
लाखों वर्षों
की यात्रा में
विषग्रंथियां
विकसित की हैं,
जो कि
इमरजेंसी की
हालत में खून
में तत्काल, आटोमेटिकली छूट जाती
हैं, और आप
विक्षिप्त
होकर दौड़ सकते
हैं।
भय में
आदमी कांप रहा
है। यह कंपन
रासायनिक परिवर्तन
है। काम की
वृत्ति से
पीड़ित हुए
आदमी के भीतर
अनेक तरह के
रासायनिक
परिवर्तन हो
जाते हैं। अगर
जानवरों को
काम की, सेक्स
की
उन्माद-स्थिति
में देखें तो
एक अनुभव होगा,
जो कुछ
मनुष्यों में
अभी भी शेष
है। उनके शरीर
से विभिन्न
प्रकार की दुर्गंधें
या गंधें
निकलनी शुरू
हो जाती हैं।
असल में पशु
पहचानते ही तब
हैं कि उनकी
मादा तत्पर है
संभोग के लिए,
जब एक विशेष
गंध उसके शरीर
से निकलनी
शुरू हो जाती
है। संभोग के
क्षण में
मनुष्य के
शरीर से भी, स्त्रियों
के शरीर से भी विशेष
गंधें निकलनी
शुरू हो जाती
हैं। क्योंकि
शरीर एक
रासायनिक
परिवर्तन से
गुजर रहा है।
मनुष्य
के चित्त में
जो होता है, तत्काल उसके
शरीर की
केमिस्ट्री
उसका पीछा करती
है। जब आप
भोजन लेते हैं,
तब आपका
शरीर उन
द्रव्यों को
छोड़ देता है, जो भोजन के
पचाने के लिए
जरूरी हैं। और
जब आप हिंसा
से भरते हैं, तो शरीर उन
द्रव्यों को
छोड़ देता है, जो हिंसा
करने में
सहयोगी हो
सकते हैं।
इसलिए
हिंसा केवल
मानसिक तथ्य
नहीं है, बायोकेमिकल तथ्य भी है।
लेकिन, रासायनिक
तत्व भी है, जब मैं यह
कहता हूं, तो
मैं यह नहीं
कहता हूं कि
केवल
रासायनिक तत्व
है। वैसा कहनेवाले
रसायनविद भी
आज मौजूद हैं,
जो कहते हैं
कि अब आदमी को
अहिंसा की
शिक्षा देने
की कोई जरूरत
नहीं। हम कुछ
ग्रंथियों को
काटकर अलग कर
देते हैं, फिर
आदमी हिंसा
करने में
असमर्थ हो
जायेगा! वे
ठीक कहते हैं
थोड़ी दूर तक; लेकिन वे जो
सुझाव दे रहे
हैं, वे
हिंसा करने से
भी खतरनाक
सुझाव हैं। यह
संभव है कि हम
आदमियों की
कुछ
ग्रंथियों को
काट दें!
हमने
देखा है एक
बैल को भी और
एक सांड़
को भी। बैल और सांड़ में
सिर्फ एक
ग्रंथि के कट
जाने के फर्क
के अतिरिक्त
और कुछ भी नहीं
है। लेकिन
कहां बैल की
दीनता और कहां
सांड़ का
गौरव! बैल की
आत्मा विकसित
नहीं हुई, सिर्फ शरीर
दीन हो गया
है।
आदमी
के शरीर से भी
आज नहीं कल
वैज्ञानिक उन
ग्रंथियों को
अलग करने का
सुझाव
देगा--दे रहा है--दिया
जा चुका है; और कोई
आश्चर्य नहीं
है कि चीन और
रूस की
तानाशाही
सरकारें उस
सुझाव पर बहुत
जल्दी अमल भी
शुरू कर दें!
आदमी
के शरीर से भी
कुछ
ग्रंथियां
काटी जा सकती
हैं, तब वह
हिंसा प्रकट
नहीं कर
सकेगा--लेकिन
अहिंसक नहीं
हो जायेगा। ये
दोनों अलग
बातें हैं। तब
वह शरीर से
सिर्फ दीन हो
जायेगा। वह
वैसा ही होगा,
जैसे एक
बूढ़ा आदमी
कामवासना से
तो पीड़ित होता
है, लेकिन
काम की दुनिया
में प्रवेश
करने में असमर्थ
हो जाता है।
नहीं, वह आदमी का
विकास नहीं
होगा। और वैसा
आदमी जिस दिन
हम पैदा कर
लेंगे, वैसा
आदमी विद्रोह
नहीं करेगा, बगावत नहीं
करेगा।
गुलामी उसकी
आत्मा बन जायेगी।
वह नान रिबेलियस
हो जाएगा।
सरकारें जरूर
चाहेंगी कि
आदमी को रासायनिक
ढंग से
गैर-हिंसक
बनाया जा सके।
बनाया जा सकता
है; लेकिन
उससे आदमी पशु
से भी नीचे
गिर जायेगा, आदमी से ऊपर
नहीं जा सकता
है।
इसलिए
यह भी मैं
आपसे कहना
चाहूंगा इस
संदर्भ में, कि आदमी को
बहुत जल्दी सारी
दुनिया में
इसके खिलाफ भी
आवाज उठानी
पड़ेगी--कि जीव
रसायनविद जो
सुझाव दे रहे
हैं, वे
मनुष्य की
आत्मा के बहुत
विपरीत और
खतरनाक हैं।
उन सुझावों से
ज्यादा बड़ी
गुलामी न तो
कभी आई थी न
कभी आ सकती
है।
एक बड़ी
केमिकल-रिवोल्यूशन, एक
रासायनिक-क्रांति
निकट है। उसके
प्राथमिक चरण
पर काम होना
शुरू हो गया
है। मैं
कहूंगा कि
निश्चित ही
हिंसा के लिए
शरीर में कुछ
तत्व जरूरी
हैं। लेकिन उन
तत्वों के अलग
होने से आदमी
की आत्मा
अहिंसक नहीं
होती, सिर्फ
इंपोटेंटली
वायलेंट
रह जाती है; सिर्फ
नपुंसक रूप से
हिंसक रह जाती
है। हिंसा तो
भीतर घुमड़ेगी;
आत्मा में
डिसीज होगी; आत्मा संगीतरहित
होगी, लेकिन
उस संगीतरहितता
को दूसरे तक
पहुंचाने के
लिए शरीर
असमर्थ हो जायेगा।
तब दूसरे तक
पहुंचने की
असमर्थता हो जायेगी।
हम यह बल्ब
तोड़ दे सकते
हैं, लेकिन
बल्ब के तोड़ने
से उसमें बहनेवाली
बिजली नहीं
टूट जाती, लेकिन
दिखाई पड़नी
बंद हो जाती
है। बल्ब से
बिजली प्रकट
होती है, पर
बल्ब बिजली
नहीं है।
ग्रंथियों से
शरीर की हिंसा
प्रकट होती है,
पर
ग्रंथियां
हिंसा नहीं
हैं।
और
दूसरा भी खयाल
ले लेना जरूरी
है कि जब व्यक्ति
के चित्त से
हिंसा विदा हो
जाती है, तो
ये ग्रंथियां
जिन्होंने
हिंसा को
सहयोग दिया था;
ये
ग्रंथियां
जिनके विष और
मादक- तत्व
फैलकर मनुष्य
को विक्षिप्त
करते रहे थे; इनके
संग्रहीत-स्रोत
मनुष्य के
जीवन में नई तरह
की रासायनिक
क्रांति लानी
शुरू कर देते
हैं।
महावीर
के संबंध में
कहा जाता है
कि उनके पसीने
से दुर्गंध
नहीं आती थी।
यह बात कहानी
मालूम होगी।
लेकिन बहुत
अवैज्ञानिक
बात नहीं है।
यह संभव है।
महावीर के
शरीर से सुगंध
आती रही हो, न आती रही हो;
लेकिन आज
नहीं कल
मनुष्य के
शरीर से सुगंध
आ सकती है।
क्योंकि जहां
से भी दुर्गंध
आ सकती है, वहां
से सुगंध आ
सकती है। सब सुगंधें, दुर्गंधों
का रूपांतरण
हैं--इसके
अतिरिक्त और
कुछ भी नहीं।
खाद डाल देते
हैं बगीचे
में, और
फूल सुगंधों
से भर जाते
हैं। और आज
हजारों तरह की
जो सुगंधें
बाजार में
बिकती हैं, अगर उनके
बनाने के
कारखाने में
जायें तो पता
चलेगा कि
सुगंध, दुर्गंध
का ही
रूपांतरण है।
अगर
शरीर दुर्गंध
फेंक सकता है
विशेष स्थितियों
में, तो कोई
कारण नहीं
मालूम होता कि
विशेष स्थितियों
में सुगंध
क्यों नहीं
फेंक सकेगा!
मैं आपको कहता
हूं कि महावीर
की कथा, कथा
नहीं है। शरीर
ने सुगंध बहुत
बार फेंकी है,
आज भी फेंक
सकता है। अगर
चित्त पूरा
रूपांतरित हो
जाये और शरीर
में इकट्ठे ये
जो विषाक्त
संग्रह हैं, अगर इनका
उपयोग बंद हो
जाये; ये
बढ़ते चले
जायें और इनका
उपयोग बंद हो
जाये, तो
एक बड़ी मजे की
घटना घटती है,
क्वांटिटेटिव चेंज टर्न्स
इनटू क्वालिटेटिव
चेंज। जैसे ही
परिमाण का अंतर
पड़ता है, वैसे
ही गुण का
अंतर शुरू हो
जाता है। निन्यान्बे
डिग्री और सौ
डिग्री में
कोई फर्क नहीं
है, सिर्फ
मात्रा का
फर्क है।
लेकिन निन्यान्बे
डिग्री तक
पानी पानी
होता है, सौ
डिग्री पर भाप
बन जाता है।
फर्क क्वांटिटी
का है, लेकिन
अंततः
क्वालिटी का
हो जाता है।
सब क्वालिटेटिव
चेंज, सब
गुणात्मक
परिवर्तन
मूलतः मात्रा
के परिवर्तन
हैं। अगर शरीर
में ये जो
विषाक्त
द्रव्य अब तक
दुर्गंध
फैलाने का काम
करते रहे हैं,
यदि एक
मात्रा से
ज्यादा
मात्रा में
इकट्ठे हो
जायें, तो
रूपांतरित हो
जाते हैं, और
शरीर से सुगंध
फैलनी शुरू हो
जाती है।
अहिंसा
की अपनी सुगंध
है; हिंसा की
अपनी दुर्गंध
है। प्रेम की
अपनी सुगंध है;
काम की अपनी
दुर्गंध है।
सत्य की अपनी
सुगंध है; असत्य
की अपनी
दुर्गंध है।
इसलिए मैं बायोकेमिकली
आदमी को
अहिंसक बनाने
के पक्ष में
नहीं हूं। आध्यात्मिक
अर्थों में
मनुष्य अहिंसक
बने, तो
उसकी
बायोलाजी भी
और उसकी बाडी
केमिस्ट्री
भी रूपांतरित
होती है और
जिनसे सदा
दुर्गंध मिली
थी, उनसे
सुगंध की सौरभ
भी फैलनी शुरू
हो जाती है।
एक
और बात पूछी
है। पूछा है
कि साइकिक एनोटामी, मनस-संरचना
की दृष्टि से
हिंसा को रोग
कहने का क्या
अर्थ हो सकता
है?
मानसिक
संरचना की
दृष्टि से
हिंसा, मन
का खंड-खंड
में टूट जाना
है; डिसइंटीग्र्रेशन है। अहिंसा,
इंटीग्रेशन है; मन का
अखंड हो जाना
है।
हमारे
पास भी मन है, लेकिन शायद
एक वचन में
बोलना ठीक
नहीं है। कहना
चाहिए, हमारे
पास मन हैं--मन
है नहीं। हम
पोली साइकिक
हैं, यूनी साइकिक
नहीं। हमारे
पास एक मन
नहीं है, हमारे
पास बहु-मन
हैं। एक-एक
आदमी के पास
बहुतेरे मन
हैं।
साधारणतः
हम सोचते हैं
कि एक ही मन है
हमारे पास, गलत सोचते
हैं। अभी तो
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, जुंग
कहता है और
दूसरे
मनोवैज्ञानिक
भी कहते हैं
कि मनुष्य
पोली साइकिक
है, बहुचित्तवान है। लेकिन
यह जानकर
हैरानी होगी
कि महावीर ने बहुचित्तता
का पहली बार
प्रयोग किया
था पच्चीस सौ
साल पहले।
महावीर ने कहा
था, मनुष्य
बहुचित्तवान
है, पोली
साइकिक है।
एक
चित्त नहीं है
आदमी के भीतर, बहुत चित्त
हैं। इसीलिए
तो सांझ आप तय
करते हैं कि
कल क्रोध नहीं
करूंगा और कल
क्रोध करते
हैं। आप सोचते
हैं, मैं
कैसा हूं? कल
मैंने तय किया
और आज फिर
क्रोध करता
हूं! संध्या
पछताता हूं, सुबह फिर
क्रोध करता
हूं!
आदमी
रोज नई-नई
भूलें नहीं
करता, वही-वही
भूलें बार-बार
करता है जिनके
लिए हजार बार
पछता चुका है,
पश्चात्ताप
कर चुका है।
कारण क्या है?
असल में, जो चित्त
क्रोध करता है
और जो चित्त
निर्णय करता
है, वे दो
चित्त हैं।
उन्हें एक
दूसरे की खबर
भी नहीं मिलती
है। उनके बीच
कम्यूनिकेशन
भी नहीं है।
जब आप
तय करते हैं
कि अब मैं
क्रोध नहीं
करूंगा, तो
यह चित का एक
खंड है जो तय
कर रहा है।
समझ लें "अ' तय कर रहा है,
और कल सुबह
जब उठकर पत्नी
पर आप टूट
पड़ते हैं, तो
यह "ब' क्रोध
कर रहा है। "ब'
के हटते ही
"अ' फिर लौट
आता है और
पश्चात्ताप
करता है कि तय
किया था, क्रोध
नहीं करूंगा,
फिर क्रोध
क्यों किया? फिर सांझ को
पैर पर जरा
जूता लग जाता
है किसी का, बस "ब' सामने
आ जाता है और
फिर क्रोध
प्रगट करता है,
"अ' पीछे
हट जाता है।
जैसे कि
साइकिल के
चक्के पर स्पोक
ऊपर-नीचे
घूमते रहते
हैं, ऐसे
ही प्रतिपल
आपके भीतर चित्तों
का परिवर्तन
होता रहता है।
क्योंकि बहुत
चित्त हैं
आपके भीतर।
गुरजिएफ
कहा करता था
कि मैंने एक
ऐसे घर के संबंध
में सुना है, जिसका मालिक
कहीं दूर
यात्रा पर गया
था; बहुत
बड़ा भवन था, बहुत नौकर
थे। वर्षों
बीत गए, मालिक
की खबर नहीं
मिली। मालिक
लौटा भी नहीं,
संदेश भी
नहीं आया।
धीरे-धीरे
नौकर यह भूल
ही गए कि कोई
मालिक था भी।
भूलना भी
चाहते हैं
नौकर कि कोई
मालिक है, वे
भी भूल गये! जब
कभी कोई
यात्री उस महल
के सामने से
गुजरता और कोई
नौकर सामने
मिल जाता, तो
वह उससे पूछता,
कौन है इस
भवन का मालिक?
तो वह नौकर
कहता, मैं।
लेकिन आस-पास
के लोग बड़ी
मुश्किल में
पड़े, क्योंकि
कभी द्वार पर कोई
और मिलता और
कभी कोई, बहुत
नौकर थे और
हरेक कहता कि
मालिक मैं
हूं। जब भी
कोई पूछता कि
कौन है मालिक
इस भवन का? तो
नौकर कहता, मैं। जो मिल
जाता वही कहता,
मैं। आस-पास
के लोग बड़े
चिंतित हुए कि
कितने मालिक
हैं इस भवन के!
फिर एक
दिन गांव के
सारे लोग
इकट्ठे हुए और
उन्होंने पता
लगाया, और
सारे घर के
नौकर इकट्ठे
किये तो मालूम
हुआ कि वहां
कई मालिक थे।
तब बड़ी कठिनाई
खड़ी हुई, सभी
नौकर लड़ने
लगे। सभी कहने
लगे, मालिक
मैं हूं! और जब
बात बहुत बढ़
गई तब किसी एक बूढ़े
नौकर ने कहा, क्षमा करें,
हम व्यर्थ
विवाद में पड़े
हैं। मालिक घर
के बाहर गया
है और हम सब
नौकर हैं।
मालिक लौटा
नहीं बहुत दिन
हो गए, और
हम भूल गए। और
अब कोई जरूरत
भी नहीं रही
याद रखने की, क्योंकि
शायद वह कभी
लौटेगा भी
नहीं।
फिर
मालिक एक दिन
लौट आया। तो
उस घर के
पच्चीस मालिक
तत्काल विदा
हो गए--वे
तत्काल नौकर
हो गए!
गुरजिएफ
कहा करता था, यह आदमी के
चित्त की
कहानी है।
जब तक
भीतर की आत्मा
जागती नहीं, तब तक चित्त
का एक-एक
टुकड़ा, एक-एक
नौकर कहता है,
मैं हूं
मालिक। जब
क्रोध
करनेवाला
टुकड़ा सामने
होता है, तो
वह कहता है, मैं हूं
मालिक। और वह
मालिक बन जाता
है कुछ देर के
लिए और पूरा
शरीर उसके
पीछे चलता है।
शरीर को कुछ
पता नहीं है।
वह मालिक के
पीछे चलता है।
फिर पश्चात्ताप
करने वाला आ
जाता है और वह
कहता है, मैं
हूं मालिक। और
तब शरीर रोता
है। वही शरीर जिसने
तलवार उठा ली
थी, वही
आंसू बहाता
है। उसको कुछ
भी पता नहीं, वह किसी भी
मालिक का
अनुगमन करता
है। जो भी जोर
से कहता है, आई एम द
मास्टर--शरीर
तत्काल उसके
पीछे खड़ा हो जाता
है। वही मन
कहता है, ब्रह्मचर्य,
तो शरीर
कहता है, बड़ी
पवित्र बात है,
तैयार हूं।
दूसरा खंड
कहता है, भोग,
तो मन कहता
है, बिलकुल
राजी हूं। मैं
तो मालिक के
पीछे चलता हूं।
पोली-साइकिक
है आदमी।
साइकिक
संरचना, उसकी
जो मनस की
संरचना है, वह कई खंडों
की है। मन
बहुत खंडों
में बंटा है।
और जब तक बंटा
रहेगा, जब
तक अखंड आत्मा
बीच में जाग न
जाये...हिंसा
इन खंडों की
आपस की लड़ाई
है; इन
नौकरों के
सबके अपने
दावों की, कि
मैं मालिक
हूं। ये अगर
आमने-सामने पड़
जाते हैं तो
मन बड़े
द्वंद्व में
पड़ जाता है।
मन चौबीस घंटे
लड़ता रहता है
कि मालिक कौन
है? और ये
जो मन के लड़ते
हुए खंड हैं, इनकी लड़ाई
से जो द्वंद्व
और जो पीड़ा और
दुख पैदा होता
है, वही
आदमी दूसरों
से भी लड़कर
निपटाता रहता
है।
यह
बहुत मजे की
बात है कि
अक्सर हम अपनी
लड़ाई को बाहर
प्रोजेक्ट करते
हैं, प्रक्षेप
करते हैं!
आपके भीतर एक
चोर है। आप उस
चोर से लड़ रहे
हैं। आप उसको
दबाए हुए हैं
कि चोरी न
करने देंगे।
अगर आपके पड़ोस
में चोरी हो जाये
और चोर पकड़
लिया जाये, तो आप सबसे
ज्यादा उस चोर
की पिटाई
करेंगे।
क्योंकि आप
अपने भीतर एक
चोर को दबाए
हुए हैं, जिसकी
पिटाई आपने
बहुत बार करनी
चाही है, लेकिन
कर नहीं पाये
हैं। अब, जब
एक चोर बाहर
मिल गया है, तो आपके
भीतर का चोर
प्रोजेक्ट हो
जायेगा और आप
उसकी पिटाई
करेंगे।
चोर की
पिटाई के लिए
चोर जरूरी है।
कोई साधु चोर
की पिटाई नहीं
कर सकता है; क्योंकि प्रोजेक्शन
का उपाय नहीं।
इसलिए जितने
चोर हैं, वे
चोरों के
खिलाफ दिन-रात
बातचीत करते
रहेंगे; जितने
बदमाश हैं, वे बदमाशों
की निंदा करते
रहेंगे; जितने
कामातुर हैं,
वे काम की
निंदा करते
रहेंगे। जो
भीतर भरा है, हम उसे बाहर
प्रोजेक्ट
करते हैं।
बर्टें्रड
रसेल ने कहीं
कहा है, कि
जब कोई आदमी
बहुत जोर से
चिल्लाये कि
वह जा रहा है
चोर, पकड़ो,
पकड़ो, चोरी
हो गई, बहुत
बुरा हो गया, तो पहले उस
आदमी को पकड़
लेना; क्योंकि
यह आदमी आज
नहीं तो कल
चोरी करेगा।
हम
अक्सर अपनी
बीमारियों को, अपने चित्त
के रोगों को
दूसरे पर
आरोपित कर
लेते हैं।
इसलिए अक्सर
ऐसा होता है
कि अगर एक
आदमी किसी
दूसरे आदमी की
निंदा करता हो,
तो जिसकी
निंदा करता है
उसके संबंध
में बहुत कुछ
नहीं बता पाता
है, अपने
संबंध में
बहुत कुछ बता
देता है। उसकी
निंदा खबर
देती है कि वह
क्या
प्रोजेक्ट कर
रहा है। उसके
भीतर कोई लड़ाई
जारी है, जिस
लड़ाई को वह
किसी पर रोप
देता है। अगर
भीतर कोई लड़ाई
जारी न रहे, तो बाहर रोपने
का उपाय बंद
हो जाता है।
बाहर कोई उपाय
नहीं है रोपने
का।
मनुष्य
का चित्त
खंडित है। यह
उसकी कुंठा का
जन्म है। और
मनुष्य का
चित्त यदि
अहिंसक होने
लगे, तो अखंड
होगा, एक
हो जायेगा। और
जब चित्त एक
हो जाता है, उसमें जब
भिन्न स्वर
नहीं रह जाते
हैं, तो
मनुष्य के
जीवन में जो
आनंद का नृत्य
शुरू होता है,
जो आनंद की
बांसुरी बजती
है, उसी
बांसुरी के
रास्ते लोग
परमात्मा तक
पहुंच जाते
हैं। किसी और
रास्ते से न
पहुंचे हैं, न पहुंच
सकते हैं।
आचार्य
श्री, इसी
सिलसिले में
आगे एक
छोटा-सा
प्रश्न है कि हिंसा
की स्थिति में
और अहिंसा की
स्थिति में जीवन-ऊर्जा,
लाइफ फोर्स
की अवस्था में
क्या फर्क हो
जाता है?
पहाड़ों
से बहता हुआ
पानी भागता है
नीचे की तरफ; खड्ड खोजता है,
खाई खोजता
है, झील
खोजता है; पानी
अधोगमन करता
है, नीचे
की तरफ भागता
है। फिर यही
पानी उत्तप्त
होकर भाप बन
जाता है। तब
आकाश की तरफ
दौड़ने लगता
है। यही पानी ऊंचाइयां
खोजने लगता है,
बादलों की
छातियों पर
सवार होने
लगता है, सूरज
की यात्रा
करने लगता है।
पानी वही है, ऊर्जा वही
है, एनर्जी
वही है, लेकिन
रूपांतरण हो
गया, क्रांति
घटित हो गयी।
हिंसक-चित्त
खाई-खड्डे
खोजता है, नीचे की तरफ
बहता है।
अहिंसक-चित्त
वाष्पीभूत हो
जाता है, पर्वत-शिखर
खोजने लगता है,
आकाश की
यात्रा शुरू
हो जाती है, ऊपर की उड़ान
शुरू हो जाती
है, सूर्य
की यात्रा पर
निकल जाता है,
मोक्ष और
परमात्मा की
दिशा में
उन्मुख हो जाता
है।
हिंसक-चित्त
सदा दूसरे को
खोजता है; दूसरा ही
खाई है, द
अदर इज द
एबिस।
अहिंसक-चित्त
अपने को खोजता
है। स्वयं को
खोजना ही
ऊंचाई है।
क्योंकि
दूसरे को जब भी
हम खोजेंगे, तभी हम नीचे
की तरफ चल
पड़े। जब भी हम
दूसरे को
खोजेंगे, तभी
हम नीचे की
तरफ चल चुके।
क्यों? क्यों
मैं कहता हूं
कि दूसरा ही
खाई है, दूसरा
ही अधोगमन है,
दूसरा ही
नर्क है? वह
दूसरा ही
क्यों नीचे की
तरफ ले जाने
का मार्ग है? क्यों? क्योंकि
जब हम दूसरे
को खोजते हैं,
तो एक बात
तो पक्की हो
गयी कि अपने
साथ कोई आनंद
नहीं है, स्वयं
के साथ कोई
आनंद नहीं है।
आदमी
जितना दुखी
अपने साथ हो
जाता है, उतना
दुखी अपने
दुश्मन के साथ
भी नहीं होता।
आदमी जितना
अपने से ऊब
जाता है, उतना
कितना ही
बोरिंग आदमी
हो, उसके
साथ भी नहीं
ऊबता। आदमी
अपने साथ
बिलकुल राजी
नहीं है, इसका
अर्थ क्या है?
कोई आदमी
खुद को कम्पेनियन
नहीं बनाना
चाहता--यह बड़े
मजे की बात
है--और जब कोई
दूसरा उसे कम्पेनियन
नहीं बनाना
चाहता, तो
बड़ा दुखी होता
है। हालांकि
वह खुद रिजेक्ट
कर चुका है
अपने को! वह
खुद कह चुका
है कि अपने से
दोस्ती नहीं
चलेगी! आप
घंटे भर भी
अपने साथ
अकेले में बैठने
को राजी नहीं
होते। अगर दिन
भर अकेले में
बैठना पड़े, तो घबड़ा
जाते हैं कि
आत्महत्या कर
लेंगे, कि
क्या कर
लेंगे। अगर
वर्ष भर अकेला
रहना पड़े तो
क्या जी
सकेंगे?
अपने
साथ जीना बड़ा
कठिन है।
क्योंकि अपने
साथ केवल वही
जी सकता है, जो भीतर
आनंद को
उपलब्ध है।
दूसरे के साथ
जीने की
आकांक्षा उसी
की है, जो
भीतर दुख से
भरा है। और
मैंने कहा कि
हिंसा अंतर-दुख
है, इसलिए
हिंसक-चित्त
सदा दूसरे को
खोजता है; कभी
मित्र के नाम
से खोजता है, कभी शत्रु
के नाम से
खोजता है; लेकिन
दूसरे को
खोजता है। और
इसमें भी बहुत
देर नहीं लगती
कि जो मित्र
था वह शत्रु
बन जाता है और
जो शत्रु था
वह मित्र बन
जाता है। असल
में किसी को
शत्रु बनाना
हो, तो उसे
भी पहले मित्र
तो बनाना ही
पड़ता है। मित्र
बनाये बिना तो
शत्रु बनाना
बहुत मुश्किल है--सिर्फ
संबंधियों को
छोड़कर।
क्योंकि
संबंधी पहले
से ही शत्रु
होते हैं!
बाकी तो किसी
को भी शत्रु
बनाना हो, तो
पहले मित्र
बनाना पड़ता
है।
आदमी
दूसरे को खोज
रहा है
क्योंकि अपने
से बचना चाहता
है। इसलिए मैं
कहता हूं, दूसरा खाई
है। जो अपने
से बचना चाहता
है, वह
किसी ऊंची
यात्रा पर
नहीं निकल
सकेगा; क्योंकि
जो अपने तक ही
पहुंचने को
राजी नहीं है,
वह किस
परमात्मा तक
पहुंचने की
हिम्मत जुटा सकता
है? जो
अपने ही शिखर
छूने को राजी
नहीं है, वह
किस अस्तित्व
के ऊंचे
शिखरों की
यात्रा पर निकल
सकता है? इसलिए
हम दूसरे को
खोज रहे हैं।
और जब भी हम दूसरे
को खोज रहे
हैं, तब
हमसे हिंसा
होगी ही।
एक तो
उस आदमी का भी
साथ है जो
अपने साथ जीता
है। वह भी
दूसरों के साथ
जी सकता है, लेकिन
दूसरों की उसे
जरूरत नहीं है,
दूसरे उसकी नेसेसिटी
नहीं हैं, दूसरे
उसकी
अनिवार्यता
नहीं हैं।
दूसरे उसके
पास हो सकते
हैं, उसके
आनंद में
भागीदार बन
सकते हैं, लेकिन
वह दूसरों पर
निर्भर नहीं
है, वह कोई
डिपेंडेंट
नहीं है।
दूसरे नहीं
होंगे, तो
भी वह इतने ही
आनंद में
होगा।
अगर
बुद्ध के पास
कोई भी न जाये, तो बुद्ध के
आनंद में कोई
भी अंतर नहीं
पड़ेगा। बुद्ध
के पास लाखों
लोग जायें, तो भी कोई
अंतर नहीं
पड़ेगा। लेकिन
हमसे एक आदमी
एक दिन मुंह
फेर ले और न
आये, तो बस
एकदम हम नर्क
में उतर जाते
हैं। जिस आदमी
की इतनी
निर्भरता
दूसरे पर हो, वह दूसरे के
लिए जंजीरें
बनायेगा--कहीं
दूसरा फिर न
जाये, मुड़
न जाये। वह
दूसरे को
बांधेगा। वह
दूसरे के
पैरों में बेड़ियां
डालेगा; कभी
पत्नी
बनायेगा; कभी
पति बनायेगा;
कभी बेटा
बनायेगा; कभी
बाप बनायेगा;
हजार तरह की
बेड़ियों
में दूसरे को कसेगा। और
जब भी कोई
दूसरे को बेड़ियों
में कसेगा,
तो हिंसा
शुरू हो
जायेगी।
क्योंकि
स्वतंत्र करती
है अहिंसा; परतंत्र
करती है
हिंसा। हिंसा
दूसरे को गुलाम
बनाती है।
गुलामियां
बहुत तरह की
हैं। मीठी
गुलामियां भी
हैं, जो कि कड़वी
गुलामियों से
सदा बदतर होती
हैं। क्योंकि कड़वी
गुलामियों
में एक आनेस्टी,
एक सिंसियरिटी
होती है, साफपन
होता है! मीठी
गुलामियां
बड़ी खतरनाक
होती हैं, शुगर
कोटेड
होती हैं; भीतर
जहर ही होता
है, ऊपर से शक्क्र चढ़ी होती
है। हम अपने
सारे संबंधों
में शक्कर चढ़ाए
हुए हैं, भीतर
तो जहर ही है।
जरा सी पर्त
हटती है और
जहर बाहर निकल
आता है। फिर
लीप-पोत कर, पर्त को ठीक
करके किसी तरह
काम चलाते
रहते हैं।
लेकिन
हमारा यह
दूसरे को
खोजना एक बात
का पक्का सबूत
है कि हम अपने
साथ होने के
आनंद को नहीं
पा रहे हैं।
फिर हिंसा
शुरू होगी। और
तब हम दूसरे
को खोजते हैं
कि उसके बिना
जी नहीं
सकेंगे।
जिसके बिना हम
जी नहीं
सकेंगे, उसे
हम गुलाम बनायेंगे
ही, उसे हम पजेस
करेंगे ही, उसकी हम
मालकियत
करेंगे ही, हम उसके
मालिक बनेंगे ही।
और जिसके भी
हम मालिक
बनेंगे, उसे
हम मिटायेंगे,
उसे हम नष्ट
करेंगे।
क्योंकि
मालकियत किसी
भी तरह की हो, सब तरह की
मालकियत
मिटाती है और
नष्ट करती है।
मालकियत बहुत
सटल वायलेंस
है, मालकियत
बहुत सटल
मर्डर है।
मालकियत जो है,
वह हत्या है
किसी की, बहुत
धीमे-धीमे।
सिकंदर भी
गुलाम बनाकर
मारता है, हिटलर
भी गुलाम
बनाकर मारता
है। धर्मगुरु
भी किसी को
गुलाम बनाकर
मार डाल सकता
है। सब तरह की
गुलामियां
हैं।
जब भी
हम दूसरे को
जकड़ लेते हैं, और उसकी
गर्दन को पकड़
लेते हैं, और
उस पर निर्भर
हो जाते हैं, तभी हम उसकी
गर्दन में पत्थर
की तरह लटक
जाते हैं। और
यह लटकना नीचे
की यात्रा है।
इस यात्रा का
कोई अंत नहीं
है। यह फैलती
जाएगी। एक से
मन न भरेगा, दूसरा चाहिए,
तीसरा
चाहिए, हजार
चाहिए।
राजनीतिज्ञ
को
लाखों-करोड़ों
चाहिए। जब तक
वह
राष्ट्रपति
बन कर सारे
मुल्क की
गर्दन में न
लटक जाये, तब
तक उसको
तृप्ति नहीं
मिल सकती।
सबकी गर्दन में
लटक जाना
चाहिए। सबके
लिए वह पत्थर
हो जाये बोझीला।
यह जो
हमारा चित्त
है, जो दूसरे
को खोजता है, यह चित्त
नीचे की तरफ
जा रहा है।
इसकी हिंसा बढ़ती
चली जायेगी।
यह अनेक रूप
लेगा। इसके
हजार चेहरे
होंगे, हजार
विधियां होंगी।
लेकिन यह
दूसरे को
दबायेगा, सतायेगा,
टार्चर करेगा।
टार्चर
करने के बड़े
अच्छे ढंग भी
हो सकते हैं।
बाप अपने बेटे
को टार्चर
कर सकता है, बेटा बाप को
कर सकता है; मां अपने
बेटे को कर
सकती है, बेटा
मां को कर
सकता है। और
मनस-शास्त्री
कहते हैं कि
आदमी अब भी कर
वही रहा है; एक दूसरे को
सता रहा है।
लेकिन यह हमें
खयाल में नहीं
आता।
यह तब
तक जारी रहेगा, जब तक कि कोई
आदमी अपने साथ
आनंदित नहीं
है, जब तक
कोई आदमी अपने
साथ होने को
राजी नहीं है।
जैसे ही कोई
आदमी अपने साथ
होने को राजी
हुआ, उसकी
यात्रा दूसरे
से हटकर, बाहर
से
हटकर...क्योंकि
दूसरा सदा
बाहर है, द
अदर इज
आलवेज द आउटर,
द अदर इज
आलवेज द विदाउट।
वह तो बाहर
होगा ही। जब
तक दूसरे की
तरफ खोज जारी
रहेगी--वह
चाहे पत्नी की
हो, चाहे
प्रेमिका की,
चाहे
प्रेमी की और
चाहे
परमात्मा
की--अगर परमात्मा
को कोई दूसरे
की तरह देख
रहा है, तो
उसमें हिंसा
जारी रहेगी; उसमें हिंसा
से मुक्ति
नहीं हो सकती।
इसलिए
महावीर ने
बाहर के
परमात्मा को
इनकार कर दिया; क्योंकि
महावीर को लगा
कि अगर गाड इज
द अदर, तो
हिंसा का
रास्ता बन
जायेगा।
इसलिए बहुत कम
लोग समझ पाए
महावीर की इस
बात को कि वे
ईश्वर को
क्यों इनकार
कर रहे हैं। नासमझों
ने समझा कि
शायद नास्तिक
हैं। नासमझों
ने समझा कि
शायद ईश्वर
नहीं है, इसलिए।
महावीर
ने कहा, कोई
परमात्मा
नहीं है सिवा
तुम्हारे। और
उसका कुल कारण
इतना है कि
अगर कोई भी
परमात्मा
है--दूसरे की
तरह, तो वह
जो
हिंसक-चित्त
है, वह उस
परमात्मा को
भी बाहर जाने
का और नीचे जाने
का रास्ता बना
लेगा। महावीर
ने कहा, बाहर
कोई परमात्मा
ही नहीं है।
चलो अपनी तरफ,
भीतर। वह
आत्मा ही
परमात्मा है।
और जैसे ही कोई
भीतर गया, वैसे
ही ऊंचाइयों
के शिखर शुरू
हुए।
भीतर
बड़ी ऊंचाइयां
हैं, बाहर बड़ी नीचाइयां
हैं। भीतर बड़े
गौरीशंकर
के शिखर हैं, बाहर बड़े
प्रशांत-महासागर
की गहराइयां
हैं। बाहर कोई
उतरता जाये, तो अतल
गहराइयों में
गिरता जायेगा,
जहां
अंधकार होगा,
जहां दुख
होगा, जहां
मृत्यु होगी,
जहां पीड़ा
होगी, जहां
नर्क होगा। और
कोई भीतर की
तरफ बढ़े, स्वयं
की तरफ, तो
बड़ी ऊंचाइयां
होंगी; कैलाश
के शिखर होंगे;
स्वर्ण-मंदिरों
के शिखर होंगे;
मुक्ति
होगी, मोक्ष
होगा, स्वर्ग
होगा! वह भीतर
की यात्रा है।
जीवन-ऊर्जा
जब हिंसा बनती
है, तो पतित होती
है। और
जीवन-ऊर्जा जब
अहिंसा बनती
है, तो
ऊर्ध्वगमन
करती है। वह
लाइफ-एनर्जी
तो एक ही है, जीवन-ऊर्जा
तो वही है।
कभी बाहर की
तरफ जाती है, तो दुख देती
है और दुख
लाती है; और
कभी भीतर की
तरफ जाती है, तो सुख देती
है और सुख
लाती है।
किन्हीं
भी क्षणों में, जब भी कभी
आपने आनंद को
जाना हो, तब
आपने पाया
होगा, आप
एकदम अकेले
हैं। किन्हीं
भी क्षणों में,
जब आनंद की
पुलक आप में
फैली हो, तब
आपने पाया
होगा, आप
अपने भीतर
हैं। किन्हीं
भी क्षणों में,
जब आनंद की
वर्षा की एक
बूंद भी आपके
भीतर उस अमृत
की टपकी हो, तब आपने
पाया होगा, कोई नहीं, मैं ही हूं।
और सब दुख सदा
दूसरे से बंधे
हुए पाए गये
और सब सुख सदा
स्वयं के भीतर
ही पाए गये।
हां, ऐसे सुख हैं,
जो दूसरों
से मिलते हुए
मालूम पड़ते
हैं, पर
मिलते कभी भी
नहीं। ऐसे सुख
हैं, जो
वहम देते हैं
कि दूसरों से
मिलेंगे, लेकिन
जब मिलते हैं,
और आंख
खुलती है, तो
पता चलता है
कि खोजा था
सुख, पाया
है दुख। ऐसे
सुख हैं, जो
बुलाते हैं
दूसरों की तरफ
से कि आओ, मैं
यहां हूं, और
जब हम पास
पहुंचते हैं,
तो पाया
जाता है कि
बुलाहट सुख की
थी, लेकिन
धोखा हो गया।
जैसे राम
स्वर्ण-मृग के
पीछे चले गए
थे। और सभी जानते
हैं कि
स्वर्ण-मृग
कहीं होते
नहीं। कम से कम
राम को तो यह
जानना ही
चाहिए था कि
स्वर्ण-मृग
कहीं होते
नहीं!
लेकिन
वह कथा मीठी
है। कथा
अर्थपूर्ण
है। हम सभी
स्वर्ण-मृग के
पीछे चले जाते
हैं! सब जानते हैं
कि नहीं होते
हैं और चले
जाते हैं। राम
चले गए
स्वर्ण-मृग को
खोजने! कौन
होगा पागल, जो राजी
होगा कि सोने
का और हिरण
होगा! होगा कैसे?
लेकिन राम
भी चले जाते
हैं! हमारे
भीतर का राम भी
चला जाता है!
और तब आखिर
में हम पाते
हैं कि कुछ
मिलता नहीं!
क्योंकि
स्वर्ण-मृग के
पीछे जाकर कुछ
मिल सकता है?
सुख
स्वर्ण-मृग
है। जब दूसरे
से मिलता हुआ
मालूम पड़े, तो समझना कि
राम चले अब
स्वर्ण-मृग को
खोजने, अब
सीता की चोरी
होकर रहेगी।
और जब आप
दूसरे के पीछे
खोजने चले
जाते हैं, तो
आपके भीतर की
जो अंतरात्मा
है--कहिए उसे
सीता--उसकी
चोरी हो जाती
है। हो जाते
हैं पतित। फिर
लंबा युद्ध
है। फिर रावण
से संघर्ष है।
फिर हत्याएं
हैं, फिर
खून है। वह एक
स्वर्ण-मृग के
पीछे जाने से राम
की पूरे
उपद्रव और
हिंसा की
दुनिया शुरू हुई।
एक स्वर्ण-मृग
से यात्रा
शुरू हुई
उपद्रव की, और फिर जब तक
कि पूरी हिंसा
नहीं हो गई तब
तक वह चली।
मेरी दृष्टि
में यह एक
प्रतीक कथा है,
एक पैरेबल
है।
हम भी, जब दूसरे
में सुख देखकर
भागते हैं, तब हम चले
स्वर्ण-मृग के
पीछे। तब पतन
होगा ऊर्जा
का। पतन हो
गया उसी क्षण,
जब हमने
माना कि
स्वर्ण के मृग
होते हैं। पतन
हो गया उसी
क्षण, जब
हमने माना कि
दूसरा सुख दे
सकेगा। पतन हो
गया उसी क्षण,
जब हमने
माना कि बाहर
सुख हो सकता
है। और
जिंदगी-भर का अनुभव
है कि बाहर
सिवाय दुख के
कभी कुछ मिला
नहीं। दूसरे
से सिवाय दुख
के सुख कब
पाया है? हां,
खयाल में
रहा है कि
मिलेगा, मिलेगा,
मिलेगा; मिला
कभी नहीं है।
वह सदा भविष्य
में लगता है कि
मिलेगा। अतीत
में लौटकर
देखें, कब
मिला है? किसने
किसी दूसरे से
सुख पाया है? सच तो यह है
कि जिससे
जितना सोचा था
ज्यादा सुख
मिलेगा, उससे
उतना ज्यादा
दुख ही मिला।
इसलिए
मां-बाप जिस
लड़के का विवाह
कर देते हैं, वह पत्नी से
उतना दुख नहीं
पाता, जितना
वह लड़का पा
लेता है जो
प्रेम-विवाह
करता है।
प्रेम-विवाह
के चट्टान से
टकराने की
संभावना
ज्यादा हो गई,
क्योंकि
सुख की
आकांक्षा
ज्यादा हो गई।
पोथी-पत्री
देखकर जिसका
विवाह किया
गया, उसने
सुख की कभी
बहुत
आकांक्षा ही
नहीं बांधी।
इसलिए नाव
टकराने के
उपाय जरा कम
हैं। दुख तो
मिलेगा, उसी
मात्रा में
मिलेगा, जितना
पोथी-पत्री से,
जन्म-कुंडली
देखने से सुख
की आशा बंधती
होगी, उतना
ही मिलेगा।
उतना ही दुख
मिलता है जीवन
में, जितनी
सुख की आशा हम बांधते
हैं। ज्यादा
सुख की आशा बांधनेवाले
ज्यादा दुख से
भर जाते हैं।
जो सुख की आशा
नहीं बांधता,
उसे दुख
देने का उपाय
नहीं है।
जीवन-ऊर्जा
जब दूसरे की
तरफ बहती है, तो हिंसक
है। और वह दुख
की तरफ बहती
है, नर्क
की तरफ बहती
है। हम सब
अपने-अपने
नर्क खोज रहे
हैं। कुछ लोग
कभी-कभी पीछे
लौटकर स्वर्ग
खोज लेते हैं।
जीवन-ऊर्जा जब
पीछे, अंदर
की तरफ यात्रा
करती है, तो
ऊर्ध्वगामी
है। वह एक ही ऊर्जा
है।
जगत
में शक्तियां
भिन्न नहीं
हैं, सिर्फ
दिशाएं भिन्न
हैं। जगत में
शक्तियां अलग-अलग
नहीं हैं, सिर्फ
ऊर्ध्वगमन और
अधोगमन के
फासले हैं। आप
नीचे उतर रहे
हैं मंदिर की
सीढ़ियों से, या ऊपर चढ़
रहे हैं मंदिर
की सीढ़ियों से?
और यह भी हो
सकता है कि एक
ही सीढ़ी पर आप
खड़े हैं और
आपका चेहरा
नीचे की तरफ
है; और
दूसरा आपका
मित्र भी खड़ा
है उसी सीढ़ी
पर और उसका
चेहरा ऊपर की
तरफ है। तो उस
एक ही सीढ़ी पर स्वर्ग
और नर्क दोनों
घटित हो
जायेंगे।
आपका पड़ोसी, जिसका चेहरा
ऊपर की तरफ है,
उसी सीढ़ी पर
स्वर्ग में
होगा। और आपका
चेहरा, जिसका
नीचे की तरफ
है, उसी
सीढ़ी पर, आन
द सेम स्टेप,
आप नर्क में
होंगे।
ऐसे
नर्क और
स्वर्ग की कोई
भौगोलिक
अवस्थाएं नहीं
हैं, चित्त के
रुख किस तरफ
देख रहे हैं, इस पर सब
निर्भर करता
है।
हिंसा
अधोगमन है
जीवन-ऊर्जा का, अहिंसा
ऊर्ध्वगमन
है।
आचार्य
श्री, पिछले
प्रवचन में
आपने कहा था
कि अहिंसा
मनुष्य का
स्वभाव है और
हिंसा मनुष्य
की निर्मित है।
कृपया इसे
पुनः स्पष्ट
करेंगे और बताएंगे
कि क्या हिंसा
प्रकृति-प्रदत्त
तथ्य नहीं है?
हिंसा
प्रकृति-प्रदत्त
तथ्य है, लेकिन
मनुष्य का
स्वभाव नहीं,
पशु का
स्वभाव है। और
मनुष्य उस
स्वभाव से
गुजरा है, इसलिए
पशु-जीवन के
सारे अनुभव
अपने साथ ले
आया है। हिंसा
ऐसे ही है, जैसे
कोई आदमी राह
से गुजरे और
धूल के कण
उसके शरीर पर
छा जायें, और
जब वह महल के
भीतर प्रवेश
करे, तब भी
उन धूल-कणों
को उतारने से
इनकार कर दे।
और कहे कि वे
मेरे साथ ही आ
रहे हैं; वह
मैं ही हूं।
वे
धूल-कण हैं, जो पशु की
यात्रा पर, मनुष्य की
आत्मा पर चिपक
गए हैं, जुड़
गए हैं; स्वभाव
नहीं है। पशु
के लिए स्वभाव
है, क्योंकि
पशु के लिए
कोई चुनाव ही
नहीं है। मनुष्य
के लिए स्वभाव
नहीं है, क्योंकि
मनुष्य के लिए
चुनाव है।
असल
में मनुष्यता
शुरू होती है च्वायस से, चुनाव से।
मनुष्य शुरू
होता है
निर्णय से, डिसीजन से। मनुष्य
शुरू होता है
संकल्प से।
मनुष्य चौराहे
पर खड़ा है, कोई
पशु चौराहे पर
नहीं खड़ा है।
सब पशु वन डायमेंशनल
रास्ते पर
होते हैं; एक
ही रास्ता
होता है, जिसमें
कोई चुनाव नहीं
है। मनुष्य
चौराहे पर खड़ा
है। मनुष्य चाहे
तो हिंसक हो
सकता है, चाहे
तो अहिंसक हो
सकता है। यह
स्वतंत्रता
है उसकी। पशु
की यह
स्वतंत्रता
नहीं है। पशु
की यह मजबूरी
है कि वह जो हो
सकता है, वही
है
यह भी
समझने जैसा
मजा है कि पशु
वही है, जो
हो सकता है।
इसलिए पशु के
स्वभाव में और
पशु के तथ्य
में कोई फर्क नहीं
होता। पशु के
भविष्य में और
पशु के अतीत में
कोई डिस्टेंस,
कोई फासला
नहीं होता।
पशु के होने
में और हो सकने
की संभावना
में, कोई
फर्क नहीं
होता। पशु जो
हो सकता है, वह है। दैट
व्हिच इज
पॉसिबल, इज ऐक्चुअल।
पशु की ऐक्चुअलिटी
और पॉसिबिलिटी
में कोई फर्क
नहीं है। आदमी
का मामला एकदम
बदल गया। आदमी
जो है, उससे
भिन्न हो सकता
है। आदमी की एक्चुअलिटी,
उसकी पॉसिबिलिटी
नहीं है। जो
आदमी
वास्तविक आज
है, कल
उससे और कुछ
हो सकता है।
इसलिए
किसी कुत्ते
से हम नहीं कह
सकते कि तुम कुछ
कम कुत्ते हो; लेकिन आदमी
से कह सकते
हैं कि तुम
कुछ कम आदमी मालूम
पड़ते हो। किसी
कुत्ते से यदि
हम कहेंगे कि
तुम कुछ कम
कुत्ते हो, तो यह
बिलकुल एबसर्ड
स्टेटमेंट
होगा। इसका
कोई मतलब नहीं
होगा। सब
कुत्ते बराबर
कुत्ते होते
हैं। कमजोर हो
सकते हैं, ताकतवर
हो सकते हैं, बीमार हो
सकते हैं, स्वस्थ
हो सकते
हैं--लेकिन कुत्तेपन
में कोई फर्क
नहीं होगा।
लेकिन
आदमियत की
मात्राओं में
फर्क है। किसी
कृष्ण को हम
नहीं कह सकते
कि तुममें और
हिटलर में
आदमियत का कोई
फर्क नहीं है।
किसी बुद्ध को
हम नहीं कह
सकते कि
तुममें और
रावण में आदमियत
का कोई फर्क
नहीं है।
नहीं, किसी से
कहना पड़ता है
कि आदमियत
बहुत कम मालूम
पड़ती है। किसी
से कहना पड़ता
है, आदमियत
इतनी ज्यादा
है कि भगवान
शब्द खोजना पड़ता
है। जिन-जिन
के लिए हमने
भगवान शब्द
खोजा, उसका
कुल मतलब इतना
है कि आदमियत
इतनी ज्यादा थी
कि आदमी कहना काफी
नहीं मालूम
पड़ा, ना
काफी मालूम
पड़ा।
आदमी
जो है, वही
सब-कुछ नहीं
है, बहुत-कुछ
हो सकता है।
आदमी जो है, उसमें उसका
अतीत, पशु
की यात्रा
उसमें जुड़ी है,
वह हिंसा
है। आदमी जो
हो सकता है, वह उसकी
अहिंसा है।
आदमी का
स्वभाव वह है,
जो जब वह
अपनी पूर्णता
में प्रगट हो,
तब होगा।
आदमी का तथ्य
वह है, जो
उसने अपनी
यात्रा में अब
तक अर्जित
किया है।
इसलिए
मैं कहता हूं, हिंसा
अर्जित है, अहिंसा
स्वभाव है।
इसलिए हिंसा छोड़ी जा
सकती है; अहिंसा
सिर्फ पाई जा
सकती है, छोड़ी
नहीं जा सकती।
यह फर्क भी
समझ लेना
जरूरी है। हिंसा
छोड़ी जा
सकती है, अहिंसा
पाई जा सकती
है। और अहिंसा
अगर पा ली जाये,
तो छोड़ना
असंभव है। और
आदमी कितना ही
हिंसक हो जाये,
छोड़ना सदा
संभव है; क्योंकि
वह स्वभाव
नहीं है।
प्रत्येक
पापी का
भविष्य है; और प्रत्येक
पापी का
भविष्य एक संत
का भविष्य है।
हम प्रत्येक
पापी से सार्थक
रूप से कह
सकते हैं कि
तुम भविष्य के
संत हो।
प्रत्येक संत
का एक अतीत है;
और
प्रत्येक संत
का अतीत पापी
का अतीत है।
और हम
प्रत्येक संत
से सार्थक रूप
से कह सकते
हैं कि तुम
अतीत के पापी
हो। लेकिन संत
का फिर आगे कोई
भविष्य नहीं
है।
संत का
अर्थ है, जो
पूर्ण स्वभाव
को उपलब्ध हो
गया; जो
वही हो गया है,
जो हो सकता
था। फूल पूरा
खिल गया। कली
का भविष्य है।
कली चाहे तो
कली भी रह
सकती है और
चाहे तो फूल
भी बन सकती
है। लेकिन फूल
फिर लौटकर कली
नहीं बन सकता।
चाहे, तो
भी। फूल फिर
फूल हो गया।
तो जब हम कली
से कहते हैं
कि फूल होना
तेरा स्वभाव
है, तो
इसका यह मतलब
नहीं है कि हम
तथ्य की या
फैक्ट की बात
कह रहे हैं; हम संभावना
की, पोटेंशियलिटी
की बात कह रहे
हैं। हम कली
से कहते हैं
कि तेरा फूल
होना स्वभाव
है; अर्थात
तू फूल होना
चाहे तो हो
सकती है।
लेकिन
अगर कोई कली, कली ही बनी
रहे, और वह
कहे कि तथ्य
तो यही है कि
मैं कली हूं।
इसलिए मैं कली
ही रहूंगी; क्योंकि कली
होना मेरा
स्वभाव है, क्योंकि मैं
कली हूं...आदमी
अगर कहे कि
हिंसा मेरा
स्वभाव है, तो वह ऐसी ही
बात कह रहा है,
जैसी यह
भ्रांत कली कह
रही है।
आदमी
का स्वभाव
नहीं है हिंसा, उसके अतीत
का अर्जन है, उसके अतीत
के संस्कार
हैं। हिंसा
आदमी की कंडीशनिंग
है, जो कि
पशु से निकलते
वक्त
अनिवार्य थी।
जैसे कि कोई
काजल की कोठरी
से निकले और
काजल उसके शरीर
पर लग जाये, उसके कपड़ों
पर लग जाये, जो कि
अनिवार्य था।
पशु क्षम्य
है। अनिवार्य है
हिंसा उसके जीवन
में होनी।
आदमी को क्षमा
नहीं किया जा
सकता। हिंसा
अब उसकी पसंद
है, अब
अनिवार्य
नहीं। अब वह
चुन रहा है, इसलिए
हिंसा।
अगर
कली जिद कर ले
कली रहने की, तो रह सकती
है। लेकिन यह
उसकी
अनिवार्यता
नहीं; यह
उसकी नियति, उसकी
डेस्टिनी
नहीं है। यह
उसका अपना ही
भ्रांत
निर्णय है। और
तब इसकी
जिम्मेवार वह
स्वयं ही
होगी। और किसी
परमात्मा के
समक्ष
पहुंचकर वह यह
नहीं कह सकेगी
कि मुझे कली
ही क्यों रखा?
क्योंकि
कली के भीतर
फूल होने की
संभावना परमात्मा
ने पूरी दे दी
थी। वह फूल हो
सकती थी। कली
होने की
जिम्मेवारी
हमारी होगी।
हिंसा, पशु के लिए
अनिवार्यता, हमारे लिए
जिम्मेवारी
है; पशु के
लिए तथ्य, हमारे
लिए सिर्फ
ऐतिहासिक
याददाश्त है;
पशु का
वर्तमान, हमारा
अतीत है।
चुनाव सामने
है। आदमी
अहिंसक होने
का निर्णय भी
ले सकता है और
हिंसक होने का
भी निर्णय ले
सकता है।
इसलिए
जब कोई आदमी
हिंसक होने का
निर्णय लेता
है, तो कोई
पशु उसका
मुकाबला नहीं
कर सकता। असल
में कोई पशु
इतना हिंसक
नहीं हो सकता,
जितना आदमी
हो सकता है।
क्योंकि पशु
सहज ही हिंसक
हैं; और
आदमी हिंसक
आयोजना से
होता है।
इसलिए हम चंगेज
खां, और तैमूर,
और नादिर, और हिटलर, और माओ, और
स्टैलिन जैसे
हिंसक पशुओं
में खोजकर
नहीं ला सकते।
स्टैलिन के
पैरेलल, या
चंगेज के
समानांतर, अगर
हम पशुओं के
इतिहास से
पूछें कि कोई
एकाध पशु हुआ,
जो हमारे
चंगेज खां के
मुकाबले हो? तो पशु
कहेंगे, हम
बहुत दरिद्र
हैं। इस मामले
में हमारे पास
कोई याददाश्त
नहीं है।
एक बड़े
मजे की बात है
कि कोई भी
जानवर सजातीय
के प्रति
हिंसक नहीं
होता, सिवाय
आदमी को
छोड़कर! कोई
जानवर अपनी
जाति के जानवर
को नहीं मारता,
हिंसा नहीं
करता। इतनी
पहचान पशु की
हिंसा में भी
है। सिर्फ
आदमी अकेला
जानवर है, जो
आदमी को मारता
है।
यह भी
बड़े मजे की
बात है कि
हिंदुस्तानी भेड़िये को
भी अगर
पाकिस्तानी भेड़िये के
पास छोड़ दिया
जाये, तो
नहीं मारेगा।
लेकिन
हिंदुस्तानी
आदमी को पाकिस्तानी
आदमी के पास
छोड़ना जोखिम
से भरा काम है!
भाषाशास्त्री
कहते हैं कि
शायद भाषा ने
गड़बड़ की है।
हो सकता है।
जो लिंगविस्ट
हैं, उनका खयाल
सही मालूम
होता है। वे
यह कहते हैं, चूंकि दोनों
भेड़िये
भाषा नहीं
बोलते--न
पाकिस्तानी
भेड़िया उर्दू बोलता
है, न
हिंदुस्तानी
भेड़िया हिंदी
बोलता है--
इसलिए दोनों
पहचान नहीं
पाते कि हम फारेनर
हैं! और कोई
कारण नहीं।
लेकिन आदमी एक
जिले से दूसरे
जिले में फारेनर
हो जाता है।
गुजराती
मराठी के लिए फारेनर है,
हिंदी बोलनेवाला
तमिल बोलनेवाले
के लिए फारेनर
है। अगर यही
सच है, जो
भाषाशास्त्री
कहते हैं--और
मुझे लगता है
इसमें सचाई
है--तो क्या
ऐसा न करना
पड़े किसी दिन
कि आदमी को
मौन हो जाना
पड़े, तभी
आदमी आदमी हो
सके। शायद, मौन हुए
बिना इस
पृथ्वी पर
आदमियत का
पैदा होना कठिन
होगा।
लेकिन
यह कितनी
दुर्भाग्यपूर्ण
बात है कि कोई
पशु अपनी जाति
के पशु पर
हमला नहीं
करता, पर
आदमी करता है!
और कोई पशु
अकारण कभी
नहीं मारता
है--यह भी मजे
की बात
है--सिर्फ
आदमी को छोड़कर।
अकारण नहीं
मारता, अगर
कभी मारता भी
है, तो
उसकी जरूरत
होगी। भूख
होती है, तो
मारता है।
रक्षा करनी
होती है, तो
मारता है।
आदमी बेजरूरत
मारता है! कोई
जरूरत नहीं
होती है, तब
भी मारता है।
कभी-कभी तो
ऐसा लगता है
कि मारना होता
है, इसलिए
जरूरत पैदा
करता है! बिना
मारे नहीं रह सकता,
इसलिए जरूरत
पैदा कर लेता
है। कभी
वियतनाम में
जरूरत पैदा
करता है, कभी
कोरिया में
जरूरत पैदा
करता है, कभी
कश्मीर में
जरूरत पैदा
करता है।
कोई
जरूरत नहीं
है। न कश्मीर
में कोई जरूरत
है, न किसी
वियतनाम में,
न ही किसी कम्बोडिया
में। कहीं कोई
जरूरत नहीं
है। लेकिन
आदमी जरूरत
पैदा करता है,
क्योंकि
बिना जरूरत
मारेगा, तो
जरा ठीक नहीं
लगेगा!
आदमी रेशनल है
सिर्फ एक
अर्थों में कि
वह अपनी
बेवकूफियों
को भी रेशनलाइज
करता है, और
किसी अर्थ में
रेशनल
नहीं है।
अरस्तू ने
जरूर कहा था
कि आदमी एक बुद्धिमान
प्राणी है, लेकिन आदमी
का अब तक का इतिहास
सिद्ध नहीं
करता। अरस्तू
को इतिहास ने
गलत सिद्ध
किया है। आदमी
सिर्फ
बुद्धिमानी एक
बात में
दिखाता है कि
अपनी
बेवकूफियों
को बुद्धिमानी
सिद्ध करने की
कोशिश करता
है। मारता है,
तो भी रेशनलाइज
कर लेता है।
कहता है कि
मारना ही
पड़ेगा, क्योंकि
यह मुसलमान
है! मारना ही
पड़ेगा, क्योंकि
यह हिंदू है!
मारना ही
पड़ेगा, क्योंकि
यह
हिंदुस्तानी
नहीं, पाकिस्तानी
है! जैसे कि
किसी का
पाकिस्तानी होना
मारने के लिए
काफी कारण है!
काफी हो गई
बात कि एक
आदमी मुसलमान
है, मारो!
आदमी कारण
खोजता है। यह
आदमी
पूंजीपति है,
मारना
पड़ेगा; यह आदमी
कम्युनिस्ट
है, मारना
पड़ेगा! पुराने
कारण जरा पिट
जाते हैं, बासे हो
जाते हैं, तो
नये कारण
खोजता चला
जाता है। नये
कारण ईजाद
करता है कि अब
चलो, पुराना
कारण बेकार
हुआ, वह
खेल बंद करो, नया खेल
खेलो! अभी तक
बहुत मारे
हिंदू-मुसलमान,
चलो अब
हिंदू-जैन में
हो जाये!
हिंदू-जैन का
न चले तो चलो
गरीब-अमीर में
हो जाये। आदमी
मारना चाहता
है, तो
कारण खोज लेता
है। पशु बिना
कारण कभी नहीं
मारते।
मैं यह
कह रहा हूं कि
अगर हम आदमी
की हिंसा को समझें, तो हम
पायेंगे कि
अगर आदमी
हिंसक होता है,
तो यह उसका
चुनाव है। और
इसलिए आदमी इतना
हिंसक हो सकता
है, जितना
कोई पशु नहीं
हो सकता।
क्योंकि पशु
का हिंसक होना
सिर्फ स्वभाव
है--वह उसका
चुनाव नहीं
है--इसलिए नादिरशाह
उसमें पैदा
नहीं हो सकता।
इसलिए उसमें
महावीर भी
पैदा नहीं हो
सकते।
क्योंकि
अहिंसा का भी
उसे कोई चुनाव
नहीं है। आदमी
को अहिंसा का
भी चुनाव है।
हमने
अगर नादिरशाह, स्टैलिन और
माओ की खाइयां
देखी हैं, तो
हमने महावीर,
कृष्ण और
क्राइस्ट की ऊंचाइयां
भी देखी हैं।
वे दोनों
हमारी
संभावनाएं
हैं। खाइयां,
हमारे अतीत
का स्मरण है; ऊंचाइयां,
हमारे
भविष्य की आकांक्षाएं
हैं। और शेष
अब कल बात
करेंगे!
मेरी
बातों को इतने
प्रेम और
शांति से सुना, उससे मैं
बहुत
अनुगृहीत
हूं। और अंत
में सबके भीतर
बैठे
परमात्मा को
प्रणाम करता
हूं,
मेरे
प्रणाम
स्वीकार
करें।
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