दिनांक
15 नवंबर 1970,
क्रास
मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर:
आचार्य
श्री, मन
की किन-किन
स्थितियों के
कारण
यौन-ऊर्जा, सेक्स
एनर्जी अधोगमित
होती है, और
मन की किन-किन
स्थितियों के
कारण
यौन-ऊर्जा ऊर्ध्वगमित
होती है? कृपया
इस पर कुछ प्रकाश
डालें।
जीवन
को उसके सभी
स्तरों पर दो
भांति देखा जा
सकता है। दो
पहलू हैं जीवन
के। एक उसका
पौदगलिक, मैटीरियल,
पदार्थगत पहलू है, दूसरा
उसका आत्मगत,
स्प्रिचुअल
पहलू है। यौन
को भी दो
दिशाओं से देखना
आवश्यक है। एक
तो यौन का
जैविक, बायोलाजिकल पहलू है, पौदगलिक,
पदार्थगत,
शरीर से
जुड़ा हुआ, शरीर
के अणुओं से
जुड़ा हुआ।
दूसरा यौन का शक्तिगत, आत्मिक पहलू
है, मन से, चेतना से
जुड़ा हुआ।
इसलिए
दो शब्दों को
पहले समझ लें।
एक तो जैविक
ऊर्जा, जो
मनुष्य के जीवकोष्ठों
से संबंधित है,
जिनके
द्वारा
व्यक्ति को
शरीर उपलब्ध
होता है। ये
जो जीव कोष्ठ
हैं, ये जो
सेल्स हैं, ये शरीर के
ही हिस्से
हैं। जैविक, बायोलाजिकल हिस्सा हम
सब की आंखों
में
प्रत्यक्ष
है--जिसे हम
वीर्य कहें, यौन-ऊर्जा
कहें या कोई
और नाम दें।
लेकिन एक और
पहलू भी उसके
पीछे जुड़ा है
जो आत्मगत है,
शक्तिगत है। उसे मैं
काम-ऊर्जा या
आत्म- ऊर्जा
या जो भी हम
नाम देना चाहें,
दे सकते
हैं।
जैसे
कि एक लोहे का
चुंबक होता
है। एक तो
लोहे का टुकड़ा
होता है जो
साफ दिखायी
पड़ता है और एक मैगनेटिक
फील्ड होता है
उसके चारों
तरफ, जो
दिखायी नहीं
पड़ता है।
लेकिन अगर हम
आस-पास लोहे
के टुकड़े रखें
तो वह जो मैगनेटिक
शक्ति है
चुंबक की, उसे
खींच लेती है।
एक क्षेत्र है
जिसके भीतर वह
शक्ति काम
करती है। यह
लोहे का टुकड़ा
कल हो सकता है
अपनी चुंबकीय
शक्ति खो दे, तो भी लोहे
का टुकड़ा
रहेगा। उस
लोहे के टुकड़े
के वजन में
अंतर नहीं
पड़ेगा, उस
लोहे के टुकड़े
के कांस्टीटयूशन
में भी कोई
अंतर नहीं
पड़ेगा, उसकी
रचना और बनावट
में भी कोई
अंतर दिखाई
नहीं पड़ेगा, लेकिन एक
मौलिक अंतर हो
जाएगा, मैगनेटिक उसमें से मर
गया है, उसमें
से चुंबक जा
चुका है। यह
उदाहरण के लिए
मैंने कहा।
आत्मा
एक फील्ड है, एक चुंबकीय
क्षेत्र है।
शरीर दिखायी
पड़ता है, आत्मा
के केवल
प्रभाव
दिखायी पड़ते
हैं, जैसे
चुंबक के
प्रभाव
दिखायी पड़ते
हैं। यह जमीन
है, यह
दिखाई पड़ रही
है, लेकिन
जमीन पूरे
वक्त हमें
खींचे हुए है,
वह दिखायी
नहीं पड़ रहा
है। यह जमीन
हमें छोड़ दे
तो हम एक क्षण
भी इस जमीन पर
नहीं रह
सकेंगे।
अंतरिक्ष
में जो यात्री
यात्रा कर रहे
हैं, उनके लिए
अंतरिक्ष की
यात्रा में जो
सबसे ज्यादा
कठिन बात है, वह यही है कि
जैसे ही दो सौ
मील जमीन के मैगनेटिक
फील्ड को
छोड़कर उनका
यान ऊपर जाता
है, वैसे
ही जमीन की
चुंबकीय
शक्ति विदा हो
जाती है। तब
फिर वे हवा के
गुब्बारों की तरह
अपने यान में
भटक सकते हैं।
अगर उनकी पट्टियां
छोड़ दी जायें
उनकी कुर्सी
से, तो
जैसे गैस भरा
हुआ गुब्बारा
मकान की छत को
छूने लगे, ऐसे
ही वे भी यान
की छत को छूने
लगेंगे।
यह
जमीन हमें
खींचे हुए है, लेकिन उसका
हमें पता नहीं
चलता है।
क्योंकि वह
दिखायी पड़नेवाली
बात नहीं है।
जो दिखायी
पड़ती है वह
जमीन है, जो
नहीं दिखायी
पड़ता है वह
उसका ग्रेवीटेशन
है। जो दिखायी
पड़ता है वह
शरीर है, वह
जो नहीं
दिखायी पड़ता
है वह मनस और
आत्मा है। ठीक
ऐसे ही काम के
साथ, यौन
के साथ दो
पहलुओं को समझ
लेना जरूरी
है। जो दिखायी
पड़ती हैं वे जैविक
कोष्ठ हैं, जो नहीं
दिखायी पड़ता
है वह
काम-ऊर्जा है।
इस सत्य को
ठीक से न
समझने से आगे
बातें फैलाकर
देखनी कठिन हो
जाती हैं।
इस देश
में काम-ऊर्जा
पर बड़े प्रयोग
हुए हैं। इस
देश में पांच
हजार वर्ष का
लंबा इतिहास
है। शायद उससे
भी ज्यादा
पुराना है, क्योंकि हड़प्पा
और मोहनजोदड़ो
में भी ऐसी
मूर्तियां
मिली हैं जो
इस बात की खबर
देती हैं कि
योग की धारणा
तब तक विकसित
हो चुकी होगी।
हड़प्पा
की मूर्तियां
कोई सात हजार
साल पुरानी
हैं। सात हजार
साल के लंबे
इतिहास में इस
मुल्क ने काम-ऊर्जा
पर, सेक्स
एनर्जी पर, बहुत अनूठे
प्रयोग किए
हैं। लेकिन
उनको समझने
में भूल हो
जाती है।
क्योंकि
काम-ऊर्जा से
हम जीव-ऊर्जा,
बायोलाजिकल अर्थ लेकर
कठिनाई में पड़
जाते हैं।
इस देश
के योगियों ने
कहा है कि
काम-ऊर्जा, सेक्स
एनर्जी, नीचे
से ऊपर की तरफ
ऊर्ध्वगमन कर
सकती है। वैज्ञानिक
कहता है, हम
शरीर में
काटकर भी देख
लेते हैं योगी
के, लेकिन
उसके वीर्य-कण
तो वहीं पड? रहते हैं।
उसी जगह, जहां
साधारण आदमी
के शरीर में
पड़े होते हैं।
वीर्य ऊपर चढ़ता
हुआ दिखायी
नहीं पड़ता है।
वीर्य
ऊपर चढ़ता
भी नहीं है, चढ़ भी नहीं
सकता। लेकिन
जिस काम-ऊर्जा
के चढ़ने
की बात की है
उसे हम समझ
नहीं पाए।
वीर्य-कणों की
वह बात नहीं
है, वीर्य-कणों
के साथ एक और
ऊर्जा जुड़ी
हुई है, जो
दिखायी नहीं
पड़ती है, वह
ऊर्जा ऊपर
ऊर्ध्वगमन कर
सकती है। और
जब कोई
व्यक्ति
यौन-संबंध से
गुजरता है तो
उसके जैविक
परमाणु तो
उसके शरीर को
छोड़ते ही हैं,
साथ ही उसकी
काम-ऊर्जा, उसकी सेक्स
एनर्जी भी
उसके शरीर से
बाहर जाती है।
वह सेक्स
एनर्जी आकाश
में खो जाती
है। और यौनकण
नए व्यक्ति को
जन्म देने की
यात्रा पर
निकल जाते
हैं।
संभोग
के क्षण में
दो घटनाएं
घटती हैं--एक
जैविक और एक
साइकिक। एक तो
जीव
शास्त्रीय
दृष्टि से
घटना घटती है, जैसा कि बायोलाजिस्ट
अध्ययन कर रहा
है, वह
वीर्य- कण का
स्खलन है। वह
वीर्य-कण का
यात्रा पर
निकलना है
अपने विरोधी
कणों की खोज
में, जिससे
कि नए जीवन को
वह जन्म दे
पाये। और एक
दूसरी घटना
है। जिसकी योग
खोज करता है, वह दूसरी
घटना है। इस
कृत्य के साथ
ही मनस की शक्ति
भी स्खलित
होती है। वह
तो सिर्फ
शून्य में खो
जाती है।
इस
मनस-शक्ति को
ऊपर ले जाने
के उपाय हैं।
और जब वीर्य
के ऊर्ध्वगमन
की बात कही
जाती है तो कोई
शरीर-शास्त्री, कोई डाक्टर
भूल कर यह न
समझे कि वह
वीर्य की, या
वीर्य-कणों के
ऊपर ले जाने
की बात है।
वीर्य-कण ऊपर
नहीं जा सकते।
उनके लिए कोई
मार्ग नहीं है
शरीर में ऊपर।
सहस्रार तक
तथा मस्तिष्क
तक पहुंचने के
लिए कोई उपाय
नहीं है उनके
पास। जो चीज
जाती है वह
ऊर्जा है। वह मैगनेटिक
फोर्स है जो
ऊपर की तरफ
जाती है। यह
जो मैगनेटिक
फोर्स है, इसके
ही नीचे जाने
पर वीर्य-कण
भी सक्रिय
होते हैं।
बच्चा
जब पैदा होता
है, लड़की जब
पैदा होती है,
तब वे अपने
यौन संस्थान
को पूरा का
पूरा लेकर पैदा
होते हैं।
स्त्री तो
अपने जीवन में
जितने रजकणों
का उपयोग
करेगी उन सबको
लेकर ही पैदा
होती है। फिर
कोई नया रजकण
पैदा नहीं
होता। कोई तीन
लाख छोटे
अंडों को लेकर
स्त्री पैदा
ही होती है।
बच्ची पैदा ही
होती है। एक
दिन की बच्ची
के पास भी तीन
लाख अंडों की
सामग्री
मौजूद होती
है। इसमें से
ज्यादा से
ज्यादा दो सौ
अंडे जीवन
लेने के लिए
तैयार होकर
उसके
गर्भाधान तक
पहुंचते हैं।
उनमें से भी
दस-बारह, ज्यादा
से ज्यादा बीस,
सक्रिय और
जीवन में सफल
उतर पाते हैं।
लेकिन
तेरह या चौदह
साल तक लड़की
को भी इस सारी की
सारी
व्यवस्था का
कोई पता नहीं
चलेगा। उसका
शरीर पूरा
तैयार है, लेकिन अभी
उसकी
काम-ऊर्जा
उसके अंडों तक
नहीं पहुंचती
है। तेरह और
चौदह साल में
जब उसका मस्तिष्क
पूरा विकसित
होगा तब
मस्तिष्क
काम-ऊर्जा को
नीचे की तरफ
भेजेगा। और
मस्तिष्क की
सूचना मिलते
ही उसका सेक्सऱ्यंत्र
सक्रिय होगा।
और इससे उलटी
घटना भी घटती
है। पैंतालीस
या पचास साल
की उम्र में
स्त्री के सारे
के सारे अंडे,
जो उसके पास
सामग्री थी, वह सब
समाप्त हो
जाएगी। उसके बायोलाजिकल
सेक्स का अंत
हो जाएगा।
लेकिन उसके मन
की ऊर्जा अभी
भी नीचे उतरती
रहेगी।
इसलिए
सत्तर साल की
बूढ़ी स्त्री
भी कामातुर हो
सकती है, यद्यपि
उसके शरीर में
अब काम का कोई
उपाय नहीं रह
गया। अब काम
का कोई जैविक
अर्थ नहीं रह
गया। अब उसकी बायोलाजिकल
बात समाप्त हो
गई है। पुरुष
भी नब्बे साल
का बूढ़ा हो
जाए तब भी, उसकी
काम-ऊर्जा
उसके चित्त से
उसके शरीर के
नीचे हिस्से
तक उतरती रहती
है। वही
काम-ऊर्जा उसे
पीड़ित करती
रहती है।
यद्यपि शरीर
अब सार्थक नहीं
रह गया, लेकिन
मन अभी भी
कामना किए चला
जाता है।
यह मैं
इसलिए कह रहा
हूं ताकि हम
समझ सकें कि
चौदह या तेरह
साल तक, जब
तक मस्तिष्क
से सूचना नहीं
मिलती...और अब
तो बायोलाजिस्ट
भी इस बात को
स्वीकार करते
हैं कि जब तक
मस्तिष्क से
आर्डर नहीं
मिलता है शरीर
को, तब तक सेक्सऱ्यंत्र
सक्रिय नहीं
होता है।
इसलिए
अगर हम
मस्तिष्क के कुछ
हिस्से को काट
दें, तो
व्यक्ति का
सेक्स जीवन भर
के लिए समाप्त
हो जाएगा। या
मस्तिष्क के
कुछ हिस्से को
हारमोन के
इंजेक्शन
देकर जल्दी
आर्डर देने के
लिए तैयार कर
लें, तो
सात साल का
लड़का या पांच
साल की लड़की, उसका भी सेक्सऱ्यंत्र
सक्रिय हो
जाएगा। अगर हम
बूढ़े आदमी को
वीर्य-कणों का
इंजेक्शन दे
सकें तो वह अस्सी
साल में भी
गर्भाधान करा
सकेगा। अगर हम
स्त्री के
ओवरी में अंडा
रख सकें, नब्बे
साल की स्त्री
के, तो भी
गर्भाधान हो
जायेगा।
क्योंकि
काम-ऊर्जा तो
प्रवाहित हो
ही रही है, सिर्फ
उसका बाडिली
पार्ट, उसका
शारीरिक हिस्सा
समाप्त हो गया
है।
यह जो
काम-ऊर्जा है, यह अनंत है।
महावीर ने उसे
अनंत वीर्य
कहा है। असल
में महावीर को
नाम ही महावीर
इसीलिए मिला
क्योंकि
उन्होंने कहा
कि यह अनंत
वीर्य...अनंत
वीर्य से अर्थ,
जैविक
वीर्य से नहीं,
सीमेन से नहीं है।
अनंत वीर्य से
अर्थ उस काम-ऊर्जा
का है जो
निरंतर मन से
शरीर तक उतरती
है। और जो मन
से शरीर तक
उतरती है, वह
मन से नहीं
आती है। वह
आती है आत्मा
से मन तक और मन
से शरीर तक।
यह आत्मा से
मन तक उतरेगी
और मन से शरीर
तक उतरेगी। यह
उसकी सीढ़ियां
हैं। इसके
बिना वह उतर
नहीं सकती।
अगर बीच में
से मन टूट
जाये, तो
आत्मा और शरीर
के बीच सारे
संबंध टूट
जाएंगे।
जिस
शक्ति को मैं
काम-ऊर्जा कह
रहा हूं, जिस
शक्ति को योग
ने और तंत्र
ने काम-ऊर्जा
कहा है, वह
जीव
शास्त्रीय
काम-ऊर्जा
नहीं है। यह
काम-ऊर्जा ऊपर
की तरफ पुनः
गति कर सकती
है। और अगर किसी
वृद्ध में भी
यह काम-ऊर्जा
ऊपर की तरफ
गति कर जाये
तो उसकी जिंदगी
उतनी ही सरल
और इनोसेंट
और निर्दोष हो
जाएगी जितनी
छोटे बच्चे की
थी। उसकी
आंखों में फिर
वही सरलता
झलकने लगेगी।
उसके
व्यक्तित्व
में फिर वही
भोलापन लौट
आएगा जो छोटे
बच्चे का था।
बल्कि उससे भी
ज्यादा। क्योंकि
छोटे बच्चे का
भोलापन खतरे
से भरा हुआ है,
अब यह
भोलापन उसका
नष्ट होगा।
अभी उसके
भोलेपन के
नीचे
ज्वालामुखी
धधक रहे हैं, तैयार हो
रहे हैं। वह
अभी फूटेंगे।
अगर बूढ़े आदमी
की काम-ऊर्जा
वापस लौट जाए
तो बच्चे से
भी ज्यादा सरल,
निर्दोष, इनोसेंट उसकी
जिंदगी में
उतर आता है।
साधुता इसी
निर्दोषता का
नाम है।
काम-ऊर्जा का
ऊर्ध्वगमन
साधु की
यात्रा है।
यह
काम-ऊर्जा मन
से ही संचालित
होती है। यह
काम-ऊर्जा मन
का ही संकल्प
है। मन की
आज्ञा के बिना
यह काम-ऊर्जा
नीचे की ओर
प्रवाहित
नहीं होती है।
इसलिए यदि मन
को ऐसी
व्यवस्था दी
जा सके कि वह
इस काम-ऊर्जा
को कम
प्रवाहित करे
तो व्यक्ति के
जीवन में काम
कम हो जाएगा।
ज्यादा
प्रवाहित करे
तो ज्यादा हो
जाएगा। बहुत
ज्यादा मन को
आतुर किया जाए
तो बहुत
ज्यादा हो
जाएगा।
अमरीका
में विगत बीस
वर्षों में
लड़के और लड़कियों
की प्रौढ़ता
की उम्र दो
साल नीचे गिर
गई है। जहां
तेरह साल में लड़कियां
प्रौढ़ होती
थीं, सेक्सुअली मैच्योर
होती थीं, वहां
ग्यारह साल
में होनी शुरू
हो गई हैं।
अमरीका के
चित्त पर इतने
जोर से
काम-ऊर्जा को
आज्ञा देने के
सब तरह के
दबाव हैं।
इसलिए यह स्वाभाविक
है कि यह उम्र
और नीचे
गिरेगी। यह
ग्यारह से नौ
साल भी पहुंच
सकती है, यह
सात साल भी
पहुंच सकती है,
यह पांच साल
भी पहुंच सकती
है।
अगर हम
चारों तरफ
पूरी हवाओं को
कामुक वातावरण
से भर दें, और अगर
चारों तरफ
सिवाय काम को
आकर्षित करने
के कुछ भी न हो,
अगर हर चीज
कामुक सिम्बल
बन जाए, अगर
कार भी बेचनी
हो तो
अर्धनग्न
स्त्री को खड?ा करना पड़े
कार के पास, अगर सिगरेट
भी बेचनी
हो तो स्त्री
को लाना पड़े, अगर कुछ भी
करना हो तो
सेक्स सिम्बल
को एक्सप्लाएट
करना पड़े, तो
चित्त पर
स्वाभाविक
भयंकर परिणाम
होंगे। और
चित्त जो
आज्ञा दो साल
बाद देता, वह
दो साल पहले
आज्ञा दे
देगा। यह प्रिमैच्योर
आज्ञा है और
इसके खतरनाक
परिणाम होने
वाले हैं।
इससे
उलटा भी हुआ
है। इस देश
में हमने
पच्चीस वर्ष
तक युवक और
युवतियों को
यौन के जगत से
बिलकुल ही
अछूता रखने
में सफलता
पायी थी।
लेकिन उलटा ही
सब किया था, सारी व्यवस्था
बदली थी।
चित्त आज्ञा न
दे इसके सारे
उपाय किए थे।
चित्त आज्ञा न
दे, इसकी
सारी
व्यवस्था की
थी। उस तरह के
व्यायाम का
उपयोग किया था,
उस तरह के
आसन का उपयोग
किया था, उस
तरह के ध्यान
का उपयोग किया
था, उस तरह
के मनन और
चिंतन का
उपयोग किया था,
उस तरह के
संकल्प और
विल-पावर का
उपयोग किया था,
जो मन को
आज्ञा देने से
रोकेगा।
और अगर
पच्चीस वर्ष
तक किसी
व्यक्ति के मन
को काम-ऊर्जा
में नीचे
उतरने से रोका
जा सके तो वह
इतने आनंद का
अनुभव कर लेता
है कि कल अगर
वह काम-ऊर्जा
के जगत में
गया भी, अगर
वह यौन के जगत
में गया भी तो उसके
सामने एक कम्पेरीजन
होता है। उसे
पता होता है
कि जब वह नहीं
गया था तब का
आनंद, और
जब गया तब के
आनंद में
बुनियादी
फर्क है। और
इसलिए उसका
चित्त निरंतर
कहता है कि कब
मैं वापस लौट
जाऊं। इसलिए
पच्चीस साल तक
जो ब्रह्मचर्य
के जीवन में
रहा है, वह
पचास साल के
बाद पुनः
संन्यासी की
दुनिया की तरफ
उन्मुख होना
शुरू हो
जाएगा।
क्योंकि उसके
पास तुलना का
उपाय है।
आज जब
हम किसी
व्यक्ति को
ब्रह्मचर्य
के आनंद की
बात कहते हैं
तो बात का कोई
अर्थ ही नहीं
होता।
क्योंकि उसे
ब्रह्मचर्य
के आनंद का
कुछ भी पता
नहीं है। वह
एक ही सुख को
जानता है, जो कि उसे
यौन से मिलता
है। इसलिए
ब्रह्मचर्य की
बात बिलकुल ही
व्यर्थ मालूम
पड़ती है। अकाम
की बात उसके
लिए सार्थक
नहीं मालूम
पड़ती। वह उसके
अनुभव का
हिस्सा नहीं
है।
और मजे
की बात यह है
कि एक बार
ऊर्जा नीचे की
तरफ प्रवाहित
होना शुरू हो
जाये, फिर
उसे ऊपर की
तरफ प्रवाहित
करना कठिन हो
जाता है। मार्ग
बन जाते हैं।
अगर आप घर में
एक ग्लास पानी
लुढ़का
दें तो पानी
एक मार्ग
बनाकर बह
जाएगा। फिर धूप
पड़ेगी, पानी
उड़ जाएगा। कुछ
भी नहीं बचेगा
उस जमीन पर।
लेकिन पानी के
बहने की एक
सूखी रेखा बच
जाएगी। अगर आप
दूसरी दफा भी
पानी उस कमरे
में डालें तो
सौ में निन्यान्बे
मौके यह हैं
कि उसी सूखी
रेखा को पकड़
कर वह पानी
फिर बहेगा। लीस्ट रेसिस्टेंस
को पकड़ना
स्वभाव है।
जहां कम से कम
तकलीफ होती है,
वहीं बह
जाने की इच्छा
होती है।
एक बार
अपरिपक्व मन
जब काम की
दुनिया में
उतर जाता है, यौन की
दुनिया में
उतर जाता है, तो जीवन भर
जब भी शक्ति
इकट्ठी होती
है, लीस्ट रेसिस्टेंस
का नियम मानकर
वह उसी मार्ग
से बह जाने की
तत्परता
दिखलाती है।
और जब तक नहीं
बह जाती तब तक भीतर
पीड़ा, परेशानी
अनुभव होती
है। और जब बह
जाती है तो रिलीफ
मालूम होता
है। जैसे हल्का
हो गया मन, भार
से हम मुक्त
हो गए। लेकिन
एक बार अगर
ऊपर की तरफ
जानेवाला
मार्ग खुल
जाये तो फिर
निरंतर उसका
स्मरण आता
रहता है। किस
विधि से मन
यौन-ऊर्जा को
ऊर्ध्वगामी
बना सकता है, तीन बातें
इस संबंध में
समझ लेनी
जरूरी हैं।
पहली
बात तो यह समझ
लेनी जरूरी है
कि जो भी चीज
नीचे जा सकती
है वह चीज ऊपर
भी जा सकती
है। इसे
वैज्ञानिक
सूत्र समझा जा
सकता है। असल
में जिस चीज
का भी नीचे
जाने का उपाय
है, उसके ऊपर
जाने का भी
उपाय होगा ही,
चाहे हमें
पता हो चाहे
हमें पता न
हो। जिस रास्ते
से हम नीचे जा
सकते हैं, उसी
रास्ते से ऊपर
भी जा सकते
हैं। रास्ता
वही होता है, सिर्फ रुख
बदलना होता
है।
आप
यहां तक आये
हैं जिस
रास्ते से
अपने घर से, उसी रास्ते
से आप घर वापस
लौटेंगे। तब
सिर्फ आपकी
पीठ घर की तरफ
थी, अब
मुंह घर की
तरफ होगा। कोई
दरवाजा ऐसा
नहीं है जो
बाहर लाये और
भीतर न ले जा
सके। जिंदगी
दोहरे आयाम
में फैलती है।
अगर ऊर्जा नीचे
उतर सकती है
तो ऊर्जा ऊपर
जा सकती है।
इस पहले नियम
को मन को ठीक
से समझ लेना
जरूरी है। क्योंकि
जो हो सकता है
मन केवल उसी
को करने को राजी
होता है कि यह
हो सकता है।
मन असंभव की
तलाश छोड़ देता
है। उसे साफ
खयाल में आना
चाहिए कि यह
हो सकता है।
अगर
पहाड़ से पानी
नीचे की तरफ
गिरता है तो
साधारणतः
पानी पहाड़ से
नीचे की तरफ
ही गिरता है, ऊपर की तरफ
नहीं जाता।
हजारों साल तक
ऊपर तक ले
जाने का हमें
कुछ भी पता
नहीं था।
लेकिन जो चीज
नीचे आ सकती
है तो ऊपर भी
जा सकती है।
लेकिन अब हम
पहाड़ों की
ऊंचाई पर पानी
को पहुंचा भी
सकते हैं।
क्योंकि जिस
नियम से पानी
नीचे आता है
उस नियम के
विपरीत
प्रयोग करने
से पानी ऊपर
चढ़ जाता है।
यौन-ऊर्जा
नीचे की तरफ
सहज आती है।
प्रकृति की
तरफ से आती
है। अगर किसी
मनुष्य को उस
ऊर्जा को ऊपर
ले जाना है तो
यह सहज नहीं
होगा।
प्रकृति की
तरफ से नहीं
होगा। यह संकल्प
से होगा। यह
मनुष्य के
प्रयास, मनुष्य
की आकांक्षा
और अभीप्सा और
श्रम से होगा।
मनुष्य को इस
दिशा में श्रम
करना पड़ेगा, क्योंकि
प्रकृति से
उलटी दिशा में
बहना पड़ेगा।
नदी में अगर
नीचे की तरफ
बहना हो, सागर
की तरफ, तब
तैरने की कोई
भी जरूरत नहीं
है। तब हम
हाथ-पैर छोड़कर
सागर की तरफ
बह जा सकते
हैं। नदी ही सागर
की तरफ ले
जाएगी, हमें
कुछ भी करना
नहीं। लेकिन
अगर नदी के
मूल स्रोत की
तरफ, उदगम
की तरफ जाना
हो तो फिर
तैरना पड़ेगा,
श्रम उठाना
पड़ेगा। फिर एक
संघर्ष होगा।
नदी की धारा
से संघर्ष
होगा।
तो जो
लोग भी ऊपर की
तरफ जाना
चाहते हैं, उन्हें
दूसरी बात समझ
लेनी चाहिए कि
संकल्प और
संघर्ष मार्ग
होगा। ऊपर
जाया जा सकता
है, और ऊपर
जाने के
अपूर्व आनंद
हैं। क्योंकि
नीचे जाकर जब
सुख मिलता
है--क्षणिक
सही, पर
मिलता है--तो
ऊपर जाकर क्या
मिल सकता है, उसकी हम
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
यौन-ऊर्जा
नीचे बहकर जो
लाती है वह
सुख है, और
यौन-ऊर्जा ऊपर
उठकर जो लाती
है वह आनंद
है। यौन-ऊर्जा
नीचे जाकर
जिसे लाती है
वह क्षणिक है,
क्योंकि वह
घटना ही
क्षणिक है।
खोने की घटना
क्षणिक ही
होगी, संग्रहीत
करने की घटना
शाश्वत हो
सकती है। नीचे
जाकर आप खोते
हैं, खोने
की घटना
क्षणिक है। एक
क्षण को खोने
का क्षण ही सब
कुछ है। लेकिन
ऊपर आप
संग्रहीत
करते हैं। ऊपर
रिजर्वायर
बनाते हैं। यह
रिजर्वायर
अनंत हो सकता
है। वह रोज
बढ़ता जाता है।
सुख
मिलते ही घटना
शुरू हो जाता
है। आनंद मिलते
ही बढ़ना शुरू
हो जाता है।
और सुख जब
घटता है तो
दुख बढ़ता है।
इसलिए हर सुख
के पीछे दुख
की काली छाया
खड़ी होती है, और हर आनंद
के पीछे आनंद
की और बढ़ती
हुई प्रकाशित
दुनिया होती
है। आनंद के
पीछे दुख की
कोई छाया नहीं
होती। आनंद और
गहरा होता चला
जाता है, क्योंकि
संग्रह रोज
बढ़ता जाता है
और अनंत
संग्रह की संभावना
है।
दूसरी
बात, संकल्प
और संघर्ष।
संकल्प को
थोड़ा समझना
उपयोगी है कि
संकल्प से
क्या अर्थ है,
और कैसे यह
ऊर्जा संकल्प
से ऊपर जा
सकती है। दो-चार
उदाहरण दूं, उनसे खयाल
में आ सकेगा।
कल ही
एक मित्र
मुझसे पूछ रहे
थे कि मुसलमान
रोजा रखते हैं, जैन, हिंदू
उपवास करते
हैं, क्रिश्चियन
उपवास करते
हैं, इसका
क्या संबंध है?
भूखे रहने
से क्या होगा?
भूखे
रहने से कभी
कुछ भी नहीं
होता। भूखे
रहने से कभी
कुछ भी नहीं
हो सकता है।
लेकिन ये सारे
लोग पागल नहीं
हैं। उन्हें
नहीं कह रहा हूं
जो कर रहे हैं, क्योंकि
उनमें से अधिक
लोग पागल ही
होंगे। क्योंकि
उन्हें कुछ भी
पता नहीं है
कि वे क्या कर
रहे हैं।
लेकिन जिन
लोगों से इन
सूत्रों की यात्रा
शुरू हुई, वे
लोग पागल नहीं
हैं।
आदमी
की जिंदगी में
भोजन की
आकांक्षा
सबसे गहरी है।
क्योंकि सर्वाइवल
के लिए, बचने
के लिए, सबसे
जरूरी चीज है।
आदमी प्रेम
छोड़ सकता है
भोजन के लिए।
मां बच्चे को
काट सकती है
भोजन के लिए।
बंगाल के अकाल
में माताओं ने
अपने बच्चे बेच
दिए। पति
पत्नी को काट
सकता है, बेच
सकता है, पत्नी
पति को फेंक
सकती है। मरने
के क्षण में जहां
अंतिम स्थिति
बचाने की हो
जाये वहां चित्त
पूरे जोर से
कहेगा कि अपने
को बचाओ।
क्योंकि शेष
सब फिर से हो
सकता है।
लेकिन बचना
फिर दुबारा
नहीं हो सकता
है। पति फिर
मिल सकता है, बेटा फिर
पैदा हो सकता
है लेकिन
स्वयं के पाने
का दुबारा
क्या उपाय है?
इसलिए भोजन सर्वाइवल
की गहरी से
गहरी
आकांक्षा है।
अब एक
आदमी को महीने
भर के लिए
भूखा रख दिया
गया है। जब वह
भूखा है तब
चौबीस घंटे
उसे याद आती है:
भोजन करूं, भोजन करूं, भोजन करूं।
चौबीस घंटे
उसके शरीर का
रोआं-रोआं
कहेगा कि भोजन
करो। जागते
में, सपने
में, शरीर
कहेगा: भोजन
करो। एक जगह
खाली हो गई
है। एक बायोलाजिकल
गैप भीतर पैदा
हो गया है।
शरीर कहेगा
भोजन करो और
वह इसी वक्त
परमात्मा की
प्रार्थना
में लगता है।
शरीर चिल्ला
रहा है भोजन
की प्यास, और
वह चिल्ला रहा
है परमात्मा
की प्यास। थोड़े
ही समय में, दिन दो-दिन, चार-दिन बीतेंगे
और शरीर की जो
भोजन की प्यास
है, कनवर्ट
हो जाएगी और
परमात्मा की
प्यास बन जाएगी।
वह जो शरीर की
भोजन की मांग
है, अगर वह
नहीं झुका और
संकल्प किए ही
चला गया कि नहीं,
भोजन नहीं,
परमात्मा
ही; नहीं, भोजन नहीं
परमात्मा।
अगर शरीर के
सामने नहीं
झुका और कहता
चला गया: भोजन
नहीं, परमात्मा!
तो चार-छह दिन
के भीतर शरीर
भोजन की जगह
परमात्मा को
पुकारने
लगेगा।
यह
रूपांतरण
हुआ। यह ट्रांसफार्मेशन
हुआ। एनर्जी, जो भोजन को
मांगती थी, वह परमात्मा
को मांगने
लगी। इस तरह
भोजन की तरफ
जाते हुए संकल्प
को परमात्मा
की तरफ मोड़
दिया गया है।
यह बड़ा
रूपांतरण है।
संकल्प
शक्तियों के
रूपांतरण का
नाम है। जब चित्त
मांगता है यौन, जब चित्त
मांगता है
दूसरे को, अपोजिट
को, स्त्री
पुरुष को, पुरुष
स्त्री को, जब चित्त
मांगता है कि
दूसरे की तरफ
बहो, तब
बहाव का
रूपांतरण
करना पड़ेगा।
जब चित्त जिस
ढंग से दूसरे
को, मांगता
है उससे उलटी
प्रक्रिया
करनी पड़ेगी ताकि
चित्त की यह
मांग
परमात्मा की,
मोक्ष की, निर्वाण की
मांग बन जाये।
अब
इसके लिए दोत्तीन
बातें खयाल
में लेनी
जरूरी हैं।
जैसे
ही चित्त यौन
की मांग करता
है, सेक्स की
मांग करता है,
शरीर सेक्स
की तैयारी
करने लगता है।
यौन-केंद्र
मूलाधार से
दूसरे की मांग
की स्फुरणा
शुरू हो जाती
है।
यौन-केंद्र
बहिर्गामी हो
जाता है। इस
क्षण में
तंत्र कहता है
कि अगर
यौन-केंद्र को
अंतर्गामी
किया जा सके, भीतर की तरफ
खींचा जा
सके--जिसे
यौन-मुद्रा का
नाम दिया
है--अगर
यौन-केंद्र
मूलाधार को
भीतर की तरफ
खींचा जा सके,
तो तत्काल
आप दो क्षण
में पायेंगे
कि शरीर ने यौन
की मांग बंद
कर दी। मांग
लेकिन पैदा हो
गई थी। शक्ति
जग गई थी, और
अब मांग बंद
हो गई। इस
शक्ति को ऊपर
ले जाया जा
सकता है।
जैसे
ही हम सेक्स
का विचार करते
हैं वैसे ही
हमारा चित्त
जननेंद्रिय की
तरफ बहने लगता
है। तो तुरंत
जननेंद्रिय
को भीतर की ओर
खींच लेते ही
जननेंद्रिय
से बाहर जानेवाले
सब द्वार बंद
हो जाते हैं।
और जो ऊर्जा
जग गई है, अगर
उस क्षण में
हम आंखों को
बंद कर लें और
आंख बंद करके
सिर की छत की
तरफ, अंदर
से जैसे ऊपर
की तरफ देख
रहे हों, देखना
शुरू कर दें, तो ऊर्जा
ऊपर की तरफ
बहना शुरू हो
जाती है।
यह एक
महीने भर के
प्रयोग से
अभूतपूर्व
अनुभव में
किसी भी
व्यक्ति को
उतार दिया जा
सकता है। जब
भी यौन का
खयाल उठे तभी
यौन-केंद्र को, मूलाधार को
भीतर की ओर खींच
लें, आंख
बंद करें और
सिर की छत की
तरफ अंदर से
जैसे ऊपर देख
रहे हों, देखना
शुरू कर दें।
और आप एक
महीने भर के
भीतर, इक्कीस
दिन के भीतर
पायेंगे कि
आपके भीतर से
कोई चीज नीचे
से ऊपर की तरफ
जानी शुरू हो
गई है। यह
वस्तुतः
अनुभव होगा कि
कोई चीज ऊपर
बहने लगी, कोई
चीज ऊपर उठने
लगी। उसे कोई
कुंडलिनी का
नाम कहता है, उसे कोई और
कोई नाम दे
सकता है।
इसमें
दो बिदुओं
पर ध्यान देना
जरूरी है। एक
तो
सेक्स-सेंटर पर, मूलाधार पर,
और दूसरे
सहस्रार पर।
सहस्रार
हमारे ऊपर का
केंद्र है
सबसे ऊपर, और
मूलाधार
हमारे सबसे
नीचे का केंद्र
है। मूलाधार
को सिकोड़ लें
भीतर की तरफ।
तो उसमें जो
शक्ति पैदा
हुई है, वह
शक्ति मार्ग
खोज रही है।
और अपने चित्त
को ले जायें
ऊपर की तरफ, तो वही
मार्ग खुला रह
जाता है।
चित्त जिस तरफ
देखता है उसी
तरफ शरीर की
शक्तियां
बहनी शुरू हो
जाती हैं। यह ट्रांसफार्मेशन
की छोटी-सी
विधि है।
तो
इसका अगर
प्रयोग करें
तो
ब्रह्मचर्य
बिना सप्रेशन
के फलीभूत
होता है। यह
सप्रेशन नहीं है, यह सब्लीमेशन
है। यह दमन
नहीं है। दमन
का तो मतलब है
कि ऊपर का
द्वार नहीं
खुला है और
नीचे के द्वार
पर रोके चले
जा रहे हैं।
तब उपद्रव
होगा, तब
विक्षिप्तता
होगी, पागलपन
होगा। अगर
मार्ग भी है
शक्ति के लिए,
तो दमन नहीं
होगा, सिर्फ
ऊर्ध्वगमन
होगा। शक्ति
नीचे से ऊपर
की तरफ उठनी
शुरू हो
जाएगी।
यह तो
एक प्रायोगिक
बात मैंने
आपसे कही। यह
प्रयोग करें
और समझें। यह
कोई
सैद्धांतिक
बात नहीं है।
न कोई बौद्धिक
या शास्त्रीय
बात है। यह
करोड़ों लोगों
की अनुभूत घटना
है और सरलतम
प्रयोग है।
कठिन बहुत
नहीं है। और
एक बार
मस्तिष्क के
ऊपरी छोरों पर
रस के फूल खिलने
शुरू हो जायें
तो आपकी
जिंदगी से यौन
विदा होने
लगेगा। वह
धीरे-धीरे खो
जाएगा और एक
नई ही ऊर्जा
का, नई ही
शक्ति का, एक
नये ही वीर्य
का, एक नई
दीप्ति का, एक नये आलोक
का एक नया
संसार शुरू हो
जाता है।
फिजिओलाजिस्ट
से इसका कोई
लेना-देना
नहीं है। जो
शक्ति ऊपर उठेगी
उसे अगर हम
शरीर को काटकर
देखें, तो
वह कहीं भी
नहीं मिलेगी।
वह मैगनेटिक
फील्ड की तरह
है। अगर हम
हड्डियों को
तोड़ें-फोड़ें
तो उसका कहीं
भी सुराग नहीं
मिलेगा, कहीं
उसका कोई पता
नहीं चलेगा।
वह शारीरिक घटना
नहीं है। वह
घटना साइकिक
है। वह घटना
मनस में घटती
है, शरीर
के तल पर
लेकिन अंतर
पड़ने शुरू हो
जाएंगे।
क्योंकि उस
शक्ति के नीचे
प्रवाहित
होने पर शरीर
के वीर्य-कणों
का भी प्रवाह
बाहर की तरफ
होता है। यदि
वह शक्ति नीचे
नहीं बहेगी तो
शरीर के
वीर्य-कण भी
बाहर की ओर बहने
बंद हो
जाएंगे। शरीर
भी संरक्षित
होगा, लेकिन
शरीर के
संरक्षण के
लिए यह प्रयोग
नहीं है।
शरीर
किसी भी तरह
संरक्षित हो
या न हो, क्योंकि
शरीर की उम्र
है और वह
मरेगा, और सड़ेगा। वह
जायेगा। जन्म
और मृत्यु के
बीच फासला जितना
है वह पूरा कर
लेगा। बड़ी जो
घटना घटेगी वह
साइकिक
एनर्जी की है।
वह मनस-ऊर्जा
की है। और जितनी
मनस-ऊर्जा
व्यक्ति के
पास हो, उतना
ही व्यक्ति का
विस्तार होने
लगता है, उतना
ही वह फैलने
लगता है, उतना
ही वह विराट
होने लगता है।
और जिस दिन एक
कण भी व्यक्ति
की मनस-ऊर्जा
का नीचे की
तरफ प्रवाहित
नहीं होता, उसी दिन
व्यक्ति
घोषणा कर सकता
है, अहं
ब्रह्मास्मि।
वह कह सकता है,
मैं ब्रह्म
हूं।
यह अहं
ब्रह्मास्मि
की घोषणा कोई
तार्किक निष्पत्ति, कोई लाजिकल
कनक्लूजन
नहीं है। यह एक
एक्जिस्टेंसियल
कनक्लूजन
है। यह एक
अस्तित्वगत
अनुभव है। जिस
दिन विराट से
संबंध होता है,
उस दिन पता
चलता है कि
मैं व्यक्ति
नहीं हूं, विराट
हूं। लेकिन यह
विराट का
अनुभव विराट
शक्ति के
संरक्षण से हो
सकता है। और
इस शक्ति का संरक्षण,
जब तक
काम-ऊर्जा ऊपर
की तरफ
प्रवाहित न हो,
तब तक असंभव
है।
आचार्य
श्री, आपने
कहा है कि
वर्तमान में
पल-पल जीने से
सेक्स एनर्जी,
यौन-ऊर्जा
का संचय और
ऊर्ध्वगमन
होने लगता है तथा
अतीत और
भविष्य के
चिंतन से
ऊर्जा का विनाश
और अधोगमन
होने लगता है।
इन दोनों
बातों में
क्या-क्या
प्रक्रिया
घटित होती है,
उसका
विज्ञान
स्पष्ट करें।
जीवन
है अभी और
यहीं, जीवन
है क्षण-क्षण
में, जीवन
है पल-पल में, लेकिन
मनुष्य का
चित्त सोचता
है पीछे की, मनुष्य का
चित्त सोचता
है आगे की। और
यह जो चित्त
का चिंतन है
जब काम से
संबंधित होता
है तो मनुष्य
का चित्त सोचता
है उन
काम-संबंधों
के संबंध में,
उन यौन
अनुभवों के
संबंध में जो
पीछे घटित हुए
हैं। और उन
यौन-संबंधों
की कल्पना
करता है, जो
आगे घटित
होंगे, हो
सकते हैं, होने
की आकांक्षा
है। और जब
चित्त इस तरह
के चिंतन में
खो जाता है
पीछे और आगे, तो शारीरिक
वीर्य-कण तो
नष्ट नहीं
होते, लेकिन
जिस यौन-ऊर्जा
की, जिस
काम-ऊर्जा की,
जिस साइकिक
एनर्जी की
मैंने बात कही
है, वह
नष्ट होनी
शुरू हो जाती
है। शरीर के
वीर्य-कण तो
वास्तविक
संभोग में
नष्ट होंगे, लेकिन मन की
ऊर्जा चिंतन
में ही नष्ट
होने लगती है।
इसलिए
भाव से भी जो
काम का चिंतन
करता है, वह
अपनी ऊर्जा को
अधोगामी करता
है, भाव से
भी, विचार
से भी। एक
रत्ती भर
शक्ति शरीर
नहीं खो रहा
है, सिर्फ
सोच रहा है उन
संभोगों के
संबंध में जो उसने
किए, या उन
संभोगों के
संबंध में जो
वह करेगा, सिर्फ
चिंतन कर रहा
है। पर इतना
चिंतन भी मन की
ऊर्जा के
विनाश के लिए
काफी है। मन
की ऊर्जा तो
विनष्ट होनी
शुरू हो
जाएगी। और मन
की यह ऊर्जा
ही असली ऊर्जा
है। संभोग से
तो सिर्फ शरीर
के ही कुछ कण
खोते हैं, लेकिन
मन के संभोग
से, इस
मेंटल सेक्स
से, इस
मानसिक यौन से,
मन की विराट
ऊर्जा नष्ट
होती है। शरीर
तो आज नहीं, कल पूरा ही
नष्ट हो
जाएगा। शरीर
उतना चिंतनीय
नहीं है, चूंकि
मन की जो
ऊर्जा है वह
अगले जन्म में
भी आपके साथ
होगी। उस
ऊर्जा का ही
असली सवाल है।
इसलिए
जब मैंने यह
कहा कि जो
व्यक्ति पल-पल
जीता है--न
पीछे की सोचता
है, न आगे की
सोचता है काम
के संबंध
में--तो वह आगे
की भी नहीं
सोचता और पीछे
की भी नहीं
सोचता, वही
पल-पल जीता
है। उसकी
मानसिक ऊर्जा
के विसर्जन का
कोई उपाय नहीं
रह जाता।
और भी
एक मजे की बात
है कि जो आदमी
अतीत की चिंता
कम करता है, भविष्य की
चिंता कम करता
है, जो
सामने होता है
उसी को करता
है, उसी
में पूरा डूबकर
जीता है, उसकी
जिंदगी में
तनाव, टेन्शंस कम हो जाते
हैं। और जितना
तनाव कम हो
उतनी सेक्स की
जरूरत कम हो
जाती है।
जितना तनाव
ज्यादा हो
उतनी सेक्स की
जरूरत बढ़ जाती
है, क्योंकि
सेक्स रिलीफ
का काम करने
लगता है। वह तनाव
के बिखेरने
का काम करने
लगता है।
इसलिए
जितना ज्यादा
चिंतित आदमी
है, उतना
कामुक हो
जाएगा। और
जितना चिंतित
समाज है, वह
उतना कामुक हो
जायेगा, जैसे
आज यूरोप या
अमरीका है।
अत्यधिक
चिंतित है तो
जीवन सारा काम
से भर जाएगा।
जितना निश्चिंत
व्यक्ति है, उतनी काम की
जरूरत कम हो
जाएगी।
क्योंकि तनाव इतने
इकट्ठे नहीं
होते कि शरीर
से शक्ति को
फेंककर
उन्हें हल्का
करना पड़े।
अतीत
और भविष्य की
बहुत ज्यादा
चिंतना तनावग्रस्त
करती है, टेन्शंस पैदा करती
है। वर्तमान
में जीये
जाना तनाव
मुक्त करता
है। जो आदमी
अपने बगीचे
में गङ्ढा
खोद रहा है तो गङ्ढा ही
खोद रहा है।
जो आदमी खाना
खा रहा है तो
खाना ही खा
रहा है। जो
आदमी सोने गया
है तो सोने ही
गया है, दफ्तर
में है तो
दफ्तर में है,
घर में है
तो घर में है, जिससे मिल
रहा है उससे
मिल रहा है, जिससे बिछुड़
गया है उससे बिछुड़ गया
है। जो आदमी
आगे-पीछे बहुत
समेट कर नहीं
चलता है, उसके
चित्त पर इतने
कम भार होते
हैं कि उसकी
काम की जरूरत
निरंतर कम हो
जाती है।
तो दो
कारणों से
मैंने ऐसा
कहा। एक तो
चिंतन करने से
काम के, मानसिक
काम-ऊर्जा
विनष्ट होती
है। दूसरा, अतीत और
भविष्य की
कामनाओं में
डूबे होने से
तनाव इकट्ठे
होते हैं। और
जब तनाव
ज्यादा इकट्ठे
हो जाते हैं
तो शरीर को
अनिवार्य रूप
से अपनी शक्ति
कम करनी पड़ती
है। शक्ति कम
करके जो
शिथिलता
अनुभव होती है
उस शिथिलता
में विश्राम
मालूम पड़ता
है। शिथिलता
को हम विश्राम
समझे हुए हैं।
थककर गिर
जाते हैं तो
सोचते हैं
आराम हुआ। थक
कर टूट जाते
हैं तो लगता
है अब सो जायें,
अब चिंता
नहीं रही।
चिंता के लिए
भी शक्ति चाहिए।
लेकिन चिंता
ऐसी शक्ति है
जो भंवर बन
गयी और जो
पीड़ा देने
लगी। अब उस
शक्ति को बाहर
फेंक देना
पड़ेगा। उस
शक्ति को हम
निरंतर बाहर
फेंक रहे हैं।
और हमारे पास
शक्ति को बाहर
फेंकने का एक
ही उपाय दिखाई
पड़ता है। क्योंकि
ऊपर जाने का
तो हमारे मन
में कोई खयाल नहीं
है। नीचे जाने
का एकमात्र
बंधा हुआ मार्ग
है।
इसलिए
जो व्यक्ति
चिंता नहीं
करता, अतीत
की स्मृतियों
में नहीं डूबा
रहता, भविष्य
की कल्पनाओं
में नहीं डूबा
रहता, जीता
है अभी और
यहीं वर्तमान
में...इसका यह
मतलब नहीं है
कि आपको कल
सुबह ट्रेन से
जाना हो तो आज टिकिट
नहीं खरीदेंगे।
लेकिन कल की टिकिट खरीदनी
आज का ही काम
है। लेकिन आज
ही कल की गाड़ी
में सवार हो
जाना खतरनाक
है। और आज ही
बैठकर कल की
गाड़ी पर
क्या-क्या
मुसीबतें
होंगी और कल
की गाड़ी पर
बैठकर
क्या-क्या
होने वाला है,
इस सबके
चिंतन में खो
जाना खतरनाक
है।
नहीं, यौन इतना
बुरा नहीं है
जितना यौन का
चिंतन बुरा
है। यौन तो
सहज, प्राकृतिक
घटना भी हो
सकती है, लेकिन
उसका चिंतन
बड़ा
अप्राकृतिक
और परवर्सन
है, वह
विकृति है। एक
आदमी सोच रहा
है, सोच
रहा है, योजनाएं
बना रहा है, चौबीस घंटे
सोच रहा है।
और कई बार तो
ऐसा हो जाता
है, होता
है, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि सैकड़ों-हजारों
लोगों के
अनुभवों के
बाद यह पता
चलता है कि
आदमी मानसिक
यौन में इतना
रस लेने लगता है
कि वास्तविक
यौन में उसे
रस ही नहीं
आता, फिर
वह फीका मालूम
पड़ता है।
चित्त में ही
जो यौन चलता
है वही ज्यादा
रसपूर्ण और
रंगीन मालूम
पड़ने लगता है।
चित्त
में यौन की इस
तरह से
व्यवस्था हो
जाये तो हमारे
भीतर कंफ्यूजन
पैदा होता है।
चित्त का काम
नहीं है यौन।
गुरजिएफ कहा
करता था कि जो
लोग यौन के
केंद्र का काम
चित्त के
केंद्र से
करने लगते हैं, उनकी बुद्धि
भ्रष्ट हो
जाती है। होगी
ही, क्योंकि
उन दोनों के
काम अलग हैं।
अगर कोई आदमी
कान से भोजन
करने की कोशिश
करने लगे तो
कान तो खराब
होगा ही और
भोजन भी नहीं
पहुंचेगा।
दोनों ही
उपद्रव हो
जाएंगे।
व्यक्ति
के शरीर में
हर चीज का
सेंटर है।
चित्त काम का
सेंटर नहीं
है। काम का
सेंटर
मूलाधार है।
मूलाधार को
अपना काम करने
दें। लेकिन
चित्त को, चेतना को, अभी उस काम
में मत लगायें,
अन्यथा
चेतना उस काम
से ग्रस्त, आबसेस्ड हो जाएगी।
इसलिए
आदमी आबसेस्ड
दिखायी पड़ता
है। वह नंगी
तस्वीरें देख
रहा है बैठकर, और मूलाधार
को नंगी तस्वीरों
से कोई भी
संबंध नहीं
है। उसके पास
आंख भी नहीं
है। आदमी नंगी
तस्वीरें देख
रहा है, यह
मन से देख रहा
है। और मन में
तस्वीरों का
विचार कर रहा
है, योजनाएं
बना रहा है, कल्पनाएं कर
रहा है, रंगीन
चित्र बना रहा
है। यह सब के
सब मिल कर उसके
भीतर सेंटर का
कंफ्यूजन
पैदा कर रहे
हैं। मूलाधार
का काम चित्त
करने लगेगा, पर मूलाधार
तो चित्त का
काम नहीं कर
सकता है। बुद्धि
भ्रष्ट होगी,
चित्त
भ्रमित होगा,
विक्षिप्त
होगा।
पागलखाने
में जितने लोग
बंद हैं उनमें
से नब्बे
प्रतिशत लोग
चित्त से यौन
का काम लेने
के कारण पागल
हैं। पागलखानों
के बाहर भी
जितने लोग
पागल हैं, अगर उनके
पागलपन का हम
पता लगाने
जायें तो हमें
पता चलेगा कि
उसमें भी
नब्बे
प्रतिशत यौन
के ही कारण
हैं। उनकी
कविताएं पढ़ें
तो यौन, उनकी
तस्वीरें
देखें तो यौन,
उनकी
पेंटिंग्स
देखें तो यौन,
उनका
उपन्यास
देखें तो यौन,
उनकी फिल्म
देखने जायें
तो यौन, उनका
सब कुछ यौन से
घिर गया है। आब्सेशन
है यह, यह
पागलपन है।
अगर
पशुओं को भी
हमारे संबंध
में पता होगा
तो वे भी हम पर
हंसते होंगे
कि आदमी को
क्या हो गया
है? अगर
हमारी
कविताएं वे
पढ़ें, भले
ही कालिदास की
हों, तो
पशुओं को बड़ी
हैरानी होगी
कि इन कविताओं
की जरूरत क्या
है? इनका
अर्थ क्या है?
वे हमारे
चित्र देखें,
चाहे पिकासो
के हों, तो
उन्हें बड़ी
हैरानी होगी
कि इन चित्रों
का मतलब क्या
है? ये
स्त्रियों के
स्तनों को
इतना चित्रित
करने की
कौन-सी
आवश्यकता है?
क्या
प्रयोजन है?
आदमी
जरूर कहीं
पागल हो गया
है। पागल
इसलिए हो गया
है कि जो काम
मूलाधार का है, सेक्स-सेंटर
का है, उसे
वह इंटलेक्ट
से ले रहा है।
इसलिए इंटलेक्ट
से जो काम
लिया जा सकता
था, उसका
तो समय ही
नहीं बचता है।
बुद्धि
परमात्मा की
तरफ यात्रा कर
सकती है, लेकिन
वह मूलाधार का
काम कर रही
है। चेतना परम
जीवन का अनुभव
कर सकती है, लेकिन चेतना
सिर्फ फैंटेसीज
में जी रही है,
सेक्सुअल फैंटेसीज
में जी रही है,
वह सिर्फ
यौन के
चित्रों में
भटक रही है।
इसलिए
मैंने कहा, अतीत का मत
सोचें, भविष्य
का मत सोचें।
यौन के संबंध
में तो बिलकुल
ही नहीं। अभी
जीयें और जितना
यौन पल में आ
जाता हो उसे
आने दें, घबरायें मत, लेकिन
उस यौन के समय
में भी जो
मैंने
ऊर्ध्वगमन की
यात्रा की बात
कही, अगर
उसका थोड़ा
स्मरण करें तो
बहुत शीघ्र उस
शक्ति का ऊपर
प्रवाह शुरू
हो जाता है।
और जैसी धन्यता
उस प्रवाह में
अनुभव होती है
वैसी जीवन में
और कभी अनुभव
नहीं होती।
आचार्य
श्री, आपने
कहा कि यदि
कोई भी क्रिया
पूरी, टोटल
हो तो ऊर्जा खोयी नहीं
जाती। कृपया
बताइए कि टोटल
एक्शन का आप क्या
अर्थ लेते हैं?
और यह भी
बतायें कि
संभोग की
प्रक्रिया
में टोटल यानी
पूर्ण होने का
क्या अर्थ है?
क्या उसमें
ऊर्जा के क्षय
न होने का
अर्थ है?
कर्म
पूर्ण हो, कृत्य पूरा
हो तो ऊर्जा
क्षीण नहीं
होती। कोई भी
कर्म पूरा हो
तो ऊर्जा
क्षीण नहीं
होती है। जब
मैंने ऐसा कहा
तो मेरा अर्थ
है कि कृत्य
अधूरा तब होता
है जब हम अपने
भीतर खंडित और
विभाजित और कांफ्लिक्ट
में होते हैं।
जब मैं अपने
भीतर ही टूटा
हुआ होता हूं
तो कृत्य
अधूरा होता
है।
समझें
कि आप मुझे
मिले और मैंने
आपको गले लगा लिया।
अगर इस गले
लगाते वक्त
मेरे मन का एक
खंड कह रहा है
कि यह क्या कर
रहे हो? यह
ठीक नहीं है, मत करो। और
एक खंड कह रहा
है कि करूंगा,
बहुत ठीक
है। तो मेरे
भीतर मैं दो
हिस्से में बंटा
हूं और लड़ रहा
हूं। आधे
हिस्से से मैं
गले लगाऊंगा
और आधे हिस्से
से गले से दूर
हटने की कोशिश
में लगा
रहूंगा। मैं
एक ही साथ दो
विरोधी काम कर
रहा हूं। इन
विरोधी कामों
में मेरे भीतर
की मनस-ऊर्जा
क्षीण होगी।
लेकिन अगर
मैंने पूरे ही
हृदय से किसी
को गले लगा
लिया है और उस
गले लगाने में
मेरे हृदय में
कहीं भी कोई
विरोधी स्वर
नहीं है तो
ऊर्जा के नष्ट
होने का कोई
भी कारण नहीं
है। बल्कि यह
पूर्ण आलिंगन
मुझे और भी
ऊर्जा से भर
जाएगा, मुझे
और भी आनंद से
भर जाएगा।
शक्ति
क्षीण होती है
कांफ्लिक्ट
में, इनर कांफ्लिक्ट
में। भीतरी
अंतर्द्वंद्व
शक्ति के
क्षीण होने का
आधार है।
कितना ही
अच्छा काम कर
रहे हों, अगर
भीतर विरोध है
तो शक्ति
क्षीण होगी ही,
क्योंकि आप
अपने भीतर ही
लड़ रहे हैं।
यह वैसा ही है
जैसे मैं एक
मकान बनाऊं।
एक हाथ से ईंट
रखूं और दूसरे
से उतारता चला
जाऊं, तो
शक्ति तो नष्ट
होगी और मकान
कभी बनेगा
नहीं।
हम सब
स्व-विरोधी
खंडों में
बंटे हैं। हम
जो भी कर रहे
हैं उसके बाहर
भी, हमारे
विरोध में कोई
चीज खड़ी है।
अगर हम किसी को
प्रेम कर रहे
हैं तो उसे
घृणा भी कर
रहे हैं। अगर
हम किसी से मित्रता
बना रहे हैं
तो शत्रुता भी
बना रहे हैं।
अगर किसी के
पैर छू रहे
हैं तो दूसरे
कोने से उसके
अनादर का
इंतजाम भी कर
रहे हैं। हम
पूरे समय
दोहरे काम कर
रहे हैं।
इसलिए
प्रत्येक आदमी
धीरे-धीरे
दिवालिया हो
जाता है, उसके
भीतर की शक्ति
बैंक्रप्ट
हो जाती है।
वह खुद ही
अपने से लड़ कर
मर जाता है।
देखें
अपनी तरफ, भीतर देखें
तो आपके खयाल
में बात आ
जाएगी। जब भी
कोई काम कर
रहे हैं, यदि
आप पूरे उसमें
हैं तो आप सदा
ही और भी ताजे,
और भी
शक्तिशाली
होकर उस काम
से बाहर
आएंगे। और अगर
आप अधूरे उस
काम में हैं
तो आप थक कर
चकनाचूर होकर,
टूटकर बाहर
आएंगे।
इसलिए
जो लोग भी
किसी काम को
पूरा कर पाते
हैं--जैसे
चित्रकार है, अगर वह अपने
चित्र को
रंगने में, बनाने में, पूरा लग
जाता है, तो
कभी भी थकता
नहीं है। वह
पूरे का पूरा
और भी आनंदित,
और भी रिफ्रेस्ड,
और भी ताजा
होकर वापस लौट
आता है। लेकिन
इसी चित्रकार
को आप नौकरी
पर रख लें और कहें
कि हम रुपए
देंगे, और
चित्र बनाओ, तब वह थक कर
लौट आता है।
क्योंकि उसका
पूरा मन उस
चित्र के साथ
खड़ा नहीं हो
पाता। जैसे ही
हमारे मन का
कोई हिस्सा
हमारे विरोध
में हो जाता
है, तो
हमारी शक्ति
क्षीण होती
है।
जब मैंने
कहा, टोटल
एक्ट, तो
किसी एक काम
के लिए नहीं, सारे कामों
के लिए, जो
भी आप कर रहे
हैं। अगर भोजन
करने जैसा या
स्नान करने
जैसा साधारण
काम कर रहे
हैं तो भी पूरा
करें। स्नान
करते वक्त
स्नान करना ही
अकेला कृत्य
हो, न तो मन
कुछ और सोचे, न मन कुछ और
करे। आप पूरे के
पूरे स्नान ही
कर लें। तो
शरीर ही स्नान
नहीं करेगा, आत्मा भी
स्नान कर
जायेगी। आप
स्नान के बाहर
पाएंगे कि आप
कुछ लेकर लौटे
हैं।
लेकिन
नहीं, स्नान
आप कर रहे हैं
और हो सकता है
पैर आपके अब तक
सड़क पर पहुंच
गए हों और मन
आपका अब तक
दफ्तर में
पहुंच गया हो
और आप भागे
हुए हैं।
स्नान का कोई
रस नहीं, कोई
आनंद नहीं। वह
स्नान भी एक
टूटा हुआ
कृत्य है।
कहीं पानी
डाला है और
भागे। इस
भागने में आप
शक्ति को खो
रहे हैं। और
ऐसा प्रतिपल
हो रहा है, चौबीस
घंटे यही हो
रहा है।
बिस्तर पर सोए
हैं लेकिन सोए
नहीं हैं, क्योंकि
सोने का एक्ट
पूरा होगा तभी
सुबह विश्राम
होगा। सो रहे हैं,
सपने देख
रहे हैं। सो
रहे हैं, सोच
रहे हैं। सो
रहे हैं, करवट
बदल रहे हैं।
हजार विचार
हैं, हजार
काम हैं। आज
दिन में क्या
किया, वह
भी साथ है, कल
सुबह क्या
करना है, वह
भी साथ है। तब
सुबह आप और भी थककर, चकनाचूर
होकर बिस्तर
से उठते हैं।
नींद भी आपकी
विश्राम न दे
पाएगी, क्योंकि
नींद में भी
आप पूरे नहीं
हो पाते कि सो
ही जायें, नींद
में भी अधूरे
ही होते हैं।
इसलिए
नींद उखड़ती
जा रही है, नींद कम
होती जा रही
है। सारी
दुनिया में
बड़े से बड़े
सवालों में एक
यह भी है कि
नींद का क्या
होगा? नींद
खत्म होती जा
रही है। नींद
खत्म होगी, क्योंकि
नींद कहती है
कि पूरे सोओ
तो ही सो सकते
हो। लेकिन
चौबीस घंटे हम
टूटे हुए हैं,
और जब सब
कामों में
टूटे हुए हैं
तो नींद में इकट्ठे
कैसे हो सकते
हैं? रात
तो हमारे दिन
भर का जोड़ है।
जैसे हम दिन
भर रहे हैं
वैसे ही हम
रात नींद में
भी होंगे। और
ध्यान रहे
जैसे हम रात
नींद में
होंगे कल का
दिन भी उसी
आधार पर
फैलेगा और
विकसित होगा।
फिर जिंदगी
पूरी टूट जाती
है। न तो हम
ठीक से जी पाते
हैं, जीते
वक्त भी हजार
तरह के रोग
हैं।
एक
मित्र को मेरे
पास अभी लाया
गया है। उनको
जो लोग लाए थे
उन्होंने कहा
कि ये पांच बार
आत्महत्या का
प्रयास कर
चुके हैं।
मैंने कहा, बड़े गजब के
आदमी हैं, प्रयास
भी अधूरा करते
हैं, ऐसा
मालूम होता
है। पांच बार!
और जो आदमी
पांच बार
आत्महत्या का
प्रयास कर
चुका है वह
पूरा जी रहा
होगा, यह
तो माना ही नहीं
जा सकता। अगर
पूरे ही जी
रहे हों तो
मरने की क्या
जरूरत आ गई? पूरा जीएगा
भी नहीं, पूरा
मरेगा भी
नहीं। पांच
बार प्रयास कर
चुके हैं!
मैंने
उनसे कहा कि
अब तो शर्म
खाओ, अब
प्रयास मत
करो। पांच बार
काफी है!
लेकिन
पांच बार कोई
आदमी
आत्महत्या
करके नहीं कर
पाया और बच
गया, इसका
मतलब क्या है?
इसका मतलब
है कि एक
हिस्सा उसका
बचने की कोशिश
में लगा ही
रहा होगा।
उसने कोशिश भी
की होगी, बचने
का इंतजाम भी
किया होगा, नहीं तो कोई
किसी को मरने
से रोक सकता
है? मरने
में भी आनेस्टी
नहीं है, उसमें
भी ईमानदारी
नहीं है, तब
फिर जीने में
ईमानदारी
कैसे होगी! जब
मरने तक में
ईमानदारी
नहीं है तो यह
जीना पूरा का
पूरा डिसआनेस्टी,
बेईमानी
होगा ही।
जब
मैंने उस
मित्र को कहा
कि शर्म आनी
चाहिए, पांच
बार मर कर तो
मर ही जाना
चाहिए था। एक
ही बार में मर
जाना चाहिए
था। अब उनको
लाया गया कि वह
छठवीं बार
मरने का
प्रयास कर रहे
हैं। तो मैंने
उनसे कहा कि
और अब नाहक
बदनामी होगी,
अब मत
प्रयास करो।
वे बहुत चौंके,
क्योंकि वे
सोचते होंगे
कि मैं उनको
समझाऊंगा कि
आत्महत्या मत
करो। और
उन्होंने कहा,
आप आदमी
कैसे हैं? मुझे
जिसके पास भी
ले जाया गया
उन्होंने
मुझे समझाया
है कि यह बहुत
बुरा काम है।
मैंने कहा, मैं नहीं
कहता बुरा काम
है, मैं
कहता हूं, अधूरा
करना बहुत
बुरी बात है।
करना है, पूरा
करो। वह आदमी
मेरी तरफ थोड़ी
देर देखता रहा।
फिर बोला, आत्महत्या
करनी तो नहीं
है, जीना
तो मैं भी
चाहता हूं, लेकिन अपनी
शर्तों के साथ
जीना चाहता
हूं। अगर मेरी
शर्त नहीं
मानी गई तो मैं
मर जाऊंगा।
न तो
यह आदमी मरना
चाहता है, क्योंकि यह
मरना भी
शर्तों के साथ
चाहता है, और
न यह आदमी
जीना चाहता है,
क्योंकि
जीना भी
शर्तों के साथ
चाहता है। यह
आदमी जीयेगा
भी तो मरा हुआ
जीयेगा, और
मरेगा भी किसी
दिन तो जीने
की आकांक्षा
से तड़फता
हुआ मरेगा। यह
आदमी न जी
पाएगा, न
मर पाएगा।
इसकी जिंदगी
में मौत
प्रवेश कर गई,
इसकी मौत
में जिंदगी
प्रवेश कर
जायेगी। यह आदमी
विक्षिप्त हो
गया है।
हम सब
इसी तरह के
आदमी हैं। हम
सब में बहुत
फर्क नहीं है।
हम सब ऐसा ही
कर रहे हैं।
जिसको हम
प्रेम करते
हैं उसको भी
प्रेम नहीं
करते। सांझ
प्रेम करते
हैं, सुबह
तलाक देने का
विचार करते
हैं मन में।
फिर दोपहर
पश्चात्ताप
करते हैं, सांझ
क्षमा मांगते
हैं, सुबह
फिर तलाक देने
का विचार करते
हैं।
मैं एक
घर में ठहरा
था। उस घर में
पति-पत्नी अपने
तलाक की एप्लीकेशन
बिलकुल तैयार
ही रखे हुए
हैं, सिर्फ
दस्तखत करने
की बात है।
देखी है मैंने
अपनी आंख से।
पति ने मुझे
बताया कि कई
दफा ऐसी हालत
हो जाती है कि
बस दस्तखत कर
दूं। वे तो
पूरी तैयारी
रखे हुए हैं।
मैंने कहा कि
इसमें कोई
हर्जा नहीं है
कि दस्तखत कर
दो, लेकिन इसको
तैयार रखे हो,
यह बड़ी
खतरनाक बात
है। क्योंकि
जिस पत्नी के
लिए तलाक देने
की एप्लीकेशन
तैयार हो, उस
पत्नी को
पत्नी कहने का
कोई अर्थ है? कोई अर्थ
नहीं है।
लेकिन पत्नी
जारी है। यह एप्लीकेशन
तो सात साल से
तैयार रखी हुई
है, वे
कहने लगे। यह
कोई नई बात
नहीं है।
इस
आधे-आधे जीने
के संघर्ष को
मैं कहता हूं, ऊर्जा का
स्खलन है। यह
शक्ति का
गंवाना है। इस
तरह जिंदगी
में हम कभी
कुछ भी नहीं
उपलब्ध कर पाते
हैं। एक
छोटी-सी कहानी
से मैं अपनी
बात समझाऊं।
मैंने
सुना है एक
समुराई सरदार, जापान में
एक सम्राट, जो बहुत
तेजस्वी
तलवार चलानेवाला
समुराई सरदार
है। उसके
मुकाबले
जापान में कोई
आदमी नहीं है
जो इतनी अच्छी
तरह तलवार चला
सके। उसकी
कुशलता की
कीर्ति
दूर-दूर तक
जापान के बाहर
भी पहुंच गई।
लेकिन एक दिन
उसे पता चला कि
उसका पहरेदार
उसकी पत्नी के
प्रेम में पड़
गया है। उसने
उन दोनों को
पकड़ लिया।
लेकिन समुराई
सरदार था!
उसने कहा कि
मन तो मेरा
करता है कि
तेरी गर्दन
काट दूं।
लेकिन नहीं, तूने भी
प्रेम किया है
मेरी पत्नी को,
इसलिए उचित
यही होगा कि
एक तलवार तू
ले ले और एक
मैं ले लूं।
हम दोनों
युद्ध में उतर
जायें। जो बच
जाये वही
मालिक हो। उस
पहरेदार ने
कहा कि मालिक
आप ऐसे ही
मेरी गर्दन
काट दें तो
अच्छा है, यह
खेल आप क्यों
करते हैं? गर्दन
मेरी ही कटेगी।
क्योंकि मैं
तो तलवार पकड़ना
भी नहीं जानता,
और आप जैसा
तलवार चलानेवाला
आदमी शायद
पृथ्वी पर
दूसरा नहीं
है। तो आप तलवार
से लड़ने का मुझे
जो मौका दे
रहे हैं, नाहक
मखौल और मजाक
क्यों करते
हैं? तलवार
से मेरी गर्दन
ऐसे ही काट
दें। तलवार से
गरदन तो मेरी
ही कटेगी,
क्योंकि
मैं तो तलवार
चलाना नहीं
जानता। लेकिन
उस समुराई
सरदार ने कहा
कि यह मेरी
इज्जत के
खिलाफ होगा कि
कभी यह कहा
जाये कि मैंने
बिना तुझे
मौका दिए तेरी
गर्दन काट दी।
तलवार संभाल
और मैदान में
उतर।
कोई
रास्ता न था।
वह गरीब
बेचारा डरता
हुआ तलवार हाथ
में लेकर
मैदान में
उतरा। गांव
इकट्ठा हो
गया। खबर फैल
गई। सारे लोग
जानते हैं कि
वह गरीब आदमी
मर जाएगा।
क्योंकि इस
सरदार से तो एक
हाथ भी बचाना
मुश्किल है।
वह इतना कुशल
कारीगर है, वह इतना
कुशल तलवारबाज
है।
लेकिन
हालत उलटी हो
गई। हालत यह
हुई कि जब उस पहरेदार
ने तलवार
चलानी शुरू की
तो उस सरदार
के छक्के छूट
गए। छक्के
इसलिए छूट गए
कि वह तलवार
बिलकुल
बेढंगी चला
रहा था। उसको
चलाना आता ही
नहीं था। उससे
बचाव मुश्किल
मालूम पड़ा, और वह इतनी
पूर्णता से
तलवार चला रहा
था...क्योंकि
उसके जीवन-मरण
का सवाल था।
सरदार के लिए
तो एक खेल का
मामला था। वह
जानता था अभी
काट देंगे, परंतु
पहरेदार के
लिए
जीवन-मृत्यु
का सवाल था।
तलवार और वह
पहरेदार एक ही
हो गया। सरदार
ने घुटने टेक
दिए और कहा कि
मुझे माफ कर
दे। लेकिन तू
यह कर क्या
रहा है?
बामुश्किल
उसको रोका जा
सका। उसके
सामने एक दरख्त
था। उसको उसने
तलवार से काट
डाला, वह
इतना एक हो
गया। राजा तो
हट गया, घुटने
टेक दिए, लेकिन
उसमें जो
ऊर्जा जाग गई
थी, उसने
जब तक दरख्त
नहीं काट डाला
तब तक ऊर्जा
रुकी नहीं।
बामुश्किल
उसे रोका जा
सका। जब उससे
पूछा गया कि
यह तुझे हो
क्या गया? तुझमें
कहां से यह
शक्ति आ गई?
तो
उसने कहा कि
मैंने सोचा कि
जब मरना ही है
तो पूरी तलवार
चलाकर ही मर
जाना चाहिए।
जब मरना ही
पक्का है और
अब जीने का
कोई उपाय नहीं
है, तो मैं
पहली दफा
जिंदगी में इंटीग्रेटेड
हो गया। पहली
दफा इकट्ठा हो
गया। मैंने
कहा, अब
कोई सवाल नहीं
है। मौत सामने
खड़ी है। और एक मौका
है कि जो भी
मैं कर सकता
हूं, कर डालूं।
तो मुझे न आगे
का खयाल रहा, न पीछे का
खयाल रहा, न
मुझे पत्नी का,
राजा का
खयाल रहा, न
अपनी प्रेयसी
का खयाल रहा।
फिर तो
धीरे-धीरे मुझे
यह भी पता
नहीं रहा कि
मेरा हाथ कहां
खत्म होता है
और तलवार कहां
शुरू होती है!
और जब लोग चिल्लाने
लगे कि रुको, रुको! तो
मुझे सुनाई
नहीं पड़ता था
कि कौन चिल्ला
रहा है? किसको
रोक रहे हैं?
यह
आदमी टोटल हो
गया। उस सम्राट
ने कहा, आज
मुझे पहली दफा
पता चला कि
सबसे बड़ी
कुशलता टोटल
एक्शन है।
मैंने बड़ी
कुशलता पाई
लेकिन मैं
टोटल नहीं
हूं। क्योंकि
तलवार चलाना
मेरे लिए एक
कला है, एक
आर्ट है। मैं
चलाता हूं, लेकिन मैं
अलग हूं और
पूरे वक्त मैं
देख रहा हूं
कि चोट तो
नहीं लग
जाएगी। कैसे
बचूं, कैसे
न बचूं।
उसने
कहा, बचने न
बचने का तो
सवाल ही न था
मेरे लिए।
इतना ही सवाल
था कि आपको भी
पता चल जाए कि
तलवार चलायी
गई। तुमने ऐसे
ही नहीं मारा
नहीं तो लोग
तुम्हारी
इज्जत को नाम धरेंगे, तो मैंने
कहा कि अब मैं
पूरा चला ही
लूं दो चार क्षण
के लिए जो
मौका है।
यह
टोटल एक्शन से
मेरा मतलब है।
कृष्ण ने योग को
कुशलता कहा
है। यह तलवार चलानेवाला
बिलकुल अकुशल
आदमी, एकदम
कुशल हो गया
है। क्यों? क्योंकि योग
को उपलब्ध हो
गया है। योग
शब्द का मतलब
है, टोटल, जोड़। जब कोई
आदमी भीतर
पूरी तरह जुड़
जाता है तो
योग उपलब्ध होता
है, इंटीग्रेटेड,
संयुक्त, संश्लिष्ट।
जब भीतर कोई
खंड नहीं
होते। प्रेम
करता है तो
प्रेम करता है,
क्रोध करता
है तो क्रोध
करता है, दुश्मन
है तो दुश्मन
है, मित्र
है तो मित्र
है। जब कोई
आदमी किसी भी
कृत्य में
पूरा होता है
तब उसकी शक्ति
नहीं खोती।
और यह
बड़े मजे की
बात है कि अगर
कोई आदमी
कृत्यों में
पूरा हो जाये
तो क्रोध
धीरे-धीरे
असंभव हो जाता
है। क्योंकि
तब क्रोध पूरा
जला देता है, झुलसा देता
है। तब घृणा
मुश्किल हो
जाती है, क्योंकि
घृणा जहर हो
जाती है। सब
पूरे शरीर के
रग-रोएं
में जहर के
फफोले छूट
जाते हैं। तब
शत्रु होना
मुश्किल हो
जाता है, क्योंकि
शत्रुता
आत्मघात
प्रतीत होती
है, अपनी
ही छाती में
छुरा भोंकना
प्रतीत होता
है।
हम तभी
तक क्रोध में
हो सकते हैं
जब तक हम अधूरे
काम कर रहे
हैं। हम तभी
तक दुश्मन हो
सकते हैं जब
तक हमारे
कृत्य पूरे
नहीं हैं। जिस
दिन हमारे
कृत्य पूरे
हैं, उस दिन
हमारी जिंदगी
में प्रेम का
ही फूल खिल सकता
है। जिस दिन
हमारा कृत्य
पूर्ण है, उस
दिन
प्रार्थना ही
हमारे
प्राणों की
अभीप्सा बन
जाती है। जिस
दिन हमारे
सारे जीवन का
एक-एक कृत्य
पूरा हो जाता
है, उस दिन
परमात्मा ही
हमारे लिए
एकमात्र सत्य
रह जाता है।
जब भीतर एक
पैदा होता है
तो बाहर भी एक
दिखाई पड़ने
लगता है। जब
तक भीतर दो
हैं तब तक
बाहर दो हैं।
दो भी कहना
ठीक नहीं।
हमारे भीतर
अनेक हैं।
मैंने
सुना है, जीसस
एक गांव से
गुजरते थे।
रात थी और
मरघट पर एक
आदमी छाती पीट
रहा था, चिल्ला
रहा था, पत्थरों
से अपने शरीर
को खरोंच कर
लहूलुहान कर
रहा था। तो
जीसस ने उस
आदमी से जाकर
पूछा कि तुम
यह क्या कर
रहे हो? उस
आदमी ने कहा, जो सारी
दुनिया कर रही
है वही मैं कर
रहा हूं। फिर
वह अपने
खरोंचने में
लग गया। लहू
बह गया है, सिर
पीट रहा है, सिर पर घाव
हो गया है।
जीसस ने कहा, ऐ पागल, तेरा
नाम क्या है? तो उस आदमी
ने कहा, माई
नेम इज लीजियन।
मेरे नाम हजार
हैं। मेरा एक
नाम नहीं है।
जीसस बार-बार
इस कहानी को
कहते थे कि एक
आदमी ने मुझसे
कहा था कि माई
नेम इज लीजियन, मेरे नाम
हजार हैं, एक
मेरा नाम नहीं
है क्योंकि
मैं हजार आदमी
हूं। मैं एक
आदमी नहीं
हूं।
हमारे
नाम भी लीजियन
हैं। हमारे
भीतर भी हजार
आदमी हैं। कोई
बचाना चाह रहा
है, कोई
मारना चाह रहा
है; कोई
प्रेम करना
चाह रहा है, कोई हत्या
करना चाह रहा
है; कोई
जीना चाह रहा
है, कोई
अपनी कब्र का
पत्थर बनवा
रहा है; कोई
परमात्मा के
मंदिर में
प्रवेश कर रहा
है, हमारे
ही भीतर कोई कह
रहा है, सब
झूठ है, सब
असत्य है, कहीं
कोई परमात्मा
नहीं है। कोई
घंटा बजा रहा है
मंदिर का, और
कोई भीतर हंस
रहा है कि यह
क्या पागलपन
कर रहे हो? उस
घंटे के बजाने
से कुछ भी
नहीं हो सकता
है। कोई माला
फेर रहा है और
हमारे भीतर
उसी वक्त कोई
दुकान भी चला
रहा है। माई
नेम इज लीजियन।
उस आदमी ने
ठीक कहा कि
मेरे नाम हजार
हैं। मैं
कौन-सा नाम बताऊं
तुम्हें! मैं
एक आदमी नहीं
हूं, मैं
हजार आदमी
हूं।
ये जो
हजार आदमी हैं
हमारे भीतर, यही हमारी
शक्ति का
ह्रास है। अगर
ये ही एक आदमी
हो जायें तो
हमारी शक्ति
संरक्षित
होती है। टोटल
एक्शन, एक
करने की विधि
है, समग्र
कृत्य। जो भी
करें उसके साथ
पूरे ही खड़े
हो जायें, जो
भी करें उसे
पूरा ही कर
लें। और जैसे
ही उसे पूरा
करेंगे वैसे
ही आपके भीतर
कोई चीज एकदम
इकट्ठी होने
लगेगी, संयुक्त
होने लगेगी, संश्लिष्ट
होने लगेगी।
गुरजिएफ
कहा करता था
कि पूर्ण
कृत्य, क्रिस्टलाइजेशन
है। जब भी कोई
व्यक्ति कोई काम
पूरा करता है
तो उसके भीतर
कोई चीज क्रिस्टलाइज
हो जाती है।
कोई चीज
इकट्ठी हो
जाती है। यह
इकट्ठा हो
जाना
व्यक्तित्व
का जन्म है, आत्मा का
जन्म है। इस
अर्थ में
मैंने कहा है।
उसे प्रयोग
करें, समझें,
देखें, तो
यह बात खयाल
में आ सकती
है।
एक
आखिरी सवाल और
पूछ लें।
आचार्य
श्री, यौन-ऊर्जा
के संचय और ऊर्ध्वीकरण
के संबंध में
आहार रसायन, डाइट केमिस्ट्री
पर भी कुछ
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
आहार
शब्द बहुत बड़ा
है। डाइट
से बहुत बड़ा
है। पहले आहार
शब्द को समझ
लें, फिर हम
थोड़ी-सी बात
करें।
आहार
का मतलब है, जो भी हम
बाहर से भीतर
लेते हैं वह
सब आहार है। आंख
से देखते हैं
एक सुंदर फूल
को, तो
आहार हो रहा
है। आंख
सौंदर्य का
आहार कर रही
है। कान से
सुनते हैं एक
संगीत को, तो
संगीत का आहार
हो रहा है।
कान ध्वनियों
का आहार कर
रहा है। किसी
के शरीर को
स्पर्श करते हैं,
हाथ आहार ले
रहा है। किसी
की सुगंध
नासापुटों को
छू लेती है, नाक आहार कर
रही है। पूरा
शरीर आहार कर
रहा है, रोआं-रोआं
श्वास ले रहा
है, रोआं-रोआं
स्पर्श ले रहा
है। पूरा शरीर
ही हमारा आहार
यंत्र है।
हमारी सारी
इंद्रियां
बाहर के जगत
को भीतर ले जा
रही हैं।
लेकिन हम सिर्फ
भोजन को आहार
समझते हैं, उससे भूल
होती है।
काम-ऊर्जा
के ऊर्ध्वीकरण
के लिए समस्त
आहार को समझना
जरूरी है।
क्योंकि हो
सकता है, भोजन
आपने बिलकुल
ऐसा लिया हो
जो काम-ऊर्जा
को नीचे न ले
जाकर ऊपर ले
जाने में
सहयोगी हो। लेकिन
आंख ने ऐसे
दृश्य देखे
हों कि
काम-ऊर्जा को
नीचे ले जायें,
और कान ने
ऐसी ध्वनियां
सुनी हों जो
ऊर्जा को नीचे
ले जायें, और
शरीर ने ऐसे स्पर्श
किए हों जो
ऊर्जा को नीचे
ले जायें। तो आहार
के पूरे पर्सपेक्टिव
को देख लेना
जरूरी है।
आंख से
भी हम भोजन ले
रहे हैं, कान
से भी हम भोजन
ले रहे हैं, नाक से भी हम
भोजन ले रहे
हैं, मुंह
से भी हम भोजन
ले रहे हैं, रोयें-रोयें के स्पर्श
से भी हम भोजन
ले रहे हैं।
चौबीस घंटे हम
भोजन कर रहे
हैं। बाहर के
जगत से बहुत
कुछ हममें
प्रविष्ट हो
रहा है। यह जो
प्रवेश हममें
हो रहा है, इसके
परिणाम
होंगे।
स्वभावतः
हम जो भी
इकट्ठा कर रहे
हैं, शरीर में
वह कुछ काम
करेगा। अगर एक
आदमी ने शराब
पी ली है तो
उसका सारा
व्यक्तित्व
दूसरा होगा, उसके सारे
व्यक्तित्व
में मूर्च्छा
छा जाएगी। वह
वही काम करने
लगेगा जो
मूर्च्छा में
संभव हैं। एक
आदमी ने शराब
नहीं पी है तो
वह वे काम नहीं
कर सकेगा, जो
मूर्च्छा में
ही हो सकते
हैं। हम जो भी
भोजन ले रहे
हैं वह सब
परिणाम
लाएगा। उसके
परिणाम आते ही
रहेंगे।
मुसोलिनी
से एक भारतीय
संगीतज्ञ पं.
ओंकार नाथ
मिलने गए थे। मुसोलिनी
ने आमंत्रण
दिया था।
संगीतज्ञ
इटली गया था, तो उसने
उन्हें भोजन
पर आमंत्रित
किया। तब मुसोलिनी
ताकत में था।
उसने पं.
ओंकार नाथ से
भोजन करते समय
यह कहा कि
मैंने सुना है
कि कृष्ण
बांसुरी बजाते
थे तो लोग
दीवाने होकर
उनके आसपास
इकट्ठे हो
जाते थे! ठीक
जाने दें
लोगों को, हो
जाते होंगे, लेकिन यह
विश्वास नहीं
होता कि हरिण
भी दौड़ आते थे!
मोर भी नाचने
लगते थे! यह
कैसे हो सकता
है? पं.
ओंकार नाथ ने
कहा कि मैं
कृष्ण तो नहीं
हूं, इसलिए
वैसी बांसुरी
नहीं बजा सकता,
लेकिन
थोड़ा-सा क ख ग
मैं भी जानता
हूं, वह
मैं आपको
प्रयोग करके
ही बताऊं।
मुसोलिनी
ने कहा, इससे
बेहतर क्या
होगा।
लेकिन
वहां कोई वाद्यऱ्यंत्र
भी न था, वहां
तो
चम्मच-कांटे
थे। खाने की
मेज पर बैठ कर
ये बातें हो
रही थीं। तो
ओंकार नाथ ने
चम्मच और
कांटे को
उठाकर और चीनी
के बर्तनों पर
बजाना शुरू कर
दिया।
मुसोलिनी
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि
मैं थोड़ी ही देर
में बेहोश हो
गया। और मेरा
सिर झुक-झुक
कर टेबुल
से लगने लगा
और वह इतने
जोर से
चम्मच-कांटे पटकने लगे
कि मेरा सिर
उसकी ताल में टेबुल पर
गिरे और उठे।
फिर मेरा सिर
लहूलुहान हो
गया और मैंने
चिल्लाकर कहा
कि बंद करो यह
वाद्य, अन्यथा
मैं सिर को
कैसे रोकूं!
तब उस
संगीतज्ञ ने
बंद किया। सिर
पर खून की
बूंदें आ गयीं,
सारा सिर
छिल गया।
मुसोलिनी
ने अपनी
आत्मकथा में
लिखा है कि
मैंने कहा, मुझे माफ
करना, मुझे
पता नहीं था कि
संगीत का ऐसा
परिणाम भीतर
हो सकता है कि
मैं रोक ही
नहीं पा रहा
था। शरीर अवश
हो गया, सिर
मेरे हाथ के
बाहर हो गया
और मुझे ऐसा
लगा कि अब तो
मैं मर जाऊंगा।
क्योंकि मैं
कोशिश करूं!
और कोई उपाय
नहीं...जितना
ही कोशिश करूं,
सिर उतना ही
और जोर से
जाकर टेबुल
से टकराने
लगा। और ओंकार
नाथ ने कहा कि
मेरी कोई हैसियत
नहीं। कृष्ण
के बाबत मैं
कोई वक्तव्य
दूं, यह
ठीक नहीं।
लेकिन इतना हो
सकता है, तो
उतना भी हो
सकता है।
इस्लाम
ने संगीत को
वर्जित किया, इसलिए नहीं
कि संगीत
अनिवार्य रूप
से काम-ऊर्जा
को नीचे ले
जाता है।
लेकिन संगीत
के जितने
प्रकार
प्रचलित हैं,
उनमें से निन्यान्बे
प्रतिशत
काम-ऊर्जा को
नीचे की तरफ
ले जानेवाले
हैं। शायद एक
प्रतिशत
संगीत
मुश्किल से
जगत में बचा
है जो ऊर्जा
को ऊपर ले
जाये। वह भी
खोता जा रहा
है, उसका
भी कोई उपाय
बचाने का नहीं
दिखायी पड़ता। ऐसे
सूफी फकीरों
के नृत्य हैं,
जिनको
देखते- देखते देखनेवाले
ध्यानस्थ हो
जायें।
गुरजिएफ
सूफी फकीरों
के दरवेश
नृत्य की एक
टोली बनाकर
सारे यूरोप और
अमरीका में
घूमता रहा और
उसने कहा, सिर्फ देखो
और कुछ मत
करो। तीस
लोगों की टोली
है। वे नाचना
शुरू करते
हैं। फकीरों
का नाच है। और
जितने लोग
बैठे हैं वे
थोड़ी देर में
ध्यानस्थ हो
जाएंगे। वे
सिर्फ
देखेंगे मूवमेंट्स,
वे मूवमेंट्स
उनके प्राणों
में उतर
जाएंगे और
उनके भीतर भी करस्पांडिंग
मूवमेंट पैदा
होंगे। जो
बाहर हो रहा
है, वही
आकृति उनके
भीतर भी डोलने
लगेगी। बाहर
वह जो फकीर
नाच रहे हैं, उनके नाचने
की जो रिदम
और गति है और
लय है, वह
धीरे-धीरे
उनके हृदय की
गति और लय बन
जाएगी। और
उनके भीतर भी
कोई नृत्य
शुरू हो जाएगा
और उनकी ऊर्जा
में रूपांतरण
हो जाएगा।
आंख से
जो हम देखते
हैं, कान से जो
हम सुनते हैं,
ओंठ से जो
हम स्वाद लेते
हैं, नाक
से जो हम गंध
लेते हैं, उन
सबके संबंध
हैं। मंदिरों
में घंटे हमने
कभी लटकाये
थे। हर कोई
घंटा मतलब का
नहीं है। कुछ
विशेष घंटे ही
काम के हो
सकते हैं।
तिब्बतियों
के पास एक
विशेष घंटा
होता है, शायद
आपमें से किसी
ने देखा हो।
वह घंटा ऐसा लटकाने
वाला नहीं
होता। बर्तन
की तरह बड़ा
होता है, और
बजाने को उसके
अंदर एक गोल
डंडा घुमाकर
चोट करनी पड़ती
है। जैसे एक
बाल्टी रखी हो,
उसके अंदर
गोल घुमाकर
डंडे से चोट
करनी पड़ती है।
उस डंडे और
घंटे के बीच
चोट का एक
विशेष क्रम
है। उस चोट
करने से, घंटे
से जोर की
आवाज निकलती
है--ॐ मणि पद्मे
हुं--यह पूरा
सूत्र तिब्बत
का उससे
निकलता है। और
यह सूत्र
बार-बार मंदिर
में गूंजता
रहता है। और
इस सूत्र के
कुछ उपाय हैं।
ये सूत्र
हमारे भीतर
जाकर कुछ
चक्रों पर चोट
करना शुरू कर
देते हैं और
उन चक्रों की
शक्ति ऊपर की
तरफ उठनी शुरू
हो जाती है।
ओम का
उपयोग भीतर, उसकी गूंज, शक्ति को
ऊपर ले जाने
के लिए थी।
अकेले ओम का ही
नहीं, मुसलमान
कहते हैं आमीन,
वह ओम का ही
रूप है।
क्रिश्चियन
भी कहते हैं, आमीन, वह
ओम का ही रूप
है। अंग्रेजी
में शब्द हैं: ओमनीसाइंट,
ओमनीपोटेंट,
ओमनीप्रेजेंट;
वह सब ओम से
ही बने हुए
शब्द हैं। ओमनीसाइंट
का मतलब है, जिसने ओम को
देख लिया। ओम
का मतलब है, विराट
ब्रह्म। ओमनीप्र्रेजेंट
का अर्थ है, जो ओम के साथ
मौजूद हो गया।
ओमनीपोटेंट
का अर्थ है, जो ओम की तरह
शक्तिशाली हो
गया। जो
परमात्मा के
बराबर
शक्ति-बीज से
भर गया।
अब यह
जो ओम शब्द है
उसमें ए यू एम, अ ऊ म मूल
ध्वनियां
हैं। ये
ध्वनियां अगर
व्यवस्था से गुंजायी
जायें तो
ऊर्जा को ऊपर
ले जाने लगती
हैं। इससे
उलटी
ध्वनियां भी
हैं, जो
चोट की जायें
तो ऊर्जा नीचे
जाने लगती है।
आज
अमरीका में जाज है, टि्वस्ट है, शेक है, और
जमाने भर के
नृत्य हैं। उन
सबकी
ध्वनि-लहरी, उन सबके रिदम,
सेक्स-ऊर्जा
को नीचे की
तरफ ले
जानेवाली
हैं। इसलिए
अगर आप टि्वस्ट
देख रहे हों
तो थोड़ी देर
में आप
पायेंगे कि आपके
भीतर टि्वस्ट
होना शुरू हो
गया। आपके
भीतर कोई
शक्ति डावांडोल
होने लगी।
आधुनिक जगत
में विकसित
सभी नृत्य और
सभी संगीत की
व्यवस्थाएं
मनुष्य के काम
का शोषण हैं।
इसलिए
आहार का मतलब
बड़ा है। इसलिए
जो भोजन हम ले
रहे हैं उसके
परिणाम होंगे
ही, उसके
परिणाम से हम
बच नहीं सकते।
क्योंकि हमारा
पूरा का पूरा
जो जीवनऱ्यंत्र
है वह साइको
केमिकल है।
उसमें पीछे मन
है, तो
नीचे रसायन
है। वह रसायन
पूरे वक्त काम
कर रहा है।
केमिस्ट्री
हमारे पूरे
शरीर में पूरे
वक्त काम कर
रही है। हम
क्या खाते हैं,
क्या पीते
हैं, उसके
परिणाम
होंगे। ऐसे भी
भोजन हैं जो
मनुष्य को
ज्यादा कामुक
बनाते हैं।
मधुमक्खियों
के छत्ते में
एक खास तरह की जैली होती
है।
मधुमक्खियों
के बाबत आपको
शायद थोड़ा पता
हो कि
मधुमक्खियों
में एक ही
रानी मक्खी
होती है जो
बच्चे पैदा
करती है। और
बाकी सारी मधुमक्खियां, मादा स्त्री
मधुमक्खी जो
सिर्फ मजदूर
का काम करती
हैं, उनकी
जिंदगी में
सेक्स जैसी
कोई चीज नहीं
होती। फेवरे,
जिसने इन
मधुमक्खियों
का विराट गहन
अध्ययन किया
है, वह बड़ी
हैरानी में
पड़ा कि लाखों
मधुमक्खियों की
जिंदगी में
कोई सेक्स
क्यों नहीं
होता! आखिर वे
भी मादा हैं, उनकी जिंदगी
में भी सेक्स
का यंत्र पूरा
है, लेकिन
फिर भी सेक्स
नहीं है। बात
क्या है? तो
उसे बड़ी
हैरानी का जो
नतीजा निकला
वह यह कि मधुमक्खियां
खास तरह की जैली
इकट्ठी करती
हैं जो सिर्फ
मादा रानी ही
खाती है। बाकी
सब
मधुमक्खियों
को सिर्फ तीन
दिन के लिए, जन्म के बाद,
वह खाने को
मिलती है, उसके
बाद खाने को
नहीं मिलती।
उस जैली
में ही सारा
राज है।
इसलिए
उस जैली
को रिजुवीनेशन
के लिए कई
पागलों ने
प्रयोग
किया...आदमी को
उसकी गोली
बनाकर खिला दी
जाये तो शायद
बूढ़ा आदमी जवान
हो जाये। उस जैली से
बहुत-सी क्रीम
भी लोगों ने
बनाई और लाखों
स्त्रियों के
चेहरे पर पोती
कि शायद उस जैली
से सौंदर्य
प्रगट हो
जाये। वह जैली
विशेष विटामिन्स
लिए हुए है, जो
अति-कामुकता
पैदा कर देती
है।
तो वह
जो रानी
मधुमक्खी है
उसकी कामुकता
का हिसाब
लगाना
मुश्किल है।
वह दो हजार
अंडे रोज देती
है और देती ही
चली जाती है।
वह करोड़ों
अंडे एक ही
मादा पैदा कर
देती है, इतनी
सेक्स ऐक्टीविटी
उसके भीतर
पैदा हो जाती
है।
और अब
तो हम जानते
हैं कि हारमोन्स
की खोज ने बड़ा
स्पष्ट कर
दिया है कि
अगर एक पुरुष
को भी स्त्री हारमोन्स
के इंजेक्शन
दे दिए जायें
तो उसका शरीर
पुरुष का न
रहकर थोड़े
दिनों में
स्त्री का हो
जाएगा। अगर एक
स्त्री शरीर
को
पुरुष-इंजेक्शन
दे दिये जायें
तो उसका शरीर
थोड़े दिनों
में स्त्री का
न रहकर पुरुष
का हो जाएगा।
पैंतालीस से
पचास साल के
बाद आमतौर से
कुछ
स्त्रियों को
मूंछ आनी शुरू
हो जाती है।
उसका कुल कारण
इतना ही है कि
स्त्री हारमोन्स
कम हो गए और
शरीर में पड़े
हुए पुरुष
हारमोन प्रभावी
होने लगे, इसलिए मूंछ
आनी शुरू हो
जायेगी।
स्त्रियों की
आवाज पचास साल
के बाद
पुरुषों से
मेल खाने लगेगी।
उसका कुल कारण
यही है कि
पुरुष हारमोन
और स्त्री
हारमोन का
अनुपात टूट
गया। स्त्री हारमोन
कम हो गए, पुरुष
हारमोन
अनुपात में
ज्यादा हो गए,
तो आवाज में
बदलाहट हो
जाएगी। ये
सारे केमिकल
मामले हैं।
हम जो
भोजन ले रहे
हैं उस पर
बहुत कुछ
निर्भर है। हम
कैसा भोजन ले
रहे हैं, इस
भोजन में यदि
मादक तत्व हैं,
इस भोजन में
यदि मूर्च्छा लानेवाले
तत्व हैं, तो
वे शरीर-ऊर्जा
को, काम-ऊर्जा
को नीचे की
तरफ प्रवाहित
करेंगे। इस
भोजन में अगर
उत्तेजक स्टिमुलेंट
हैं, एक्टीवाइजर्स हैं, तो
वे शरीर की
काम-ऊर्जा को
नीचे की तरफ
प्रवाहित
करेंगे। अगर
इस भोजन में ट्रैंकोलाइजर्स
हैं, और
शामक तत्व हैं
जो कि मन को
शांत करते हैं,
उत्तेजित
नहीं करते हैं,
तो वे ऊर्जा
को ऊपर की तरफ
ले जाने में
सहयोगी होंगे।
यह तो
बहुत बड़ी बात
है, लेकिन
सिद्धांत की
बात खयाल में
लाई जा सकती है।
जो तत्व
उत्तेजना
देते हों, जो
तत्व
मूर्च्छा
देते हों, मादकता
देते हों, जो
तत्व शरीर को
भारी कर देते
हों, मन को
बोझिल कर देते
हों, उस
तरह के भोजन
से निरंतर
बचना चाहिए।
भोजन ऐसा होना
चाहिए जो शरीर
को भारी न कर
जाये। भोजन
ऐसा होना चाहिए
जो शरीर को
उत्तेजित न कर
जाये। भोजन ऐसा
होना चाहिए जो
शरीर को
मादकता न दे, मूर्च्छा न
दे, तंद्रा
और निद्रा लानेवाला
न बने। तो ऐसा
भोजन साधक के
लिए सहयोगी
होता है। और
उसके ऊपर की
यात्रा का
रास्ता बन
जाता है।
अगर
इसके विपरीत
भोजन है, तो
साधक की
यात्रा कठिन
हो जाती है।
ऐसा नहीं है
कि नहीं हो
सकती है, हो
सकती है, लेकिन
व्यर्थ की
कठिनाइयां
पैदा हो जाती
हैं। गलत भोजन
करके भी साधक
ऊपर की तरफ जा
सकता है, लेकिन
व्यर्थ की
कठिनाइयां
पैदा हो जाती
हैं।
और जब
मैंने आहार की
पूरी बात कही
तो इसको भी ध्यान
में ले लेना
जरूरी है। जो
साधक है, जो
अपनी
काम-ऊर्जा को
ऊपर ले जाना
चाहता है, वह
सभी कुछ नहीं पढ़ेगा, वह
सभी कुछ नहीं
देखेगा, वह
सभी कुछ नहीं
सुनेगा। वह इस
बात का विचार
करके सुनेगा
कि जो संगीत
उत्तेजित
करता है, वह
व्यर्थ है। जो
संगीत शांत
करता है, वह
सार्थक है। वह
ऐसे दृश्य
नहीं देखेगा
जो उत्तेजना
से भर देते
हैं।
अब
आपने देखा
होगा...फिल्म
भी अगर आप देख
रहे हैं तो
अक्सर वैसी ही
फिल्म ज्यादा
देखी जाती हैं
जो थ्रीलिंग
हैं, जो
उत्तेजक हैं,
जिनमें
आपके रोयें-रोयें
खड़े हो जायें
और रोंगटे खड़े
हो जायें। जो
रोमांचकारी
हैं। इसलिए
फिल्म का एडवरटाइज
करने वाला
अपनी फिल्म के
एडवरटाइज
के लिए लिखेगा
कि ऐसी
रोमांचक
फिल्म कभी
नहीं बनी, आपके
रोंगटे खड़े हो
जायेंगे।
लेकिन जिस
फिल्म में
आपके रोंगटे
खड़े हो रहे
हैं, आप
गलत आहार कर
रहे हैं। वह
उत्तेजक है, डिटेक्टिव है, हत्या
है, खून है,
वह सब का सब
आपको
उत्तेजना से
भर रहा है।
अगर
फिल्म को
देखते वक्त आप
किसी दिन
फिल्म न देखें, कोने में
खड़े हो जायें
और लोगों को
देखें, फिल्म
मत देखें। तो
आपको पता चल
जाएगा कि कौन सी
चीज उत्तेजित
करती है। जब
उत्तेजना का
चित्र आएगा तो
सारे लोग अपनी
कुर्सियां
छोड़कर रीढ़ को
सीधा कर लेंगे,
सांसें
उनकी ठहर
जाएंगी, कि
पता नहीं सांस
के लेने में
कोई चीज चूक न
जाये। बिलकुल
वे थिर हो
जाएंगे। जब
उत्तेजक
चित्र चला
जाएगा, फिर
वे अपनी
कुर्सी पर
वापस टिक
जायेंगे, फिर
वे आराम से
देखने
लगेंगे।
जितनी बार
किसी फिल्म
में आदमी
कुर्सी छोड़कर
बैठ जाता है, उतनी ही
उसकी
सेक्स-ऊर्जा
को नीचे की
तरफ जाने में
सुविधा
बनेगी।
लेकिन
हम रास्ते पर
भी सब कुछ देख
रहे हैं, बिना
फिक्र किए कि
सब कुछ देखना
अनिवार्य
नहीं है, न
उचित है। न सब
कुछ देखना-पढ़ना
अनिवार्य है,
न उचित है।
व्यक्ति को
प्रतिपल
चुनाव करना चाहिए।
वह वही भीतर
ले जाये जो
उसकी जिंदगी
को ऊपर ले
जानेवाला है।
और अगर उसे
जिंदगी को
नीचे ही ले
जाना है तो भी
सोच समझ कर ले
जाये। फिर वही
ले जाये जो
नीचे ले जाने
वाला है।
लेकिन
हमें कुछ पता
नहीं है। हम
अंधों की तरह टटोलते
रहते हैं। एक
हाथ ऊपर भी
मारते हैं, एक हाथ नीचे
भी मारते हैं।
सुबह चर्च भी
हो आते हैं, सांझ फिल्म
भी देख आते
हैं। चर्च में
चर्च की घंटी
भी सुन लेते
हैं, होटल
में जाकर
नृत्य भी देख
आते हैं। हम
इस तरह से अपनी
जिंदगी को
अपने हाथों से
काटते रहते
हैं। इस तरह
हम अपनी
जिंदगी को
दोनों तरफ
फैलाये रहते
हैं और कहीं
भी नहीं पहुंच
पाते।
निर्णय
चाहिए। नीचे
जाना है तो
जायें और पूरा
नर्क तक छू कर
लौटें। लेकिन
तब भी
व्यवस्था चाहिए, तब भी साधना
चाहिए। तब फिर
ऊपर की बातों
को छोड़ दें।
फिर चर्च की
तरफ भूलकर मत
देखें, फिर
मंदिर की तरफ मुड़कर भी न
जायें, फिर
कभी गीता से
कोई संबंध न बनायें, फिर साधु से
बचें, फिर
इनको भूल
जायें कि ये
दुनिया में
हैं, फिर
ये बुद्ध, महावीर,
कृष्ण, इनके
नाम भी न लें।
क्योंकि ये
ठीक लोग नहीं
हैं, आपकी
यात्रा में
बाधा बनेंगे।
आपको नर्क जाना
है, अपनी
गाड़ी पकड़ें
और अपनी गाड़ी
पर मजबूती से
रुके रहें।
लेकिन
आदमी अजीब है, एक पांव
नर्क की गाड़ी
पर रखे रहता
है, एक
पांव स्वर्ग
की गाड़ी पर
रखे रहता है।
कहीं भी नहीं
पहुंच पाता।
यह सारी
जिंदगी एक घसीटन
बन जाती है।
वह यहां से
वहां तक
घसीटता रहता है।
आदमी ऐसी बैलगाड़ी
है जिसमें
दोनों तरफ बैल
जोत दिए हैं।
वे दोनों तरफ
खींचते रहते
हैं। कभी यह
बैल थोड़ा खींच
लेता है, फिर
मन पछताता है
कि नर्क चूक
गया, थोड़ा
इस तरफ चलें।
फिर थोड़ा नर्क
की तरफ गए कि
फिर मन पछताता
है, कहीं
स्वर्ग न चूक
जाये, थोड़ा
उस तरफ चलें।
और सारी
जिंदगी ऐसे ही
बीत जाती है, बैलगाड़ी कहीं पहुंच
नहीं पाती।
अस्थिपंजर
ढीले हो जाते
हैं और बैल मर
जाते हैं। फिर
नई दुनिया, फिर नई
जिंदगी, फिर
वही काम हम
पुरानी आदत से
शुरू करते
हैं।
यह
निर्णय करें
कि कहां जाना
है, निर्णय
करें क्या
होना है, निर्णय
करें क्या
पाना है, निर्णय
करें क्या
लक्ष्य है, क्या दिशा
है, क्या
आयाम है। फिर
उस निर्णय के
अनुसार चलना शुरू
करें, उस
निर्णय के
अनुसार
जिंदगी में सब
बदलें। आंख, कान, मुंह,
हाथ सब को
बदलें। फिर
वही स्पर्श
करें जो
परमात्मा की
तरफ ले जानेवाला
हो। फिर वही
सुनें जिसकी
झंकार प्राणों
को छुए और वह
ऊपर उठ आये।
फिर वही खायें
जो जीवन को
ऊंचा उठाता है
और हल्का करता
है। फिर वही
देखें जो
आंखों में
दीया बन जाता
है और अंधेरे
को दूर करता
है। और फिर सब
कुछ बदल दें।
मंदिर
में भी एक
सुगंध है।
मुसलमान फकीरों
ने कुछ सुगंधें
चुनी थीं। इस
मुल्क में
हिंदू
संन्यासियों
ने भी कुछ सुगंधें
चुनी थीं। उन
सुगंधों का
कुछ आधार है।
उनका कुछ कारण
है। जब आदमी
किसी गहरे
ध्यान में
पहुंचता है तो
अक्सर जैसी
चंदन की गंध
होती है, वैसी
गंध से भर
जाता है।
इसलिए तो
मंदिर में
हमने चंदन को
जलाना शुरू
किया कि शायद
यह गंध किसी
के भीतर की
गंध को चोट
करे और स्मरण
दिला दे। जब कोई
आदमी ध्यान की
किसी स्थिति
में पहुंच
जाता है तो
ऐसी गंध से भर
जाता है जैसे लोभान की
गंध होती है।
इसलिए
मुसलमान फकीरों
ने लोभान
को चुना कि शाायद
लोभान की
गंध किसी के
भीतर सोयी हुई
गंध को चोट
मार दे और उठा
दे। यह सब कुछ
चुनाव है, यह
सब अकारण नहीं
है। इस सबके
पीछे कारण है।
एक
छोटी-सी बात
फिर मैं अपनी
बात पूरी
करूं। मुझे कल
किसी मित्र ने
पूछा कि आपने
गैरिक वस्त्र
क्यों
संन्यास के
लिए चुना?
कारण
है उसका।
जैसे-जैसे
चित्त शांत
होता है भीतर, वैसे-वैसे
सूर्योदय का
प्रकाश भीतर
फैलना शुरू हो
जाता है। वह
गैरिक होता
है। वह गेरुवे
वस्त्र बाहर
से उस भीतर के
रंग को चोट
करते रहें, यही गैरिक
वस्त्रों के
चुनाव का अर्थ
है। रोज-रोज
देखता रहे, उठाये, पहने,
सोये, उठे,
देखता रहे
तो शायद उसके
भीतर जो सोया
हुआ रंग है, एक नये
सूर्योदय का।
वह जो ध्यान
में कभी प्रकट
होता है। जैसे
अभी सूरज नहीं
जगा और सुबह
की लालिमा फैल
गई, सारी
प्राची लाल हो
गई है। अभी
सूरज नहीं आया
है सिर्फ
प्राची लाल हो
गयी है और
पक्षी गीत
गाने लगे हैं,
और सुबह की
ठंडी हवाएं
बाहर फैल गई
हैं, ठीक
वैसा ही कभी
ध्यान के किसी
क्षण में भीतर
भी होता है।
उस रंग को
देखकर ही इस
बाहर के रंग को
किसी ने चुन
लिया था।
दूसरे
रंग भी चुने
गए हैं, वे
भी भीतर देखे
गए रंग हैं।
उनके चुनाव के
भी कारण हैं।
मुसलमान फकीरों
ने हरा रंग
चुन लिया था
क्योंकि भीतर
वह रंग भी
देखा जाता है।
बुद्ध के
साधकों ने
पीला रंग चुन
लिया था। वह
रंग भी भीतर
देखा जाता है।
थियोसाफिकल
सोसाइटी ने
कभी एक रंग के
लिए सारी
दुनिया के बाजारों
में खोज की
थी--एक नीले
रंग के लिए।
कर्नल अल्काट
को एक रंग
ध्यान में
दिखायी पड़ा और
उस रंग को सारी
दुनिया के
बाजारों में
खोजने के लिए
आदमी भेजे गए।
क्योंकि अल्काट
का कहना था, उसी रंग का
उपयोग साधक के
लिए करना है।
बड़ी मुश्किल
हुई, वर्षों
खोज हुई, ठीक
रंग नहीं
मिलता था।
नीले के बहुत
शेड मिलते थे,
लेकिन अल्काट
कह देता कि यह
वह रंग नहीं
है। आखिर दोत्तीन
साल के बाद
इटली के एक
बाजार में
कहीं वह रंग मिला
और तब अल्काट
ने कहा कि ठीक
है, अब वह
रंग मिल गया
जो मैंने देखा
था। यह रंग काम
करेगा। उस रंग
को देखने से, जो अल्काट
ने रंग देखा
था, दूसरे
व्यक्ति के
भीतर भी झंकार
पैदा हो सकती है।
वह रंग जगा
सकता है।
गैरिक
रंग सूर्योदय
का रंग है। और
भीतर जब प्राणों
का उदय होता
है तो वैसा
रंग फैल जाता
है।
रंग भी, ध्वनि भी, गंध भी, स्वाद
भी, स्पर्श
भी, सबका
चुनाव करना
होगा, तब
ऊपर की यात्रा
शुरू होती है।
और हम सब कंफ्यूज्ड
हैं, क्योंकि
हम सब अनर्गल,
असंगत
चुनाव करते
रहते हैं।
अनेक तरह की
नाव पर सवार
हो जाते हैं।
फिर जीवन
टूटता है, जीवन
नष्ट होता है
और हम कहीं
पहुंच नहीं
पाते हैं।
आज
इतना ही, शेष कल।
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