दिनांक
5 अप्रैल, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—क्या यह सच
नहीं है कि
ज्ञानोपलब्ध
लोगों की अनुपस्थिति
में—— और वे
दुर्लभ लोग
सदा नहीं होते——पंडित
और पुरोहित ही
धर्म की मशाल
जलाए रखते हैं?
2—गुरु की
निंदा सुनने
का हमेशा
निषेध किया
गया है। ऐसा
भी कहा गया है
कि कोई गुरु
की निंदा करे
तो कान भी धो
डालना चाहिए।
भगवान, आपका
प्रेमी तो कभी
ही मिलता है; पर आपके
निंदक तो हर
जगह मिल जाते
हैं। ऐसे
मौकों पर हमें
क्या करना
चाहिए?
3—आपके
सत्संग में
रहकर बड़े ही
आनंद का अनुभव
हो रहा है और
जीवन एक उत्सव
नजर आ रहा है।
लेकिन क्या इस
क्षणभंगुर
जीवन का आनंद
भी क्षणभंगुर
नहीं है?
4—तन्मयता
से किया गया
प्रत्येक
कार्य साधना है।
तो क्या जरूरी
है कि
परमात्मा की
साधना के लिए
संन्यास लिया
जाए?
5—इस बार
सांध्य— दर्शन
में लगातार दो
दिन प्रभु—पास
का सुयोग मिला।
पहले दिन कुछ
देर आपको
देखते रहने के
बाद घबड़ाहट
होने लगी, धड़कन
तेज हो गयी, सिर में
चक्कर, नशा
जैसा और
बेचैनी अनुभव
हुई।... यह क्या
है?
6—कल प्रवचन
के आधे घंटे
पहले जब मैंने
आपकी ओर गौर
से देखा, तब
आपके सिर के
आसपास शुभ
प्रकाश की
छाया जैसी कुछ
चीज महसूस हुई।...
कृपया स्पष्ट
करें कि यह
क्या हुआ?
7—प्रवचन के
समय जब आपको
देखती हूं, आपका
दर्शन करती
हूं, तो
आपकी आवाज
सुनायी पड़ती
है; लेकिन
आप क्या कह
रहे हैं, उसका
ध्यान नहीं
रहता। क्या यह
मेरी
मूर्च्छा है?
8—''साहिब
एहि विधि ना
मिलै'' की
बात ने आज ऐसी
चोट मारी कि
मैं खलबला गयी,
धड़कनें बढ़
गयीं, और
मैं आंसू की
धार में नहा
गयी। मेरा भय
बह गया। अब
कोई आशंका
नहीं, भय
नहीं। प्रभु,
मैं आपकी
नाव में बैठ
गयी। मुझे
संभालना! मेरा
स्वीकार करो।
पहला प्रश्न
: क्या यह सच
नहीं है कि
ज्ञानोपलब्ध
लोगों की
अनुपस्थिति
में —— और वे
दुर्लभ लोग
सदा नहीं होते
—— पंडित और
पुरोहित ही
धर्म की मशाल
जलाये रखते
हैं?
धर्म
कोई मशाल नहीं।
जिसे जलाए
रखना पड़े, वह
धर्म नहीं।
जिसे हम संभाले,
वह धर्म
नहीं। जो हमें
संभालता है, वही धर्म है।
बिन
बाती बिन तेल।
न तो धर्म की
कोई बाती है, न
कोई तेल है।
धर्म शुद्ध
प्रकाश है।
उसके लिए किसी
ईंधन की कोई
जरूरत नहीं।
धर्म का ही
विस्तार है।
धर्म सा थे
हुए है सारे
अस्तित्व को।
पंडित —
पुरोहित धर्म
को साधेगा?
फिर वह धर्म न
रह जाएगा।
हिंदू धर्म को
पंडित —
पुरोहित संभाल
कर रखता है।
इस्लाम धर्म
को पंडित —
पुरोहित संभाल
कर रखता है।
धर्म को नहीं।
धर्म
तो तब तुम्हें
उपलब्ध होता
है जब तुम
अपने को संभाल
लेते हो —— बस
तत् क्षण धर्म
का दीया जल
उठता है। धर्म
का दीया तो
जला ही हुआ था, सिर्फ
तुम आंखें बंद
किए थे। अपने
को संभाल लेते
हो, आंख
खुल जाती है।
तुम
चेतो।
तुम्हारे
चेतते ही, तुम्हारे
चैतन्य होते
ही, तुम
चकित हो जाते
हो कि मैं
जिसे खोज रहा
था वह मेरे
भीतर सदा से
मौजूद था;
जिसे मैं दूर
खोज रहा था वह
मेरे पास था।
और जिसे मैं
बाहर तलाश था
वह मेरे भीतर
था।
धर्म
तुम्हारा स्वभाव
है। धर्म मशाल
नहीं। मशाल
में तो तेल भी
डालना होगा। कभी
बुझने लगे मशाल
तो संभालना भी
होगा।
किन्हीं हाथों
की जरूरत
पड़ेगी। धर्म
तो वह है जो सब हाथों
को सं भाले
हुए है। तुम
श्वास धर्म के
कारण ले रहे
हो। तुम जी
धर्म के कारण
रहे हो।
चांदतारे
धर्म कारण
चलते हैं। पृथ्वी
सं भाली है
धर्म के कारण।
धर्म इस जगत्
को
संभालनेवाले
नियम का नाम
है।
धर्म
को पंडित —
पुरोहित कैसे
संभालेंगे! और
अगर पंडित —
पुरोहित धर्म
को संभालेंगे, तो
पंडित —
पुरोहितों को
संभालेगा?
इसे एकबारगी
ठीक से समझ लो।
पंडित —
पुरोहित जिसे
संभालते हैं,
वह धर्म
नहीं है और
धर्म नहीं हो
सकता है।
इसीलिए धर्म
नहीं हो सकता
क्योंकि
पंडित —
पुरोहितों के
द्वारा सं
भाला गया है।
पंडित
— पुरोहित खुद
अंधे हैं।
इन्हें रोशनी दिखी
नहीं। जो
इन्हें दिखा
नहीं, उसे ये
संभालेंगे? हां, शास्त्र
को संभाल
लेंगे। शास्त्र
में थोड़े ही
धर्म है। धर्म
शून्य के
अनुभव में है।
शब्द में
धर्म नहीं है,
नि:शब्द में
धर्म है। नि:शब्द
का इन्हें कुछ
पता नहीं है।
धर्म मंदिर —
मस्जिद में
होता तो ये संभाल
लेते। मगर
धर्म मस्जिद —
मंदिर में
नहीं है। धर्म
बहुत विराट है।
सब मंदिर —
मस्जिद धर्म
के भीतर हैं।
धर्म किसी के
भीतर नहीं है।
धर्म
का अर्थ होता
है : हमारे
पहले जो था, हमारे
बाद भी जो
होगा। हम आते
हैं, हम
जाते हैं ——
धर्म रहता है।
लेकिन निश्चित
ही वह धर्म न
तो हिंदू हो
सकता है, न
मुसलमान हो
सकता है, न
ईसाई, न
जैन, न
बौद्ध। वह तो
शुद्ध धर्म है।
उस धर्म को, जब भी तुम
जागकर आंख
खोलते हो, तुम
सदा अपने पास
पाते हो, अपने
प्राणों में
पाते हो, अपनी
श्वासों में,
अपने हृदय
की धड़कनों में।
उसे खोजने
कहीं भी नहीं
जाना पड़ता।
फिर
पंडित —
पुरोहित क्या
संभाल रहे हैं।
वे धर्म की लाश
संभालते हैं, मशाल
नहीं। बुद्ध
से धर्म बोला,
क्योंकि शून्य
बोला। बुद्ध
के हृदय की
वीणा पर वह
संगीत उठा
जिसको हम
अनाहत कहते
हैं; वह
नाद उठा। धर्म
बोला बुद्ध से।
बौद्ध धर्म
नहीं बोला, खयाल रखना।
बुद्ध बौद्ध
नहीं थे और न
ईसा ईसाई थे
और न कृष्ण
हिंदू थे।
बुद्ध से धर्म
बोला। कृष्ण
से धर्म बोला।
क्राइस्ट से
धर्म बोला।
पंडित —
पुरोहितों ने शब्द
पकड़े, इकट्ठे
किए, संभाले।
जो बोला गया
था, उसे संभाल
कर गठरियां
बांध लीं। वेद
बने, बाइबिल
बनी, कुरान
बनी, धम्मपद
बना। फिर उन
गठरियों को वे
संभाल रहे हैं
और ढो रहे हैं।
और उन पर कचरा
जनता जाता है,
धूल बैठती
जाती है। सदियां
उन पर जमती
जाती हैं। धूल
की परतें पर
घनी होती जाती
हैं। अब तो शब्द
भी कहां खो गए,
उनका भी पता
नहीं है। अब
तो ये शब्द भी
बड़ी धूल—धवांस
में खो गए
हैं। एक—एक
शास्त्र पर
इतनी
व्याख्याएं
लद गयी हैं...।
गीता की एक
हजार
व्याख्याएं
हैं! उन एक
हजार व्याख्याओं
के जंगल से
पता लगाना
एकदम असंभव है
कि कृष्ण ने
कहा क्या था।
अगर कृष्ण ने
हजार बातें कही
थीं तो या तो
कृष्ण पागल थे
या अर्जुन सुन—सुन
कर पागल हो
गया होगा।
कृष्ण ने तो
एक ही बात कही
होगी। मगर वह
क्या है? कैसे
जानोगे?
पंडित—पुरोहितों
के पास बड़ी
व्याख्याएं
हैं,
तुम कैसे तय
करोगे कि क्या
कृष्ण ने कहा?
एक ही उपाय
है : अपने
भीतर जाओ।
कृष्ण वहां अब
भी बोलते हैं।
अर्जुन बनो, कृष्ण अब भी
बोलते हैं।
आनंद बनो और
बुद्ध अब भी
कहेंगे। अब भी
वही कहेंगे जो
तब कहा था। बुद्ध
और कृष्ण का
सवाल नहीं——धर्म
बोलता है।
बुद्ध एक ढंग
हैं धर्म के
बोलने के; कृष्ण
एक और ढंग
हैं। वही बात
बोली जाती है
जो बुद्ध ने
बोली। वही!
भाषा अलग होगी,
भाव वही
हैं।
अभिव्यंजना
के रंग—ढंग
अलग होंगे, मगर
अभिव्यंजित
वही है। एक ही
कहा गया है।
सदा एक ही
दोहराया गया
है। समय जाता
है, भाषाएं
बदल जाती हैं,
प्रतीक बदल
जाते हैं, कथाएं
बदल जाती हैं
दृष्टांत बदल
जाते हैं। मगर
जिस तरफ इशारे
हो रहे हैं, वह नहीं
बदलता।
उंगलियां बदल
जाती हैं
इशारा करनेवाली,
मगर जिस
चांद की तरफ
उंगलियां उठी
हैं वह चांद
वही है। इसे
कोई नहीं
संभालता।
लेकिन
पंडित—पुरोहित
कुछ तो
संभालते हैं निश्चित——लाश
संभालते हैं।
बुद्ध चले, उनके
चरण— चिह्न
बने समय की
रेत पर, वे
उन चरण—चिह्नों
को संभालते
हैं; वे
उन्हीं चरण—चिह्नों
की पूजा करते
हैं, उन्हीं
पर फूल चढ़ाते
रहते हैं।
बुद्ध के चरण—चिह्नों
में बुद्ध
नहीं हैं। वह
तो गया जो चला
था। और जो चला
था वह समय की
रेत पर पकड़ा
नहीं जा सकता।
वह शाश्वत है।
समय में केवल
भनक सुनायी
पड़ती है, प्रतिध्वनि
आती है। समय
में असली चीज
पकड़ में नहीं
आती।
मैं
रास्ते पर
चलूं, धूल में
मेरे पैर के
निशान बन जाएं,
तुम उन्हीं
निशानों को
पकड़ कर बैठ
जाओ——चूक हो
जाएगी, बड़ी
भूल हो जाएगी।
उन चरण—चिह्नों
की पूजा करने
से तुम्हें
कुछ भी न
मिलेगा।
उन्हें भूलो!
उसकी तरफ देखो,
जो चला। उसे
खोजो, जो
चला। उसके कोई
चरण—चिह्न
नहीं हैं, क्योंकि
जो चला है वह
देह नहीं है।
जो चला है वह
आकार नहीं है।
जो चला है वह
शब्द नहीं है।
उसकी तरफ खयाल
करो। जरा बुद्ध
की आंखों में
झांको।
मेरी
आंखों में
झांको! मेरी
देह को भूलो!
मैं जो कहता
हूं,
उसमें बहुत
मत उलझ जाना।
मैं जो हूं, उससे उलझ
जाओ तो पार हो
जाओ।
लाश
रह जाती है।
लेकिन लाशों
को रखकर क्या
करोगे? तुम्हारी
मां चल बसी, बड़ी प्यारी
थी——और कौन
चाहता है कि
मां चली जाए!
लेकिन जब चल
बसी तो लाश को
ले जाते हो न
मरघट? इसी
देह में तो थी,
यह भी सच है;
मगर अब नहीं
है, यह और
भी ज्यादा सच
है। जो इस देह
में था वह पक्षी
तो उड़ गया; वह
हंस अब इस
पिंजड़े में
नहीं है।
पिंजड़ा पड़ा रह
गया है, हंस
उड़ चुका है।
हंस उड़ चुका, अब इस
पिंजड़े का
क्या करोगे? बांधो अर्थी,
ले चलो मरघट।
रखो आग में, भस्मीभूत हो
जाने दो। राख
भी बचे, उसे
भी गंगा में
डुबा आना। सब
स्वाहा कर दो।
करना ही पड़ता
है।
प्रत्येक
शास्ता के बाद
यही अड़चन खड़ी
होती है। शास्ता
तो चला जाता
है। हंसा तो
उड़ गया! श पड़े
रह जाते हैं।
समय की धूल पर
पैर के निश मन
रह जाते हैं!
स्मृतियां रह
जाती हैं।
लोगों ने जो
देखा था, जो
सुना था, उसकी
याद्दाशतें
मन में रह
जाती हैं;
उन्हीं को लोग
संजोकर रख
लेते हैं;
उन्हीं की
पूजा चलने
लगती है। उसी
को तुम धर्म
कहते हो?
वह लाश है।
उससे छुटकारा
होना चाहिए।
उससे छुटकारा
हो जाए तो तुम
असली की तलाश करने
लगो। पिंजड़े
से मुक्त हो
जाओ तो हंस की
तरफ आंख उठे।
पिंजड़े को ही
पूजते रहते हो
तो हंस की तरफ
देखेगा कौन? तुम्हारी आंखें
पिंजड़े से भर
जाती हैं। तुम
पिंजड़े में ही
उलझ जाते हो।
तुम पिंजड़े के
क्रिया— कांड
में ही पड़
जाते हो। वही
हो रहा है——
मंदिर में, मस्जिद में,
गुरुद्वारे
में, गिरजे
में, वही
हो रहा है।
पिंजड़े पूजे
जा रहे हैं।
मशाल
नहीं है धर्म।
धर्म
आविर्भाव है—— शाश्वत
का समय में;
निराकार का
आकार में; शून्य
का श में। और
जब शास्ता जीवित
होता है बस
तभी पकड़ लेना
तो पकड़ लिया; तब चूके तो
चूके। फिर
लकीरें पीटते
रहो जीवनभर
जन्मों—
जन्मों तक, कुछ भी न
होगा।
पंडित
पुजारी, पुरोहित,
मौलवी, पादरी
लकीरें पीटते
रहते हैं।
लकीरों पर
लकीरें पीटते
रहते हैं।
लकीरों को
सजाते रहते
हैं, संवारते
रहते हैं।
लकीरों का
भूगार करते
रहते हैं। और
बड़ी कुश से।
सदियों —
सदियों में वे
बड़े कुशल हो
गए हैं। बाल
की खाल
निकालते रहते
हैं और कुछ भी
नहीं है। और
लाश पड़ी रह
गयी है, उसमें
से बदबू उठ
रही है।
देखते
नहीं तुम, सभी
धर्मों से
बदबू उठती हुई? नहीं तो
हिंदू
मुसलमान लड़ता
क्यों, अगर
बदबू न उठती
होती? धर्म
के नाम पर
जितना खून हुआ
है, किसी
और चीज के नाम
पर हुआ है?
धर्म के नाम
पर जितना
अनाचार हुआ है,
किसी और चीज
के नाम पर हुआ
है? धर्म
के नाम पर
आदमी लड़ता ही
तो रहा है।
प्रेम की
बातें चलती
रहीं और
तलवारों पर
धार रखी जाती
रही। प्रेम के
गीत गाए जाते
रहे और
गर्दनें काटी
जाती रहीं।
धर्म के नाम
पर कितना
पाखंड हुआ है!
अब भी जारी है।
इस पाखंड के
कारण ही
मनुष्यता
धार्मिक नहीं
हो पा रही है।
जब
तक झूठ को तुम
झूठ की तरह न
जानो, सच को
तुम सच की तरह
देखने में
समर्थ न हो
पाओगे।
पंडित
— पुरोहित से
मुक्त होना
जरूरी है।
उससे मुक्त
होकर ही
तुम्हें धर्म
की पहली दफा
थोड़ी— थोड़ी
प्रतीति होना शुरू
होगी। छोड़ो
पंडित —
पुजारी को, चांदतारों
से दोस्ती
करो! फूलों से
मुलाकात लो! नदियों—
सागरो से
पूछो! यह आकाश ज्यादा
जानता है। इस
आकाश के नीचे
पड़ जाओ श मत
होकर। इस आकाश
को अपने भीतर
उतरने दो। यह
कोयल की आवाज,
ये
पक्षियों के
गीत—— इनमें
कहीं धर्म
ज्यादा जीवंत
है!
दूसरा
प्रश्न :
गुरु
की निंदा
सुनने का हमेश
निषेध किया
गया है। ऐसा
भी कहा गया है
कि यदि कोई
गुरु की निंदा
कर रहा हो तो
कान भी धो
डालना चाहिए।
भगवान, आपका
प्रेमी तो कभी
ही मिलता है; पर आपके
निंदक हर जगह
पर मिल जाते
हैं। हमारी
सामर्थ्य भी
नहीं है कि हम
उनको कुछ
समझाएं। ऐसे
बहुधा उपलब्ध
मौकों पर हमें
क्या करना चाहिए? कृपा करके
मार्ग स्पष्ट
करें।
देवानंद!
जिन्होंने
कहा है, गुरु
की निंदा नहीं
सुननी चाहिए
वे गुरु न रहे
होंगे, बड़े
कमजोर लोग रहे
होंगे। यह तो
असंभव ही है
कि गुरु हो और
उसकी निंदा न
हो। ऐसा तो कभी
हुआ ही नहीं।
बुद्ध
की कितनी
निंदा हुई, इसका
तुम्हें कुछ
पता है?
निंदा इतनी
भयंकर रूप से
हुई कि इस देश से
बुद्ध — धर्म
को उखड़ ही
जाना पड़ा।
बुद्ध इस देश में
पैदा हुए, इस
देश का
धन्यभाग होना
था कि बुद्ध
इस देश में
पैदा हुए, क्योंकि
मनुष्य — जाति
ने इतना
ज्वलंत धर्म
का आविर्भाव न
पहले कभी देखा
था, न पीछे कभी
देखा। मगर
अभागा यह देश!
इतनी निंदा
किया बुद्ध की
कि इस देश से
बुद्ध — धर्म
को तिरोहित हो
जाना पड़ा।
तुम
सोचते हो, जीसस
को लोगों ने
सम्मान दिया
था, फूलमालाएं
पहनायी थीं? तो फिर सूली
किसको लगी?
वही सम्मान था।
वही फूलमाला
थी।
जीसस
अपने गांव गए
एक बार। गांव
के सिनागाग
में उन्हें
बुलाया गया।
क्योंकि
खबरें पहुंच
गयी थीं कि
जीसस एक तरह के
गुरु हैं। और
उनसे कहा गया
कि बाइबिल से
कुछ वचन पढ़कर
हमें सुनाओ।
जो वचन जीसस
ने पढ़कर सुनाए, वे
बहुत बार पढ़े
थे लोगों ने, जन्मों से
लोग दोहराते
रहे थे, सदियों
से लोग
दोहराते रहे
थे। पुराने
वचन थे। ईजिया
नाम के एक
पैगंबर के वचन
थे। लेकिन जिस
ढंग से जीसस
ने पढ़े, उस
ढंग से किसी
ने भी नहीं
पढ़े थे। सिवाय
ईजिया के उस
ढंग से कोई कभी
बोला नहीं था।
वचन
हैं :
'' मैं आ गया।
पहचानो मुझे!
मेरी तरफ
देखो! तुम
जिसकी राह देखते
थे, वह आ
गया। यह मैं
रहा!'' इसको
अगर जीसस ने
ऐसा कहा होता
कि ईजिया ने
कहा है, तो
कोई अड़चन न
हुई होती।
लेकिन जीसस ने
कहा कि जो
ईजिया ने कहा
है, वही
मैं भी तुमसे
कहता हूं : मैं
आ गया जिसकी
तुम
प्रतीक्षा
करते थे! मेरी आंखों
में देखो!
और
गांव के लोग
एकदम पागल हो
गए। यह तो
कुफ्र हो गया।
यह आदमी अपने
को पैगंबर कह
रहा है! कहां
ईजिया और कहां
यह गांव के
बढ़ई जोसेफ का
बेटा! लोगों
ने उन्हें
खदेड़ दिया
चर्च से।
उन्हें मारने
के लिए पहाड़ी
पर ले गए।
बामुश्किल
जीसस के शिष्य
उन्हें बचा
सके,
नहीं तो वे
पहाड़ी से
उन्हें फेंक
कर उनके ऊपर चट्टान
गिरा देना
चाहते थे, क्योंकि
कुफ्र हो गया।
उसी दिन जीसस
ने कहा था : किसी
तीर्थंकर, किसी
पैगंबर का
सम्मान उसके
अपने ही गांव
में नहीं होता।
फिर
दोबारा वे
अपने गांव
नहीं गए। और
उसके दो साल
के भीतर ही
उनको सूली लग
गयी। जिस दिन
उन्हें सूली
लगी,
लोगों ने सब
तरह का र्दुव्यवहार
किया। पहाड़ी
पर उस बड़े
क्रास को कंधे
पर रखवा कर
जीसस को खुद
क्रास को
पहाड़ी पर ढोना
पड़ा। बीच में
वे गिर पड़े तो
उनको कोड़े मार
कर उठाया गया
कि ढोओ। चढ़ाई
थी। भरी धूप
थी। भारी
क्रास था। उसी
दिन जीसस ने
अपने शिष्यों
की तरफ पीछे
फिरकर भीड़ से
कहा : जिसे मुझ
तक आना है, उसे
अपना क्रास
अपने कंधे पर
ढोना होगा।
जब
उन्हें सूली
पर लटकाया गया
और उनके हाथों
में खीले
ठोंके गए और
पैरों में
खीले ठोंके गए, तो
उन्हें बड़े
जोर की प्यास
लगी। धूप थी, दिनभर से
कोई पानी नहीं
मिला था, भोजन
नहीं मिला था।
यह पहाड़ी की
चढ़ाई, यह
क्रास का ले
आना! उन्होंने
पानी मांगा, लेकिन कोई
पानी देने को
नहीं था। किसी
ने एक चीथड़े
में, गंदी
नाली पास में
बहती थी, उसमें
चीथड़े को डुबा
कर, उसे
बांस में उठा
कर जीसस के
मुंह के पास
कर दिया कि इस
पानी के
अतिरिक्त
तुम्हारे लिए
हमारे पास और
कोई पानी नहीं।
लोग पत्थर मार
रहे थे, गालियां
दे रहे थे। यह
सम्मान था!
यही
तुमने सुकरात
के साथ किया।
यही तुमने
मैसूर के साथ
किया। यह
तुम्हारी
पुरानी आदत है।
यह आदमियत का
सदा का
व्यवहार है सदगुरू
के साथ।
तो
तुम पूछते हो
कि गुरु की
निंदा सुनने
का हमेशा
निषेध किया
गया है। जिन्होंने
कहा होगा, वे
गुरु न रहे
होंगे।
क्योंकि गुरु
के साथ अगर
तुम जुडे तो
निंदा सुननी
ही पड़ेगी।
निंदा सुनने
से ही काम चल
जाए तो बहुत।
पत्थर भी खाने
पड़ सकते हैं।
जीवन भी
गंवाना पड़
सकता है। यह
सब होगा। यह
बिल्कुल
स्वाभाविक है।
यह कीमत
चुकानी पड़ती
है प्रभु के
मार्ग पर।
इसलिए
मैं तुमसे यह
नहीं कह सकता
कि कोई मेरी निंदा
करे तो सुनना
मत। प्रेम से
सुनना! आनंद
से सुनना! चलो, कम—
से—कम इस
बहाने मेरी
याद तो कर रहा
है कोई! उसे
धन्यवाद देना
कि चलो इस
बहाने तुमने
चर्चा तो छेड़ी!
कौन जाने, आज
जो निंदा कर
रहा है, कल
प्रेम भी करने
लगे! उसके
प्रति
दुर्भाव मत
लेना।
खयाल
रखना, प्रेम
और घृणा में
बड़ा फासला
नहीं है।
प्रेम घृणा बन
सकता है; घृणा
प्रेम बन सकती
है। वे
रूपांतरित हो
सकते हैं।
तुमने देखा
नहीं है, दोस्त
ही तो दुश मन
बन जाते हैं!
तो प्रेम कब घृणा
बन जाए, कुछ
कहा नहीं जा सकता।
तुम
प्रेमियों को
नहीं देखते? पति —पत्नी
सुबह बैठे थे
कितने मगन और
सांझ झगड़ा हो
गया है और एक —
दूसरे को मिटा
डालने को
तत्पर हो गए
हैं। और कल
सुबह फिर
आनंदित हैं और
फिर साथ बैठे
हैं। तुम
प्रेम और घृणा
का यह खेल
नहीं देखते? धूप—छांव की
तरह यह खेल
चलता है।
तो
जो आदमी मेरी
निंदा कर रहा
है,
एक बात तो
पक्की है कि
वह मुझमें
उत्सुक हो गया
है। यह तो
अच्छी बात है।
मुझमें रस जगा
है। मेरी
उपेक्षा तो
नहीं कर रहा
है, इतनी
बात पक्की हो
गयी। इसको
सौभाग्य समझो।
आनंद से सुनना।
शांति से
सुनना।
तुम्हारी
शांति और
तुम्हारा आनंद
ही शायद उस
आदमी की घृणा
को प्रेम में
बदलने का कारण
हो जाए। उससे
झगड़ना भी मत।
उसे समझाने की,
बदलने की, उसे चेष्टा
में भी मत लग
जाना, क्योंकि
ऐसी चेष्टाएं
सफल नहीं
होतीं। लेकिन
अगर तुम शांत
रह सको, अगर
तुम
प्रसादपूर्ण
रह सको, अगर
तुम उसे
धन्यवाद दे
सको और कह सको
कि '' चलो इस
बहाने याद तो
की, मुझे
याद तो
करवायी! कांटा
ही चुभाया, लेकिन मुझे
तो याद आयी!
फूल से भी याद आती
है, कांटे
से भी याद आती
है। मैं
तुम्हारा
धन्यवादी
हूं।''...... तो
शायद तुम्हारा
ऐसा शांत
व्यवहार उसे
चौंकाए, उसे
झकझोर जाए।
उससे इतना ही
कहना कि निंदा
जितनी करनी है
उतनी करो, मगर
कभी पास आकर
देखने की
कोशिश भी करो।
कभी दो क्षण
वहां बैठो भी।
हो सकता है
तुम्हीं ठीक होओ,
तो
तुम्हारी
धारणा और भी
मजबूत हो
जाएगी चलने से।
और कौन जाने
तुम गलत होओ
तो एक गलती से
छुटकारा हो
जाएगा।
जब
भी कोई निंदा
करे,
तुम समझाने
की कोशिश मत
करना। तुम
नहीं समझा पाओगे।
यह तर्क—वितर्क
का काम नहीं
है। यह मामला
प्रेम का है।
उसे पास ले
आओ। यह बीमारी
संक्रामक है।
उसे निमंत्रण
दे दो। उससे
कहना कि आओ
मेरे साथ, तुम
भी चलो। तुम
ठीक होओगे तो
मैं भी
तुम्हारे साथ
हो लूंगा कल।
कौन जाने तुम
गलत होओ। मगर
निर्णय के
पहले निकट आना
तो जरूरी है।
और
एक बात खयाल
रखना, जो मेरी
निंदा कर रहा
है वह उत्सुक
तो हो गया है।
वह निंदा ही
इसलिए कर रहा
है कि अब अपनी
उत्सुकता से
घबड़ा रहा है।
निंदा एक
मनोवैज्ञानिक
बचाव का उपाय
है। अब वह हर
रहा है कि अगर
उसने निंदा न
की तो कहीं
मेरे पास न चला
जाए। निंदा के
द्वारा वह बीच
में दीवालें खड़ी
कर रहा है, ताकि
जाने के उपाय
बंद हो जाएं।
मेरे देखे तो शुभ
हो रहा है।
तो
मैं तुमसे न
कहूंगा कि
निंदा का
निषेध करो और
मैं तुमसे यह
भी न कहूंगा
कि अपने कान
भी धो डालना।
ऐसे तो दिनभर
कान ही धोते—धोते
तुम्हारा समय
जाया होगा। इन
फिजूल की बातों
में मत पड़ो।
जिन्होंने
कहा होगा, दो
कौड़ी के लोग
रहे होंगे।
उन्हें खुद भी
अपने होने पर
भरोसा न रहा
होगा। मुझे
भरोसा अपने पर
है। तुम चिंता
ही न करो। तुम
किसी भांति
उन्हें मेरे
पास ले आओ। और
वे आना चाह
रहे हैं, इसलिए
तो निंदा कर
रहे हैं।
एक
ही बात खयाल
करो: प्रशंसा
करनेवाला भी
मुझसे जुड गया, निंदा
करने वाला भी
मुझसे जुड
गया। मुझसे
वंचित वही रह
सकता है जिसको
उपेक्षा है।
जो कहे——हमें
कोई लेना—देना
नहीं, न
प्रशंसा न
निंदा, हमें
कुछ लेना—देना
नहीं——उसका
जुड़ना बहुत
मुश्किल है।
वही दया योग्य
है। अगर
समझाना हो तो
उसको समझाना——उपेक्षावाले
को। चाहे
तुम्हारी
समझाने से उसे
निंदा ही पैदा
हो जाए तो भी
शुभ है; कम—से—कम
निंदा तो होगी,
कुछ तो होगा,
मेरे खिलाफ
तो होगा।
मुझसे जुड़ तो
गया, मुझसे
संबंध तो बन
गया।
शत्रुता
भी एक तरह की
मित्रता है, एक
तरह का संबंध
है। अब कभी—कभी
रात में मैं
उसे याद
आऊंगा। एकांत
बिस्तर पर पड़ा
हुआ होगा, कभी
सपने में
उतरूंगा। कभी
सोचेगा भी कि
मैंने यह कहा,
यह ठीक है
या गलत है; तुम
उसे सोचने दो,
विचारने
दो। तुम्हें
भयभीत होने का
कोई कारण नहीं।
जिन
गुरुओं ने
तुमसे कहा है
कि कान धो
डालना, उन्हें
दो तरह के हर
थे। बड़ा हर तो
उन्हें यह था
कि कहीं कोई
निंदा करता हो
तो तुम सुन—सुन
कर उससे राजी
न हो जाओ।
उन्हें हर यह
था। मुझे तुम
पर भरोसा है।
तुम मेरे पास
आ ही सके हो उन
सब निंदाओं को
सुनने के बाद।
वे कसौटियां
तुम पूरी कर
चुके हो।
जितनी गालियां
तुम सुन सकते
थे, वे तुम
सुन ही सके हो,
अब नयी गाली
कोई शायद ही
खोज पाए। कोई
निंदा करता हो
तो उससे कहना :
कुछ नई निंदा
करो, यह तो
मैं सुन चुका
हूं, यह तो
बहुत बार सुन
चुका हूं;
इसके बावजूद
भी उनसे जुड़ा
हूं। कुछ नई
निंदा करो, कुछ खोजो, कुछ
आविष्कार करो।
ये क्या
पुरानी पिटी —
पिटायी बातें
दोहरा रहे हो!
जिन्होंने
कहा है, निंदा
का निषेध, बचना...
और ऐसे शास्त्रों
में उल्लेख
हैं, वे शास्त्र
कमजोरों के
लिखे हुए हैं।
ऐसे शास्त्र
हैं भारत में
जिनमें लिखा
है... हिंदुओं
के पास ऐसे शास्त्र
हैं, जैनों
के पास ऐसे शास्त्र
हैं। हिंदुओं
के शास्त्रों
में लिखा है :
अगर पागल हा
थी भी
तुम्हारा
पीछा कर रहा
हो और जैन
मंदिर में शरण
मिल सकती हो
तो भी भीतर मत
जाना।
क्योंकि जैन
निंदक है
हिंदुओं के, कहीं निंदा
का कोई शब्द तुम्हारे
कान में पड़
जाए। और ठीक
यही बात जैन शास्त्रों
में भी लिखी
है, इसका
उत्तर —— ठीक
यही कि अगर
पागल हा थी
तुम्हारे
पीछे — पीछे चल
रहा हो और तुम खतरे
में हो, जीवन
गंवाने का
खतरा आ गया हो
और हिंदू
मंदिर में
जाकर शब्द मिल
सकती हो, जीवन
बच सकता हो, तो पागल हाथी
के पैर के
नीचे दब कर मर
जाना उचित है,
मगर हिंदू
मंदिर में मत
जाना, क्योंकि
वहां कोई जैन
धर्म की निंदा
का विचार तुम्हारे
कान में पड़
जाए!
ये
बड़े कमजोर लोग
रहे होंगे। यह
भी कोई बात
हुई? ऐसे बच — बच कर
कैसे बचोगे? और इतने
बचने का कारण
क्या है?
क्या तुम्हें
भरोसा नहीं है? तुम्हारी
श्रद्धा इतनी
अधूरी है, इतनी
नपुंसक है?
जिसने
मुझे चाहा है, जिसने
मुझे प्रेम
किया है, सब
निंदाएं उसके
प्रेम की
कसौटी होंगी,
चुनौतियां
होंगी, कि
क्या इन सारी
निंदाओं के
बाद भी प्रेम
बच सकता है? बचे तो ही
बचाने योग्य
था। न बचे तो
अच्छा हुआ, झंझट मिटी ——
तुम भी मुक्त
हुए, मैं
भी मुक्त हुआ।
मैं कमजोरों
से जुडा रहना
भी नहीं चाहता।
और ऐसे लचर —
पचर लोगों को
मैं चाहता भी
नहीं कि मेरे
पास हों। उनका
कोई मूल्य
नहीं है। व्यर्थ
भीड़ थोड़े ही
बढ़ानी है यहां।
यहां कुछ
वस्तुत : काम
करना है, भीड़
नहीं बढ़ानी है।
यहां वस्तुत :
जीवन
रूपांतरित
करना है। यह
प्रयोग श प्रसा
है। यहां
रसायन खोजी जा
रही है
तुम्हारे
रूपांतरण की।
यह कोई बाजार
नहीं है। यहां
हमारी
उत्सुकता
इसमें नहीं है
कि कितने लोग
आते हैं। मैं
कोई
राजनीतिज्ञ
नहीं हूं कि
भीड़ में मेरी
उत्सुकता हो।
भीड़ में मेरी
उत्सुकता ही
नहीं है। मेरी
उत्सुकता
व्यक्तियों
में है। और
व्यक्ति का
मतलब होता है
विद्रोही। और
व्यक्ति का
मतलब होता है :
जो अपने ढंग
से सोचता, अपने
ढंग से जीता; जो अपनी
श्रद्धा के
अनुकूल चलता।
और
हर निंदा
कसौटी होगी।
तुम घबड़ाओ मत।
और निंदा तो
बढ़ेगी। जैसे —
जैसे लोगों को
मैं बदलूंगा, वैसे
— वैसे निंदा
बढ़ेगी।
कठिनाइयां
रोज बढ़ती
जानेवाली हैं,
कम
होनेवाली
नहीं हैं।
जो
मेरे साथ जुड़े
हैं,
वे यह बात
सोचकर ही जुडे
: तुम्हें
अपनी सूली
अपने कंधे पर
ढोनी ही होगी।
मगर जो
जानेंगे, वे
आनंदित होंगे
कि फिर सूली
ढोने का एक
मौका आया।
क्योंकि वही
तो परमात्मा
के निकट जाने
का उपाय है।
मृत्यु ही तो
पुनर्जीवन का
द्वार है।
तुम
धन्यभागी हो
कि किसी ऐसे
आदमी से तुम
जुड़े हो, जिसकी
बहुत निंदा
होगी, हुई
है और बहुत
होनी है।
कठिनाइयां
रोज सख्त होती
चली जाएंगी, क्योंकि
जितना लोगों
को दिखाई
पड़ेगा कि मुझमें
लोग आकर्षित
हो रहे हैं
उतनी ही उनकी
अड़चनें बढ़ती
जाएंगी। और ये
अड़चनें एक
दिशा से नहीं
आएंगी, सब
दिशाओं से
आएंगी।
क्योंकि यहां
हिंदू हैं
मेरे पास, मुसलमान
हैं मेरे पास,
ईसाई हैं, यहूदी हैं, जैन हैं, बौद्ध
हैं, सिक्ख
हैं, पारसी
हैं। यहां सब
धर्मों के लोग
मेरे पास हैं,
तो सब धर्मों
के गुरु मेरे
खिलाफ हो
जानेवाले हैं।
हैं ही। सब
मंदिरों से और
सब मस्जिदों
से मेरे खिलाफ
स्वर उठने ही
वाला है। यह
स्वाभाविक है।
कोई एकाध मेरे
खिलाफ नहीं
होगा। जीसस के
खिलाफ तो सिर्फ
यहूदी थे और
बुद्ध के
खिलाफ सिर्फ
हिंदू थे।
मेरे खिलाफ
सारे धर्म
होनेवाले हैं,
क्योंकि
सारे धर्मों
को चिंता पैदा
होनेवाली है।
यहां
मेरे पास पत्र
आने शुरू हो
गए हैं——सारी
दुनिया से
पत्र आते हैं।
किसी का बेटा
आकर संन्यासी
हो गया है;
वे ईसाई हैं, मां—बाप
नाराज हैं। वे
धमकियां
भेजते हैं कि
आपने हमारे
बेटे को विकृत
कर दिया, विक्षिप्त
कर दिया, सम्मोहित
कर लिया। किसी
की बेटी आकर
संन्यस्त हो
गयी है;
परिवार यहूदी
है; वह
नाराज है।
सारी दुनिया
से लोग आ रहे
हैं यहां।
सारी दुनिया
में निंदा
होने वाली है।
बुद्ध की
निंदा तो सिर्फ
बिहार में हुई
थी; सीमित
थी। जीसस की
निंदा तो सिर्फ
जेरुसलम के आस—पास
के छोटे—से
इलाके में हुई
थी; बड़ी
सीमित थी।
मेरी निंदा तो
असीम
होनेवाली है
वह एक कोने से
लेकर दूसरे
कोने तक
दुनिया में
होने वाली है।
उसके लिए
तुम्हें
तैयार होना
चाहिए।
तो
मैं तुमसे
नहीं कह सकता
कि निंदा मत
सुनना। सुननी
ही पड़ेगी।
आनंद से सुनना, यही
कह सकता हूं।
और कान वगैरह
धोना मत। कान
क्या खराब
करना है दिनभर
धो— धो कर?
इतना पानी कान
में डालोगे, धीरे— धीरे
सुनने
इत्यादि की ही
क्षमता खो
जाएगी। इस
फिक्र में ही
मत पड़ना। मौज
से सुनना।
आनंद से सुनना।
नाचते हुए
सुनना। हंसते
हुए सुनना।
तुम्हारा
हंसना, तुम्हारा
मुस्कराना, तुम्हारा
नाच——बदलाहट
का कारण बनेगा।
दूसरा सोचेगा——आखिर
तुम प्रश्न—चिह्न
बन कर खड़े हो
जाओगे न! ——दूसरा
सोचेगा कि मैं
निंदा कर रहा
हूं, और यह
आदमी
उद्विग्न भी
नहीं है, जरूर
कुछ हो गया है,
जरूर कुछ
हुआ है। इसे
कुछ मिल गया
है, जिसका
मुझे पता नहीं
है। मैं भी
जाऊं और एक
बार देखूं।''
बस
तुम इतना ही
कर सको कि
तुम्हारा
व्यक्तित्व
निमंत्रण बन
जाए,
काफी है;
शेष मैं कर लूंगा।
तुम ले आओ यहां,
शेष तुम मुझ
पर छोड़ो। तुम्हें
सम्मोहित कर लिया
तो उन्हें भी
सम्मोहित कर
लूंगा। आदमी
सब आदमी जैसे
हैं।
तीसरा
प्रश्न :
आपके
सत्संग में
रहकर बड़े ही
आनंद का अनुभव
हो रहा है और
जीवन एक उत्सव
नजर आ रहा है।
लेकिन क्या इस
क्षणभंगुर
जीवन का आनंद
भी क्षणभंगुर
नहीं है?
मन बड़ा लोभी
है।
मन
लोभ के कारण
ही बहुत कुछ
गवाता है। मन '' लेकिन,
किंतु, परंतु
'' उठाता है।
पूछते
हो: ''आपके सत्संग
में रहकर बड़े
आनंद का अनुभव
हो रहा है।'' लेकिन मन
बेचैन हो रहा
होगा भीतर। वह
कह रहा है: ''इतना
आनंद अनुभव
नहीं होने
दूंगा! क्या
समझ रखा है?'' मन हमेशा, दुःखी होओ, तो प्रसन्न
होता है। इसको
समझ लेना। इस
सूत्र को खयाल
में ले लेना।
जब भी तुम
दुःखी होते हो,
मन प्रसन्न
होता है, क्योंकि
तुम्हारे
दुःखी क्षणों
में मन मालिक
हो जाता है।
तुम मन से
सलाह लेने
लगते हो। तुम
पूछते हो: मैं
क्या करूं, क्या न करूं?
मन दिशा
देने लगता है।
दुःखी
अवस्था में मन
की मालकियत कस
जाती है
तुम्हारे
ऊपर। जब तुम
आनंदित होते
हो तो मन को एक
तरफ रख देते
हो। कौन फिक्र
करता है मन की!
अब तुम आनंदित
हो तो मन से
कुछ पूछना
नहीं है।
आनंदित चित—अवस्था
मन के पार ले
जाने लगती है।
मन चिंतित हो
उठता है। मन
पीछे खींच
लेना चाहता
है। मन सवाल
उठाता है कि
क्या समझ रखा
है तुमने, यह
आनंद है भी? पहली बात, थोड़ा सोचो
तो, कहीं
कल्पना ही न
हो!
मेरे
पास लोग आते
हैं। मैं उस
आदमी की तलाश
में हूं जो
कभी मेरे पास
आकर कहे कि
मैं बहुत दुःखी
हूं,
कहीं यह
मेरे मन की
कल्पना न हो!
आज तक किसी ने
कहा नहीं।
लेकिन रोज कोई—न—कोई
आकर कहता है
कि बड़ी हैरानी
हो रही है, मैं
आनंदित तो हूं,
लेकिन सवाल
यह उठता है: ''कहीं यह
कल्पना न हो?'' दुःख पर यह
सवाल क्यों
नहीं उठता? नरक होता है
तो तुम मानते
हो कि यथार्थ
है और जब
स्वर्ग की
थोड़ी—सी झलक
आती है, तत्क्षण
मन सवाल उठाता
है कि यह
कल्पना होगी,
यह सपना
होगा। सुख ही
हो नहीं सकता।
आनंद कहीं होता
है? दुःख
ही यथार्थ है।
कांटे
को ही मानता
है मन, फूल को
स्वीकार नहीं
करता। घावों
को ही मानता है
मन, फूल को
अंगीकार नहीं
करता। और जब
कभी भूल—चूक
से एक फूल
तुम्हारे
भीतर उतर आता
है और एक सुवास
तुम्हारे
भीतर लहराती
है, तो मन
संदिग्ध होकर ''किंतु—परंतु''
पूछने लगता
है। वह कहता
है : कल्पना
होगी, सपना
होगा, तुम
किसी भांति
में पड़े हो, तुम किसी
भूल में उलझ
गए हो। यह
वातावरण का प्रभाव
है। या तुम
सम्मोहित कर
लिए गए हो।
ठीक से सोच लो,
फिर कदम आगे
बढ़ाना। यहां
खतरा है। तुम
किसी भ्रम में
तो नहीं पड़े
जा रहे हो? तुम
किसी माया—जाल
में तो नहीं
उलझ गए हो? किसी
जादूगर के
हाथों में तो
नहीं पड़ गए हो?
मन
आनंद पर सदा प्रश्न
उठाता है। अब
यह प्रश्न
उठाया मन ने: ''लेकिन
क्या इस
क्षणभंगुर
जीवन का आनंद
भी क्षणभंगुर
नहीं है? '' दुःख
पर नहीं पूछते
कभी। जब दुःख
होता है तब
तुम यह नहीं कहते
कि क्षणभंगुर
दुःख, क्या
चिंता करनी!
इतना कहो तो
मुक्त हो जाओ।
इतना जान लो
तो मुक्ति हो
जाए। और है
क्या मुक्ति?
क्षणभंगुर
है। अभी है, अभी
चला जाएगा।
क्या फिक्र
करनी!
नहीं; तब
तुम बड़े
उद्विग्न हो
जाते हो। अब आनंद
घट रहा है तो
मन कह रहा है:
क्षणभंगुर
है। मन बड़ा
जानी हो गया
है। मन बड़ा
महात्मा हो
गया है। मन कह
रहा है
क्षणभंगुर है,
इसमें उलझ
मत जाना! जैसे
कि मन के पास
किसी शाश्वत
आनंद को देने
का उपाय है!
अगर
क्षणभंगुर दु
:ख में और
क्षणभंगुर सुख
में चुनना हो
तो क्या
चुनोगे? चलो
मान लो कि
क्षणभंगुर है,
दुःख
तुम्हारे
शाश्वत हैं? क्षणभंगुर
आनंद और
क्षणभंगुर दु
:ख में अगर चुनाव
करना हो तो
क्या चुनोगे? तो भी
क्षणभंगुर
आनंद ही चुनना।
क्षणभर को ही
सही, है तो आनंद!
फिर
और बात समझ लो :
जो क्षण में
उतर रहा है, वह
शाश्वत का
हिस्सा हो
सकता है। जो
झील में बन
रहा है चांद, झील में तो
क्षणभंगुर है,
जरा एक कंकड़ी
फेंक दो और
कैप जाएगी झील
और चांद का
प्रतिबिंब
टुट जाएगा, बिखर जाएगा,
खंड—खंड हो
जाएगा। लेकिन
जिसका यह
प्रतिबिंब है,
वह कंकड़ी
फेंकने से
खंडित नहीं
होगा।
तुम्हारे
मन में जो
छायाएं बनती
हैं शाश्वत की, वे
क्षणभंगुर
होती हैं, क्योंकि
मन में सिर्फ
क्षणभंगुर ही
कुछ हो सकता
है। मन तरंगित
वस्तु है।
उसमें तरंगें
उठ रही हैं।
लेकिन जिसकी
छाया बन रही
है, वह
शाश्वत है।
सुख
और आनंद का
यही भेद है।
सुख शाश्वत की
छाया नहीं है।
सुख किसी की
छाया नहीं है।
सुख लहरों का
नाम है। जैसे
दु :ख लहरों का
नाम है। जिन
लहरों को तुम
पसंद करते हो, वे
सुख; और
जिन लहरों को
तुम नापसंद
करते हो, वे
दुःख। और
तुमने देखा, तुम्हारे
सुख और दुःख
में कोई
ज्यादा फासला
नहीं होता! दु
:ख सुख हो सकते
हैं, सुख
दु :ख हो सकते
हैं।
एक
सम्राट एक
गरीब स्त्री
के प्रेम में
पड़ गया।
सम्राट था!
स्त्री तो
इतनी गरीब थी
कि खरीदी जा
सकती थी, कोई
दिक्कत न थी।
उसने स्त्री
को बुलाया और
उसके बाप को
बुलाया और कहा
: जो तुझे
चाहिए ले—ले
खजाने से, लेकिन
यह लड़की मुझे
दे—दे। मैं
इसके प्रेम
में पड़ गया
हूं। कल मैं
घोडे पर सवार
निकलता था, मैंने इसे
कुएं पर पानी
भरते देखा बस
तब से मैं सो
नहीं सका हूं।
बाप
तो बहुत
प्रसन्न हुआ, लेकिन
बेटी एकदम
उदास हो गयी।
उसने कहा, मुझे
क्षमा करें!
आप कहेंगे तो
आपके राजमहल
में आ जाऊंगी,
लेकिन मेरा
किसी से प्रेम
है। मैं आपकी
पत्नी भी हो
जाऊंगी, लेकिन
यह प्रेम बाधा
रहेगा। मैं
आपको प्रेम न
कर पाऊंगी।
सम्राट
विचारशील
व्यक्ति था।
उसने सोचा कि
यह तो कुछ सार
न होगा। कैसे
प्रेम हो
मुझसे इसका?
किससे इसका
प्रेम है, पता
लगवाया गया।
एक साधारण
आदमी। सम्राट
बड़ा हैरान हुआ
कि मुझे
छोड्कर उससे
इसका प्रेम
है! लेकिन
प्रेम तो
हमेशा बेबूझ
होता है। उसने
अपने वजीरों
को पूछा कि
मैं क्या करूं
कि यह प्रेम
टूट जाए?
तुम
चकित होओगे, वजीरों
ने जो सलाह दी,
वह बड़ी अद्भुत
थी। तुम मान
ही न सकोगे कि
यह सलाह कभी
दी गयी होगी।
क्योंकि यह
सलाह... यह
कहानी पुरानी
है, फ्रायड
से कोई हजार
साल पुरानी।
फ्रायड यह
सलाह दे सकता
था।
मनोविज्ञान
यह सलाह दे
सकता है अब।
और
मनोविज्ञान
भी सलाह देने
में थोड़ा
झिझकेगा।
सलाह वजीरों
ने यह दी कि इन
दोनों को नग्न
करके एक खंभे
से बांध दिया
जाए, दोनों
को एक—दूसरे
से बांध दिया
जाए और खंभे
से बांध दिया जाए।
सम्राट
ने कहा : इससे
क्या होगा?
यही तो उनकी
आकांक्षा है
कि एक — दूसरे
की बांहों में
......बध जाए।
उन्होंने
कहा : आप
फिक्र न करें।
बस फिर उनको
छोड़ा न जाए, बंधे
रहने दिया जाए।
उनको
अलिंगन में
बांधकर नग्न
एक खंभे से बांध
दिया गया।
अब
तुम जरा सोचो, जिस
स्त्री से
तुम्हारा
प्रेम है, फिर
वह कोई भी
क्यों न हो, वह इस जगत की
सबसे सुंदरी
क्यों न हो; या किसी
पुरुष से
तुम्हारा प्रेम
है, वह
मिस्टर
युनिवर्स
क्यों न हों, इससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता —— कितनी
देर आलिंगन कर
सकोगे?
पहले तो दोनों
बड़े खुश हुए, क्योंकि
समाज की बाधाओं
के कारण मिल
भी नहीं पाते
थे। जातियां
अलग थीं, धर्म
अलग थे, चोरी
— छिपे कभी
यहां — वहां
थोड़ी देर को
गुफ्तगू कर
लेते थे थोड़ी —
बहुत। एक —
दूसरे के
आलिंगन में
नग्न! पहले तो
बड़े आनंदित
हुए, दौड़कर
एक — दूसरे के
आलिंगन में
बंध गए। लेकिन
जब रस्सियों
से उन्हें एक
खंभे से बांध
दिया गया तो
कितनी देर सुख
सुख रहता है!
कुछ ही मिनट
बीते होंगे कि
वे घबड़ाने लगे
कि अब अलग कैसे
हों, अब
भिन्न कैसे
हों, अब
छूटें कैसे? मगर वे बंधे
ही रहे।
कुछ
घंटे बीते और
तब और उपद्रव
शु रू हो गया।
मलमूत्र का
विसर्जन भी हो
गया। गंदगी
फैल गयी। एक —
दूसरे के मुंह
से बदबू भी
आने लगी। एक —
दूसरे का
पसीना भी। ऐसी
घबड़ाहट हो गयी।
और चौबीस घंटे
बंधै रहना पड़ा।
फिर जैसे ही
उनको छोड़ा, कहानी
कहती है फिर
वे ऐसे भागे
एक — दूसरे से, फिर दुबारा
कभी एक — दूसरे
का दर्शन नहीं
किया। वह युवक
तो वह गांव ही
छोड्कर चला
गया।
यह
प्रेम का अंत
करने का बड़ा
अहत उपाय हुआ, लेकिन
बड़ा
मनोवैज्ञानिक।
तुम
देखते हो, पश्चिम
में प्रेम उखड़ता
जा रहा है, टूटता
जा रहा है!
कारण?
स्त्री और
पुरुष के बीच
कोई व्यवधान
नहीं रहा है, इसलिए प्रेम
टूट रहा है।
स्त्री और
पुरुष इतनी
सरलता से
उपलब्ध हो गए हैं
एक — दूसरे को
कि प्रेम बच
ही नहीं सकता,
प्रेम
टूटेगा ही।
संयुक्त
परिवार नहीं
रहा पश्चिम
में, तो पति
और पत्नी
दोनों रह गए
हैं एक मकान
में अकेले। जब
मिलना हो
मिलें; जो
कहना हो कहें; जितनी देर
बैठना हो पास
बैठें —— कोई
रुकावट नहीं,
कोई बाधा
नहीं। जल्दी
ही चुक जाते
हैं। जल्दी ही
सुख दु:ख हो
जाता है।
तुमने
देखा, वही
संगीत तुम
पहली दफा
सुनते हो, सुख; दुबारा
सुनते हो, उतना
सुख नहीं रह
जाता। तीसरी
बार सुनते हो,
सुख और कम
हो गया। चौथी
बार ऊब पैदा
होने लगती है।
पांचवीं बार
फिर कोई
रिकार्ड चढ़ाए
तो तुम सोचते
हो कि मेरा
सिर घूम जाएगा।
तुम कहते हो : '' अब बंद करो!
अब बहुत हो
गया।’’ यही
वही संगीत
पहली दफा सुख
दिया, दूसरी
दफा कम, तीसरी
दफा और कम। अर्थ
शास्त्री
नियम की बात
करते हैं : '' ला
आफ डिमिनिशिग
रिटर्नश ''।
हर बार उसी
चीज को
दोहराओगे तो
सुख की मात्रा
कम होती जाती
है।
पुराना
ढंग प्रेम को
बचाने का ढंग
था। पति —
पत्नी मिल ही
नहीं सकते थे।
दिन में तो
मिल ही नहीं
सकते थे। पति —
पत्नी भी नहीं
मिल सकते, दूसरे
की पत्नी से
मिलना तो
मामला दूर।
पश्चिम
में तो दूसरे
की पत्नी से
मिलना भी इतना
सरल हो गया है, जितना
पहले अपनी
पत्नी से भी
मिलना सरल
नहीं था। दिन
भर तो मिल ही
नहीं सकते थे।
परिवार में
बड़े — बूढे थे, बुजुर्ग थे,
उनके सामने
कैसे मिल सकते
थे! रात में भी
मिलना बड़ा
चोरी — छिपे था।
अपनी पत्नी से
चोरी — छिपे
मिलना!
क्योंकि जोर
से बोल नहीं
सकते थे। छोटे
— छोटे घर, जिनमें
पचास लोग सोए
हुए हैं। चोरी
— छिपे, रात
के अं धेरे
में। ठीक — ठीक
पति अपनी
पत्नी के
चेहरे को
जानता भी नहीं
था कि वह कैसा
है। अं धेरे
में जानेगा भी
कैसे? कभी
घूंघट उठा कर
रो श में ठीक
से देखा भी
नहीं था।
प्रेम अगर
लंबा जिंदा रह
जाता था तो अश्चर्य
नहीं, क्योंकि
प्रेम को, सुख
को क्षीण होने
का मौका ही
नहीं था। दिन —
भर अपने काम — धंधे
में रहते
दोनों और याद
जारी रहती।
अभी
हालतें उल्टी
हो गयी हैं।
चौबीस घंटे एक
— दूसरे के
सामने बैठे
हैं,
वही खंभा, बंधे हैं।
एक — दूसरे से
चिढ़ पैदा होती
है। पत्नी
चाहती है कि
कहीं उठो, कहीं
जाओ, कुछ
करो, यहीं
क्यों बैठे हो?
जीवन
के बड़े अद्दभुत
नियम हैं! सुख
और दु:ख में
बहुत फर्क
नहीं है। वही
उत्तेजना सुख
है,
वही
उत्तेजना दु:ख
है। पसंद की
तो सुख है, ना
पसंद की तो दु:ख
है। बस नापसंद
— पसंद का फर्क
है। दोनों
तरंगें हैं।
दोनों समय के
भीतर घट रही
हैं। दोनों
समय की झील की
तरंगें हैं।
आनंद
का अर्थ है :
समय के पार से
कोई चीज आ रही
है; समय में
उसकी छाया बन
रही है। छाया
तो क्षण भंगुर
छाया होगी।
सत्संग में जो
आनंद घटता है,
वह आनंद
क्षण भंगुर है; लेकिन अगर
छाया का इशारा
समझ लोगे और
मूल की तरफ चल
पडोगे तो शाश्वत
मिल जाएगा।
लेकिन
लो भी मन है! वह
कहता है : क्षण
भंगुर!
फिर
और भी एक बात
समझ लेना : अगर
क्षण भर को
तुम्हें
आनंदित रहने
की कला आ गयी
तो तुम पूरे
जीवन आनंदित
रह सकते हो, क्योंकि
एक बार एक ही
क्षण तो मिलता
है, दो
क्षण एक साथ
तो मिलते नहीं।
अगर एक क्षण
को तुम आनंद
में रंग लेने
की कला जानते
हो तो एक ही
क्षण मिलता है
एक बार, उसको
रंग लेना, रंगते
जाना, उसमें
धुन गुंजाए
जाना। कला तो
तुम्हारे हाथ
में आ गयी।
एक
बार में एक ही
कदम उठता है।
और एक बार में
एक ही क्षण
मिलता है। एक
क्ष ण को
आनंदित होने
का जिसने राज
सीख लिया उसके
हाथ से कुंजी
मिल गयी; वह
कुंजी सारे
स्वर्गो के
द्वार खोल
देगी।
लेकिन
पूछनेवाले के
मन में लोभ है।
और जहां लोभ
है वहां संदेह
भी होगा।
फिर
से प्रश्न को
पढ़ें तो खयाल
में आ जाएगा
कहां चूके हैं
: '' आपके सत्संग
में रह कर बड़े
ही आनंद का
अनु भव हो रहा
है।’’ अनु
भव नहीं हो
रहा होगा।... ''और जीवन एक
उत्सव नजर आ
रहा है।’’ '' नजर
'' आ रहा
होगा। मान
लिया होगा कि
होना चाहिए
आनंद, हो
रहा है आनंद।
सत्संग में
बैठे हैं तो
आनंद होना ही
चाहिए;
नहीं तो यहां
बैठे ही
किसलिए हैं? मान लिया
होगा। या और
लोग तुम्हारे
आसपास आनंदित
होंगे, उनके
आनंद की तरंग
तुम्हें छू
रही होगी। अब
उनके बीच तुम
गैर—आनंदित
बैठे रहो तो
बुद्ध मालूम
पडोगे, जड़
मालूम पडोगे।
जहां लोग मस्त
हो रहे हैं
वहां तुम भी
मस्ती में पड़
जाते हो।
लेकिन वह सिर्फ
भीड़ का संग—साथ
होगा, तुम्हारा
अपना अनुभव
नहीं।
खयाल
रखना, हम भीड़
की भावनाओं से
बड़ी जल्दी
प्रभावित हो जाते
हैं। तुमने
देखा, अगर
लोग तेजी से
चल रहे हों, उनके साथ
तुम चलो तो
तुम भी तेजी
से चलने लगते हो!
भीड़ अगर जोश
में हो तो तुम
भी जोश में आ
जाते हो। भीड़ जो
करती है वही
तुम करने लगते
हो। चार हंसते
हुए आदमियों
के बीच बैठ
जाओ, तुम
अपनी उदासी
भूल जाते हो।
और चार उदास
लोगों के बीच
बैठ जाओ तो
तुम अपनी हंसी
भूल जाते हो।
तुम भीड़ से
बड़ी जल्दी
प्रभावित हो
जाते हो।
यहां
सत्संगियों
की एकभीड़ है।
उसमें यह भी
हो सकता है कि
तुम्हें कुछ
खास आनंद न आ
रहा हो; लेकिन
दूसरे लोग
आनंदित हैं, उनकी तरंग
तुम्हें छू
जाए, उनकी
तरंग
तुम्हारी
हृदय—वीणा को
बजा दे और
तुम्हें नजर
आने लगे कि
आनंद आ रहा
है। तभी ''किंतु—
परंतु'' उठ
सकते हैं, नहीं
तो नहीं उठ
सकते। अगर
तुम्हें सच ही
आनंद आ रहा है,
कौन फिक्र
करता है कि
क्षणभंगुर है!
आनंद क्षणभंगुर
भी हो तो
शाश्वत
दुःखों से
बेहतर है। शाश्वत
का ही क्या
करोगे? खाओगे
कि पिओगे, अगर
दुःख हुआ
शाश्वत।
शाश्वत नरक को
चुनोगे कि
क्षणभंगुर
स्वर्ग को
चुनोगे? और
क्षणभंगुर का
भी अगर चुनाव
कर लिया, ठीक
चुनाव हुआ, तो उसी से
धीरे—धीरे
यात्रा आगे की
खुलती है। एक—एक
कदम चलकर आदमी
हजारों मील की
यात्रा पूरी कर
लेता है।
नहीं; लेकिन
सवाल उठता है: ''लेकिन क्या
इस क्षणभंगुर
जीवन का आनंद
भी क्षणभंगुर
नहीं है? ''
यह
जीवन
क्षणभंगुर
नहीं है। यह
जीवन शाश्वत है।
बाहर का जीवन
होगा क्षणभंगुर, भीतर
का जीवन
शाश्वत है।
देह का जीवन
होगा क्षणभंगुर,
आत्मा का
जीवन शाश्वत
है। तुम बच्चे
थे, अब
जवान हो, कल
बूढे हो जाओगे——लेकिन
कुछ तुम्हारे
भीतर है जो न
तो कभी बच्चा
था, न जवान
हुआ और न बूढा
होगा। वही तुम
हो। वही तुम्हारा
असली जीवन है।
सत्संग में
उसी की याद
दिलायी जाती
है, बारबार
उसी की याद
दिलायी जाती
है। उसकी याद
से ही आनंद
उमगने लगता
है। उसकी याद
से ही सुगंध
फैलने लगती
है।
लेकिन
लोभ बड़ा कमजोर
होता है।
दरिया
की जिंदगी पर
सदके हजार
जानें
मुझको
नहीं गवारा
साहिल की मौत
मरना
लेकिन
भयभीत और लोभी
किनारे की मौत
ही मरना चाहते
हैं,
तूफान में
जाने से
घबड़ाते हैं।
और आनंद तूफान
है। तुम्हारी
साधारण
जिंदगी स्थिर
हो गयी है, सुरक्षित
है। घर है, द्वार
है, परिवार
है——सब
सुरक्षित है।
जिस जीवन की
तरफ मैं
तुम्हें ले चल
रहा हूं, वह
किनारा छोड़ने
का जीवन है; वह मझधार
में डूबने का
जीवन है।
दरिया
की जिंदगी पर
सदके हजार
जानें
मुझको
नहीं गवारा
साहिल की मौत
मरना
जो
किनारे पर
नहीं मरना
चाहते, वही
मेरे साथ आएं।
जिन्हें मौज
में उतरना है,
जिन्हें
दरिया के
तूफान में
उतरना है, जिन्हें
जीवन की
चुनौतियों
में उतरना है,
जो
असुरक्षा में
जाने को तत्पर
हैं, जिन्हें
अज्ञात की खोज
करनी है —— वे ही
मेरे साथ आएं।
खतरनाक
रास्ता है यह।
जीवन
मुफ्त नहीं
मिलता —— खतरों
से कीमत
चुकानी पड़ती
है। और जो
मेरे साथ आते
हैं,
वे पीछे लौट
— लौट कर न
देखें।
रहे
हयात में
मुडमुड़ के
नक्शे—पा को न
देख
मह
और सितारे की
शाने खिराम
पैदा कर।
चंद्र—नक्षत्रों
की चाल देखी
है;
वैसी चाल
चाहिए।... मुड़—मुड़
के नक्शे—पा
को न देखा...
पीछे जो चिह्न
छूट गए हैं
पैरों के, उनको
लौट—लौट कर
क्या देखना। आंख
आगे रखो। और
चांदत्तारों
के प्रसाद से
चलो।... मह औ
सितारे की
शाने खिराम
पैदा कर...।
यह
जगत उन्हीं का
है जो उस अनंत
जीवन के साथ
अपने को जोड़
लेने में
समर्थ हैं। और
अनंत जीवन कोई
दूसरा जीवन
नहीं है——यही
जीवन है, ठीक
से देखा गया।
क्षणभंगुर ही
शाश्वत है——ठीक
से देखा जाए
तो। और शाश्वत
ही क्षणभंगुर
मालूम होता है——ठीक
से न देखा जाए
तो। छाया को
पकड़ो तो
क्षणभंगुर, मूल को पकड़
लो तो शाश्वत।
क्षणभंगुर
सही, चलो, इस
क्षणभंगुर
आनंद के स्वाद
को कंठ में
उतरने दो। इस
क्षणभंगुर
आनंद पर
श्रद्धा करो।
इससे द्वार
खुलेगा।
तुम
देखते नहीं, दरवाजा
खोलते हैं हम,
बड़े से बड़ा
किले का
दरवाजा भी
खोलें तो छोटी—
सी चाबी से
खुलता है। और
चाबी जिस छेद
में जाती है, वह जरा—सा
होता है। मगर
विराट दरवाजा
खुल जाता है। शुरू
में तो आनंद
बूंद—बूंद आता
है लेकिन बूंद—बूंद
से ही तो सागर
बन जाता है। बूंद
और सागर में
कुछ भेद थोड़े
ही है। मात्रा
का ही भेद है।
श्रद्धा रखो।
खिजां
की लूट से
बरबादिए चमन
तो हुई
यकीन
आमदे फस्ले—बहार
कम न हुआ
बहुत
बार आता है
पतझड़, लेकिन
इससे वसंत पर
भरोसा थोड़े ही
खो देते हैं।
बहुत बार उजड़
जाता है चमन, इससे कुछ
आशियां बनाना
थोड़े ही छोड़
देते हैं।
श्रद्धा
रखो! शाश्वत
यहां कहीं
छिपा है ——
कुंजी की तलाश! वही
कुंजी जहां
मिल जाए, उसी
का नाम सत्संग
है। और जिसने शाश्वत
की थोड़ी पहचान
कर ली, फिर
ऐसा मत समझना
कि वह क्षण भंगुर
को छोड्कर भाग
जाता है। भाग
कर कहां जाओगे? सिर्फ क्षण
भंगुर को
देखने का उसका
ढंग बदल जाता
है। होता तो
यहीं है —— इसी
जीवन में, इन्हीं
लोगों के साथ,
इन्ही
वृक्षों में,
इन्हीं
पहाड़ों में, इन्हीं
चांदत्तारों
में। होता तो
यहीं है। सब
ऐसा ही होता
है। बाहर से
तो कोई भेद
पड़ता नहीं, लेकिन भीतर
एक क्रांति हो
गयी होती है।
फिर खेलता
रहता है
इन्हीं क्षण
भंगुर तरंगों से
लेकिन अब
जानता है कि
तरंगें अपने —
आप में कुछ भी
नहीं हैं ——
विराट सागर के
अंग हैं।
देखते हो
चमन
में छेड़ती है
किस मजे से
गुंच ओ गुल को
मगर
मौजे—सबा की
पाक दामानी
नहीं जाती
सुबह
की हवा को
देखा है; और
किस मौज से
छेड़ती है——फूलों
को, पत्तियों
को। कैसी
खिलवाड़ करती
है। लेकिन इससे
कुछ सुबह की
हवा की
पवित्रता
नष्ट तो नहीं हो
जाती।
जो
व्यक्ति एक
बार उस परम का
अनुभव कर लेता
है,
फिर सब ऐसा
ही चलता है।
नहीं तो कृष्ण
के रास का
अर्थ क्या
होगा; कृष्ण
की बजती
बांसुरी का
अर्थ क्या
होगा; तुम
जैसा कोई
व्यक्ति अगर
वहां होता
कृष्ण की गोपियों
में और गोपों
में, तो
पूछता कि ''ठीक
है, मगर
बांसुरी का
स्वर, आखिर
है तो बांसुरी
का ही सुर, क्षणभंगुर।
क्या बजा रहे
हो; नाच
में क्या रखा
है; है तो
क्षणभंगुर।
इस तुम्हारे
आलिंगन में भी
क्या रखा है; है तो
क्षणभंगुर।''
नहीं, अगर
तुम पहचानते
हो तो
क्षणभंगुर
नहीं रह जाता।
पहचान के साथ
ही सब शाश्वत
हो जाता है।
फिर जीवन एक
अपूर्व अभिनय
है, लीला
है।
मुझको
दिल सोज
नजारों का
खयाल आता है
उजड़े
गुलशन की
बहारों का
खयाल आता है
जब
कोई गीत मचलता
है मेरे होठों
पर
दिल
के टूटे हुए
तारों का खयाल
आता है
डूब
जाते हैं वही
जोरेतलातुम
में नदीम!
जिनको
का में कनारों
का खयाल आता
है
उनको
ऐ ''साहिरा'' मिलती
नहीं मंजिल
अपनी
जिनको
का में सहारों
का खयाल आता
है।
सुरक्षा
छोड़ो! सहारे
छोड़ो! किनारे
छोड़ो!
डूब
जाते हैं, वही
जोरेतलातुम
में नदीम।
तूफान
में केवल वे
ही डूबते हैं, सिर्फ
वे ही——
डूब
जाते हैं वही
जोरेतलातुम
में नदीम
जिनको
का में कनारों
का खयाल आता
है
तूफान
में क्या
किनारों की
याद! तूफान
में जूझो और
तूफान किनारे
हो जाते हैं।
और जब तक
मझधार किनारा
न हो जाए, तब तक
समझना तुमने
अभी जीवन का
ठीक—ठीक अर्थ
समझा नहीं, अभिप्राय
नहीं समझा। जब
तक डूबना, उबरना
न हो जाए, तब
तक समझना
परमात्मा से
तुम्हारी
पहचान नहीं
हुई।
उनको
ऐ ''साहिरा'' मिलती
नहीं मंजिल
अपनी
जिनको
का में सहारों
का खयाल आता
है
चौथा
प्रश्न :
तन्मयता
से किया गया
प्रत्येक
कार्य साधना है।
तो क्या जरूरी
कि परमात्मा
की साधना के
लिए संन्यास
लिया जाए?
तन्मयता
कहां सीखोगे, कैसे
सीखोगे? संन्यास
और क्या है?
तन्मयता
सीखने की एक
विधि, एक उपाय।
तन्मय होने का
एक ढंग, एक
शैली। नाम उसे
तुम कुछ भी दो।
संन्यास
क्या है? जिसे
मैं संन्यास
कहता हूं, वह
क्या है?
मेरे
साथ तन्मय
होने की एक
व्यवस्था।
तुम्हारी
तरफ से यह
घोषणा कि अब
मैं तुम्हारे साथ
चलने को राजी
हूं जहां ले
चलो। तूफान
में तो तूफान
में। मझधार
में तो मझधार
में। तुम डुबो
तो तुम्हारे
साथ डूबने को
राजी हूं।
संन्यास
का और क्या
अर्थ है?
यह
खतरा लेना।
खतरा ही है।
क्योंकि पता
नहीं, मैं
तुम्हें कहां
ले जाऊं!
तुम्हें कुछ
पता नहीं है
कि मैं
तुम्हें किस
तरफ ले जा रहा
हूं। यह नाव
कहां जाकर
लगेगी, तुम्हें
कुछ पता नहीं
है। यह नाव
मैं बीच में डुबा
दूंगा या
दूसरे किनारे
पर
पहुंचाऊंगा, तुम्हें कुछ
पता नहीं है।
तुम मेरे पास
आए, तुमने
मेरे हाथ में
हाथ थाना और
तुम्हारे भीतर
एक श्रद्धा का
जन्म हुआ——कि
चलूंगा, यह
खतरा लेने
जैसा है। डूबे
तो भी खतरा
लेने जैसा है।
संन्यास
का इतना ही
अर्थ होता है
कि तुमने अपने
अस्त्र—शस्त्र
डाल दिए कि
तुम मेरे
खिलाफ किसी
तरह का
सुरक्षा का
उपाय अब न
करोगे।
संन्यास
का वही अर्थ
होता है जो
तुम जब अस्पताल
जाते हो और
आपरेशन की
टेबिल पर
लेटते हो और
सर्जन के हाथ
में छोड़ देते
हो कि अब जो हो हो, क्योंकि
क्या पता, क्या
होगा। ये
सर्जन नशे में
हो सकता है, शराब ज्यादा
पी गया हो कुछ—का—कुछ
काट—पीट कर
दे। पत्नी से
झगड़ कर आया
हो। क्रोध में
हो। दो इंच की
जगह चार इंच
काट दे।
मैंने
सुना है ऐसा
कि एक सर्जन
आपरेशन कर रहा
था।
अपेंडिक्स
निकाली। बड़ा
कुशल कारीगर
था। उसके
विद्यार्थी, उसके
शिष्य, उसके
मित्र सब
किनारे खड़े
होकर देख रहे
थे। उसकी
कुशलता की
जगत् में
ख्याति थी। वह
जिस ढंग से
निकालता था——उनकी
सांसें रुकी
रह गयीं। जिस
कुशलता से, जिस कारीगरी
से उसने
अपेंडिक्स
निकाली। जब अपेंडिक्स
निकल गयी, उनके
हाथों से
बेतहाशा
तालियां बज
गयीं। सर्जन
को इतना जोश आ गया
कि जोश में
उसने टेबल पर
पड़े हुए आदमी
के टांसिल भी
निकाल दिए।
जोश की वजह से!
जैसा तुम कह
देते हो न कभी,
कोई
संगीतज्ञ गा
रहा हो, कह
देते हो ''वन्समोर''!
ताली बजा दी
तो वह फिर
दोहरा देता
है।
अब
क्या पता!
लेकिन सर्जन
के हाथ में जब
तुम लेट जाते
हो,
छोड़ देते हो
सब.... यह तो उससे
भी बड़ी सर्जरी
है। यहां शरीर
के ही काटने
की बात नहीं, यहां तो मन
को काटने की
बात है। यहां
तो मन कटेगा
तो ही तुम कुछ
पा सकोगे। यहां
तो तुम्हारे
अहंकार को काट
डालने की बात है।
तुम
कहते हो: ''तन्मयता
से किया गया
प्रत्येक
कार्य साधना है।''
निश्चित।
तन्मयता का
तुम्हें पता
है क्या अर्थ
होता है? अगर
तुम सत्य की
खोज में लगे
हो तो तन्मयता
से लगने का
अर्थ होगा:
किसी सदगुरू
के साथ एकरूप
हो जाना। अगर
तुम यहां
सुनने बैठे हो
तो तन्मयता का
अर्थ होगा कि
मेरे और
तुम्हारे बीच
कोई तर्क और
कोई विवाद न रह
जाये।
तुम्हारे—मेरे
बीच एक
स्वीकार हो।
तुम्हारे—मेरे
बीच ''नहीं''
गिर जाए, ''हां'' का
भाव उठे। वही
संन्यास है।
संन्यास
एक क्रांति है।
इसलिए तो
देखते हो न——लाल
रंग क्रांति
का रंग है! संन्यास
का रंग है, यह
आत्मक्रांति
है।
सुर्ख
कलियां सुर्ख
पते सुर्ख फूल
सुर्ख
तूफां सुर्ख
आधी सुर्ख धूल
और
हर सुर्खी में
सुर्खिए—शराब
इकिलाबो
इकिलाबो
इंकिलाब।
यह
एक क्रांति है।
यह शराब की सुर्खी।
यह लाल रग इस
बात की सूचना
है कि मैं
मिटने को तैयार
हूं;
मैं नया
होने को तैयार
हूं; कि
मैं अपना
क्रास अपने
कंधे पर रखने
को तैयार हूं;
कि
मुश्किलें
आएं कि
कठिनाइयां
आएं तो भी मैं
इस यात्रा को
करने को आतुर
हूं; कोई
भी कीमत
चुकानी हो, मैं तैयार
हूं।
संन्यास
का भाव तो
तुम्हारे
भीतर उठ आया
होगा, इसलिए
सवाल उठा है।
पूछा है तुमुल
पांडे ने। जरूर
कहीं भीतर भाव
उठता होगा, कहीं प्यास
जगती होगी; अन्यथा प्रश्न
कैसे बनता? अब अगर तुम
डरते हो, भागते
हो, घबड़ाते
हो... हजार कारण
होते हैं डरने,
भागने, घबड़ाने
के... तो फिर तुम
पछताओगे। तो
फिर एक मौका
आया था, जो
तुम चूके। फिर
किसी—न—किसी
दिन तुम कहोगे
आंसुओ से भरी
हुई आंखों से:
दिल
में सोजे—टाम
की इक दुनिया
लिए जाता हूं मैं
आह तेरे
मैकदे से
बेपिए जाता
हूं मैं
जाते—जाते
लेकिन इक पैमा
किए जाता हूं
मैं
अपने
अज्मे—सरफरोशी
की कसम खाता
हूं मैं
फिर
तेरी बज्मे—हसीं
में लौटकर
आऊंगा मैं
आऊंगा
मैं और—ब—अंदाजे—दिगर
आऊंगा मैं
आह' वे
चक्कर दिए हैं,
गर्दिशे—ऐयाम
ने
खोलकर
रख दी हैं आंखें
तल्खिए—आलाम
ने
फितरते—दिल
दुश्मने—नग्म:
हुई जाती है
अब
जिंदगी
इक बर्क इक
शोल: हुई जाती
है अब
सर
से पा तक एक
खूनी आग बनकर
आऊंगा
लाल
: जारे रंगो—बू
में आग बनकर
आऊंगा
जा
तो सकते हो, लेकिन
खाली हाथ
जाओगे। या तो
भरे हाथ जाना
और या फिर कम—से—
कम इस प्यास
को लेकर जाना
कि '' जाते—जाते
लेकिन इक पैमा
किए जाता हूं, मैं एक वादा
किए जाता हूं।
अपने
अज्मे—सरफरोशी
की कसम खाता
हूं मैं
फिर
तेरी बज्मे—हसीं
में लौटकर
आऊंगा मैं
आऊंगा
मैं और — ब —
अंदाजे — दिगर
आऊंगा मैं
आना
ही पड़ेगा।
तुम्हारे
भाव को मैं
समझा।
तुम्हारी
आकांक्षा को
मैं समझा।
तुम्हारे भय
को भी समझा।
यह सभी का भय
है,
यह कुछ
तुम्हारा ही
नहीं। यहां जो
संन्यस्त हो
गए हैं, उनका
भी कभी यही भय
था: क्या लोग
कहेंगे? लोग
हंसेंगे कि पागल
समझेंगे? क्या
कैसे काम
चलेगा? कपड़े
पहन कर गैरिक,
दुकान कैसे
चलेगी? गैरिक
कपड़े पहनकर दफ्तर
काम कैसे करने
जाऊंगा? पिता
क्या कहेंगे,
मां क्या
कहेगी, पत्नी
क्या कहेगी, बेटे—बेटियां
क्या कहेंगे?
नाते—रिश्ते...
हजार—हजार
बातें। हजार—हजार
चिंताएं।
लेकिन
कभी ऐसी घड़ी आ
जाती है आदमी
की जिंदगी में, जब
ये सब बातों
का कोई मूल्य
नहीं रह जाता; जब यह दिखाई
पड़ता है कि ये
सब बातें ऐसी
ही चलती
रहेंगी और एक
दिन मौत आ
जाएगी।
और
तुम देखते हो, जब
मुर्दे को
उठाते हैं तो
उसको लाल कपड़ा
ओढ़ा देते हैं!
मगर तब बहुत
देर हो चुकी।
अब कुछ सार
नहीं कि अब
लाल कपड़ा
ओढ़ाओ। और जब
मुर्दे को ले
जाते हैं तो
राम—नाम सत्य!
अब बहुत देर
हो चुकी, अब
यहां
सुननेवाला
कोई भी नहीं
रहा। मैं तुम्हें
जिंदगी में
लाल कपड़ा ओढ़ा
देता हूं, अर्थी
पर चढ़ा देता
हूं, राम—नाम
सत्य करा देता
हूं।
संन्यास
का अर्थ है:
जीते जी मर
जाना।
संन्यास का
अर्थ है: ऐसा
जो अब तक का
जीवन था, वह
व्यर्थ था, ऐसा जानकर
अब एक नए जीवन
की तलाश शुरू
होती है।
और
जो आज हो सकता
हो,
उसको कल पर
मत छोड़ना। जो
अभी हो सकता
हो, उसे
स्थगित मत
करना। न हो
सकता है, मजबूरी
है।
जबर्दस्ती
संन्यास लेना,
ऐसा नहीं कह
रहा हूं। जोर
लगा कर
संन्यास लेना,
ऐसा नहीं कह
रहा हूं। ऐसा
लिया हुआ
संन्यास दो
कौड़ी का होगा।
सहज भाव उठता
हो तो फिर भय
की चिंता नहीं
लेना। भाव
उठता हो तो
फिर भाव के
साथ बह जाना।
जबर्दस्ती
भाव मत उठा
लेना। भाव
उठता ही न हो; औरों
ने संन्यास
लिया, यह
देखकर संन्यास
मत ले लेना।
अन्यथा वह झूठ
भीतर भाव उठता
हो तो फिर
दुनिया भी होगा,
अभिनय होगा,
पाखंड होगा।
लेकिन
तुम्हारे
इनकार करती हो
तो चिंता मत
करना।
जलाले—आतिशो—बर्को—सहाब
पैदा कर
अजल
भी कांप उठे
वह शबाब पैदा
कर
तेरे
खसम में है
जलजलों का राज
निहा
हर—एक
गाम पर इक
इंकिलाब पैदा
कर
बहुत
लतीफ है ऐ
दोस्त! तेग का
बोसा
यही
है जाने—जहां
इसमें आब पैदा
कर
तेरा
शबाब अमानत है
सारी दुनिया
की
तू
खार—जारे—जहां
में गुलाब
पैदा कर
तू
इंकिलाब की
आमद का इंतजार
न कर
जो
हो सके तो अभी
इंकिलाब पैदा
कर
तुम
प्रतीक्षा मत
करो कि
क्रांति आएगी।
क्रांति कभी
नहीं आती।
क्रांति में
जाना होता है।
तू
इंकिलाब की
आमद का इंतजार
न कर
जो
हो सके तो अभी
इंकिलाब पैदा
कर
और
मैं जिस
क्रांति की
बात कर रहा
हूं कोई सामाजिक—राजनीतिक
क्रांति नहीं
है। वह
क्रांति है——व्यक्ति
की क्रांति, आत्मिक
क्रांति।
तन्मयता
से ही जीवन
जिया जाए, यही
राज है। लेकिन
तन्मयता कहां
सीखोगे? तन्मयता
सीखने के लिए,
कोई जो
तन्मय हो गया
हो, उसके
साथ जुड जाना
होगा। किसी की
वीणा बज उठी
हो, उसकी
वीणा के पास
तुम अपनी गैर—बजती
वीणा रख दो।
पास रखे—रखे
ही गैर—बजती
वीणा के तार
भी कैपने लगते
हैं बजती वीणा
की चोट से।
कोई दीया जल
गया हो, उसके
पास अपने बुझे
दीए को रख दो; कभी निकटता
की ऐसी घड़ी
आएगी कि जलते
दीए से ज्योति
लपकेगी और
बुझे दीए को
पकड़ जाएगी।
मेरा
कुछ भी नहीं
खोता है, तुम्हें
बहुत कुछ मिल
जाता है। जलता
दीया अब भी जल
रहा है। हजार
दीए जला लिए
हों तो कुछ
ऐसा मत सोचना कि
जलते दीए की
कुछ रोशनी कम
हो गयी। यही
तो मजा है
आत्मिक अनुभव
का कि बाटो, लुटाओ——न
लुटता है, न
बटता है, बढ़ता
ही चला जाता
है, कुछ
खर्च नहीं
होता।
उपनिषद
का वचन तुम्हें
याद है? ईशावास्य
उस वचन से शुरू
होता है:
पूर्ण से
पूर्ण भी
निकाल लो तो
भी पीछे पूर्ण
ही शेष रह
जाता है।
तुम्हें
जितना मुझसे
निकालना हो
निकाल लो, तुम
जरा भी संकोच
मत करना।
संन्यास का
इतना ही अर्थ
है। लेकिन वे
ही निकाल
पाएंगे जो
मेरे करीब
आएंगे। करीब
आना यानी
संन्यास।
पांचवां
प्रश्न:
इस
बार संध्या—दर्शन
में लगातार दो
दिन प्रभु—पास
का सुयोग
मिला। पहले
दिन कुछ देर
आपको देखते
रहने के बाद
घबड़ाहट होने
लगी, धड़कन
तेज हो गयी, सिर में
चक्कर, नशा
जैसा और
बेचैनी अनुभव
हुई। दर्शन के
बाद देर तक यह
स्थिति रही।
दूसरे दिन
आपके पास आने
पर आपको
प्रणाम कर आंखें
बंद कर लीं और
ध्यान में डूब
गया। पहली बार
आपका अहत
सान्निध्य
पाया——इतना
निकट कि खुली आंखों
से आपको कभी
नहीं देख पाया
था। भीतर
शीतलता, गहन
मौन और शांति
बहुत देर तक
छायी रही। यह
क्या है?
यही
सत्संग है। जो
मैं तुम्हें
दिखाना चाहता
हूं वह खुली आंखों
से नहीं देखा
जा सकता; उसे
देखने के लिए
बंद आंख चाहिए।
जो मैं
तुम्हें
दिखाना चाहता
हूं वह अदृशय
है। इन आंखों
के लिए अदृशय
है। बाहर की
दो आंखों के
लिए अदृशय है।
लेकिन भीतर की
आंखों के लिए
अदृश्य नहीं
है।
पहली
दफा,
धर्मशरणदास!
तुम्हें
सत्संग का
स्वाद आया। अब
यह बढ़ता जाएगा।
अब इसमें रमो।
अब इसको जितना
पुकार सको
पुकारो। और
जल्दी ही तुम
अनुभव करोगे
कि इसके लिए
मेरे पास ही
आकर बैठने की
कोई जरूरत
नहीं है। जब
भी तुम मुझे
याद करो, कितने
ही दूर हजार
मील दूर से, तुम्हारी
याद पर निर्भर
है। अगर याद
तुम्हारी
पूरी हो जाए
और आंख
तुम्हारी सच
में बंद हो
जाए, तो
तुम फिर यही
पाओगे, सब
जगह पाओगे।
तुम्हारी
असली दीक्षा
अब हुई। एक
संन्यास था, जो तुमने
पहले लिया था; वह तो केवल
श्दुरुआत थी।
अब असली
संन्यास घटा।
अब तुम मुझसे
भीतर से जुड़े।
शुभ
हुआ। अब इस पर
पानी सींचो।
इस पौधे को
कुम्हला जाने
मत देना।
छठवां
प्रश्न :
कल
प्रवचन के आधे
घंटे पहले जब
मैंने आपकी ओर
गौर से देखा, तब
आपके सिर के
आसपास शुभ
प्रकाश की
छाया जैसी कुछ
चीज महसूस हुई।
पहले इस बात पर
मुझे शक हुआ, मगर फिर— फिर
देखने की
कोशिश की, तब
भी वही दिखाई
दिया। और अब
तक कैसे चूका,
यह खयाल आते
ही रोया।
कृपया स्पष्ट
करें कि यह
क्या हुआ?
आनंदतीर्थ!
तुम धन्यभागी
हो कि जल्दी
ही तुम्हें
ऐसा दिखाई पड़ा।
वही मैं हूं!
जो तुम्हें
प्रकाश की
छाया की भांति
मालूम पड़ा है, वही
मैं हूं! यह
देह उसकी छाया
है। यह देह
मूल नहीं है, मूल वही है।
वह जो रोशनी
तुम्हें
दिखाई पड़ी, वही मूल है।
यह देह उसके
पीछे
चलनेवाली
छाया है।
मगर
हम देह से
इतने बंधे हैं
कि हमने देह
को मूल मान
लिया है।
इसलिए जब पहली
दफा मूल दिखाई
पड़ता है तो छाया
जैसा मालूम
होता है। और
जो तुम्हें
मेरे भीतर
दिखायी पड़ा है, वही
तुम्हें
जल्दी ही सबके
भीतर दिखाई
पड़ने लगेगा।
इसका कोई
संबंध उपलब्ध
और गैर—
उपलब्ध से
नहीं है।
यह
आभामंडल
प्रत्येक के
पास है—— सिर्फ आंख
चाहिए देखने
की! यह
आभामंडल
मनुष्यों के
पास ही नहीं
है,
पशु—
पक्षियों के
पास भी है, और
वृक्षों के
पास भी है। यह
आभामंडल
हमारी आत्मा
है।
जो
तुम्हें हुआ, अब
उसका बारबार
स्मरण करना।
और मेरे ही
साथ नहीं, कभी—
कभी राह चलते
अजनबी के पास
भी अनुभव होगा।
धीरे— धीरे
अनुभव फैलता
जाएगा। सभी के
भीतर
परमात्मा
मौजूद है—— उतना
ही जितना
बुद्ध के, जितना
कृष्ण के, जितना
क्राइस्ट के
भीतर। लोगों
को पता न हो, यह दूसरी
बात है। खजाना
तो भीतर है ही।
भूल गए हों, यह दूसरी
बात है। उस
खजाने से यह
रोशनी उठती ही
रहती है।
मगर
पहली बार देखने
में आमतौर से
सुविधा हो
जाती है, अगर
तुम्हारा
किसी से बहुत
गहरा लगाव और
श्रद्धा का
संबंध हो।
नहीं तो यह
देखना
मुश्किल हो
जाता है। पहली
दफा गुरु में
दिखता है, फिर
धीरे—धीरे सब
में दिखायी
पड़ने लगता है।
ठीक
हुआ
आनंदतीर्थ! और
जब पहली दफा
होता है तो शक भी
होता है, संदेह
भी होता है——
भांति तो नहीं
हो रही? मन
हजार प्रश्न
खड़े करता है।
और जब पहली
दफे होता है, तब यह भी
होता है कि अब
तक कैसे चूका?
और वह खयाल
आते हर एक
रोता है।
क्योंकि जो
इतनी सुगमता
से उपलब्ध था,
उससे भी हम
चूक रहे थे।
हम जैसा अभागा
कौन!
लेकिन
फिक्र न करो, जब
भी घर लौट आए
तभी जल्दी है।
क्योंकि अनंत
हैं जो
अनंतकाल तक
लौटनेवाले
नहीं हैं, ऐसी
जिद किए बैठे
हैं। जब हो
जाए तभी जल्दी
है। पछताने की
चिंता छोड़ो।
अब हुआ है, आभारी
होओ! धन्यभागी
होओ! अहोभाव
से भरो! क्योंकि
अहोभाव से
भरोगे तो और—और
होगा।
सातवां
प्रश्न:
प्रवचन
के समय जब
आपको देखती
हूं, आपका
दर्शन करती
हूं, तब
आपकी आवाज
सुनायी पड़ती
है; लेकिन
आप क्या कह
रहे हैं उसका
ध्यान नहीं
रहता। तो क्या
यह मेरी
मूर्च्छा है,
बेहोशी है?
कृपा कर
मेरा मार्ग—दर्शन
करें।
नहीं
समाधि! बेहोशी
नहीं है। अब
पहली दफा जैसा
मुझे सुनना
चाहिए वैसा
तुमने सुनना शुरू
किया। जो मैं
कह रहा हूं वह
तो बहाना है——तुम्हें
उलझाए रखने का; तुम्हें
यहां बिठाए
रखने का। जो
मैं हूं, उससे
ही जुड़ना है।
जो शब्द में
कहा जा रहा है,
वह तो ना—कुछ
है। जो शब्दों
के बीच में
बहा जा रहा है,
वही सब कुछ
है। दो शब्दों
के बीच में जो
अंतराल है, जब कभी—कभी
मैं क्षणभर को
चुप हो जाता
हूं, तब
सुनोगे——तभी
सुना।
मैं
क्या कहता हूं
वह भूल जाए, उसकी
फिक्र मत
करना। मैं
क्या हूं, वह
न भूले।
मूर्च्छा
नहीं है।
मूर्च्छा
जैसी ही है
बात,
लेकिन
मूर्च्छा
नहीं है।
मूर्च्छा
जैसी लगेगी।
बेखुदी है।
आत्मतल्लीनता
है। लेकिन
आत्मतल्लीनता
भी मूर्च्छा
जैसी लगती है।
एक नशा छा रहा
है।
जाम
गिर पड़ता है
साकी थरथरा
जाते हैं हाथ
तेरी
आंखें देख कर
नश्शा में आ
जाती हूं मैं
नशा
तो बढ़ना चाहिए।
पियक्कड़ बढ़ें, यही
तो मेरी
चेष्टा है। इस
मधुशाला में ज्यादा
से ज्यादा लोग
पीकर बेखुद हो
जाएं, यही
तो उपाय है।
सुधि खो जाएगी
तुम्हें अपनी,
और तभी तो
परमात्मा की
सुधि आएगी।
जब
जब वै सुधि
कीजिए, तबतब
सब सुधि जाहि
आंखिन
आंख लगी रहैं, आखैं
लागत नाहिं।।
——मतिराम का
प्रसिद्ध वचन
है। जब—जब वै
सुधि कीजिए!
जब—जब उसकी
याद आती है, जब—जब उसका
स्मरण होता है,
तबतब सब
सुधि जाहिं, तबतब सब याद
खो जाती है, सब स्मरण खो
जाता है। एक
बेखुदी छा
जाती है, एक
नशा उतर आता
है। आंखिन आखि
लगी रहैं... और
तब उसकी आंखों
से जुड़ जाती
है। आंखिन—आंखि
लगी रहैं, आंखैं
लागत नाहिं।
फिर आंख बंद
नहीं होती।
फिर नींद नहीं
आती। फिर आंखें
थिर हो जाती
हैं, अपलक
हो जाती हैं।
ऐसा
ही कुछ होता
होगा। और फिर
बड़ा मुश्किल
हो जाता है।
मतिराम का
दूसरा
प्रसिद्ध वचन
है:
कौन
बसत है कौन
में,
यों कछु कही
परै न।
पिय
नैनन तिय नैन
हैं,
तिय नैनन
पिय नैन।।
कौन
किसमें बसता
है,
कौन किसमें
बस गया है ——
कहना मुश्किल
हो जाता है!
प्यारे के आंख
में प्रेयसी
बस गयी है, कि
प्रेयसी की आंख
में प्यारा बस
गया है —— तय
करना मुश्किल
हो जाता है।
''कौन बसत है
कौन में, यों
कछु कही परै न।’’
कहते नहीं
बनता।’’ पिय
नैनन तिय नैन
हैं, तिय
नैनन पिय नैन।’’
फिर धीरे —
धीरे तो कौन
प्यारा है और
कौन प्रेयसी,
यह भी तय
करना मुश्किल
हो जाता है।
फिर तो दोनों
डूब जाते हैं ——
एक बचता है।
उसी एक की तरफ
चलना है।
शब्द
भी खो जाएंगे।
मेरा रूप — रंग, आकार
भी खो जाएगा।
तुम्हारे शब्द
भी खो जाएंगे।
तुम्हारा रूप —
रंग, आकार
भी खो जाएगा।
और तब निराकार
तुम्हें सब
तरफ से घेर
लेगा। बाहर भी
वही, भीतर
भी वही!
आखिरी
प्रश्न :
''
साहिब एहि
विधि ना मिले ''
की बात ने
आज ऐसी चोट
मारी कि मैं
खलबला गयी, धड़कनें बढ़
गयीं और मैं आंसू
की धार में
नहा गयी। मेरा
भय बह गया। अब
कोई आशा औका
नहीं, कोई
भय नहीं।
प्रभु, मैं
आपकी नाव में
बैठ गयी। मुझे
संभालना, मैं
गिर न जाऊं!
मेरा स्वीकार
करो!
पूछा
है गुणा ने।
यही तो सत्संग
का प्रयोजन है
—— बैठे रहो, सुनते
रहो; बैठे
रहो, सुनते
रहो। कब चोट
पड़ जाए, कौन
जानता है!
साहिब
एहि विधि ना
मिले! औरों ने
भी सुना, गुणा
को चोट पड़ी।
चोट पड़ने का
भी समय होता
है। कभी — कभी
मन उस पकी हुई
अवश था में
होता है, जब
चोट पड़ जाती
है। तब इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता, किससे
चोट पड़ी। अब
यह वचन तो
मैंने बहुत
बार दोहराया
था —— साहिब एहि
विधि ना मिले —— अभी
भी दोहरा रहा
हूं। इस वचन
में कुछ नहीं
है। गुणा का
चित्त उस समय
मेरी तरंग में
बंध गया होगा,
मेरे साथ
जुड़ गया होगा।
एक क्षण को
भेद टूट गया।
फिर मैं क्या
कह रहा था उस
क्षण में, यह
सवाल नहीं है।
कुछ भी कह रहा
होता, जो
कहता, उसी
से चोट पड़ जाती।
इसलिए
झेन फकीरों की
तुमने
कहानियां
सुनी हैं न।
शिष्य ध्यान
कर रहा है और
गुरु ने सिर्फ
पास आकर जोर
से ताली बजा
दी है। अब
ताली तो कोई शब्द
भी नहीं है।
और एक चौंक और
एक सन्नाटा छा
गया। और शिष्य
ने आंखें
खोलीं।
पुराना गया, नए
का जन्म हो
गया। अब शिष्य
कहेगा कि ''आपने
ताली क्या बजा
दी, यह
ताली अमृत थी! ''
यह ताली बस
ताली जैसी
ताली थी। यह
घड़ी अमृत की
थी। इसमें कुछ
भी हो जाता।
झेन
फकीर अपने
शिष्यों के
सिर पर डंडा
भी मार देते
हैं। और डंडे
मारने से कभी—कभी
समाधि फल गयी
है। कहां से
समाधि फल
जाएगी, कहना
कठिन है। कब
तार मिल जाएगा,
कहना कठिन
है। इसलिए
प्रतीक्षा
चाहिए।
इक
निगाह कर के
उसने मोल लिया
बिक
गए आह! हम भी
क्या सस्ते
कभी—कभी
एक निगाह, जरा—सी
एक निगाह——और
सब बिक जाता
है, सब
दांव पर लग
जाता है! मगर
कब? उसकी
कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
इसलिए कहा है
कि बैठो गुरु
के पास, उठो
गुरु के पास, चलने दो यह
धारा, यह
सत्संग बने
रहने दो। कब
हो जाएगा, किस
शुभ घड़ी में——कोई
भी नहीं
जानता। उसकी
कोई
भविष्यवाणी
भी नहीं हो
सकती।
ज्योतिषी भी
उसके संबंध
में कुछ नहीं
कह सकते। सिर्फ
एक ही चीज है
इस जगत् में
जो ज्योतिष के
बाहर है।
क्यों
ज्योतिष के
बाहर है? क्योंकि
एक ही चीज है
इस जगत् में
जो कर्मजाल के
बाहर है। एक
ही चीज है इस
जगत् में——समाधि——जिसकी
घोषणा नहीं हो
सकती।
क्योंकि
समाधि इस जगत्
की बात ही
नहीं है——उस
जगत् से आती
है। इस जगत्
में तो हम
केवल ग्राहक
होते हैं।
''साहब एहि
विधि ना मिलै
की बात ने आज
ऐसी चोट मारी
कि मैं खलबला
गयी।’’
चोट
तो रोज ही कर
रहा हूं कि
तुम खलबलाओ, कि
तुम्हारी
धड़कनें बढ़े, कि कभी
तुम्हारी
धड़कनें रुक
जाएं, कि
कभी तुम्हारी
श्वास भीतर
जाए और बाहर न
आए, और कभी
बाहर जाए तो
भीतर न आए।
कभी एक अंतराल
पैदा हो जाए, भूखला टूट
जाए, सिलसिला
उखड़ जाए। तुम
अतीत से
बिल्कुल टूट
जाओ और नए हो
जाओ।
''और मैं आंसू
की धार में
नहा गयी।’’ आंसुओ
में असली गंगा
है। जो आंसुओ
में नहाना जान
लेता है, उसे
गंगा मिल गयी।
वह जानता है
कि पवित्र
होने का क्या
उपाय है। आंसू
चमत्कार है।
अगर आंसू ठीक
से बह जाएं, आंखों की
जन्मों—जन्मों
की धूल बहा ले
जाते हैं और
हृदय का जन्मों
—जन्मों का
अंधेरा और तमस
कट जाता है।
रोना जिसने
जान लिया उसने
प्रार्थना
जान ली। अभागे
हैं वे, जिन्हें
रोने का पता
नहीं और जिनकी
प्रार्थना
कोरे शब्दों
की है।
''मेरा
भय बह गया।''
जी
खोलकर कुछ आज
तो रोने दे
हमनशीं
मुद्दत
हुई है दर्द
का दरमां किए
हुए
कितने
जन्मों से तो
रोके बैठे हो आंसुओ
को! कितना तो
दर्द छिपाए
बैठे हो! कहा
नहीं, बताया
नहीं। बताते
भी क्या, कहते
भी किससे?
कहते भी तो
समझता कौन?
यहां समझने को
कौन है?
रोते भी तो
लोग हंसते।
रोते तो लोग
दया करते।
इसलिए तो
लोगों ने रोक
रखा है दर्द, रोक रखे हैं आंसू।
जी
खोलकर कुछ आज
तो रोने दे
हमनशीं
मुद्दत
हुई है दर्द
का दरमां किए
हुए
वह
बह गयी होगी
धारा, फूट गया
होगा बांध।
''मेरा भय बह
गया। मैं आंसुओ
में नहा गयी।
अब कोई आशंका
नहीं, कोई
भय नहीं।''
यही
तो पुण्य का
अनुभव है। कल
ही तो हम बात
करते थे धनी
धरमदास की——पुण्य
का अनुभव! यही
पुण्य का
अनुभव है।
पवित्रता का
अनुभव, पुण्य
का अनुभव है।
पवित्रता में
कहां भय, कहां
क्रोध, कहां
लोभ, कुछ
भी नहीं, सब
बह जाता है।
मगर ध्यान
रखना, लौट—लौटकर
आ जाता है।
इसलिए
जो हुआ है, उस
पर ही रुक
नहीं जाना है।
लौट—लौटकर आ
जाता है। वे
जाल इतने
पुराने हैं कि
क्षणभर को
आकाश खुलता है,
मगर फिर
बादल घिर जाते
हैं, घटाटोप!
फिर अंधकार छा
जाता है। फिर
सूरज छिप जाता
है। फिर भरोसा
नहीं आता कि
सूरज दिखायी पड़ा
था या मैंने
कल्पना की थी।
क्योंकि
हमारा बादलों
का अनुभव तो
बहुत पुराना
है और सूरज तो कभी
क्षणभर को
दिखायी पड़ता
है।
तो
गुणा! भूलना
मत! वह जो हुआ
वह सत्य था। फिर
बादल घिरेंगे, फिर
भय आएगा, फिर
आशंका आएगी, फिर संदेह
उठेंगे। फिर
सारे रोग खड़े
होंगे मगर उसे
याद रखना: जो
हुआ है, वह
सच था। मेरी
गवाही है कि
जो हुआ है, वह
सच था। और उस
सच को फिर— फिर
खोजना है।
बादलों को फिर—फिर
छांटना है।
और
इसलिए प्रश्न
का अंतिम
हिस्सा
तुम्हारी समझ
में आएगा: ''प्रभु,
मैं, आपकी
नाव में बैठ
गयी। मुझे
संभालना!'' कहीं
दूर से भय की
धुन आने लगी ——संभालना!
कहीं से भय ने
सिर उठाया।
एकदम चला नहीं
गया; यही
खड़ा है दरवाजे
के पास। वह कह
रहा है: ''गुणा!
इतनी निर्भीक
मत हो जाओ, मैं
अभी चला नहीं
गया, अभी
यही हूं, पास
ही हूं, फिर
लौट आऊंगा।
इतनी जल्दी
दोस्ती छोड़
नहीं सकता।
पुराना नाता—रिश्ता
है, जन्म—जन्म
का संबंध है।
ये फेरे बहुत
पुराने हैं।
''प्रभु,
मैं आपकी
नाव में बैठ
गयी, मुझे
संभालना!''
संभालने
का भाव——आ गया
भय! नहीं तो
क्या संभालना
है?
क्या
संभालना है? ''मैं गिर न
जाऊं''——आ
गया भय। गया
सूरज, बादल
लौट आए। आंसुओ
ने जो क्षणभर
को आंखें साफ
कर दी थीं, धूल—धवांस
फिर लौट आयी।
ऐसा
बारबार होगा।
इसके पहले कि आंख
सदा के लिए
खुल जाए और
धूल सदा के
लिए बह जाए, बहुत
बार होगा।
समाधि
के पूर्व बहुत
बार समाधि की
झलकें आती हैं।
यह समाधि की
एक झलक थी, सुंदर
थी। कहना भी
कठिन है कि
किस तरह की
थी। लेकिन
कहने की जरूरत
नहीं। जब
तुम्हारे
भीतर घटती है
तो जो मुझसे
जुडे हैं, मुझे
उनकी खबर हो
जाती है। जो
तुम्हें कह
जाता है वही
मुझसे कह जाता
है।
कागद
पर लिखत न बनत
कहत संदेश
लजात।
कहिहै
सब तेरो हियो, मेरे
हिय की बात।।
कहने
की तो बात भी
नहीं है।
लेकिन जब
तुम्हारे
हृदय में कुछ
घटता है तो मेरे
हृदय में भी
घट जाता है।
वही संबंध है
गुरु और शिष्य
का। जिनसे
मेरा वैसा संबंध
नहीं है, उनके
भीतर क्या
घटता है, मुझे
पता नहीं
चलेगा। उनसे
मेरे तार नहीं
जुडे हैं।
हिम्मत हो तो
तार जोड़ लो, पीछे बहुत
पछताना होगा।
उठें
फिर फस्ले—गुल
में आरजुओं को
जवा कर दें
चलें
फिर बुलबुलों
को आशनाये गुलसितां
कर दें
बसा
लो यह बगिया!
खिल जाने दो
यह फूल! थोड़ी
हिम्मत चाहिए।
और
ऐसे भी जिंदगी
तो जा रही है, चली
ही जाएगी, मौत
सब छीन ही
लेगी —— उसके
पहले दांव पर
लगा लो।
चश्मेतर।
देख गमे—दिल न
नुमायां हो
जाए
इश्क
के सामने और
हुस्न पशेमा
हो जाए
जानता
हूं मैं
तमन्ना को
गुनाहे—उल्फत
इश्क
वह है जो निहा रह
के नुमायां हो
जाए
प्रेम
तो चुपचाप
विलीन हो जाता
है।
इश्क
वह है जो निहा
रह के नुमायां
हो जाए
——जो बोले भी न,
कहे भी न——चुपचाप
झुके और लीन
हो जाए।
अपनी
मजकूरइए—उल्फत
का फसाना कह
कर
हर
रहा हूं कि
कहीं वह न
पशेमा हो जाए
दागे—उल्फत
की तज्जली जो
नुमायां हो
जाए
शोलएतूर
भी इक बार
पशेमा हो जाए
जब्ते—गम
से नहीं याराए—खामोशी
मुझको
तुम
जो कुछ पूछो
तो मुश्किल
मेरी आसा हो
जाए
शिष्य
तो पूछ भी
नहीं सकता।
पूछता है तो
जानता है कि
जो पूछना था
वह चूक गया, वह
शब्द में नहीं
आया। लेकिन
शिष्य पूछे या
न पूछे, गुरु
उत्तर देता ही
है। तुम्हारे
बहुत से न
पूछे गए
प्रश्रों के
उत्तर भी रोज
मैं देता हूं।
जिनने नहीं
पूछे हैं, उनके
उत्तर भी देता
हूं। जो मुझसे
जुडे हैं उनकी
खबर तो हो
जाती है;
उनकी जरूरत
मुझे पता चल
जाती है।
जब्ते—गम
से नहीं याराए—खामोशी
मुझको
तुम
जो कुछ पूछो
तो मुश्किल
मेरी आसा हो
जाए
काश
यूं बर्क गिरे
खिरमने—दिल पर
मखफी
जर्रा—जरी
मेरी हस्ती का
फरोजा हो जाए
काश
यूं बर्क गिरे
खिरमने—दिल
पर! यह जो दिल
की खलिहान
गिरे——ऐसी
गिरे, ऐसी
गिरे——''जर्रा—जर्रा
मेरी हस्ती का
फरोजा हो जाये, कि मेरा कण
कण रोशन हो
उठे।
शिष्य
होने में यही
आकांक्षा
छिपी है——प्रेम
का निवेदन और
यह मुझ पर ऐसी
कि जर्रा—जरी
फरोजा हो जाए...
कि एक—एक कण
थोड़ी—सी चोट
गुणा को हुई।
अब इस चोट की
प्रतीक्षा करना
और है, इस पर
कोई बिजली जाए''...
कि एक एक कण—रोशन
हो उठे।
थोड़ी
सी चोट गुणा हो
गई। अब इस चोट की
प्रतीक्षा करना
और इस चोट की प्रार्थना
करना और इस
चोट की
अभीप्सा करना।
यह चोट बारबार
पड़ेगी। एक बार
पड़ गयी तो
पहचान हो जाती
है। पहचान हो
गयी तो फिर
बारबार पड़ने
लगती है।
तुमने
कभी खयाल किया?
एक दिन पैर
में चोट लग
जाती है, फिर
दिनभर उसी जगह
चोट लगती है——यह
तुमने खयाल
किया? लगती
तो रोज थी चोट,
लेकिन पता
नहीं चलती थी,
अब पता चलती
है। पैर में
चोट लग गयी, कुर्सी के
पास से निकलते
हैं, कुर्सी
का पैर भी
उसमें लग जाता
है, फिर
चोट मालूम
होती है।
दरवाजा लग
जाता है।
बच्चा आकर तो
उसी पैर पर
खड़ा हो जाता
है। दिनभर चोट
लगती है। चोट
तो रोज लगती
थी, मगर एक
बार लग गयी तो
घाव हो गया।
घाव हो गया तो
संवेदनशीलता
उस स्थल की बढ़
गयी। अब जरा—सा
भी लगेगा तो
चोट हो जाएगी।
धीरे— धीरे
संवेदनशीलता
गहन होती जाती
है।
शिष्य
धीरे—धीरे
संवेदनशीलता
ही हो जाता
है। वही
संन्यास है।
आज इतना
ही।
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