दिनांक 9
अप्रैल, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
प्रश्नसार:
1—प्रवचन और
दर्शन को
छोड्कर आप सदा—सर्वदा
अपने एकांत कमरे
में रहते हैं।
फिर भी आपको
इतनी सारी
सूचनाएं कहां
से मिलती हैं? यू०
जी०
कृष्णमूर्ति
से संबंधित
प्रश्रों के
उत्तर में
आपने उनके
बारे में उन
सब खबरों की
चर्चा की है, जो
बहुचर्चित
हैं। सी० आई०
ए०, के०
बी० जी० और
सी० बी० आई०
जैसी कोई
गुह्य संस्था
भी आपके पास
है क्या?
2—आपने
गायत्री
मंत्र और
नमोकार मंत्र
के तोता—रटन
की कहानी
सुनायी। इस
तोता—रटन को
आप बंद करवाना
चाहते हो।
क्या यही गायत्री
मंत्र है? क्या
यही नमोकार
मंत्र है?
3—आपका
प्रवचन सुनते—सुनते
कभी—कभी आंखें
गीली हो जाती
हैं और आंसू
बह आते हैं।
वैसा ही सक्रिय
ध्यान में भी
कभी—कभी होता
है। दोनों
स्थितियां आनंदपूर्ण
लगती हैं।
प्रार्थना और
ध्यान, संकल्प
और समर्पण दो
अलग—अलग मार्ग
में से कौन—सा
मार्ग
चितभंजन
करेगा?
4—भगवान
श्री, धन्यवाद!
5—जब मैं
आपको आंखें
बंद करके
सुनती हूं, तब
बहुत—सी
तरंगें शरीर
में प्रवेश करती
हुई मालूम
होती हैं। जब
आपको बिना पलक
झपके एकटक
देखती हूं, तब आपके पास
सफेद तेजो—वलय
दिखायी पड़ता
है।...... मैं आपको
कैसे सुनूं?
6—मेरी
पत्नी, मां
आनंद कुमुद, अपने अंतस् में
बारबार आपको
देखती है।
उसने बाहर
जाना छोड़ दिया
है और ध्यान
करना भी।...
क्या आध्यात्मिक
दृष्टि से यह
सही है?
7—आपकी
शिष्या सब करत
निछावर! तन, मन,
धन प्रभु पर
बलिहारी!
पहला प्रश्न:
प्रवचन
और दर्शन को
छोड़ कर आप सदा—सर्वदा
अपने एकांत
कमरे में रहते
हैं। फिर भी आपको
इतनी सारी
सूचनाएं कहां
से मिलती हैं, कि
यू० जी० कृष्णमूर्ति
से संबंधित प्रश्न
के उत्तर में,
आपने उनके
बारे में उन
सब खबरों की
चर्चा की है, जो
बहुचर्चित
हैं! सी० आई० ए,
के० बी० जी०
और सी० बी०
आई० जैसी कोई
गुह्य संस्था
भी आपके पास
है क्या?
हिम्मत
भाई...! तीनों
संस्थाओं का
इकट्ठा जोड़!
लेकिन
ऐसे व्यर्थ के
प्रश्न
बारबार न पूछो।
साहब की ही
बात करें।
साहब में ही
मन लगाएं। अगर
तुम्हें
उत्सुकता भी
हो तो सदा मूल—सोत
पर जाओ। उधार, विचार—चोरों
से सावधान
रहो। जे० कृष्णमूर्ति
की जो दृष्टि
है, अगर
उसे समझना है,
उसमें रस है,
तो फिर कृष्णमूर्ति
से ही उस रस को
उठाओ। फिर यू०
जी० कृष्णमूर्ति
में रस लेने
की कोई जरूरत
नहीं है। जब
मूल उपलब्ध हो,
तो नकल से
क्यों उलझना?
कार्बन
कापियों से
सावधान रहना
जरूरी है। और कार्बन
कापियां कफिा
दावेदार होती
हैं। चोर को
बड़ी चेष्टा
करनी पड़ती है
यह सिद्ध करने
के लिए कि ये
विचार मेरे
हैं। उसे
अतिशय श्रम
उठाना पड़ता
है। उसे बहुत
तर्क, बहुत
प्रमाण
जुटाने पड़ते
हैं कि ये
विचार मेरे
हैं। जिसके
वस्तुत: विचार
अपने होते हैं,
वह न तो
तर्क जुटाता
है, न
प्रमाण
जुटाता है——विचार
उसके हैं ही।
फिर
यू० जी० कृष्णमूर्ति
की कोई भी
अवस्था नहीं
है चैतन्य की
दृष्टि से। और
जिसे उन्होंने
समाधि समझ रखा
है,
वह समाधि
नहीं है, केवल
मूर्च्छा है।
इस बात को
खयाल में रखना
उचित होगा।
पतंजलि
ने समाधि की
दो दशाएं कही
हैं। चैतन्य समाधि
और जड़ समाधि।
जड़ समाधि नाम
मात्र को समाधि
है। समाधि
जैसी प्रतीति
होती है, पर
समाधि नहीं
है। जड़ समाधि
में, तुम्हारे
पास जो थोड़ी—सी
चैतन्य की
ऊर्जा है, वह
भी खो जाती
है। तुम
मूर्च्छित
होकर गिर जाते
हो। एक
आध्यात्मिक
कोमा! तुम
मनुष्य से
नीचे उतर जाते
हो। जरूर
शांति मिलेगी,
जैसी गहरी
नींद में
मिलती है।
इसलिए
पतंजलि ने यह
भी कहा कि
समाधि और गहरी
नींद में एक
समानता है।
खूब गहरी नींद
आ जाए, स्वप्न
भी न हों, तो
एक शांति
मिलेगी, दूसरे
दिन सुबह
ताजगी रहेगी।
लेकिन उस
प्रगाढ़
निद्रा में
क्या हुआ था, इसका तो कुछ
पता न रहेगा।
कहां गए, कहां
पहुंचे, क्या
अनुभव हुए, कुछ भी पता न
होगा। सुबह
तुम इतना ही
कह सकोगे कि
गहरी नींद आई।
वह भी सुबह कह
सकोगे; उठ
आओगे नींद से,
तब कह
सकोगे।
ऐसी
ही जड़ समाधि
है। सुगम है, सरल
है, आसानी
से हो सकती
है। इसी जड़
समाधि के कारण
ही तो पश्चिम
में एल० एस०
डी०, मारिजुआना,
सिलोसायबिन
और इस तरह के
मादक
द्रव्यों का
प्रभाव बढ़ता
जा रहा है।
इसी जड़ समाधि
के कारण इस देश
का साधु—
संन्यासी
सदियों से
गांजा, भांग,
अफीम लेता
रहा है। बड़ी
सरलता से मन
को मूर्च्छित
किया जा सकता
है। और जब मन मूर्च्छित
हो जाता है, तो स्वभावत:
सारी चिंता
समाप्त हो गई,
सारे विचार
गए। तुम एक
सन्नाटे में
छूट गए। लौटकर
आओगे। ताजे
लगोगे। मगर यह
ताजगी महंगी
है। यह ताजगी
बड़ी कीमत पर
तुमने ले ली
है। असली
समाधि चैतन्य
समाधि है।
मनुष्य दोनों
के मध्य में
है।
ऐसा
समझो कि
मनुष्य पत्थर
और परमात्मा
के बीच में है, बीच
की कड़ी है।
पत्थर जड़ है, परमात्मा पूर्ण
चेतन है मनुष्य
आधा—आधा——कुछ
है कुछ चेतन
है। यही
मनुष्य की चिंता
है, यही
उसका संताप
है। यही उसकी
दुविधा, द्वंद्व,
यही उसकी
पीड़ा, तनाव।
आधा हिस्सा
खींचता है कि
जड़ हो जाओ, आधा
हिस्सा
खींचता है कि
चैतन्य हो
जाओ। आधा हिस्सा
कहता है कि
डूब जाओ संगीत
में, शराब
में, सेक्स
में। आधा
हिस्सा कहता है
: उठो — ध्यान
में, प्रार्थना
में, पूजा
में। और इन
दोनों में
कहीं तालमेल
नहीं होता। ये
दोनों एक —
दूसरे के
विपरीत जुड़े
हैं। जैसे एक
ही बैलगाड़ी
में दोनों तरफ
बैल जुड़े हैं।
और
स्वभावत :, जो
पीछे की तरफ
जा रहे हैं
बैल, वे
ज्यादा शक्तिशाली
हैं। क्यों।
क्योंकि अतीत
का इतिहास
उनके साथ है।
तुम्हारा
पूरा अतीत
जड़ता का
इतिहास है।
इसलिए जड़ता का
बड़ा वजन है।
चैतन्य तो
भविष्य है।
उसकी तो धीमी—
सी किरण उतर
रही है अभी।
अभी उसका बल
बहुत नहीं है।
अंधेरे का बल
बहुत ज्यादा
है।
इसलिए
तो ध्यान की कोशिश
करो,
और विचारों
की तरंगें
उठती ही चली
जाती हैं।
विचार अतीत से
आते हैं, जड़ता
से आते हैं, यांत्रिक
हैं। ध्यान
भविष्य को
लाने का
प्रयास है।
कठिन है
भविष्य को
उतार लेना।
श्रम चाहिए, सतत श्रम
चाहिए।
जागरूकता
चाहिए। अथक
जागरूकता
चाहिए!
मनुष्य
आसानी से पशु
हो सकता है।
इसलिए तो जिन—
जिन बातों से
पशु होने की
सुविधा मिलती
है,
तुम उनमें
बड़े उत्सुक हो
जाते हो।
राजनीति में
तुम्हारी
उत्सुकता
देखते हो! वह पशु
होने का उपाय
है। नीचे
गिरने का उपाय
है। भीड़— भाड़
के साथ
तुम्हें भी नशा
छा जाता है।
जब भीड़ जोर —
जोर से नारा
लगाने लगती है,
तो
तुम्हारा कंठ
भी खुल जाता
है। ऐसे अकेले
शायद
तुम्हारी
बोलती बंद हो
जाए, लेकिन
भीड़ के साथ
तुम्हारा कंठ
खुल जाता है।
जब भीड़ आग
लगाने लगे
कहीं, तो
तुम भी आग
लगाने में
संलग्न हो
जाते हो।
तुमने
देखा, क्रोध
में कितना बल
आ जाता है! जब
तुम क्रोध में
होते हो, बड़ी
चट्टान सरका
देते हो। वही
चट्टान
साधारण, सामान्य
दशा में
हिलाते तो
हिलती न। पशुता
प्रबल है।
पीछे से खींच
रही है। जो
नीचे गिर जाता
है, उसे भी
एक तरह की गणित
मिलती है। वही
शांति अपराध
का रस है। तुम
यह मत समझना
कि अपराधी सिर्फ
धन में उत्सुक
है, इसलिए
चोरी कर रहा
है। अपराध की
असली रसवता पशुता
है। अपराधी
पीछे गिर रहा
है। आदमी है
उत्तरदायित्व।
आदमी है
चुनौती।
अपराधी पीछे
गिर रहा है।
वह कहता है :
मुझे चुनौती
स्वीकार नहीं
करनी।
हत्यारे
में,
तुम यह मत
सोचना कि वह
किसी को मार
डालना चाहता
था, इसलिए
मार दिया, कि
किसी से दुश्मनी
थी। नहीं।
मारने का एक
रस है। जब तुम
किसी की हत्या
कर रहे होते
हो, तब तुम
मनुष्य नहीं
रह जाते, सिंह
भला हो जाते
होओ। इसलिए
हत्यारों की
जो जातियां
हैं, उसमें
नाम के पीछे
सिंह लगाते
हैं। फिर चाहे
वे राजपूत हों
और चाहे
नेपाली हों और
चाहे पंजाबी
हों। जहां—
जहां हत्या को
जोर दिया गया
है, वहां पीछे
'' सिंह '' जोड़
दिया गया है।
वह सूचक है।
वह खबर दे रहा
है कि आदमी
आदमी नहीं रहा।
तुम
भी खयाल करना, अगर
तुम किसी का
गला दबा रहे
हो, उस
दबाते क्षण
में तुम
मनुष्य होते
हो। अगर
मनुष्य हो तो
गला नहीं दबा
सकते हो। अगर
गला दबाना है
तो तुम सरक गए
पीछे, तुम
मनुष्य नहीं
रहे।
तुम्हारे
भीतर कोई दबी
हुई पशुता
हावी हो गई।
इसलिए तो अकसर
हत्यारे
अदालतों में
कहते हैं कि '' हमने यह
हत्या जान —
बूझकर नहीं की,
हो गई। हम
करना नहीं
चाहते थे, हो
गई। यह हमारे
बावजूद हो गई।’’
हालांकि
कोई अदालत
उनकी बात
मानती नहीं है,
लेकिन मनोविज्ञान
कहता है वे
ठीक कह रहे
हैं। वे झूठ
नहीं बोल रहे
हैं। वे सिर्फ
अपराध के दंड
से बचने के
लिए नहीं बोल
रहे हैं।
इसमें एक
मनोवैज्ञानिक
सत्य है। जब
उन्होंने की
थी, तब वे
मनुष्यता से
नीचे गिर गए
थे, होश
में नहीं थे।
खून चढ़ गया था
उनके ऊपर।
इसलिए
अपराध में भी
एक तरह का रस
है। और उपराधी
भी एक तरह की
शांति अनुभव
करता है।
क्रोध के बाद
तुमने देखा है?
जब क्रोध का
तूफान चला
जाता है, तो
शांति अनुभव
होती है।
तुमने कुछ चीज
तोड़ दी, उसके
बाद एक शांति
अनुभव होती है।
मगर यह शांति
बड़ी मंहगी और
बड़ी गंदी है।
पागल
आदमी कभी—कभी
संतों जैसा
मालूम होता है
और कभी—कभी संत
भी पागलों
जैसे मालूम
होते हैं।
दोनों में कुछ
तालमेल है।
पागल मनुष्य
से नीचे गिर
गया,
संत मनुष्य
से ऊपर उठ गया।
दोनों मनुष्य
नहीं रहे, इतना
तालमेल है।
अपराधी
में और संत
में भी एक तरह
का तालमेल है—दोनों
मनुष्य नहीं हैं।
एक मनुष्य के
पार उठ गया है
और एक मनुष्य
से नीचे गिर
गया है।
समाधि
की भी दो
दशाएं हैं। एक—मनुष्य
से नीचे गिर
जाओ। भांग पी
ली,
गांजा पी
लिया, चरस,
शराब—तुम
नीचे सरक गए।
शराबी को
देखते हो, कैसा
मस्त मालूम
पड़ता है, कैसा
डगमगाता चलता
है!
यह
आकस्मिक नहीं
है कि सूफियों
ने शराबी से
ही ध्यान की
परिभाषा की है।
और यह भी आश्चर्यजनक
नहीं है कि
शराबी की
मस्ती और
ध्यान की, प्रार्थना
की मस्ती में,
थोड़ा—सा
तारतम्य है।
ध्यानी की आंखों
में भी तुम
वैसे ही नशे
के डोरे पाओगे।
उसके चेहरे पर
भी तुम वैसा
ही आह्नाद
पाओगे। उसके
पैर भी
डगमगाते हैं—कहीं
पर रखता है
पैर, कहीं
पड़ जाते हैं।
वह भी एक
मस्ती से भरा
है। वह भी कुछ
पी उठा है।
उसने भी कुछ
भीतर रस की
गागर उड़ेल ली
है। मगर रस की
गागर अलग—अलग
है। और नशे का
तल अलग—अलग है।
बच्चे
में और संत
में भी एक तरह
का तारतम्य होता
है। छोटे बच्चों
में संतत्व
नहीं दिखाई
पड़ता? कैसा
निर्दोष भाव!
और संतों में
भी छोटे बच्चों
जैसा निर्दोष
भाव दिखाई
पड़ता है। मगर
फिर भी भेद
भारी है।
बच्चा अभी
विकृत होगा, संत विकृति
के पार आ गया।
बच्चे की अभी
यात्रा शुरू
नहीं हुई।
यात्रा शुरू
होने को है, अभी तैयारी
कर रहा है।
संसार में
उतरेगा, भटकेगा,
परेशान
होगा, टूटेगा,
बिखरेगा—और
संत उस सारे
बिखराव के पार
आ गया। संत
फिर से बच्चा
हो गया है।
दोनों में
समानता है, दोनों में
भेद है।
ऐसी
ही जड़ समाधि
और चैतन्य
समाधि हैं। जड़
समाधि का अर्थ
होता है:
हमारे भीतर जो
थोड़ा—सा चैतन्य
है,
उसे भी गंवा
दो। एक लाभ है।
जैसे ही
चैतन्य हमारे
भीतर से खो
जाता है— थोड़ा
ही है हमारे
भीतर, कोई
ज्यादा है भी
नहीं, खोने
में कठिनाई भी
नहीं होती—जैसे
ही चैतन्य
हमारे भीतर खो
जाता है, वैसे
ही हमारे भीतर
एक स्वर बजने
लगता है।
द्वंद्व विदा
हो गया, दुई
न रही। भेद न
रहा हमारे
भीतर, खंड
न रहे हमारे
भीतर। हम
अविभाज्य हो
गए। अचेतन सही,
मगर
अविभाज्य हो
गए। इकट्ठे हो
गए। यही तो
नींद का मजा
है कि तुम
इकट्ठे हो
जाते हो।
दिनभर टूटते
हो, बिखरते
हो, रात
फिर जुड़ जाते
हो। सुबह फिर
शक्ति उठ आती
है।
ऐसी
ही जड़ समाधि
की अवस्था है।
चैतन्य खो गया, फिर
तुम इकट्ठे हो
गए। मगर यह
इकट्ठा होना
कोई बड़ा
बहुमूल्य
इकट्ठा होना
नहीं है। तुम
पत्थर होकर
इकट्ठे हुए।
इससे तो आदमी
होना बेहतर था।
याद करो
सुकरात का
वचन! सुकरात
ने कहा है कि '' मैं
असंतुष्ट
रहकर भी
सुकरात रहना
ही पसंद
करूंगा। अगर
संतुष्ट होकर
मुझे सुअर
होने का मौका
मिले, तो
भी मैं सुअर
होना पसंद
नहीं करूंगा।’’
संतोष भी
मिलता हो सुअर
होने से, तो
सुकरात कहता
है: मैं सुअर
होना पसंद
नहीं करूंगा।
और असंतुष्ट
ही रहना पड़े
मुझे, जलना
पड़े असंतोष
में, लेकिन
सुकरात रहकर,
तो मैं यही
चुनाव करूंगा।
ठीक
कहता है
सुकरात।
क्योंकि इसी
संघर्ष और
चुनौती से आगे
यात्रा है।
पूरा चैतन्य
जगाना है। तब
फिर एकता सधती
है—अविभाज्य
एकता। सब
अचेतन चला गया, सब
अंधेरा चला
गया।
जैसे
तुम्हारी रात
में सब बुझ
जाता है, ऐसे
ही समाधि में
सब जल जाता है।
जैसे रात में
सारी चेतना
अंधेरे में
डूब जाती है, ऐसे ही
समाधि में
सारा अंधेरा
प्रकाश में खो
जाता है।
बुद्ध
की समाधि
चैतन्य समाधि
है। कृष्णमूर्ति
की समाधि
चैतन्य समाधि
है। महावीर की
समाधि चैतन्य
समाधि है। यू०
जी० कृष्णमूर्ति
की समाधि जड़
समाधि है।
उसका वे बहुत
गौरव करते हैं
कि जब उन्हें
समाधि लगी, तो
उनका शरीर
बिल्कुल
काष्ठवत् हो
जाता था।
उन्हें उठा—उठाकर
ले जाना पड़ता
था। वे लाश के
जैसे हो जाते
थे। अगर बाहर
बगीचे में
बैठे थे और
समाधि लग गई, तो वहीं गिर
पड़ते थे फिर
उन्हें उठाकर
स्ट्रेचर पर
अंदर ले जाना
पड़ता था। यह
कोई समाधि हुई।
यह समाधि नहीं
है। यह सिर्फ
मूर्च्छा है।
इस मूर्च्छा
में रस आ सकता
है, रस है।
गहरी नींद का
रस है—मगर यह
रस वरणीय नहीं
है।
रामकृष्ण
को भी ऐसी
समाधि लगती थी, वह
जड़ समाधि थी।
फिर तोतापुरी
ने उन्हें
चेताया।
तोतापुरी ने
उन्हें कहा कि
यह तो जड़
समाधि है। यह
तुम्हारा पड़
जाना मुर्दे
के भ्रांति, इससे कुछ
सार नहीं।
जागो!
तोतापुरी
की सतत चेष्टा
से रामकृष्ण
जागे। और जिस
दिन रामकृष्ण
को चैतन्य
समाधि लगी, उस
दिन उन्होंने
जाना कि मैं
किस भ्रांति
में भटका था!
मैं कैसी भूल
में चला जा
रहा था! मैंने
अंधेरे को ही
रोशनी समझ
लिया था।
मैंने
मूर्च्छा को
होश समझ लिया
था।
यू०
जी० कृष्णमूर्ति
की समाधि, समाधि
नहीं है, सिर्फ
मूर्च्छा है।
एक
आध्यात्मिक
कोमा! इस तरह
के लोगों से
सावधान रहना।
इस तरह के
लोगों से बचना।
मगर
आदमी का लोभ
ऐसा है कि हर
किसी के जाल
में पड़ सकता
है—लोभ के
कारण। कहीं से
भी मिल जाए, मिल
जाए। और मिलता
कहीं से भी
नहीं, खयाल
रखना। मिलता
सदा अपने भीतर
से है। कोई
दूसरा
तुम्हें दे
नहीं सकता। और
दूसरे के साथ
जितना समय
व्यर्थ गंवा
रहे हो, पछताओगे
पीछे। मिलना
अपने भीतर है।
लेकिन अपने
भीतर पाने के
लिए श्रम करना
होता है। और
श्रम कोई करना
नहीं चाहता।
लोग आलसी हैं।
धन के लिए तो
श्रम कर लेते
हैं, ध्यान
के लिए श्रम
नहीं करना
चाहते। ध्यान,
कहते हैं, प्रसाद—रूप
मिल जाए।
मेरे
पास एक सज्जन
आते हैं।
वर्षो से! कोई
दस साल से
उन्हें जानता
हूं। वे जब भी
आते हैं, वे
कहते हैं कि
बस आशीर्वाद
दें कि ध्यान
मिल जाए।
मैंने उनसे
कहा कि धन के
लिए कभी
आशीर्वाद नहीं
मांगते हो?
उसके लिए तो
बंबई में अथक
चेष्टा करते
रहते हो।
ध्यान के लिए
आशीर्वाद
क्यों मांगते
हो? और
ध्यान तुम कभी
करने आते नहीं।
वे
कहते हैं कि
क्या करना है?
जब आप हैं, आशीर्वाद
है, तो
ध्यान क्या
करना? बस
हम तो आपको
पकड़ लिए हैं।
अब
इनकी चालबाजी
समझ रहे हो! धन
के लिए मुझको
नहीं पकड़ते।
क्योंकि
जानते हैं, ऐसे
धन नहीं मिलता।
धन के लिए
बंबई में दफ्तर
खोलकर मेहनत
में लगे रहते
हैं। सुबह से
सांझ तक! साल
में एक—आध—दो
बार मेरे पास
आ जाते हैं—
ध्यान के लिए।
आशीर्वाद
मांग लेते हैं।
मेरे पास आने
के लिए भी
नहीं आते वे।
जब घुडु—दौडु
होती है पूना
में, तब
आते हैं। बहती
गंगा, हाथ
धो लिया। आए
पूना, चलो
मेरे पास भी आ गए।
मुफ्त
आशीर्वाद का
कोई दाम तो
लगता नहीं।
मैंने
उनसे कहा : यह
आशीर्वाद मैं
दे नहीं सकता, क्योंकि
आशीर्वाद से
ध्यान मिल
नहीं सकता।
ध्यान अथक
श्रम से मिलता
है। लेकिन
आदमी—सुस्त!
आदमी— बेईमान!
लोभी जरूर है,
लेकिन ईमान
नहीं है।
चाहता है कुछ
मुफ्त पड़ा
कहीं मिल जाए।
तो किसी के भी
पीछे चला जाता
है। कहीं भी
हाथ जोड़कर खड़ा
हो जाता है।
कहीं भी
भिक्षापात्र
फैला देता है।
और खयाल रखना,
जहां जितनी
सस्ती बात मिल
रही हो, उतनी
ही आसानी से
पहुंच जाता है।
अब
यू० जी० कृष्णमूर्ति
कहते हैं : '' न
साधना की
जरूरत है, न
ध्यान की
जरूरत है, न
योग की जरूरत
है। किसी चीज
की कोई जरूरत
नहीं।’’ तुम्हारा
मन बड़ा
प्रफुल्लित
हो जाता है
सुनकर कि किसी
बात की जरूरत
नहीं। यही तो
तुम सदा से
चाहते थे कि
कुछ न करना
पड़े, और
मिल जाए। तुम
बैठ गए कि चलो
यह ठीक आदमी
मिल गया, जो
कहता है: कुछ
करना नहीं है।
मगर कुछ नहीं
तो तुम पहले
से ही कर रहे
थे : अब और क्या
नया होगा?
और
मैं भी तुमसे
कहता हूं: करने
से ध्यान नहीं
मिलता। लेकिन
करने से न
करने की
अवस्था मिलती
है। और न करने
की अवस्था में
ध्यान उमगता
है। जो खूब
श्रम करता है, अपने
को थका डालता है,
अपने को
पूरा श्रम में
लगा देता है—एक
दिन ऐसी घड़ी आ
जाती है कि
श्रम करते—करते
शिखर पर पहुंच
जाता है श्रम
के। और उसके
पार जाने का
कोई उपाय नहीं
होता। सब लगा
लिया दांव पर,
जो था। अब
कौड़ी भी नहीं
बचायी, श्वास
भी नहीं बचायी,
कण भी नहीं
बचाया। उसी
क्षण क्या होगा? उसके पार तो
जाना हो नहीं
सकता। आदमी
गिर पड़ता है, भूमिसात हो
जाता है। उसी
भूमिसात हो
जाने का नाम समर्पण
है। उसी गिरने
में परमात्मा
का प्रसाद बरस
जाता है।
लेकिन बरसता
उन्हीं पर है,
जिन्होंने
सारा श्रम लगा
दिया, सुस्तों
और काहिलों पर
नहीं।
लेकिन
कभी—कभी अच्छी
बातें घातक हो
सकती हैं। और
अच्छी बातें
मोह— जाल बना
सकती हैं। इस
तरह के लोगों
से सावधान
रहना! तुम्हें
कुछ पता नहीं।
तुम अपने
अंधेरे में
कुछ भी गलत—सलत
पकड़ ले सकते
हो। सच तो यह
है कि जो
तुम्हारा मन
आसानी से
पकड़ने को
तैयार हो जाए
उसके प्रति
थोड़े सावधान
रहना।
क्योंकि
तुम्हारा मन
सत्य को आसानी
से पकड़ने को
तैयार नहीं
होता। असत्य
को ही आसानी
से पकड़ने को
तैयार होता है।
जो बात आसान
हो,
जानना कि
उसमें कहीं
कुछ असत्य पड़ा
हुआ है, नहीं
तो आसान न
मालूम होती।
तुम असत्य में
पगे हो। असत्य
तुम्हारी
जीवन—चर्या है।
जब भी कोई बात
असत्य होती है,
तुम्हें
उसमें आकर्षण
मालूम होता है,
तुम्हारे
साथ उसका छंद
बैठ जाता है।
सत्य
तुम्हें
चौंकाता है।
सत्य तुम्हें
झकझोरता है।
सत्य तो बिजली
का धक्का है।
सत्य में तो तुम
एकदम
अस्तव्यस्त
हो जाते हो, अराजक
हो जाते हो।
जो तुम्हें
अराजक कर दे, जो तुम्हें
तिलमिला दे, जो तुम्हें
चोट और घाव से
भर दे, जिसका
वजन तुम्हारी
छाती में छुरे
की भ्रांति
चुभ जाए, जो
तुम पर इतनी
दया करता हो
कि दया न करे, जो तुम्हारे
प्रति इतना
करुणावान हो
कि कठोर हो
सके, जो
तुम्हारी
गर्दन काटने
में लग जाए—
उसी के पास
अगर बैठोगे तो
कुछ होगा।
अब
मेरे दो— चार
संन्यासी हैं, जो
यू ० जी०
कृष्णमूर्ति
के पास जाते
हैं। वे
किसलिए जाते
हैं।...
क्योंकि यू०
जी०
कृष्णमूर्ति
से आमने—
सामने बैठकर
मित्रों जैसी
बात हो सकती
है। तो
उन्होंने
मुझे कहा कि
बड़े मानवीय
हैं। उनके
अहंकार को
तृप्ति मिलती
है। वे चाहते
हैं मुझसे भी
मित्रों जैसी
बातचीत हो।
मुझे कुछ अड़चन
नहीं है। तुम
मित्रों जैसी
बातचीत करो।
मुझे कोई अड़चन
नहीं है लेकिन
मैं तुम्हारे
किसी काम का न
रह जाऊंगा।
बातचीत हो
जाएगी। लेकिन
अगर तुम मुझे
मित्र समझ रहे
हो, तो तुम
मेरी सुनोगे
नहीं। और तुम
अगर मुझे
मित्र समझ रहे
हो, तो तुम
सुन भी लोगे
तो मानोगे
नहीं।
वही
तो अड़चन कृष्ण
और अर्जुन के
बीच गीता में खड़ी
हुई। अर्जुन
ने सदा उनको
मित्र की तरह
जाना था। वही
अड़चन है।
इसीलिए इतनी
लंबी गीता
कहनी पड़ी। वह
मित्र की तरह
ही जानता था।
आज अचानक गुरु
की तरह कैसे
स्वीकार कर ले।
और जो मित्र
की तरह जिसे
जाना है, वह आज
अचानक कहने
लगा : सर्वधर्मान
परित्यज्य, मामेकं शरणं
तज।... सब छोड़—
छाड़ धर्म
इत्यादि, और
मेरी शरण आ!
मैं
मुक्तिदायी, मैं
मुक्तिदाता!
मैं तुझे
मोक्ष ले
चलूंगा!
अर्जुन
चौंका होगा कि
यह क्या हुआ
कृष्ण के दिमाग
को! मित्र हैं, संग—
साथ खेले, संग—
साथ उठे— बैठे,
मेरे सारथी
बने हैं
मित्रता के ही
कारण। अर्जुन
ऊपर बैठा है, कृष्ण नीचे
हैं। और आज
कहते हैं.: मामेकं
शरणं ब्रज! तो
अर्जुन ने कहा
: अपना विराट
रूप दिखलाओ, तो मानूंगा।
यह वह पुराना
मित्र दिक्कत
दे रहा है।
मैं
भी वर्षो तक
लोगों के घरों
में ठहरता रहा।
लोगों से
मैंने बहुत
मित्रता के
संबंध बनाए।
लेकिन मैंने
देखा, कि मेरी
तरफ से तो
मित्रता का
संबंध ठीक है,
मगर उनकी
तरफ से घातक
हो जाता है।
मेरी तरफ से
तो तुम मेरे
मित्र ही हो, लेकिन
तुम्हारी तरफ
से अभी जरा
देर है मित्र
होने में।
तुम्हारी तरफ
से तो अभी तुम
शिष्य हो, तो
किसी दिन
मित्र हो
सकोगे। मित्र
तो तुम तभी हो
सकोगे, जब
तुम वह देख लो
जो मैंने देखा
है। जब मेरी
जैसी आंख
तुम्हारे पास
हो। जब मेरे
जैसी भाव—दशा
तुम्हारी हो।
जब मेरे जैसा
चैतन्य
तुम्हारा हो।
मित्र तो तुम
तब हो सकोगे—तुम्हारी
तरफ से।
मेरी
तरफ से तो तुम
मित्र ही हो।
मेरी तरफ से
तो तुम सभी
बुद्ध पुरुष
हो। मेरे
प्रति लेकिन
तुम्हारी
धारणा अगर
मित्र की है, तो
तुम चूक जाओगे।
लेकिन अहंकार
को तृप्ति
मिलती है। तुम
किसी के पास
गए। उसने
मित्रता से
तुमसे बातें
कीं।
तुम्हारा हाथ
पकड़ा। तुमसे
इस तरह का
व्यवहार किया।
तुम्हें खूब
तृप्ति मिली।
तुम बड़े
प्रसन्न हुए
कि एक सिद्ध
पुरुष और मुझको
मित्र मानता
है, तो
जरूर सिद्ध
पुरुष मैं भी
होना चाहिए!
जब एक जाग्रत
पुरुष मुझको
मित्र मानता
है, तो मैं
भी जाग्रत ही
हूं।
मेरे
पास तुम आते
हो तो मैं
हजार अड़चनें
खड़ी करता हूं।
अभी मिलना
चाहते हो तो
नहीं मिलने
देता।
प्रयोजन है
पीछे। दस दिन
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है, तब
मैं तुम्हें
मिलने देता
हूं। अभी भी
मिल सकता था, कोई अड़चन न
थी। मिल ही
रहा था वर्षो
तक। लेकिन फिर
मैंने पाया :
समय खो जाएगा,
मैं
तुम्हारे
किसी काम न आ
सकूंगा। मुझे
तुमसे अपने को
दूर कर लेना
पड़ा। और मुझे
तुम्हारे और
अपने बीच
दीवालें खड़ी
कर देनी पड़ी, ताकि
तुम्हें कीमत
चुकानी पड़े
पास आने की।
और तुम पास
तभी आ सको, जब
तुम झुकने के
लिए राजी होओ।
क्योंकि तुम
झुको, तो
मेरी गागर में
जो है, वह
मैं तुम में
डालूं। तुम
खुलो, तो
मैं तुम में
प्रवेश करूं।
नहीं।
तुम्हारी तरफ
से मैत्री
नहीं चलेगी।
मेरी तरफ से
मैत्री ठीक है।
तुम्हारी तरफ
से मैत्री
खतरा हो जाएगी, आत्मघाती
हो जाएगी।
मगर
ये सस्ती
बातें
प्रभावित कर
लेती हैं। और
इन्हीं सस्ती
बातों में
आदमी भटक जाता
है।
फिर, दो—चार—पांच
लोग जानेवाले
हैं उनके पास।
कोई अर्थ भी
नहीं है। अभी
तो बाधाएं
कैसी खड़ी
करेंगे। अभी तो
इसी मित्रता
के बहाने सब
चलेगा।
संख्या क्या
है। यू० जी० कृष्णमूर्ति
को जानता कौन
है। मगर कुछ
लोग इसमें भी
अर्थ मानते
हैं, क्योंकि
वे विशिष्ट हो
जाते हैं। दो—चार
आदमी किसी के
पास पहुंच
जाते हैं, तो
वे दो—चार खास
हो जाते हैं न!
मेरे पास पचास
हजार संन्यासी
हैं, अब
तुम्हारे खास
होने का कोई
उपाय नहीं है।
तुम्हारे खास
होने का एक ही
ढंग है अब कि
तुम बिल्कुल
ही साधारण हो
जाओ, तो ही
तुम यहां
विशिष्ट हो
पाओगे। यहां
तुम विशिष्ट
नहीं हो सकते।
ये पचास हजार
जल्दी ही पांच
लाख हो जाएंगे,
पचास लाख हो
जाएंगे। यह
संख्या रुकनेवाली
नहीं है।
इसमें तुम
खोते चले
जाओगे।
तो
मेरे पास, यह
निरंतर मुझे
अनुभव हुआ, कई तरह के
लोग आते हैं।
कुछ अहंकारी आ
जाते हैं।
उनका मजा इतना
ही है कि वे
खास थे। जैसी
ही मेरे पास
लोग बढ़ जाते
हैं, और वस्तुत
: वैसे लोग आ
जाते हैं जो
ध्यान कर रहे
हैं, समाधि
में जा रहे
हैं, प्रार्थना
में लगे हैं, जो सच में
जीवन —
रूपांतरण कर
रहे हैं — इन अहंकारियों
की प्रतिष्ठा
कम होने लगती
है। इनके बीच
और मेरे बीच
उनकी संख्या
बढ़ने लगती है,
जो ध्यान कर
रहे हैं। क्योंकि
मैं उनके लिए
हूं, जो
ध्यान कर रहे
हैं। तुम ऐसे
ही औपचारिक
मिलने आ गए।
कुछ लोग हैं, वे कहते हैं: बस
ऐसे आए थे, तो
सोचा आपसे मिल
आएं। मेरे पास
वे लोग हैं जो
अपना जीवन
दांव पर लगा रहे
हैं। तुम बस
आए थे, सोचा
कि मिल आएं, कुशल समाचार
पूछ आएं।
मैं
कुशल हूं, समाचार
क्या। तुम कुशल
नहीं हो, समाचार
क्या। दोनों
बातें जाहिर
हैं। न कुछ
पूछने को है, न कुछ कहने
को है। मैं कुशल
हूं— सदा कुशल हूं।
और तुम अकुशल हो—
और सदा अकुशल हो।
अब इसमें क्या
पूछना है, क्या
तांछना है।
समय क्यों
खराब करना है?
लेकिन
ऐसे लोगों को
कष्ट हो जाता
है। वे जल्दी
से किसी और की
तलाश में लग
जाते हैं, कि
कोई मिल जाए, जहां वे कुशल
— समाचार
कर सकें, औपचारिकताएं
निभा सकें, जहां बैठ कर
व्यर्थ की, फिजूल की
बातें कर सकें।
और जहां वे
प्रमुख हो
सकें, खास
हो सकें।
मेरे
पास खास होने
का एक ढंग है
कि तुम शून्य
हो जाओ। मेरे
पास सिद्ध
होने का एक ही
ढंग है कि तुम
मिट जाओ। तुम
मिटो तो हो
सको।
लेकिन
इस तरह के
लोगों को अड़चन
होती है।
इसलिए मेरे
अनुभव में यह
आया कि जो लोग
अहंकार के
कारण आ जाते
हैं,
वे जल्दी ही
मुझसे विदा हो
जाते हैं। उनके
अहंकार को कोई
तृप्ति नहीं
मिलती। उनको
बड़ी चोट लगती
है। वे चाहते
थे कि मेरे
कंधे पर हाथ
रखते, मित्रता
का व्यवहार
करते, मैं
उनसे मित्रता
का व्यवहार
करता।
मुझे
कुछ अड़चन नहीं
है। मेरे कंधे
पर हाथ रखो, मुझे
कुछ अड़चन नहीं
है। मगर तुम
मेरे कंधे पर
जिस दिन हाथ रख
लेते हो, उसी
दिन मैं
तुम्हारे लिए
व्यर्थ हो गया।
फिर तुम मुझे
देख ही न
सकोगे।
तुम्हारी आंखें
अंधी हो
जाएंगी।
तुम्हारा
सारा
परिप्रेक्ष्य
खो जाएगा। तुम
आओ तो मैं पूछ
सकता हूं कि
तुम्हारी
पत्नी कैसी है,
बच्चे कैसे
हैं, फलां
बीमार, ढिकां
ठीक...। और तुम
बड़े प्रसन्न
होओगे। मगर
क्या सार है।
सार तो इसमें
है कि मैं
तुमसे कहूं कि
तुम बिल्कुल
ठीक नहीं हो!
और कुछ करने
का समय आ गया
है, घड़ी आ
गई है। और दिन
पके जाते हैं,
पीछे
पछताओगे!
दूसरा
प्रश्न :
आपने
गायत्री—
मंत्र और
नमोकार मंत्र
के तोता — रटन
की कहानी
सुनायी। इस तोता—
रटन को आप बंद
करवाना चाहते
हो। क्या यही
गायत्री
मंत्र है।
क्या यही
नमोकार मंत्र
है?
अच्युत!
ऐसा ही है।
जहां सारे
मंत्र शांत हो
जाते हैं, वहीं
असली मंत्र
पैदा होता है।
जो मंत्र तुम
दोहराते हो, उस मंत्र का
कोई मूल्य
नहीं है।
तुम्हारी
जबान से
दोहराया गया,
तुम्हारी
जबान से
ज्यादा
मूल्यवान हो
नहीं सकता है।
जिस
ओंकार को तुम
गुनगुनाते हो, तुम्हारा
ओंकार तुमसे
छोटा होगा। एक
और ओंकार है, जो तुम्हारे
गुनगुनाने से
पैदा नहीं
होता— जिसकी
गुनगुनाहट से
तुम पैदा हुए
हो। एक और
ओंकार है, जिसका
नाद सारे जगत्
को घेरे हुए
है। जिससे
जगत् निर्मित
हुआ है। उस
ओंकार को
सुनने के लिए
गुनगुनाने की
जरूरत नहीं है।
उस ओंकार को
सुनने के लिए
सब गुनगुनाना
बंद हो जाए, वाणी मात्र शांत
हो जाए, विचार
लीन हो जाएं, मन में कोई
तरंग न रहे, तब अचानक
तुम चकित होकर
सुनोगे — एक
संगीत बज रहा
है भीतर! सदा
से बजता रहा
है। मगर तुम
अपने शोरगुल
से भरे थे और
उसे सुन न पाए।
और कभी — कभी
सांसारिक शोरगुल
से छूटते हो
तो
आध्यात्मिक शोरगुल
से भर जाते हो।
कोई आदमी
बाजार के शोरगुल
से भरा था।
तेईस घंटे
उससे भरा रहता
है, फिर
मंदिर में बैठ
जाता है। वहां
जा कर नमोकार
पढ़ने लगता है
या ओंकार का जाप
करने लगता है
या राम— राम, राम— राम की
धुन लगा देता
है। तुम शोरगुल
से कब छूटोगे।
शोरगुल बदल
लिया। पहले
सांसारिक शोरगुल
था, अब
आध्यात्मिक शोरगुल।
मगर शोरगुल, शोरगुल है।
कोई
आध्यात्मिक शोरगुल
नहीं होता, कोई
सांसारिक शोरगुल
नहीं होता। शोरगुल
शोरगुल है।
अजपा
सीखो। नानक ने
कहा,
कबीर ने कहा
: अजपा सीखो।
धरमदास ने कहा
: अजपा सीखो।
अजपा का अर्थ
होता है, जो
तुम्हारे जाप
से पैदा नहीं
होता। लेकिन
तुम्हारे जब
सब जाप बंद हो
जाते हैं, छूट
गई हाथ से
माला, गिर
गए हाथ के फूल,
बुझ गई आरती,
भूल गई मूर्ति,
मंदिर, पूजा,
प्रार्थना,
शब्द खो गए,
सब शांत हो
गया। उस क्षण
अचानक
विस्फोट होता
है। और ऐसा
नहीं कि उस
क्षण विस्फोट
होता है।
संगीत तो भीतर
बज ही रहा था।
परमात्मा
तुम्हारी
वीणा पर खेल
ही रहा है।
तुम्हारी
वीणा के तार
छू ही रहा है।
नहीं तो तुम
जियोगे कैसे।
तुम्हारा
जीवन क्या है।
जिस क्षण उसकी
अंगुलियां
तुम्हारी
वीणा के तारों
से अलग हो गईं, उसी
क्षण तुम मर
जाते हो। उसकी
अंगुलियां
तुम्हारी
वीणा पर खेल
रही हैं। वही
तो तुम्हारा
जीवन है— जीवन —
संगीत है।
मगर
एक बार सुनायी
पड़ जाए, बस
फिर अड़चन नहीं
आती। फिर जब
चाहो — '' जब जरा
गरदन झुकाई, दिल के आईने
में है
तस्वीरे— यार।’’
फिर तो जरा
गरदन झुकाई और
देख ली। जब मन
हुआ, आंख
को बंद किया
एक क्षण को, और देख ली।
बीच बाजार में
चलते — चलते एक
क्षण को सुनना
चाहा, सुन
लिया संगीत।
फिर तुम कहीं
भी रहो, उससे
जुड़े हो। अजपा
चलता है।
अच्युत!
तुम ठीक ही
कहते हो।
गायत्री—
मंत्र जब बंद
हो जाते हैं, तभी
गायत्री—
मंत्र पैदा
होता है।
नमोकार जब खो
जाता है, तभी
नमोकार का
जन्म है।
तीसरा
प्रश्न :
आपका
प्रवचन सुनते —
सुनते कभी —
कभी आंखें
गीली हो जाती
हैं, और आंसू
बह जाते हैं।
तब मन और तनाव
हल्का हो जाता
है। वैसा ही
सक्रिय ध्यान
में भी कभी—
कभी अनुभव
होता है।
दोनों
स्थितियां आनंदपूर्ण
लगती हैं।
प्रार्थना और
ध्यान, संकल्प
और समर्पण, दो अलग—अलग
मार्ग में से
कौन—सा मार्ग
चित्त—भंजन
करेगा; मैं
किस में डूब
जाऊं; कृपया
समझाएं।
पूछा
है चितरंजन
ने।
और
दो ही बातें
हैं। एक है
जगत् चितरंजन
का,
और एक जगत्
है चित्त—भंजन
का। चितरंजन
का अर्थ है: मन
के खिलावड में
लगे हो; मन
के राग में
लगे हो; मन
के रंग में
लगे हो। चित्त—भंजन
का अर्थ है: मन
टूटा, मन
गया। मन के जो
पार है, उसे
उतरने का अवसर
दिया।
और
चितरंजन
चेष्टा में
लगे हैं। सभ्य।
उनकी चेष्टा
है। और परिणाम
भी आने शुरू
हो गए हैं।
वसंत दूर नहीं
होगा, पहले
फूल खिलने लगे
हैं। आषाढ़ के
मेघ घिर आए
हैं, वर्षा
जल्दी ही
होगी। चित्त—भंजन
भी होगा। और आंसू
शुभ लक्षण हैं——पहली
बूंदाबांदी।
पूछते
हो: आपका
प्रवचन सुनते—सुनते
कभी आंखें
गीली हो जाती
हैं,
आंसू बह
जाते हैं।
बहो
उन आंसुओ में।
आंसुओ से
ज्यादा
पवित्र
मनुष्य के पास
और कुछ भी
नहीं है। आंसुओ
से ज्यादा
प्रार्थनापूर्ण
भी मनुष्य के
पास और कुछ
नहीं है।
तुम्हारे
शब्द तो थोथे
हैं।
तुम्हारे आंसुओ
में अमृत है।
तुम जब कहते
हो,
वह तो कही
ही बात होती
है; तुम जब
रोते हो, तब
प्राणों की
होती है। असल
में आंसू आते
ही तब हैं, जब
तुम्हारे
प्राणों में
कुछ ऐसे भाव
उठते हैं जो
शब्दों में
नहीं समाते; जिन्हें
शब्दों में
नहीं कहा जा
सकता; जहां
शब्द असमर्थ
हो जाते हैं।
जहां शब्द नपुंसक
सिद्ध होते
हैं, वहीं
तो आंसू बह
जाते हैं। भाव
की दशा है आंसू।
और
भाव विचार से
गहरा है। भाव
में डूबो। इस
भावोन्माद को
बढ़ने दो। ये आंसू
तुम्हारी
बाहर की आंखों
को ही स्वच्छ
नहीं करेंगे, ये
भीतर की आंखों
को भी स्वच्छ
कर जाएंगे।
धरमदास
ने कहा है:
साधारण आदमी
तो ऐसा है, जिसकी
चारों फूटी
हैं। बाहर की
भी दो और भीतर की
भी दो।
तुम्हारे पास
बाहर को
देखनेवाली आंख
ही नहीं है, भीतर को
देखनेवाली आंख
भी है। लेकिन
भीतर की आंख
तो बंद पड़ी है
सदियों से। उस
पर तो ऐसी धूल
जमी है कि
लगता है अंधी
ही हो गई। अब
तो बाहर की आंख
पर भी धूल
जमने लगी है।
अब
तो बाहर की आंख
से भी कुछ
ज्यादा सूझता
नहीं है। बस
काम चलाने
लायक रह गई है
बाहर की आंख
भी। पत्थर
दिखाई पड़ता है, पत्थर
में छिपा
परमात्मा
दिखाई नहीं
पड़ता। तो बाहर
की आंख भी कुछ
खास नहीं देख
रही। क्षुद्र
को देखती है, व्यर्थ को
देखती है; सार्थक
से चूक जाती
है।
आंसू, वैज्ञानिक
कहते हैं, बाहर
की आंख को
स्वच्छ रखने
की विधि है।
धूल न जम पाए, तो आंसू आ
जाते हैं। जरा—सी
एक कंकड़ी चली
जाए, आंसू
आ जाते हैं। आंसू
कंकड़ी को
निकालने का
उपाय है। और
तुम जानकर
हैरान होओगे
कि आंसू बहते
तो कभी—कभी
हैं, लेकिन
आते चौबीस
घंटे हैं। जब
भी तुम पलक
झपते हो, तब
तुम्हारी पलक
आर्द्र होती
है और आंख को
पोंछ जाती है।
यह पोंछना चल
रहा है।
अगर
तुम्हारी पलक
गीली न हो, तो
तुम्हारी आंख
जल्दी ही खराब
हो जाएगी। आंसू
सूख जाएं तो आंख
भी सूख जाएगी।
यह
पलक तुम झपते
क्यों हो। यह
इसलिए झपते हो
कि प्रतिपल
कुछ न कुछ आंख
पर जम रहा है।
हवा में धूल
के कण हैं— बड़े
सूक्ष्म कण
हैं। और आंख
दर्पण है।
इसलिए पलक
घूमती रहती है।
पलक पूरे पल आंख
को साफ करती
रहती है। पलक
गीली है। जैसे
गीले कपड़े से
कोई आईना पोंछ
दे। तो
प्रतिपल
चौबीस घंटे
तुम्हारी पलक
गीली है। और
गीली पलक काम
कर रही है।
यह
तो वैज्ञानिक
कहता है, शरीर—
शास्त्री
कहता है कि आंसू
का प्रयोजन है।
इसलिए
स्त्रियों की आंखें
तुम्हें
ज्यादा ताजी,
ज्यादा
रसपूर्ण, ज्यादा
गहरी मालूम
होंगी।
क्योंकि
स्त्रियां
अभी भी आंसुओ
की कला भूली
नहीं हैं।
पुरुष भूल गया
है। पुरुष को
एक अकड़ छा गयी
है। पुरुष को
एक भ्रांति
पैदा हो गयी
है कि पुरुष
को रोना नहीं
चाहिए। यह एक
दुर्भाग्य की
बात है। न
मालूम किन
नासमझों ने
पकड़ा दिया है
कि पुरुष को
रोना नहीं
चाहिए। छोटे
बच्चे तक को
तुम नहीं रोने
देते। उससे
कहते हो : '' बंद
करो, क्या
लड़की है।’’ और
छोटे लड़के को
भी अकड़ आ जाती
है। लड़की तो
वह होना नहीं
चाहता।
क्योंकि
स्त्री की ऐसी
दुर्दशा
तुमने कर रखी है
कि स्त्री
होना
अपमानजनक
मालूम पड़ता है।
मैंने
सुना है, एक घर
में एक लड़का
अपनी मां से
बहुत नाराज हो
गया। ज्यादा
नहीं, कोई
नौ साल का था।
उसने बाथरूम
में अपने को
बंद कर लिया
और दरवाजा ही
न खोले। मां
बहुत घबड़ा गई।
दरवाजा पीटा
मां ने, वह
बोले ही नहीं।
वह बिल्कुल
सन्नाटे में
खड़ा हो गया, बिल्कुल
ध्यानस्थ हो
गया भीतर। मां
की घबड़ाहट बढ़
गई। पति दफ्तर
गया हुआ है।
क्या करे, क्या
न करे। उसने
पति को फोन
किया। उसने
कहा : '' भई
समझाओ, निकाल
लो। अब मैं
आकर भी क्या
करूंगा, अगर
वह नहीं खोलता।’’
जब कोई उपाय
न रहा तो उसे
याद आया कि
पड़ोस में एक
पुलिसवाला
रहता है। शायद
वह डरा —
धमकाकर निकाल
सके। तो उसने
पुलिसवाले को
खबर की।
पुलिसवाला
आया। वह पास
महिला से पूछा
कि कौन है।
कितनी उमर का
है। उसने कहा :
मेरा लड़का है, नौ साल का है।
पुलिस वाला
पास गया। उसने
दरवाजे पर
दस्तक दी और
कहा : बिटिया, बहार निकल आ।
वह
लड़का एकदम
दरवाजा खोलकर
निकला और उसने
कहा : तुमने
समझा क्या है? लड़का
हूं, लड़की
नहीं!
मगर
इतनी सी बात उसे
बाहर ले आई। पुलिसवाला
जानता है लोगों
कि मूढताएं।
उन्हीं से तो
उसका चौबीस
घंटे काम पड़ता
है। उसने
तरकीब निकाल
ली—एक
मनोवैज्ञानिक
तरकीब कि
बिटिया, बाहर
आ जा। लड़का
गुस्से में आ
गया। उसने कहा,
हद हो गई!
कौन मुझे
बिटिया कह रहा
है।
छोटे—से—छोटे
बच्चे को तुम
जहर से भर
देते हो। तुम
उससे कहते हो :
तुम लड़की थोड़े
ही हो!
प्रकृति
ने पुरुष और
स्त्री की आंख
में भेद नहीं
किया। दोनों
में अश्रु की
ग्रंथियां
बराबर हैं।
इसलिए पुरुष
को भी रोना
उतना ही आना
चाहिए जितना
स्त्री को।
नहीं तो आंसू
की ग्रंथि
उतनी न बनाई
होती प्रकृति
ने,
अगर पुरुष
को रोना नहीं
था। लेकिन
पुरुष ने अपने
को रोक लिया ह,
अपने आंसू
घोटकर पी गया
है। उसकी वजह
से पुरुष की आंख
से गरिमा खो
गई है—रूखी—रूखी
हो गई है।
मरुस्थल जैसी
हो गई है।
गहराई खो गई
है। जादू खो
गया है। आंख
में चमक नहीं
रही है, चमत्कार
नहीं रहा है।
तुम
जानकर चकित
होओगे कि मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
दुनिया में
दुगनी संख्या
में पुरुष
पागल होते हैं
स्त्रियों से।
और दुगनी
संख्या में
मानसिक रोगों
से ग्रस्त होते
हैं। और दुगनी
ही संख्या में
पुरुष
आत्महत्या
करते हैं। और
इसके बहुत
कारण हैं। और
उनमें एक कारण
यह भी है कि
पुरुष रोना
भूल गया है।
स्त्री को जब
कभी कोई भाव
बहुत घेर लेता
है तो वह रो
लेती है। रोकर
हल्की हो जाती
है। आंसुओ से
भाव बह जाता
है।
पुरुष
के पास भाव को
बहाने का कोई
उपाय नहीं है।
सब भाव इकट्ठे
होते जाते हैं, इकट्ठे
होते जाते हैं—और
एक ऐसी घड़ी आ
जाती है कि
झेलना असंभव
हो जाता है।
फिर कूद पड़े
सत्रहवीं
मंजिल से।
थोड़ा रो लेते
तो हल्के हो
जाते।
चितरंजन, ठीक
हो रहा है।
और
मैं तुमसे
कहता हूं: जिस
तरह बाहर की आंख
धुलती है आंसू
से,
उसी तरह
भीतर की आंख
भी धुलती है आंसू
से। क्योंकि
हमारी सब
चीजें दोहरी
हैं। शरीर
बाहर है, आत्मा
भीतर है। दो आंखें
बाहर हैं, दो
आंखें भीतर
हैं। दो कान
बाहर हैं, दो
कान भीतर हैं।
और जैसे आंसू
का एक बहिरंग
रूप है, ऐसे
ही आंसू का एक
अंतरंग रूप है।
प्रत्येक चीज
बाहर और भीतर
से बनी है। तो
बाहर का जो
रूप है आंसू
का जल, वह
तो बाहर की आंख
को धोता है।
और भीतर का जो
रूप है, भाव,
वह भीतर की आंख
को धोता है।
रो
सको अगर दिल
खोलकर, तो
पर्दे उठ जाएं।
ढलके—ढलके
आंसू ढलके
छलके—छलके
सागर छलके
दिल
के तकाजे उनके
इशारे
बोझल—बोझल
हल्के—हल्के
देखो—देखो
दामन उलझा
ठहरो—ठहरो
सागर झलके
उनका
तगाफुल उनकी
तवज्जा
इक
दिल,
उस पर लाख
तहलके
उनकी
तमन्ना, उनकी
मुहब्बत
देखो
संभल के, देखो
संभल के
गम
ने उठाए
सैकड़ों का
दिल
ने बसाए लाख
महल के
पल
में हंसाओ, पल
में रुलाओ
पल
में उजाले, पल
में धुंधलके
हमने
न समझा, तुमने
न जाना
दिल
ने मचाए लाख
तहलके
लाख
मनाया, लाख
भुलाया
नैन
कटोरे भर—भर
छलके
कितने
उलझे कितने
सीधे
रस्ते
उनके रंगमहल
के
कड़ियां
झेली पापड़
बेले
का
सौवें दिन रैन
झलके
अब तो मुखड़ा
झलके!
कितने
उलझे कितने
सीधै— रस्ते
उनके रंगमहल
के!
प्रभु
का रास्ता बड़ा
सीधा है— और
बड़ा उलझा भी।
बुद्धि से चलो
तो बहुत उलझा, भाव
से चलो तो बड़ा
सीधा। विचार
से चलो तो
बहुत दूर, भाव
से चलो तो
बहुत पास। आंख
से तलाश तो
बहुत दूर, आंसुओ
से तलाश तो
बहुत निकट।
चितरंजन, आंसुओ
को धन्यभाव
समझो।
तुम्हारे
संस्कार, तुम्हारी
आदतें, तुम्हारी
अब तक की
धारणाएं, आंसुओ
को रोकने की
चेष्टा
करेंगी। तुम
धारणाओं की मत
सुनना। तुम इन
आंसुओ को
बरसने देना।
इनको
तल्लीनता से
आने देना।
इसके साथ
एकात्म हो जाओ।
ये आंसू ही
नहीं हैं, ये
तुम्हारे
हृदय से उमगे
हुए फूल हैं।
''आपका प्रवचन
सुनते—सुनते
कभी—कभी आंखें
गीली हो जाती
हैं और आंसू
बह जाते हैं
तब तन और मन
हल्का हो जाता
है। तनाव
हल्का हो जाता
है। वैसा ही
सक्रिय ध्यान
में भी कभी—कभी
अनुभव होता है।
दोनों
स्थितियां आनंदपूर्ण
लगती हैं।’’
इसलिए
प्रश्न उठा
है: प्रार्थना
और ध्यान, संकल्प
और समर्पण, दो अलग—अलग
मार्ग में से
कौन—सा मार्ग
चित्त— भंजन
करेगा?
कुछ
लोग हैं
जिन्हें
मार्ग चुनना
पड़ेगा। कुछ
लोग हैं, जिन्हें
चुनने की
जरूरत नहीं।
कुछ लोग हैं
जिन्हें
स्पष्ट रूप से
या तो ध्यान
का मार्ग
चुनना पड़ेगा
या प्रार्थना का
मार्ग। वे कौन
लोग हैं
जिन्हें इस
तरह का चुनाव
करना पड़ता है? और कुछ लोग
हैं जिन्हें
चुनाव की
जरूरत नहीं है—जो
दोनों को साथ—साथ
आत्मसात कर
लेंगे। वे कौन
लोग हैं जो
दोनों को एक
साथ आत्मसात
कर सकते हैं?
खयाल
करना, ऐसे लोग
हैं जो नब्बे
प्रतिशत
बौद्धिक हैं,
और दस
प्रतिशत
हार्दिक।
इनके लिए तो
उचित होगा कि
ये ध्यान का
मार्ग चुनें।
क्योंकि
नब्बे
प्रतिशत है, वही मार्ग
बन सकता है।
कुछ लोग हैं
जो नब्बे
प्रतिशत भाव
हैं, और दस
प्रतिशत
विचार। उनके
लिए तो स्पष्ट
है कि वे
प्रार्थना का
मार्ग चुनें।
लेकिन ऐसे लोग
भी हैं, जो
पचास—पचास
प्रतिशत हैं,
या करीब—करीब
पचास—पचास
प्रतिशत।
इकावन, उनचास
प्रतिशत—इस
तरह बंटाव है
जिनका—कि पचास
प्रतिशत
बुद्धि और
पचास प्रतिशत
हृदय। उनके
लिए चुनाव
उचित नहीं है।
उनके लिए चुनाव
महंगा पड़
जाएगा। वे जो
भी चुनेंगे, वही गलत
होगा।
क्योंकि अगर
उन्होंने
ध्यान चुना तो
पचास प्रतिशत
उनके भीतर अधूरा
रह जाएगा। और
यह बड़ा
अधूरापन है।
प्रार्थना
चुनी तो भी
अधूरा रह
जाएगा।
चितरंजन
उन थोड़े—से
लोगों में हैं, जो
पचास—पचास
प्रतिशत बंटे
हुए हैं।
चुनने की
जरूरत नहीं।
तुम दोनों में
जाओ। तुम
ध्यान भी करो,
तुम
प्रार्थना भी
करो। तुम
दोनों में एक
साथ डूबो, तो
ही तुम्हारा
परिपूर्ण
चित्त— भंजन
हो सकेगा।
चौथा
प्रश्न:
भगवान
श्री, धन्यवाद!
चैतन्यकीर्ति
के प्रणाम!
चैतन्यकीर्ति!
धन्यवाद तो
प्यारा है, मगर
अभी समय आया
नहीं।
धन्यवाद देने
का समय आएगा, अभी आया
नहीं। अभी कुछ
ही नहीं। अभी
धन्यवाद किस
बात का दे रहे
हो?
मेरी
बातों में रस
आए,
इतने से
धन्यवाद देने
की कोई जरूरत
नहीं। मेरी
बातें अच्छी
भी लगें, तो
क्या होगा?
जब तक मेरी
बातें
तुम्हारे
भीतर घट न
जाएं.......
धन्यवाद तो उस
दिन देना।
प्रतीक्षा
करो अभी। थोड़ी
राह देखो। मैं
जो कह रहा हूं, उसमें
उतरो। इतनी
जल्दी
धन्यवाद नहीं।
यहां कोई
औपचारिकता
नहीं निभानी
है।
''धन्यवाद '' मूल्यवाद
शब्द है। इसका
ऐसे ही उपयोग
नहीं करना।
अकसर ऐसा हो
जाता है कि
मूल्यवान
शब्दों का हम
ऐसे ही उपयोग
करने लगते हैं,
तो उनका
अर्थ ही खो
जाता है।
हमारे पास
जितने मूल्यवान
शब्द हैं, हमने
सबको खराब कर
दिया। प्रेम
को खराब कर
दिया—इतना
बहुमूल्य
शब्द! शायद
उसके पार
परमात्मा ही
एक शब्द है, जो उससे
ज्यादा बहुमूल्य
है। मगर उसको
खराब कर दिया।
किसी को आईसक्रीम
से प्रेम है।
किसी को कार
से प्रेम है।
किसी को कपड़ों
से प्रेम है।
कोई कहता है:
मुझे मेरे
कुत्ते से
प्रेम है।
तुमने
प्रेम जैसी
महत् धारणा को
कहां जोड़ दिया? पसंदगियों
को प्रेम कहने
लगे! आईसक्रीम
पसंद हो सकती
है, मगर
प्रेम क्या है?
प्रेम तो
बड़ा शब्द है, बहुमूल्य शब्द
है। अगर इसका
ऐसा उपयोग
करोगे, तो निश्चित
ही यह विकृत
हो जाएगा। फिर
किसी स्त्री
से कहोगे।
मुझे तुमसे
प्रेम है। वह
सोचेगी: होगा
वैसे ही, जैसे
आईसक्रीम से
है। फिर अर्थ
कहां रहा प्रेम
का? फिर
तुम परमात्मा
से एक दिन
कहोगे: मुझे
तुम से प्रेम
है। परमात्मा
मुंह फेर
लेगा। वह
कहेगा: होगा
उसी तरह, जिस
तरह तुम्हें
अपने कुत्ते
से है।
तुम्हारे
प्रेम का
मूल्य ही
कितना है?
ऐसा
ही शब्द ''ईश्वर''
है।
बहुमूल्य
शब्द है। उसका
हमने इतना
उपयोग किया कि
खराब कर दिया।
हर बात में
ईश्वर को खींच
लाते हैं।
छोटी—छोटी बात
में उसे खींच
लाते हैं।
इतने पवित्र
शब्दों का
उपयोग बहुत सोचकर,
समझकर, समय
पर करना
चाहिए।
यहूदियों
की परंपरा ठीक
थी। उनकी
परंपरा यह थी
कि ईश्वर शब्द
का उपयोग ही न
किया जाए। अब
भी अगर वह
ईश्वर शब्द का
उपयोग करते
हैं,
अंग्रेजी
में गाड लिखते
हैं, तो ''ओ'' छोड़
देते हैं।’’जी'' हलंत ''डी''।’’ओ''
नहीं लिखते
बीच में। सिर्फ
इशारा, कि
ईश्वर की तरफ
इशारा कर रहे
हैं। पूरे
ईश्वर के शब्द
को तो कैसे
उपयोग करें? अभी हमारी
जबान कहां? अभी हमारे
पास हृदय कहां
कि हम ईश्वर
शब्द का उपयोग
करें? जिस
दिन जानेंगे,
उस दिन कर
सकेंगे।
यहूदियों
में एक पुरानी
परंपरा थी——बडी
प्रीतिकर है
और बड़ी
महत्वपूर्ण
है——कि
यहूदियों का
जो सबसे बड़ा सदगुरू
होता था, वर्ष
में एक दिन
जेरुसलेम के
बड़े मंदिर में,
एक अंतर—कक्ष
था जहां कोई
भी नहीं जा
सकता था, जो
उनके बीच सबसे
ज्यादा जानी
और सबसे
ज्यादा जाग्रत
पुरुष होता था,
वर्ष में एक
दिन, विशेष
दिन पर, सारे
यहूदी इकट्ठे
होते
जेरुसलेम के
मंदिर में, लाखों की
भीड़ लगती और
वह सदगुरू
भीतर जाता। सब
द्वार—दरवाजे
बंद कर दिए
जाते। फिर वह
अंतर—कक्ष में
जाता, वहां
भी द्वार
दरवाजे बंद कर
दिए जाते और
वहां उस एकांत
में जहां कोई
भी सुन नहीं
सकता था, वह
ईश्वर नाम का
उच्चारण
करता। बस एक
बार, फिर
चुपचाप बाहर आ
जाता। बाहर
सारे लोग
शांति से
प्रतीक्षा
करते। वह उनकी
तरफ से
उच्चारण कर
रहा था। एक
बार वर्ष में!
इतना भी हो
जाए तो बहुत।
और जो कर सके, वही करे।
यह
परंपरा
महत्वपूर्ण
है। यह सिर्फ
इतनी ही बात
कह रही है कि
इतने परम
शब्दों का
उपयोग जितना
कम हो सके
उतना अच्छा।
धन्यवाद
कीमती शब्द
है। जब तक
धन्य न हो जाओ, तब
तक कैसे उसका
उपयोग करोगे?
अंग्रेजी
के ''थैंक्यू'
शब्द का
अनुवाद नहीं
है ''धन्यवाद''। उसके लिए ''शुक्रिया'' ठीक है।’’धन्यवाद''
बड़ा कीमती शब्द
है।... धन्यता!
और धन्यता तो
एक ही है, धन्यताएं
बहुत नहीं
हैं। धन्य तो
कोई तभी होता
है, जब
ध्यान
उत्पन्न होता
है। धन्य तो
कोई तभी होता है,
जब भीतर धन
उपलब्ध होता
है। धन्य तो
कोई तभी होता
है, जब
भीतरी
साम्राज्य
मिलता है।
धन्य तो
परमात्मा को
पाकर ही कोई
होता है, और
नहीं होता।
तो
चैतन्यकीर्ति!
अभी नहीं। तुम
तो धन्यवाद
करते हो, मैं
अभी नहीं लेता।
अभी संभालो, अभी इसे और
गहराओ। अभी
इसमें और पूजा
जोड़ो, और
प्रार्थना
डालो। अभी
इसमें और
प्राण का पसारा
करो। अभी इसकी
जड़ें और फैलने
दो तुम्हारे
भीतर। अभी और
फूल आने दो।
अभी और गंध
उठने दो। जब
ठीक समय आ
जाएगा, तब
उसका उपयोग
करना। और तब
शायद उपयोग कर
भी न सको। तब
शायद मौन में
झुक जाओ। शायद
कहना उचित ही
न मालूम पड़े।
बोधिधर्म
भारत वापिस
लौटता था।
उसके चार शिष्य
थे चीन में।
भारत वापिस
लौटते वक्त
उसने चारों को
बुलाया।
शिष्य तो उसके
लाखों थे, मगर
वे
विद्यार्थी
रहे होंगे।
लेकिन शिष्य
थे, जो सच में
झूके थे। उसने
चारों को बुलाया
और उनसे पूछा अब
में जा रहा हू।
एक—एक वाक्य
में तुमने जो
अनुभव किया हो
सत्य, वह
मुझे कह दो।
पहले
शिष्य ने खड़े
होकर कुछ कहा।
उसने कहा कि
सत्य विराट है, असीम
है, अव्याख्य
है। बड़ी
दार्शनिक
बातें कहीं।
बोधिधर्म ने
कहा: तेरे पास
मेरा मांस है।
दूसरे
ने कहा : सत्य
अनुभव है, दर्शन
नहीं। न तो
व्याख्य कह
सकते हैं, न
अव्याख्य।
प्रतीति है, साक्षात्कार
है।
बोधिधर्म
ने कहा : तेरे
पास मेरी
हड्डियां हैं।
तीसरे
ने कहा : सत्य
को प्रकट करने
का एक ही उपाय
है—मौन।
बोधिधर्म
ने कहा : तेरे
पास मेरा रक्त
है।
और
चौथी एक
स्त्री थी। जब
बोधिधर्म ने
उसकी तरफ
चेहरा किया, वह
स्त्री झुकी
और बोधिधर्म
के चरणों पर
गिर पड़ी। कुछ
भी उसने कहा
नहीं।
बोधिधर्म ने
उसे उठाया और
कहा : तेरे पास
मेरी आत्मा है।
कहना
क्या है? यह भी
कहना कि सत्य
अव्याख्य है,
व्याख्या
हो गई। यह
कहना कि सत्य
अनुभव है, शब्द
हो गया। यह
कहना कि सत्य
तो मौन में ही
कहा जा सकता
है, तो फिर
इतना भी क्यों
कहा? मौन
तो खंडित हो
गया। चौथे से
बोधिधर्म ने
कहा : तेरे पास
मेरी आत्मा है।
जल्दी
न करो
चैतन्यकीर्ति।
यहां मैं
चाहता हूं ऐसे
सैकड़ों लोग, जिनसे
मैं कह सकूं : तुम्हारे
पास मेरी
आत्मा है। और
यह घटेगा।
इसके मार्ग पर
लोग चलने शुरू
हो गए हैं।
मगर
प्रतीक्षा
करो और धैर्य
रखो।
तुम्हारे
मन में अभी
देखता हूं, तो
अभी मैं ऐसा
कुछ भी नहीं
पाता कि तुम
धन्यवाद कर
सको। धन्यवाद
का कोई कारण
नहीं पाता।
तुम प्रसन्न
हो यहां मेरे
पास होकर, मगर
यह तो गौण बात
है। तुम यहां
सुखी हो मेरे
पास होकर, मगर
इसका कोई
मूल्य नहीं है।
मैं यहां तुम्हें
सुख देने को
नहीं हूं। मैं
यहां तुम्हें
सत्य से कम और
कुछ भी नहीं देना
चाहता। इससे
कम में मैं
राजी नहीं
होनेवाला।
इससे कम में
मैं राजी हुआ,
तो मैंने
तुम्हें
प्रेम ही नहीं
किया। मैं तुम्हें
खीचूंगा और
खीचूंगा, आखिरी
दम तक खीचूंगा।
जब तक कि
तुम्हारे
भीतर से सत्य
का ही संगीत न जन्म
जाए, तब तक
तुम्हारे
तारों को
कसूंगा।
तुम्हें
ठोकूंगा, पीटूंगा।
तुम्हें बहुत
चोटें
पहुंचेंगी।
तुम बहुत
तिलमिलाओगे
भी। तुम बहुत
बार भाग भी
जाना चाहोगे।
मगर वह सब
करना ही होगा।
उसके
अतिरिक्त कोई
उपाय नहीं है।
सस्ते में मैं
राजी नहीं हो
सकता। तुम जरा
कठिन आदमी के
साथ दोस्ती
बना लिए हो।
तुम्हारे
भीतर अभी
देखता हूं तो
अभी तो बहुत विचारों
का,
वासनाओं का,
इच्छाओं का
जाल है वहां।
अभी तो तुम
बहुत छोटी—छोटी
बातों से भरे
हो। अभी बड़ी
बातों की जगह
भी नहीं है।
अभी धन्यवाद
कहां?
देख
तू सुर्मई
आकाश पै तारों
का निखार
रात
की देवी के
माथे पै चुनी है
अफ्शां
या
कुछ अश्कों के
चराग
हैं
किसी राहगुजर
में लर्जां
आह
यह सुर्मई
आकाश, यह तारों
के शरार
यह
मेरे दिल को
खयाल आता है
दम
अंधेरे में
घुटा जाता है
क्यों
न ईवाने—तसव्बुर
में जला लूं
शमएं
बरबतो—चंगो—रबाब
मुंतजिर
हैं मेरे
मिजराब की एक
जुंबिश के
जिंदगी
क्यों फकत एक
आहे—मुसलसल ही
रहे
क्यों
न बेदार करूं
वो नग्मे
वक्त
भी सुन के
जिन्हें थम
जाए
रहगुजारों
में ये बहता
हुआ जूं
मौत
के साए तले
सिसकियां
भरती है हयात
इस
उमड़ते हुए का
से किनारा कर
लूं
ये
सिसकती हुई
लाशें, ये
हयाते मुर्दा
ये
जबीनें
जिन्हें
सज्दों से
नहीं है फुरसत
ये
उमंगें जिन्हें
फाकों ने कुचल
डाला है
यह
बिलकती हुई
रूहें, ये
तड़पते हुए दिल
इन
ढकलते हुए
अश्कों को
चुराकर मैं भी
अपने
ईवाने—तसस्मृर
में गल' कर
लूं
देखकर
रात की देवी
का सिंगार
वहम
आता है मगर
नग्म:—ओ
नै का सहारा
लेकर
जिंदगी
चल भी सकेगी
कि नहीं;
इन
सितारों की
दमकती हुई
कदीलों से
रात
के दिल की
सियाही भी
मिटेगी कि
नहीं।
आकाश
को देखा है—तारों
से भरा! ऐसे ही
तारों से तुम
भी भर सकते हो।
रात चुनरी
देखी आकाश की!
ऐसी ही चुनरी
तुम्हारा भी
परिधान बन
सकती है
देख
तू सुर्मई
आकाश पै तारों
का निखार
रात
की देवी के माथे
पै चुनी है अफ्शां
रात
की देवी के
माथे पर
चुन्नी है
तारों की।
या
कुछ अश्कों के
चराग। या आंसुओ
के टिमटिमाते
दीपक। हैं
किसी राहगुजर
में लर्जा
और
यह सुर्मई
आकाश यह तारों
के शरार
यह
मेरे दिल को
खयाल आता है
दम
अंधेरे में
घुटा जाता है
लेकिन
आदमी अंधेरे
में रहता है।
आकाश को
बुलाता नहीं, निमंत्रण
नहीं देता।
इससे भी बड़ा
आकाश
तुम्हारे
भीतर छिपा है।
इससे भी
प्यारे तारों
का जलसा
तुम्हारे
भीतर होने को
रुका पड़ा है।
बगिए हैं बाहर
बहुत और फूल
हैं बहुत—मगर
नहीं कुछ
मुकाबले उनके,
जो भीतर
खिलते हैं।
बाहर के कमल सिर्फ
फीके कमल हैं।
कमल हैं भीतर
के, फिर
मुर्झाते
नहीं।
धन्यवाद
तो तब, जब भीतर
के कमल खिल
जाएं।
धन्यवाद तो तब,
प्राण भी
तारों से भरी
चुनरी को ओढ़
लें।
दम
अंधेरे में
घुटा जाता है
अभी
तो दम अंधेरे
में घुट रहा
है।
क्यों
न
ईवानेतसव्बुर
में जला लूं
शमाएं
सोचो!
क्यों अपने
ध्यान—रूपी
प्रासाद में
हम बोध की, संबोधि
की शमाएं न
जला ले; दीए
न जला ले?
क्यों
न ईवाने—तसव्बुर
में जला लूं शमाएं
बरबतो—चंगो—रबाब
और
क्यों न उठा
लें सितार और
खंजडी? क्यों
न भीतर का
सितार छेडें? और क्यों न भीतर
की खंजडी बजे!
क्यों
न ईवाने—तसव्बुर
में जला लूं
शमाएं
बरबतों—चंगो—रबाब
मुंतजिर
हैं मेरे
मिजराब की इक
जुंबिश के
जरा—सा
इशारा चाहिए
तुम्हारी तरफ
से, छिड़ जाएगा
संगीत! नृत्य
उठ बैठेगा। मदिरालय
खुल जाएगा।
मुंतजिर
हैं मेरे
मिजराब की इक
जुंबिश के
जिंदगी
क्यों फकत इक
आहे—मुसलसल ही
रहे
क्यों
जिंदगी को एक
लंबा सिलसिला
बना रखा है——दु:ख
का,
आह का, शिकायत
का!
और
अभी
चैतन्यकीर्ति, तुम्हारी
जिंदगी एक आह
है——एक मुसलसल
आह!
क्यों
न बेदार करूं
वो नग्मे
तुम्हारे
भीतर गीत पड़े
हैं,
जो मुक्त
होना चाहते
हैं, जागना
चहते हैं, सोए
हैं जगाओ अपने
भीतर पडे
गीतों को।
क्यों
न बेदार करूं
वो नग्मे
वक्त
भी सुन के
जिन्हें थम
जाए
और
निश्चित ऐसा
होता है। वक्त
को मैंने थमते
देखा है, इसलिए
तुमसे कहता
हूं : वक्त
निश्चित
थम जाता है।
जब भीतर का
गीत जगता है, वह
भीतर लिए ''अच्युत''
ने प्रश्न
पूछा है। जब
भीतर का
नमोकार फूटता
है, का
मंत्र फूटता
है, जिसके
ओंकार का नाद
होता है, अनाहत
की
अभिव्यक्ति
होती है——वक्त
रुक जाता है।
सदा के लिए
पहचान मिट
जाती है। फिर
न कोई अतीत
होता है, न
कोई वर्तमान
होता है। फिर सिर्फ
शाश्वतता
होती है।
मुंतजिर
हैं मेरे
मिजराब की इक
जुंबिश के
जिंदगी
क्यों फक्त इक
आहे—मुसलसल ही
रहे
क्यों
न बेदार करूं
वो नग्मे
वक्त
भी सुन के
जिन्हें थम
जाए
रहगुजारों
में ये बहता
हुआ जूं
मौत
के साए तले
सिसकियां
भरती है हयात
अभी
तो जिंदगी मौत
के नीचे दबी
है। अभी तो
मौत से मुक्त
नहीं हुई।
इस
उमड़ते हुए
स्पा से
किनारा कर लूं
ये
सिसकती हुई
लाशें, ये
हयाते मुर्दा
यह
मृतकों जैसा
जीवन! ये
रास्तों पर
चलते लोग देखते
हो?
ये चलती हुई
लाशें हैं बस।
जब तक किसी ने
परमात्मा को
नहीं जाना, तब तक सब
मुर्दा हैं।
उसको जागकर, देखकर, जीकर
ही जीवन
उपलब्ध होता
है। उसके
अतिरिक्त और
कोई जीवन नहीं
है।
ये
जबीनें जिन्हें
सज्दों से
नहीं है फुरसत
ये
उमंगें
जिन्हें
फाकों ने कुचल
डाला है
ये
बिलकती हुई
रूहें ये
तड़पते हुए दिल
इन
ढलकते हुए
अश्कों को
चुराकर मैं भी
अपने
ईवानेतसव्बुर
में चरागा कर
लूं
देखकर
रात की देवी
का सिंगार
वहम
आता है मगर
ऐसे
विचार
तुम्हारे
भीतर भी उठते
हैं। कभी किसी
बुद्ध को
देखकर
तुम्हारे
भीतर भी उठता
है कि ऐसा
आकाश मैं भी
सजा लूं। कभी
सुगंध पकड़ जाती
है। तुम्हारे
नासापुट लहर
जग जाती है।
किसी
क्राइस्ट या
उठाने लगता है, सिर
उठाने लगता
है। किसी
महावीर के पास
से गुजरकर, तुम्हें भी
उनकी थरथराने
लगते हैं।
तुम्हारे
भीतर भी कोई
सोई हुई
मुहम्मद के
पास तुम्हारे
भीतर सोया हुआ
गीत फन मगर तब
वहम पकड़ते हैं।
देखकर
रात की देवी
का सिंगार
वहम
आता है मगर,
नगम:—ओ
नै का सहारा
लेकर
संगीत
और वाद्य का
सहारा लेकर...
जिंदगी
चल भी सकेगी
कि नहीं;
यही
झंझट है। यह
संदेह उठता ही
है।
वहम
आता है मगर
नगम:—ओ—नै
का सहारा लेकर
जिंदगी
चल भी सकेगी
कि नहीं;
इन
सितारों की
दमकती हुई
कदीलों से
रात
के दिल की
सियाही भी
मिटेगी कि
नहीं।
और
यही संदेह
अड़चन बन जाते
हैं,
बाधा बन
जाते हैं।
मेरे पास हो।
रात के आकाश
को देखो।
तारों— भरे
आकाश को देखो।
और देखने से
ही काम न होगा।
दर्शक होने से
ही काम न होगा।
तुम्हें भी
ऐसा आकाश
उपलब्ध हो
सकता है। तुम
भी इसके हकदार
हो, इसके
मालिक हो।
अपने हक का
दावा करो। यह
तुम्हारा
स्वरूप—सिद्ध
अधिकार है। यह
स्वतंत्रता
तुम्हारी भी
होनी चाहिए।
यह गरिमा
तुम्हारी भी
होनी चाहिए।
देखते
हो,
मैंने
तुम्हें नाम
दिया है :
चैतन्यकीर्ति!
उसका अर्थ
होता है :
चेतना का यश।
तुम्हारे भीतर
पड़ा है, उठाना
है। इसीलिए तो
ऐसे आशा से
भरे नाम
तुम्हें दिए
हैं कि
तुम्हें याद आती
रहे, कि जब
तक चैतन्य की
कीर्ति
उपलब्ध न हो
जाए, जब तक
वैसा यश न
मिले, वैसी
गरिमा और गौरव
न मिले, तब
तक रुकूंगा
नहीं।
धन्यवाद
का दिन जरूर
आएगा, मगर
श्रम करना
होगा बहुत। पत्थर
मार्ग में हैं
बहुत, हटाने
होंगे। राह
तोड़नी होगी।
अभी तो गंगा
गंगोत्री पर
है। धन्यवाद
तो तब देना, जब गंगा
सागर पहुंच
जाए। अभी तो
बहुत यात्रा
शेष है। छोटी —
छोटी बातों के
लिए धन्यवाद
देना ही मत।
नहीं तो बड़ी
बात का जब समय
आएगा, तब
धन्यवादशा बड़ा
ओछा हो जाएगा,
उसमें कुछ अर्थ
नहीं रह जाएगा।
इसे संभालकर
रखो। यह कीमती
शब्द है, प्यारा
शब्द है।
तुमने
खयाल किया, पश्चिम
में एक रिवाज
है धन्यवाद
देने का — हर
छोटी बात में।
इतना औपचारिक
हो गया है, इतना
यांत्रिक हो
गया है कि कभी — कभी
बेहूदा भी हो
गया है। बेटा
मां को भी
धन्यवाद देता
है। बेटा बाप
को भी धन्यवाद
देता है। छोटी
— छोटी बातों
के लिए! मां ने
एक कप चाय दे
दी, और
बेटा धन्यवाद
देता है। भारत
में अड़चन
मालूम होती है।
यहां
तुम्हारी मां
ने तुम्हें
चाय का एक
प्याला दिया,
धन्यवाद दो,
तो वह चौंक
ही जाएगी। शायद
उसके हाथ से
प्याला ही गिर
जाएगा कि तुम
क्या कह रहे
हो। धन्यवाद!
होश में हो।
नहीं।
यहां हमने
थोड़े ज्यादा
नाजुक चीजों
को पहचाना है।
मां को
धन्यवाद नहीं
दिया जा सकता।
औपचारिकता
मां और बेटे
के बीच नहीं
लायी जा सकती।
यह होगी, ठीक
है बाजार और
दुनिया में
ठीक है, लेकिन
जहां बहुत
गहरे संबंध
हैं वहां यह
बात नहीं लायी
जा सकती। तुम
अपनी पत्नी को
धन्यवाद दोगे।
तो वह सोचेगी
कि आज जरूर
कुछ गलती हो
गई। नहीं तो
धन्यवाद
क्यों दिया।
पत्नी
तुम्हें
धन्यवाद देगी।
तुम अपने बेटे
को धन्यवाद
दोगे।
नहीं।
जितना गहरा
प्रेम होता
जाता है, उतना धन्यवाद
मुश्किल होता
जाता है, क्योंकि
औपचारिकता
मुश्किल होती
चली जाती है।
मुझसे
तुम्हारा
नाता उपचार का
नहीं होना चाहिए।
यह कोई
औपचारिक रिश्ता
नहीं है। और
धन्यवाद देकर
तुम छूट न
सकोगे — इतनी
आसानी से छूट
न सकोगे। तुम
क्या समझे कि
बात खत्म कर
ली,
धन्यवाद दे
दिया, उऋण
हो गए। कोई
उपाय नहीं है।
इस
देश के शास्त्र
कहते हैं: कठिन
है मां का ऋण
चुकाना, लेकिन
फिर भी चुकाया
जा सकता है।
गुरु का ऋण तो
चुकाया ही
नहीं जा सकता।
गुरु का ऋण
चुकाने का तो
एक ही उपाय शास्त्रों
ने कहा है — वह
यह कि जो गुरु
से पाया है उसे
बांटना। जो
मिला है, उसे
लुटाना। जो
तुम्हें मिला
है, जब
बहुतों को तुम
मिला दो, तो
समझना कि चलो
कुछ गुरु के
काम आए।
तो
पहले तो स्वयं
जागो, फिर
जगाओ।
धन्यवाद की
फिक्र में मत
पड़ो। जब घड़ी
आएगी उसकी, तब तुम्हारे
हृदय का स्वर
अपने — आप कह
देगा। वाणी भी
न आवश्यक
होगी।
तुम्हारी आंखें
कह जाएंगी।
मौन में फलित
हो जाएगा।
शरमिदगीए—कोशिशे—नाकाम
कहां तक;
महरूमिएतकदीर
का इल्जाम
कहां तक?
दुनिया
को जरूरत है
तेरे इज्मे
जवा की
सर
गुश्ता रहेगा
सिफ्ते—जाम
कहां तक?
लैला—ए—हककित
से भी हो जा
कभी दो—चार
ख्वाबों
की हसी छांव
में आराम कहां
तक?
रुख
गर्दिशे—दौरा
का पलट सकता
है तू खुद
नादां
गिलए—गर्दिशे—ऐम्याम
कहां तक?
जुज—वहम
नहीं, कैदे—रहो—रस्मे
जमाना
ऐ
ताइरे आजाद!
तहे—दाम कहां
तक?
इस
संसार के सारे
रस्म—रिवाज, औपचारिकताएं,
बस भ्रम है।
जुज—वहम नहीं,
कैदे—रहो—
रस्मे जमाना,
ऐ ताइरे
आजाद!... हे
स्वतंत्रता—प्रिय
पक्षी!... ऐ
ताइरे आजाद!
तहे—दाम कहां
तक? तू इन
छोटे—छोटे
जालों में कब
तक उलझा रहेगा?
हे
स्वतंत्रता—प्रिय
पक्षी, उड़!
सारा आकाश
तेरा है।
लेकिन बिना उड़े
यह आकाश
तुम्हारा
नहीं हो सकता।
लैला—ए—हककित
से भी हो जा
कभी दो—चार।
वह जो प्रेयसी
है परमात्मा
नाम की——लैला—ए—हककित
वह——जो यथार्थ
की लैला है, सत्य की
लैला है.. लैला—ए—हककित
से भी हो जा
कभी दो—चार...
कभी उससे अपनी
दो आंखों को
चार कर ले।...
ख्वाबों की
हंसी छांव में
आराम कहां तक? ....कब तक..... सपने
देखते रहोगे?
और
चैतन्यकीर्ति
काफी सपने देख
रहे हैं, इसलिए
मैं यह कह रहा
हूं। सपने ही
सपने हैं। अभी
सपनों से
छुटकारा नहीं
है। अभी सत्य
की पहली किरण
भी नहीं फूटी।
लैला—ए—हककित
से भी हो जा
कभी दो—चार
ख्वाबों
की हंसी छांव
में आराम कहां
तक?
जुज—वहम
नहीं कैदे—रहो—रस्मे
जमाना
ऐ
ताइरे आजाद!
तहे—दाम कहां
तक?
पांचवां
प्रश्न :
जब
मैं आपको आंखें
बंद करके
सुनती हूं, तब
बहुत—सी
तरंगें शरीर
में प्रवेश
करती हुई
मालूम होती
हैं; जब
आपको बिना पलक
झपके एकटक
देखती हूं, तब आपके पास
सफेद तेजो—वलय
दिखाई पड़ता
है। यह आभा
कुछ
संन्यासियों
की आभा से
जुडी हुई
मालूम होती
है। कभी
प्रवचन के
वक्त बिजली के
सौम्य झटके
जैसा भी अनुभव
होता है। आपको
दो साल से
सुनती हूं, लेकिन ये सब अनुभव
पंद्रह दिन से
ही हो रहे
हैं। आपको
कैसे सुनूं? आंखें बंद
करके या खोल
कर? कृपया
मार्गदर्शन
करें।
पूछा
है सुमन भारती
ने।
हर
चीज का समय
है। हर बात की
ऋतु है। वसंत
आएगा, तभी कुछ
होगा। वह वसंत
कब आए, इसका
कुछ पक्का
नहीं है।
इसलिए
प्रतीक्षा करनी
होती है।
दो
वर्ष सुना और
पंद्रह दिन से
कुछ होना शुरू
हुआ। अब तुम
थोड़ा सोचो।
अगर दो वर्ष
में अधैर्य
किया होता...?
कई बार खयाल
आया होगा कि
कुछ हो तो
नहीं रहा है।
काफी हो गया।
एक वर्ष बीत
गया। डेढ़ वर्ष
बीत गया। पौने
दो वर्ष बीत
गए। एक वर्ष
ग्यारह माह
बीत गए। अभी
तक कुछ हुआ
नहीं है। दो
वर्ष बीत गए, कुछ हुआ
नहीं। कब तक
समय गंवाना है?
दो वर्ष कोई
छोटा समय नहीं
होता। लंबा
समय है। और
कुछ न होता हो
तो '।
योंकि में ' है में छोटा
बहुत लबा
मालूम पड़ता है।
दुःख समय बहुत
लंबा मालूम
पड़ता, सुख
हो
जाता है। कुछ
हो रहा हो तो
दो साल भी यूं
बीत जाते हैं
जैसे पलक
मारी। और कुछ
न हो रहा हो, तो
दो साल ऐसे
लगते हैं कि
जनम—जनम हो गए
बैठे—बैठे। इस
च्वांगत्सु
भवन में बैठे
हैं, दो
साल से सुन
रहे हैं, कुछ
हो नहीं रहा।
इस बीच, तुम्हें
याद है, कई
तुम्हारे पास
बैठे थे, अब
नहीं हैं? वे
थक गए, ऊब
गए, छोड्कर
चले गए। कोई
नहीं जानता कब
घड़ी आएगी। और
घड़ी के बिना
कुछ भी नहीं
होता। सभ्य।
घड़ी में जब
तुम्हारे सब
तार मेल खा
जाते हैं अस्तित्व
से, तब कोई
घटना घटती है।
घटते ही घटते
घटती है।
ऐसा
हुआ,
कोलरेडो
में सोने की
खदानें खोजी
गईं जब पहली दफा,
तो सारी
दुनिया
कोलरेडो की
तरफ चल पड़ी।
सारे अमरीका
में लोग पागल
हो गए। लोगों
ने दुकानें
बेच दीं, कारखाने
बेच दिए। जो
पैसा था, लिया,
भागे
कोलरेडो।
सारी ट्रेनें
कोलरेडो जाने
लगीं, भरने
लगीं। लोग
जमीनें
खरीदने लगे।
खेतों में
सोना पड़ा था।
जहां जमीन ले
ली, जिसके
पास जितनी
जमीन हो गई, एक एकड़ का
टुकड़ा मिल गया,
तो भी
पर्याप्त हो
गया। सदा के
लिए भर गए
खजाने।
कोलरेडो में
सोना ही सोना
था। एक आदमी
के पास काफी
संपदा थी।
उसने सारी
संपदा लेकर
पूरी पहाड़ी
खरीद ली। सब
दांव पर लगा
दिया। उसने
सोचा कि जब एक—एक
दो—दो एकड़
लोगों को धनी
बना रही है, तो फिर छोटा
काम क्या
करना! उसने सब
बेच दिया, कुछ
बचाया नहीं।
मगर चकित हुआ!
पहाड़ी
बिल्कुल खाली
थी।
सोना
था ही नहीं।
खोद—खोद मर
गया। उधार
करोड़ों रुपए
लेकर बड़े
यंत्र लगाए।
पहाड़ी की
खुदाई करनी
थी। मगर खुदाई
चलती रही, कुछ
हाथ न आया सो न
आया। दिवाला
सामने आ गया।
उस आदमी ने
विज्ञापन
दिया अखबारों
में कि किसी को
भी खरीदनी हो
तो यह पहाड़ी, मैं खुदाई
के सामान, यंत्रों
के साथ बेचता
हूं। उसके
मित्रों ने, साथियों ने
कहा: ''कौन
खरीदेगा।
सारा अमरीका
तुम्हारे दुर्भाग्य
का विचार कर
रहा है। कौन
खरीदेगा।’’ उसने कहा कि
कोई न कोई
खरीदनेवाला
शायद मिल जाए।
कोई मुझसे भी
बड़ा पागल हो
सकता है।
और
एक आदमी मिल
गया,
जिसने वह
पहाड़ी खरीद ली।
जिससे खरीदा
वह तो निश्चित
हुआ कि झंझट
मिटी। जितने
दाम मिलने थे,
उतने तो
नहीं मिले, लेकिन जो
मिले वे भी
काफी थे।
दिवाले से बचा।
मगर उसको भी
चिंता तो
पकड़ने लगी मन
में कि यह बेचारा
अब मारा गया।
जानबूझकर।
मैं तो खैर
अनजान में
मरने गया था, अज्ञात में।
यह जानबूझकर
मर रहा है।
उसको उस पर
दया भी आने
लगी। लेकिन
चमत्कार हुआ।
उस आदमी ने
पहले खुदाई की—और
सोने की
कोलरेडो की
सबसे बड़ी खदान
मिली! बस एक फीट
और, बस एक
फीट की पर्त
और रह गयी थी
खोदने को। तुम
सोच सकते हो
पहले आदमी पर
क्या गुजरी!
वह पागल हो
गया। दिवाला
निकलता तो
पागल नहीं
होता, अब
पागल हो गया।
उसने छाती पीट
ली। उसकी नींद
खो गई। उसने
कहा कि मारे
गए, हद हो
गई। अब उस पर
असली दुःख का
पहाड़ टूटा।
सारी पहाड़ी
सोने से भरी
थी, बस एक
फीट और खुदाई
करनी थी।
और
ऐसी ही जिंदगी
है। पता नहीं
तुम कब लौट
जाओ। अगर दो
साल में कभी
भी लौट गयी
होती सुमन, लौटने
के मौके आए
होंगे, तो
चूकती, बुरी
तरह चूकती। कब
होगा, नहीं
कहा जा सकता।
और इस बीच इन
दो साल में
सुमन के मन
में कई दफे सवाल
उठा होगा
दूसरों को
होता देखकर कि
जरूर ये भ्रम
में हैं, हेल्यूसिनेशन।
इनको विभ्रम
हो रहा है।
क्योंकि जो
हमें नहीं
होता, वह
जब दूसरे को
होता है, तो
स्वाभाविक
मानने की
आकांक्षा यही
होती है कि
भ्रम हो रहा
है। दिमाग
इसका
अस्तव्यस्त
हो गया है।
होश में नहीं
है। कहां के
तेजोवलय, कहां
की झकारें, कहां का
संगीत, कहां
के बिजली के
धक्के! यह सब
हो रहा है, तो
यह आदमी कुछ
रुग्णप्राय
है। अगले दिन
से इसके पास
नहीं बैठना है।
क्योंकि रोग
संक्रामक
होते हैं।
सुमन
को कई बार सवाल
उठा होगा कि
दूसरों को हो
रहा है, गलत
हो रहा है।
लेकिन अब, जो
अब तक गलत
दिखाई पड़ा था,
उसकी
सार्थकता
दिखाई पड़ेगी।
इसलिए
मैं कहता हूं: धीरज
रखना, प्रतीक्षा
करना। अनंत
धैर्य की
जरूरत है। कब
खदान मिल
जाएगी, कोई
भी नहीं कह
सकता। कोई
भविष्यवाणी
नहीं हो सकती।
दूसरी
बात,
जब दूसरे को
कुछ हो, तो
इस तरह के
अहंकारी
विचार मत
उठाना कि भ्रम
हो रहा है, कि
इस आदमी के मन
में कुछ
विकृति हो गई
है। ये
तुम्हारे
अहंकार के
बचाव हैं।
क्योंकि
तुम्हें नहीं
हो रहा है, और
दूसरे को हो
रहा है, तो
अब बचने का एक
ही उपाय है।
या तो तुम
जड़बुद्धि हो,
या तो तुम
पथरीले हो, तुम्हारे
पास पाषाण
हृदय है, और
या फिर यह
दूसरा आदमी
पागल है।
दूसरी बात
माननी ज्यादा
सुविधापूर्ण
मालूम पड़ती है
कि यही पागल
होना चाहिए।
मैं और पाषाण
हृदय! मेरे
जैसा प्रेमी,
और पाषाण—हृदय!
और मेरे जैसा
व्यक्ति— और
मेरे जैसा
बुद्धिमान
व्यक्ति और
मुझे न हो,
और इस बुद्धू को
हो रहा है, तो
गलत हो रहा
होगा।
इसलिए
दूसरे की अनुभूतियों
को स्वीकार
करना बड़ा कठिन
होता है। तो
खयाल रखना, जब
दूसरे को अनुभूतियां
होती हों, अगर
स्वीकार कर
सको तो
धन्यभागी हो।
क्योंकि उसी
स्वीकार से
तुम्हारी घड़ी
करीब आएगी।
अगर स्वीकार न
भी कर सको, तो
कम से कम इतना
तो करना कि
विरोध मत करना,
इनकार मत
करना, निषेध
मत करना, निंदा
मत करना। कहना
कि भाई, मुझे
अभी नहीं हो
रहा है, इसलिए
मैं कुछ भी
नहीं कह सकता
हूं। अच्छा या
बुरा, मैं
कोई वक्तव्य
नहीं दे सकता
हूं।
जब
तुम्हें होगा, तभी
पता चलेगा। और
हो प्रत्येक
को सकता है।
पूछा
है सुमन ने कि
कैसे सुनूं?
क्योंकि आंख
खोलकर सुनती
है, तो एक
तरह के अनुभव
होते हैं। आंख
बंद करके
सुनती है तो
दूसरी तरह के
अनुभव होते
हैं। दोनों
अनुभव उपयोगी
हैं। कभी आंख
खोलकर सुनो, कभी आंखें
बंद करके सुनो।
दोनों
अनुभवों के
बीच बहो। इन
दोनों को
किनारा बना लो,
और इनके बीच
तुम्हारी
जीवन—सरिता को
बहने दो।
दोनों उचित
हैं। दोनों
आवश्यक हैं।
जब जिसको
आकांक्षा हो,
उस अनुभव
में उतरना।
कभी आंख खोल
के सुनना।
मुझसे लीन
होने का वह भी
एक उपाय है।
कभी आंख बंद
करके सुनना, वह भी एक
उपाय है।
छठवां
प्रश्न :
भगवान!
मेरी पत्नी, मां
आनंद कुमुद, अपने अंतस
में बारबार
आपको देखती है
और आपसे बातें
भी करती है।
यह सिलसिला दो
वर्षो से जारी
है। और इस
अंतरंग—वार्ता
के अनुसार
उसने अपनी
जीवन— शैली
बदल ली है।
उसने बाहर
जाना छोड़ दिया
है, ध्यान
करना भी। और
भोजन बिल्कुल
कम कर दिया है।
भगवान, कृपा
करके बताएं कि
यह क्या हो
रहा है। क्या
आध्यात्मिक
दृष्टि से यह
शुभ और सही है।
यदि नहीं तो
छूटने का उपाय
बताने की कृपा
करें।
आनंद
कुमुद को अब
तक जो हुआ है, ठीक
हुआ है। लेकिन,
उससे भी आगे
जाना है अभी।
उस पर अटक
नहीं जाना है,
रुक नहीं
जाना है।
झेन
फकीरों की
प्रसिद्ध
कहावत है:
ध्यान करने के
पहले पहाड़
पहाड़ थे, नदियां
नदियां थीं।
फिर ध्यान
किया—नदियां
नदियां न रहीं,
पहाड़ पहाड़ न
रहे। फिर
समाधि उपलब्ध
हुई। पहाड़ फिर
पहाड़ हो गए, नदियां फिर
नदियां हो गईं।
ये तीन बातें
खयाल रखना।
जब
ध्यान तुम शुरू
करोगे तो जीवन—
शैली बदलेगी।
क्योंकि
ध्यान एक बड़ी
क्रांतिकारी
बात है। एक
नया तत्व
तुम्हारे
जीवन में
प्रविष्ट हुआ।
जो कल तक
सार्थक दिखता
था,
अब व्यर्थ
दिखाई पड़ने
लगेगा। उससे
ज्यादा
सार्थक मिलने
लगा, तो
तुलना पैदा
होगी।
पूछा
नहीं है हेमंत
ने,
लेकिन अड़चन
यही है कि
पत्नी को अब
कामवासना में
कोई रस नहीं
रहा है। उसी
से पति का मन
परेशान हो रहा
है। हर से
पूछा नहीं है
कि पता नहीं
मैं क्या कहूं!
मेरा कुछ
भरोसा नहीं है।
मगर तुम पूछो
कि न पूछो, मुझे
जो कहना है, कहना ही है।
तुम्हारे प्रश्न
की फिक्र कौन
करता है।
और
तुम्हारी
बेचैनी भी मैं
समझ सकता हूं।
क्योंकि पति
का अभी भी रस
है काम में, और
पत्नी का रस
चला गया। अड़चन
हो गई। पत्नी
ने बाहर जाना
भी बंद कर
दिया है।
पत्नी ने भोजन
भी कम कर दिया
है। और इतना
ही नहीं, पत्नी
ने ध्यान भी
छोड़ दिया। अब
तक जो हुआ, ठीक
हुआ। पहाड़
पहाड़ न रहे, नदी नदी न
रही। अब एक
कदम और उठाओ।
पहाड़ को फिर
पहाड़ हो जाने
दो। नदी को
फिर नदी हो
जाने दो। अब
फिर सामान्य
जीवन में लौट
आओ।
जब
ध्यान
तुम्हें फिर
से सामान्य
जीवन में ले आए, तभी
समझना कि
परिपूर्णता
हुई। जो आदमी
हिमालय पर
जाकर बैठ गया
है, दुकान
छोड़ कर, और
दुकान पर आने
में डरता है, उसका ध्यान
अभी पूरा नहीं
हुआ। अगर ध्यान
पूरा हो गया
है, तो अब
वहां बैठे
क्या कर रहे
हो। अब वापस
दुकान पर आ
जाओ। अब दुकान
पर बैठकर भी
इस ढंग से
बैठो कि हिमालय
भी रहे और
दुकान भी रहे।
तो
मेरी सलाह है
कुमुद को कि
अब धीरे— धीरे
भोजन फिर ठीक
से लेना शुरू
करो। ऐसा हो
जाता है। जब
ध्यान बढ़ता है
तो भोजन कम हो
जाता है।
क्योंकि
ध्यान इतनी
जगह भर देता
है भीतर कि भोजन
के लिए जगह
नहीं रह जाती।
तुमने
खयाल किया, जितना
आदमी परेशान,
बेचैन होता
है, उतना
ज्यादा भोजन
कर लेता है।
ज्यादा भोजन
करनेवाले लोग
परेशानी की
वजह से ज्यादा
भोजन करते हैं।
बेचैनी, तनाव
की वजह से
ज्यादा भोजन
करते हैं। यह
तो अब
मनोवैज्ञानिकों
की खोज का
हिस्सा हो गया
है कि ज्यादा
भोजन आदमी
क्यों करता है।
भीतर खाली—
खाली लगता है
उसको। खालीपन
को भरें कैसे।
और कोई उपाय
नहीं दिखता।
सरकाए जाओ
भोजन गले से, थोड़ा भराव
मालूम पड़ता है।
लेकिन यह भी
कोई भराव है।
यह धोखा है
भराव का।
चिंतित
आदमी ज्यादा
भोजन क्यों
करता है।
क्योंकि उसे
हर है, भय है—
पता नहीं कल
भोजन मिले या
न मिले! कल का
क्या पता, कल
हो या न हो!
बचपन से ही यह
उपद्रव शुरू
हो जाता है।
तुमने
खयाल किया, जो
मां अपने
बच्चे को पूरा
— पूरा स्तन
देती है, जितना
बच्चे को
चाहिए... तुमने
खयाल किया, देखा। नहीं
देखा हो तो
खयाल करना। ......
वह बच्चा
भागता है। वह
दूध पीना ही
नहीं चाहता।
मां उसको दूध
पिलाना चाहती
है, वह इधर—
उधर मुंह करता
है। और जो मां
बच्चे से स्तन
छुड़ाना चाहती
है, वह
स्तन पकड़ता है।
तुमने यह भेद
देखा है। जिस
घर में बच्चे
की चिंता की
जाती है, वह
भोजन की फिक्र
ही नहीं करता
बच्चा। वह
खेलने जा रहा
है। उसे भोजन
की चिंता ही
नहीं है।
लेकिन जिस घर
में बच्चे की
फिक्र नहीं की
जाती, अनाथालय
में, वहां
बच्चे चौबीस
घंटे भोजन का
ही विचार करते
हैं। घंटी
देखते रहते
हैं, कब
बजे भोजनालय
की। उनको
बुलाना नहीं
पड़ता। उनको
भोजनालय से
उठाना पड़ता है,
बुलाना
नहीं पड़ता।
तुमने
कभी अनाथालय
जाकर देखा।
मैं एक गांव
में एक घर में
ठहरा। वे एक
अनाथालय
चलाते थे।
मुझे अनाथालय
ले गए। मैं
देखकर बड़ा
हैरान हुआ — सब
बच्चों के पेट
बड़े हैं।
मैंने पूछा :
और सब तो ठीक
है,
मगर यह क्या
मामला है। इन
सब बच्चों के
पेट इतने बड़े
क्यों हैं।
उन्होंने कहा
: ये बच्चे
बहुत भोजन
करते हैं।
जरूरत से
ज्यादा भोजन
करते हैं।
इनको
रोकने में भी
हमें अच्छा
नहीं लगता, क्योंकि
अनाथ बच्चे
हैं। मगर
हमारी समझ में
नहीं आता।
क्योंकि
हमारे घर में
भी बच्चे हैं,
उनको तो पकड़—पकड़कर
भोजन करवाना
पड़ता है। और
वे भागते हैं।
वे कहते हैं.: '' हमें भूख ही
नहीं है। अभी
मुझे खेलने
जाना है। अभी
और हजार काम
हैं। अभी मेरा
मित्र आया हुआ।’’
मगर ये
बच्चे भोजन की
थाली नहीं
छोड़ते।
कारण? —चिंता।
अनाथ बच्चा
चिंतित है, कल का कोई
भरोसा नहीं है।
बेचैन है, परेशान
है। परेशानी
और बेचैनी में
आदमी ज्यादा
भोजन कर लेता
है।
तुम
भी खयाल करना, जब
भी तुम
प्रसन्न होते
हो, भोजन
कम करोगे।
प्रफुल्लित
होओगे, भोजन
कम करोगे, हल्का
होगा भोजन। और
जब भी उदास, चिंतित, दुःखी
होओगे, ज्यादा
भोजन कर लोगे।
अमरीका में
मोटापे की
बीमारी जोर से
फैल रही है।
उसका कुल कारण
इतना है: भारी
चिंता पैदा हो
गई है। भारी
बेचैनी है, घबड़ाहट है।
जिंदगी पूरे
समय जैसे एक
भूकंप पर ठहरी
है। तो ध्यान
के साथ ऐसा हो
जाएगा कि भोजन
कम हो जाएगा।
यह
ठीक हुआ। और
ध्यान के साथ
कामवासना में
भी रुचि कम हो
जाएगी, क्योंकि
ऊर्जा ऊपर की
तरफ बहने
लगेगी। यह भी
ठीक हुआ। और
ध्यान के साथ
ऐसी भी घड़ी आ
जाएगी कि जब
शांति बनने
लगेगी और
शांति रहने
लगेगी, तो
सोच उठता है:
अब ध्यान की
क्या जरूरत? तो ध्यान भी
छूट जाएगा। यह
सब ठीक हुआ।
मगर इस पर ही
अगर रुकना हो
गया, तो
खतरा हो जाएगा।
अब एक कदम और
आगे बढ़ाना है।
अब ध्यान बिना
जरूरत के करो।
क्योंकि
जरूरत वाला
ध्यान बहुत
गहरा नहीं जाता।
अब ध्यान
गैरजरूरत के
करो। अब ध्यान
मौज से करो, आनंद से करो।
पहले ध्यान
आनंद के लिए
करते थे। अब
आनंद के कारण
करो। और अब
भोजन सभ्य।
ले आओ।
क्योंकि कई
दफे ऐसा हो
जाता है, चिंतित
आदमी ज्यादा
भोजन करता है,
और गैर—चिंतित
आदमी जरूरत से
कम करने लगता
है। वह भी
खतरनाक है। वह
भी
नुकसानदायक
है। जरूरत
देखो शरीर की।
सभ्य। भोजन
करो।
और
पति की अगर
जरूरत शेष है
तो पहले तो
तुम अपनी
वासना के कारण
पति के साथ
संभोग में
उतरती थी। अब
करुणा के कारण, प्रेम
के कारण उतरो।
पति की अभी
जरूरत शेष है।
पति से प्रेम
है या नहीं? ध्यानी का
प्रेम तो गहरा
हो जाएगा। पति
की पीड़ा को
समझो। और अगर
पति के साथ यह
पत्नी
ध्यानपूर्ण
अवस्था में
रहकर संभोग
में उतरे, तो
जल्दी ही पति
के जीवन में
भी संभोग की
गहराई बढ़नी शुरू
हो जाएगी।
ध्यान की
गहराई बढ़नी शुरू
हो जाएगी—संभोग
की गहराई के
साथ—साथ।
क्योंकि
संभोग के क्षण
में ध्यान
जितनी आसानी
से एक—दूसरे
में उतर जाता
है, किसी
और क्षण में
नहीं उतरता।
अब
पति पर करुणा
करो दया करो।
पति को परेशान
मत करो। यह
इसलिए मैं कह
रहा हूं कि यह
एक ही जोड़े का
मामला नहीं है, और
जोड़ों का
मामला भी है।
पति का ध्यान
बढ़ जाता है, तो उसका रस
चला जाता है।
पत्नी तड़पती
है। अकसर ऐसा
होता है कि
स्त्रियां यह
दिखाती रहती हैं
भाव कि उन्हें
कोई रस नहीं
है। जब तक पति
उनके पीछे लगा
रहता है, तब
तक वे दिखाती
रहती हैं कि
उन्हें कोई रस
नहीं है
कामवासना
में। लेकिन
जैसे ही पति
ध्यान में
उतरता है और
उसका रस जाता
है, पत्नी
घबडाती है।
क्योंकि पति
से सारा संबंध
ही यही था कि
पति उसके पीछे
चलता था, उसकी
जरूरत थी। अब
जरूरत खत्म हो
रही है, कहीं
संबंध ही न
टूट जाए!
जरूरत ही खत्म
हो गई, तो
संबंध कैसे
होगा?
तो
एक बहुत
हैरानी की
घटना रोज मेरे
सामने आती है।
पति अगर ध्यान
में गहरा
उतरता है, पत्नी
एकदम
कामवासना में
उत्सुक हो
जाती है, जितनी
वह कभी उत्सुक
नहीं थी! या
उत्सुक तो रही
होगी, लेकिन
दिखलाती नहीं
थी। अब मौका
छोड़ने जैसा नहीं
है। वह एकदम
पति के पीछे
पड़ जाती है।
और पति को अब
रस नहीं है।
अब उसको संभोग
में उतरना
व्यायाम जैसा
मालूम पड़ता है।
व्यर्थ का
व्यायाम।
नाहक की
परेशानी।
जोड़ों
के लिए मैं यह
कहना चाहता
हूं कि ध्यान में
अगर तुम दोनों
साथ—साथ बढ़ते
रहोगे तो, तो
यह अड़चन नहीं
आती। मगर ऐसी
कोई
अनिवार्यता नहीं
है कि तुम पति—पत्नी
हो, इसलिए
ध्यान में तुम्हारी
गति समान हो
सके। अकसर तो
ऐसा होगा: एक आगे
बढ़ जाएगा, दूसरा
पीछे रह जाएगा।
दूसरे पर दया
करना। दूसरे
पर प्रेम रखना,
करुणा
रखना। दूसरे
की जरूरत की
चिंता करना। यही
तो कर्तव्य
है। और यही तो
ध्यानी का
उत्तरदायित्व
है।
तो
अब कुमुद!
भोजन सभ्य।
करो। ध्यान आनंद
के लिए करो।
बाहर भी जाओ।
क्योंकि बाहर
भी परमात्मा
है,
भीतर ही
थोड़े है। पहले
भीतर पहचानना
पड़ता है। जब
भीतर पहचान आ
गई, तो फिर
बाहर जाकर जगह—जगह
पहचानना पड़ता
है। इतने
रूपों में
प्रकट है, भीतर
ही क्या बैठे
रहना है? भीतर
एक रूप देख
लिया, अब
अनंत रूप
देखो! भीतर तो
पहचान के लिए
जाना पड़ता है।
पहचान हो गई, अब बाहर भी
जाओ। अब बाहर
और भीतर दोनों
को जोड़ो। जो
आदमी भीतर ही
भीतर रहे, वह
अधूरा है। और
जो आदमी बाहर
ही बाहर रहे, वह भी अधूरा
है।
कार्ल
गुस्ताव जुटा
ने
मनोवैज्ञानिक
विधि से
आदमियों के दो
भेद किए हैं——एक्स्ट्रोवर्ट
और
इंट्रोवर्ट; बहिर्मुखी
और
अंतर्मुखी।
दोनों अधूरे
हैं। बहिर्मुखी
बाहर ही बाहर
रहता है।
अंतर्मुखी भीतर
ही भीतर रहता
है।
अंतर्मुखी
उदास हो जाता
है और
बहिर्मुखी
अशांत हो जाता
है। व्यक्ति दोनों
का तालमेल
होना चाहिए।
जैसे तुम अपने
घर के बाहर—भीतर
आते हो। जब
बाहर सुंदर
धूप निकली है
और फूल खिले
हैं, और
पक्षी गीत गा
रहे हैं, तब
तुम भीतर बैठे
क्या करते हो?
बाहर आओ!
धूप के साथ
नाचो! वृक्षों
से थोड़ी बात
करो। फूलों से
थोड़ा बोलो, बतियाओ। जब
बाहर बहुत धूप
घनी हो जाए तो
भीतर आओ, विश्राम
करो। भीतर
विश्राम, बाहर
श्रम। भीतर भी
डुबकी मारो, बाहर भी
डुबकी मारो।
परमात्मा को
पूरा ही पूरा
पियो, अधूरा—अधूरा
क्या? इसलिए
एक कदम और
उठाओ। अब नदी
फिर नदी हो
जाए, पहाड़
फिर पहाड़ हो
जाएं।
अंतिम
प्रश्न:
प्यारे
भगवान! हम
धरमदास को सुन
रहे हैं। धरमदास
के ये शब्द आज
भी आपको देखकर
जैसे हमारे ही
अंतस के भावों
को वर्णित कर
रहे हैं :
का
वर्णउ छवि आज
तुम्हारी।
संत—समाज
विराजमान
जिमि,
सुरगन
बिच सुरपति
अधिकारी।
दिपत
दिनेस समान
तेज वपु,
मंगल
भेष परम
सुखकारी।
सुंदर
वदन मदन लखि
लाजत,
हुलसत
मन मुस्क'य
निहारी'
मृकुटि
कुटिल, कपोल
मनोहर,
चोरत
चित चखि चितवन
प्यारी।
नासा
रुचिर कपोल
मनोहर,
चारू—चिबुक
अति लागत
प्यारी।
श्वेत
वसन तन लगत
हंसत जिमि,
देखि
मंद दुति चंद
उजारी।
अशरण
शरण हरण भव
संकट,
तारणतरण
नाथ बलिहारी।
धरमदास
सब करत निछावर,
तन
मन धन चरणन पर
वारी।
पूछा
है आनंद सीता
ने। और अंतिम
शब्द लिखे हैं:
आपकी शिष्या
आज सब करत
निछावर! तन मन
धन प्रभु पर
बलिहारी!
शिष्य
को धीरे—धीरे
गुरु दिखाई
पड़ना बंद हो
जाता है और
परमात्मा
दिखाई पड़ना शुरू
हो जाता है।
शिष्यों ने
गुरु की
प्रशंसा में जो
भी कहा है, वह
गुरु की
प्रशंसा में
नहीं कहा है।
गुरु तो झरोखा
है। झरोखे के
पार चांदतारों
से भरी रात, नीला आकाश, उसकी
प्रशंसा में
ही कहा है।
लेकिन गुरु से
ही दिखा है, गुरु से ही
झरोखा खुला
है। इसलिए
निमित—अर्थ
में गुरु की
भी प्रशंसा की
है। लेकिन वस्तुत:
प्रशंसा
परमात्मा की
है।
यही, जिनको
शिष्य होने का
अनुभव नहीं है,
उनकी समझ
में नहीं आता।
अब यह कबीरदास
का वर्णन समझ
में नहीं आता।
यह तो ऐसा
लगता है जैसे
परमात्मा का
वर्णन हो रहा
हो। जिसने
कबीरदास को
शिष्य—भाव से
नहीं देखा है,
उसे लगेगा:
यह क्या बकवास
है? कबीरदास,
यह जुलाहा!
यह धरमदास
पागल हो गया
है।
ठीक
ही है! धरमदास
पागल ही हो
गया है। प्रेम
पागल ही कर
देता है। मगर
धन्यभागी हैं
वे,
जो पागल हो
जाते हैं।
क्योंकि उन
पागलों के लिए
ही परमात्मा
मिलता है। समझदार
तो चूक जाते
हैं। समझदार
तो ठीकरे इकट्ठे
कर लेते हैं।
समझदार तो
जिंदगी ऐसे
गंवा देते हैं——
रेत से जैसे
कोई तेल
निचोड़ते—निचोड़ते
जिंदगी गंवा
दे और हाथ कुछ
भी न लगे।
समझदार तो
खाली हाथ जाते
हैं——यह
धरमदास को जो
दिखाई पड़ा है:
का वर्णउ छवि
आज तुम्हारी!
यह कब कहा
होगा धरमदास
ने? यह कहा
होगा, जिस
दिन गुरु में
ब्रह्म का
दर्शन हुआ
होगा। का
वर्णउ छवि आज
तुम्हारी! कल
तक भी देखा था,
लेकिन कल तक
कबीरदास
दिखाई पड़े थे।
कबीर साहब दिखाई
पड़े थे। आज
कबीर तो झरोखा
हो गए, सिर्फ
''साहब'' दिखाई
पड़ रहा है।
यह
परमात्मा की
ही प्रशंसा है।’’गुरुर्ब्रह्मा''!
लेकिन यह
शिष्य की ही
समझ की बात
है।
सीता
में ऐसा भाव
उठ रहा है, इसकी
मुझे प्रतीति
है। जैसे मैने
अभी—अभी कहा
चैतन्यकीर्ति
को कि
तुम्हारा
धन्यवाद देने
का दिन नहीं
आया, लेकिन
सीता से कह
सकता हूं कि
तेरा दिन
बिल्कुल करीब
है। जरा और, थोड़ा और, एकाध
कदम और कि
धन्यवाद की
घड़ी करीब है।
मनुष्य
की बड़ी क्षमता
है,
अनंत
क्षमता है।
परमात्मा को
अपने भीतर समा
लेने की
क्षमता है।
हमें अपनी
क्षमता का पता
नहीं। हम
व्यर्थ ही
अपने को
क्षुद्र समझ
कर बैठे हुए
हैं।
इन
वचनों को
स्मरण रखना:
अगर
मैं तिलस्मे—तकल्लुम
दिखा दू
तरानों
से बज्मे—सुरैया
बना दू
तरब—आशना
तल्ख आहों को
कर दूं
कबाए—हवादस
के पुर्जे उड़ा
दू
अगर
चर्ख को अज्म दूं
बंदगी का
दरे
खाक पर
माहेताबां
झुका दूं
अगर
नग्लए—सरमदी
छेड़ दूं मैं
खिजां
में गुलों को
महकना सिखा दू
अजल
भी मेरे गम पै आंसू
बहाए
अगर
नालए
जिंदगानी
सुना दू
अगर
छेड़ दूं साज
खिलवत में
तेरी
चिरागों
को ताके हरम
से गिरा दूं
कहो
तो बदल दूं
निजामे—दो आलम
जहन्नम
में फूलों की
जन्नत बसा दूं
गुलिस्तां
का हर फूल दिल
बन के महके
अगर
एक अश्के--तमन्ना
गिरा दूं
''शमीम''
आह कर दूं
तो लौ दे
जमाना
फजा
मुसकरा दे अगर
मुसकरा दूं
मनुष्य
की क्षमता
अपार है। ये
चमत्कार हो
सकते हैं——अगर
मैं तिलस्मे—तकल्लुम
दिखा दूं।’’ अगर
मैं
वार्तालाप का
जादू दिखा
दूं।
आदमी
के भीतर उस
महत् शब्द का
बीज पड़ा है।
अगर प्रकट हो
जाए,
तो उपनिषद
प्रकट हो जाते
हैं, वेद
जन्म जाते हैं,
कुरान उठने
लगता है, धम्मपद
बोल उठता है।
अगर
मैं तिलस्मे—तकल्लुम
दिखा दूं। अगर
मैं वाणी का
चमत्कार दिखा
दूं। तरानों
से बज्मे—
सुरैया बना
दूं। तो मेरे
शब्द नक्षत्र
बनके चमके सदा
के लिए। आकाश
को नक्षत्रों
से भर दूं।
तरब—आशना तल्ख
आहों को कर
दूं। कड्वी से
कड्वी अनुभूति
को चाहूं तो
आनंद बना दूं।
तरब—आशना
तल्ख आहों को
कर दूं
कबाए—हवादस
के पुर्जे उड़ा
दूं
मुसीबत
का परिधान जार—जार
होकर गिर जाए
एक इशारे से।
अगर चर्ख को
अज्म दूं
बंदगी का। अगर
आकाश को भी निश्चयपूर्वक
आज्ञा दे दूर
निस्संदिग्ध
आज्ञा दे दूं।
दरे खाक पर
माहे—ताबां
झुका दूं। तो
चंद्रमा को
जमीन पर झुक
जाना पड़े।
अगर
नग्लए सरमदी
छेड़ दूं मैं।
अगर मैं सरमद जैसा
नित्यता का
संदेश बोल
उठूं। अगर
नग्लए सरमदी
छेड़ दूं मैं, खिजां
में गुलों को
महकना सिखा
दूं। तो पतझड़
में भी फूल
खिल उठें। तो
रेगिस्तान
में भी कमल महक
उठें।
अजल
भी मेरे गम पै आंसू
बहाए
अगर
नालए—जिदगानी
सुना दूं
मौतभी
रोए,
अगर मैं
जिंदगी का गीत
गाऊं।
अगर
छेड़ दूं साज
खिलवत में
तेरी
चिरागों
को ताके हरम
में गिरा दूं
कहो
तो बदल दूर
निजामे—दो आलम
जहन्नम
में फूलों की
जन्नत बसा दूं
नरक
भी स्वर्ग हो
जाए,
यह आदमी की
संभावना है।
आदमी की
संभावना विराट
है। क्योंकि
परमात्मा
आदमी की
संभावना है।
गुलिस्तां
का हर फूल दिल
बन के महके
अगर
एक अश्के--तमन्ना
गिरा दूं
''शमीम''
आह कर दूं
तो लौ दे
जमाना
फजा
मुसकरा दे अगर
मुसकरा दूं
याद
करो,
पुन: पुन:
याद करो। तुम
छोटे नहीं हो,
क्षुद्र
नहीं हो। और
जिसके पास से
तुम्हें अपने
विराट होने की
खबर मिल जाए, जिसके पास
से तुम्हें
आकाश का स्मरण
आ जाए, जिसके
झरोखे से, जिसकी
आंखों में
झांककर
तुम्हें
परमात्मा की
पहली छवि दिखाई
पड़ जाए, वहीं
झुक जाना। तन,
मन, प्राण
से पूरी तरह
झुक जाना।
वहां कुछ
बचाना मत।
वहां हार जाना
ही जीत है।
आज इतना
ही।
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