प्रश्न—सार:
1—क्या
अभिव्यक्ति
की उन्मुक्तता
प्रामाणिक
होने
की और एक कदम
है?
2—काम—क्रोध
आदि पर ध्यान
देने से
बेचैनी सी
क्यों
होती है?
3—भाववेग
में मूर्च्छा
पकड़ती है,
तो रूकें
कैसे?
4—क्या
दीक्षा और
गुरु—कृपा
विधियों से
अधिक
महत्वपूर्ण
नहीं है?
पहला
प्रश्न :
पिछली
रात आपने कहा
कि आधुनिक
आदमी क्रोध,
हिंसा,
कामवासना
वगैरह को
अभिव्यक्त
करने में गैर—प्रामाणिक
हो गया है। आप
यह भी कहते है
कि भारत के
विद्यार्थी
और उसकी युवा
पीढ़ी अपने
आवेगों की
अभिव्यक्ति
में पश्चिम
की युवा पीढ़ी
से बहुत कम
उग्र है। क्या
इसका अर्थ यह
है कि पश्चिम
के युवक अपनी
अभिव्यक्ति
में अधिक
प्रामाणिक हो
रहे हो?
कामवासना और
क्रोध में
अभिव्यक्ति
की मुक्तता
क्या आवेगात्मक
अभिव्यक्ति
में
प्रामाणिक
होने की और
गति की सूचक
है?
यहां कई
बातें ख्याल
में लेने जैसी
हैं। एक, प्रामाणिक
होने का अर्थ
पूरी तरह
तथ्यपूर्ण होना
है। आदर्श, सिद्धात, वाद तुम्हें
विकृत करते
हैं और एक
झूठा मुखौटा
देते हैं। तुम
चेहरे ओढ़ लेते
हो, और तब
जो कुछ भी तुम
दिखाते हो वह
तुम नहीं होते
हो। यथार्थ खो
जाता है, और
तुम अचानक
अभिनय ही करते
हो। तुम्हारा
जीवन जीवन
कम, नाटक
ज्यादा हो
जाता है। तुम
कुछ अभिनय
करते हो
जिसमें
तुम्हारी
आत्मा नहीं रहती
है; जिसमें
सिर्फ
तुम्हारा
समाज, तुम्हारी
शिक्षा, संस्कृति
और सभ्यता ही
होती हैं।
मनुष्य
को परिष्कृत
किया जा सकता
है;
लेकिन
जितने तुम
परिष्कृत
होते हो उतने
ही तुम कम
वास्तविक हो
जाते हो।
वास्तविक तो
तुम्हारी अपरिष्कृत
आत्मा है—समाज
से अछूती
आत्मा।
लेकिन
वह खतरनाक है।
अगर एक बच्चे
को अपने पर ही
छोड़ दिया जाए
तो वह महज
जानवर हो
जाएगा; प्रामाणिक
तो होगा मगर
जानवर होगा; वह आदमी
नहीं बनेगा।
यह
संभव नहीं है; यह
विकल्प संभव
नहीं है। हम
बच्चे को उस
पर ही नहीं
छोड़ सकते हैं;
हमें कुछ
करना होगा। और
हम जो भी
करेंगे वह
उसकी
वास्तविक
आत्मा को
विकृत करेगा।
वह बच्चे को
आवरण देगा, चेहरे देगा,
मुखौटे
देगा। वह आदमी
बन जाएगा; लेकिन
साथ—साथ वह
अभिनेता हो
जाएगा। वह
नकली हो जाएगा,
असली नहीं
रहेगा। और अगर
हम उसे उसके
ही ऊपर छोड़
देंगे तो वह
जानवर की तरह
होगा—प्रामाणिक
और वास्तविक—लेकिन
वह आदमी नहीं
होगा। तो यह
एक आवश्यक
बुराई है कि
हम उसे सिखाएं,
उसे
परिष्कृत और
संस्कारित
करें। तब वह
आदमी होगा, लेकिन झूठा
आदमी होगा।
ध्यान
की इन विधियों
के साथ तीसरा
विकल्प खुलता
है। ध्यान की
सभी विधियां संस्कार—मुक्त
करने की
विधियां हैं।
जो भी समाज से
तुम्हें मिला
है वह वापस
किया जा सकता
है,
और तब तुम
पशु नहीं
रहोगे। तब तुम
मनुष्य से भी
कुछ अधिक हो
जाओगे। तब तुम
अतिमानव होगे,
और
वास्तविक भी।
तब तुम पशु
नहीं रहोगे।
यह
कैसे होता है? बच्चे
को शिक्षा और
संस्कृति
देना जरूरी है।
हम उसे उस पर
नहीं छोड़
सकते। अगर उसे
उसके ऊपर छोड़
िदया जाए
तो वह कभी
आदमी नहीं
होगा। वह
जानवर ही रह
जाएगा। वह
वास्तविक
होगा; लेकिन
वह संसार से, चेतना के उस
आयाम से वंचित
रह जाएगा, जो
मनुष्य के साथ
अस्तित्व में
आता है। इसलिए
उसे आदमी बनाना
ही होगा; हालांकि
वह झूठा भी हो
जाएगा।
वह
झूठा क्यों हो
जाएगा? वह
झूठा इसलिए हो
जाएगा कि उस
पर आदमियत ऊपर
से थोपी जाएगी।
भीतर तो वह
जानवर ही
रहेगा, और
ऊपर से हम उस
पर आदमियत
आरोपित कर
देंगे। फलत:
वह विभाजित हो
जाएगा, दो
में बंट जाएगा।
अब जानवर उसके
भीतर रहेगा, और आदमी
बाहर—बाहर।
यही
कारण है कि
तुम जो भी
कहते हो और जो
भी करते हो, उसमें
दोहरापन होता
है। एक ओर
समाज से जो
चेहरा मिला है
उसे बाहर कायम
रखना पड़ता है
और दूसरी ओर
सतत भीतर के
जानवर को भी
संतुष्ट रखना
पड़ता है। उससे
समस्याएं
पैदा होती हैं,
और हर आदमी बेईमान
हो जाता है।
तुम जितने
आदर्शवादी
होगे उतना ही
बेईमान होना
पड़ेगा। आदर्श
कहेगा कि यह
करो, और
भीतर का जानवर
ठीक उसके
विपरीत
चाहेगा, वह
ठीक इसके
विपरीत करने
को कहेगा। इस
हालत में कोई
क्या करे?
आदमी
अपने को और
दूसरों को
धोखा दे सकता
है। तब वह
बाहर झूठा चेहरा
ओढ़े
रहेगा और भीतर
जानवर का
जानवर बना
रहेगा। वही तो
हो रहा है।
तुम कामवासना
का जीवन जीते
हो,
लेकिन कभी
उसकी चर्चा
नहीं करते, चर्चा
ब्रह्मचर्य
की करते हो।
तुम्हारा
कामवासना का
जीवन अंधेरे
में सरक जाता
है; समाज
से ही नहीं, परिवार से
ही नहीं, स्वयं
तुम्हारे
चेतन मन से भी
ओझल हो जाता
है। तुम उसे
अंधेरे में
ऐसे रख देते
हो जैसे कि वह तुम्हारे
जीवन का
हिस्सा ही
नहीं है। और
तब तुम ऐसे
काम किए जाते
हो जिनके तुम
विरोधी हो, क्योंकि
सिर्फ शिक्षा
से तुम्हारी
जैविक संरचना
को नहीं बदला
जा सकता।
याद
रहे,
तुम्हारी
बायोलाजी, तुम्हारी
जैविक संरचना
सिर्फ आदर्श
की शिक्षा से
नहीं बदली जा
सकती है। कोई
विद्यापीठ, कोई
आदर्शवाद
तुम्हारे आंतरिक
पशु को नहीं
बदल सकता है।
भीतर की चेतना
तो सिर्फ
वैज्ञानिक
विधि से बदली
जा सकती है।
नैतिक सिखावनों
से काम नहीं
चलेगा; आंतरिक
चेतना को
समग्रत: बदलने
के लिए
वैज्ञानिक
विधि की जरूरत
है। उसके
प्रयोग से
तुम्हारा
दोहरापन
मिटेगा, और
तुम एक होगे।
पशु
अखंड है, एक है।
संत भी अखंड
है, एक है।
लेकिन मनुष्य
दोहरा है; क्योंकि
वह दोनों के, संत और पशु
के बीच में है।
तुम यह भी कह
सकते हो कि
मनुष्य
परमात्मा और पशु
के बीच में है।
मनुष्य ठीक
दोनों के मध्य
में है। भीतर
वह पशु बना
रहता है, और
बाहर
परमात्मा
होने का ढोंग
करता है। उससे
ही तनाव पैदा
होता है, संताप
पैदा होता है।
और तब सब कुछ
झूठा हो जाता
है।
तो
यह हो सकता है
कि तुम मनुष्य
से नीचे उतरकर
जानवर हो जाओ, तब
तुम मनुष्य से
ज्यादा
प्रामाणिक हो
जाओगे। लेकिन
तब तुम बहुत
कुछ गंवा दोगे,
परमात्मा
होने की संभावना
गंवा दोगे।
पशु परमात्मा
नहीं हो सकता;
क्योंकि
पशु के पास
अतिक्रमण
करने के लिए
समस्याएं
नहीं है।
स्मरण
रहे कि— पशु
परमात्मा
नहीं हो सकता, क्योंकि
उसके पास रूपांतरित
करने के लिए
कुछ नहीं है।
पशु अपने आपसे
तृप्त है।
उसको कोई
समस्या नहीं
है, संघर्ष
नहीं है;
इसलिए
अतिक्रमण की
बात ही नहीं
उठती। पशु
चेतन भी नहीं
है;
हालांकि वह
प्रामाणिक है।
पशु अचेतन रूप
से प्रामाणिक
है; उसकी
प्रामाणिकता
अचेतन है।
कोई
जानवर झूठ
नहीं बोल सकता
है। यह असंभव
है। ऐसा इसलिए
नहीं कि जानवर
नीति—नियम
पालन करता है।
जानवर इसलिए
झूठ नहीं बोल
सकता है कि
उसे इस संभावना
का पता ही
नहीं है कि
झूठ भी बोला
जा सकता है।
जानवर को
सच्चा रहना
पड़ता है।
लेकिन यह
सच्चाई उसका
चुनाव नहीं है; यह
उसकी मजबूरी
है। जानवर
सच्चा होने का
चुनाव नहीं
करता है। उसे
सच्चा होने के
अतिरिक्त कोई
विकल्प नहीं है।
वह वही हो
सकता है जो वह
है। उसके लिए
झूठा होने की
संभावना नहीं
है। उसे
संभावनाओं का
बोध भी नहीं
है।
मनुष्य
को इन
संभावनाओं का
बोध होता है।
इसलिए केवल
मनुष्य ही
झूठा हो सकता
है। यह प्रगति
है,
विकास है।
मनुष्य झूठा
हो सकता है, और इसीलिए
वह सच्चा भी
हो सकता है।
मनुष्य चुनाव
कर सकता है।
पशु सच्चा
होने को बाध्य
है। वह उसकी
मुक्ति नहीं,
दासता है।
अगर तुम सच्चे
हो तो वह
तुम्हारी
उपलब्धि है।
क्योंकि तुम
अगर चाहते तो
झूठे हो सकते थे,
तुम्हारे
झूठे होने की
संभावना खुली
थी, लेकिन
तुम ने उसका
चुनाव न करके
सच होने को चुना।
यह सचेतन
चुनाव है।
लेकिन
तब आदमी
कठिनाइयों
में पड़ सकता
है। चुनाव
करना सदा कठिन
है। मन उसे
चुनना चाहता
है जो सरल हो, जिसमें
सबसे कम
प्रतिरोध हो।
झूठ बोलना सरल
है; झूठा
होना सरल है।
प्रेमपूर्ण
दिखाई देना
सरल है; सचमुच
प्रेमपूर्ण
होना कठिन है।
मुखौटा
निर्मित करना
आसान है; आत्मा
निर्मित करना
बहुत कठिन है।
इसलिए आदमी
सरल को, आसान
को चुनता है; जिसे पूरा
करने में कोई
प्रयत्न न लगे,
कोई त्याग न
करना पड़े, वह
उसे चुनता है।
मनुष्य
के साथ
स्वतंत्रता
आती है। पशु
महज गुलाम है।
मनुष्य के साथ
स्वतंत्रता
और चुनाव
अस्तित्व में
आते हैं। और
उनके साथ—साथ
आती हैं
कठिनाइयां और
चिंताएं।
मनुष्य के साथ
असत्य भी आता
है,
झूठ भी आता
है। तुम धोखा
दे सकते हो।
यहां
तक यह एक
आवश्यक बुराई
है। मनुष्य वैसे
सरल और शुद्ध
नहीं हो सकता
जैसे पशु होते
हैं। मनुष्य
ज्यादा सरल और
शुद्ध हो सकता
है और वह ज्यादा
जटिल और
अशुद्ध हो
सकता है। वह
ज्यादा सरल, ज्यादा
निर्दोष हो
सकता है; लेकिन
वह पशुओं की
तरह सरल और
शुद्ध और
निर्दोष नहीं
हो सकता।
पशु
की निर्दोषता
अचेतन है, और
मनुष्य चेतन
हो गया है। वह
अब दो चीजें
ही कर सकता है।
वह अपने झूठ
को जारी रख
सकता है; और
इस तरह खंडित
रहकर वह सदा
अपने द्वंद्व
में जी सकता
है। या वह
पूरी घटना के
प्रति, जो
हुआ है और जो
हो रहा है, उसके
प्रति होश से
भर सकता है, और वह
निर्णय कर
सकता है कि झूठ
में नहीं जीना
है। वह सारे
झूठ को छोड़
सकता है। वह
त्याग कर सकता
है, झूठ से
मिलने वाले
लाभ का त्याग
कर सकता है।
तब वह फिर से
प्रामाणिक हो
जाता है।
पर अब यह
प्रामाणिकता
पशु की
प्रामाणिकता
से गुणात्मक
रूप से भिन्न
है। पशु अचेतन
है। उसके बस
में कुछ नहीं
है,
वह प्रकृति
के द्वारा
प्रामाणिक
होने को मजबूर
है।
लेकिन
मनुष्य
प्रामाणिक
होने का
निर्णय ले सकता
है। इसके लिए
उसे कोई मजबूर
नहीं कर सकता।
सच
तो यह है कि सब
कुछ—समाज, संस्कृति,
परिवेश—उसे
अप्रामाणिक
होने के लिए
मजबूर कर रहे
हैं। इसलिए
प्रामाणिक
होना उसका अपना
निर्णय है। यह
निर्णय
तुम्हें
आत्मा प्रदान
करता है, और
यह निर्णय
तुम्हें
स्वतंत्रता
देता है। यह
आत्मा, यह
स्वतंत्रता न
कोई पशु
प्राप्त कर
सकता है और न
झूठा आदमी ही
प्राप्त कर
सकता है।
स्मरण
रहे कि जब भी
तुम झूठ बोलते
हो,
धोखा देते
हो, या
बेईमानी करते
हो, तब तुम
वैसा करने को
बाध्य हो। वह
तुम्हारा
निर्णय नहीं
है—सच्चा
निर्णय नहीं
है। आखिर तुम
झूठ क्यों
बोलते हो? परिणाम
के भय के कारण,
समाज के
कारण तुम झूठ
बोलते हो। अगर
तुम सच—सच कह
दो तो तुम्हें
दुख भोगना पड़े।
तुम झूठ बोलकर
दु:ख से बच
जाते हो।
तो
असल में समाज
तुम्हें झूठ
बोलने को
मजबूर करता है; वह
तुम्हारा
अपना चुनाव
नहीं है।
लेकिन अगर तुम
सच बोलते हो
तो वह
तुम्हारा अपना
चुनाव है। कोई
तुम्हें सच
बोलने को
मजबूर नहीं कर
रहा है; उलटे
सब कुछ तुम पर
झूठ कहने के
लिए, बेईमान
होने के लिए
दबाव दे रहा
है। इसलिए झूठ
और बेईमानी
में सुविधा है,
सुरक्षा है।
तब तुम सत्य
चुनकर खतरा
मोल ले रहे हो।
लेकिन यह
तुम्हारा
चुनाव है। और
इस चुनाव के
साथ पहली बार
तुम आत्मवान
बनते हो।
तो
पशु और मनुष्य
की
प्रामाणिकता
में गुणात्मक
भेद है।
मनुष्य की
प्रामाणिकता
सचेतन चुनाव
से आई है।
बुद्ध प्रामाणिक
हैं,
और उस अर्थ
में वे पशु से
मिलते—जुलते
हैं—सिर्फ एक
भेद के साथ।
बुद्ध पशु की
भांति सरल, शुद्ध और
निर्दोष हैं;
लेकिन यह
भेद है कि वे
बोधपूर्ण हैं।
उनकी
प्रामाणिकता
बोधपूर्ण
चुनाव है; वे
सजग हैं, सावचेत
हैं।
प्रश्न
है : 'क्या इसका
यह अर्थ है कि
पश्चिम का
युवक अधिक
प्रामाणिक हो
रहा है?' एक
अर्थ में, हा।
वह ज्यादा
प्रामाणिक हो
रहा है; क्योंकि
वह पशु की ओर
झुक रहा है।
यह चुनाव नहीं
है, बल्कि
यह सरलतम उपाय
है—वापस गिर
जाना। पश्चिम
का युवक इस
अर्थ में पूरब
के युवक से ज्यादा
प्रामाणिक है
कि अब वह
पशुता में
ज्यादा गहरे
उतर रहा है।
पूरब का युवक
झूठा है; उसका
व्यवहार
सच्चा नहीं है,
बनावटी है,
नकली है।
लेकिन
केवल ये दो ही
विकल्प नहीं
हैं। पूरब का
युवक झूठा है, सुसंस्कृत
है, परिष्कृत
है, वह वह
होने को मजबूर
हुआ है जो वह
यथार्थत: नहीं
है। पश्चिम के
युवक ने इसके
खिलाफ बगावत
की है, और
वह बगावत पशु
की
प्रामाणिकता
के पक्ष में है।
यही
कारण है कि
सेक्स और
हिंसा ने
पश्चिम के युवकों
को अधिकाधिक
अपनी जकड़ में
ले लिया है।
एक तरफ से वे
ज्यादा
प्रामाणिक
हैं तो दूसरी तरफ
से वे एक बड़ी
संभावना चूक
रहे हैं।
बुद्ध
भी बगावत में
हैं और हिप्पी
भी बगावत में
हैं,
लेकिन
दोनों की
बगावत में
फर्क है। उनकी
गुणवत्ता
भिन्न है।
बुद्ध भी
संस्कारों के
खिलाफ बगावत
करते हैं, लेकिन
यह बगावत
संस्कारों के
पार ले जाती
है—उस एकता की
ओर ले जाती है
जो पशु और
मनुष्य दोनों
से ऊंची। तुम
विद्रोह करके
नीचे भी जा
सकते हो, पशु
हो सकते हो।
वह भी एकता म्
की ओर जाना है।
लेकिन यह एकता
मनुष्य से
निचले तल की
एकता है।
लेकिन
एक ढंग से यह
विद्रोह
अच्छा है, शुभ
है। क्योंकि
एक बार
विद्रोह की
बात मन में उठ
जाए तो वह दिन
दूर नहीं है
जब तुम समझ
लोगे कि यह
विद्रोह
प्रतिगामी है।
विद्रोह तो वह
चाहिए जो आगे
ले जाए।
पश्चिम का
युवक देर—अबेर
समझेगा कि
उसका विद्रोह
तो ठीक है, लेकिन
उसकी दिशा गलत
है। और तब
पश्चिम में एक
नई मनुष्यता
का जन्म संभव
हो जाएगा। इस
अर्थ में पूरब
का नकलीपन
किसी काम का
नहीं है।
प्रामाणिक
होना, बगावती
होना उससे बेहतर
है। बगावती मन
को यह जानने
में देर नहीं
लगती कि उसकी
दिशा गलत है।
लेकिन एक नकली
युवक सदियों
तक नकली बना
रह सकता है और
उसे पता भी
नहीं चलेगा कि
बगावत की और आगे
जाने की
संभावना है।
लेकिन
इन दोनों में
चुनाव करने
जैसा कुछ नहीं
है। तीसरा
विकल्प ही
मार्ग है।
मनुष्य को
संस्कार के
खिलाफ
विद्रोह करना
है,
और आगे जाना
है। अगर तुम
नीचे गिर जाओ
तो भी तुम्हें
विद्रोह करने
का सुख होगा।
लेकिन तब वह
विद्रोह
सृजनात्मक
नहीं, विध्वंसक
होगा। धर्म गहनतम क्रांति
है। लेकिन इस
पर तुम ने इस
ढंग से विचार
न किया होगा।
हम धर्म को सर्वाधिक
रूढ़ि की तरह
लेते हैं—पारंपरिक,
रूढ़। लेकिन
धर्म रूढ़ि
नहीं है, परंपरा
नहीं है। धर्म
मनुष्य की
चेतना में
सर्वाधिक क्रांतिकारी
तत्व है, क्योंकि
यह उस एकता की
ओर ले जाता है
जो पशु और मनुष्य
दोनों से ऊंची
है।
ये
विधियां उसी क्रांति
से संबंध रखती
हैं। इसलिए जब
शिव कहते हैं
कि प्रामाणिक
होओ तो उनका यही
मतलब है कि
नकली मत बनो, झूठे
मत बनो। अपने
झूठे
व्यक्तित्व
के प्रति, अपने
आवरणों और
मुखौटों के
प्रति सजग होओ
और प्रामाणिक
रहो। तुम जो
कुछ भी हो, पहले
उसको ठीक से
देख लो।
असली
समस्या यह है
कि तुम अपने
ही छलावों से
छले जाते हो।
तुम करुणा की
बात करते हो।
भारत में
करुणा की, अहिंसा
की बहुत चर्चा
होती है, यहां
हरेक आदमी
अपने को
अहिंसावादी
समझता है।
लेकिन अगर तुम
किसी के कामों
को देखो, उसके
संबंधों को, उसके उठने—बैठने
को देखो, तो
तुम पाओगे कि
वह हिंसा से
भरा है। लेकिन
उसे पता नहीं
है कि मैं
हिंसक हूं। वह
अपनी अहिंसा
में भी हिंसक
हो सकता है।
अगर वह दूसरों
को अहिंसक
होने के लिए
मजबूर करता है
तो वह हिंसक
है। अगर वह
खुद को भी
अहिंसक बनाने
के लिए जबरदस्ती
करता है तो वह
हिंसक है।
प्रामाणिक
होने का अर्थ
है कि तुम
समझो कि तुम्हारे
मन की यथार्थ
स्थिति क्या
है। विचार और
सिद्धात को
नहीं समझना है, मन
की स्थिति को
जानना है।
तुम्हारे मन
की स्थिति
क्या है? तुम
हिंसक हो? क्रोधी
हो? क्या
हो? जब शिव
प्रामाणिक
होने को कहते
हैं तो उनका
यही मतलब है।
जानो कि
तुम्हारी
असलियत क्या
है, तथ्य
क्या है।
क्योंकि केवल
तथ्य ही बदला
जा सकता है, कल्पना या
झूठ नहीं बदले
जा सकते। अगर
तुम्हें अपने
को रूपांतरित
करना है तो तुम्हें
अपनी असलियत
से परिचित
होना होगा।
तुम झूठ को
नहीं बदल सकते।
अगर
तुम हिंसक हो
और सोचते हो
कि मैं अहिंसक
हूं तो उस
हालत में
तुम्हारे रूपांतरण
की कोई
संभावना नहीं
है। जो अहिंसा
कहीं नहीं है, तुम
उसे बदल नहीं
सकते। और हिंसा
है, लेकिन
तुम उसके
प्रति बेहोश
हो। फिर उसे
कैसे बदल
सकोगे? इसलिए
पहले तथ्यों
को वैसे जानो
जैसे वे हैं।
तथ्यों
को कैसे जाना
जाए?
बिना किसी
व्याख्या के
तथ्यों को
देखो, उनका
साक्षात्कार करो।
यही कल के
सूत्र में कहा
गया था:
विमर्श करो ।
तुम्हारा
नौकर कमरे में
आया है, तुम
उसे कैसे
देखते हो, इस
पर विमर्श करो।
तुम्हारा
मालिक दफ्तर
में आया है; तुम उसे
कैसे देखते हो,
इस पर
विमर्श करो।
देखो कि जिस
निगाह से तुम
नौकर को देखते
हो, क्या
उसी निगाह से
मालिक को भी
देखते हो? क्या
तुम्हारी
निगाह वही है
या इसमें कोई
फर्क है?
अगर
कोई फर्क है
तो तुम हिंसक
आदमी हो। तुम
मनुष्य को
मनुष्य की तरह
नहीं देखते हो; तुम्हारी
दृष्टि में
व्याख्या है।
अगर वह धनवान
है तो तुम एक
ढंग से देखते
हो, और अगर
वह गरीब है तो
दूसरे ढंग से।
तुम्हारी
निगाह में
अर्थशास्त्र
होता है।
तुम्हारे ठीक
सामने जो आदमी
है तुम उसे
नहीं देखते, तुम उसके
बैंक बैलेंस
को देखते हो।
अगर तुम्हारे
सामने कोई
गरीब आदमी है
तो तुम्हारी
निगाह में
हिंसा भरी
रहती है, अपमान
रहता है, हिकारत
रहती है। धनी
आदमी के लिए
तुम्हारी
निगाह में
सराहना और
स्वागत होता
है। तुम जो भी
करते हो उससे
तुम्हारा
गहरा लगाव रहता
है, उसके
लिए तुम
फिक्रमंद
रहते हो।
तुम
जरा अपनी
फिक्र को तो
देखो। तुम
अपने बेटे या
बेटी से नाराज
हो और तुम कहते
हो कि मेरा
क्रोध उसके
हित में है, उसके
भले के लिए है।
इसमें जरा
गहरे उतरो और
परखो कि यह
बात कितनी सच
है। तुम्हारे
बेटे ने
तुम्हारी
आज्ञा नहीं
मानी है, और
तुम नाराज हो;
लेकिन तुम
कहते हो कि
मैं उसे उसके
हित में बदलना
चाहता हूं।
लेकिन भीतर
देखो और तथ्य
पर विचार करो।
क्या यह तथ्य
है कि तुम
उसके हित की
सोच रहे हो? या तुम उसकी
अवज्ञा के
कारण अपमानित
अनुभव करते हो?
सच
तो यह है कि
तुम्हें चोट
लगी है; क्योंकि
बेटे ने
तुम्हारी
आज्ञा नहीं
मानी है।
तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगी है, क्योंकि
बेटे ने
तुम्हारी
नहीं सुनी है।
तथ्य तो यह है
कि तुम्हारा
अहंकार आहत
हुआ है। और
तुम कह रहे हो
कि ऐसी बात
नहीं है। तुम
कहते हो कि
मैं अपने बेटे
की भलाई के
लिए क्रोध
करता हूं। यह
सिर्फ बेटे के
हित में किया
गया क्रोध है।
तुम कैसे
क्रोध कर सकते
हो! तुम तो
प्रेमपूर्ण
पिता हो, इसलिए
क्रोध कर रहे
हो। तुम अपने
बेटे को इतना
प्रेम करते हो
और चूंकि वह
गलत रास्ते पर
जा रहा है, इसलिए
प्रेम के कारण
क्रोध करके
तुम उसे बदलना
चाहते हो। तुम
कहते हो कि
मेरा क्रोध एक
अभिनय है।
लेकिन
क्या यह तथ्य
है?
क्या तुम
अभिनय कर रहे
हो? या तुम
इसलिए दुखी हो
कि बेटे ने
तुम्हारी आज्ञा
नहीं मानी?
क्या तुम्हें
इस बात का
पक्का भरोसा
है कि जो तुम
कहते हो या
करते हो वह
उसके हित में
है?
अपने
भीतर उतरो और
तथ्य का
निरीक्षण करो, तथ्य
पर विमर्श करो
और प्रामाणिक
होओ। यदि उसकी
अवज्ञा से
तुम्हें चोट
लगी है तो इस बात
को भलीभांति
जानना चाहिए,
स्वीकार
करना चाहिए।
इसको ही प्रामाणिकता
कहते हैं। और
तभी तुम अपने
को बदल सकते
हो। क्योंकि
तथ्य ही बदले
जा सकते हैं, झूठ नहीं।
जो कुछ भी तुम
कहते हो या
करते हो, उसका
निरीक्षण खूब
गहराई में उतरकर
करो। तथ्यों
को आंखें गड़ाकर
देखो; व्याख्या
और शब्दों को
उन्हें रंगने
मत दो।
इस
विमर्श से तुम
धीरे— धीरे
प्रामाणिक हो
जाओगे। और यह
प्रामाणिकता
पशु की नहीं, संत
की
प्रामाणिकता
होगी। जितना
ही तुम जानोगे
कि मैं कितना
कुरूप हूं जितना
ही जानोगे कि
मैं कितना
हिंसक हूं
जितना ही तुम
अपने भीतर
प्रवेश करके
तथ्यों को देखागॅ
और अपनी मूर्खताओं
को समझोगे, उतने ही तुम
जागरूक होते
जाओगे। यह
जागरूकता ही
काम देगी। तब
धीरे— धीरे
तुम्हारी
कुरूपता मुर्झाकर
मिट जाएगी।
अगर तुम अपनी
कुरूपता के
प्रति जागरूक
हो तो वह
कुरूपता नहीं
बचेगी।
लेकिन
यदि तुम चाहते
हो कि
तुम्हारी
कुरूपता बनी
रहे तो उससे आंखें
फेर लो, उसके
प्रति बेहोश
हो जाओ, और
अपने चारों ओर
सौंदर्य ही
सौंदर्य का
आवरण, दिखावा
खड़ा कर लो। तब
तुम्हें अपनी
कुरूपता का
प्रत्यक्ष
दर्शन नहीं
होगा। दूसरे
सब उसे
देखेंगे, लेकिन
तुम नहीं। और
यही समस्या है।
तुम्हारा
बेटा देखेगा
कि पिताजी
मेरे लिए नहीं,
बल्कि अपने
लिए नाराज हैं।
वे इसलिए
नाराज हैं कि
उनकी अवज्ञा
हुई है और उन्हें
चोट पहुंची है।
तुम्हारे
बेटे को यह
बात स्पष्ट
दिखाई देगी।
तुम अपनी
कुरूपता को
अपने से भला
छिपा लो, दूसरों
से नहीं छिपा
पाओगे।
तुम्हारा
चेहरा सबको
बता देगा कि
तुम हिंसा से
भरे हो। तुम
अपने को धोखा
दे सकते हो कि
मैं करुणा कर
रहा हूं।
यही
कारण है कि
हरेक आदमी
समझता है कि
मैं बहुत महान
व्यक्ति हूं
यद्यपि कोई
उससे राजी नहीं
होता है।
तुम्हारी
पत्नी तुमसे
राजी नहीं है
कि तुम महान
व्यक्ति हो।
तुम्हारे
बच्चे भी
तुमसे इस बात
पर राजी नहीं
हैं।
तुम्हारे
मित्र भी
तुमसे राजी
नहीं हैं।
रूस
में एक
लोकोक्ति है
कि अगर हर कोई
अपने मन की
बात पूरी की
पूरी प्रकट कर
दे तो सारी
पृथ्वी पर चार
मित्र भी नहीं
मिलेंगे।
असंभव हैं।
तुम्हारा
मित्र जो
तुम्हारे
बारे में
सोचता है वह
तुम्हें नहीं
बताता है।
इससे ही
मित्रता कायम
रहती है।
लेकिन वह तुम्हारी
पीठ पीछे सब
कुछ कहता है।
और तुम भी
उसकी पीठ पीछे
अपने मित्र के
संबंध में सब
कुछ कहते हो।
कोई एक—दूसरे
को सच्ची बात
इसलिए नहीं
कहता कि तब
मित्रता की
संभावना
समाप्त हो
जाएगी।
क्यों? क्यों
कोई तुम्हारे
साथ सहमत नहीं
है? कारण
यह है कि तुम
अपने को धोखा
दे सकते हो, लेकिन
दूसरों को
धोखा नहीं दे
सकते। सिर्फ
आत्म—प्रवंचना
संभव है। और
जब तुम सोचते
हो कि मैं
दूसरों को
धोखा दे रहा
हूं तो भी तुम
अपने को ही
धोखा दे रहे
हो। हो सकता
है कि दूसरे
तुम्हें धोखा
दें, हो
सकता है कि
तुम दूसरों को
धोखा दो, क्योंकि
कभी—कभी जान—बूझकर
धोखा खाना
सुविधाजनक
होता है। हो
सकता है कि
धोखा खाना उस
व्यक्ति के
लिए लाभदायक
हो।
तुम
किसी से अपनी
महानता की
चर्चा करते हो।
हर कोई
प्रत्यक्ष या
अप्रत्यक्ष
अपनी महानता
का बखान करता
है। तो कोई
व्यक्ति
तुम्हारे साथ
सहमत हो जा
सकता है कि
तुम महान हो।
अगर यह बात
उसके लाभ की
है तो वह
तुम्हें यह समझने
का भ्रम देगा
कि तुम उसे
धोखा दे रहे
हो। लेकिन वह
अपने भीतर
जानता है कि
तुम कौन हो।
तुम किसी को
तब तक धोखा
नहीं दे सकते
जब तक वह धोखा
खाने को राजी
न हो। लेकिन
यह और बात है।
प्रामाणिकता
से मेरा मतलब
है कि तुम
अपनी असलियत
को स्मरण रखो, कि
तुम असलियत को
व्याख्यओं
से बचाओ।
व्याख्याओं
से बाहर निकलो।
व्याख्याओं
को अलग करो और
सीधे इस तथ्य
को देखो कि
तुम क्या हो।
और डरो मत।
तुममें बहुत
कुछ कुरूप है।
अगर तुम डरोगे
तो उसे बदल न
पाओगे।
कुरूपता है तो
उसे स्वीकार
करो, उस पर
विमर्श करो।
विमर्श
का यही अर्थ
है : तथ्य को
उसकी समग्र नग्नता
में देखो।
उसके चारों
तरफ घूमो,
उसकी जड़ तक
जाओ। उसका
विश्लेषण
करो, देखो
कि वह कौन है, तुम उसकी सहायता
किस तरह करते
हो, किस
तरह तुम उसे
पोषण देते हो,
संरक्षण
देते हो और
देखो कि कैसे
वह बढ़कर बीज
से वृक्ष हो
गया है। अपनी
कुरूपता को, अपनी घृणा
और हिंसा को
कैसे मैंने
निर्मित किया
है, कैसे
उन्हें
विस्तार दिया
है, यह सब
देखो। उनकी
जड़ों को देखो।
उनकी समग्रता
में देखो।
और
शिव कहते हैं
कि अगर तुम
समग्रता से
विमर्श करो तो
तुम अपनी
कुरूपता से
तुरंत, इसी
क्षण मुक्त हो
सकते हो।
क्योंकि
तुमने ही उसे
पैदा किया है,
तुमने ही
उसे संरक्षण
दिया है, तुमने
ही उसे अपने
भीतर जडें
जमाने में मदद
की है। यह
तुम्हारा
सृजन है। तुम
उसे इसी क्षण
छोड़ सकते हो।
तुम इसी क्षण
उससे मुक्त हो
सकते हो। तब
उस पर दुबारा
नजर डालने की जरूरत
न रहेगी।
लेकिन
इसके पहले
तुम्हें उसे
जानना होगा कि
वह क्या है।
तुम्हें उसके
पूरे यंत्र को, उसकी
पूरी जटिलता
को जानना होगा।
और जानना होगा
कि कैसे क्षण—
क्षण तुम उसे
अपना सहयोग
देते हो।
यदि
कोई तुम्हारा
अपमान करता है
तो तुम्हारी प्रतिक्रिया
क्या होती है? क्या
तुमने कभी
सोचा है कि वह
व्यक्ति सही
भी हो सकता है?
नहीं सोचा
है तो सोचो।
देखो। वह सही
हो सकता है।
संभावना तो
यही है कि
तुम्हारे
संबंध में वह तुमसे
ज्यादा सही हो;
क्योंकि वह
तुमसे अलग है,
तुमसे दूर
है, वह
निरीक्षण कर
सकता है।
तो
प्रतिक्रिया
मत करो। रुको।
उसको कहो कि
तुमने जो कहा
है उस पर मैं
विमर्श करूंगा।
तुमने मेरा
अपमान किया, मैं
इस तथ्य पर
मनन करूंगा।
तुम सही भी हो
सकते हो। और
अगर तुम सही
निकले तो मैं
तुम्हें
धन्यवाद
दूंगा। मुझे
विमर्श करने
दो। यदि मैंने
पाया कि तुम
गलत थे तो मैं
तुम्हें खबर
कर दूंगा।
लेकिन
प्रतिक्रिया
मत करो।
प्रतिक्रिया
भिन्न बात है।
अगर तुम मेरा
अपमान करते हो
तो
प्रतिक्रिया
करने की बजाय
मैं तुमसे
कहूंगा : 'रुको।
सात दिन के
बाद फिर आओ।
तुमने जो कहा
है मैं उस पर
विमर्श
करूंगा। तुम
सही हो सकते
हो। मैं अपने
को तुम्हारी
जगह रखूंगा, और तब दूरी
से अपना
निरीक्षण
करूंगा। तुम
सही हो सकते
हो। इसलिए
मुझे तथ्य को
देखने दो। यह
तुम्हारी
कृपा थी कि
तुमने मुझे
बताया; मैं
उस पर विमर्श
करूंगा। और
यदि मुझे लगा
कि तुम ठीक थे
तो मैं
तुम्हें धन्यवाद
दूंगा। और यदि
तुम गलत निकले
तो मैं कह
दूंगा कि तुम
गलत हो।’ लेकिन
प्रतिक्रिया
की क्या जरूरत
है?
जब
तुम मेरा
अपमान करते हो
तो मैं क्या
करता हूं? मैं
भी तुरंत ही
तुम्हारा
अपमान कर देता
हूं। यह मेरी
प्रतिक्रिया
हुई। अपमान के
बदले अपमान।
लेकिन ऐसा
करके मैं
विमर्श से चूक
जाता हूं। और
स्मरण रहे कि
प्रतिक्रिया
कभी सही नहीं
हो सकती। अगर
तुम मेरा
अपमान करते हो
तो तुम मेरे
क्रोध की एक
संभावना पैदा
करते हो। और
जब मैं क्रोध
करता हूं तो
मैं होश में
नहीं हूं। मैं
तुम्हारे
संबंध में कोई
ऐसी बात कहता
हूं जिसे
मैंने कभी
सोचा भी नहीं
था। और यह भी
संभव है कि
अभी अपमान के
बदले में मैं
तुम्हारा
अपमान करूं और
अगले ही क्षण मुझे
इसके लिए
पश्चात्ताप
होने लगे।
तो
प्रतिक्रिया
मत करो।
तथ्यों पर
विमर्श करो।
और यदि विमर्श
समग्र है तो
तुम किसी भी
वृत्ति से
मुक्त हो सकते
हो। यह
तुम्हारे हाथ
की बात है।
वृत्ति है; क्योंकि
तुम उससे
चिपके हुए हो।
तुम चाहो तो
उसे इसी क्षण
छोड़ सकते हो।
और
स्मरण रहे, यह
दमन नहीं होगा।
जब किसी तथ्य
के प्रति तुम
विमर्श से
भरते हो तो
उसमें दमन
नहीं होता है।
या तो तुम उसे
पसंद करते हो
और जारी रखते
हो, और या
तुम उसे
नापसंद करते
हो और छोड़
देते हो।
दूसरा
प्रश्न :
पिछली
रात जिस विधि
की चर्चा हुई
उसके अनुसार
जब क्रोध,
हिंसा या
कामवासना का
उदय हो तो उस
पर विमर्श करना
चाहिए और तब अचानक
उसे छोडे देना
चलिए।
लेकिन
जब कोई यह
प्रयोग करता
है तो कभी— कभी
उलझन और
बेचैनी सी
अनुभव होती
है। इन
नकारात्मक
भावों के कारण
क्या हैं?
एक ही
कारण है, वह है
विमर्श का
समग्र न होना।
हरेक व्यक्ति
क्रोध को समझे
बिना क्रोध
छोड़ना चाहता
है। हरेक
व्यक्ति
कामवासना को
समझे बिना
कामवासना से
मुक्त होना
चाहता है।
लेकिन समझ के
बिना क्रांति
संभव नहीं है।
समझ के बिना
तुम अपनी
समस्याएं बढ़ा
लोगे, तुम
अपने दुख बढ़ा
लोगे।
छोड़ने
की बात मत
सोचो, सोचो कि
कैसे समझें।
छोड़ना नहीं, समझना है।
त्याग नहीं, बोध। किसी
चीज को छोड़ने
के लिए उस पर
सोच—विचार
करने की जरूरत
नहीं है, जरूरत
है उस चीज की
उसकी समग्रता
समझने की। अगर
तुमने
समग्रता से
समझ लिया तो
रूपांतरण उसका
परिणाम है।
यदि यह चीज
तुम्हारे लिए,
तुम्हारे
होने के लिए
शुभ है तो वह बढ़ेगी, और
यदि अशुभ है
तो वह
विसर्जित हो
जाएगी। तो असल
बात छोड़ना
नहीं है, असली
बात है समझना।
तुम
क्रोध को
क्यों छोड़ना
चाहते हो? क्यों?
क्योंकि
तुम्हें
सिखाया गया है
कि क्रोध बुरा
है। लेकिन
क्या तुमने भी
समझा है कि
क्रोध बुरा है?
क्या तुम
अपनी गहन
अंतर्दृष्टि
के जरिए इस वैयक्तिक
निष्पत्ति पर
पहुंचे हो कि
क्रोध बुरा है?
अगर तुम
अपनी ही आंतरिक
खोज के द्वारा
इस निष्पत्ति
पर पहुंचे हो
तो छोड़ने की
जरूरत नहीं
रहेगी; वह
चीज अपने आप
ही विदा हो
जाएगी। यह
जानना
पर्याप्त है
कि यह जहर है।
तब तुम दूसरे
ही आदमी हो।
लेकिन
तुम सोचे चले
जाते हो कि
छोडना है, त्याग
करना है। यह
इसलिए कि
दूसरे लोग
कहते हैं कि
क्रोध बुरा है,
और तुम उनसे
महज प्रभावित
हो गए हो।
नतीजा यह है
कि तुम सोचते
हो कि क्रोध
बुरा है, लेकिन
जब मौका आता है
तो क्रोध करने
से चूकते नहीं
हो। ऐसे ही एक
दोहरा चित्त
निर्मित होता
है; तुम
क्रोध में भी
होते हो और
सोचते हो कि
वह बुरा है।
यही अप्रामाणिकता
है। अगर तुम
सोचते हो कि
क्रोध बुरा है
और अगर तुम कहते
हो कि क्रोध
बुरा है, तो
समझने की
कोशिश करो कि
यह तुम्हारा निजी
बोध है या
किसी दूसरे व्यक्ति
ने ऐसा कहा है।
दूसरों
के कारण
प्रत्येक
आदमी अपने
इर्द—गिर्द
संताप इकट्ठा
कर रहा है।
कोई कहता
है
कि यह बुरा है, और
कोई कहता है
कि नहीं, यह
अच्छा है। और
ऐसे सब लोग अपने—अपने
विचार तुम पर
लाद रहे है।
मां—बाप यहीं
कर रहे है; समाज
यहीं कर रहा।
और तब एक दिन
तुम दूसरों के
विचारों के
गुलाम भर हो
जाते हो। और
तुम्हारा
स्वभाव और
दूसरों के
विचार तुम्हारे
भीतर विभाजन
पैदा कर देते
हैं, तुम स्कीजोफ्रेनिया
के, खंडित—चित्तता
के शिकार हो
जाते हो। तब
तुम करोगे कुछ,
और मानोगे
कुछ और ही।
कृत्य
और मान्यता के
इस विभाजन से
अपराध— भाव
पैदा होता है।
प्रत्येक
व्यक्ति
अपराधी अनुभव
करता है। ऐसा
नहीं है कि
प्रत्येक
व्यक्ति
अपराधी है, लेकिन
इस दोहरे
चित्त के कारण
हर आदमी
अपराधी अनुभव
करता है।
सब
कहते हैं कि
क्रोध बुरा है।
सबने तुमसे भी
यही कहा है।
लेकिन किसी ने
तुमको यह नहीं
बताया कि
क्रोध क्या है
और इसे कैसे
जानें। हर कोई
कहता है कि
कामवासना
बुरी है। लोग
सिखाए चले जा
रहे हैं कि
कामवासना
बुरी है।
लेकिन कोई यह
नहीं बताता कि
कामवासना
क्या है और
इसे कैसे
जानें।
यह
प्रश्न अपने
बाप से पूछो
और वह बेचैन
हो जाएगा, वह
कहेगा कि यह
प्रश्न मत
पूछो। वह
तुम्हें नहीं
बताएगा कि
कामवासना
क्या है, वह
तुम्हें नहीं
बताएगा कि तुम
संसार में कैसे
आए। वह खुद
कामवासना से
गुजरा है, अन्यथा
तुम पैदा ही
नहीं होते।
लेकिन अगर तुम
पूछोगे तो वह
बेचैन होगा, क्योंकि उसे
भी किसी ने
नहीं बताया है
कि कामवासना
क्या है। उसके
मां—बाप ने भी
उसे नहीं
बताया कि
कामवासना
बुरी क्यों है।
तुम्हें
कोई नहीं
बताएगा कि
कामवासना
क्या है, उसे
कैसे जाना जाए,
उसमें कैसे
गहरे उतरा जाए।
लोग इतना ही
कहते रहते हैं
कि फलां चीज
अच्छी है और
फलां चीज बुरी
है। और इसी लेबलिंग
से दुख पैदा
होता है, नरक
पैदा होता है।
तो
किसी भी साधक
के लिए, सच्चे
साधक के लिए
एक बात याद
रखने योग्य है,
एक
बुनियादी बात
समझने योग्य
है कि मुझे
सदा अपने
तथ्यों के साथ
जीना चाहिए।
उन्हें जानने
की चेष्टा करो।
समाज को अपना
आदर्श अपने
ऊपर मत लादने
दो। दूसरों की
आंखों से अपने
को मत देखो।
तुम्हें आंखें
हैं, तुम
अंधे नहीं हो।
और तुम्हारे आंतरिक
जीवन के तथ्य
तुम्हारे पास
हैं। आंखों को
काम में लाओ।
विमर्श का यही
अर्थ है। और
अगर विमर्श हो
तो यह समस्या
नहीं रह जाती।
लेकिन
विमर्श करते
हुए कोई कभी—कभी
उलझन और बेचैनी
महसूस कर सकता
है। अगर तुमने
तथ्यों को
नहीं समझा है
तो तुम्हें
बेचैनी मालूम
होगी।
क्योंकि यह
सूक्ष्म दमन
है। तुम पहले
से जानते हो
कि क्रोध बुरा
है। और मैं
तुमसे कहता
हूं कि इस पर
विमर्श करो तो
तुम विमर्श भी
इसलिए करते हो
कि उससे
छुटकारा मिले।
छुटकारे की बात
सदा तुम्हारे
मन में बनी
रहती है।
एक
के व्यक्ति, उनकी
उम्र साठ के
करीब होगी, मेरे पास आए
थे। वे बहुत
धार्मिक
किस्म के
व्यक्ति हैं;
धार्मिक ही
नहीं, किसी
किस्म के नेता
भी हैं। वे
बहुत लोगों के
गुरु हैं, और
उन्होंने
अनेक
पुस्तकें
लिखी हैं। वे
सदा नीति की शिक्षा
देते रहते हैं।
और अब साठ साल की
उम्र में मेरे
पास आकर कहते
हैं, आप ही
वह आदमी हैं
जिनसे मैं
अपनी असली
समस्या कह
सकता हूं
कामवासना से
मुक्ति कैसे
हो?'
और
मैंने उन्हें
कामवासना से
उत्पन्न होने
वाले दुखों पर
भाषण करते
सुना है।
उन्होंने इस
पर किताबें
लिखी हैं; और
अपने बेटे—बेटियों
को बहुत सताया
है।
यदि
तुम किसी को
सताना चाहते
हो तो नैतिकता
सबसे अच्छा और
सरल उपाय है।
उसके जरिए तुम
दूसरे
व्यक्ति में
अपराध— भाव
पैदा कर देते
हो। यह सबसे
सूक्ष्म
यातना है; ब्रह्मचर्य
की चर्चा करो
और तुरंत
अपराध— भाव
पैदा हो जाता।
कारण यह कि
ब्रह्मचारी
रहना बहुत
कठिन है; इसलिए
जब तुम
ब्रह्मचर्य
की चर्चा करते
हो तो दूसरा
जानता है कि
यह नहीं हो
सकता, और
वह अपराधी
अनुभव करता है।
इस
तरह अपराध—
भाव पैदा करके
तुम उसे सता
सकते हो।
तुमने दूसरे
आदमी को ओछा, पतित
बना दिया। अब
वह कभी चैन से
नहीं रहेगा।
वह कामवासना
में जीएगा
और अपने को
पापी समझता
रहेगा। वह सदा
ब्रह्मचर्य
की सोचेगा, उसका मन
ब्रह्मचर्य
का चिंतन
करेगा, और
उसका शरीर
कामवासना में जीएगा। और
तब वह अपने
शरीर का
विरोधी हो
जाएगा। तब वह
सोचेगा कि मैं
यह नहीं हूं
यह शरीर बहुत बुरी
चीज है। और एक
बार तुम ने
किसी के भीतर
अपराध— भाव
पैदा कर दिया
कि उसका मन
विषाक्त हो
जाता है, कि
वह बुझ जाता
है।
तो
वे वृद्ध
सज्जन आए और
उन्होंने
पूछा कि कामवासना
से कैसे मुक्त
हुआ जाए? मैंने
उनसे कहा कि
पहले तथ्य के
प्रति होशपूर्ण
बनें। और वे
काफी अवसर खो
चुके थे। उनकी
कामवासना अब
कमजोर पड़ चुकी
है; इसलिए
होश साधना
कठिन होगा। जब
कामवासना
बलवती होती है,
उद्दाम
होती है, युवा
होती है, तो
तुम उसके
प्रति आसानी
से होशपूर्ण
हो सकते हो।
तब वह इतनी
शक्तिशाली
होती है कि
उसे देखना, जानना और
महसूस करना
कठिन नहीं
होता है।
इस
साठ वर्षीय
आदमी को, जब वह
दुर्बल और
रुग्ण हो चला
है, अपनी
कामवासना के
प्रति सजग
होने में बहुत
कठिनाई होगी।
जब वे युवक थे
तब वे
ब्रह्मचर्य
की सोचते रहे।
उन्होंने
ब्रह्मचर्य
साधा नहीं
होगा; क्योंकि
उनके पांच
बच्चे हैं।
लेकिन वे
ब्रह्मचर्य
का चिंतन करते
रहे और अवसर
उनके हाथ से
चला गया।
मैंने
उनसे कहा कि
अपने उपदेशों
को भूल जाओ, अपनी
किताबें जला
दो। बिना
स्वयं जाने
किसी को
कामवासना के
संबंध में
उपदेश मत दो; स्वयं अपनी
कामवासना के
प्रति जागरूक
बनो। मैंने
उन्हें
जागरूक रहने
को कहा।
उन्होंने
कहा कि यदि
मैं जागरूक रहूं
तो कितने
दिनों में
कामवासना से
मुक्त हो जाऊंगा? मन
का यही ढंग है।
वे जानना भी
चाहते हैं तो
इसलिए कि काम
से छुटकारा हो।
मैंने उनसे
कहा कि जब आप
इसे नहीं
जानते हैं तो
आप कौन होते
हैं निर्णय
लेने वाले कि
कामवासना से
छुटकारा हो? आप इस
निष्पत्ति पर
कैसे पहुंचे
कि कामवासना
बुरी चीज है? कैसे तय हुआ?
क्या इसे
अपने भीतर
खोजने की
जरूरत नहीं है?
किसी
चीज को छोड़ने
की बात मत
सोचो। त्याग
का मतलब है कि
दूसरे
तुम्हें
मजबूर कर रहे
हैं। व्यक्ति
बनो। समाज को
अपने पर
आधिपत्य मत
करने दो।
गुलाम मत बनो।
तुम्हें आंखें
हैं। तुम्हें
चेतना है। फिर
तुम्हारी
कामवासना है, तुम्हारा
क्रोध है, तुम्हारे
दूसरे तथ्य है।
अपनी आंख का
उपयोग करो।
अपनी चेतना का
उपयोग करो।
ऐसा समझो कि
तुम अकेले हो,
कोई
तुम्हें
सिखाने वाला
नहीं है। तब
तुम क्या
करोगे?
आरंभ
से आरंभ करो; अ
ब स से शुरू
करो। तब भीतर
जाओ। न जल्दी
निर्णय लो और
न निष्पत्ति निकालो।
अगर तुम अपने
ही बोध से
किसी
निष्पत्ति पर
पहुंचे तो वह
निष्पत्ति
रूपांतरण
बनेगी। तब
तुम्हें कोई
असुविधा या
बेचैनी नहीं
होगी, तब
दमन नहीं होगा।
और तभी तुम
किसी चीज को
छोड़ सकते हो।
मैं
यह नहीं कहता
हूं कि छोड़ने
के लिए सजग
बनो। स्मरण
रहे,
मैं कहता
हूं कि अगर
तुम होशपूर्ण
रहे तो छुटकारा
हो जाएगा। होश
को कामवासना
छोड़ने के लिए
विधि की तरह
उपयोग न करो।
छूटना परिणाम
है। अगर तुम
होशपूर्ण हो
तो कोई भी चीज
छूट सकती है।
लेकिन छोड़ने
के लिए निर्णय
लेना जरूरी
नहीं है। हो
सकता है
तुम्हें
छोड़ने का खयाल
भी न आए।
कामवासना
है। अगर तुम
उसके प्रति
पूरे
होशपूर्ण हो
जाओ तो उसे
छोड़ने का
निर्णय नहीं
लेना पड़ेगा।
तब अगर पूरे
बोध से तुम
कामवासना में
रहने का निर्णय
लो तो
कामवासना का
अपना अलग
सौंदर्य होगा।
और अगर पूरे
बोध से तुम
उसे त्यागने
का निर्णय लो
तो तुम्हारे
त्याग का भी
सौंदर्य अलग
होगा।
मुझे
ठीक से समझने
की कोशिश करो।
बोध के साथ जो
भी घटित होता
है वह सुंदर
है,
और बोध के
बिना जो भी
घटित होता है
वह कुरूप है।
यही कारण है
कि तुम्हारे
तथाकथित
ब्रह्मचारी
बुनियादी रूप
से कुरूप होते
हैं। उनके जीवन
का पूरा ढंग
ही कुरूप होता
है। उनका
ब्रह्मचर्य
परिणाम के रूप
में नहीं आया है;
यह उनकी
अपनी खोज नहीं
है।
अब
डी एच. लारेंस
जैसे व्यक्ति
को देखो, उसका
कामवासना का
स्वीकार
सुंदर है।
तुम्हारे
ब्रह्मचारियों
के त्याग से
उसका स्वीकार
सुंदर है, क्योंकि
उसने कामवासना
को पूरे होश
से स्वीकारा
है। भीतरी खोज
के जरिए वह इस
निष्पत्ति पर
पहुंचा है कि
मैं कामवासना
के साथ जीऊंगा।
उसने तथ्य को स्वीकारा
है। इसमें कोई
अड़चन नहीं है,
कोई अपराध—
भाव नहीं है, बल्कि
कामवासना
गरिमापूर्ण
हो गई है।
अपनी
कामवासना को
पूरी तरह
जानने वाले, स्वीकार
करने वाले, उसे जीने
वाले डी .एच. लारेंस का
अपना ही
सौंदर्य है।
वैसे
ही तथ्य को
पूरी तरह
जानकर उसे
छोड़ने वाले
महावीर का भी
अपना सौंदर्य
है। लारेंस
और महावीर
दोनों सुंदर
हैं,
दोनों
सुंदर हैं।
लेकिन यह
सौंदर्य
कामवासना का
सौंदर्य नहीं है,
न कामवासना के
त्याग का है; यह सौंदर्य
बोध का
सौंदर्य है।
यह
बात भी सदा
याद रखने की
है कि तुम उसी
निष्कर्ष पर
नहीं पहुंच
सकते जिस पर
बुद्ध पहुंचे।
उसकी जरूरत भी
नहीं है। तुम
उस निष्पत्ति
पर भी नहीं
पहुंच सकते
जिस पर महावीर
पहुंचे। वह
अनिवार्य
नहीं है। यदि
कोई अनिवार्यता
है तो वह एक ही
है,
वह बोध की —
अनिवार्यता
है। जब तुम
पूरी तरह
बोधपूर्ण हो
तो जो कुछ
होता है वह
सुंदर है, दिव्य
है।
अतीत
के सिद्धों को
देखो। शिव
पार्वती के
साथ बैठे हैं; पार्वती
गहन प्रेम—मुद्रा
में शिव की
गोद में बैठी
हैं। तुम इस
मुद्रा में
महावीर की कल्पना
भी नहीं कर
सकते—असंभव है।
इस मुद्रा में
बुद्ध की कभी
कल्पना भी
नहीं हो सकती
है। क्योंकि
राम सीता के
साथ खड़े हैं, इसलिए जैन
उन्हें अवतार
मानने के लिए
राजी नहीं हैं।
वे कहते हैं
कि वे अब भी
स्त्री के साथ
हैं!
जैन
राम को अवतार
की तरह सोच ही
नहीं सकते, इसलिए
वे उन्हें महामानव
कहते हैं, अवतार
नहीं। वे महामानव
हैं; लेकिन
मानव ही।
क्योंकि
स्त्री है!
स्त्री के
रहते हुए तुम मनुष्य
के पार नहीं
जा सकते, अर्धांगिनी
जब तक है तब तक
तुम मनुष्य ही
हो। जैन कहते
है कि राम
महापुरुष थे,
उससे अधिक
नहीं।
अगर
तुम हिंदुओं
से पूछो तो
उन्होंने
महावीर की
चर्चा तक नहीं
की है, उन्होंने
अपने
शास्त्रों
में महावीर के
नाम का भी
उल्लेख नहीं
किया है।
हिंदू—चित्त
कहता है कि
स्त्री के
बिना पुरुष
अधूरा है, अखंड
नहीं। राम
अकेले
संपूर्ण नहीं
हैं; इसलिए
हिंदू सीताराम
कहते हैं। और
वे स्त्री को
पहले रखते हैं;
वे कभी रामसीता
नहीं कहते। वे
सीताराम
कहते हैं, वे
राधाकृष्ण
कहते हैं। और
एक बुनियादी
कारण से वे
स्त्री को
पहले रखते हैं।
कारण है कि
पुरुष भी
स्त्री से
जन्म लेता है,
और वह आधा
है; स्त्री
के साथ वह
पूर्ण हो जाता
है।
इसलिए
कोई हिंदू
देवता अकेला
नहीं है; उसकी
अर्धांगिनी
उसके साथ है। सीताराम
पूर्ण हैं, वैसे ही
राधाकृष्ण
पूर्ण हैं।
कृष्ण अकेले
आधे हैं। राम
के लिए सीता
को छोड़ना
जरूरी नहीं है।
कृष्ण के लिए
राधा को छोड़ना
जरूरी नहीं है।
क्यों? वे
पूरे बोध को
उपलब्ध लोग
हैं। शिव से
अधिक
बोधपूर्ण, शिव
से अधिक
होशपूर्ण
व्यक्ति और
कहा मिलेगा? लेकिन वे
पार्वती को
गोद में लेकर
बैठे हैं।
इससे समस्या
खड़ी होती है।
कौन सही है? बुद्ध सही
हैं या शिव
सही हैं?
समस्या
इसलिए पैदा
होती है
क्योंकि हम
नहीं जानते
हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
निजी ढंग से
खिलता है।
बुद्ध और शिव
दोनों पूर्ण
रूप से जाग्रत
पुरुष हैं।
लेकिन ऐसा
होता है कि
बुद्ध इस
पूर्ण बोध में
कुछ छोड़ देते
हैं। यह उनका
चुनाव है। शिव
अपने पूर्ण
बोध में सब
कुछ स्वीकार
कर लेते हैं। जहां
तक ज्ञान का, बुद्धत्व
का सवाल है, दोनों एक ही
शिखर पर हैं।
लेकिन उनकी
अभिव्यक्ति
भिन्न—भिन्न
होगी।
तो
किसी ढांचे
में मत पड़ो।
कोई नहीं
जानता है कि
तुम जब बोध को
उपलब्ध होगे
तो क्या होगा।
बुद्धत्व के
पहले मत
निर्णय लो कि
यह छोड़ना है
कि वह छोड़ना
है। निर्णय ही
मत लो। कोई
नहीं जानता है।
प्रतीक्षा
करो।
बोधपूर्ण होओ
और अपने फूल
को खिलने
दो। कोई नहीं
जानता है कि
क्या होगा।
प्रत्येक के
फूल खिलने
की संभावना
अलग और अज्ञात
है। और
तुम्हें किसी
का अनुगमन
नहीं करना है, क्योंकि
अनुगमन
खतरनाक है, विध्वंसक है।
सब अनुकरण
आत्मघात है।
प्रतीक्षा
करो!
ये
सारी विधियां
तुम्हारे बोध
को जगाने के
लिए हैं। और
जब तुम
बोधपूर्ण हो
जाओ तो तुम
छोड़ सकते हो
या जारी रख
सकते हो। जब
तक जागे नहीं
हो तब तक जो हो
रहा है उसे
स्मरण रखो, उसे
देखो। तुम उसे
न सहज स्वीकार
कर सकते हो और
न छोड़ सकते हो।
तुम्हें
कामवासना है।
तुम न इसे
पूरी तरह
स्वीकार करके
भूल सकते हो और
न उसे छोड़ सकते
हो। मैं कहता
हूं कि या तो
इसे स्वीकार
कर लो और भूल
जाओ,
या फिर छोड़
ही दो और भूल
जाओ। लेकिन
तुम इन दोनों
में से एक
नहीं करोगे, तुम सदा
दोनों करोगे।
तुम स्वीकार
करोगे और फिर
छोड़ने की
सोचोगे। यह दुश्चक्र
है। जब भी तुम
कामवासना में उतरते
हो तो फिर कुछ
घंटों के लिए
या कुछ दिनों
के लिए उसे
त्यागने की सोचते
हो। लेकिन सच
में तुम क्या
कर रहे हो? तुम
सिर्फ फिर से
शक्ति इकट्ठी
कर रहे हो। और
जब शक्ति इकट्ठी
कर लोगे तो
तुम फिर
कामवासना में
उतरने की
सोचोगे।
और
यह सिलसिला
जीवन भर चलेगा।
यही सिलसिला अनेक
जन्मों से
चलता रहा है।
लेकिन जब तुम
पूरे बोध को
उपलब्ध होकर
स्वीकार
करोगे तो उस
स्वीकार में
सौंदर्य होगा।
और तब अगर
त्याग करोगे
तो उस त्याग
में भी सौंदर्य
होगा।
एक
बात निश्चित
है कि जब तुम
जागरूक होते
हो तो भूल
सकते हो, दोनों
ढंग से भूल
सकते हो। तब
यह समस्या
नहीं रहेगी। तब
तुम्हारा
निर्णय समग्र
है, और
समस्या गिर
जाती है।
लेकिन अगर
तुम्हें
बेचैनी महसूस
होती है तो उसका
अर्थ है कि
तुमने विमर्श
नहीं किया है,
कि तुम
जागरूक नहीं
हो। इसलिए
अधिकाधिक
जागरूक होओ।
किसी भी तथ्य
पर ज्यादा
गहराई से, ज्यादा
वैयक्तिक ढंग
से, दूसरों
की निष्पत्ति
को बीच में
लाए बिना
विमर्श करो।
तीसरा
प्रश्न :
जब
कोई वृत्ति
प्रामाणिक
होती है तब
मैं बेहोश
होता हूं। तो
इसमें रुकने
का प्रयोग मैं
कैसे कर सकता
हूं?
यह
बहुत
महत्वपूर्ण
प्रश्न है। जब
तुम झूठे हो
तो किसी चीज
को रोकना आसान
है,
लेकिन जब
तुम सच्चे हो तो
रोकना कठिन
होता है। जब
क्रोध सच्चा
होगा तो तुम
रुकने की विधि
भूल जाओगे। और
अगर क्रोध
झूठा होगा तो
तुम्हें विधि
याद रहेगी और
तुम उसका
उपयोग भी
करोगे, लेकिन
झूठे क्रोध
में विधि का
उपयोग कोई
अर्थ नहीं
रखता है। जहां
ऊर्जा नहीं है
वहा रुक तो
सकते हो, लेकिन
यह रुकना
व्यर्थ होगा।
जब क्रोध
सच्चा हो तो
उसमें ऊर्जा
होती है; और
उस हालत में
रुकने पर
ऊर्जा भीतर की
ओर मुड़ती
है।
तो
क्या किया जाए? होश
साधने की
चेष्टा करो।
सीधे क्रोध से
मत शुरू करो, आसान चीजों
से शुरू करो।
तुम चल रहे हो,
उसके प्रति
होश रखो।
क्रोध से मत शुरू
करो, छोटी—छोटी
चीजों से शुरू
करो। अपने
चलने के प्रति
सजग होने में
कोई समस्या नहीं
है। और चलते —चलते
अचानक रुक जाओ।
आसान चीजों से
शुरू कर जटिल
चीजों पर जाओ।
जटिल चीजों से
शुरू मत करो; कामवासना पर
तुरंत मत
छलांग लगाओ।
यह जरा
सूक्ष्म है, और उसके लिए
गहरे बोध की
जरूरत पड़ेगी।
तो
पहले हलकी
चीजों के साथ
होश साधो। तुम
चल रहे हो, तुम
स्नान कर रहे
हो, तुम्हें
प्यास लगी है,
तुम्हें
भूख लगी है—ऐसी
चीजों से शुरू
करो। ये
मामूली चीजें
हैं। तुम किसी
से कुछ कहने
जा रहे हो, रुक
जाओ, वाक्य
के बीच में ही
रुक जाओ। तुम
कोई कहानी
कहने जा रहे
थे जिसे तुम
हजार बार कह
चुके हो; हर
आदमी उसे सुन—सुनकर
ऊब चुका है।
और तुम फिर
कहते हो, 'एक
था राजा.....', वहीं
रुक जाओ।
सरल
चीजों से शुरू
करो,
इससे भी सरल
चीजों से शुरू
करो।
तुम्हारे सिर
पर एक मक्खी
बैठी है, और
तुम उसे हाथ
से उड़ाने
जा रहे हो; वहीं
रुक जाओ।
मक्खी जहां है
वहीं रहे, और
तुम्हारा हाथ
भी जहां का
तहां रुक जाए।
छोटी चीजों के
साथ प्रयोग
करो, ताकि
तुम्हें सजगता
के साथ रुकने
का एहसास हो
सके। और तब
जटिल चीजों पर
जा। क्रोध
बहुत जटिल चीज
है। उसकी बजाय
किसी
यांत्रिक चीज
को लो।
तुम
हर रोज सुबह
बिस्तर से
उठते हो। क्या
तुमने देखा कि
हर रोज तुम एक
ही ढंग से बिस्तर
से निकलते हो? यदि
तुम्हारा
दाहिना पांव
पहले निकलता
है तो यही रोज
होता है। कल सुबह
जब दाहिना
पांव निकलने
लगे तो रुक
जाओ और उसकी
जगह बाएं पाँव
को पहले निकलने
दो। आसान
चीजों से आरंभ
करने में एक
आदत के सिवाय
कुछ नहीं
त्यागना है। यदि
तुम चलने के
समय सदा
दाहिना पांव
पहले आगे
बढ़ाते हो तो
अगली बार उसे
आगे बढ़ाते हुए
रुक जाओ।
किसी
भी चीज से काम
चलेगा। कोई भी
सरल चीज खोज
लो। जितनी चीज
सरल होगी उतना
अच्छा। जब तुम
आसान चीजों
में निष्णात
हो जाओगे और
अचानक रुकना
सरल हो जाएगा, और
जब तुम्हें
उसमें होश का
एहसास होने
लगेगा, तब
तुम्हारे
भीतर थोड़ी देर
को एक मौन, एक
शाति का
विस्फोट होगा।
वह आंतरिक
शाति होगी।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को ऐसी ही
आसान चीजों के
द्वारा
प्रशिक्षित
करता था। जैसे, जब
तुम कुछ कहते
हो तो सिर
हिलाते हो।
गुरजिएफ कहता
था कि इस बार
जब कुछ कहो तो
सिर मत हिलाओ।
सिर हिलाना एक
यांत्रिक आदत
है। मैं जब
कुछ कहता हूं
तो हाथ की एक
मुद्रा बनाता
हूं। गुरजिएफ
कहता कि यह
बात बोलते समय
इसका ध्यान
रखो कि यह
मुद्रा न बने।
कोई और मुद्रा
तुम बना सकते
हो; लेकिन इतना
स्मरण रहे कि
यह बात कहते
समय यह मुद्रा
मत बनाओ। इतनी
सावधानी
बरतनी है।
किसी
भी चीज से
चलेगा। तुम
बातचीत शुरू
करते हो तो एक
विशेष वाक्य से
शुरू करते हो।
उससे मत शुरू
करो। कोई
दूसरा आदमी
तुम्हें कुछ
कहता है, तुम
उसे यांत्रिक
ढंग से
प्रत्युत्तर
देते हो। उस
ढंग से
प्रत्युत्तर
मत दो, उसकी
जगह कुछ और
कहो। या अगर
पुरानी चीज ही
कहने लग गए तो
बीच में ही रुक
जाओ। और एक
झटके के साथ, अचानक रुक
जाओ। और जब
तुम धीरे—धीएर
इस विधि में
निष्णात हो
जाओ तो जटिल
चीजों को हाथ
में लो।
मन
की बुनियादी चालाकियों
में एक यह है
कि वह सदा
जटिल चीजों पर
छलांग लगाता
है। और उसे
उसमें विफलता
मिलती है। और
तब तुम फिर
कभी प्रयोग
नहीं करोगे।
तुम जानते हो, यह
होने वाला
नहीं है। यह
मन की चालाकी
है। मन कहेगा
कि अच्छा, तुम
तो जानते ही
हो कि क्रोध
में रुकने का
प्रयोग सफल
नहीं होगा। तब
तुम दुबारा प्रयोग
नहीं करोगे।
इसलिए तीव्र
चीजों के साथ
प्रयोग करने
की बजाय
मद्धिम चीजों
के साथ प्रयोग
करो। और जब
मद्धिम चीजों
के साथ प्रयोग
कर लो तो फिर
तीव्र चीजों
की ओर बढो।
धीरे— धीरे
कदम बढ़ाकर
मार्ग का
अनुभव लो।
जल्दी मत करो।
अन्यथा कुछ भी
नहीं होगा।
अंतिम
प्रश्न :
विज्ञान
भैरव तंत्र की
अनेक ध्यान—
विधियों के
संबंध में
सुनकर मैं यह
महसूस करने
लगा हूं कि
आंतरिक द्वार
असल में
विधियों से
नहीं खुलता है; असल
में तो वह
दीक्षा, गुरु—
कृपा जैसी
चीजों पर
निर्भर करता
है। क्या यह
सही की नही है?
और कब कोई
दीक्षा का
पात्र बनता है?
सच तो यह
है कि गुरु—कृपा
भी एक विधि है।
सिर्फ शब्दों
को बदलने से
कुछ नहीं
बदलता
है। गुरु—कृपा
का अर्थ है
समर्पण। गुरु—कृपा
तब मिलती है
जब तुम समर्पण
करते हो। और
समर्पण एक
विधि है। अगर
तुम समर्पण करना
नहीं आता कृपा
नहीं प्राप्त
होगी।
असल
में कृपा दी
नहीं जाती, ली
जाती है। कोई
उसे दे नहीं
सकता; लेकिन
उसे लिया जा
सकता है। बुद्धपुरुष
से कृपा बहती
है। कृपा उसका
स्वभाव है।
जैसे दीया
जलता है तो
उससे प्रकाश
झरता है, वैसे
ही बुद्धपुरुष
से कृपा झरती
है। उसे
प्रयत्न नहीं
करना पड़ता है;
कृपा उससे
अनायास बहती
है। वह है।
अगर उसे पा
सको तो पा लो।
और अगर नहीं
पा सको तो बात
खतम।
यह
बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ती है, लेकिन
यह सच है।
गुरु—कृपा
देता नहीं है,
लेकिन
शिष्य उसे पा
लेता है।
लेकिन शिष्य
कैसे हुआ जाए?
यह भी फिर
एक विधि है।
समर्पण कैसे
किया जाए? ग्राहक
कैसे हुआ जाए?
समर्पण
करना
सर्वाधिक
कठिन है। जब
तुम अपना
क्रोध
समर्पित नहीं
कर सकते, दुख
समर्पित नहीं
कर सकते, तो
अपने
अस्तित्व को
कैसे समर्पित
करोगे? जब
व्यर्थ की
चीजें नहीं
समर्पित कर
सकते, जब
रोग जैसी चीज
नहीं दे सकते,
तो अपने को
कैसे समर्पित
करोगे?
समर्पण
का अर्थ है
समग्र समर्पण।
तुम अपने को
समग्रत: अपने
गुरु के हाथ
में छोड़ देते
हो। तुम कहते
हो: 'अब मैं नहीं
हूं अब आप ही
हैं; आप जो
चाहें करें।’
और यह कहकर
जब तुम
प्रतीक्षा
करते हो, जब
तुम फिर उसके
पास यह पूछने
को नहीं जाते
कि अब आप क्या
करेंगे, तब
तुमने सच में
समर्पण किया।
तुम तो समाप्त
हो गए; अब
पूछने को कुछ
भी नहीं रहा।
जब ठीक क्षण
आएगा तो बात
हो जाएगी।
लेकिन यह कैसे
हो?
इसके
लिए भी बहुत
सजगता की
जरूरत पड़ेगी।
सामान्यत: कई
कु सोचते हैं
कि समर्पण
बहुत आसान है।
ऐसा सोचना मूढ़ता
है। वे सोचते
हैं कि तुम गए
और गुरु के पैर
छू आए और
समर्पण हो गया।
समर्पण
में पैर छूना
हो सकता है, लेकिन
सिर्फ पैर छू
लेने से
समर्पण हो गया
ऐसा मत सोचना।
समर्पण एक आंतरिक
भाव—दशा है।
इसमें अपने को
मिटाना है, अपने को
पूरी तरह पोंछ
देना है। केवल
गुरु होता है,
तुम नहीं
होते। बस गुरु
होता है।
इसके
लिए भी बहुत
होश की जरूरत
है,
बड़ी सजगता
की। और यह
सजगता क्या है?
वह सजगता तब
आती है जब तुम
विधियों का
प्रयोग करते
हो और सतत यह
अनुभव करते हो
कि मैं असहाय हूं।
लेकिन प्रयोग
करने के पहले
ही अपने असहाय
होने का
निर्णय मत लो।
वह गलत निर्णय
होगा। पहले
विधियों का प्रयोग
करो, और
प्रामाणिकता
से प्रयोग करो।
यदि विधियों
से ही काम चल
गया तो समर्पण
की जरूरत नहीं
होगी; तब
तुम
रूपांतरित हो
जाओगे।
अगर
तुम
प्रामाणिक
रूप से प्रयोग
करते हो, सच
में और
समग्रत:, अगर
तुम अपने को
धोखा नहीं
देते हो और
इसके बावजूद
कुछ नहीं होता
है, तब तुम्हें
असहाय होने का
अनुभव होगा, तब तुम
अनुभव करोगे
कि मैं कुछ भी
नहीं कर सकता
हूं। अगर यह
भाव गहरा चला
जाए, असहायता
का यह भाव, तभी
तुम समर्पण के
योग्य होगे।
उसके पहले
नहीं।
क्या
तुम असहाय
अनुभव करते हो? कोई
असहाय नहीं
अनुभव करता है।
कोई नहीं समझता
है कि मैं
असहाय हूं।
हरेक आदमी
मानता है कि
मैं यह कर
सकता हूं यदि मैं
चाहूं
तो
कर सकता हूं।
हरेक आदमी
सोचता है कि
क्योंकि मैं
नहीं चाहता
हूं इसलिए
नहीं करता हूं
यदि चाहूं तो
जरूर कर लूंगा, जिस
क्षण चाहूंगा
उसी क्षण कर
लूंगा। न करने
का इतना ही कारण
है कि मैं अभी नहीं
करना चाहता
हूं। लेकिन
कोई व्यक्ति
असहाय नहीं
अनुभव करता हे।
लेकिन
अगर कोई कहे
कि गुरु—कृपा
से घटना घट
सकती है तो
तुम सोचोगे कि
मैं इसी क्षण
उसके लिए
तैयार हूं। जब
कुछ करने का
सवाल उठता है
तो तुम कहते
हो कि जब मैं
चाहूंगा तब कर
लूंगा। और जब
कृपा से मिलने
का सवाल उठता
है तब तुम
कहते हो कि
अगर दूसरे की
कृपा से मिलता
हो तो मैं इसी
क्षण लेने को
तैयार हूं।
तुम
असहाय नहीं हो; तुम
महज आलसी हो।
और दोनों
बातों में
बहुत फर्क है।
आलस्य में
कृपा नहीं
मिलती है; केवल
असहायावस्था
में मिलती है।
असहायावस्था
आलस्य नहीं है।
असहायावस्था
केवल उन्हें
प्राप्त होती
है जो पहुंचने
के लिए सब
प्रयत्न पहले
कर चुकते
हैं, सब
प्रयास कर चुकते
हैं। तब तुम
असहाय अनुभव
करते हो। और
तभी तुम किसी
के प्रति
समर्पित हो
सकते हो। और
तब तुम्हारा
समर्पण एक
विधि बन जाएगा।
समर्पण
अंतिम विधि है; लेकिन
लोग उसका
प्रयोग पहले
करते हैं। यह
अंतिम है, आत्यंतिक
है। जब करने
से कुछ नहीं
होता है, जब
असहायावस्था
के अतिरिक्त
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता है,
जब
तुम्हारी
सारी आशा मिट
जाती है और
तुम्हारा
अहंकार धूल—
धूसरित हो
जाता है, तब
तुम जानते हो
कि मुझसे
अकेले कुछ
नहीं होगा। तब
तुम्हारे हाथ
गुरु के चरणों
की ओर बढ़ते हैं।
यह बढ़ना और
ढंग का है। तब
तुम असहाय
होकर, बेसहारा
होकर गुरु को
खोजते हो। तब
तुम पूरे
प्राणों से
गुरु के चरणों
में बैठते हो।
तब तुम कृपा
पाने के लिए
गर्भ बन जाते
हो। तब प्रसाद
उपलब्ध होता
है।
प्रसाद
तो सदा उपलब्ध
रहा है; वह
सदा उपलब्ध है।
सभी युग में, सभी काल में बुद्धपुरुष
हुए हैं, होते
रहे हैं।
लेकिन जब तक
तुम अपने को
खोने को राजी
नहीं होगे तब
तक उनके
संपर्क में न
आ सकोगे। हो
सकता है, तुम
उनके ठीक पीछे
या बगल में
बैठे होओ, लेकिन
संपर्क नहीं
होगा।
दूरियां तीन
किस्म की होती
हैं। एक तो
स्थान की दूरी
है। तुम वहा
बैठे हो और
मैं यहां बैठा
हूं और इन दो बिंदुओं
के बीच दूरी
है। यह स्थान
की दूरी है।
तुम नजदीक सरक
आओ तो दूरी कम
हो जाएगी। और
यदि तुम मुझे
छू लो तो दूरी
समाप्त हो गई—लेकिन
केवल स्थान की
दूरी समाप्त
हुई।
दूसरी
दूरी समय की
दूरी है।
तुम्हारा
प्रेमी मर गया
है,
तुम्हारा
मित्र चल बसा
है। स्थान में
एक बिंदु पूरी
तरह लापता हो
गया है। लेकिन
तुम अनुभव
करोगे कि समय
में तुम मित्र
के निकट ही हो।
आंखें बंद करो
और मित्र को
पास पाओगे। और
हो सकता है कि
कोई व्यक्ति
तुम्हारे
बिलकुल बगल
में बैठा हो
और वह समय में
तुमसे, तुम्हारे
दिवंगत
प्रेमी से दूर
पड़ता हो।
तीसरी
दूरी है, वह
प्रेम की दूरी
है। प्रेमी मर
गया है; धीरे—
धीरे उससे भी
समय की दूरी
पैदा हो जाएगी।
लोग कहते हैं
कि समय सब
भुला देता है।
लोग कहते हैं
कि समय से सब
घाव भर जाते
हैं। जब समय
की भी दूरी
लंबी हो जाती
है तो स्मृति धुंधली
होती—होती मिट
जाती है।
लेकिन प्रेम
की दूरी समय
के भी पार है।
वह तीसरा आयाम
है। अगर तुम
किसी को प्रेम
करते हो और वह
अन्य किसी
ग्रह पर रहता
है तो भी
प्रेम में वह
तुम्हारे पास
ही होगा। हो
सकता
है,
वह मर गया
हो और तुम
दोनों के बीच
सदियों की दूरी
पैदा हो गई हो;
लेकिन
प्रेम में कोई
दूरी नहीं है।
तो
बुद्ध के पास
कोई अभी हो
सकता है।
पच्चीस सौ
वर्षों का कोई
अर्थ नहीं है; क्योंकि
दूरी प्रेम की
है। स्थान में
बुद्ध नहीं
हैं; शरीर
जा चुका। समय
में पच्चीस सौ
वर्षों की
दूरी है।
लेकिन प्रेम
में कोई दूरी
नहीं है। अगर
कोई बुद्ध के
प्रेम में है
तो समय और
स्थान की दूरियां
मिट जाएंगी।
तब बुद्ध यहां
और अभी हैं।
और तुम्हें
उनका प्रसाद
मिल सकता है।
और
तुम बुद्ध के
बगल में ही
बैठे हो सकते
हो। जहां तक
स्थान का
संबंध है, कोई
अंतराल नहीं
है। समय में
भी कोई अंतराल
नहीं है।
लेकिन अगर
प्रेम नहीं है
तो दूरी अनंत
है। इसलिए हो
सकता है कि
कोई बुद्ध के
समय में उनके
साथ रहकर भी
उनके संपर्क
में न रहा हो, और कोई यहां
और अभी उनके
संपर्क में हो
सकता है।
प्रसाद
प्रेम के आयाम
में घटता है।
प्रेम में सब
कुछ सदा
शाश्वत रूप से
मौजूद है।
इसलिए यदि तुम
प्रेम में हो
तो प्रसाद घट
सकता है।
लेकिन प्रेम
समर्पण है।
प्रेम का अर्थ
है कि दूसरा
तुम से ज्यादा
महत्वपूर्ण
हो गया। अब
तुम दूसरे के
जीवन के लिए
अपना जीवन दे
सकते हो।
दूसरा जीए
इसके लिए तुम
अपने को
निछावर कर
सकते हो।
दूसरा
तुम्हारा
केंद्र बन गया
है। तुम महज
परिधि हो।
धीरे— धीरे
तुम पूरी तरह
विलीन हो जाते
हो,
और दूसरा ही
रहता है। उस
सम्यक क्षण
में प्रसाद
उपलब्ध होता
है।
तो
यह मत सोचो कि
कोई गुरु
तुम्हें
प्रसाद दे सकता
है। बस एक
असहाय शिष्य
बनने की सोचो, जो
प्रेम में
पूरी तरह
समर्पित हो।
गुरु
तुम्हारे पास
आएगा। जब
शिष्य तैयार
है तो गुरु
सदा आता है।
यह शारीरिक
उपस्थिति का
सवाल नहीं है।
जब तुम तैयार
हो तो प्रेम
के किसी अशांत
आयाम से
प्रसाद उतरता
है।
लेकिन
प्रसाद को
पलायन के रूप
में मत सोचो। चूंइक मैं
अनेक विधियों
पर बोलता हूं
इसलिए दो
संभावनाएं
हैं। तुम
उनमें से कुछ
पर प्रयोग कर
सकते हो, या
तुम उलझन में
पड़ सकते हो, भ्रांत हो
सकते हो।
दूसरी बात
ज्यादा संभव
है। एक के बाद
एक, सतत एक
सौ बारह
विधियों को
सुनते —सुनते
तुम उलझन में
पड़ जाओगे। तुम
सोचोगे कि यह
मेरे बस की
बात नहीं है।
इतनी सारी
विधियां—क्या
करूं क्या न
करूं!
तब
तुम्हारे मन
में यह विचार
आ सकता है कि
विधियों के
जंगल में
भटकने की बजाय
गुरु—कृपा
पाना ज्यादा
बेहतर है। तुम
सोच सकते हो
कि विधियां
जटिल हैं और
गुरु—कृपा सरल
है। लेकिन ऐसा
सोचने से ही
गुरु—कृपा
नहीं मिलती है।
इन विधियों को
प्रयोग में
लाओ। और
ईमानदारी से
प्रयोग करो।
यदि तुम असफल
हुए तो वही
असफलता
तुम्हारा समर्पण
बन जाएगी।
समर्पण
आत्यंतिक
विधि है।
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