आध्यात्मिक संप्रेषण संप्रेषण की गोपनीयता—
(प्रवचन—अठारहवां)
अध्याय—18
सूत्र—
हदं ते
नातपस्काय
नाभक्ताय
कदाचन।
न
चाशुश्रूषवे
वाच्यं न च
मां योऽभ्यसूयीत।।
67।।
य इमं
परमं गुह्मं
मद्भक्तेम्बीभधास्यति।
भक्ति
मयि परां
कृत्या
मामैवैष्यत्यसंशय:।।
68।।
न च तस्मान्मनुष्येधु
कीश्चन्मे
प्रियकृत्तम:।
भविता न
च मे
तस्मादन्य:
प्रियतरो
भुवि।। 69।।
है
अर्जुन, हस कार
तेरे खत के लिए
कहे हुए इस
गीतारूप परम
रहस्य को किसी
काल में भी न
तो तपरहित
मनुष्य के
प्रति कहना
चाहिए और न
भक्तिरीहत के
प्रति तथा न
बिना सुनने की
इच्छा वाले के
प्रति ही कहना
चलिए; एवं
जो मेरी निंदा
करता है उसके
प्रति भी नहीं
कहना चाहिए।
क्योंकि
जो पुरुष मेरे
में परम प्रेम
करके इस परम गुह्म
रहस्य गीता को
मेरे भक्तों
में कहेगा, वह निस्संदेह
मेरे को ही
प्राप्त
होगा।
और
न तो उससे बढ़कर
मेरा अतिशय प्रिय
कार्य करने
वाला
मनुष्यों में
कोई है, और न उससे
बढ़कर मेरा
अत्यंत
प्यारा पृथ्वी
में दूसरा कोई
होवेगा।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
श्रद्धा और
समर्पण के
उपदेश को भगवान
कृष्ण सभी
गोपनीयों से
भी अति गोपनीय
और परम वचन
क्यों कहते
हैं?
पहली बात, गोपनीय
वह वचन है, जो
अत्यंत
आत्मीयता के
क्षण में ही
कहा जा सके।
आत्मीयता न हो,
तो जिसे
कहना ही संभव
नहीं है।
आत्मीयता के
माध्यम से ही
जो संवादित
होता है।
जहां
विवाद हो, विचार हो,
अपनी धारणा—मान्यता
हो; जहां
दो चेतनाएं
निष्कलुष— भाव
से मिलती न
हों, एक सूक्ष्म
छिपा हुआ
संघर्ष हो, वहां जो कहा
ही न जा सके; कहा भी जाए, तो समझा न जा
सके; समझ
भी लिया जाए, तो माना न जा
सके; मान
भी लिया जाए, तो किया न जा
सके; जिसकी
यात्रा प्रथम
से ही गलत हो
जाए, ऐसा
संदेश गोपनीय
है।
जैसे
प्रेम गोपनीय
है, ऐसे
ही सत्य भी
गोपनीय है।
प्रेमी बाजार में
प्रेम के
संलाप—संवाद
में डूबने को
राजी न होंगे।
भरे बाजार में
प्रेम की बात
मौजूं ही नहीं।
जहां धन की
चर्चा चल रही
हो चारों तरफ,
वहा प्रेम
की बात सार्थक
नहीं है। जहां
शोरगुल हो, बाजार हो, भीड़ हो—जहां
बहुत हों, स्वात
न हो—वहा
प्रेम का संगीत
पैदा ही नहीं
हो सकता।
वहां
जो प्रेम की
वीणा छेड़ दे, उसने गलत
समय में, गलत
स्थान पर वीणा
छेड़ दी। उससे
जगहंसाई भला
हो, उससे
प्रेम का पौधा
पनपेगा नहीं।
शायद सदा के
लिए कुम्हला
जाए। ऐसा आज
पश्चिम में
हुआ है।
लंबे
समय तक पश्चिम
ने मनुष्य की
काम—वृत्ति को
दबाया, ईसाइयत के
प्रभाव में।
वह दमन एक अति
पर पहुंच गया।
और जब भी कोई
चीज किसी अति
पर पहुंच जाती
है ., तो इस
बात का डर है
कि बगावत हो, विद्रोह हो
और दूसरी अति
पैदा हो जाए।
मन मनुष्य का
घड़ी के
पेंडुलम की
तरह घूमता है,
एक छोर से
दूसरे छोर पर
चला जाता है।
मध्य में
रुकता नहीं।
मध्य में जो
रुकना जान गए,
वे मन को
मिटाने की कला
जान गए।
तो
पश्चिम में
ईसाइयत ने
दबाया काम को, दबाया
प्रेम को, छिपाया,
अस्वीकार
किया, निदा
की। उसका
स्वभाविक
परिणाम अंततः
यह हुआ कि
पश्चिम की
युवा—शक्ति ने
सारी सीमाएं
तोड़ दीं, सब
नियम तोड़ दिए।
और उस नियम के
तोड्ने में वे
यह भी भूल गए
कि कुछ ऐसे
नियम भी थे, जिनके बिना
प्रेम जी ही
नहीं सकता।
कुछ ऐसे नियम
भी थे, जो
प्रेम को मार
रहे थे; कुछ
ऐसे नियम भी
थे, जो
प्रेम का आधार
थे।
लेकिन
जब नियम का
विद्रोह शुरू
हुआ, तो
सभी नियम तोड़
दिए। उन सभी
नियमों में
स्वात, गोपनीयता
का नियम भी
टूट गया। आज
पश्चिम में
प्रेम बीच
बाजार में चल
रहा है। उससे
तृप्ति नहीं
होती; उससे
मन भरता नहीं,
खिलता नहीं।
प्रेम के
कितने ही
अनुभवों से
लोग गुजर जाते
हैं, प्रेम
की प्यास नहीं
बुझती। घाट—घाट
का पानी पीते
हैं, प्यास
बुझती नहीं; कंठ और आग से
भरता चला जाता
है।
एक
खतरा था
ईसाइयत का कि
प्रेम को करीब—करीब
मार डाला।
नियम इतने कस
गए कि फांसी
लग गयी। अब
दूसरा खतरा है
कि नियम इतने
तोड़ दिए कि
आधार खो गए।
पश्चिम
से युवक—युवतियां
मेरे पास आते
हैं। उनकी बड़ी
से बड़ी समस्या
यह है कि
प्रेम का जीवन
में अनुभव
नहीं होता।
यद्यपि प्रेम
के बहुत अनुभव
उन्हें होते
हैं, जैसा
कि पूरब में
संभव नहीं।
आध्यात्मिक
संप्रेषण की
प्रत्येक
स्त्री, प्रत्येक
पुरुष न मालूम
कितने
पुरुषों और स्त्रियों
के संपर्क में
आता है, प्रेम
में पड़ता है।
पर शब्द थोथा
मालूम पड़ता है।
क्योंकि बीच
बाजार में
प्रेम को खड़ा
कर दिया। उसकी
गोपनीयता
छिन्न—भिन्न
हो गयी।
और जो
प्रेम के साथ
हुआ, वही
श्रद्धा के
साथ भी हुआ है।
कृष्ण ने
अर्जुन को
अत्यंत
गोपनीय ढंग से
ये बातें कहीं;
क्योंकि
अर्जुन चाहे
संदेह भरा हो,
फिर भी
श्रद्धालु था।
इसे भी तुम
समझ लो।
श्रद्धा
का यह अर्थ
नहीं है कि
तुम्हारे
भीतर संदेह
सभी समाप्त हो
जाएंगे।
श्रद्धा का
मतलब यही है
कि संदेह के
बावजूद भी तुम
श्रद्धा करने
को आतुर हो, तैयार हो।
वह तुम्हारी
भीतरी तैयारी
है। अगर संदेह
सब समाप्त ही
हो गए हों, तब
तो कृष्ण के
कहने की भी कोई
जरूरत नहीं है,
तब तो बिन
कहे ही संदेश
पहुंच जाएगा,
सुन लिया
जाएगा। तब तो
तुम्हारे
भीतर का कृष्ण
ही तुमसे
बोलने लगेगा।
बाहर के कृष्ण
से सुनने तुम
जाओगे क्यों?
श्रद्धा
से इतना ही
अर्थ है कि
संदेह मन में
है, लेकिन
संदेह में
श्रद्धा नहीं
है। भीतर
संदेह उठते हैं,
लेकिन उनको
सहारा नहीं है।
वे उठते हैं
पूर्व—संस्कारों
के आधार से, आदत के कारण।
बार—बार, अनंत—
अनंत जीवनों
में उन्हें
सहारा दिया है,
इसलिए वे एक
तरह का बल
रखते हैं; उठते
हैं। लेकिन आज
उनको सहारा
देने की
आकांक्षा
नहीं रही है।
अपने ही मन
में उठते हैं,
लेकिन फिर
भी श्रद्धालु
उनसे अपने को
दूर रखता है, तटस्थ रखता
है; उनके
प्रति एक
उपेक्षा रखता
है।
मन तो
उसका श्रद्धा
करने का है, भाव तो
श्रद्धा करने
का है। अगर
संदेह उठते
हैं, तो वे
उसे शत्रुओं
जैसे मालूम
होते हैं।
उन्हें वह
सींचता नहीं,
जल नहीं
देता, सहारा
नहीं देता।
उन्हें
मिटाने को
तत्पर है।
हृदय उसका
राजी है
मिटाने को, कला खोज रहा
है, कैसे
उन्हें
मिटाया जा सके।
संदेहों
के बावजूद
अपने हृदय को
खोलने को कोई राजी
है, ऐसे
क्षण में ही, जो परम
गोपनीय है, वह कहा जा
सकता है।
उपनिषद
कहे गए अत्यंत
गोपनीयता में, गुरु और
शिष्य के
अत्यंत
सामीप्य में,
हार्दिक
संबंधों में।
वर्षों तक
शिष्य गुरु के
पास रहेगा, उस क्षण की
प्रतीक्षा
चलेगी, कब
गुरु पुकारे।
उस क्षण के
लिए धीरज
रखेगा, जब
गुरु पाएगा
योग्य कि अब
गोपनीय तत्व
कहे जा' सकते
हैं। तब तक
गुरु की सेवा—टहल
करेगा। गायों
को चरा लाएगा
जंगल में, लकड़ियां
काटेगा, घास
कांटकर ले आएगा,
पानी भरेगा।
जो भी चलता है
गुरुकुल में,
उसमें
सहयोगी होगा
और प्रतीक्षा
करेगा, कब
बुला लिया जाए।
कथा है
कि श्वेतकेतु
बहुत दिन तक
गुरु के पास रहा।
वह जीवन का
रहस्य जानना
चाहता था, लेकिन
शायद अभी
तैयारी न थी।
वर्षों बीत गए।
बहुत कुछ उसे
कहा गया, बहुत
कुछ बताया गया,
लेकिन परम
गोपनीय न कहा
गया। वह धीरज
से प्रतीक्षा
करता रहा।
कथा
बड़ी मधुर है।
कथा कहती है
कि गुरु के
गृह में जो
हवन की अग्नि
जलती थी, उस तक को दया
आने लगी।
अग्नि को दया!
गुरु न पसीजा।
लेकिन शिष्य
के धैर्य को
देखकर, जिस
अग्नि को वह
रोज—रोज जलाता
था, ईंधन
डालता था, हवन
में गुरु की
सहायता करता
था, वह जो
यश की वेदी थी,
उसकी अग्नि
को जो सतत
जलती रहती थी,
अहर्निश
जलती रहती थी,
उसको भी देख—देखकर
करुणा आने लगी।
बहुत हो गया।
प्रतीक्षा की
भी एक सीमा है।
गुरु
बाहर गया था, तो कहते
हैं, अग्नि
ने श्वेतकेतु
को कहा कि
गुरु कठोर है,
और अब तू
राजी हो गया
है, तैयार
हो गया है, फिर
भी नहीं कह
रहा है, तो
मैं ही तुझे
कहे देती हूं।
कहते
हैं, श्वेतकेतु
ने कहा, धन्यवाद
तुझे तेरी
कृपा कै लिए, तेरी करुणा
के लिए। लेकिन
प्रतीक्षा तो
मुझे मेरे
गुरु— के लिए
ही करनी होगी।
उनसे ही लूंगा।
तुझे दया आ गई,
क्योंकि
तुझे और बातों
का पता न होगा
जिनका गुरु को
पता है। जरूर
मेरी तैयारी
में कहीं कोई
कमी होगी, अन्यथा
कोई कारण नहीं
है। गुरु कठोर
नहीं है। मेरी
पात्रता अभी
सम्हली नहीं।
अभी मेरा पात्र
कंपता होगा, अमृत को
उंडेलने जैसा
न होगा। उस
कंपते पात्र
से अमृत छलक
जाए! या मेरे
पात्र में
छिद्र होंगे,
कि अमृत उस
पात्र से बह
जाए! कि मेरा
पात्र उलटा
रखा होगा, कि
गुरु उंडेले
और मुझ में
पहुंच ही न
पाए! जरूर
कहीं मुझ में
ही भूल होगी।
धन्यवाद, तेरे
प्रेम और तेरी
करुणा को!
लेकिन
प्रतीक्षा
मुझे गुरु के
लिए ही करनी
होगी।
वर्षों
प्रतीक्षा
करता शिष्य।
उस प्रतीक्षा
में ही निकट
आता।
धैर्य
से ज्यादा
निकट लाने
वाला कोई तथ्य
दुनिया में
नहीं है। और
जहां—जहां
अधैर्य हो
जाता है, वहीं—वहीं
निकटता खो
जाती है। जहां—जहां
तुम जल्दी में
होते हो, वहां
तुम निकट नहीं
हो पाते।
निकटता समय
मांगती है, अनंत समय
मांगती है।
और
जीवन के जितने
गुह्य तत्व
हैं, उनको
जानने के लिए
तो बहुत समय
मांगती है।
अगर प्रेम को
जानना है, तो
वर्षों
लगेंगे, और'
अगर
श्रद्धा को
जानना है, तो
जन्मों। अगर
प्रार्थना
सीखनी है, तो
धैर्य की धातु
ही में ही तो
प्रार्थना
ढलती है, धैर्य
के ही पत्थर
पर तो प्रतिमा
बनती है
प्रार्थना की।
अगर
धैर्य से ही
बच गए तो
प्रार्थना
कभी न बनेगी।
तब ऐसा ही
होगा कि ऊपर—ऊपर
से तुम चिपका
लोगे
प्रार्थना को, लेकिन
उसकी जड़ें
तुम्हारे
हृदय में न
होंगी।
तुम्हारे
जीवन से उस
प्रार्थना का
कोई संबंध न
होगा। जा सकते
हो तुम
मंदिरों में,
मस्जिदों
में, प्रार्थनागृहों
में। पूजा कर
सकते हो, अर्चना
कर सकते हो।
सब ऊपर—ऊपर
होगा।
तुम्हारा
भीतर अछूता रह
जाएगा। और
असली बात भीतर
है। बाहर
प्रार्थना
उठे न उठे, बड़ी
बात नहीं, भीतर
हो जाए।
श्रद्धा
और समर्पण
अत्यंत
गोपनीय हैं, वे प्रेम
से भी ज्यादा
गोपनीय हैं।
क्योंकि
प्रेम में भी
थोड़ी
आकांक्षा, थोड़ी
आशा, थोड़ी
वासना रह ही
जाती है।
इसे हम
ऐसा समझें। एक
तो कामवासना
का जगत है, जहां तुम्हारे
सभी संबंध
वासना से ही
भरे होते हैं।
मित्रता
बनाते हो, तो
इसलिए कि कुछ
पाना है।
मित्रता गौण
है, पाना
महत्वपूर्ण, मित्रता
साधन, पाना
साध्य।
काम के
संबंध चाहे
कितने ही गहरे
मालूम पड़े, गहरे हो
ही नहीं सकते।
क्योंकि तुम
जिससे जुड़ते
हो, उससे
जुड्ने का तो
कोई सवाल नहीं
है, उससे
कुछ पाना है।
वह पा लिया कि
बात खतम हो गई।
फिर उस
व्यक्ति को
तुम ऐसे ही
फेंक देते हो,
जैसे चलाई
गई कारतूस
बेकार हो जाती
है और उसे तुम
कचराघर में
फेंक आते हो; फिर उसमें
कुछ बचता नहीं
है। आम चूस
लिया, रस
चला गया, खोल
फेंक आते हो।
जब तक
चूसा न था, तब तक आम
को बड़ा
सम्हालकर रखा
था। जब तक
कारतूस चली न
थी, तब तक
बड़ी हिफाजत थी।
तब तक ऐसा
लगता था, हीरे
सम्हाल रहे हो।
अब चल गई
कारतूस, बात
व्यर्थ हो गई।
तुम
ऐसे ही भूल
जाते हो
व्यक्तियों
को, जैसे
कूड़ा—करकट हैं।
उनके ऊपर चढ़
गए, सीढियां
बना लीं, फिर
उन्हें भूल गए।
राजनीति
में, पद
की दौड़ में, धन की दौड़
में
व्यक्तियों
का उपयोग साधन
की तरह होता
है।
राजनीतिज्ञ
हाथ जोड़े खड़ा
होता है एक मत
के लिए, एक
वोट के लिए।
जब वह हाथ
जोड़कर खड़ा
होता है, तब
ऐसा लगता है
कि कितने
भक्ति— भाव से,
कितनी
श्रद्धा से
तुम्हारे द्वार
आया है। उस
क्षण शायद तुम
सोचते हो कि
तुमसे बड़ा
आदमी कोई भी
नहीं। देखो, प्रधानमंत्री,
राष्ट्रपति
हाथ जोड़े खड़े
हैं!
पद पर
पहुंचते ही यह
आदमी तुम्हें
पहचानेगा भी
नहीं। न केवल नहीं
पहचानेगा, बल्कि
इसके मन में
पीड़ा की एक
रेखा रहेगी कि
कभी इस आदमी
के सामने हाथ
जोड़कर खड़ा भी
होना पड़ा था।
यह इसका बदला
भी लेगा। यह
तुम्हें कभी
क्षमा नहीं कर
पाएगा।
क्योंकि
किन्हीं
क्षणों में
तुम्हारे
सामने हाथ
जोड्ने पड़े थे,
वह
याददाश्त
काटेगी, चुभेगी
कांटे की तरह।
इसलिए
शक्ति की दौड़
में दौड़ने
वाले लोगों के
साथ जरा सोच—समझकर
संबंध बनाना!
क्योंकि जब वे
सीढ़ियां चढ़
जाते हैं, तो
सीढ़ियों को
मिटाने में लग
जाते हैं।
क्योंकि जिस
सीढ़ी से वे
स्वयं चढ़े हैं,
उससे खतरा
है, दूसरा
भी चढ़ सकता है।
सीढ़ी तो
निष्पक्ष
होती है।
इसलिए
सभी
राजनीतिज्ञ
जिन लोगों के
सहारे पद पर
पहुंचते हैं, उन्हीं
को मिटाने में
लग जाते हैं।
लगना ही पड़ेगा,
वह सीधा
नियम है।
अन्यथा दूसरे
चढ़े आ रहे हैं
उन्हीं
सीढ़ियों पर!
दुनिया
का कोई
राजनीतिज्ञ
अपने निकटतम
सहयोगियों को
भी बहुत पास
नहीं आने देता।
खतरा है।
फासले पर रखता
है। फासला
इतना होना
चाहिए कि अगर
वह पास आने की
कोशिश करे, तो इसके
पहले कि पास
आए रोका जा
सके। दूरी
बनाए रखनी
चाहिए। संसार
में एक तरह के
संबंध काम के
संबंध हैं, जहां
प्रयोजन है
किसी और बात
से। लेकिन तुम
धोखा
व्यक्तियों
को देते हो कि
प्रयोजन
तुमसे है, जैसे
नमस्कार हम
तुम्हें कर
रहे हैं।
तुम्हें
नमस्कार कोई
भी नहीं कर रहा
है; तुम्हारे
भीतर बिना चली
हुई कारतूस है,
वोट है। वह
मिलते ही यह
आदमी तुम्हें
भूल जाएगा।
भूल जाए, तो
भी ठीक है।
खतरा यह है कि
यह तुम्हें
कभी क्षमा भी
न कर सकेगा।
क्योंकि किसी
असहाय क्षण
में इसको
तुम्हारे सामने
हाथ जोड्ने
पड़े थे। यह
तुम्हें नीचा
दिखाएगा; यह
किसी दिन
तुम्हें नीचा
दिखाए बिना न
मानेगा।
यह तो
काम का जगत है।
दूसरा एक
संबंध है काम
से थोड़ा उठा
हुआ, उसे
हम प्रेम का
संबंध कहते
हैं। काम के
जगत में तो
किसी' तरह
की कोई
गोपनीयता
नहीं होती, वह तो बाजार
है, वह तो
भीड है, संसार
है।
दूसरा
संबंध होता है
प्रेम का।
प्रेम का अर्थ
है, अनेक
न रहे, दो
रहे। प्रेमी
रहा, प्रेयसी
रही। प्रेमी
रहा, प्रेम—पात्र
रहा। मां रही,
बेटा रहा।
पति—पत्नी रहे,
दो रहे। दो
मित्र रहे। अब
संबंध काम का
नहीं। अब
दूसरा
व्यक्ति अपनी
निजता में
मूल्यवान है।
इसलिए नहीं कि
वह तुम्हें
कुछ दे सकता
है। वह सीडी
नहीं है, वह
साधन नहीं है,
स्वयं
साध्य है।
इमेनुएल
कांट, जर्मनी
के एक बहुत
विचारशील
व्यक्ति ने
अपने सारे
नीतिशास्त्र
को इस नियम पर
ही आधारित बनाया
है। उसका कहना
है, वहीं
तक नीति है, जहां तक
दूसरा व्यक्ति
साध्य है; जहां
साधन बना, अनीति
शुरू हो गई।
यह बात
महत्वपूर्ण
है। किसी
व्यक्ति का
साधन की तरह
उपयोग करना
अनैतिक जीवन—आचरण
है। और दूसरे
व्यक्ति को
साध्य की
महत्ता देना
नैतिक शिखर है।
दूसरा
व्यक्ति
स्वयं में
महत्वपूर्ण
है। किसी कारण
से नहीं, कि उससे
थोड़ा धन कमा
लेंगे, कि
पद पर पहुंच
जाएंगे, कि
उसको सीढ़ी बना
लेंगे, नहीं।
दूसरे
व्यक्ति की
उपयोगिता के
कारण वह मूल्यवान
नहीं है, यूटिलिटी
के कारण
मूल्यवान
नहीं है।
दूसरा
व्यक्ति अपनी
निजता के कारण
मूल्यवान है।
कोई भी उपयोग
न हो।
समझो
कि एक मां को
बेटा है, वह उसे
प्रेम करती है।
इसलिए थोड़े ही
कि बेटा कल धन
कमाएगा। अगर
इसलिए करती हो,
तो मां—बेटे
का संबंध ही
समाप्त हो गया।
तब तो यह
संबंध बाजार
का हो गया।
अगर इसलिए
प्रेम करती हो
कि बेटा कल
इज्जत कमाएगा
और मुझे भी
प्रतिष्ठा
मिलेगी, तो
बात खतम हो गई।
अगर इसलिए
प्रेम करती हो,
तो प्रेम ही
नहीं है।
जब तक
तुम बता सको
कि इसलिए हम
प्रेम करते
हैं, तब
तक प्रेम होता
ही नहीं। जहां
इसलिए है, वहां
कैसा प्रेम?
मां
सिर्फ कहेगी
कि पता नहीं
क्यों! बस, प्रेम है।
और यह लड़का
साधु बने, तो
भी प्रेम
रहेगा; असाधु
बने, तो भी
प्रेम रहेगा;
शायद थोड़ा
ज्यादा ही, कि भटक गया।
इसके लिए और
भी करुणा
जगेगी। यह
अच्छा बन जाए,
तब तो प्रेम
रहेगा ही; सफल
रहे, तब तो
प्रेम रहेगा
ही; असफल
हो जाए, तो
और भी कचोट
लगेगी, और
भी प्रेम
जगेगा। यह
जीवन में बहुत
सुखी हो जाए, धन पा ले, तो
मां प्रसन्न
होगी। यह दुखी
हो जाए, पीड़ित
हो, तो
इससे और भी
ज्यादा प्रेम
का संबंध बना
रहेगा।
नहीं, उपयोगिता
का सवाल नहीं
है। इसका यह
अर्थ नहीं है
कि लड़का
उपयोगी न होगा।
काम के
संबंध में
उपयोगिता पर
दृष्टि है, व्यक्ति
का कोई मूल्य
नहीं। प्रेम
के संबंध में
व्यक्ति का
मूल्य है, उपयोगिता
गौण है। सधेगी,
ठीक। नहीं
सधेगी, ठीक।
बहुत
सधती है; पर वह बात
गौण है। जिसे
तुम प्रेम
करते हो, वह
तुम्हारे
हजार तरह से
काम आता है, लेकिन वह
बात गौण है।
उस काम
आने की वजह से
तुम प्रेम
नहीं करते। वह
प्रेम की छाया
होगी, लेकिन
प्रेम का
लक्ष्य नहीं
है। वह प्रेम
का परिणाम
होगा, लेकिन
प्रेम का फल
नहीं है। उसके
लिए ही तुमने
प्रेम न किया
था। अगर मित्र
असमय में काम
आ गया, यह
उसकी कृपा है।
न काम आता, तो
कोई शिकायत
नहीं थी।
उपयोगी सिद्ध
हुआ, यह
धन्यभाग है। न
होता, तो
इससे प्रेम
में कोई जरा
भी अंतर न
पड़ता।
उपयोगिता
छाया की तरह
है।
और
तीसरा संबंध
है प्रार्थना
का। पहले में
उपयोगिता
लक्ष्य है।
दूसरे में
उपयोगिता
छाया की तरह
है, बाइ—प्रोडक्ट,
किनारे—किनारे
चलती है वह, सीधे प्रधान
रास्ते पर
उसकी कोई गति
नहीं है, पास—पास
चलती है। है
वहां। न होती,
तो भी चलता।
लेकिन होती है।
और तीसरा
संबंध है
प्रार्थना का,
श्रद्धा का,
समर्पण का।
वहां
उपयोगिता का
सवाल ही नहीं
है।
और जब
तक तुम्हारे
लिए उपयोगिता
है, तब
तक तुम गुरु
के निकट न जा
सकोगे। जब तक
तुम किसी लाभ
के लिए गुरु
के पास जाते
हो, तब तक
तुम पास न जा
सकोगे। जब पास
जाना ही आनंद
होता है, तभी
तुम पास जा
सकोगे। जब तक
तुम कुछ पाने
जाते हो, तब
तक पास न जा
सकोगे।
क्योंकि
तुम्हारे और
गुरु के बीच
जो तुम्हें पाना
है, वह बीच
में दीवार की
तरह खड़ा रहेगा।
अगर
तुम सत्य भी
पाने गुरु के
पास आए हो, तो सत्य
भी दीवार की
तरह खड़ा हो
जाएगा। मोक्ष
पाने आए हो, मोक्ष दीवाल
की तरह खड़ा हो
जाएगा। तब तुम
समझे ही नहीं।
गुरु
के साथ जो
संबंध है, वह
अत्यंत
निरुपयोगी
संबंध है। वह
संबंध इस
संसार का है
ही नहीं, जहां
उपयोगिता का
विस्तार है।
वह लाभ और लोभ
का संबंध नहीं
है। वह संबंध
अपने आप में
ही साध्य है।
पास होना ही
आनंद है।
उपनिषद
शब्द बड़ा
प्यारा है। इस
शब्द के दो
अर्थ होते हैं।
एक अर्थ होता
है, पास
होना, गुरु
के पास होना, गुरु के
निकट होना, गुरु के पास
बैठना, सत्संग।
और दूसरा अर्थ
है उपनिषद का,
गोपनीय, दूसरा
अर्थ है, गुप्त,
अत्यंत
गोपनीय।
और
दोनों अर्थ
जुड़े हैं।
क्योंकि उस
अत्यंत
निकटता में जहां
कोई सिर्फ
गुरु के पास
होने आया है, अत्यंत
गोपनीय का
अपने आप
आविर्भाव
होता है। गुरु
देता नहीं, शिष्य लेता
नहीं।
क्योंकि गुरु
देने को
उत्सुक हो, तो प्रयोजन
आ गया। शिष्य
लेने को
उत्सुक हो, तो प्रयोजन
आ गया। गुरु
देता नहीं, शिष्य लेता
नहीं; घटना
घटती है।
इस जगत
में सबसे
चमत्कारपूर्ण
घटना श्रद्धा का
संबंध है, प्रार्थना
का संबंध है।
झेन
फकीरों ने बड़ी
मीठी बातें
कही हैं। झेन
फकीर बाशो ने
एक छोटी—सी
हाइकु एक छोटी—सी
कविता लिखी है।
कविता यह है।
बाशो
बैठा है एक
दिन सरोवर के
तट पर। झील
शात है। कोई
लहर भी नहीं
है। सुबह का
क्षण है। सूरज
निकलता है।
धीरे— धीरे
प्रकाश बढ़ता
जाता है। और
बगुलों की एक
कतार, शुभ्र,
तीर की तरह
जाती हुई झील
के ऊपर से
गुजरती है।
झील में
बगुलों की
छाया बनती है,
प्रतिबिंब
बनता है। और
बाशो ने एक
कविता लिखी।
कविता
का अर्थ यह है, झील के
ऊपर उड़ते हुए
बगुलों की
कतार! न तो झील
उत्सुक है
प्रतिबिंब
बनाने को और न
बगुले उत्सुक
हैं अपना
प्रतिबिंब
देखने को, पर
प्रतिबिंब
बनता है। न तो
बगुले उत्सुक
हैं कि देखें
झुककर नीचे कि
झील में
प्रतिबिंब
बनता है या
नहीं। न झील
आतुर है कि
बगुले उड़े और
मैं
प्रतिबिंब
बनाऊं। पर
प्रतिबिंब
बनता है। न तो
बगुलों के
चित्त में कोई
वासना है, न
झील के चित्त
में कोई वासना
है। बस, निकटता
से ही
प्रतिबिंब बन
जाता है।
गुरु
और शिष्य की
निकटता में ही, वह जो
अत्यंत
गोपनीय है, वह सवांदित
हो जाता है, उसका लेन—देन
हो जाता है। न
गुरु देना
चाहता है, न
शिष्य लेना
चाहता है।
घटना घटती है।
और वही
परम घटना है, जब लेने
वाला लेने को
आतुर न था।
क्योंकि जब तक
लेने वाला
लेने को आतुर
है, तब तक
मन में तनाव
बना ही रहेगा;
तब तक वह
देखता ही
रहेगा, भविष्य
में झांकता ही
रहेगा, कि
कब मिले, कब
मिले! इतनी
देर और हो गई, अब तक मिला
नहीं! कहीं
मैं अपने को
धोखा तो नहीं
दे रहा हूं!
कहीं गलत आदमी
के पास तो
नहीं पहुंच
गया! कहीं और
जाऊं; किसी
और के पास
तलाशूं। कोई
और द्वार
खटखटाऊं।
नहीं, तब तो तुम
गुरु के पास
हो ही न पाओगे,
क्योंकि
तुम्हारा
चित्त भविष्य
में होगा, जो
है ही नहीं।
तुम तो गुरु
के पास तब ही
हो पाओगे, जब
मन में कोई
फलाकांक्षा
नहीं है, कहीं
जाने को नहीं
है, कुछ
होने को नहीं
है। तुम बस हो।
मंजिल आ गई।
और उसी
क्षण में गुरु
भी अनायास
तुम्हारे भीतर
बहना शुरू हो
जाएगा। इसलिए
नहीं कि वह
बहना चाहता है।
नहीं, तब
कुछ रुकावट
नहीं है, इसलिए
बहेगा। जैसे
झरने के ऊपर
पत्थर रखा हो;
झरना नहीं
बहता। पत्थर
हट जाए; झरना
बहता है। कोई
इसलिए नहीं कि
बहना चाहता है।
बहना स्वभाव
है।
जो
व्यक्ति सत्य
को पा लिया है, सत्य
उससे बहना
चाहता है।
उसकी
आकांक्षा
नहीं कि सत्य
बहे। उससे
सत्य वैसे ही
बहता है, जैसे
फूल से गंध
बहती है, दीए
से प्रकाश
बहता है; नदियां
सागर की तरफ
बहती हैं। ऐसा
ही स्वाभाविक
है।
कोई मन
नहीं है बहने
का। बस, बहना घटता
है। और जहं।
भी कोई हृदय
लेने को राजी
हो जाता है—लेने
को राजी का
अर्थ ही यही
है कि जहां
लेने का सवाल
ही मिट जाता
है, जहां
तत्परता आ
जाती है, पात्रता
आ जाती है—बस
वहीं घट जाता
है।
इसलिए
कृष्ण इसे अति
गोपनीय कहते
हैं। यह प्रेम
से भी ज्यादा
गोपनीय क्षण
में घटता है, श्रद्धा
के क्षण में
घटता है।
और
दूसरी बात, इसे
गोपनीय कहने
का कारण यह है
कि खतरा है
इसमें।
अपात्र को दे
दिया जाए, तो
बड़े खतरे हैं।
सत्य से
ज्यादा
खतरनाक तलवार
नहीं है। और
वह दुधारी
तलवार है। और
तुम अगर तैयार
नहीं हो, तो
तुम उससे अपने
को नुकसान कर
लोगे, दूसरे
को नुकसान कर
दोगे।
यह
सुनकर
तुम्हें
हैरानी होगी, लेकिन
मैं इसे कह
देना चाहता
हूं असत्य
खतरनाक है ही
नहीं। वह तो
निर्जीव है, उसमें खतरा
भी क्या हो
सकता है!
उसमें प्राय ही
नहीं हैं। वह
तो मुरदा है।
उसके पास टांगें
ही नहीं हैं
चलने को।
असत्य को भी
चलना हो, तो
सत्य की टांगें
उधार मांगनी
पड़ती हैं।
इसलिए
तो असत्य
बोलने वाला
पूरी कोशिश
करता है कि
मैं असत्य
नहीं बोल रहा हूं, सत्य बोल
रहा हूं। और
तुम्हें अगर
भरोसा आ जाए
कि यह सत्य
बोल रहा है, तो ही उसका
असत्य काम कर
पाता है।
असत्य
इतना निर्जीव
है, इतना
निर्वीर्य है,
उससे
ज्यादा
नपुंसक तुम
कोई और चीज न
खोज पाओगे।
अगर उसको चलना
भी हो दो कदम, तो सत्य का
धोखा हो जाए, तो ही चल
सकता है। नहीं
तो नहीं चल
सकता है।
असत्य
से कोई बडे
खतरे नहीं
होते दुनिया
में। इसलिए
असत्य तो
तुम्हें
जिससे कहना हो, कह देना।
लेकिन सत्य
बड़ी प्रगाढ़ .
तेजस्वी
ऊर्जा है। वह
ऐसी धार है कि
अगर गलत हाथ
में पड़ जाए, तो या तो खुद
को कांट लेगा
वह, या
दूसरों को कांट
देगा। छोटे
बच्चे के हाथ
में जैसे दे
दी हो तलवार, चमकती तलवार,
वह खिलौना
समझ लेगा।
सत्य
गोपनीय है।
उसी को देना
है, जो
उसे झेल सके।
उसी को देना
है, जिसके
जीवन में हानि
न हो जाए। उसी
को देना है, जो सत्य से
सुरक्षित
होगा, सत्य
से असुरक्षा
में न हो
जाएगा। जो
सत्य से
महाजीवन को
पाने चलेगा, सत्य जिसके
लिए आत्मघात न
बन जाएगा।
इसलिए भी परम
सत्यों को
गोपनीय कहा
गया है। वे
तभी देने हैं,
जब तुम
तैयार हो जाओ,
उसके पहले
खतरा है।
सभी
सत्य को पाना
चाहते हैं, बिना यह
जाने कि तुम
जिसे पाना
चाहते हो, तुम
उसे सम्हाल
सकोगे? तुम्हारी
आंखों से तुम
उस महासूर्य
को देख सकोगे?
आंखें अंधी
तो न हो
जाएंगी?
अगर
तुम्हारी आंखें
दीए को ही
देखने के
योग्य हैं, तो
महासूर्य को
देखने की
कोशिश मत करना।
आंखें फूट
जाएंगी। फिर
दीया भी दिखाई
न पड़ेगा।
क्रम—क्रम
से जाना होगा।
दीए के साथ
अभ्यास करना
होगा। धीरे—
धीरे यात्रा
करनी होगी। एक
दिन तुम भी
महासूर्य के
साथ आंखें
मिलाने को
राजी हो जाओगे।
और जिस दिन
कोई महासूर्य
के साथ आंखें
मिलाने को
राजी हो जाता
है, उस
दिन
महाक्रांति घटित
होती है।
तुम्हारे
भीतर सब बदल
जाता है।
लेकिन उस क्षण
की तैयारी है।
इसलिए
भी सत्य
गोपनीय है। वह
हर किसी को कह
देने योग्य
नहीं है।
ज्ञानियों
ने शास्त्र भी
लिखे हैं, तो इस ढंग
से लिखे हैं
कि हर कोई उसे
पढ़ ले, तो
समझ नहीं
पाएगा।
तलवारें छिपा
दी हैं। ज्यादा
से ज्यादा तुम
म्यान को छू
पाओगे। तलवार
तक तुम्हारी
पहुंच न हो
पाएगी। म्यान
से कोई खतरा
नहीं है।
शास्त्र
इस ढंग से
लिखे गए हैं
कि ज्यादा से
ज्यादा तुम
शब्द को छू
पाओगे, शब्द यानी
म्यान। शब्द
के भीतर छिपा
हुआ अर्थ तो
तुम्हारे लिए गढ़़
ही रह जाएगा।
सत्य इस भांति
छिपाया गया है
कि तुम यह
समझोगे कि
म्यान ही
तलवार है।
इसीलिए
तो तुम
शास्त्र को
पूजते हो। वह
म्यान को पूज
रहे हो। तलवार
का तो तुम्हें
पता ही नहीं
है। शब्दों
में छिपाई है।
शब्दों में इस
भांति छिपाया
है, आच्छादित
किया है कि जो
जानता है, वही
उघाड़कर बता
सकेगा।
और वह
तभी बताएगा, जब
देखेगा कि तुम
तैयार हो गए
हो। वह
तुम्हारी
हजार तरह से
परीक्षाएं ले
लेगा, कसौटियां
कस लेगा। वह
हजार मौकों पर
तुम्हारी
जांच कर लेगा,
कि तुम
तैयार हो गए
हो; आंख
राजी है।
तुम्हारी आंख
की तेजस्विता
कहने लगेगी कि
हां, अब
तुम्हारी आंखें
खुद ही छोटे
सूर्य बन गई
हैं। अब तुम
मिल सकते हो; महासूर्य से
मिलन हो सकता
है। वह छोटे—छोटे
सत्य तुम्हें
देगा, और
देखेगा, तुम
क्या करते हो।
ऐसा
हुआ कि
विवेकानंद
रामकृष्ण के
पास आए, तो रामकृष्ण
ने उन्हें
ध्यान की कोई
विधि दी।
रामकृष्ण
के आश्रम में
एक आदमी था, एक बहुत
सीधा आदमी था,
कालू उसका
नाम था। वह
बडा सरल चित्त
था। उसका छोटा—सा
कमरा था
जिसमें वह
रहता आश्रम
में। और उस
कमरे में नहीं
तो तीन सौ
देवी—देवता
उसने रख छोड़े
थे। खुद के
लिए जगह ही न
बची थी। बच भी
नहीं सकती। जब
देवी—देवताओं
को बुलाओ, तो
खुद तो जगह
खाली करनी
पड़ती है। वह
बामुश्किल
किसी तरह सोने
लायक जगह थी।
और
उसका दिनभर
उसी में बीत
जाता था। छ: —छ:
घंटे लग जाते
थे। क्योंकि
अब सभी को
मनाना। तीन सौ
देवी—देवता!
पूजा करो। और
वह बड़े भाव से
करता। वह ऐसा
जल्दी नहीं
करता था कि एक
आरती ली, एक कोने से
दूसरे तक उतार
दी, घंटी
सबके लिए
इकट्ठी
सामूहिक रूप
से बजा दी, फूल
सब पर बरसा
दिए। ऐसा नहीं
था। एक—एक को, एक—एक की
निजता में
पूजता था।
इससे दिन—दिनभर
बीत जाता था।
विवेकानंद
को यह बात कभी
जंची नहीं। वे
तर्कनिष्ठ
आदमी थे। वे
हमेशा कालू को
कहते, तू
यह क्या
पागलपन कर रहा
है! पत्थरों
के सामने सिर
फोड़ रहा है! और
दिनभर खराब कर
रहा है। लेकिन
कालू उनकी
सुनता न। वह
अपने काम में
लगा रहता। वह
आनंदित था, वह प्रसन्न
था।
एक दिन
विवेकानंद को
ध्यान लग गया, पहली दफा
ध्यान लगा।
तलवार हाथ में
आई। तो ध्यान
लगते ही जो
उनको याद आई, वह बड़ी
हैरानी की है।
उनको यह याद
आई कि अब मेरे
पास थोड़ी
शक्ति है, चाहूं
तो कालू को
रास्ते पर लगा
सकता हूं।
अब
कालू से कुछ
लेना—देना
नहीं था। वह
बेचारा अपने
कमरे में अपना
ध्यान कर रहा
था। लेकिन
विवेकानंद का
ध्यान लगा, थोड़ी—सी
शक्ति का
जागरण हुआ, और ऐसा लगा
उस क्षण में
कि अगर मैं इस
समय कालू को कह
दूं कि कालू
बांध सारे
देवी—देवताओं
को एक पोटली
में और फेंक आ
गंगा में, तो
वह जरूर फेंक
आएगा। इस समय
मेरे शब्द में
बल है।
उत्सुकता
जगी करने की।
वहीं बैठे—बैठे
मन में ही कहा
कि कात् उठ।
क्या कर रहा
है यह सब? बांध सब
देवी—देवताओं
को एक पोटली
में और फेंक आ
गंगा में!
सीधा—साधा
कालू उसके
अंतर्तम में
यह आवाज पहुंच
गई। उसने
बांधा एक
पोटली में सब
देवी—देवताओं
को। आंसू
गिरते जाते
हैं। लेकिन
करे भी क्या, उसे कुछ
समझ में भी
नहीं आ रहा है।
उसे ऐसा लग
रहा है कि
उसको ही ऐसा
बोध हुआ है कि
इन सबको फेंक
आना है। शायद
इन्हीं ने यह
आवाज दी है।
उसे कुछ पता
नहीं कि क्या
हो रहा है!
वह
बांधकर सब
देवी—देवताओं
को रोता हुआ
गंगा की तरफ
जा रहा है।
रामकृष्ण
स्नान करके
लौटते हैं।
उन्होंने
कालू को कहा, तू रुक, एक—दो मिनट
रुक। जल्दी मत
कर। कालू ने
कहा, भीतर
से पुकार आई
है परमहंसदेव
कि सब देवी—देवताओं
को गंगा में
डाल दो!
रामकृष्ण ने
कहा, रुक, भीतर से कोई
आवाज नहीं आई
है। मेरे पीछे
आ।
द्वार
खटखटाया, विवेकानंद
दरवाजा बंद
किए अंदर थे।
द्वार खोला।
रामकृष्ण ने
कहा कि यह
चाबी जो तुझे
दी थी, मैं
वापस लिए लेता
हूं। तू तो
ध्यान का
दुरुपयोग
करने लगा पहले
ही दिन से।
तुझे ध्यान
मिला है, इससे
दूसरों के
ध्यान को
बढ़ाना, कि
तू दूसरों का
ध्यान मिटाने
लगा! इससे
दूसरों की
श्रद्धा को
थिर करना, कि
तू दूसरों की
श्रद्धा को
अथिर करने
लगा! और तुझे
ध्यान मिला है,
उसकी तू
भीतर नई से नई
कीमिया बना, हर ध्यान को
और ऊंचे उठने
के लिए सहारा
बना। उसका तू
उपयोग कर रहा
है व्यर्थ! और
कालू की मूर्तियों
को अगर गंगा
में भी फिंकवा
दिया, तो
इससे तुझे
क्या होगा? कालू का कुछ
खो जाएगा, तुझे
कुछ भी न
मिलेगा। और
ध्यान रख, जब
भी किसी के
खोने में हम
सहारा देते
हैं, तो एक
न एक दिन हम
उसका फल
भोगेंगे, हमारा
भी कुछ खो
जाएगा।
यही तो
कर्म की सारी
की सारी
सिद्धात की
मूल शिला है, कि अगर
तुम पाना
चाहते हो अपने
जीवन में आनंद,
तो दूसरों
के आनंद के
लिए सीढ़ियां
बनाना। अगर
तुम पाना
चाहते हो दुख,
तो दूसरों के
रास्ते पर
कांटे बो आना।
रामकृष्ण
ने कहा कि
नहीं, तू
योग्य नहीं है।
यह चाबी मैं
रखे लेता हूं।
यह जब तू
मरेगा, उसके
ठीक तीन दिन
पहले मैं तुझे
वापस लौटाऊंगा।
और
विवेकानंद
जीवनभर तडूपे, फिर वैसे
ध्यान की झलक
न आई, फिर
वैसे ध्यान की
वर्षा न हुई।
तडुपे, बहुत
उपाय किए; सब
चेष्टाएं कीं,
चेष्टा में
कुछ कमी न की।
विवेकानंद
बलशाली
व्यक्ति थे, महाबलशाली
व्यक्ति थे।
लेकिन
ध्यान बल से
थोड़े ही पाया
जाता है।
ध्यान कोई
बलात्कार
थोड़े ही है कि
तुम जबरदस्ती
कर दो। वह
गुरु—प्रसाद
है। वह अनायास
मिलता है। वह
तुम्हारी
पात्रता से
मिलता है, तुम्हारे
बल से नहीं।
वह तुम्हारी
विनम्रता से
मिलता है, तुम्हारे
आक्रमण से
नहीं।
तुम
परमात्मा के
घर पर हमलावर
की तरह न जा
सकोगे। और अगर
हमलावर की तरह
गए, तो
तुम किसी और
द्वार पर ही
पहुंचोगे; परमात्मा
के द्वार पर
नहीं पहुंच
सकते। फिर
कितना ही
खटखटाते रहो,
तुम दीवार
खटखटा रहे हो,
द्वार वहा
है ही नहीं।
मैंने सुना है
कि एक
सेल्समैन एक
मकान के सामने
आया; एक
बच्चा झाडू के
नीचे खेल रहा
था। उसने पूछा
कि बेटा, तेरी
मम्मी घर के
भीतर हैं? उसने
कहा, हा
हैं। वह गया, द्वार
खटखटाने लगा।
बड़ी देर हो गई,
कोई आवाज
नहीं भीतर से।
कोई है भी, ऐसा
भी पता नहीं
चलता! थक गया।
उसने
लौटकर फिर कहा
कि बेटा, तू तो कहता
था कि घर में
मां है और मैं
खटखटा—खटखटाकर
हैरान हो गया,
कोई जवाब
नहीं देता। उस
बेटे ने कहा, वे तो हैं; लेकिन यह घर
मेरा नहीं। यह
तो खंडहर है, इसमें कोई
रहता ही नहीं।
खटखटाने
से ही कुछ न
होगा। गलत घर
के सामने
खटखटाते रहो।
ठीक घर! पर ठीक
घर बिना गुरु
के इशारे के
कैसे मिलेगा? वह चाबी
रख ली गई।
विवेकानंद ने
बहुत चेष्टा
की। और
स्वाभिमानी
व्यक्ति थे।
और गुरु के
साथ भी
स्वाभिमान
स्वाभिमानी
व्यक्ति नहीं
खो पाता। वह
बना ही रहता
है। योग्य थे,
सब तरह की
चेष्टा की। और
सोचा कि जब एक
दफा मुझे लग
गई है झलक, तो
अब क्यों न
लगेगी! और
चाबी कोई कैसे
रख लेगा? और
क्या मतलब
चाबी का? तर्कनिष्ठ
आदमी थे, विचार
करते थे। सब
सोच—समझकर
उन्होंने कहा
कि मैं कोशिश
करता ही रहूंगा,
कभी फिर
घटेगा।
पर वह
घटी थी बात
प्रसाद से।
इसलिए तो चाबी
रख ली गई। फिर
जिंदगीभर
नहीं घटी।
विवेकानंद
बहुत तड़पे, बहुत रोए।
लेकिन
मरने के तीन
दिन पहले
ध्यान लग गया।
रामकृष्ण तो
जा चुके थे तब
तक। लेकिन ऐसे
व्यक्ति जाते
नहीं। ठीक तीन
दिन पहले चाबी
वापस उपलब्ध
हो गई। जो
जीवनभर
चेष्टा से
नहीं हुआ, वह मरने
के तीन दिन
पहले अनायास
हो गया।
क्या
घटना है! अति
गोपनीय है।
खतरा है। अगर
जरा से भी गैर—तैयार
हाथों में पड़
जाए वह गुप्त
ज्ञान, तो नुकसान
हो सकता है।
और अज्ञानी का
मन बड़ा
कुतूहली होता
है। जरा भी
कुछ हाथ में
लगे, तो वह
उसका प्रयोग
करके देखना
चाहता है।
प्रश्न :
क्या समर्पण
और संबोधि
युगपत घटनाएं है? यदि हां,
तो फिर
समर्पित
शिष्य को भी
वर्षों—वर्षों
साधना से
गुजरना पड़े, तो यह क्या
दर्शित करता
है?
समर्पण और
संबोधि युगपत
घटनाएं हैं।
जिसे तुम
समर्पण कहते
हो, वह
केवल समर्पण
का रिहर्सल है,
पूर्व—तैयारी
है, समर्पण
है नहीं।
तुम कर
भी कैसे सकते
हो समर्पण
एकदम से! पहले
तैयारी तो
करनी पड़ेगी।
आए और समर्पण
कर दिया, इतना आसान
है? समर्पण
भी तो सीखना
पड़ेगा। इंच—इंच
चलना होगा।
इंच—इंच खुद
के अहंकार को काटना
होगा, तभी
समर्पण होगा।
तुम
करते हो बातें, क्योंकि
समर्पण शब्द
तो कोई भी
उपयोग कर सकता
है।
अभी
चार दिन पहले
एक मित्र आए।
वे कहने लगे
देखकर, और सांझ को
जो लोग मेरे
पास आए थे, किसी
को ध्यान की
कोई तकलीफ थी,
किसी को कोई
ध्यान ठीक लग
रहा था, किसी
को गहरा लग
रहा था, किसी
को कोई परिणाम
हो रहे थे; सब
सुनकर वे
चौंके। वे
मुझसे कहने
लगे, लेकिन
यह मुझे कुछ
नहीं करना है।
मेरा तो
समर्पण आपकी
तरफ है, बस
आपके
आशीर्वाद से
हो जाए।
अब
सवाल यह है कि
समर्पण कहीं
बचाव तो नहीं
है? मुझे
कुछ नहीं करना
है। कहीं
समर्पण
तुम्हारे
आलस्य का ही
अच्छा नाम तो
नहीं है? कहीं
समर्पण का
मतलब इतना तो
नहीं है कि
हमें करना ही
नहीं है, अगर
हां, कोई
कर दे, तो
ठीक। देख
लेंगे, जंचेगा
तो ले लेंगे।
नहीं जंचेगा,
तो अपने घर
जाएंगे!
समर्पण का
मतलब यह तो
नहीं है कि
तुम तैयार ही
नहीं हो, कुछ
भी करने को
तैयार नहीं
हो! मुफ्त पाना
चाहते हो, कहीं
समर्पण की यह
आशा तो नहीं
है! कि आपके
आशीर्वाद से
मिल जाए।
पर
आशीर्वाद भी
तो पाना होगा।
आशीर्वाद भी
तो अगर मैं
देना चाहूं तो
अकेला नहीं दे
सकता, तुम्हें
लेना होगा।
आशीर्वाद के
लिए भी तो
तुम्हें हृदय
को खोलना होगा।
तुम
कहते हो, और कुछ मैं
नहीं करना
चाहता। यह
हृदय खोलना, शांति लाना,
ध्यान
लगाना, समाधिस्थ
होना, इस
सब में मुझे
मत उलझाओ आप।
आप तो बस
आशीर्वाद दे
दो।
तुम
मुफ्त खोज में
निकले हो। तुम
समर्पण, गलत शब्द
उपयोग कर रहे
हो। अच्छा
होता, तुम
सीधा ही कहते
कि मैं कुछ करना
नहीं चाहता; परमात्मा
अगर मुफ्त
मिलता हो, तो
मैं सोच सकता
हूं।
परमात्मा
तुम्हारी
जीवन—वासना की
लिस्ट पर
आखिरी है।
यही
आदमी धन खोजने
जाता है, तो मुझसे
नहीं कहता कि
मैं कुछ न
करूंगा। बस
आपके
आशीर्वाद से
हो जाए, तो
ठीक, नहीं
तो भाड़ में
जाए।
नहीं, जब यह धन
खोजने जाता है,
तो यह पूरी
चेष्टा करता
है। पूरी
चेष्टा करता
है, हो
सकता है, आशीर्वाद
भी मांगता हो,
लेकिन
आशीर्वाद के
कारण चेष्टा
नहीं छोड़ता है।
आशीर्वाद को
भी एक सहारा
बना लेता है, लेकिन बाकी
चेष्टा जारी
रखता है।
लेकिन
जब परमात्मा
को खोजने आता
है, तो
कहता है, बस
आपके
आशीर्वाद से
हो जाए!
शब्द
बड़े मधुर लगते
हैं; काव्यपूर्ण
मालूम लगते
हैं; और
ऐसा लगता है, आदमी कितना
भावुक है।
कैसा भावुक है,
कैसा
श्रद्धालु है,
कुछ नहीं
करना चाहता।
लेकिन
यह आदमी अपने
को धोखा दे
रहा है।
समर्पण भी तो
बहुत बड़ी घटना
है। वह भी
करनी पड़ती है।
उसमें
तुम्हारा साथ
तो चाहिए।
क्योंकि
अंततः तो घटना
तुम्हारे
भीतर घटनी है।
तुम्हें
झुकना होगा, मिटना
होगा।
तो
पहली तो बात
यह है कि जिसे
तुम समर्पण
कहते हो, वह समर्पण
होता नहीं।
इसका यह मतलब
नहीं है कि वह
किसी काम का
नहीं है। वह
काम का है।
उसे कर—करके ही
तो तुम असली
समर्पण
को उपलब्ध
होओगे। भूल—
भूलकर ही तो
ठीक रास्ता
सूझेगा। कई
बार गलत ढंग
से करोगे, तभी तो
अकल आएगी कि
कुछ होता नहीं।
तो ठीक की सूझ
आएगी।
समर्पण
हजार बार
करोगे, तब कहीं
आखिरी में सफल
हो पाएगा, एक
हजार एकवीं
बार।
तो तुम
जो पूछते हो
कि क्या
समर्पण और
संबोधि युगपत
घटनाएं हैं?
निश्चित
ही; जिस
दिन समर्पण
घटता है, उसी
दिन आशीर्वाद
भी बरस जाता
है, संबोधि
भी बरस जाती
है। जिस दिन
समर्पण हो
जाता है, फिर
क्षणभर की भी
देर नहीं लगती
परमात्मा के मिलन
में। क्योंकि
देर का कोई
कारण नहीं रहा।
बात ही खतम हो
गई।
समर्पण
ही तो एकमात्र
जरूरत थी, वह पूरी
हो गई; अब
देर किसलिए!
और कोई
ऐसा थोड़े ही
है कि
परमात्मा
किसी काम में
उलझा है।
तो तुम
समर्पण करके
बैठ गए, लेकिन अभी
वह जरा उलझा
है।
जब
वक्त होगा, तब आएगा।
और ऐसा थोड़े
ही है कि क्यू
लगा है उसके
द्वार पर कि
जब तुम्हारा
नंबर आएगा, माना कि
तुमने समर्पण
कर दिया, लेकिन
जब तुम्हारा
नंबर आएगा। न
तो वहां कोई
क्यू लगा है.।
परमात्मा
से प्रत्येक
का संबंध निजी
है। तुम्हारे
और परमात्मा
के बीच कोई भी
नहीं है सिवाय
तुम्हारे।
तुम हट जाओ
बीच से और
मिलन हो जाता
है। तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है,
अवरोध
नहीं है।
यहां
समर्पण, वहा संबोधि।
एक क्षण का भी
फासला नहीं हो
सकता। युगपत
का अर्थ यही
होता है। इधर
जला दीया, उधर
अंधेरा
समाप्त। ऐसा
नहीं कि तुमने
जला लिया दीया,
अब अंधेरा
सोच रहा है कि
समाप्त होए कि
न होए! कि
अंधेरा कह रहा
है कि अभी
बहुत अंधेरी
रात है, अभी
कहा बाहर
जाएं! अभी
थोड़ा आराम कर
लें! कि अंधेरा
कहता है कि
अभी थके—मांदे
हैं, अभी न
जाएंगे, जलने
दो दीए को! कि
अंधेरा कहता
है, हजारों
साल से यहां
रह रहे हैं।
ऐसे
तुमने जला
लिया दीया और
हम चले गए!
इतना आसान है
क्या? कोर्ट—कचहरी
करनी पड़ेगी, गुंडे लाने
पड़ेंगे, तब
निकलेंगे। और
इतने दिन से
यहां रहते—रहते
मालिक हो गए
हैं।
नहीं, अंधेरा
यह कुछ बातें
कहता ही नहीं।
इधर जला दीया,
उधर
तुमने पाया कि
अंधेरा नहीं
है। जलते ही
दीए के अंधेरा
नहीं पाया
जाता है।
ऐसे ही
समर्पण और
संबोधि, वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
इधर
समर्पण, उधर संबोधि।
और यदि
समर्पित
शिष्य को भी
वर्षों —वर्षों
साधना से
गुजरना पड़े, तो यह
क्या दर्शित
करता है?
समर्पण
अभी हुआ नहीं।
और अहंकार बड़ा
सूक्ष्म है।
वह समर्पण के
खेल भी खेलता
है। वह कहता
है कि मैं
वर्षों से समर्पित
शिष्य हूं।
वर्षों
का कोई हिसाब
है? समर्पण
में तो क्षण
का हिसाब है।
वर्षों का तो
मतलब ही यह है
कि कुछ न कुछ
गलत कर रहे हो,
नहीं तो कभी
का घट गया
होता।
एडीसन
एक प्रयोग कर
रहा था। एडीसन
ने दुनिया में
सबसे ज्यादा
आविष्कार किए
हैं, एक
हजार आविष्कार
किए हैं।
तुम्हारी
जिंदगी में जो
छोटी—मोटी
चीजें तुम
देखते हो, वे
सब एडीसन की
हैं—रेडियो, बिजली, टेलीफोन।
उस आदमी ने
आदमी को सब
तरफ से घेर
दिया आविष्कारों
से।
वह एक
आविष्कार बीस
सालों से कर
रहा था।
टेलीफोन की
खोज में लगा
था। फिर वह
पूरा हो गया।
जिस दिन पूरा
हुआ, उस
दिन आधे घंटे
में पूरा हुआ।
उसके
एक
विद्यार्थी
ने पूछा कि
मेरे मन में
एक सवाल उठा
है। वह सवाल
यह है कि आप
बीस साल से इस
प्रयोग को कर रहे
हैं। तो बीस
साल फ़ आधा
घंटा, यह
जो आधा घंटे
में आज हल हो
गया, ऐसा
हम मानें? कि
आधा घंटे में
यह हल हो गया, ऐसा हम
मानें?
एडीसन
ने कहा कि अब
मेरे बाद कोई
भी इसको तैयार
करना चाहे, तो आधा
घंटा लगेगा।
इसलिए आधे
घंटे में ही
बना है। बीस
साल मैं गलत
दरवाजों पर
दस्तक देता
रहा।
यह बात
समझने जैसी है।
साधारणत: तो
हम कहेंगे, यह खोज
बीस साल में
पूरी हुई।
लेकिन एडीसन
बड़ी ही सूझ का
आदमी था। उसने
कहा कि अगर
बीस साल में
यह खोज पूरी
हुई, तो
फिर मेरे बाद
कोई भी इसको
बनाएगा, उसको
फिर बीस साल
लगने चाहिए।
उसको नहीं
लगेंगे; क्योंकि
अब दरवाजा पता
है। दूसरा
आदमी सीधा
जाएगा, दरवाजे
पर दस्तक देगा,
भीतर हो
जाएगा। आधे
घंटे में
प्रयोग पूरा
हो जाएगा।
मुझे
दरवाजा पता
नहीं था। मैं
पहला आदमी था।
तो मैं दूसरों
के घरों पर
दस्तक देता
रहा। वहा कोई
दरवाजा था
नहीं, जो
खुलता। खुले
भी दरवाजे, तो व्यर्थ
थे, कुछ हल
न हुआ। प्रयोग
तो आधा घंटे
में ही हुआ है।
बीस साल ठीक
जगह चोट करना
खोजने में लग
गए।
बुद्ध
को ज्ञान हुआ।
वह ज्ञान तो
एक क्षण में
हुआ है। छ: साल
गलत जगहों पर
चोट करने में
लग गए। महावीर
को जो ज्ञान
हुआ है, वह तो क्षण
में हुआ है।
बारह साल गलत
जगह पर चोट
करने में लग
गए।
जैसे
तुम एक पहेली
हल कर रहे हो, दिनभर लग
गया और हल
नहीं हो रहा
है। और फिर
तुमने चाय पी
और तुम बगीचे
में टहलने चले
गए। और अचानक
सूझ आ गई; लौटकर
आए, पहेली
हल हो गई। यह
जो सूझ जितनी
देर में घटी
है, उतनी
ही देर में
पहेली हल हुई
है। बाकी दिन
तुम गलत
कुंजियों का
सहारा लेते
रहे।
सत्य
तो क्षणभर में
मिल जाता है, युगपत है।
असत्य की बड़ी भारी
श्रृंखला है।
उस असत्य की
श्रृंखला को
पार करने में
समय लगता होगा;
सत्य को
पाने में समय
नहीं लगता।
इसीलिए तो
हमने सत्य को
कालातीत कहा
है, जो समय
में पाया ही
नहीं जाता, समय के बाहर
है।
जो समय
के बाहर है, उसको बीस
साल में कैसे
पाओगे? बीस
लाख साल में
कैसे पाओगे? वह समय के
भीतर ही नहीं
है। लेकिन समय
के भीतर बहुत
कुछ है, जिससे
तुम्हें
गुजरना पड़ेगा।
ऐसा
समझो कि तुमने
बहुत—से
वस्त्र पहन
रखे हैं। तुम
कपड़े उतारते
हो, उतारते
हो, उतारते
हो। उतारने
में एक घंटा
लग जाता है, तब तुम नग्न
हो पाते हो।
नग्न होने में
घटाभर लगता है?
कपड़ों की
पर्तें कितनी
हैं, इस पर
निर्भर करता
है। अगर एक
आदमी एक ही
कपड़ा पहने हुए
है, तो एक
क्षण में उतर
जाता है। और
एक आदमी चादर
ओढ़कर बैठा हुआ
है; ऐसा
फेंक दे और
नग्न खड़ा हो
जाता है। नग्न
होने में तो
क्षणभर भी
नहीं लगता, लेकिन कितनी
कपडों की
पर्तें
तुम्हारे ऊपर
हैं, उनको
उतारने का
सवाल है।
कितनी
अहंकार की
पर्तें
तुम्हारे ऊपर
हैं, उनको
उतारने का
सवाल है।
समर्पण तो
क्षणभर में हो
जाता है।
तो अगर
वर्षों से कोई
सोचता हो कि
वह समर्पित शिष्य
है, तो
सोचने में भूल
है। समर्पण की
तलाश करता
होगा, समर्पण
का खोजी होगा।
समर्पित अभी
नहीं है।
अन्यथा घटना
घट गई होती।
और ये जो इस
तरह के प्रश्न
उठते हैं, ये
प्रश्न भी
थोड़े सोचने
जैसे हैं।
यदि हा, तो फिर
समर्पित
शिष्य को भी
वर्षों—वर्षों
साधना से
गुजरना पडे, तो यह क्या
दर्शित करता
है? यह
दर्शित करता
है अधैर्य। यह
दर्शित करता
है कि तुम
प्रतीक्षा
करने को बिलकुल
भी तैयार नहीं
हो।
यह
दर्शित करता
है तुम्हारी
छोटी बुद्धि।
सत्य को भी
तुम पा लेना
चाहते हो, क्योंकि
वर्षों—वर्षों
से तुम साधना
कर रहे हो!
क्या
साधना कर रहे
हो?
तुम
कुछ ऐसा अनुभव
करने लगते हो, थोड़े दिन
अगर तुम खाली
बैठकर ध्यान
कर लिए या नमोकार
का जाप कर लिए
या ओंकार का
जाप कर लिए या
अल्लाह—
अल्लाह जप लिए,
तो तुम
सोचने लगते हो,
कुछ
परमात्मा पर
तुमने
अनुग्रह किया!
तुम अपनी फाइल
में लिखने
लगते हो कि
देखो, इतनी
दफा नाम जप
चुका, करोड़
दफा राम का
नाम ले लिया, अभी तक नहीं
आए? तुम्हारे
भीतर शिकायत
खड़ी होने लगती
है।
तुम कर
क्या रहे हो? तुम्हारे
करने से उसके
आने का क्या
संबंध है? तुम्हारे
मिटने से उसका
आना होता है।
यह करना तो
तुम्हें भर
रहा है। एक
करोड़ दफा नाम
ले लिए, दस
करोड दफा नाम
ले लिए। हजार
उपवास कर लिए।
रोज ध्यान कर
रहे हैं सुबह—शाम।
कितना समय
गंवा दिया
ध्यान में!
प्रार्थना करते
हैं, पूजा
करते हैं। अभी
तक नहीं हुआ!
यह जो
अभी तक नहीं
हुआ, यही
नहीं होने दे
रहा है। यह जो
अभी तक नहीं
हुआ का विचार
है, यही
काटे की तरह
तुम्हारे
प्राणों में
चुभा है।
इसे भी
छोड़ो। कहो कि
जब तेरी मर्जी।
जैसी तेरी
मर्जी! कभी भी
न होगा, तो भी हम
प्रसन्न हैं।
क्योंकि अगर
यही तेरी
मर्जी है, तो
यही हमारा
होना है। हम
तेरी मर्जी से
अपने को अलग
नहीं रखते।
यही तो
कृष्ण की पूरी
शिक्षा है
गीता में कि तुम
अपने कर्तापन
को छोड़ दो और
उसको कह दो कि
जो तू करवाए।
अगर तुझे
संसार में
रखना है, तो जरूर यही
हितकर होगा।
अगर तुझे
ध्यान नहीं
होने देना है,
तो यही
हितकर होगा।
अगर तू रुकावट
डाल रहा है—ऐसा
तुम्हें लगता
है—तो ठीक, हम
तेरी रुकावट
से राजी हैं।
तू रात दे तो
रात, तू
दिन दे तो दिन,
अंधेरा लाए
तो अंधेरा, प्रकाश लाए
तो प्रकाश।
तेरे हाथ से
छूकर जो
अंधेरा भी आता
है, वह
हमारे लिए
प्रकाश है।
जिस
दिन ऐसी भाव—दशा
होती है, उस दिन
समर्पण। फिर
देर नहीं लगती
है।
जब तक
तुम देख रहे
हो किनारे से आंख
खोल—खोलकर, ध्यान—व्यान
नहीं कर रहे
हो। बीच—बीच
में आंख खोलकर
देख लेते हो, भगवान आया, नहीं आया!
फिर आंख बंद
करके बैठ गए।
फिर दो—चार
माला के गुरिए
फेरे, फिर
जरा आंख खोली,
अभी तक न
भगवान आया, न पोस्टमैन
आया कि कुछ
खबर लाता। तार
ही भेज देता
कि कब आते हैं!
फिर आंख बंद
कर ली।
तुम
बच्चों का खेल
कर रहे हो।
ऐसा न कोई
पोस्टमैन आने
को है, न
कोई तार लाने
को है। और अगर
ऐसा कोई तार
वगैरह ले भी
आए, तो
किसी ने मजाक
की होगी समझना।
ऐसा
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज
प्रार्थना
करता था, तो वह यही
कहता था कि सौ
से कम कभी न
लूंगा। सौ
रुपए पूरे
लूंगा, नगद।
एक भी कम दिया,
तो मैं राजी
होने वाला
नहीं।
पड़ोस
का एक आदमी यह
सुनते —सुनते
थक गया। उसे
मजाक सूझा, कि यह सौ
से कम तो लेगा
नहीं। डर भी
कोई नहीं है।
तो उसने एक
थैली में
निन्यानबे
रुपए रखकर, जब यह
प्रार्थना कर
रहा था और कह
रहा था कि सौ से
कम न लूंगा, इसके छप्पर
पर चढ़ गया और
छप्पर में से
वह थैली गिरा
दी।
थैली
नीचे गिरी।
इसने कहा, ठीक।
पहले गिनूंगा।
सौ से कम कभी न
लूंगा। थैली
खोली, गिनती
की। वे
निन्यानबे थे।
इसने कहा, अरे,
तू भी बड़ा
चालबाज है। एक
रुपया थैली का
कांट लिया, कोई बात
नहीं।
अब वह
पड़ोसी घबड़ाया।
क्योंकि उसने
तो मजाक ही की
थी। लेकिन यह
कह रहा है कि
एक रुपया थैली
का तूने कांट
लिया, कोई
हर्ज नहीं, बात साफ है।
धंधे की है, समझ में आती
है।
अगर
ऐसा कोई
परमात्मा आ भी
जाए, मोर—मुकुट
बांधे द्वार
पर खड़ा हो जाए,
तो समझना कि
कोई अभिनेता
नाटक से छूट
गया है। सर्कस
का कोई प्राणी
निकल भागा है।
या किसी पड़ोसी
ने मजाक की है।
कोई ऐसा आने
को है? कुछ
ऐसा होने को
है? और अगर
तुम ऐसे आंख
खोल—खोलकर
देखते रहे, तो तुम शांत
ही न हो पाओगे।
इसलिए तो
प्रतीक्षा पर
इतना जोर है।
और फलाकांक्षा
के त्याग पर
इतना जोर है।
समझो!
जब तक फलाकांक्षा
है, प्रतीक्षा
तुम कर ही
नहीं सकते।
क्योंकि वह फल
की याद आती ही
चली जाती है—कब
मिलेगा? कब
मिलेगा? कब
मिलेगा? तुम
जपते हो राम—राम—राम,
लेकिन असली
जाप नीचे चल
रहा है उससे
भी गहरा—कब
मिलेगा? कब
मिलेगा? कब
मिलेगा? वह
राम—राम ऊपर—ऊपर
है। कब मिलेगा
गहरे में है।
और कब मिलेगा,
उसके पीछे
तुम्हारा
अहंकार छिपा
है, मैं
उसे पाकर
रहूंगा। और
तुम्हीं बाधा
हो।
छोडो
साधक—वाधक
होने के भ्रम।
शात हो रहो।
बड़ी तुम्हारी
कृपा होगी। और
यह आंख खोल—खोलकर
मत देखो। वह आ
भी जाए, द्वार पर
खड़ा भी हो जाए,
तो वह खुद
ही तुम्हारा सिर
खटखटाका।
जल्दी क्या है?
तुम क्यों
पंचायत कर रहे
हो?
विठोबा
की कथा है
महाराष्ट्र
में, बड़ी
प्रीतिकर है।
विठोबा कृष्ण
का नाम है। वे
अपने एक भक्त
को मिलने आए
हैं, क्योंकि
भक्त उनकी बड़े
दिनों से
प्रार्थना—पूजा
कर रहा है।
लेकिन जब वे
आए हैं, तो
भक्त की मां
बीमार है। वह
अपनी मां की
सेवा कर रहा
है। वे पीछे
आकर खड़े हो गए;
उन्होंने
द्वार पर
दस्तक दी।
द्वार खुला था।
भीतर आ गए।
उन्होंने कहा
कि देख, मैं
तेरा प्यारा,
तेरा कृष्ण,
जिसकी तू
याद करता रहा,
मैं आ गया।
भक्त
ने कहा, तुम बेवक्त
आए। अभी मैं
मां की सेवा
कर रहा हूं।
अभी फुर्सत
नहीं है। पास
ही एक ईंट पड़ी
थी, वह
उसने सरका दी।
उसने कहा कि
इस पर विश्राम
करो। लौटकर
देखा भी नहीं।
जब मां की
सेवा पूरी कर
लूंगा, तब
फिर बातचीत
होगी।
ऐसे को
भगवान मिलते
हैं। जो भगवान
को भी कह दे कि
बैठो, विश्राम
करो। ईंट पर
बिठाल दे भगवान
को। लौटकर भी
न देखे। कैसी
उसकी
प्रतीक्षा
रही होगी!
कैसी उसकी ध्यान
की गहराई रही
होगी! कैसा
उसका भक्ति—
भाव रहा होगा,
जिसमें एक
लहर भी नहीं
उठती!
तुम तो
ध्यान करो, हवा का
झोंका दरवाजे
को हिलाए; तुम
लौटकर देखते
हो, आ गए
क्या! अभी तक
नहीं आए? फिर
गुस्से में
बैठ गए। फिर
गुस्से में
माला फेरने
लगे।
उसने
बिठा दिया
भगवान को कि
बैठो।
विठोबा
के मंदिर में
अब भी कृष्ण
उसी ईंट पर बैठे
हैं। बैठना
पड़ेगा भगवान
को। जब
प्रतीक्षा
इतनी हो, तो भगवान
जाएगा कहा! वह
कोई ऐसी चीज
थोड़े ही है कि
आ जाए, चला
जाए। वह तो
मौजूद ही है, सिर्फ
तुम्हारी
प्रतीक्षा भर
चाहिए। तुम
सदा उसे अपने
चारों तरफ
घिरा हुआ बाहर—
भीतर पाओगे।
वही है, और
कुछ भी नहीं
है।
पर यह
झांक—झांककर
देखने वाला
चित्त, तनाव से भरा
हुआ, अशात,
फलाकांक्षा
से पीड़ित, ज्वरग्रस्त
है। यह उससे
नहीं मिल पाता
है।
अब
सूत्र :
हे
अर्जुन, इस
प्रकार तेरे
हित के लिए
कहे हुए इस
गीतारूप परम
रहस्य को किसी
काल में भी न
तो तपरहित मनुष्य
के प्रति कहना
चाहिए और न
भक्तिरहित के
प्रति तथा न
बिना सुनने की
इच्छा वाले के
प्रति ही कहना
चाहिए; एवं
जो मेरी निंदा
करे, उसके
प्रति भी नहीं
कहना चाहिए।
समझने
की कोशिश करो।
इस
प्रकार तेरे
हित के लिए
कहे हुए इस
गीतारूप परम
रहस्य को......।
यह
अत्यंत गुह्य
और गोपनीय है।
इससे जीवन के
आत्यंतिक
द्वार खुलते
हैं। यह कुंजी
बहुत
बहुमूल्य है।
यह हर किसी को
मत दे देना।
ये मोती हैं, ये
पारखियों को
देना। ये हीरे
हैं, ये
जौहरियों को
देना।
ऐसा
हुआ। झुनून एक
सूफी फकीर हुआ।
उसके पास एक
युवक आया और
उसने कहा कि
मुझे परमात्मा
की तलाश है, सत्य की
खोज है। आपकी
खबर सुनकर आया
हूं। मुझे
सत्य के दर्शन
करा दें।
झुनून
ने अपने खीसे
में हाथ डाला, एक पत्थर
निकाला और कहा,
तू पहले एक छोटा—सा
काम कर। यह
तेरी पहली
साधना है, कि
तू जा बाजार, सब्जी वालों
की मंडी में
जाना और इस
पत्थर को बेचने
की कोशिश करना।
बेचना नहीं है,
कोशिश करना
है। कितने लोग
ज्यादा से
ज्यादा दाम
में मांगते हैं,
खबर लेकर आ।
वह
वापस आया।
सब्जी वालों
ने कहा कि दो
पैसे में ले
लेंगे। सब्जी
तौलने के काम
आ जाएगा; बटखरा हो
जाएगा।
उसने
कहा, अब
तू ऐसा कर, सोने—चांदी
की दुकानों पर
जा। वह गया
सोने—चांदी की
दुकानों पर।
उन्होंने कहा,
एक हजार
रुपए में ले
लेंगे।
वह
बहुत हैरान
हुआ। दो पैसा? हजार
रुपया? वह
वापस लौटकर
आया। उसने कहा
कि बेच दूं? कोई पागल
हजार रुपए में
लेने को तैयार
है। उस फकीर
ने कहा, बेचना
मत! अब तू जरा
जौहरियों के
बाजार में जा।
वहा वह
गया। वहा दस
हजार, बीस
हजार, पचास
हजार, लाख,
दस लाख रुपए
देने वाले लोग
मिले। वह तो
घबड़ा गया। वह
तो पागल हो
गया कि यह
मामला क्या
है! दो पैसे और
दस लाख! वह
भागा हुआ आया।
उसने कहा, बेच
देना चाहिए।
अब रोकने की
जरूरत नहीं है।
दस लाख! एक
आदमी बिलकुल
पागल है; वह
कह रहा है, दस
लाख रुपए, इस
पत्थर के!
उसने
कहा, तू
अभी रुक।
बेचना नहीं है।
पत्थर वापस कर।
मैं सिर्फ
तुझे यह कह
रहा हूं कि
सत्य की तू पूछ
में आया है
मेरे पास, अगर
मैं तुझे सत्य
अभी निकालकर
दे दूं मेरे
दूसरे खीसे
में सत्य पड़ा
है, तो
तेरी स्थिति
अभी सब्जी
बाजार वाले
आदमी की है।
तू उसका बटखरा
बना लेगा, सब्जी
तौलेगा।
अभी
तेरी स्थिति
वह भी नहीं है, जो सोने—चांदी
की दुकान वाले
की है। कम से
कम हजार रुपए में
भी मांगे। और
तेरी स्थिति
वह तो है ही
नहीं, वह
पागलपन तो
तुझे है ही
नहीं, जो
कि जौहरी को
हो सकता है।
जिसने दस लाख
में मांगा, वही आदमी
जानता है, क्या
इसका मूल्य है।
यह करोड़ रुपए
का पत्थर है।
जिसने दस लाख
में मांगा है,
उसे इसकी
झलक है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, इस
परम रहस्य को
भी किसी भी
काल में
तपरहित मनुष्य
के प्रति नहीं
कहना चाहिए.......।
तपस्वी
कौन है? तपस्वी का
अर्थ है, जिसने
सत्य को पाने
के लिए अथक
चेष्टा की, अपने को
जलाया, तपाया।
जो कुतूहलवश
नहीं आ गया है
सत्य को पूछने।
जिसने सत्य को
अपने को
समर्पित किया
है, जो
सत्य के लिए
मिटने को
तैयार है। अगर
जीवन की भी
आहुति देनी
पड़े, तो वह
तैयार है। वह
एक हाथ में
अपने जीवन को
लेकर आया है, यह रहा जीवन,
सत्य मुझे
मिल जाए, तो
मैं जीवन देने
को तैयार हूं।
तपस्वी
का अर्थ है, जो सत्य
को जीवन के
ऊपर रखता है।
जो कहता है, जीवन चला
जाए, हर्जा
नहीं; सत्य
खरीद लेना है।
जीवन दो कौड़ी
का है जिसके
लिए सत्य के
मुकाबले।
भोगी
का अर्थ है, जो जीवन
को किसी भी
हालत में खोने
को तैयार नहीं
है। जिसके लिए
जीवन से ऊपर
कुछ भी नहीं
है। त्यागी का
अर्थ है, जिसके
लिए जीवन से
भी ऊपर कुछ है।
जो जीवन को भी
कुछ पाने के
लिए साधन बना
लेता है।
तो
तपस्वी को
कहना चाहिए।
कुतूहलवश कोई
आया हो, उसको नहीं; जिज्ञासा
मात्र से कोई
आया हो, उसको
नहीं।
मुमुक्षा से
आया हो! जो
अपने जीवन को
मोक्ष बनाने
के लिए तत्पर
हो। जो कहता
हो, जान भी
देनी पड़े, तो
यह रही गरदन।
बोधिधर्म
भारत से बाहर
गया, चीन
गया, सैकड़ों
साल पहले। वह
सदा दीवार की
तरफ मुंह करके
बैठता था।
कभी—कभी
मुझे भी उसकी
बात जंचती है
कि आदमी बड़ा
होशियार था।
अगर वह यहां
होता, तो
तुम्हारी तरफ
नहीं देखता।
तुम उसकी पीठ
देखते, वह
दीवार की तरफ
देखता। और वह
कहता था, जब
ठीक आदमी आएगा,
तभी मैं
उसकी तरफ
देखूंगा। हर
एक की तरफ
देखने से क्या
फायदा! क्यों
अपनी आंखें
गंवाऊं? क्यों?
क्या जरूरत
देखने की? दीवार
में क्या
खराबी है?
वह
कहता, अभी
तो लोग ऐसे ही
हैं, जैसे
दीवार। कुछ है
नहीं; सपाट
है। दरवाजा तक
नहीं है उनके
भीतर, जिसमें
से प्रवेश कर
सको। प्रवेश
का उपाय ही
नहीं है जिनके
भीतर।
फिर
उसका पहला
शिष्य आया, हुई—नेंग।
उसने कहा, बोधिधर्म,
मुड़ता है इस
तरफ कि नहीं!
गरदन कांटकर
रख दूंगा।
बोधिधर्म एक
क्षण को तो
रुका। उतने
में ही उस हुई—नेंग
ने अपना एक
हाथ कांट दिया
और कांटकर
उसको उसके
सामने रख दिया।
और उसने कहा, मुड़! अन्यथा
गरदन गिरेगी।
बोधिधर्म
एकदम घूमा
तेजी से। उसने
कहा, आ
गया भाई! तेरी
मैं नौ सालों
से प्रतीक्षा
कर रहा था।
कोई गरदन कांटने
की जरूरत नहीं।
क्योंकि मैं
कोई हत्यारा
नहीं हूं।
लेकिन गरदन कांटने
की तैयारी
काफी है।
तैयारी चाहिए।
तू कांटने को
तैयार है, तो
तू मूल्य
चुकाने को
तैयार है। तो
जो मेरे पास
है संपदा, वह
मैं तुझे देने
को राजी हूं।
मुफ्त
किसी को दे दो
संपदा, वह व्यर्थ
चली जाती है।
उसका मूल्य ही
नहीं हो पाता।
तपरहित
मनुष्य के
प्रति नहीं
कहना, न
भक्तिरहित के
प्रति कहना.।
क्योंकि
जो भक्ति ही न
हो, तो
गोपनीय बात
नहीं कही जा
सकती। अत्यंत
निकटता चाहिए।
पुराना
शब्द है कि जब
गुरु मंत्र
देता है शिष्य
को, तो
हम कहते हैं, कान फूंकता
है। उसका मतलब
क्या है? उसका
मतलब है, इतनी
गुप्त है बात
कि कान में ही
कहता है। कोई
और सुन न ले! वह गुफ्तगू
है; वह बड़ी
हृदय से हृदय
में कही गई है
बात। कान
फूंकना तो
प्रतीक है।
मगर
मूढ़ गुरु हैं, जो कान
फूंकते हैं।
क्या करो! वे
कान में कह
देते हैं कि
राम—राम जपना;
यह
तुम्हारा
मंत्र है।
किसी और को मत
बताना।
कान
फूंकना
प्रतीक है, उसका
अर्थ है, कानों—कान
कहना। कोई
दूसरे के कान
में न पड़ जाए।
अत्यंत
निकटता में
कहना, सामीप्य
में कहना।
इसीलिए
तो यहां मैं
बंद होकर बैठ
गया हूं; आने के लिए
सब तरह की
बाधाएं खड़ी कर
दी हैं। जब तक
कि कोई
जबरदस्ती आना
ही न चाहे, चेष्टा
ही न करे, न
आ पाएगा। सब
तरह के उपाय
हैं उसको वापस
भेज देने के।
तो जो
कुतूहलवश आ
गया है, वह दरवाजे
से लौट जाएगा।
जिसकी थोड़ी
जिज्ञासा है,
वह लक्ष्मी
के दफ्तर से
लौट जाएगा।
जिसकी
मुमुक्षा है,
वह ही यहां
तक पहुंच
पाएगा। जिसका
प्रेम है, वह
सब सहकर यहां
तक पहुंच
जाएगा।
प्रेम
कोई बाधाएं
नहीं मानता।
प्रेम कोई
सीमाएं नहीं
मानता। प्रेम
बड़ी से बड़ी
दीवालें लांघ
जाता है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, भक्तिरहित
के प्रति मत
कहना......।
क्योंकि
तुम तो कह
दोगे, लेकिन
जिसने भक्ति
से सुना ही
नहीं, वह
समझेगा ही
नहीं। तो
क्यों अपनी
श्वास खराब
करनी! और डर यह
है कि अगर वह
बुद्धि से
समझेगा।
क्योंकि दो ही
जगह हैं समझने
की, या तो
हृदय या
बुद्धि। अगर
भक्ति है, तो
हृदय से
समझेगा। वही
समझने का ठीक
केंद्र है।
अगर भक्ति
नहीं है, तो
बुद्धि से
समझेगा। वह
तुमने जो कहा
है, उसका
तर्क बनाएगा,
शास्त्र
बनाएगा, सिद्धात
बनाएगा, उसमें
वह भटक जाएगा।
बुद्धि
का तो जंगल है, वहा कोई
खुले स्थान
नहीं हैं।
हृदय का खुला
आकाश है। हृदय
में कोई कभी
भटका नहीं, बुद्धि में
लोग सदा भटके
हैं।
तो
बुद्धि वाला
आदमी तो वैसे
ही भटका है, उसको और
यह गोपनीय बात
कहकर और न
भटका देना, और उसका
जंगल बड़ा मत
कर देना। वह
वैसे ही उलझा
है।
और न
बिना सुनने की
इच्छा वाले के
प्रति ही कहना।
और जो
सुनने को
इच्छुक ही न
हो, आतुर
न हो, अभीप्सु
न हो, उससे
मत कहना। उसके
तो कान पर भी न
पहुंचेगा। और
खतरा एक है कि
जब सुनने की
इच्छा न हो, तब अगर कोई
कुछ कह दे, तो
ऊब पैदा होती
है। और उस ऊब
के कारण वह
सदा के लिए
अनुत्सुक हो
जाएगा।
बहुत
बच्चे धर्म से
इसीलिए
अनुत्सुक हो
जाते हैं। जब
उनकी तैयारी
नहीं होती
सुनने की, तब मां—बाप
उनको गीता
सुना रहे हैं!
मंदिर ले जा
रहे हैं! वे
घसिटे जा रहे
हैं। उनको
फिल्म जाना है,
पिक्चर
देखना है।
बाजार में
मदारी आया है।
और ये कहां के
कृष्ण और गीता
को लगाए हुए
हैं!
मैं एक
संस्कृत
महाविद्यालय
में कुछ दिन
तक अध्यापक था।
संस्कृत
विद्यालय था, महाविद्यालय
था, तो
पुराने ढंग से
चलाने का
हिसाब था। तो
सभी
विद्यार्थियों
को सुबह चार
बजे उठना पड़ता,
स्नान करना
पड़ता। पांच
बजे
प्रार्थना
में इकट्ठे
होना पड़ता।
मैं नया ही
पहुंचा था; तो मेरे पास
कोई और रहने
का मकान न था, तो पहली रात
मैं विद्यालय
के छात्रावास
में ही ठहरा
था।
विद्यार्थियों
को भी पता
नहीं था कि
मैं अध्यापक
हूं; नया—नया
था। और मैं भी
सुबह चार बजे
उठकर स्नान
करता था, तो
मैं भी कुएं
पर स्नान करने
गया। वहां
विद्यार्थी
स्नान कर रहे
हैं। मैंने
सोचा था, संस्कृत
विद्यालय है,
लोग स्नान
करते हुए
संस्कृत के
श्लोकों का पाठ
कर रहे होंगे,
वेद की
ऋचाएं
दोहराते
होंगे। वहां
वे भगवान तक
को मां—बहन की
गालियां दे
रहे थे!
मैं
थोड़ा हैरान
हुआ। क्योंकि
ठंडा पानी है, सर्दी के
दिन, चार
बजे रात से
उठना; कौन
नहीं भगवान को
गाली देगा! वे
परमात्मा से लेकर
प्रिंसिपल तक
को इस भद्दे
ढंग से गाली
दे रहे थे। और
उन्हें पता
नहीं था कि
मैं अध्यापक
हूं; नया—नया
था। तो
उन्होंने
मेरी कोई
फिक्र नहीं की।
वे देते रहे।
मैंने भी
सुनीं उनकी
गालियां।
मैंने
प्रिंसिपल को
जाकर कहा कि
यह आप गलत कर रहे
हैं। इनके
जीवन से सदा
के लिए
प्रार्थना का
रस नष्ट हो
जाएगा। इनके
प्रार्थना के
साथ गलत संबंध
जोड़ा जा रहा
है, विकृत
स्थिति बनी जा
रही है।
प्रिंसिपल
बोले कि नहीं,
वे सब अपनी
मर्जी से करते
हैं। जैसा कि
सभी
अधिकारियों
को खयाल है।
मैंने
उनको कहा, तो फिर आप
ऐसा करें, अगर
वे अपनी मर्जी
से करते हैं, तो मैं एक
तख्ती लगा
देता हूं कि
कल चार बजे वही
उठें, जिनको
उठना हो। और
आपको भी उठना
पड़ेगा, ताकि
हम दोनों
मौजूद हो सकें
साक्षी कि कौन
आया, कौन
नहीं आया।
अब तक
तो वे खुद तो
उठते नहीं थे।
मैंने कहा, तुम खुद
ही सोचो। तुम
खुद भी नहीं
उठते चार बजे।
तुम भी उठकर
अगर स्नान करो,
तो भी थोड़ा
उनका गाली
देने का मन कम
हो जाए, कम
से कम
प्रिंसिपल को
तो गाली न दें,
परमात्मा
को दें, तो
कोई हर्जा नहीं।
तुम खुद भी
नहीं उठते!
प्रार्थना
में कोई सम्मिलित
नहीं होता।
लेकिन उनकी
मजबूरी है, क्योंकि वे
सभी
विद्यार्थी
स्कालरशिप पर
थे। संस्कृत
पढ़ने कोई बिना
स्कालरशिप के
आता ही नहीं।
सरकार
स्कालरशिप दे,
तो ही लोग
संस्कृत पढ़ते
हैं! नहीं तो
काहे के लिए
पड़ेंगे! वे सब
स्कालरशिप पर
थे, इसलिए
सबकी मजबूरी
थी, न जाएं
तो उनकी
स्कालरशिप
कटती थी।
तो
दूसरे दिन
मैंने तख्ती
लगा दी कि अब
जिसको मर्जी
हो, वही
प्रार्थना
करे। जिसको
मर्जी हो, वही
चार बजे उठे।
मेरे और
प्रिंसिपल के
सिवाय वहा कोई
भी नहीं आया।
कुआ खाली था।
मैंने कहा, अब कम से कम
कुएं पर
ज्यादा
प्रार्थनापूर्ण
स्थिति है। कम
से कम कुआ तो
प्रार्थना कर
रहा है। कोई
गाली तो नहीं
बक रहा है! कोई
यहां उपद्रव तो
नहीं कर रहा
है, सन्नाटा
तो है। आकाश
के तारे हैं।
सुबह अच्छी है।
जिसको नहाना
है, वह
आएगा। नहीं
आना है, नहीं
आएगा। कोई
नहीं आया।
जिन
बच्चों को तुम
जबरदस्ती
मंदिर ले गए
हो, उनको
तुमने सदा के
लिए मंदिर के
विरोध में कर दिया।
जो सुनने को
राजी नहीं था,
उसको तुमने
सुनाने की
कोशिश की है।
तुमने उसके
कान पर ही
अत्याचार
नहीं किया, तुमने उसके
हृदय के द्वार
बंद कर दिए।
इसलिए कृष्ण
कहते हैं, उससे
मत कहना, जो
सुनने को राजी
न हो, इच्छा
न हो। जब हजार
बार पूछे, तब
कहना।
बुद्ध
का तो नियम था
कि जब तक कोई
आकर तीन बार न पूछे, तब तक वे
उत्तर ही न
देते थे। कोई
प्रश्न बुद्ध
से पूछना हो, तो जाकर
उनके चरणों
में झुको। एक
बार कहो, दो
बार कहो, तीसरी
बार कहो, तब
शायद वे उत्तर
दें। अन्यथा
वे न देंगे।
वे कहते हैं, जो कम से कम
तीन बार पूछने
को राजी न हो, उससे कहना
ही नहीं। कहना
उसी से, जिसका
हृदय प्यासा
हो, कंठ
प्यासा हो, पानी की
पुकार उठी हो
जिसके भीतर, उसी को जल—
धार देना। गैर—प्यासे
को पानी
पिलाओगे, वमन
हो जाएगा। गैर—
भूखे को भोजन
करवाओगे, बीमारी
होगी, कब्जियत
होगी; स्वास्थ्य
न होगा। भोजन
भी जहर हो
सकता है असमय
में। और जहर
भी औषधि हो
सकती है समय
पर। इसलिए ठीक
समय और ठीक
पात्र का सवाल
है।
और जो
मेरी निंदा
करता हो, उसके प्रति
भी नहीं कहना
चाहिए।
क्योंकि जहां मन
निंदा से भरा
हो, विरोध
से भरा हो, वहा
तुम कुछ भी
कहो, अनर्थ
होगा। तुम जो
भी कहोगे, उससे
उलटा अर्थ
निकाला जाएगा।
जब निंदा भीतर
हो, तो तुम
अपनी निंदा को
हर चीज पर टाग
दोगे।
तुम्हारी
निंदा
तुम्हारी आंखों
पर छाई होगी।
तुम उसी के
माध्यम से
देखोगे। हर
चीज निंदा के
ही रंग में
रंग जाएगी।
कोई जरूरत
नहीं है, कोई
प्रयोजन नहीं
है।
क्योंकि
जो पुरुष मेरे
में परम प्रेम
करके इस परम
गुह्य रहस्य
को, गीता
को मेरे
भक्तों में
कहेगा, वह
निस्संदेह
मेरे को ही
प्राप्त होगा।
और न तो उससे
बढ़कर मेरा
अतिशय प्रिय
कार्य करने
वाला मनुष्यों
में कोई है और
न उससे बढ़कर
मेरा अत्यंत
प्यारा
पृथ्वी पर
दूसरा कोई
होवेगा।
भगवद्गीता
भगवान का गीत
है। अर्जुन के
बहाने स्वर्ग
की गंगा को
पृथ्वी पर
उतारा है। उस
गंगा को
उन्हीं के पास
ले जाना, जिनके हृदय
में स्वर्ग की
गंगा की प्यास
उठ गई है।
जो अभी
इसी पृथ्वी के
जल से तृप्त
हैं, उन्हें
व्यर्थ
परेशान मत
करना। अभी यही
जल उनके लिए
काफी है। एक
दिन आएगा कि
वे पाएंगे, इस जल से
किसी की प्यास
बुझती नहीं, तभी वे तलाश
करेंगे उस जल
की जो भगवान
का है।
भगवद्गीता
एक दिव्य गीत
है। सभी न सुन
पाएंगे।
संगीत को, उस संगीत
को सुनने के
लिए बड़ी
अहर्निश
तैयारी चाहिए;
बड़ा
श्रद्धा— भाव
से भरा मन
चाहिए। नाचता,
उत्सव करता
हुआ, एक
अहोभाव चाहिए,
तभी उस गीत
की कड़ियां
सुनाई पड़ेगी।
और तब वे गीत
की कड़ियां
साधारण न
होंगी। वह गीत
की कड़ियां
भगवत्ता से
भरी होंगी।
उनका स्वाद इस
पृथ्वी का
नहीं है, उनका
स्वाद परलोक
का है।
उस
स्वाद के लिए
तैयार हो जाए
कोई, तो
कृष्ण कहते
हैं, उससे जरूर
कहना। और जो
ऐसे प्यासे
व्यक्ति को
मेरा गीत पिला
देता है, उससे
ज्यादा
प्यारा मेरा
कोई भी नहीं
है।
क्योंकि
इसका अर्थ हुआ
कि वह एक
व्यक्ति को और
भगवान में
वापस बुला
लेता है। इसका
अर्थ हुआ कि
एक हृदय को और
उसने भगवत्ता में
डुबा दिया।
इसका अर्थ हुआ, एक बटोही
भटका था, वह
वापस लौट आया,
उसे अपना घर
मिल गया। इसका
अर्थ हुआ, अस्तित्व
का एक खंड शात
हुआ, आनंदित
हुआ, निर्वाण
को उपलब्ध हुआ,
निस्संशय
हुआ। यात्रा
एक खंड की
पूरी हुई।
अस्तित्व का
एक टुकड़ा
स्वर्ग को, शांति को, महासुख को, सच्चिदानंद
को उपलब्ध हुआ।
स्वभावत:, जो भगवान
के गीत में
लोगों को डुबा
देता है, उससे
ज्यादा
प्यारा भगवान
का और कौन
होगा!
कृष्ण
कहते हैं, वह मेरे
भक्तों में
मुझे परम
प्रिय है। वह
निस्संदेह
मेरे को ही
प्राप्त होगा।
वह मेरे साथ
एकरूप हो जाता
है।
कृष्ण
के गीत को
गाते—गाते
व्यक्ति
कृष्ण हो जाता
है।
भगवद्गीता को
सुनते—सुनते, कहते—कहते,
अगर ताल—मेल
बैठ जाए, अगर
सुर बैठ जाए, साज बैठ जाए,
तो व्यक्ति
कृष्णमय हो
जाता है।
लेकिन
घृणा से भरा हो, निंदा से
भरा हो, विरोध
से भरा हो, तो
यह नहीं हो
पाएगा।
उत्सुक न हो, अनुत्सुक हो,
जबरदस्ती
कहा जा रहा हो
उसे, तो यह
न होगा। अभी
उसकी
मुमुक्षा ही न
हो, अभी वह
धन चाहता हो, तुम धर्म की
बात करते हो, तो तीर
स्थान पर न
लगेंगे। अभी
वह पद चाहता
हो, तुम
परमात्मा की
पुकार उठाते
हो, उसे
सिर्फ
व्याघात
मालूम होगा कि
तुम व्यर्थ का
उपद्रव कर रहे
हो।
व्यक्ति
की आकांक्षा
के विपरीत उसे
परमात्मा में
भी वापस नहीं
पहुंचाया जा
सकता है।
स्वतंत्रता
परम है, आखिरी है।
और प्रत्येक
व्यक्ति अपनी
ही
स्वतंत्रता
से जीता है।
हम सहारा दे
सकते हैं।
बुद्ध पुरुष
इशारा कर सकते
हैं, चलना
तो प्रत्येक
को ही पड़ता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें