ओशो
ओशो किप्रिय सौ पूस्तको एक पूस्तक है मैबल कॉलिन्स की ये किताब....अदभुत है...जो खो गई थी..मैबल कॉलिनस का कहना है कि येपूस्तक उसने लिखी नहीं है देखी है...उनका कहना है कि यह किसी संस्कृत की विलुप्त हो गई पूस्तक के ये शब्द है।ये पूस्तक विलुप्त हो गई थी...खो गई थी...आदमी से इसका संबध टूट गया था। ओर मैबल कॉलिन्स ने इस पूस्तक को ध्यान की किसी गहराई में देखा। उसने उस पूस्तक को वैसा--वैसा उतर दिया है। इस पूस्तक का एक--एक सूत्र बहुमूल्यवान है। इस पूस्तक के सूत्र हजारों--हजारों सालों की हजारों--हजारों साधकों की साधना का निचोड़ हे।.............एक--एकशब्द को बड़े ध्यानपूर्वक सुनना।.....'ये नियम शिष्यों के लिए है'
ध्यान
साधना शिविर,
माउंट आबू में
मैबल
कॉलिन्स की
पुस्तक ‘लाइट
आन दि पाथ’
पर ओशो द्वारा
दिए गए सत्रह
अमृत
प्रवचनों का अनुपन
संकलन)
अमुख—
सत्य
की खोज के लिए
दो अध्याय हैं।
एक—जब
साधक खोजता है।
और दूसरा—जब
साधक बांटता
है।
आनंद
तब तक पूरा न
समझना, जब तक
तुम उसे
बांटने में भी
सफल न हो जाओ।
आनंद की खोज
तो लोभ का ही
हिस्सा है।
आनंद की चाह तो अस्मिता केंद्रित ही है मेरे लिए। मेरे लिए ही वह खोज है। और जब तक मेरा इतना भी बाकी है कि मैं आनंद अपने लिए ही चाहूं तब तक आनंद मेरा अधूरा ही रहेगा। और उस आनंद के साथ—साथ अंधेरे की एक रेखा भी चलेगी। और उस आनंद के साथ—साथ दुख की एक छाया भी मौजूद रहेगी। क्योंकि जब तक मैं मौजूद हूं तब तक दुख से पूर्ण छुटकारा असंभव है। मुझे आनंद की झलक भी मिल सकती है, लेकिन वह झलक ही होगी। और पीड़ा किसी न किसी रूप में सदा मेरे साथ संबद्ध रहेगी, क्योंकि मैं ही पीड़ा हूं।
आनंद की चाह तो अस्मिता केंद्रित ही है मेरे लिए। मेरे लिए ही वह खोज है। और जब तक मेरा इतना भी बाकी है कि मैं आनंद अपने लिए ही चाहूं तब तक आनंद मेरा अधूरा ही रहेगा। और उस आनंद के साथ—साथ अंधेरे की एक रेखा भी चलेगी। और उस आनंद के साथ—साथ दुख की एक छाया भी मौजूद रहेगी। क्योंकि जब तक मैं मौजूद हूं तब तक दुख से पूर्ण छुटकारा असंभव है। मुझे आनंद की झलक भी मिल सकती है, लेकिन वह झलक ही होगी। और पीड़ा किसी न किसी रूप में सदा मेरे साथ संबद्ध रहेगी, क्योंकि मैं ही पीड़ा हूं।
जिस
दिन दूसरी
घटना भी घटती
है— आनंद को
बांटने की—उस
दिन मैं
महत्वपूर्ण
नहीं रह जाता, दूसरा
महत्वपूर्ण
हो जाता है, तुम
महत्वपूर्ण
हो जाते हो।
उस दिन आनंद
मांगता नहीं
है साधक, उस
दिन आनंद देता
है, उस दिन
आनंद बांटता
है। और जब तक
आनंद बंटने
न लगे, तब
तक पूरा नहीं
होता। आनंद
मिलता है जब, तब अधूरा
होता है। और
आनंद जब बटता
है, तब
पूरा होता है।
ऐसा
समझें, कि एक
भीतर आती हुई
श्वास है, और
एक बाहर जाती
हुई श्वास है।
भीतर आती हुई
श्वास आधी है
और तुम अकेली
भीतर आती
श्वास से जी न
सकोगे। और अगर
तुमने चाहा कि
भीतर जो श्वास
आती है, उसे
मैं भीतर ही
रोक लूं तो
श्वास जो कि
जीवन का आधार
है, वही
श्वास मृत्यु
का कारण बन
जाएगी। श्वास
भीतर आती है, तो उसे बाहर
छोड़ना भी होगा।
और जब श्वास
बाहर भी छूटती
है, तब ही
वर्तुल पूरा
होता है। भीतर
आती श्वास आधी
है, बाहर
जाती श्वास
आधी है। दोनों
मिल कर पूरी
होती हैं। और
वे दो कदम हैं,
जिनसे जीवन
चलता है।
आनंद
जब तुम्हारे
भीतर आता है, तो
आधी श्वास है।
और जब आनंद
तुमसे बाहर
जाता है और
बटता है, बिखरता
है, फैलता
है, विस्तीर्ण
होता है लोक—लोकांतर
में—तब आधी
श्वास और भी
पूरी हो गई।
ध्यान
रहे,
तुम जितने
जोर से श्वास
को बाहर
फेंकने में समर्थ
हो जाते हो, उतनी ही
गहरी श्वास
भीतर लेने में
भी समर्थ हो
जाते हो। अगर
कोई ठीक से
श्वास को बाहर
फेंके, तो
जितनी श्वास
बाहर फेंकेगा,
उतनी ही
गहरी
सामर्थ्य
भीतर श्वास
लेने की हो
जाती है। जो लुटाएगा, वह और भी
ज्यादा पा
लेता है! फिर
और ज्यादा पा
कर और ज्यादा
लुटाता है तो
और ज्यादा पा
लेता है। फिर
यह श्रृंखला
अनंत हो जाती
है।
इस
बात को ठीक से
समझ लेना
चाहिए कि जो
तुम्हारे पास
है,
वह तब ही
तुम्हारे पास
है, जब तुम
उसे देने में
समर्थ हो। और
जब तक तुम
देने में
असमर्थ हो, तब तक समझना
कि वह तुम्हें
मिला ही नहीं
है। मिलते ही
बंटना शुरू हो
जाता है।
एक
बात समझ लेने
जैसी है कि
अगर जीवन में
दुख हो तो
आदमी सिकुड़ता
है,
बंद होता है;
चाहता है
कोई मिले ना, कोई संगी—साथी
पास न आए; कहीं
एकांत, दूर
किसी गुफा में
बैठ जाऊं,
अपने
द्वार—दरवाजे
बंद कर लूं।
दुखी आदमी
अपने को सब
तरफ से घेर कर
बंद कर लेना
चाहता है। दुख
संकोच है, सिकुडाव है। दुख में
तुम नहीं
चाहते कि कोई
बोले भी, कोई
कुछ कहे भी।
कोई
सहानुभूति भी
प्रकट करता है,
तो अड़चन
मालूम होती है।
जब तुम सच में
दुख में हो, तो
सहानुभूति
प्रकट करने
वाला भी खटकता
है। तुम्हारा
कोई प्रियजन
चल बसा है, गहन
दुख की
बदलियों ने
तुम्हें घेर
लिया है, तो
कोई समझाने
आता है, सांत्वना
देता है। उसकी
सांत्वना, उसका
समझाना, सब
थोथा मालूम
पड़ता है। उसकी
शान की बातें
भी कि आत्मा
अमर है, घबड़ाओ मत, कोई
मरता नहीं—दुश्मन
की बातें
मालूम पड़ती
हैं। दुख सब
तरफ से अपने
को बंद कर
लेना चाहता है
बीज की तरह, और सिकुड़
जाना चाहता है।
ठीक
इसके विपरीत
घटना आनंद की
है। जब आनंद
फलित होता है, जैसे
दुख में सिकुड़ता
है आदमी, वैसा
आनंद में फैलता
है। तब वह
चाहता है कि
जाए और दूर—दिगंत
में, हवाएं जहां तक
जाती हों, आकाश
जहां तक फैलता
हो, वहां
तक जो उसने
पाया है, उसे
फैला दे। जैसे
फूल जब खिलता
है तो सुगंध
दूर—दूर तक
फैल जाती है।
और दीया जब
जलता है तो
प्रकाश की
किरणें दूर—दूर
तक फैल जाती
हैं। ऐसे ही
जब आनंद की
घटना घटती है,
तब बंटना
शुरू हो जाता
है। अगर
तुम्हारा
आनंद
तुम्हारे
भीतर ही सिकुड़
कर रह जाता हो,
तो समझना कि
वह आनंद नहीं
है। क्योंकि
आनंद का
स्वभाव ही
बंटना है, विस्तीर्ण
होना है।
इसलिए
हमने
परमात्मा के
परम—रूप को
ब्रह्म कहा है।
ब्रह्म का अर्थ
है,
जो
विस्तीर्ण
होता चला जाता
है। ब्रह्म
शब्द में वही
आधार है, जो
विस्तार में
है, विस्तीर्ण
में है।
ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही चला
जाता है, जिसके
फैलाव का कहीं
कोई अंत नहीं
है। ऐसी कोई
जगह नहीं आती,
जहां उसकी
सीमा आती हो, वह फैलता ही
चला जाता है।
अभी
फिजिक्स
ने और ज्योतिष—शास्त्र
ने,
अंतरिक्ष
के खोजियों ने
तो अभी ही यह
बात आ कर इस
सदी में कही
है, कि जो
विश्व है वह एक्सपेंडिंग
है, विस्तीर्ण
होता हुआ है।
पश्चिम में तो
यह खयाल नहीं
था। पश्चिम
में तो यह
खयाल था कि
विश्व जो है
वह चाहे कितना
ही बड़ा हो, उसकी
सीमा है, वह
फैल नहीं रहा
है। लेकिन
आइंस्टीन के
बाद एक नई
धारणा का जन्म
हुआ है। और वह
धारणा बड़ी
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
वह धारणा
ब्रह्म के
बहुत करीब
पहुंच जाती है।
आइंस्टीन
ने कहा कि यह
जगत सीमित
नहीं है, यह
फैल रहा है।
जैसे जब आप
श्वास भीतर
लेते हैं, तो
आपकी छाती
फैलती है, ऐसा
यह जगत फैलता
ही चला जा रहा
है। इसके
फैलाव का कोई
अंत नहीं
मालूम होता।
बड़ी तीव्र गति
से जगत बड़ा
होता चला जा
रहा है।
मगर
भारत में यह
धारणा बड़ी
प्राचीन है।
हमने तो परम—सत्य
के लिए ब्रह्म
नाम ही दिया
है। ब्रह्म का
अर्थ है, जो
फैलता ही चला
जाता है, इनफिनिटली एक्सपेंडिंग।
जिसका कहीं
अंत नहीं आता,
जहां वह रुक
जाए, जहां
उसका विकास
ठहर जाए। और
ब्रह्म के
स्वभाव को
हमने आनंद कहा
है। आनंद
विस्तीर्ण
होती हुई घटना
है। आनंद ही
ब्रह्म है।
तो
जिस दिन
तुम्हारे
जीवन में आनंद
की घटना घटेगी, उस
दिन तुम कृपण
न रह जाओगे।
कृपण तो सिर्फ
दुखी लोग होते
हैं। इसे थोडा
समझ लेना, यह
सभी अर्थों
में सही है।
दुखी
आदमी कृपण
होता है, वह दे
नहीं सकता। वह
सभी चीजों को
पकड़ लेता है, जकड़ लेता है।
सभी चीजों को
रोक लेता है
छाती के भीतर।
वह कुछ भी
नहीं छोड़ सकता।
जान कर आप
चकित
होंगे, मनस्विद कहते हैं कि
कृपण आदमी
गहरी श्वास भी
नहीं लेता।
क्योंकि गहरी
श्वास लेने के
लिए गहरी
श्वास छोड़नी
पड़ती है। छोड़
वह सकता ही
नहीं। मनस्विद
कहते हैं कि
कृपण आदमी
अनिवार्य रूप
से कब्जियत का
शिकार हो जाता
है—मल भी नहीं
त्याग कर सकता,
उसे भी रोक
लेता है। मनस्विद
तो कहते हैं
कि कब्जियत हो
ही नहीं सकती,
अगर किसी न
किसी गहरे
अर्थों में मन
के अचेतन में
कृपणता न हो।
क्योंकि मल को
रोकने का कोई
कारण नहीं है।
शरीर तो उसे
छोड़ता ही है, शरीर का
छोड़ना तो
स्वाभाविक है,
नैसर्गिक
है। लेकिन मन
उसे रोकता है।
ध्यान
रहे,
बहुत से लोग
ब्रह्मचर्य
में इसीलिए
उत्सुक हो
जाते हैं कि
वे कृपण हैं।
उनकी
ब्रह्मचर्य
की उत्सुकता
वास्तविक रूप में
कोई परम—सत्य
की खोज नहीं
है। उनकी
ब्रह्मचर्य
की उत्सुकता
वीर्य की शक्ति
बाहर न चली
जाए, उस
कृपणता का
हिस्सा है।
बहुत थोड़े से
लोग ही
ब्रह्मचर्य
में समझ— बूझ
कर उत्सुक
होते हैं।
अधिक लोग तो
कृपणता के
कारण ही! जो भी
है, वह
भीतर ही रुका
रहे, बाहर
कुछ चला न जाए।
इसलिए कृपण
व्यक्ति
प्रेम नहीं कर
पाता। आप
कंजूस आदमी को
प्रेम करते
नहीं पा सकते।
क्योंकि
प्रेम में दान
समाविष्ट है।
प्रेम स्वयं
दान है, वह
देना है। और
जो दे नहीं
सकता, वह
प्रेम कैसे
करेगा? इसलिए
जो भी आदमी
कंजूस है, प्रेमी
नहीं हो सकता।
इससे उलटा भी
सही है। जो
आदमी प्रेमी
है, वह
कृपण नहीं हो
सकता।
क्योंकि
प्रेम में
अपना हृदय जो
दे रहा है, वह
अब सब कुछ दे
सकेगा। आनंद
के साथ कृपणता
का कोई भी संबंध
नहीं है, दुख
के साथ है।
तो
जिस दिन
तुम्हें सच
में ही आनंद
की घटना घटेगी, उस
दिन तुम दाता
हो जाओगे। उस
दिन तुम्हारा भिखारीपन
गया। उस दिन
तुम पहली दफा
बांटने में
समर्थ हुए। और
तुम्हें एक
ऐसा स्रोत मिल
गया है, जो
बांटने से
बढ़ता है, घटता
नहीं।
धन
बांटों, तो
घट जाता है।
घटेगा ही, क्योंकि
धन का आधार
दुख है, आनंद
नहीं है। धन
किसी न किसी
रूप में, किसी
न किसी के दुख
पर ही खड़ा है।
धन में कहीं न
कहीं मनुष्य
की पीड़ा
समाविष्ट है।
तो धन को तो
इकट्ठा करो, तो भी दुख ही
इकट्ठा किया
जा रहा है। धन
को अगर बांटने
जाओ तो बांटने
से घटेगा।
क्योंकि धन
कोई अंतर—अवस्था
नहीं है, वस्तुओं
का संग्रह है।
वस्तुएं बांटी
जाएंगी, तो
घट जाएंगी।........
धन
की सीमा है—बटेगा, तो
कम होगा। आनंद
की कोई सीमा
नहीं है— बंटेगा,
तो बढ़ेगा।
और आनंद का
स्रोत भीतर है।
तो जितना तुम
उलीचते हो, उतने नए
झरने आ जाते
हैं।
इसे
ऐसा भी समझ
लें। हम एक कुऔ
खोदते हैं। तो
पानी को
उलीचते हैं, तो
झरने पानी को
भरते जाते हैं।
कभी आपने सोचा
कि ये झरने
कहां से आते
हैं? ये
दूर सागर से
जुड़े हैं, ये
कभी रिक्त
होने वाले
नहीं हैं। कुआं
सड़ सकता
है, अगर उलीचा
न जाए। लेकिन
अगर उलीचा
जाए, तो
रोज ताजा और
नया होगा। और
सागर अनंत है,
जिससे झरने
जुड़े हैं।
ध्यान
रहे,
हमारे भीतर
जब आनंद की
घटना घटती है,
हम उसे
उलीचना शुरू
करते हैं, तभी
हमें पता चलता
है कि आनंद के
झरने ब्रह्म से
जुड़े हैं। हम
कितना ही उलीचें,
वे समाप्त
नहीं होते। हम
सिर्फ एक कुआं
हैं और उसके
झरने दूर सागर
से जुडे हैं।
वह सागर ही
ब्रह्म है।
आनंद बंटने
से इसीलिए
बढ़ता है। और
आनंद बंटने
से ही पूर्ण
होता है।
ओशो
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