अध्याय—18
सूत्र—
सर्वगुह्मतमं
भूय: श्रृणु
मे परमं वचः।
हष्टोऽसि
मे दृढमिति
ततो
वक्ष्यामि ते
हितम्।। 64।।
मन्मना
भव मद्भक्तो
मद्याजी मां
नमस्कुरु।
मामैवैष्यसि
सत्यं ते
प्रतिजाने
प्रियोऽसि
मे।। 65।।
सर्वधर्मान्परित्यज्य
मामेकं शरणं
ब्रज।
अहं त्वा
सर्वपापेध्यो
मीक्षयिष्यामि
मा शुचः।। 66।।
इतना
कहने पर भी
अर्जुन का कोई
उत्तर नहीं
मिलने के कारण
श्रीस्कृष्ण
भगवान फिर
बोले कि है अर्जुन, संपूर्ण
गोयनीयों से
भी अति गोयनीय
मेरे परम रहस्ययुक्त
वचन को तू फिर
भी सुन,
क्योंकि तू
मेरा अतिशय प्रिय
है, हमसे यह
परम हितकारक
वचन मैं तेरे
लिए कहूंगा।
है
अर्जुन, तू केवल
मुझ परमात्मा
में ही अनन्य
प्रेम से नित्य—
निरंतर अचल मन
वाला हो और
मुझ पश्मेश्वर
को ही अतिशय
श्रद्धा— भक्ति
सहित निरंतर
भजने वाला हो
तथा मन,
वाणी और शरीर
द्वारा
सर्वस्व
अर्पण करके
मेरा पूजन
करने वाला हो
और सर्वगुण—
संपन्न सके
आश्रयरूप
वासुदेव को
नमस्कार कर; ऐसा करने से
तू मेरे को ही
प्राप्त होगा, यह मैं तेरे
लिए सत्य
प्रतिज्ञा करता
हूं,
क्योंकि तू
मेरा अत्यंत
प्रिय सखा है।
इसलिए
सब धर्मों की
अर्थात
संपूर्ण
कर्मो के
आश्रय को
त्यागकर केवल
एक मुझ सव्चिदानंदघन
वासुदेव
परमात्मा की
ही अनन्य शरण
को प्राप्त हो? मैं तेरे
को संपूर्ण
पापों से
मुक्त कर
दूंगा; तू
शोक मत कर।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
कृष्ण कहते
हैं, तू
मेरे में
निरंतर मन
वाला हुआ, मेरी
कृपा से जन्म—मृत्यु
आदि सब संकटों
को अनायास ही
तर जाएगा।
कृष्ण ने कृपा
के साथ अनायास
क्यों कर जोड़ा
है?
सकारण जोड़ा
है, सोच—विचारकर
जोड़ा है।
तरने
की दो
संभावनाएं
हैं। एक
संभावना है कि
व्यक्ति अपने
प्रयास से तरे।
तब प्रभु—प्रसाद
की कोई जरूरत
नहीं, तब
परमात्मा की
कृपा का कोई
कारण नहीं। वह
मार्ग संकल्प
का है। व्यक्ति
अपनी ही
चेष्टा से
तरता है; कोई
सहारा नहीं
मांगता।
दूसरा
मार्ग समर्पण
का है। कृष्ण
समर्पण के
मार्ग की ही
बात कर रहे
हैं। वहां
साधक सिर्फ
समर्पण करता
है; शेष
सब अनायास
होता है। उस
शेष के लिए
कोई भी प्रयास
साधक को नहीं
करना है। एक
ही प्रयास
साधक कर ले कि
वह छोड़ दे
परमात्मा पर
सब। फिर सब
अनायास हो
जाता है।
ये दो
मार्ग हैं।
पहले मार्ग
में परमात्मा
की कोई जरूरत
भी नहीं है।
इसका यह अर्थ
नहीं है कि
परमात्मा
नहीं है। इसका
यही अर्थ है
कि परमात्मा
को साधक अपनी
ही चेष्टा से
पाता है; अपनी चेष्टा
के अतिरिक्त
वह कोई सहारा
नहीं मांगता।
जैन और
बौद्धों का
मार्ग वही है।
न कोई पूजा है, न कोई
प्रार्थना है,
मात्र
साधना है, मात्र
ध्यान है।
प्रार्थना की
एक बूंद भी
नहीं।
स्वभावत:, मार्ग
बहुत सूखा—सूखा
है, मरुस्थल
जैसा है। कहीं
कोई हरियाली
नहीं आती।
क्योंकि जहां
प्रार्थना ही न
आती हो, वहां
मरूद्यान
कैसे? जहां
प्रार्थना ही
न आए, वहा
प्रेम का उपाय
कहां? जहां
प्रार्थना न
हो, वहा रस—
धार नहीं बहती।
इसलिए जैनों
के शास्त्रों
को पढ़ते समय
ऐसा लगेगा, जैसे गणित
की कोई किताब
पढ़ी जा रही है।
मुझे
निरंतर जैन
शास्त्रों को
प्रेम करने वाले
कहते हैं कि
मैं कभी
कुंदकुंद पर
बोलूं या कभी
उमास्वाति पर
बोलूं। बहुत
बार मैं सोचता
भी हूं, लेकिन फिर
रुक जाता हूं।
क्योंकि
कुंदकुंद पर
बोलने में कोई
भी काव्य नहीं
है। कुंदकुंद
जो कहते हैं, बिलकुल ठीक
ही कहते हैं।
लेकिन कहने का
जो मार्ग है, वह पद्य का
नहीं है, गद्य
का है; वह
कविता का नहीं
है, गणित
का है। तर्क
है वहा, स्वभावत:
तर्क का
सूखापन है।
कहीं कोई हृदय
को छूने वाली
बात नहीं है, न प्रेम, न
प्रार्थना, न प्रसाद।
बोला
जा सकता है।
लेकिन बोलना
बहुत सूखा—सूखा
होगा, इसलिए
अपने को रोक
लेता हूं।
तत्व—ज्ञान है,
तत्व—रस
नहीं। हो भी
नहीं सकता, क्योंकि
सारी दृष्टि
संकल्प की है।
साधक को अपने
ही हाथ, अपने
ही पैर सब
करना है।
कुछ
हैं, जो
उसी मार्ग से
पहुंचेंगे।
कुछ हैं, जो
हृदय से नहीं
पहुंचेंगे; विचार से ही
पहुंचेंगे।
लेकिन थोड़े—से
ही लोग होंगे
ऐसे। बहुत
अधिक लोगों पर
वैसा मार्ग
प्रभावी नहीं
हो सकता, क्योंकि
अधिक लोग हृदय
से धड़कते हैं।
और अच्छा ही
है कि अधिक
लोग हृदय से
धड़कते हैं।
इससे जीवन में
सौंदर्य है, इससे जीवन में
नृत्य है, उत्सव
है।
यह जो
हृदय से चलने
वाला साधक है, यह साधक
नहीं है, भक्त
है। इसकी
साधना कुल
इतनी है कि
इसने छोड़ दिया।
इसे भी तुम
छोटी साधना मत
समझ लेना। यह
भी बड़ी कठिन
बात है, छोड़
देना। लेकिन
प्रेमी छोड़
सकता है।
क्योंकि
दूसरे पर इतना
भरोसा है, इतनी
श्रद्धा है कि
आंख बंद करके
किसी का हाथ
पकड़कर भी चल
सकता है।
पश्चिम
में मनोवैज्ञानिक
एक छोटा—सा
प्रयोग कर रहे
हैं। पति—पत्नियों
में कलह हो, तो
पश्चिम में मनोवैज्ञानिक
के पास जाना
जरूरी हो जाता
है। वही हल कर
सकता है।
लेकिन पति—पत्नी
कलह को प्रकट
भी नहीं करते,
छिपाते भी
हैं।
तो
मनोवैज्ञानिक
एक छोटा—सा
प्रयोग
करवाते हैं।
जब भी कोई पति—पत्नी
जाते हैं उलझन
सुलझाने, तो वे कहते
हैं कि पति आंख
बंद कर ले, आंख
पर पट्टियां
बांध ले और
पत्नी का हाथ
पकड़ ले, और
पत्नी जहां ले
जाए—बगीचे में,
मकान में—चले।
इससे उलटा भी
करते हैं कि
पत्नी पति का
हाथ पकड़ ले, पत्नी की आंखें
बंद, पट्टी
बंधी।
जिन
लोगों के बीच
प्रेम नहीं है, वे
झिझकते हैं।
छोटी—सी बात
है। कोई पति
किसी कुएं में
नहीं गिरा
देगा ले जाकर,
न पत्नी
किसी पत्थर से
टकरवा देगी।
लेकिन जिनको
एक—दूसरे पर
भरोसा नहीं है,
वे ऊपर से
कितने ही
दिखाते हों, वे इस छोटे—से
प्रयोग को
करने में
झिझकते हैं।
और अगर
यह छोटा—सा
प्रयोग भी
जीवन में न हो
पाए, कि
तुम किसी पर
इतना भरोसा कर
सको कि आंख
बंद कर लो और
हाथ पकड़ लो और
वह जहां ले
जाए, चले
जाओ, तो
आखिरी प्रयोग
समर्पण का तो
कैसे हो
पाएगा! वह तो
उस परमात्मा
के हाथ पकड़ने
हैं, जो
दिखाई भी नहीं
पड़ता; जो
है या नहीं, वह भी
सुनिश्चित
रूप से नहीं
कहा जा सकता।
उसका
होना भी हृदय
की आस्था में
ही है। बाहर
तो कोई प्रमाण
मिलता नहीं।
उसके हाथ
पकड़कर कोई चल
पड़ता है। अपनी
आंख बंद कर
लेता है। कहता
है, मेरी
आंख की जरूरत
क्या? तुम
हो, काफी
हो। और मैं
क्यों चिंता
करूं नक्शों
की, मार्गों
की? मैं
क्यों फिक्र
करूं
पहुंचूंगा, नहीं
पहुंचूंगा? कौन—सी विधि
कारगर होगी, कौन—सी नहीं
होगी? तुम
हो, काफी
हो; हाथ
पकड लेता हूं।
जैसे
छोटा बच्चा
अपने बाप का
हाथ पकड़कर चल
पड़ता है। भला
बाप चिंतित हो, लेकिन
छोटा बेटा हाथ
पकड़कर
प्रसन्नता से नाचता
हुआ, गुनगुनाता
हुआ चलता है।
उसे कोई चिंता
नहीं है। पिता
साथ है, बात
समाप्त हो गई।
अब चिंता की
जरूरत क्या
है! समर्पण का
मार्ग सब कुछ
परमात्मा पर
छोड़ देना है।
जो
संदेह से भरे
हैं, उन्हें
शायद समर्पण
संभव न होगा।
उनके लिए
संकल्प का ही
रास्ता रहेगा।
बहुत भटकेंगे,
जो काम क्षण
में हो सकता
था, अनायास
हो सकता था, उसके लिए वे
व्यर्थ ही प्रयास
करेंगे।
पहुंच जाएं, सौभाग्य।
हजार चलते हैं,
एक पहुंचता
है। क्योंकि
अपने ही पैर
चलना इस बीहड़
वन में, जीवन
के इस अनंत
फैलाव में
बिना किसी
सहारे के चलना,
मनुष्य की
इस असहाय
अवस्था में
संभव नहीं मालूम
होता।
लेकिन
जिनके जीवन
में संदेह की
छाया बहुत
गहरी है, संदेह के
बादल घिरे हैं,
उनके लिए
वही उपाय है।
शायद वे वहा
से थककर, परेशान
होकर लौट पड़े,
तो समर्पण
भी संभव हो
जाए।
यहां
कृष्ण पूरी
समर्पण की ही
बात कर रहे
हैं। और कृष्ण
मौजूद हैं
साक्षात, साकार, फिर
भी अर्जुन छोड़
नहीं पा रहा
है। तो तुम्हारी
कठिनाई मैं
समझ सकता हूं
करोड़ों लोगों
की कठिनाई समझ
सकता हूं कि
जिनके लिए
साक्षात कोई
भी मौजूद न हो;
या मौजूद हो,
तो आस्था न
आती हो, मौजूद
हो, तो
प्रेम न जगता
हो.......।
और
अर्जुन तो
प्रेम से भरा
है कृष्ण के
प्रति, बचपन के सखा
हैं, फिर
भी भरोसा नहीं
कर पाता। जिन
कृष्ण को
युद्ध की भीषण
अवस्था में, संकट के समय
में सारथी बना
लिया है, उन्हें
भी जीवन की
अंतर्यात्रा
में सारथी बनाने
की हिम्मत
अर्जुन नहीं
कर पाता है।
युद्ध के लिए
उन पर आस्था
कर ली है कि
जहां ले जाएंगे,
ठीक ही ले
जाएंगे।
लेकिन और भी
गहरे युद्ध
हैं जीवन के, यहां कृष्ण
पर भी आस्था
नहीं बैठती।
यहां तो सारथी
बना लिया है, इस
कुरुक्षेत्र
में होने वाले
युद्ध के लिए।
लेकिन वह जो
जीवन का अनंत—
अनंत काल से
चलता हुआ
महायुद्ध है,
अंतर—युद्ध
है, वह।
कृष्ण के हाथ
में बागडोर
देने में
अर्जुन डरता
है।
प्रेम
है, सखाभाव
है। पुराने
परिचित हैं।
ऐसी कोई स्मरण
नहीं है घटना,
जब कि कृष्ण
ने कोई धोखा
अर्जुन को
दिया हो। जब
भी जरूरत पड़ी
है, काम आए
हैं। जब भी
संकट आया है, साथ दिया है।
हर मुश्किल की
घड़ी में
सुलझाव का
मार्ग खोजा है।
फिर भी भरोसा
नहीं आता।
कृष्ण
अर्जुन से कह रहे
हैं कि तू अगर
छोड़ दे सब
मेरे ऊपर, तो मेरी
कृपा से
अनायास ही तर
जाएगा।
अनायास का
अर्थ है कि
फिर तुझे कोई
प्रयास न करना
पड़ेगा। ऐसे ही
तर जाएगा, जैसे
कुछ किया ही
नहीं और हो
गया। तर जाना
एक घटना होगी,
कृत्य नहीं।
लेकिन उसके
पहले एक बहुत
बड़ी शर्त है, महाशर्त है,
वह समर्पण
की है। अगर
हृदय में
प्रेम हो, थोड़ी—सी
भी प्रेम की
संभावना हो, तो समर्पण
को चुन लेना।
समर्पण
को चुनने का
अर्थ होगा, संदेह को
छोड़ना, अहंकार
को छोड़ना। और
अहंकार और
संदेह में जो
शक्ति
तुम्हारी उलझी
है जीवन की, उस सब को भी
समर्पण के ही
मार्ग पर समाहित
करना। बंटी
हुई शक्ति न
रह जाए, सारी
जीवन—धारा
समर्पण में और
श्रद्धा में
लग जाए। धीरे—
धीरे जो गंगा
बड़ी छोटी—सी
निकलती है
गंगोत्री में,
वह बड़ी होने
लगती है।
अगर
थोड़ी—सी भी
संभावना
प्रेम की है, जो कि
निश्चित है, क्योंकि ऐसा
आदमी भी खोजना
कठिन है, जिसके
भीतर
गंगोत्री
जैसी गंगा भी
न हो। उतनी है।
चाहे तुम्हें
उसका कलकल नाद
सुनाई भी न
पड़ता हो, इतना
छोटा झरना है।
शायद तुम इतने
विचार, ऊहापोह
से भरे हो कि
अपनी ही आवाज
में उस नदी की
छोटी—सी धीमी
पुकार, क्षीण
पुकार सुनाई
नहीं पड़ती।
लेकिन थोड़ा
समझोगे, सम्हलोगे,
झांकोगे, सुनाई पड़ने
लगेगी।
अभी जो
बूंद—बूंद टप—टप
हो रही हो
गंगा, वह
महानद बन सकती
है, अगर
तुम जीवन की
बंटी हुई
ऊर्जाओं को
उसी ओर समाहित
कर दो।
और तब, कृष्ण
कहते हैं, अनायास
ही सब हो
जाएगा।
दोनों
मार्ग खुले
हैं। अगर
तुम्हें ऐसा
लगता हो कि यह
संभव नहीं है
कि हम अपने
संदेह को
प्रेम के
प्रति
समर्पित कर
पाएं, कि
हम अपने
अहंकार को
परमात्मा के
प्रति झुका पाएं,
तो फिर
दूसरा उपाय है।
तुम परमात्मा
को बिलकुल भूल
ही जाओ।
तुम्हारा
अहंकार ही सब
कुछ रह जाए।
तुम ही बचो।
इसलिए
तो जैन
परमात्मा की
बात नहीं करते, सिर्फ
आत्मा की बात
करते हैं। तुम
ही हो, परमात्मा
नहीं है।
यह ठीक
है। फिर तुम
सारे संदेह को
उठा लो जितना
उठा सकते हो, और अपने
प्रेम में भी
जो थोड़ी—सी
जलधार बह रही
है, वह भी
सुखा लो। उस
प्रेम की
जलधार को भी
तुम तर्क बना
दो। तुम्हारा
पूरा जीवन
विचार, तर्क,
संदेह, संकल्प
बन जाए। तो भी
तुम पहुंच
जाओगे।
मगर
आधा—आधा कोई
भी नहीं
पहुंचता है, एक बात
सुनिश्चित है।
पूरा—पूरा, या इस पार, या उस पार।
या इस नाव पर
सवार या उस
नाव पर सवार।
लेकिन दो
नावों पर
यात्रा मत
करना।
और तुम
सभी को मैं दो
नावों पर खड़े
देखता हूं।
तुम समर्पण भी
नहीं करते, अपने को
बचा लेते हो।
तुम परमात्मा
का आशीर्वाद
लेने की
आकांक्षा भी
नहीं छोड़ते।
उसके प्रसाद
से हो जाए, यह
भाव भी नहीं
छूटता। और मैं
ही करके दिखा
दूं यह
अस्मिता भी
नहीं जाती।
ऐसी दो नावों
पर तुम सवार
हो।
आधा
संदेह, आधी श्रद्धा,
इससे
ज्यादा
विडंबना की कोई
अवस्था नहीं
है। आधा
समर्पण, आधा
संकल्प, इससे
ज्यादा खंडित
और चित्त क्या
होगा! ऐसे तुम
दो हो जाते हो।
तुम्हारे
भीतर की एकता,
सुर—तान टूट
जाता है।
तुम्हारे
भीतर बहुत—से
सुर बजने लगते
हैं, जिनमें
कोई तालमेल
नहीं होता।
यही तो
विक्षिप्तता
की दशा है।
इसे बदलना
होगा।
कृष्ण
कहते हैं, तू सब कुछ
मुझ पर ही छोड़
दे, अर्जुन।
यह
कृष्ण का
मार्ग है।
लेकिन इससे
तुम निराश मत
हो जाना। अगर
न छोड़ सको, तो
घबड़ाहट की कोई
जरूरत नहीं है।
तुम्हारे लिए
महावीर है।
निराश होने का
किसी को भी
कोई कारण नहीं
है। जिस तरह
के भी तुम हो, तुम्हारे
योग्य कोई नाव
कहीं है।
लेकिन
अपनी नाव ठीक
से चुन लेना।
नहीं तो तुम
चलोगे भी और
पहुंचोगे
नहीं। दूसरे
की नाव में
कोई कहीं भी
नहीं पहुंचता
है, वह
कितनी ही
सुंदर दिखाई
पडती हो।
दूसरे की
यात्रा को
अपनी यात्रा
मत बनाना।
इसलिए
कृष्ण कितनी
बार दोहराते
हैं, स्वधर्मे
निधन श्रेय:!
अपने धर्म में
मर जाना बेहतर
है। अपनी ही
नाव में डूब
जाना उचित है;
दूसरे की
नाव में
पहुंचना भी
उचित नहीं।
इसलिए बहुत
गौर से अपने
भीतर परीक्षण
करो, निरीक्षण
करो, निदान
करो।
और एक
बात तो तय कर
ही लेनी है, या तो
संकल्प, या
समर्पण; या
तो तर्क, या
प्रेम। बस, वहां अगर
तुम ने निर्णय
ले लिया और
फिर तुम उस निर्णय
के अनुसार चल
पड़े और दूसरी
तरफ झुके नहीं,
बीच—बीच में
बदले नहीं, तो तुम
निश्चित
पहुंच जाओगे।
दूसरा
प्रश्न : क्या
कृष्ण की
भांति आप भी
हमसे कहते हैं
कि तुम्हारे
सभी निश्चय
मिथ्या हैं?
निश्चय
ही, क्योंकि
तुम मिथ्या हो।
अभी तुम्हारा
सत्य स्वरूप
प्रकट नहीं
हुआ। इसलिए
तुम इस
विक्षिप्त अवस्था
में जो भी
निर्णय करोगे,
वह निर्णय
भी विक्षिप्त
होगा। ऐसे ही
जैसे शराब पीए
हुए किसी आदमी
से हम कहें, करो निर्णय।
वह कुछ निर्णय
भी कर ले, पर
इसका क्या
मूल्य हो सकता
है! यह, सुबह
जब होश आएगा, तब तक भी न
टिकेगा। सुबह
यह आदमी बदल
जाएगा। सुबह
यह मानेगा ही
नहीं कि कभी
मैंने यह कहा
था।
तुम्हारी
जैसी चित्त की
अभी दशा है, तुम्हारे
सभी निर्णय
मिथ्या होंगे;
क्योंकि
तुम मिथ्या हो।
तुम्हारे
मिथ्या होने
से तुम्हारे
निर्णय
निकलेंगे, वे
सत्य कैसे हो
सकते हैं? इसलिए
किसी भी
निर्णय लेने
के पूर्व
तुम्हें अपने
होने की
प्रामाणिकता
खोज लेनी
चाहिए।
रत्तीभर भी
तुम अपनी
प्रामाणिकता
को पकड़ लो, तो
उससे जो
निर्णय आएगा,
वह सत्य
होगा।
बहुत
सोच—विचार का
सवाल नहीं है, शांत
दृष्टि का
सवाल है। तुम
सोचोगे भी
क्या न: सोच—सोचकर
तो तुम अब तक
चलते ही रहे
हो। सोच—सोचकर
ही तो तुम
उलझे हो।
सोचने से तुम
सुलझोगे नहीं।
विचार से कोई
समाधान न होगा।
विचार से ही
तो समस्याएं
खड़ी हुई हैं।
विचार ने ही
तो तुम्हें
बांधा, सताया,
विचार ने ही
तो तुम्हें
रोग दिया है।
विचार औषधि
नहीं बन सकता।
तुम्हें
अगर उस निर्णय
को पाना है जो
मिथ्या न हो, तो तुम
विचार को
त्यागों, थोड़े
शात और
निर्विचार
होना सीखो।
वही ध्यान है।
उस ध्यान में
जो निर्णय
आएगा, वह
तुम्हारा
किया हुआ नहीं
है। वह
तुम्हारे
स्वधर्म से उठेगा,
वह
तुम्हारे
स्वभाव में
उठेगा। जैसे
बीज से अंकुर
फूटता है, ऐसे
तुम्हारे
स्वधर्म से
निर्णय का
जन्म होगा।
वह
निर्णय
मिथ्या नहीं
होगा। मगर
ध्यान रखना, वह
निर्णय
तुम्हारा ही
नहीं होगा। तब
तुम कह सकते
हो, परमात्मा
ने मेरे भीतर
यह निर्णय
लिया। तुम कह
सकते हो, समष्टि
ने मेरे भीतर
यह निष्कर्ष
लिया।
क्योंकि उस
निर्विचार
क्षण में तुम
कहा रहोगे!
तुम तो
विचारों का
जोड़ हो, भीड़ हो। और
उन विचारों के
जोड को ही
तुमने अब तक
अपना होना
समझा है। वह
तुम्हारा
होना नहीं है।
उन विचारों की
पर्तों के
नीचे दबा है
तुम्हारा
होना। तुम
अपने शात होने
को पा लो और
उसी से उठने
दो निर्णय, और जीवन में
कभी भूल न
होगी।
यह बडे
आश्चर्य की
बात है। विचार
करते समय तो
विकल्प होते
हैं—यह करूं, न करूं; कैसे करूं, इस विधि
करूं या उस
विधि करूं; पूरब जाऊं
कि पश्चिम; जाऊं या न
जाऊं; उठूं
या बैठा रहूं—विचार
में तो विकल्प
होते हैं।
निर्विचार
में कोई
विकल्प नहीं होता,
सिर्फ
निर्णय होता
है।
निर्विचार
में एक भाव
उठता है, तुम्हारे
पूरे प्राणों
को पकड़ लेता
है। ऐसा सवाल
नहीं होता कि
चलूं या न
चलूं। बस, तुम
अचानक पाते हो,
तुम चल रहे
हो। या अचानक
पाते हो कि
तुम बैठे हो, चलना खो गया।
निर्णय
है निर्विचार
में। और वहा
कोई विकल्प
नहीं है। वहां
तो
निर्विकल्प
दशा है। एक ही
उठता है। और
इतने समग्र
भाव से उठता
है कि
तुम्हारे रोएं—रोएं
को आविष्ट कर
लेता है।
तुम्हारा तन—मन
सब उसमें
समर्पित हो
जाता है। तुम
अचानक पाते हो
कि यह
तुम्हारा
लिया हुआ
निर्णय नहीं
है। ज्यादा
उचित होगा कि
निर्णय ही ने
तुम्हें ले
लिया। तुमने
कहां लिया? तुम
निर्णय से ऊपर
नहीं हो।
निर्णय ने ही
तुम्हें ले
लिया। तुम
निर्णय के
भीतर घिर गए
हो।
और ऐसा
जब कोई निर्णय
होता है, तो फिर कोई
पछतावा नहीं
है। वह
तुम्हें जहां
भी ले जाए, तुम
सदा धन्यभागी
पाओगे। विचार
से सोचकर, विकल्पों
के बीच चुनकर
लिया गया
निर्णय मिथ्या
होगा, क्योंकि
वह विक्षिप्त
मन ने लिया है।
निर्विचार
में, स्वभाव
में आविर्भूत,
उठा हुआ
निर्णय खंडित
नहीं होगा, दो नहीं
होंगे। वह
तुम्हें पूरे
प्राणपण से पकड़
लेगा। तुम कभी
पछताओगे न।
तुम कभी पीछे
लौटकर न
देखोगे, क्योंकि
अन्यथा उपाय
ही न था करने
का। जो तुमने
किया है, वही
हो सकता था।
दूसरा कोई
स्वर ही न था
भीतर, जो
अब कह सके कि
देखो, मैंने
कहा था ऐसा मत
करो।
अभी
तुम्हारी दशा
ऐसी है कि तुम
जो भी करो, पछताते
हो। करो तो
पछताते हो, न करो तो
पछताते हो।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, बड़ी
मुश्किल में
पडे हैं।
संन्यास नहीं
लेते हैं, तो
दिन—रात
पछतावा चलता
है कि हम पीछे
पड़े जा रहे
हैं; दूसरे
आगे निकले जा
रहे हैं। और
दूसरे
हिम्मतवर हैं,
हम कमजोर, कायर; दूसरे
साहसी। तो मन
में ग्लानि
बनी रहती है, पीड़ा होती
है। अगर ले
लेते हैं, तो
झंझटें खड़ी हो
जाती हैं कि
यह क्या भूल
कर ली!
जगहंसाई होती
है। लोग कुछ—कुछ
कहते हैं। लोग
कहते हैं, यह
भी पागल हुआ।
तुमने भी
दिमाग छोड़
दिया अपना!
बुद्धि खो दी!
नहीं लेते, तो पछतावा
पकड़ता है, लेते
हैं, तो
पछतावा पकड़ता
है।
तो फिर
तुम करोगे
क्या? तुम
कुछ भी करोगे,
पछतावा
पकडेगा।
पछतावे का
अर्थ यही है
कि तुम बंटे
हो। एक मन का
हिस्सा कहता
है, लो; दूसरा
मन का हिस्सा
कहता है, मत
लो। तो तुम दो
में से किसी
की भी सुनोगे,
तो जो नहीं
जिसकी तुमने
सुनी है, वह
बैठा है भीतर,
प्रतीक्षा
कर रहा है ठीक
समय की; कि
तुम्हें
कहेगा कि लो!
पहले कहा था, नहीं सुना, नहीं माना; अब भोगो। पर
ये दो हैं, इसलिए
हमेशा ही तुम
पछताओगे।
मेरे
देखे, तुम
सिवाय पछताने
के और कुछ
करते ही नहीं।
सदा तुम्हारा
जीवन एक गहरे
पश्चात्ताप
के धुएं से
भरा रहता है।
जिस
दिन तुम
जानोगे
निर्विचार का
निर्णय, उस दिन तुम
पछताओगे न, क्योंकि वहा
कोई दूसरा
स्वर ही न था।
तुम कुछ और
करना भी चाहते,
तो कर ही न
सकते थे। ऐसी
अवस्था में ही
नियति का अर्थ
प्रकट होता है।
तभी तुम कह
सकते हो, जो
होना था हुआ।
भाग्य था; अन्यथा
कुछ हो न सकता
था। बुरा किया,
किया। भला
किया; किया।
कुछ और हो ही न
सकता था, जो
परमात्मा ने
चाहा वह हुआ।
जिस
दिन तुम
निर्विचार हो, उसी दिन
परमात्मा
तुम्हारे
भीतर सक्रिय
हो जाता है।
उसे थोड़ा मौका
दो।
मगर
तुम बहुत
होशियार हो।
तुम निर्णय
खुद लेना
चाहते हो।
तुम्हारे सभी
निर्णय
मिथ्या होंगे।
निर्णय तो
उसका ही सत्य
होगा। तुम
मार्ग दो, हटो बीच
से। आने दो
उसकी आवाज को,
उठने दो
उसकी अंतर—
ध्वनि। वही
तुम्हारे
भीतर निर्णय
ले, तुम
चुपचाप उसके
साथ चलो। तुम
छाया बन जाओ।
तुम आगे—आगे
मत डोलो, तुम
पीछे—पीछे हो
रहो। फिर वह
जहां ले जाए
जाओ। और
तुम्हारे
जीवन में
पश्चात्ताप
से कभी भी मिलन
न होगा।
और ऐसा
जीवन ही पुण्य
का जीवन है, जिसमें
पश्चात्ताप न
हो। अगर तुम
मुझसे पूछो कि
किस जीवन को
मैं पुण्य का
जीवन कहता हूं
तो उस जीवन को,
जिसमें
पश्चात्ताप न
हो। जहां
पश्चात्ताप
है, वहां पाप
है।
लोग
कहते हैं कि
पाप के लिए
पछताना पड़ता
है। मैं तुमसे
कहता हूं जिस
चीज के लिए भी
पछताना पड़ता
है, वह
पाप है। तुमने
चाहे दान ही
क्यों न दिया
हो और देकर पछताने
लगे कि न दिया
होता तो अच्छा
था, तो वह
भी पाप हो गया।
जिसके लिए
पछताना पड़े, वह पाप है; और जिसके
लिए न पछताना
पड़े, वह
पुण्य है।
मगर
कैसे वह घड़ी
आएगी, जब
तुम न पछताओगे?
विचार
से निर्णय
लोगे, पछताओगे
ही।
निर्विचार से
उठने दो
निर्णय! तब
कृष्ण कहते हैं,
कृपा से, अनायास ही, जो कर—करके
नहीं होता, वह बिना किए
हो जाता है।
तीसरा
प्रश्न :
कृष्ण ने पूरी
गीता में
अर्जुन को
निमित्त होने, प्रभु की
इच्छानुसार
चलने को कहा
है; पर अंत—
अंत में जैसी
तेरी इच्छा हो,
वैसा ही कर,
यह भी जोड़
दिया है। क्या
अर्जुन इस
क्षण में कोई
इच्छा कर सकता
है? या कि
कृष्ण ने कुछ
जानने के लिए
उसे जान—बूझकर
जोड़ा है?
जान—बूझकर जोड़ा
है।
अगर
अर्जुन कृष्ण
को समझ गया है, तो कहेगा,
इच्छा भी
तुम्हीं
सम्हालों। यह
बोझ मुझे
क्यों देते
हो! जब मैं
तरकीब ही सीख
गया निबोंझ
होने की, तो
अब तुम मुझे न
फंसा सकोगे।
यह भी तुम्हीं
सम्हालो।
अगर
अर्जुन समझ
गया है, तो वह कहेगा,
अब जो
तुम्हारी
मर्जी। अर्जुन
हंसेगा और
कहेगा, यह
भी खूब रही! यह
भी खूब रही कि
पूरे समय
समझाया छोड़ने
को और अब आखिर
में कहते हो, जो तेरी
इच्छा! ऐसा
मजाक मत करो।
लेकिन
अर्जुन नहीं
समझ पाया। वह
विचार में पड़
गया। वह सोचने
लगा।
कृष्ण
जैसे लोगों के
साथ जरा सोच—समझकर
बातचीत करना
जरूरी है, बड़ा होश
रखना जरूरी है।
क्योंकि वे
क्या कहते हैं,
उसका अर्थ
इतना सीधा—सीधा
नहीं है कि
तुम भाषा से
ही समझ लो।
उसमें दाव—पेंच
हैं। दाव—पेंच
होने
स्वाभाविक
हैं, क्योंकि
वे तुम्हारे
मन की
गहराइयों में
उतरने की
चेष्टा कर रहे
हैं।
वे कई
जगह तुम्हें
धोखा देंगे। और
उनका धोखा
इसीलिए होगा
कि तुम पकड़
पाते हो, नहीं पकड़
पाते हो!
पहचान पाते हो,
नहीं पहचान
पाते हो! अगर
तुम नहीं
पहचान पाए, चूक गए। फिर
से समझाना
पड़ेगा। सारी
बात ही व्यर्थ
हो गई।
अर्जुन
को एक ऐसी जगह
कृष्ण ले आए
हैं, जहां
अर्जुन को भी
लग रहा है कि
समझ में आ रहा
है। एक ऐसी
घड़ी आ गई है
चर्चा की, संवाद
वहां पहुंच
गया है, जहां
अर्जुन शांत
हुआ दिखता है।
जहां उसका
ऊहापोह क्षीण
हो रहा है, लहरें
बैठ गयी हैं।
वह तूफान नहीं
रहा, वह
आधी नहीं रही,
जहां से कथा
शुरू हुई थी, वह विषाद
नहीं रहा।
चिंता के बादल
छंट गए हैं, सूरज की
किरणें दिखाई
पड़ने लगी हैं।
यह घड़ी
है। क्योंकि
कृष्ण जैसे
व्यक्ति एक—एक
कदम
होशपूर्वक
लेते हैं।
बहुत कुछ उनके
कदम पर निर्भर
है। इस घड़ी
में अर्जुन को
ऐसा खयाल हो
सकता है कि समझ
गया। आ गई बात
समझ में।
कितनी
बार मुझे
सुनते—सुनते
तुम्हें नहीं
लगता है कि आ
गई बात समझ
में। वह भी हो
सकता है
अहंकार का ही
आखिरी उपाय हो
कि मैं समझ
गया। मैं बचने
की कोशिश कर
रहा हो अब समझ
के द्वारा, कि देखो,
मैं समझ गया।
देखो, कोई
भी नहीं समझ
पाया। देखो, कितने समझने
की कोशिश कर
रहे हैं और
भटक गए, और
मैं समझ गया।
अर्जुन
में उठी होगी
वैसी सूक्ष्म
लहर, कि
समझ गया। वह
लहर अर्जुन को
भी साफ नहीं
है। अर्जुन को
भी अपने अचेतन
का पता नहीं
है, वहां
क्या संगठित
हो रहा है।
लेकिन
कृष्ण से बचकर
जाना मुश्किल
है। कृष्ण की आंखें
तुम्हें
तुम्हारी
आखिरी गहराई
तक भेदती हैं।
ऐसी कोई पर्त
नहीं है
तुम्हारे
चेतन— अचेतन
की, जहां
कृष्ण की
दृष्टि नहीं
पहुंच जाती।
कृष्ण ने तत्क्षण
जाल फेंका और
कहा कि देख, अब सब तुझे
कह दिया। सब
तू समझ भी गया।
अब तू खुद ही
सोच ले, जो
तेरी इच्छा हो,
वैसा कर।
अर्जुन
जाल को नहीं
पहचान पाया।
वह सोचने लगा।
शायद उसने आंख
बंद कर ली हों, विचार
करने लगा कि
क्या करूं, क्या न करूं!
चूक
गया। क्योंकि
यही तो पूरी
बात समझायी थी।
यह तो वही हुआ
कि रातभर
समझाया राम की
कथा को; और सुबह तुम
पूछने लगे कि
सीता राम की
कौन?
यह
पूरा अब तक
गीता का सारा
शास्त्र
समर्पण की कथा
है, और
आखिर में
कृष्ण ने पासा
फेंका और
अर्जुन फंस
गया। वह सोचने
लगा, विचार
करने लगा; चूक
गया। कृष्ण को
फिर कथा शुरू
करनी पड़ेगी।
फिर से कहना
पड़ेगा। फिर
किसी और द्वार
से खटखटाना
पड़ेगा। फिर
कहीं और से
मार्ग बनाना
पड़ेगा। इस बार
भी बात चूक
गयी।
अगर
अर्जुन समझ ही
गया होता, तो कहता,
अब बंद करो।
अब यह चाल मत
खेलो। समझ गया
मैं। अब क्या
मेरी मर्जी? अब उसकी ही
मर्जी। अब
तेरी ही मर्जी।
अब जो
तुम्हारी
मर्जी, मैं
राजी हूं। अब
और न उलझाओ।
अब तुम मुझे न
फांस सकोगे।
और गीता यहीं
समाप्त हो गयी
होती।
लेकिन
एक बार अर्जुन
और चूक गया।
स्वाभाविक है।
जीवन का जाल
बहुत जटिल है।
तुम पाते—पाते
भी चूक जाते
हो। पास
पहुंचते—पहुंचते
छिटक जाते हो।
हाथ पहुंच ही
रहा था, पहुंच ही
रहा था, कि
फासला बड़ा हो
जाता है। जरा—सी
भूल!
तुमने
बच्चों का खेल
देखा है, सीढ़ी और
सांप। बस, वैसा
ही जीवन है।
उसमें पासे
फेंको, सीढ़ियों
पर नंबर पड़
जाए तो चढ़ो, और सांपों
पर नंबर आ जाए
तो उतर आओ।
चढ़ते—चढ़ते, पहुंचने के
करीब ही थे, आखिरी मंजिल
पास ही थी, दो—चार
खाने और रह गए
थे, कि पड़
गए सांप के
मुंह में। फिर
नीचे, जहां
सांप की पूंछ
है, वहा आ
गए। फिर
यात्रा शुरू!
जीवन
सांप—सीढ़ी का
खेल है। कृष्ण
सीढ़ी लगाते
हैं, अर्जुन
को चढ़ाते हैं।
लेकिन जब तक
तुम सांप को
ठीक से न
पहचानने लगो,
तब तक सीढ़ी
से ही चढ़कर
कोई चढ़ नहीं
सकता। सांप को
भी पहचानना
जरूरी है, क्योंकि
वह हर सीढ़ी के
साथ खानों में
बैठा हुआ है।
हर सीढ़ी के
साथ सांप का
मुंह भी है।
हर ऊंचे शिखर
के साथ गहरी
खाई भी है। हर
समझ के पास ही
गडु है नासमझी
का। जरा—सी
चूक, जरा—सी
भूल, और
तुम अतल खाई
में पाओगे
अपने को। बहुत
दिनों का श्रम
व्यर्थ हो
जाता है।
मगर यह
भी शायद जरूरी
है प्रौढ़ता के
लिए, बहुत
बार हारना, उठ—उठकर
गिरना, गिर—गिरकर
उठना। सीढ़ी भी
जरूरी है, सांप
भी जरूरी है, तभी तुम
पकते हो। सीढ़ी
सफलता देती है,
आशा बंधाती
है। सांप असफल
करता है, निराशा
देता है।
संतुलन बना
रहता है।
यह
सांप था, जो कृष्ण ने
कहा कि अब
तेरी जो मर्जी।
सब मैंने तुझे
कह दिया। सीढ़ी
लगा दी। अब
कुछ भी बचा
नहीं कहने को,
बात सब साफ
हो गयी, अर्जुन।
अब तू चुन ले, अब तू खुद ही
विचार कर ले।
और
अर्जुन विचार
करने लगा। बस, चूक गया।
वह हंसने लगा
होता; उसने
उठा लिया होता
गांडीव, और
उसने कृष्ण से
कहा होता, ले
चलो रथ को, जहां
तुम्हारी
मर्जी।
संन्यास का
इरादा हो, ले
चलो हिमालय की
तरफ। युद्ध का
इरादा हो, बजाओ
शंख, बज
जाने दो
पांचजन्य; उतर
जाने दो युद्ध
मै। अब जो
तुम्हारी
मर्जी। अब और
मुझे मत धोखा
दो। बहुत
सीढ़िया, बहुत
सांप देखे। अब
पहचान गया हूं।
नहीं
पहचान पाया।
वह आंख बंद
करके फिर
सोचने लगा कि
क्या निर्णय
करूं! सब
विकल्प उठने
लगे। लडूं? न लडूं? फिर बात
वहीं की वहीं
पहुंच गयी, जहां पहले
अध्याय में थी,
लडूं या न लडूं?
अपने
प्रियजन हैं,
इनको मारूं,
न मारूं? यह राज्य
पाने योग्य है?
युद्ध के
योग्य है? इतने
बलिदान के
योग्य है? सारा
झंझावात फिर
खड़ा हो गया।
फिर बादल घिर
गए सूरज फिर
खो गया।
चौथा
प्रश्न : जब मन
पूरी तरह
विचारशून्य
हो जाएगा, तब वह फिर
विचार किसका
करेगा? विचार
करने के लिए
भी समस्या के
रूप में कुछ विचार
तो चाहिए ही न?
जब मन पूरी
तरह शून्य हो
जाता है, तब किसी का
विचार नहीं
करता; दृष्टि
उपलब्ध होती
है। तुम विचार
करते हो, क्योंकि
दृष्टि नहीं
है। इसे थोड़ा
समझो। अगर
दृष्टि हो, तो तुम
विचार न करोगे।
विचार करना
पड़ता है, दृष्टि
की कमी है, उसको
पूरा करने के
लिए।
अंधे
आदमी को जाना
है। पूछता है, कहां
जाऊं? रास्ता
कहां है? पूरब
जाऊं, पश्चिम
जाऊं? फिर
लकडी उठाकर
टटोलता है।
विचार ऐसा ही
है। वह अंधे
आदमी के हाथ
की लकड़ी है।
उससे तुम
टटोलते हो।
पर
जिसके पास आंख
है, वह
लकड़ी से
टटोलता है? उसे जाना है,
उठा और चला।
वह एक बार
सोचता भी नहीं
कि किस तरफ
जाऊं? द्वार
कहा है? आंख
है, तो
द्वार दिखाई
ही पड़ता है।
वह टटोलता भी
नहीं, क्योंकि
टटोलने की बात
ही बेमानी है।
विचार
टटोलना है, ध्यान आंख
है।
निर्विचार आंख
है, विचार
अंधे की लकड़ी।
तुम
खूब—खूब विचार
करते हो, क्योंकि
तुम्हें कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता, सूझता
नहीं। सूझता
नहीं, तो
विचार से कमी
पूरी करनी है।
सोच—सोचकर
निर्णय करते
हो कि कहीं
भूल न हो जाए। फिर
भी होती है।
अंधा कितना ही
सम्हलकर चले,
फिर भी
टकराता है।
बड़ी
पुरानी झेन
कथा है। एक
अंधा आदमी एक
मित्र के घर
से रात विदा
होता था।
मित्र ने कहा, लालटेन
साथ ले जाओ।
रास्ता
अंधेरा है, घर दूर।
अंधा हंसने
लगा। उसने कहा,
मजाक करते
हो! मुझ अंधे
को क्या फर्क
पड़ता है
लालटेन से।
लालटेन हो तो,
न हो तो, रास्ता
अंधेरा ही
रहेगा। मुझे
तो टटोलना ही
पडेगा।
पर
मित्र बड़ा
तार्किक था, एक
महापंडित था।
उसने कहा कि वह
मुझे पता है
कि तुम अंधे
हो। यह भी
मुझे पता है—तुम
मुझे मत
समझाने की
कोशिश करो—यह
भी मुझे पता
है कि
तुम्हारे हाथ
में लालटेन से
तुम्हें कोई
फर्क नहीं पड़ता।
लेकिन दूसरों
को फर्क पड़ेगा,
वे तुमसे
टकराने से बच
जाएंगे। और
उससे तुम्हें
भी लाभ होगा।
अंधेरे में
कोई तुमसे
टकरा जाएगा।
हाथ में
लालटेन होगी,
तो तुमसे
कोई टकराएगा
नहीं।
तर्क
तो वजनी था।
अंधा भी इनकार
न कर सका। तर्कों
के साथ यही
मुश्किल है कि
उनमें वजन होता
है। और वजन
में बड़ा धोखा
होता है।
अंधे
ने कहा, यह बात तो
ठीक है। आज तक
कभी लालटेन
लेकर चला नहीं।
लेकिन अब तुम
कहते हो, तो
बात जंचती भी
है, गलत भी
नहीं कह सकता।
लेकर जाता हूं।
लालटेन
लेकर गया। दस
कदम ही गया
होगा मुश्किल
से कि एक आदमी
जोर से आकर
टकराया। अंधे
ने कहा, यह क्या
मामला है! यह
तर्क कहीं ऐसे
गलत हो सकता
है! क्या तुम
भी अंधे हो
भाई? एक ही
बात हो सकती
है कि यह आदमी
भी अंधा हो और
इसको भी
लालटेन का पता
न चल रहा हो।
उस
आदमी ने कहा, मैं अंधा
नहीं हूं आंखें
हैं मेरी। तुम
अंधे हो, दुनिया
को अंधा समझते
हो? अंधे
ने कहा, अगर
तुम्हारे पास आंख
है, तो यह
हाथ की लालटेन
नहीं दिखाई
पड़ती? उस
आदमी ने कहा, लालटेन के
भीतर की बत्ती
कभी की बुझ
गयी। तुम बुझी
लालटेन लिए हो।
और
खतरा हो गया।
यह अंधा आदमी
जिंदगीभर
चलता रहा था; कभी कोई
इससे टकराया न
था। क्योंकि
वह सम्हलकर
चलता था, अंधे
के हिसाब से
चलता था, लकड़ी
बजाकर चलता था।
जरा ही आवाज
होती, तो
आवाज कर देता
कि भाई मैं
अंधा आदमी हूं।
आज अकड़कर चल
रहा था। हाथ
में लालटेन थी,
फिक्र क्या
है! इस अकडू ने
और मुश्किल
में डाल दिया।
और लालटेन तो
बुझ गई थी।
तुम्हारा
विचार अंधे के
हाथ की लकड़ी
है। और
तुम्हारे
भीतर जो बहुत
बड़े विचारक
हैं, उनके
हाथ में
लालटेन है, जो बुझी हुई
है। और
तुम्हारे
भीतर जो
आत्यंतिक
विचारक हैं, वे पागल हो
जाते हैं।
पागलखानों
में उनसे मिलो,
वे बड़े
विचारक हैं।
वे विचार ही
विचार करते
हैं। वे इतने
बड़े विचारक
हैं कि वे
निर्णय तक
पहुंच ही नहीं
पाते!
तुम
पहुंच जाते हो, क्योंकि
तुम बड़े
विचारक नहीं
हो। तुम्हारे
सोचने का अंत
आ जाता है।
तुम कुछ न कुछ
निष्कर्ष ले
लेते हो।
पर वे
सोचते ही चले
जाते हैं, सोचते ही
चले जाते हैं।
वे कभी निर्णय
तक पहुंचते ही
नहीं। विचार
की श्रृंखला
उनकी बड़ी है।
निर्विचार, समस्या के
कारण नहीं
सोचता।
निर्विचार
में सोचना तो
घटता ही नहीं।
निर्विचार
देखता है।
अगर
तुम ठीक से
समझो, तो
निर्विचार को
समस्या नहीं
दिखाई पड़ती, समाधान
दिखाई पड़ता है।
और विचार को
समस्या दिखाई
पड़ती है, समाधान
सोचना पड़ता है।
समाधान बना—बनाया,
खुद का होता
है। समस्या
बाहर होती है।
विचार
भरे चित्त को
समस्या बाहर
होती है, समाधान अपना
मनोकल्पित
होता है।
निर्विचार
चित्त को
समस्या दिखाई
ही नहीं पड़ती,
समाधान ही
दिखाई पड़ता है।
इसलिए सोचने
की कोई जरूरत
नहीं होती।
लेकिन
इसे ही तुम
चाहो तो सम्यक
विचार कह सकते
हो। यही
वस्तुत: विचार
है, जहां
दिखाई पड़ जाए;
समस्या न हो,
समाधान हो।
ऐसा
समझो, पहले
समस्या दिखाई
पड़े, फिर
समाधान करना
पड़े, तो
विचार।
समस्या को
देखते ही
समाधान दिखाई
पड जाए, क्षण
का अंतराल न
पड़े समस्या और
समाधान में, सोच—विचार
के लिए क्षणभर
की भी जगह न
खोनी पड़े, तो
समझना कि
निर्विचार।
इसलिए
बुद्ध, महावीर और
कृष्ण को
विचारक मत
कहना। वे
विचारक नहीं
हैं। जैसे
अरिस्टोटल
विचारक है, प्लेटो
विचारक है, ऐसे बुद्ध, महावीर
विचारक नहीं
हैं। प्लेटो
महान विचारक
है, अरिस्टोटल
महान विचारक
है। महावीर और
बुद्ध विचारक
हैं ही नहीं।
निर्विचार को
उपलब्ध हैं।
उन्हें
समस्या मिलती
ही नहीं। वे जहां
भी जाते हैं, समाधान ही
पाते हैं।
इस
स्थिति को ही
हम समाधि कहते
हैं। जिसके
भीतर समाधि है, उसके
जीवन में बाहर
सदा समाधान
होता है। और
जिसके भीतर
विचार की
विक्षिप्तता
है, उसे
बाहर सिर्फ
समस्याएं
होती हैं।
वह जो
कृष्ण ने
अर्जुन से कहा
कि अब तू ही
विचार कर ले, अगर
निश्चित समझ आ
गयी होती, प्रज्ञा
का उदय हुआ
होता, अगर
बातचीत ही
बातचीत न समझी
होती, तत्व
समझ लिया होता,
तो आलोकित
हो जाता। उस
विचार के क्षण
में निर्णय की
वर्षा हो जाती,
निष्कर्ष आ
जाता। वह
अर्जुन कहता
कृष्ण से कि
अब क्या सोचना
है! दिखाई
पड़ने लगा। अब
मुझे सोचने के
लिए क्यों
कहते हो? मेरी
आंख खुल गयी; अब लकड़ी से
क्यों टटोलूं?
मेरा
समर्पण हुआ; अब मैं
क्यों चिंता
सिर पर लूं? जो उसकी
मर्जी। मगर
बात को समझ
लेना आसान है।
बात के भीतर
छिपी हुई बात
को समझना
मुश्किल है।
तुलसी
की एक पंक्ति
है, बड़ी
मधुर है।
पंक्ति है
निशिगृह
मध्य दीप की
बातन तम
निवृत्त नहीं
होई।
अंधेरी
रात हो, घर में
अंधेरा घिरा
हो, तो
प्रकाश की
बातचीत से
अंधेरा नहीं
मिटता।
दीप की
बातन तम
निवृत्त नहीं
होई।
तो तुम
कितनी ही
चर्चा करो
प्रकाश की, इससे कोई
अंधेरा नहीं
मिटता। दीया
जलाओ। दीए की
बातचीत से
नहीं मिटता, दीया जलाने
से मिटता है।
चाहे बातचीत न
भी करो, दीया
जलाओ। कृष्ण
तो जलाने की
कोशिश कर रहे
हैं दीया, अर्जुन
समझ रहा है
बातचीत को। और
बातचीत की समझ
को वह सोचता
है कि अंधकार
हट जाएगा।
वह फिर
सोचने लगा, फिर
विचारने लगा।
उसने सोचा कि
ठीक है। शायद
अभी तक जो डर
भी पैदा हुआ
हो कि यह
कृष्ण कहे ही
चले जा रहे
हैं, समर्पण,
समर्पण, समर्पण;
शायद करना
पड़ेगा।
आश्वस्त हुआ
होगा कि नहीं।
अहंकार ने कहा
होगा, मत
घबड़ा, यह
आदमी भला है।
यह कहता है, अब जो तेरी
इच्छा, तू
कर ले।
अहंकार
प्रसन्न हुआ
होगा। फिर से
पैर जमाकर खड़ा
हो गया होगा।
और अहंकार ने
कहा होगा, कि ठीक।
नहीं; हम
गलती में थे।
हम सोचते थे, यह आदमी
उलझा ही देगा
समर्पण में।
लगाए जा रहा
है कि छोड़ो सब,
छोड़ो, सिर
झुकाओ; उसी
को करने दो, तुम बीच में
मत आओ। यह
इतनी बातचीत
चला रहा है कि
कहीं ऐसा न हो
कि फांस ही दे।
नहीं, गलती
सोचा था हमने।
यह आदमी भला
है। अब इसने
आखिरी बात कह
दी, कि अब
तू खुद सोच ले।
पांचवां
प्रश्न : गीता
का प्रारंभ है
विषाद—योग से
और अंत है
मोक्ष—संन्यास—योग
पर। क्या जीवन
में विषाद
अंतत: मोक्ष—संन्यास
पर पहुंचा
देता है?
निश्चित
ही। लेकिन
विषाद समग्र
होना चाहिए।
थोड़ा— थोड़ा
विषाद काम न
देगा। थोड़ा—
थोड़ा विषाद
होगा, तो
तुम कोई न कोई
सांत्वना खोज
लोगे, कोई
न कोई आशा का
तंबू खींच
लोगे और विषाद
उसमें छिप
रहेगा। विषाद
अगर पूर्ण
होगा, विषाद
ऐसा होगा कि
पूरा जीवन दाव
पर लगा है, मरना
या जीना ऐसी
स्थिति आ गई
है, तो ही
विषाद से
मोक्ष की
यात्रा शुरू
होगी। विषाद
प्राथमिक चरण
है। दुख का
बोध पहला चरण
है।
बुद्ध ने
चार आर्य—सत्य
कहे कि चार, बस चार
सत्यों में सब
शास्त्र आ
जाते हैं।
पहला सत्य है,
दुख का बोध,
कि जीवन दुख
है। दूसरा
सत्य है कि
दुख से मुक्त
हुआ जा सकता
है। तो आशा
बनेगी। अगर
मुक्त ही नहीं
हुआ जा सकता, तो तुम
विषाद में ही
डूबकर
विक्षिप्त हो
जाओगे।
बुद्ध
पुरुषों से
आशा बंधती है
कि नहीं, दुख से
मुक्त हुआ जा
सकता है। ऐसे
लोग भी हैं, जिनको हमने
नाचते देखा है
आनंद से। ऐसे
लोग भी हैं, जिनके
होंठों पर
हमने उत्सव की
बंसी बजती सुनी
है। कृष्ण की
और बुद्ध की
चाल हमने देखी
है। उनके
बैठने, उठने
का ढंग हमने
देखा है। उनके
जीवन का
महोत्सव हमने
जाना है। तो
दुख है, यह
तो पहली बात
है। जिसको अभी
इसका ही पता
नहीं चला, उसकी
तो यात्रा ही
शुरू नहीं हुई;
विषाद—योग
ही शुरू नहीं
हुआ। अभी तो
वह बचकाना है,
प्रौढ़ भी
नहीं हुआ। अभी
उसने जीवन के
परम सत्य को
भी नहीं देखा
कि दुख है, सब
तरफ दुख घिरा
है।
लेकिन
अगर किसी ने
दुख ही देख
लिया, और
उसको दूसरी
बात न दिखाई
पड़ी; अंधेरे
बादल तो दिखाई
पड़े, लेकिन
शुभ चमकती हुई
बिजली की रेखा
दिखाई न पड़ी; अंधेरी रात
तो दिखाई पड़ी,
लेकिन हर
रात के गर्भ
में छिपी हुई
सुबह दिखाई न
पड़ी; तो वह
विषाद से दबकर
मर जाएगा, मुक्त
नहीं हो जाएगा।
आत्महत्या कर
लेगा।
पश्चिम
में यही हो
रहा है, विषाद—योग
पैदा हुआ है।
सार्त्र
विषाद—योग से
घिरा है। पूरे
जीवन वह विषाद
की ही बात कर
रहा है। लेकिन
उससे मुक्ति
नहीं आ रही है,
न मोक्ष का
स्वर आ रहा है।
इतना ही आ रहा
है कि जीवन
दुख है। और ज्यादा
से ज्यादा
महत्वपूर्ण
बात जो वह कह
सका है अपने
जीवनभर की खोज
में, वह यह
कि आदमी को
साहसी होना
चाहिए, दुख
के बावजूद
जीने की कोशिश
करनी चाहिए; बस।
तो
विषाद तो है।
पूरा
अस्तित्ववाद
का आंदोलन
पश्चिम में
विषाद—योग है।
बड़े विचारक
पैदा हुए हैं, लेकिन वे
बस अर्जुन तक
अटक गए हैं।
कृष्ण कहीं
दिखाई नहीं
पड़ता उन्हें।
तो उनका
गांडीव तो
ढीला होकर हाथ
से छूट गया है;
गात शिथिल
हो गए हैं।
लेकिन
सार्त्र इतनी
ही आशा बंधाता
है कि कुछ और
किया नहीं जा
सकता। ऐसी
स्थिति है कि
जीवन दुख है।
बस, ज्यादा
से ज्यादा
इतना ही हो
सकता है कि
तुम
साहसपूर्वक
लड़े जाओ, यद्यपि
पराजय
निश्चित है।
तो
इसको वह कहता
है कि बहादुर आदमी
का लक्षण है, जानते
हुए, पराजय
होगी, मृत्यु
होगी, वह
लड़ता जाए। कोई
सांत्वना
नहीं है, दुख
ही दुख है।
लेकिन कोई
उपाय भी नहीं
है। निरुपाय,
दुख को
झेलने की
क्षमता बढ़ानी
है।
अर्जुन
तो मौजूद है, कृष्ण की
कहीं कोई खबर
नहीं मिलती।
अंधेरी रात तो
दिखाई पड़ रही
है, सुबह
की कोई खबर
नहीं मिलती, कोई मुर्गा
बांग नहीं
देता। आकाश
मेघों से घिरा
है; मेघ तो
दिखाई पड़ते
हैं, चमकती
हुई दामिनी
दिखाई नहीं
पड़ती।
और अगर
दिखाई भी पड़ती
है, तो
उससे भरोसा
नहीं बंधता कि
यह बिजली भी
क्या कोई प्रकाश
बन सकती है!
चमक जाती है
कभी, अनायास।
इससे हम कोई
स्थिर प्रकाश
का स्रोत थोड़े
ही बना सकते
हैं। और कृष्ण
और बुद्ध ऐसे
ही हैं; कभी—कभी
बिजलियों की
भांति चमक
जाते हैं।
लेकिन
बिजली को अगर
तुम ठीक से
समझ लो, तो तुम्हारे
घर का दीया
बिजली बन सकती
है; तुम्हारे
जीवन के मार्ग
पर प्रकाश बन
सकती है। अगर
तुम बिजली को
क्षणभंगुर
कौंध समझो, तो फिर
अंधेरे मेघों
से घिर जाओगे।
फिर तुम्हारा
जीवन विषाद तो
होगा, लेकिन
मोक्ष की
यात्रा नहीं।
तो
बुद्ध कहते
हैं, दूसरी
बात है कि दुख
से मुक्त हुआ
जा सकता है।
इसकी संभावना
की तरफ आंख का
उठना।
विषाद
पैदा हो जाए, तो गुरु
की तलाश शुरू
होती है। गुरु
की
प्रत्यभिज्ञा
हो जाए कहीं
श्रद्धा का
जन्म हो जाए
किसी के चरण
में परमात्मा
के चरणों की
धीमी—सी भी
आहट मिल जाए
तो दूसरा सत्य
समझ में आया, कि संभावना
है। विषाद है,
लेकिन उदास
होने का कोई
कारण नहीं।
विषाद है, पार
होने की
गुंजाइश भी है।
माना अंधेरी
रात है, लेकिन
सुबह होगी।
देर कितनी ही
लगे, सुबह
होगी।
और
सुबह का भरोसा
जैसे—जैसे सघन
होने लगता है, देर
अर्थहीन हो
जाती है। और
सुबह का भरोसा
जब प्रगाढ़ हो
जाता है, तो
ऐसे लोग भी
हुए हैं कि
मध्य अंधेरी
रात्रि में
उनके लिए सुबह
हो गयी। उनके
हृदय में ही
सुबह हो गयी।
बाहर रात भी
घिरी रही, तो
कोई फर्क न
पड़ा। बाहर दुख
भी रहा, तो
कोई फर्क न
पड़ा, वे
नाचने लगे।
भीतर की वीणा
बजने लगी।
बाहर का बाजार
सुना—अनसुना
हो गया। बाहर
की आवाजें
धीरे— धीरे
दूर होने लगीं, खोने लगीं।
भीतर की आवाज
सारा जीवन बन
गयी।
तीसरा
सत्य है कि
दुख से मुका
होने के उपाय
हैं। क्योंकि
यह भी हो सकता
है कि तुम्हें
ऐसा व्यक्ति
भी मिल जाए, जो आनंद
को उपलब्ध हुआ
है, तुम्हें
यह भी प्रतीति
हो जाए कि तुम
दुख में हो, विषाद में
हो, कोई
आनंद में है; लेकिन यह भी
हो सकता है कि
तुम्हें उपाय
समझ में न आए।
तो तुम कहो कि
यह भी
दुर्घटना
मात्र है कि
मैं दुख में
हूं तुम आनंद
में हो; लेकिन
कोई सेतु नहीं
है। मैंने
पाया कि मैं
इस पार हूं
तुमने पाया कि
तुम उस पार हो,
यह सिर्फ
दुर्घटना की
बात है।
अनायास है, आकस्मिक है,
इसका कोई
विज्ञान नहीं
है, कोई
विधि नहीं है
कि मैं दुख से
सुख में आ
जाऊं।
बहुत
लोग ऐसा भी
सोचते हैं। और
कई बार
तुम्हें भी
ऐसा लगता होगा
कि कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
ये बुद्ध, महावीर, कृष्ण, जरथुस्त्र,
ये
अंगुलियों पर
गिने जाने
वाले थोड़े—से
लोग प्रकृति
की भूल भी तो
हो सकते हैं!
ये भूल—चूक भी
तो हो सकते
हैं। इन तक
पहुंचने का
कोई विज्ञान
है? अपने
को कोई
रूपांतरित कर
सके, ऐसी
कोई विधि है? कहते हैं ये
लोग कि विधि
है। लेकिन
पाया ऐसा जाता
है, साधारण
समझ को ऐसा
दिखाई पड़ता है,
कि कुछ लोग
जन्म से ही
हंसते हुए
पैदा होते हैं
और प्रसन्न
होते हैं और
कुछ लोग दुख
को लेकर पैदा
होते हैं।
डाक्टर
कहते हैं—जो
बच्चों को
जन्म दिलवाते
हैं, जो
उनके जन्म—
क्षण के समय
करीब होते हैं—वें
कहते हैं, बच्चा
पहले ही क्षण
से भिन्न—भिन्न
व्यवहार करता
है। कुछ बच्चे
मुस्कुराते
पैदा होते हैं।
उनके जीवन में
जैसे सुख सहज
होता है। पहले
ही क्षण बच्चा
आंख खोलता एं
और तुम उसकी आंख
में देख सकते
हो, वह
प्रफुल्लित
चित्त है। और
कुछ पहले से
ही लंबे चेहरे
वाले होते हैं।
जीवन उनके लिए
पहले क्षण से
ही बोझ होता
है, दुख
होता है।
तो
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
कोई कंकड़ है, कोई हीरा
है। लेकिन
हीरा के कंकड़
बनने का कोई
उपाय तो है नहीं।
कंकड़ के हीरा
बनने का कोई
उपाय नहीं है।
तो यह
भी हो सकता है
कि तुम्हें
किसी सदगुरु
का दर्शन भी
हो न जाए, लेकिन मन
में यह खयाल
बना रहे कि
होगी एक दुर्घटना।
होगा!
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे मुझ
से पूछते हैं
कि ठीक; हम यह भी मान
लें कि आप जाग
गए; लेकिन
आपके शिष्यों
में कोई जागा?
मैं उनसे
पूछता हूं कि
तुम्हें मुझे
देखकर भरोसा
नहीं आता? वे
कहते हैं कि
आपको हो गया, मान लिया।
लेकिन जब तक आपके
शिष्यों को न
हो जाए, तब
तक यह भरोसा
कैसे आए कि
हमें भी हो
सकेगा!
उनकी
बात में अर्थ
है, उनकी
बात में
सार्थकता है।
वे यह कह रहे
हैं कि आपको
हो सकता है कि
जन्म से रहा
हो। कोई विधि
से न हुआ हो, ऐसा आपने
पाया हो अपने
को कि ऐसा है।
लेकिन जब तक
हम उस आदमी को
न देख लें, जो
दुख में था, महादुख में
था, और
विधियों के
द्वारा पार
हुआ' और
महासुख को
पहुंचा, तब
तक भरोसा न
आएगा।
तो
तीसरी बुद्ध
ने बात कही है, तीसरा
आर्य—सत्य, कि दुख से
मुक्त होने की
विधि है।
लेकिन
मैं तुमसे
कहता हूं कि
मेरा कोई
शिष्य भी
मुक्त हो जाए
तो भी क्या
फर्क पड़ेगा!
तुम यह कहोगे, आपको हुआ;
माना। एक
शिष्य को भी
हो गया। बाकी
को किसी को
हुआ? क्योंकि
जब तक बहुतों
को न हो जाए, तब तक मुझे
यह भरोसा न
आएगा कि मुझे
हो सकता है।
मैं तो भीड़
में हूं,
एक हूं। किसी
एकाध को हो
गया होगा, वह
भी आप जैसा ही
रहा होगा।
यह
भरोसा कब
आएगा! वस्तुत:
यह भरोसा तभी
आएगा, जब
तुम विधि का
उपयोग करोगे
और तुम्हारे
भीतर अंधेरे
की कोर थोड़ी
पीछे हटने
लगेगी, रोशनी
थोड़ी बढ़ने
लगेगी, अशांति
थोड़ी मिटेगी
और शांति का
आविर्भाव
होगा।
तुम्हारे
भीतर ही थोड़ी
आनंद की पुलक
आएगी। कभी—कभी
तुम थर्राहट
से भर जाओगे
आनंद की, रोआं—रोआं
नाचने लगेगा।
क्षणभर को ही
सही, कोई
विधि जब
तुम्हें जीवन
का स्पर्श
देगी, तभी
भरोसा आएगा।
तो
तीसरा आर्य—सत्य
तभी समझ में
आता है, जब तुम
विधियों का
उपयोग करते हो।
विधियां हैं,
ऐसा बुद्ध
पुरुष कहते
हैं, लेकिन
तुम्हें
भरोसा तभी
आएगा।
फिर
बुद्ध कहते
हैं, चौथा
आर्य—सत्य है,
दुख मिट
जाता है।
विधियों से
आदमी महादुख
के पार हो
जाता है।
बुद्ध
पुरुषों के
साथ चलकर, उनकी
छाया बनकर, विधियां
उपलब्ध हो
जाती हैं।
विधियों से
पार हो जाता
है। चौथा आर्य—सत्य
है, दुख—निरोध
की अवस्था है।
क्योंकि
सवाल यह है कि
दुख आज मिट
जाए, क्या
पक्का पता है
कि कल फिर
वापस न आ
जाएगा? क्योंकि
कई बार तुम भी
सुखी हो गए हो,
थोड़े—बहुत
ही सही। फिर
खो जाता है
सुख। कभी—कभी शांति
आती लगती है, कि गयी। आयी
भी नहीं, कि
गयी। कभी—कभी
ऐसा लगता है, सब ठीक है।
लग भी नहीं
पाता और सब
गड़बड़ हो जाता
है।
तो
बुद्ध कहते
हैं, चौथी
बड़ी बात जानने
की है, वह
यह है कि एक
ऐसी अवस्था है,
जहां दुख
गया तो गया, फिर लौटता
नहीं। सुबह
हुई तो हुई; फिर कोई रात
नहीं होती।
मगर वह
तो अनुभव से
ही होगी। अधिक
लोग विषाद पर
ही मर जाते
हैं। अर्जुन
को कृष्ण कोशिश
कर रहे हैं कि विषाद
से वह मोक्ष
तक पहुंच जाए, चौथी
अवस्था तक, बुद्ध का जो
चौथा आर्य—सत्य
है।
विषाद
जिनके जीवन
में अनुभव
होने लगा, वे
धन्यभागी हैं।
उनकी बजाय
धन्यभागी हैं,
जिन्हें यह
भी पता नहीं
कि जीवन में
दुख है, जिन्हें
यह भी पता
नहीं कि
अंधेरा है।
उनसे ज्यादा
धन्यभागी हैं।
फिर जिन्हें
किसी ऐसे
पुरुष का
स्पर्श हो गया, निकटता
मिल गयी, सामीप्य
मिल गया, जिसके
जीवन में वह
घटना घटी है, वे और भी
धन्यभागी हैं।
उनके लिए सुबह
का प्रमाण मिल
गया।
फिर वे
और भी
धन्यभागी हैं, जो ऐसी
सुबह के पीछे
चलकर थोड़े—से
प्रकाश का
अनुभव करने
लगे, स्वाद
लेने लगे।
उन्हें स्वाद
आ गया, विधियां
हैं।
फिर
उनसे भी महा
धन्यभागी वे
हैं, जो
उस अवस्था को
उपलब्ध हो गए,
जहां दुख
सदा को खो
जाता है।
क्योंकि दुख
तुम्हारा
स्वभाव नहीं
है, मोक्ष
तुम्हारा
स्वभाव है।
अब
सूत्र:
इतना
कहने पर भी
अर्जुन का कोई
उत्तर नहीं
मिलने के कारण
कृष्ण फिर
बोले कि हे
अर्जुन, संपूर्ण
गोपनीयों से
भी अति गोपनीय
मेरे परम रहस्ययुक्त
वचन को तू फिर
भी सुन, क्योंकि
तू मेरा अतिशय
प्रिय है, इससे
यह परम
हितकारक वचन
मैं फिर तेरे
लिए कहूंगा।
अर्जुन
चुप होकर बैठ
गया, सोचने लगा, क्या करूं, क्या न करूं!
खोजने लगा, क्या है
मेरी इच्छा!
उतर
गया सांप से
फिर नीचे।
चढ़ने में
वर्षों लग
जाते हैं, उतरने
में क्षणभर
लगता है।
बनाने में
वर्षों लग
जाते हैं, गिरने
में वर्षों
नहीं लगते, मिटाने में
वर्षों नहीं
लगते।
और यह
जीवन की तो
इतनी बारीक
यात्रा है, इतनी
सूक्ष्म
यात्रा है, कि तुम
पहुंचते तो
इंच—इंच
मुश्किल से हो,
यात्रा
करते हो। और
जब खोता है, तो मीलों खो
जाते हैं, एक
साथ खो जाते
हैं। क्योंकि
नीचे उतरना
सुगम है, ऊपर
जाना दूभर है।
इतना
कहने पर भी
अर्जुन का कोई
उत्तर न मिलने
के कारण......।
कृष्ण
ने कहा कि तू
अब कह; तेरी
जो मर्जी हो, तू बोल दे।
अब तुझे जो
करना हो, चुन
ले।
अगर
अर्जुन समझ
गया होता, वह हंसता
और कहता कि अब
बस खेल बंद
करो। मुझे
पक्का पता है,
तुम पुराने
खिलाड़ी हो, पर अब बहुत
हो गया। अब
मुझे और न
भरमाओ, और
न भटकाओ। अब
मेरी क्या
मर्जी? अब
उसकी मर्जी।
कृष्ण ने
प्रतीक्षा की
होगी कि वह
उत्तर दे, लेकिन वह
सोचने लगा। और
सोचने से कहीं
उत्तर आया है!
सोचने से ही
उत्तर आता
होता, तो
बुद्ध पुरुष
पागल थे कि न
सोचने की
शिक्षा देते!
वह विचार में
पड़ गया। वह
चूक गया, वह
फिर उलझ गया
जाल में।
कृष्ण देखते
रहे होंगे, प्रतीक्षा की
होगी।
इतना
कहने पर भी जब
कोई उत्तर न
मिला और अर्जुन
फिर खो गया
विचारों के
जाल में, तो उन्होंने
फिर से कहा कि
हे अर्जुन.......!
यह
गीता की पूरी
कथा गुरु के
अथक होने की
कथा है। शिष्य
थक— थक जाए, गुरु
नहीं थकता। वह
बार—बार चूक
जाए, गुरु
उसे फिर—फिर
बुलाने लगता
है। क्योंकि
गुरु इस बात
को भलीभांति
जानता है, यह
स्वाभाविक है।
बहुत बार भटक
जाना
स्वाभाविक है।
अनंत बार भी
कोई भटककर
अंततः वापस आ
जाए मार्ग पर,
तो भी जल्दी
आ गया।
कृष्ण
बोले, हे
अर्जुन, फिर
से तुझ से
कहूंगा।
गोपनीयों में
भी गोपनीय परम
रहस्ययुक्त
वचन को तू फिर
से सुन।
फिर
उसे जगाया, फिर सीढ़ी
पकडाई।
क्योंकि
तू मेरा अतिशय
प्रिय है।
यह
क्यों कृष्ण
बार—बार
अर्जुन को
दोहराते हैं
कि तू मेरा
अतिशय प्रिय
है? यह
कृष्ण बार—बार
अर्जुन को
अपने प्रेम के
प्रति सचेत
क्यों करते
हैं? ताकि
उसका प्रेम
आविर्भूत हो
सके। वे अपने
प्रेम को उससे
बार—बार कहते
हैं, ताकि
उसके भीतर भी
श्रद्धा का
ऐसा ही जन्म
हो सके।
गुरु
की तरफ से
शिष्य के लिए
जो प्रेम है, शिष्य की
तरफ से गुरु
के प्रति वही
श्रद्धा है।
गुरु प्रेम के
बीज बोता है
शिष्य के हृदय
में, ताकि
शिष्य
श्रद्धा की
फसल काट सके।
इसलिए
कृष्ण बार—बार
यह बात डाले
जाते हैं, मौके—बेमौके,
जब भी
उन्हें अवसर
मिलता है वह
कहते हैं, क्योंकि
तू मेरा अतिशय
!? प्रिय है।
प्रेम को
दोहराते हैं,
ताकि
अर्जुन को
भरोसा आ जाए।
प्रेम
ही भरोसा ला
सकता है।
प्रेम ही
श्रद्धा को
जन्मा सकता है।
और प्रेम ही
समर्पण की
संभावना खोल
सकता है।
इससे
यह परम
हितकारक वचन
मैं तेरे लिए
कहूंगा......।
तुम
ऐसा मत सोचना, जैसा कि
भूल शिष्यों
को अक्सर हो
जाती है, कि
ऐसा कृष्ण
अर्जुन से ही
कह रहे हैं।
उनके और शिष्य
रहे होंगे, तो सब से
उन्होंने यही
कहा होगा कि
तू मेरा अतिशय
प्रिय है। यह
परम हितकारक
वचन मैं तुझ
से फिर—फिर कह
रहा हूं
क्योंकि मेरा
प्रेम तेरे
प्रति गहन है,
न चुकने
वाला है।
यह
गुरु हर शिष्य
को यही कहता
है। इससे तुम
यह मत समझ
लेना कि गुरु
किसी एक शिष्य
को विशेष
प्रेम करता है
और किसी दूसरे
शिष्य को कम
विशेष प्रेम
करता है। किसी
को ज्यादा, किसी को
कम, ऐसा
सवाल नहीं है।
लेकिन गुरु हर
शिष्य से यही
कहता है कि
तुझ से मेरा
प्रेम अतिशय
है। क्योंकि
जब तक शिष्य
को ऐसा भरोसा
न आ जाए कि प्रेम
गुरु का अतिशय
है, असाधारण
है, बस
उसके प्रति है,
तब तक उसके
भीतर की
श्रद्धा का
उभार न आ
पाएगा, तब
तक उसकी
श्रद्धा दबी
पड़ी रहेगी। वह
अतिशय और
असाधारण
प्रेम में ही
उठ सकती है।
हे
अर्जुन, तू केवल मुझ
परमात्मा में
ही अनन्य
प्रेम से नित्य——निरंतर
अचल मन वाला
हो और मुझ
परमेश्वर को
ही अतिशय
श्रद्धा—
भक्ति सहित
निरंतर भजने
वाला हो तथा
मन, वाणी
और शरीर के
द्वारा सर्वस्व
अर्पण करके
मेरा पूजन
करने वाला हो
और मुझ
सर्वगुण—संपन्न
सबके
आश्रयरूप
वासुदेव को
नमस्कार कर, ऐसा करने से
तू मुझ को ही
प्राप्त होगा,
यह मैं तेरे
लिए सत्य
प्रतिज्ञा
करता हूं,
क्योंकि तू
मेरा अत्यंत
प्रिय सखा है।
देखकर
कि' अर्जुन
फिर सोचने लगा।
समर्पण कहीं
सोचा जाता है!
किया जाता है।
सोचना तो
होशियारी है।
सोचने में तो
भरोसा
तुम्हारा
अपने ही ऊपर
है।
सोचकर
भी समर्पण
करोगे, वह समर्पण
होगा? अगर
सोचकर किया, तो तुमने
समर्पण किया
ही नहीं।
क्योंकि सोच—सोचकर
पाया कि ठीक
है। यह ठीक
तुमने पाया, इसलिए
समर्पण किया।
लेकिन अंततः
निर्णायक तुम
ही रहे; अहंकार
ही अंततः
निर्णायक रहा।
और
समर्पण को तुम
किसी दिन वापस
लेना चाहो, तो वापस
भी ले लोगे।
तुम जाकर
कहोगे कि बस, समर्पण
समाप्त। अब
मुझे नहीं
करना है।
क्योंकि तुम
बच ही रहे थे।
पहले ही दिन
बच गए थे। तुम
समर्पण के
पीछे खड़े रहे
थे। तुमने
समर्पण किया
था, वह
तुम्हारा
कृत्य था, कर्ता
तो पीछे खड़ा
रहा था।
और
समर्पण तो तभी
होता है, जब कर्ता
मिट जाए।
इसलिए समर्पण
को वापस नहीं
ले सकते हो।
अगर वापस ले
लिया, वह
कोई समर्पण
है! समर्पण से
पीछे नहीं लौट
सकते हो। वह
कमिटमेंट, वह
प्रतिबद्धता
आखिरी है।
उससे कैसे
वापस लौटोगे?
कौन वापस
लौटेगा? क्योंकि
जो वापस लौट
सकता था, उसे
तो तुमने
समर्पित कर
दिया।
जब
अर्जुन फिर
सोचने लगा, कृष्ण के
मन में बड़ी
दया और करुणा
उपजी होगी, कि यह पागल
फिर विचार
करने लगा! यह
फिर चूक गया! एक
अवसर दिया था
कि बिना सोचे
कह देता अब कि
बस ठीक है, अब
सोच लिया बहुत।
सोच—सोचकर तो
विषाद में पड़ा
हूं। अब और मत
भरमाओ मुझे।
अब जो
तुम्हारी
मर्जी।
तुम्हारे शरण
आया हूं अनन्य
भाव से आया
हूं अब तुम ही
मेरे प्राण हो;
तुम ही मेरी
आत्मा हो। तुम
ही जहां
चलाओगे, चलूंगा;
न चलाओगे, न चलूंगा।
समर्पण
तो अहंकार की
आत्मघात
अवस्था है।
जैसे कोई अपनी
गरदन काट दे।
फिर जोड्ने का
उपाय नहीं।
नहीं, लेकिन
अर्जुन को
सोचते देखकर
कृष्ण को फिर
कहना पड़ा, मन,
वाणी और
शरीर के
द्वारा
सर्वस्व को तू
मुझमें अर्पण
कर दे, ऐसा
करने से तू
मुझ को
प्राप्त होगा..।
और कोई
उपाय नहीं है।
नदी गिरे सागर
में, तो
ही सागर हो
सकती है। बीज
टूटे भूमि में,
तो ही
अंकुरित होगा।
यह मैं
तेरे लिए सत्य
प्रतिज्ञा
करता हूं.....।
गुरु
को ऐसी बातें
भी शिष्य से
कहनी पड़ती हैं, जिन्हें
कहने की कोई
जरूरत न थी।
लेकिन शिष्य
की अपनी
दुनिया है।
गुरु को शिष्य
की भाषा में
बोलना पड़ता है।
कृष्ण जैसे
व्यक्ति को भी
प्रतिज्ञा
करनी पड़ती है
शिष्य के
सामने, कि
मैं
प्रतिज्ञा
करता हूं।
क्योंकि तुम
केवल इसी तरह
की बातें समझ
सकते हो।
भरोसा
तुम्हें नहीं
है। अन्यथा
प्रतिज्ञा
करवाते? अन्यथा तुम
कृष्ण को यह
कहने का मौका
दिलवाते कि
मैं तुझे
आश्वासन देता
हूं? तुम्हारा
बस चले, तो
तुम जाकर
कृष्ण को
रजिस्ट्री
आफिस में दस्तखत
करवा लो
स्टैम्प पर, कि लिख दो इस
पर कि अगर न
किया पूरा, तो अदालत से
हरजाना वसूल
कर लूंगा।
मैं
तेरे लिए सत्य
प्रतिज्ञा
करता हूं......।
महाकरुणा
तुम्हारी भूल
के कारण, तुम्हारी
नासमझी के
कारण, तुम्हें
खोजने के लिए
तुम्हारे
अंधेरे में भी
उतरती है।
तुम्हारी
भाषा का भी
सहारा लेती है।
तुम्हारे ही
शब्दों का
उपयोग करती है।
तुम्हें पाने
के लिए कृष्ण
जैसे व्यक्ति
को तुम्हारी
जगह आना पड़ता
है, ताकि तुम्हें
ले जाया जा
सके।
इसलिए
सब धर्मों को
अर्थात
संपूर्ण
कर्मों के
आश्रय को
त्यागकर मुझ
सच्चिदानंदघन
वासुदेव
परमात्मा की
ही अनन्य शरण
को प्राप्त हो, मैं तेरे
को संपूर्ण
पापों से
मुक्त कर
दूंगा; तू
शोक मत कर।
अर्जुन
सोचने लगा, फिर
शोकग्रस्त हो
गया। सोचने से
विषाद आ जाता
है। न सोचने
से आनंद की
वर्षा होती है,
सोचने से
विषाद घिर
जाता है।
सोचना ही
विषाद है।
वह फिर
विचार करने
लगा, फिर
शोक चारों तरफ
छा गया, पाप
का भय, पुण्य
का लोभ, आकांक्षा।
मारूं, न
मारूं! करूं, न करूं! अपने
हैं, पराए
हैं! सब जाल
फिर से खड़ा हो
गया।
अंत—
अंत तक, जब तक कि तुम
छलांग ही नहीं
ले लेते, संसार
तुम्हें
आखिरी दम तक
पकड़ता चला
जाता है।
अठारहवां
अध्याय आ गया।
गीता का अंत
करीब है। और
थोड़े—से सूत्र
बचे हैं। और
अर्जुन अभी भी
चूकता चला जा
रहा है!
मैं
तुझे संपूर्ण
पापों से
मुक्त कर
दूंगा, तू शोक मत कर।
तू विषाद में
मत उलझ, तू
चिंता मत कर।
तू सब धर्मों
को छोड्कर, सब कर्मों
के आश्रय को
छोड्कर, सब
धारणाएं
छोड्कर, अनन्य
भाव से मेरी
शरण आ जा।
कृष्ण
का निमंत्रण
समर्पण का
निमंत्रण है; मिटने की,
पूरी तरह
मिट जाने की, सब भांति खो
जाने की पुकार
है।
जब तक
तू है, तब
तक संसार है।
जब तक तू है, तब तक मेरा
है, पराया
है। जब तक तू
है, तब तक
जन्म है, मृत्यु
है। जब तक तू
है, तब तक
पाप और पुण्य
है। वहां भीतर
टूट गया मैं, तू मिटा; फिर
न कोई पाप है, न कोई पुण्य
है।
इसलिए
कृष्ण कह सकते
हैं, ठीक
ही कहते हैं।
इससे तुम यह
मतलब मत समझ
लेना जो लोगों
ने समझा है।
लोग हमेशा गलत
ही समझते हैं।
लोगों ने यह
समझा है कि
बिलकुल ठीक।
तो हम कृष्ण
का नाम गुणगान
करते रहें, वे सब पापों
से हमें मुक्त
कर देंगे। और
पाप भी किए
चले जाएं, क्योंकि
जब मुक्त करने
वाला ही मिल
गया, तो अब
पाप से क्या
बचना!
तुम
चालबाजी कर
रहे हो; तुम कृष्ण
का अर्थ ही न
समझे। कृष्ण
का कुल अर्थ
इतना है कि
अगर समर्पण
पूरा है, तो
पाप मिट गए; कोई मिटाता
थोड़े ही है।
वह तो
तुम्हारी
भाषा के कारण
कहना पड़ रहा
है कि मैं
तुम्हारे
पापों को मिटा
दूंगा, तू
शोक मत कर।
कोई और ढंग
कहने का नहीं
है। अन्यथा
कोई पाप
मिटाता है!
पाप बचते ही
नहीं।
अहंकार
के जाते ही
पाप भी गए। वे
तो अहंकार के
ही संगी—साथी
हैं, अहंकार
के बिना बच ही
नहीं सकते। और
अहंकार के
जाते ही सारा
संसार
रूपांतरित हो
जाता है। वहां
फिर एक ही
बचता है। कौन
करेगा पाप?
किसके साथ
करेगा पाप? वही मारने
वाला, वही
जिलाने वाला।
वही मरने वाले
में बैठा है, वही मारने
वाले में बैठा
है। सब हाथ
उसके हैं। जिस
हाथ में तलवार
है, वह भी
हाथ उसका है।
और जिस गरदन
पर तलवार
गिरती है, वह
गरदन भी उसकी
है। फिर कैसा
पाप? कैसा
पुण्य?
एक मैं
के जाते ही सब
खो जाती है वह
पुरानी
शब्दों की
दुनिया—पाप की, पुण्य की,
विभाजन की,
द्वंद्व की,
अच्छे की, बुरे की, शुभ
की, अशुभ
की—सब खो जाती
है।
निर्द्वंद्व
भाव उत्पन्न
होता है।
यह
अर्थ है कृष्ण
का कि मैं
तुझे संपूर्ण
पापों से
मुक्त कर
दूंगा। इसका
यह मतलब नहीं
है कि तू मजे
से पाप कर, मैं तुझे
मुक्त कर
दूंगा! इसका
कुल मतलब इतना
ही है कि तू
मैं को छोड़ दे,
तू पाएगा कि
पाप बचे ही
नहीं। तभी तू
समझ पाएगा कि
न तो कोई माफ
करता है, न
कोई मिटाता है।
पाप थे ही
नहीं; तुम्हारी
भ्रांति में
तुमने उन्हें
माना था कि वे
हैं।
एक
मित्र को
बुखार चढ़ा था।
मैं उन्हें
देखने गया। वे
सन्निपात में
थे। कोई एक सौ
सात—आठ डिग्री
बुखार था। बस, मरने के
करीब थे। वे
अनर्गल बातें
पूछ रहे थे।
घर के लोग
परेशान थे।
मैं पड़ोस में
ही था, मुझे
बुला लाए कि
आपको अनर्गल
प्रश्नों के
उत्तर देने की
काफी आदत है; आप चलो।
मैंने
कहा कि यह
मेरा धंधा है।
सन्निपातग्रस्त
लोगों से ही
मेरा सारा
संबंध है। वे
पूछते हैं, मैं
समझाता हूं।
मैं
गया। वह आदमी
पूछ रहा था और
घर के लोग
परेशान थे। वह
कह रहा था, मेरी खाट
क्यों उड़ रही
है? मुझे
पंख क्यों लग
गए हैं? घर
के लोगों ने
कहा, अब हम क्या
कहें!
सन्निपात
में जो आदमी
है, वह
जो पूछ रहा है,
वह है ही
नहीं। न तो उड़
रहा है, न
पंख लग गए हैं,
न खाट आकाश
में जा रही है।
तुम्हें कभी
गहरा बुखार
चढ़ा है, तो
तुम को भी लगा
होगा कि उड़े; चली खाट
आकाश में। यहां
जा रहे हैं, वहा जा रहे
हैं; भूत—प्रेत
खड़े हैं।
उस
आदमी ने कहा
कि देखो, इस कोने में
एक बहुत बड़ा
भूत खड़ा हुआ
है। यह मुझे
मारना चाहता
है। मैंने
उससे कहा, तू
फिक्र मत कर।
इसको हम मारे
डालते हैं।
मेरी
यह बात सुनकर
कि इसको हम
मारे डालते
हैं, वह
तो आश्वस्त
हुआ, उसकी
पत्नी बहुत
चौंकी। उसने
कहा, आप
क्या कह रहे
हैं? क्या
वहां कोई खड़ा
है? वह डरी,
कि हो सकता
है, वहा
कोई खड़ा हो, हमको दिखाई
नहीं पड़ता और
पति को दिखाई
पड़ता है।
मैंने
कहा, वहां
कोई खड़ा नहीं
है। लेकिन अभी
इसको समझाना
संभव नहीं है।
अभी इसको
समझाने बैठना
कि वहा कोई
खड़ा नहीं है, असंभव है।
इसकी
सन्निपात की
भाषा में उसका
कोई मेल ही.
नहीं होगा।
इसको दिखाई पड़
रहा है।
तो
इसको मैं कह
रहा हूं, तू फिक्र मत
कर, तू यह
दवा पी ले।
इससे हम निपटे
लेते हैं। इन
भूत—प्रेतों
को हम साफ कर
डालेंगे। तू
तो आंख बंद
करके मजे से
सो; तू हम
पर छोड़ दे। तू
शोक मत कर। तू
इनकी चिंता मत
कर। इनसे हम
निपट लेते हैं।
तू वैसे ही
बुखार में पड़ा
है, इनसे
लड़ाई—झगड़ा
करेगा और झंझट
होगी। वह आदमी
राजी हो गया
दवा पीने को।
उसने जब देखा
कि मैं निपट
लूंगा भूत—प्रेतों
से, तो वह
दवा पीकर
शांति से सो
गया। जब बुखार
उसका नीचे
उतरा, कोई
एक सौ चार
डिग्री पर आ
गया, तब
मैंने उससे
कहा कि देख, मैंने सब
भूत—प्रेत
समाप्त कर दिए।
उसने
चारों तरफ
देखा; उसने
कहा, ही, कोई भी नहीं
है। आपने अपना
आश्वासन पूरा
किया। मगर ये
घर के मेरे
लोग सुनते ही
न थे!
अर्जुन
एक अहंकार के
सन्निपात में
है। कृष्ण
उससे कहते हैं, तू फिक्र
मत कर; मैं
तेरे संपूर्ण
पापों से तुझे
मुक्त कर दूंगा,
तू शोक मत
कर। वे उसे
सन्निपात से
नीचे उतारना
चाहते हैं। तू
यह अहंकार का
बुखार भर छोड़
दे; तू जरा
शात हो, शीतल
हो; शेष सब
मैं कर लूंगा।
कोई
कृष्ण को करना
न पड़ेगा; वहा करने को
कुछ है ही
नहीं। मुझे
कोई भूत—प्रेत
मारने नहीं
पड़े; वे थे
ही नहीं। मुझे
उसकी खाट, कोई
आकाश से उड़ते
से पकड़कर नीचे
नहीं लानी पड़ी।
वह उड़ ही नहीं
रही थी। पर
सन्निपात में
दिखाई पड़ती हो
कि उड़ रही है, तो उसके
अनुभव को
खंडित करना
मुश्किल है।
अर्जुन
को दिखाई पड़
रहा है जो, उसे
खंडित करना
मुश्किल है। इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, तू
मुझ पर छोड़ दे।
मैं इनसे
निपटे लेता
हूं। तू पाप
कर बेफिक्री
से। बस, एक
बात मेरी सुन
ले कि अहंकार
को छोड़ दे।
अहंकार
छोड़ते ही कोई
पाप कर ही
नहीं सकता। सब
पाप अहंकार से
पैदा होते हैं।
अहंकार छूटा, पाप की जड़
कट गयी। फिर
कोई पाप के
वृक्ष में न
फल लगते हैं, न पत्ते
लगते हैं, न
फूल लगते हैं।
और अलग—अलग
पत्तों को
तोड्ने जो गए, वे नाहक
भटके हैं।
क्योंकि जड़
बनी रहती है, नए पत्ते
निकल आते हैं।
एक तोड़ो, दस
निकल आते हैं।
वृक्ष समझता
है, तुम
कलम कर रहे हो।
वृक्ष और घना
होता जाता है।
कृत्यों
को, एक—एक
कृत्य को
काटने जाओगे—बुरे
को काटू अच्छे
को करूं—तुम
भटकते ही
रहोगे। जड़ को
ही काट दो।
जिसने जड़ को
काटा, उसने
अचानक पाया, पूरा वृक्ष
ही गिर गया।
अहंकार जड़ है,
समर्पण उस
जड़ को काट
देना है।
आज
इतना ही।
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