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बुधवार, 15 जुलाई 2015

ज्‍यों की त्‍यों धरि दीन्‍हीं चदरिया–(पंच महाव्रत) प्रवचन--04

अकाम—(प्रवचन—चौथा)
4 सितंबर 1970,

षणमुखानंद हाल, मुम्‍बई
मेरे प्रिय आत्मन्,
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य, तीन महाव्रतों पर हमने विचार किया है। आज चौथा व्रत है, अकाम। काम मनुष्य की सर्वाधिक महत्वपूर्ण ऊर्जा का नाम है। जिन तीन व्रतों की हमने बात की उन सबके आधार में काम की शक्ति ही काम करती है। यदि काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। यदि काम स्वयं की हीनता से विफल हो जाये तो चोरी बन जाता है। यदि काम दूसरे के कारण से विफल हो जाये तो हिंसा बन जाता है। काम के मार्ग पर, कामना के मार्ग पर, इच्छा के मार्ग पर, अगर कोई बाधा बनता हो तो काम हिंसक हो उठता है। अगर कोई बाधा न हो, भीतर की ही क्षमता बाधा बनती हो तो काम चोर हो जाता है। और अगर कोई बाधा न हो, भीतर की कोई अक्षमता न हो और काम सफल हो जाये तो परिग्रह बन जाता है। इस काम को गहरे से समझना जरूरी है।

मनुष्य एक ऊर्जा है, एक एनर्जी है। इस जगत में ऊर्जा, एनर्जी के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। समस्त जीवन एक ऊर्जा है। वे दिन लद गये कि जब कुछ लोग कहते थे, पदार्थ है। वे दिन समाप्त हो गये।
नीत्से ने इस सदी के प्रारंभ होते समय में कहा था कि "ईश्वर मर गया है।' लेकिन यह सदी अभी पूरी नहीं हो पाई, ईश्वर तो नहीं मरा, पदार्थ मर गया है। मैटर इज डेड। "मर गया है' कहना भी ठीक नहीं है। पदार्थ कभी था ही नहीं। वह हमारा भ्रम था, दिखाई पड़ता था। वैज्ञानिक कहते हैं कि पदार्थ सिर्फ सघन हो गई ऊर्जा है, कंडेंस्ड एनर्जी। पदार्थ जैसी कोई चीज ही जगत में नहीं है। वह जो पत्थर है इतना कठोर, इतना स्पष्ट, इतना सब्सटेंसियल वह भी नहीं है। वह भी विद्युत की धाराओं का सघन हो गया रूप है।
आज सारा जगत, विज्ञान की दृष्टि में ऊर्जा का समूह है, एनर्जी है। धर्म की दृष्टि में सदा से ही यही था। धर्म उस शक्ति को परमात्मा का नाम देता था। विज्ञान उस शक्ति को अभी एनर्जी, शक्ति मात्र ही कह रहा है। थोड़ा विज्ञान और आगे बढ़ेगा तो उससे एक और भूल टूट जाएगी। आज से पचास साल पहले विज्ञान कहता था, पदार्थ ही सत्य है। आज विज्ञान कहता है, शक्ति ही सत्य है। कल विज्ञान को कहना पड़ेगा कि चेतना ही सत्य है, कांशसनेस ही सत्य है। जैसे विज्ञान को पता चला कि ऊर्जा का सघन रूप पदार्थ है, वैसे ही विज्ञान को आज नहीं कल पता चलेगा कि चेतना का सघन रूप एनर्जी है।
यह जो ऊर्जा है जीवन की, प्रत्येक व्यक्ति भी इसी ऊर्जा का स्फुलिंग है, इसी ऊर्जा का एक छोटा-सा रूप है। आप भी, मैं भी, सब। यह ऊर्जा, यह शक्ति अगर बाहर की तरफ बहे तो काम बन जाती है, वासना बन जाती है। और अगर भीतर की तरफ बहे तो अकाम बन जाती है, आत्मा बन जाती है। जो भेद है वह सिर्फ दिशा का है। काम जब लौट पड़ता है वापस, अपनी तरफ, रिटघनग होम, वापस घर की तरफ जब कामना लौट पड़ती है, तो अकाम बनता है, आत्मा बनती है। और जब काम ऊर्जा बाहर की तरफ बहती रहती है जीवन से, तो धीरे-धीरे आदमी क्षीण, निर्बल, निस्तेज होता चला जाता है। और वह उसकी कामना से दुनिया में बहुत-सी चीजें पा लेता है, लेकिन एक अपने को भर पाने से वंचित रह जाता है। जिसे हमें पाना है, शक्ति उसी की तरफ जानी चाहिए। अगर हमें बाहर की वस्तुएं पानी हैं तो शक्ति को बाहर जाना पड़ेगा, और अगर हमें भीतर की आत्मा पानी हो तो शक्ति को भीतर जाना पड़ेगा।
ध्यान रहे, काम से मेरा मतलब है, बाहर बहती हुई ऊर्जा। अकाम से मतलब है, भीतर बहती हुई ऊर्जा। शक्ति के दो ढंग हैं--बाहर की तरफ बहे या भीतर की तरफ बहे। जब बाहर की तरह बहती है तो व्यक्ति और सब पा सकता है, सिर्फ स्वयं को खो देता है। और सब पा लेने का भी कोई सार नहीं, अगर स्वयं खो जाये। सारा जगत भी हम पा लें तो भी कोई सार नहीं, अगर उस पाने में मैं ही खो जाऊं। अगर ऊर्जा भीतर की तरफ बहती है तो अकाम बन जाती है।
काम का अर्थ ही है कामना, डिजायर, इच्छा। जब भी हम कोई कामना करते हैं तो हमें बाहर की तरफ बहना पड़ता है, क्योंकि इच्छा कहीं बाहर तृप्ति की आशा बन जाती है। कुछ पाने को है बाहर, तो हमें बाहर की तरफ बहना पड़ता है। हम सब बाहर बहते हुए लोग हैं। हम सब कामनाएं हैं; वी आर डिजायर। चौबीस घंटे हम बाहर की तरफ बह रहे हैं, किसी को धन पाना है, किसी को यश पाना है, किसी को प्रेम पाना है। और बड़ा आश्चर्य तो यह है कि अगर किसी को परमात्मा भी पाना है तो भी वह बाहर की तरफ बहता चला जाता है। वह सोचता है कि कहीं आकाश में परमात्मा बैठा है। किसी को मोक्ष पाना है तो वह भी सोचता है कहीं ऊपर मोक्ष है वह पाना है।
धर्म का बाहर से कोई भी संबंध नहीं है। इसलिए जिनके ईश्वर बाहर हों वह ठीक से समझ लें कि उनका धर्म से कोई नाता नहीं है। जिनका मोक्ष बाहर हो वह ठीक से समझ लें, वह धार्मिक नहीं हैं। जिनके पाने की कोई भी चीज बाहर हो वह समझ लें कि वह कामी हैं। सिर्फ एक ही स्थिति में काम से मुक्ति होती है और वह यह कि हम भीतर बहना शुरू हो जायें। बाहर कोई भी ऑबजेक्ट, बाहर कोई भी पाने की चीज, हमारी ऊर्जा को बाहर की तरफ ले जाती है। और हम धीरे-धीरे खाली होते हैं, समाप्त हो जाते हैं। फिर दूसरा जन्म, फिर एक ऊर्जा लेकर पैदा होते हैं, फिर बाहर की तरफ बहते हैं, फिर समाप्त हो जाते हैं। फिर तीसरा जन्म, फिर ऊर्जा लेकर पैदा होते हैं, फिर बाहर की तरफ बहते हैं और समाप्त हो जाते हैं।
जन्म के साथ हम शक्ति लेकर आते हैं। मृत्यु के साथ हम शक्ति खोकर वापिस लौट जाते हैं। जो व्यक्ति मृत्यु के साथ भी शक्ति लेकर वापिस लौटता है उसे फिर आने की जरूरत नहीं रह जाती है। जन्म के साथ सभी शक्ति लेकर आते हैं। मृत्यु के साथ अधिकतम शक्ति खोकर, निस्तेज, खाली कारतूस, चले हुए कारतूस, जिसकी खोल रह गयी है गोली तो जा चुकी है, उस खोल को लेकर वापिस लौट जाते हैं। जो व्यक्ति मरते क्षण में भी अपनी पूरी ऊर्जा को बचा कर ले जाता है उसे लौटने की जरूरत नहीं पड़ती। जो कबीर की भांति मरते क्षण में कह सकता है कि "ज्यों की त्यों धरि दीन्हीं चदरिया'। कुछ खर्च नहीं किया, कुछ खोया नहीं, दौड़े नहीं। चादर संभालो, जैसी दी थी वैसी ही वापिस लौटा देते हैं। जो मृत्यु के क्षण में बिना कुछ खोये वैसा ही वापस लौट जाता है जैसा जन्म के क्षण में आया था, उसे वापिस जन्म लेने की जरूरत नहीं रह जाती। अकाम, जन्म-मृत्यु से मुक्ति है। काम, बार-बार जन्म में लौट आना है। कारण है...।
कोई कामना कभी ठीक अर्थों में पूरी नहीं होती, हो नहीं सकती। और जो बाहर की तरफ दौड़ने का आदी हो गया है, जब भी कोई कामना पूरी होने के करीब होती है तब तक वह नयी कामना बना लेता है। क्योंकि फिर बाहर की तरफ दौड़ेगा कैसे? बाहर की तरफ दौड़ना ही जिसकी जिंदगी बन गयी है। वह, एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि दूसरी को जन्मा लेता है। बल्कि एक के पूरे होने के साथ अनेक को जन्मा लेता है, फिर दौड़ना शुरू कर देता है। हम बाहर की तरफ दौड़ती हुई ऊर्जाएं हैं। आऊट गोइंग एनर्जीस। इसलिए हम खाली कारतूसों की तरह मर जाते हैं। इसलिए हमारी मृत्यु एक सौंदर्य नहीं हो पाती और हमारी मृत्यु एक अनुभव नहीं बन पाती। हमारी मृत्यु एक दुख, एक निस्तेज पीड़ा, एक नपुंसकता, एक इंपोटेंस बन जाती है। हम सब भांति टूट कर समाप्त हो जाते हैं। इसलिए मृत्यु में इतनी पीड़ा है। वह पीड़ा मृत्यु की नहीं है। वह पीड़ा निस्तेज खाली हो गये आदमी की है जो सब भांति रिक्त हो गया, जिसमें अब कुछ भी नहीं बचा, सिर्फ खाली खोल रह गया। इसलिए मौत दुख देती है।
लेकिन मौत भी आनंद दे देती है उसे, जो खाली नहीं, भरा हुआ है। हम भरे हुए कैसे रह पायें, इसी सूत्र को समझने के लिए अकाम है। लेकिन अकाम को समझने के पहले काम की समस्त यात्रा समझ लेनी चाहिए। काम किस तरह गति करता है हमारा! हम बाहर की तरफ कैसे बहते हैं, इसे समझ लेना जरूरी है। इसे हम समझ लें तो भीतर की तरफ बहना बड़ी सरल बात है, बड़ी आसान।
हजारों लाखों साल से हमें पता है कि पदार्थ अणुओं से बना है, एटम से बना है, लेकन हम अणु को तोड़ नहीं पाये थे। इस सदी में आकर हमने अणु को तोड़ लिया। अणु को तोड़ते ही बड़ी चमत्कारिक पूर्ण घटना घटी। और वह यह कि एक छोटे से अणु में, हाइड्रोजन के छोटे से अणु में, या किसी भी चीज के छोटे से अणु में, जो आंख से दिखाई नहीं पड़ता, इतनी ऊर्जा छिपी थी कि टूटते ही भयंकर शक्ति का जन्म हुआ। एक छोटे से अणु के विस्फोट से हिरोशिमा में एक लाख लोग तत्काल मृत्यु को उपलब्ध हो गये। एक छोटे से अणु में इतनी ऊर्जा छिपी थी भीतर, कि फूट पड़ा तो इतना विस्फोट हुआ।
विज्ञान ने अणु को तोड़ कर एक बहुत कीमती बात बता दी है, वह यह कि प्रत्येक चीज के भीतर अनंत ऊर्जा छिपी है। अगर टूट जाये तो विस्फोट हो जाता है और सब बाहर बह जाता है। अगर बंद हो जाये...लेकिन हमें तो कभी पता नहीं था कि बंद अणु में इतनी ऊर्जा छिपी है। विज्ञान ने जो काम किया है, धर्म ने उससे ठीक उल्टा काम बहुत पहले कर लिया है। विज्ञान ने तोड़ा है अणु, धर्म ने जोड़ा था। इसीलिए धर्म का नाम है: योग। योग का अर्थ है: जोड़।
मनुष्य की चेतना भी एक अणु है और उस अणु को हम अगर टूटा हुआ रहने दें तो उसमें से सब बह जाता है, अनंत ऊर्जा बह जाती है। अगर वह अणु जुड़ जाये, बंद हो जाये--एनेलीसिस नहीं, विश्लेषण नहीं, टूटे नहीं--सिन्थेथिस हो जाये, संश्लिष्ट हो जाये, इंटीग्रेटेड हो जाये, बंद हो जाये, बिंदु बन जाये, अपने में बिंदु हो जाये, सब तरफ से बाहर खोना बंद हो जाये, तो अनंत ऊर्जा भीतर उपलब्ध हो जाती है। इस अनंत ऊर्जा की अनुभूति अनंत परमात्मा की अनुभूति है। इस अनंत ऊर्जा का अनुभव अनंत आनंद का अनुभव है। इस अनंत ऊर्जा का अनुभव अनंत वीर्य का अनुभव है। इस अनंत ऊर्जा के अनुभव के बाद फिर कुछ अनुभव करने को शेष नहीं रह जाता, सब अनुभव हो जाता है।
लेकिन समझना चाहिए कि आदमी टूटा हुआ अणु है। चेतना का टूटा हुआ अणु है। उसमें छेद है; जैसे कोई छेद वाली बाल्टी से पानी भरता हो। पानी भरा हुआ दिखाई पड़ता है जब बाल्टी पानी में डूबी होती है, और जैसे ही बाल्टी पानी के बाहर निकली कि खाली होनी शुरू हो जाती है। छेद हैं चारों तरफ, ऊपर तक आते-आते सिर्फ पानी के गिरने का शोरगुल भर होता है, पानी आता नहीं, खाली बाल्टी वापस लौट आती है।
जन्म के क्षण में हम सब ऊर्जा से भरे हुए होते हैं। जब तक जन्म नहीं हुआ, तब तक हम भरी बाल्टी होते हैं। जन्म के साथ ही बाल्टी ऊपर उठी कुएं से, और गिरना शुरू हुआ। अगर ठीक से समझें तो जन्म के साथ ही हमारा मरना शुरू हो जाता है; हममें से कुछ रिक्त होना, खाली होना शुरू हो जाता है। हम फूटी बाल्टी की तरह खाली होने लगते हैं। जन्म का पहला क्षण मरने की शुरुआत है। खाली होना शुरू हो गया।
इसीलिए जन्म के पहले क्षण के बाद ही प्रत्येक व्यक्ति मरने के योग्य हो जाता है--कभी भी मर सकता है। अब यह बात दूसरी है कि योग्यता वह कब पूरी करेगा। फिर जीवन भर हम खाली, खाली, खाली होते चले जाते हैं। थोड़ा-बहुत जो जिंदगी में हमें भरेपन का अनुभव होता है वह शायद सुबह हम जब रात के बाद उठते हैं तो थोड़ी देर को लगता है, कुछ भरे हैं। रात भर में ऊर्जा थोड़ी-सी संकलित हो पाती है, क्योंकि इंद्रियों के द्वार बंद हो जाते हैं। आंखें बंद हो जाती हैं, हाथ शिथिल पड़ जाते हैं, कान सुनते नहीं, होठ बोलते नहीं, नाक सूंघती नहीं, सब बंद हो जाता है। द्वार बंद हो जाते हैं। इसलिए सुबह एक ताजगी मालूम पड़ती है। वह ताजगी, वह ताजगी रात को थोड़ी-सी ऊर्जा के ठहर जाने के कारण पता चल रही है।
अगर कोई व्यक्ति अपने पूरे जीवन की ऊर्जा को ठहरा ले तो वह जिस ताजगी का अनुभव करता है उसका हमें कोई भी पता नहीं है। उसका हमें कोई पता नहीं हो सकता। अगर हम अपनी जीवन भर की सब सुबह की ताजगी को इकट्ठा जोड़ लें तो भी उससे कुछ पता नहीं चल सकता। अगर एक व्यक्ति की नींद खो जाये तो फिर जीना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि वह रात जो थोड़ी ऊर्जा इकट्ठी करता है वह भी बंद हो गयी। पंद्रह दिन नींद खो जाये तो आदमी पागल हो जाए। पंद्रह दिन भोजन न मिले तो चल सकता है। पंद्रह दिन नींद न मिले तो कठिनाई होगी।
अगर कोई बीमार है और सो न सके तो चिकित्सक पहले फिक्र करता है कि बीमारी को पीछे देख लेंगे, पहले नींद आ जाए। क्योंकि जिस ऊर्जा से बीमारी को ठीक होना है, वह संकलित होनी चाहिए, संग्रहीत होनी चाहिए, इकट्ठी होनी चाहिए। हम सिर्फ ऊर्जा खो रहे हैं। और काम, ऊर्जा को खोने की विधि है। काम के बहुत रूप हैं, उसमें सर्वाधिक सघन रूप यौन है। इसलिए धीरे-धीरे काम और यौन, काम और सेक्स पर्यायवाची बन गये। भोजन से ऊर्जा मिलती है, नींद से ऊर्जा बचती है, व्यायाम से ऊर्जा जगती है, फिर इस ऊर्जा को हम खर्च करते हैं। इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो सिर्फ जीवन-व्यवस्था में व्यय हो जाता है।
इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो ऊर्जा को कल भी हम पैदा कर सकें, इसमें खर्च हो जाता है। इस ऊर्जा का बहुत-सा खर्च तो ऊर्जा भीतर जाकर पैदा हो सके...जब आप भोजन लेते हैं भीतर तो बहुत बड़ा चमत्कार घटित होता है। आप साधारण मृत पदार्थ को भीतर ले जाते हैं और आपकी जीवन-ऊर्जा उसे जीवंत बनाती है। नान-आरगेनिक को आरगेनिक बनाती है। उसमें बहुत ऊर्जा व्यय होती है। भोजन ऊर्जा देता है, लेकिन भोजन को करने और भोजन को खून बनाने में ऊर्जा व्यय होती है। चलते हैं तो ऊर्जा व्यय होती है, बैठते हैं तो ऊर्जा व्यय होती है, सोते हैं तो सोने में भी ऊर्जा व्यय होती है, संग्रहीत भी होती है।
इस सारी प्रक्रिया, जीवन की सारी प्रक्रिया के बाद जो थोड़ी-बहुत ऊर्जा आपके पास बचती है, उसका आपने सिवाय काम को यौन में परिवर्तन करने के और कोई उपयोग नहीं किया है। उस ऊर्जा का आप सिर्फ सेक्स में उपयोग करते हैं। इसलिए यह समझ लेने जैसा है कि सब कुछ करके जो बचता है हमारे पास, उसका हम क्या उपयोग कर रहे हैं। उसका उपयोग अगर सिर्फ सेक्स में हो रहा है तो ध्यान रहे, यह सेक्स सिर्फ रिलीफ है। यह यौन सिर्फ ऊर्जा के भार से मुक्ति है।
अब बड़े मजे की बात है। ऊर्जा इकट्ठी करने में चौबीस घंटे खर्च करते हैं, उसे बचाने के लिए आठ घंटे सोते हैं। खाना कमाने के लिए जिंदगी भर मेहनत करते हैं। और फिर जब ऊर्जा आपके पास आती है तो आप उस ऊर्जा के भार से भारी हो जाते हैं। उसे फेंकने के लिए कोशिश करते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति दिन भर धन कमाये और सांझ जाकर नदी में फेंक आये, क्योंकि दिन भर धन कमाने के लिए पागल रहे, सांझ पाया कि धन ने थैली को बोझिल कर दिया है। और अब बोझ बुरा मालूम पड़ता है तो बोझ से खाली हो लें और नदी में फेंक आये।
हम ऊर्जा इकट्ठी करते हैं पहले, ऊर्जा न हो तो उसका श्रम करते हैं, और जब ऊर्जा पास में आ जाये तो ऊर्जा बोझिल हो जाती है, बर्डनसम हो जाती है, चित्त पर भारी हो जाती है, फिर उसको फेंकना पड़ता है। सेक्स, ऊर्जा को फेंकने के लिए हम उपयोग में लाते हैं। वह सिर्फ रिलीफ है। उससे हम फिर खाली हो जाते हैं।
अब बड़ी एब्सर्ड जिंदगी है आदमी की। कल सुबह उठ कर वह फिर ऊर्जा इकट्ठी करने में लगेगा, कल सांझ तक वह फिर ऊर्जा इकट्ठी करेगा और जब उसके पास ऊर्जा इकट्ठी हो जायेगी तो उसे फेंक कर फिर रिलीफ पायेगा। अजीब पागलपन है! इकट्ठा करना, फेंकना, इकट्ठा करना, फेंकना। अर्थ क्या होगा इस जिंदगी का? प्रयोजन क्या होगा इस जिंदगी में? पायेंगे क्या इस जिंदगी में?
लेकिन यह हमें दिखाई नहीं पड़ता। अगर खाना न मिले तो हम परेशान हैं, खाना मिल जाये तो हम परेशान हैं। अगर शक्ति पास में न हो तो हम दुर्बल हैं, शक्ति पास में हो जाये तो दुर्बल होने को हम फिर आतुर हैं। आदमी एक एब्सडर्डिटी है। जैसा आदमी है, वह बिलकुल ही तर्कहीनता है। जैसा आदमी है, उससे तो जैसे बुद्धि का कोई संबंध नहीं है। जैसे कि कोई झरना सिर्फ इसलिए सरोवर बन रहा है कि जब बन जाये तो दीवाल टूटे और बह जाये। और दीवालें जब टूट जायें तो फिर दीवालें बनायी जायें, फिर झरना भरा जाये और फिर तोड़ा जाये, जिंदगी भर हम इकट्ठा करते और खोते हैं।
यह जिंदगी नहीं हो सकती, कहीं भूल हो रही है। ऊर्जा को इकट्ठा करना तो ठीक है, लेकिन खोने के लिए ही इकट्ठा करना बहुत बेमानी है, बहुत मीनिंगलेस है। अगर कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए जन्म लेता हूं कि मर जाऊं, हम कहेंगे कि पागल हो। अगर कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए इकट्ठा करता हूं कि खो दूं, तो हम कहेंगे कि तुम पागल हो। कोई आदमी कहे कि मैं इसलिए मकान बनाता हूं कि गिरा दूं, हम कहेंगे तुम्हारा दिमाग ठीक नहीं। लेकिन हम सब की खुद की क्या हालत है? जिंदगी में हम करते क्या हैं? क्या कर रहे हैं! हम जो भी इकट्ठा करते हैं, खोने के लिए इकट्ठा करते हैं।
लेकिन शायद हमने कभी इस तरह सोचा नहीं। हम जो भी इकट्ठा करते हैं वह खोने के लिए इकट्ठा करते हैं! इसलिए साधु-संन्यासी हमसे उल्टा काम शुरू करते हैं। वे इकट्ठा करना कम कर देते हैं जिसमें कि खोने के लिए मौका न रह जाये। लेकिन उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है।
एक आदमी दो पैसे कमाता है सांझ नदी में फेंक आता है। दूसरा आदमी इस डर से कि सांझ नदी में फेंकने से बच सकूं कमाता ही नहीं। लेकिन सांझ को दोनों एक से दरिद्र होते हैं। फेंकने वाले के पास भी दो पैसे नहीं होते। जिसने कमाया नहीं उसके पास भी दो पैसे नहीं होते। ये दोनों दीन होते हैं।
आप जिस-तिस ढंग से ऊर्जा कमाते हैं और काम में व्यय कर देते हैं, यौन में व्यय कर देते हैं। संन्यासी डर के ऊर्जा कमाना बंद कर देता है, उपवास करता है, खाना कम खाता है। अपने शरीर में इतनी ही शक्ति पैदा करता है जितना रोजमर्रा के काम में आ जाये, अतिरिक्त न बचे। अतिरिक्त बचे तो वह मुश्किल में पड़ जायेगा। क्योंकि फिर आपका ही काम उसे करना पड़ेगा। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, आप कमा कर खो देते हैं, वह कमाता ही नहीं ताकि खोना न पड़े। लेकिन इससे कोई ऊर्जा बचती नहीं।
अभी अमेरिका की एक विज्ञानशाला में वे एक प्रयोग कर रहे थे। वह हिंदुस्तान भर के संन्यासियों को ठीक से समझ लेना चाहिए। तीस विद्यार्थियों को एक महीने तक भूखा रखा गया और यह समझने की कोशिश की गयी कि भूख और सेक्स का क्या संबंध है? भूख से यौन का क्या संबंध है?
बड़े अदभुत परिणाम हुए। पहले सात दिनों में जब उन्हें भूखा रखा गया तो उनकी यौन-प्रवृत्ति तीव्र हो गयी, उनकी सेक्सुअलिटी बढ़ गयी। लेकिन सात दिन के बाद फिर उनकी यौन-प्रवृत्ति कम होती चली गयी। पंद्रहवें दिन उनके सामने नग्न चित्र भी रखे गये स्त्रियों के, तो वे उत्सुक न रहे। किसी भी तरह उन्हें भड़काया जाये, वे कोई रस न लें। तीस दिन पूरे होतेऱ्होते उन तीसों युवकों में किसी तरह की काम-वासना न रह गयी, किसी तरह का यौन न रहा। वे बिलकुल ठंडे, कोल्ड हो गये, फ्रोजन, जम गये, बिलकुल। उनको हिलाने का कोई उपाय न रहा, सेक्स जैसे विदा हो गया।
फिर उनको भोजन दिया गया। सात दिन में फिर वापस लौटना शुरू हो गया। पंद्रह दिन के बाद वे फिर अपनी जगह वापस लौट गये जहां थे। तीस दिन के बाद वे फिर सामान्य व्यक्ति थे। वही रस, वही यौन, वही वासना फिर उनको पकड़ ली।
हुआ क्या? यौन नष्ट नहीं हुआ, सिर्फ यौन को जो अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए वह नहीं मिली। सांप तो जिंदा रहा, लेकिन चलने की ताकत न रही। सांप पड़ गया बेहोश। पड़ा रहा, प्रतीक्षा करता रहा कि जब शक्ति मिले तो चलूं। फिर शक्ति मिली, फिर सांप हिलने-डोलने लगा, फिर सांप खड़ा हो गया।
इन तीस दिनों के प्रयोग ने यह बताया कि संन्यासी अपने को लंबे अरसे से धोखा दे रहे हैं। हां, अगर इन बच्चों को निरंतर ही कम भोजन पर रखा जा सके, इतना ही भोजन दिया जाये जितना उनके चलने, उठने, बैठने, बात करने में खतम हो जाये शक्ति, तो अब यह बिना सेक्स के जिंदा रह सकेंगे। लेकिन यह अकाम नहीं है, यह सिर्फ मुर्दा काम है, यह मरा हुआ सेक्स है। यह मुर्दा काम है, यह मुर्दा यौन है, यह अकाम नहीं है।
इसलिए जिन लोगों को यह समझ में आ गया कि शक्ति इकट्ठी होती है, फिर उससे मुक्त होने के लिए, रिलीफ के लिए हमें यौन में जाना पड़ता है, उन लोगों ने शक्ति इकट्ठी करनी बंद कर दी। वे भी उसी भ्रांति में हैं, जिस भ्रांति में बाकी लोग हैं।
गृहस्थ और संन्यासी भ्रांतियों के उल्टे छोर हैं। अकाम का यह अर्थ नहीं है। अकाम का अर्थ है, शक्ति तो पैदा हो, लेकिन यौन से विसर्जित न हो, संग्रहीत हो। और जब शक्ति बहुत बड़े पैमाने पर संग्रहित होती है और यौन से विसर्जित नहीं होती, तो वह शक्ति आपके भीतर ऊर्ध्वगमन शुरू करती है। जैसे कि हम एक नदी की बाढ़ को रोक दें, बांध बना दें, तो नदी की जो गहराई थी--समझ लें दस फीट थी, बांध बनाने पर बांध की गहराई सौ फीट हो जायेगी। और नदी जितनी रुकने लगेगी, उतनी ही दीवार बड़ी करनी पड़ेगी और बांध गहरा होता जायेगा और बांध हजार फीट गहरा भी हो सकता है। ऊपर उठने लगेगा। जब भी कोई शक्ति रोकी जाती है, तो ऊपर उठती है, क्योंकि संग्रहीत होती है। जब आपके भीतर शक्ति अतिरिक्त इकट्ठी होने लगती है तो आपके भीतर शक्ति का अंबार लगता है और ऊपर की तरफ उठनी शुरू हो जाती है।
अभी आपकी सेक्स लेवल से ऊपर शक्ति कभी नहीं उठती। बस आपकी जिंदगी का जो सेक्स का तल है, यौन का जो तल है, शक्ति वहां तक जरा-सी भी ऊपर उठी कि आपने उसका व्यय किया, फिर आप अपनी जगह लौट आये। अगर यह शक्ति इकट्ठी हो, तो सेक्स लेवल से ऊपर उठती है। और ध्यान रहे सेक्स मनुष्य का निम्नतम सेंटर है। नीचे से नीचे का द्वार है। उसके ऊपर और बड़े द्वार हैं। अगर यह शक्ति ऊपर उठे तो यह दूसरे द्वार खोलने शुरू करती है।
समझ लें, कि मनुष्य के भीतर सेक्स जैसे छह द्वार और हैं और ऊर्जा एक-एक द्वार पर आती है तो आनंद की गति बढ़ती है और आप हैरान होते हैं। जब सेक्स से ऊपर उठकर दूसरे चक्र पर शक्ति आती है तो आप हैरान होते हैं कि मैं कैसा पागल था, मैं शक्ति को कहां खो रहा था? यहां खोऊं तो बहुत आनंद आता है। उससे बहुत ज्यादा आता है जो पहले केंद्र पर आ रहा था।
जैसे कोई आदमी खदान खोद रहा है। उसे कंकड़-पत्थर मिल जाते हैं। वह उन्हीं रंगीन कंकड़-पत्थरों को लेकर घर आ जाता है। फिर उसे कोई कहता है, पागल, यह तो रंगीन कंकड़-पत्थर हैं; थोड़ा और खोद। वह थोड़ा और खोदता है और उसे तांबा मिल जाता है, वह घर लौट आता है। बाजार में उसे कुछ पैसे उस तांबे के मिल जाते हैं। लेकिन कोई उसे कहता है, पागल तू जरा थोड़ा और खोद। और वह खोदता चला जाता है और चांदी मिलती है, सोना मिलता है और हीरे-जवाहरात मिलते हैं और वह खोदता चला जाता है।
हम व्यक्तित्व की पहली पर्त पर जी रहे हैं--सेक्स की पर्त पर--जहां कि कंकड़- पत्थर से ज्यादा कुछ नहीं मिल सकता। अगर वहां से ऊर्जा इकट्ठी हो और थोड़ी आगे बढ़े, तो दूसरा चक्र खुलना शुरू होता है, जहां कि सुख के तल बदल जाते हैं। और ध्यान रहे, सेक्स के तल पर दूसरे का होना जरूरी है हमारे सुख के लिए। दूसरे चक्र पर दूसरे का होना जरूरी नहीं है, हम अकेले काफी हो जाते हैं। और व्यक्ति मुक्त होने लगता है। सातवें चक्र पर जब ऊर्जा पहुंचती है--आपके मस्तिष्क तक जब ऊर्जा पहुंच जाती है, जब आपकी शक्ति इतनी भर जाती है कि सेक्स सेंटर और सहस्रार के बीच दोनों में शक्ति प्रवाहित होने लगती है, तो कोई उसे कुंडलिनी कहे, कोई उसे कोई और नाम दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता--जिस दिन आपकी ऊर्जा इतनी इकट्ठी है कि आपके मस्तिष्क के चक्रों को भी चलाने लगती है, उस दिन आप पहली बार आत्मज्ञान को उपलब्ध होते हैं, ब्रह्म को उपलब्ध होते हैं। उस दिन आप जानते हैं, कि कहां पहुंच गया।
लेकिन हम पहले ही चक्र पर खो जाते हैं। जिंदगी को वह हमारा छिद्र सब कुछ विदा करवा देता है। लेकिन इसका क्या मतलब है? क्या मैं यह कह रहा हूं कि आप सेक्स को दबायें, रोकें? अगर आपने दबाया और रोका तो आप कभी भी न रोक पायेंगे, क्योंकि शक्ति का एक नियम है कि दबाई गयी शक्ति विद्रोही हो जाती है। और जिस शक्ति को जितने जोर से दबाया जाता है, वह उतनी ही जोर से रिपेल करती है और रिएक्ट करती है। किसी शक्ति को भी दबाया नहीं जा सकता। शक्ति को सिर्फ मार्ग दिये जा सकते हैं। ये दो ढंग हैं। शक्ति को नया मार्ग दें तो शक्ति उससे प्रवाहित होने लगती है या शक्ति का पुराना मार्ग रोकें तो शक्ति उसी मार्ग पर जोर से चोट करने लगती है।
तो जो भी लोग सेक्स से लड़ेंगे वे जिंदगी भर के लिए कामुक रह जायेंगे। वे कभी भी काम से बाहर नहीं जा सकते। सेक्स से लड़कर कभी कोई व्यक्ति ऊपर के चक्रों तक नहीं पहुंचा है, जीवन की ऊंचाइयां नहीं छुई हैं। हां, जीवन के ऊपर के चक्रों को गतिमान करके कोई व्यक्ति जरूर सेक्स से मुक्त हो गया है।
ब्रह्मचर्य सेक्स से लड़ाई नहीं है। ब्रह्मचर्य सेक्स से ऊंचे केंद्रों का सक्रिय हो जाना है। इसलिए नेगेटिव मत पकड़ लेना। जैसा कि हजारों साल से इस मुल्क में हम पकड़े हुए हैं। हजारों साल से यह हमारी समझ में आ गया था बहुत पहले, कि यह ऊर्जा अगर रुक जाये तो बड़े आनंद के द्वार खोल देती है। लेकिन यह ऊर्जा रुके कैसे? तो हम रोक लें इसे जबर्दस्ती से। जितना आप रोकेंगे उतनी यह ऊर्जा धक्का देगी और जिस जगह आप रोकेंगे, वहां ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। और जिस चक्र पर ध्यान होगा वह चक्र सक्रिय रहता है। इसलिए जो लोग ऊर्जा को रोकते हैं काम के बिंदु पर, यौन के बिंदु पर, वे यौन के प्रति अति सक्रिय हो जाते हैं। सच तो यह है कि उनका पूरा व्यक्तित्व जननेंद्रिय बन जाता है। वे उसके बाहर नहीं रह जाते। उनका सारा बोध वहीं अटक जाता है। उनकी चेतना वहीं उलझ जाती है। और वह उलझी हुई चेतना जितनी चोट करती है, उतना ही वह केंद्र सक्रिय होता है। और वह केंद्र जब सक्रिय जोर से होता है तो उनके पास एक ही उपाय बचता है, कि भोजन कम कर दें, व्यायाम कम कर दें और मुर्दे की तरह जीने लगें, ताकि ऊर्जा पैदा न हो।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे तो साधारण गृहस्थ अच्छा है। कम से कम ऊर्जा पैदा तो करता है। ऊर्जा पैदा हो तो किसी दिन ऊपर की यात्रा भी हो सकती है। संन्यासी इससे बुरी हालत में है। वह ऊर्जा पैदा ही नहीं करता। हालांकि उसकी ऊर्जा बाहर नहीं जाती, लेकिन उसके पास ऊर्जा होती भी नहीं कि ऊपर जा सके। ऊर्जा चाहिए ही। जो बाहर जाती है, वह भीतर भी जा सकती है। लेकिन जो बाहर जाने योग्य भी नहीं रही, वह भीतर जाने योग्य कभी नहीं रह जाती। जो बाहर की ही यात्रा करने में असमर्थ हो गया है, वह भीतर की यात्रा कभी न कर सकेगा।
इसलिए एक बात तो पहले यह ध्यान में रख लेना कि हमारे पास अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए ही। तो ऊर्जा को पैदा करने का तो पूरा इंतजाम होना चाहिए, लेकिन ऊर्जा को नयी दिशाएं देने का भी इंतजाम होना चाहिए। वह दोत्तीन सूत्र मैं आप से कहूं कि इस ऊर्जा को नयी दिशायें कैसे मिलती हैं!
एक, सिर्फ हम वर्तमान में जी सकें, तो ऊर्जा इकट्ठी होती है और ऊपर की तरफ चलना शुरू हो जाती है। एक पहला सूत्र--लिविंग इन द प्रेजेंट। जो आदमी भी बहुत कल की सोचता है और परसों की सोचता है और आगे का सोचता है और भविष्य में जीने की कोशिश करता है, उसकी ऊर्जा बह जाती है। क्योंकि भविष्य है दूर; और भविष्य से हमारा जो संबंध है वह कामना का ही हो सकता है और कोई संबंध नहीं हो सकता। भविष्य है नहीं, भविष्य होगा। और होगा से हमारा संबंध सिर्फ वासना का हो सकता है, इच्छा का, डिजायर का हो सकता है और कोई संबंध नहीं हो सकता।
जीसस एक गांव के पास से गुजर रहे हैं। और वह अपने शिष्यों को कहते हैं, देखते हो यह लिली के खिले हुए फूल! उन शिष्यों ने कहा, देखते हैं। जीसस ने कहा कि देखो इनका सौंदर्य, देखो इनका खिलना, देखो इनका आनंद और जीसस ने कहा कि सोलोमन-- सम्राट सोलोमन जो अपने वैभव के पूर्ण शिखर पर था और जिसके पास सारी पृथ्वी की संपत्ति थी--वह अपने वैभव के पूर्ण शिखर पर भी इतना सुंदर नहीं था, जितने कि यह लिली के जंगली फूल सुंदर हैं। किसी ने पूछा, लेकिन ऐसा क्यों है? तो जीसस ने कहा, सोलोमन हमेशा भविष्य में जी रहा था, यह फूल अभी जी रहे हैं, इनकी ऊर्जा को कामना बनने का मौका नहीं है, इनकी ऊर्जा जीवन बन रही है।
ध्यान रहे, जब भी हम ऊर्जा को कामना बनाते हैं तो भविष्य के कारण बनाते हैं। कामना अर्थात फ्यूचर ओरिएंटेशन। वासना का मतलब है भविष्य में जीने की इच्छा। और जीवन है सदा अभी और यहीं। जिस व्यक्ति ने भविष्य में जीने की इच्छा को अपने जीवन में प्रबल किया, वह बाहर की तरफ बहता रहेगा और उसकी ऊर्जा खोती रहेगी। भविष्य हमारी ऊर्जा को बुरी तरह पी जाता है, एब्जार्ब कर लेता है। वर्तमान में ऊर्जा संग्रहीत होती है। इसलिए जिस व्यक्ति को अपनी ऊर्जा को, अपनी शक्ति को अकाम तक पहुंचाना हो, ब्रह्मचर्य तक पहुंचाना हो, जिसे अपनी ऊर्जा को सत्य और ब्रह्म तक ले जाना हो, जिसे अपनी ऊर्जा को स्वयं तक पहुंचाना हो, उसे भविष्य की इच्छाएं, भविष्य की कामनाएं, भविष्य को धीरे-धीरे क्षीण कर देना चाहिए। उसे जीना चाहिए अभी और यहीं, हियर एंड नाउ। जब आप खाना खा रहे हैं तो सिर्फ खाना खायें। दफ्तर में मत प्रवेश कर जायें खाना खाते वक्त। और जब दफ्तर में बैठें तो दफ्तर में ही बैठें और दफ्तर में बैठकर खाना न खायें। और जब सिनेमा-गृह में जायें तो सिनेमा-गृह में जायें, उस वक्त मंदिर को बिलकुल वहां प्रवेश न करने दें। और जब मंदिर में जायें तो मंदिर में हों, सिनेमा-गृह मंदिर में न आये।
प्रतिपल जहां आप हैं, वहां पूरे होने की कोशिश करें। कठिन होगी यह बात, लेकिन सरल बन जायेगी। कठिन होगी इसलिए कि हमारी आदतें सदा वहां होने की नहीं हैं, जहां हम हैं। सदा वहां होने की हैं जहां हम नहीं हैं। जहां आप होते हैं वहां आप होते ही नहीं। आपका वह जो मन है काम से भरा हुआ, वह कहीं और होता है। जब आप कलकत्ते में होते हैं तो मन बंबई में होता है। जब आप बंबई में होते हैं तो मन कलकत्ते में होता है। जहां हम हैं उस क्षण में हमारा मन वहां नहीं होता, इसलिए जहां हम नहीं हैं वहां से हमें काम का विस्तार करना पड़ता है और जुड़ना पड़ता है। वह जोड़ हमारी ऊर्जा को खोने का रास्ता है। अगर कोई व्यक्ति अभी और यहीं जीने के लिए धीरे-धीरे, धीरे-धीरे समर्थ हो जाए...और सरल है होना। सरल इसलिए है कि अगर आप प्रयोग करेंगे तो आप बहुत हैरान हो जायेंगे कि खाना इतना आनंदपूर्ण कभी भी नहीं था जितना आनंदपूर्ण उस क्षण हो जाता है जिस क्षण आप खाना खाते वक्त पूरे मौजूद हैं, जिस वक्त आप खाना ही खा रहे हैं।
एक झेन फकीर के पास एक सम्राट मिलने गया था। वह फकीर अपने बगीचे में गङ्ढा खोद रहा था। उस सम्राट ने कहा कि मैं आपसे कुछ ज्ञान सीखने आया हूं। तो उस फकीर ने कहा, बैठो और देखो और सीखो। सम्राट बैठ गया, वह फकीर अपना गङ्ढा खोदता रहा। सम्राट ने कहा, कुछ कहियेगा भी? आप तो गङ्ढा ही खोदे चले जा रहे हैं। उस फकीर ने कहा, गौर से देखो--मैं हूं ही नहीं, बस गङ्ढा खोदना ही है। गङ्ढा खोदना ही हो रहा है। मैं हूं ही नहीं। मैं इतना पूरा लीन हूं इस गङ्ढा खोदने में कि मुझे अलग करने की कोई जरूरत नहीं। मैं गङ्ढा खोद रहा हूं ऐसा कहना गलत है। मैं गङ्ढा खोदने की क्रिया हो गया हूं ऐसा ही कहना ठीक है। तुम भी देखने की क्रिया हो जाओ। कृपा करके उस बात को मत सोचो कि जब मैं बोलूंगा तो क्या बोलूंगा, और जब तुम समझोगे तो क्या समझोगे। तुम कृपा करके यहां सिर्फ देखना हो जाओ। उस सम्राट ने कहा, यह तो बड़ा मुश्किल है, सिर्फ देखना। मुझे लौटना भी है। तो उस फकीर ने कहा, लौट जाओ, लेकिन तब लौटना ही हो जाओ। पर उस सम्राट ने कहा, मुझे आपसे कुछ पूछना भी है। तो उस फकीर ने कहा, फिर पूछ लो, फिर प्रश्न ही बन जाओ।
हम जो भी कर रहे हैं, हम वही नहीं हैं। अगर आप क्रोध करते वक्त पूरा क्रोध बन जायें, तो शायद दोबारा क्रोध कर न सकें। लेकिन क्रोध करते वक्त क्षमा मांग रहे हैं भीतर। क्रोध करते वक्त प्रायश्चित कर रहे हैं भीतर। क्रोध करते वक्त जान रहे हैं कि बड़ा बुरा कर रहा हूं। तब आप क्रोध में भी पूरे नहीं हो पाते। प्रेम में भी पूरे नहीं हो पाते। जिस प्रेमी से मिलने के लिए वर्षों तक प्रतीक्षा की, जब वह मिल जाता है तब हम कुछ और सोचते हैं। जिस प्रेमी से मिलने के लिए वर्षों सोचा था, वह जब मिल जाता है और पास बैठ जाता है तब हम उसे भूल जाते हैं और कुछ और सोचने लगते हैं। जिस धन को खोजने के लिए वर्षों मेहनत की थी, जब वह मिल जाता है, तिजोरी में चाबी लगा कर, बाहर बैठ कर हम कुछ और सोचने लगते हैं। हम पूरे वक्त चूकते चले जाते हैं। हम सदा ही भविष्य में अपनी शक्ति को व्यय करते रहते हैं।
अगर शक्ति को संग्रहीत करना है--और शक्ति के संग्रहीत हुए बिना कोई अंतर्यात्रा संभव नहीं है--तो हमें वर्तमान में जीना सीखना होगा। वर्तमान के साथ बड़ी खूबी है। वर्तमान सरकुलर है, राउंड शेप्ड है। एक नदी है, वह वन-डायमेंशनल है। वह भागी जा रही है, वह पूरे वक्त भागी जा रही है सागर की तरफ। वन-डायमेंशनल है, उसमें एक आयाम है। वह भागी जा रही है। एक सरोवर है, वह भाग नहीं सकता, वह गोल है। वह अपने भीतर ही घूमता रह जाता है। सारी भ्रमणऱ्यात्रा उसकी भीतर है। जिस क्षण आप वर्तमान के क्षण में होते हैं, उस क्षण आप सरोवर की भांति हो जाते हैं। गोल, वर्तुलाकार शक्ति आपके भीतर घूमने लगती है। क्योंकि बाहर जाने के लिए कोई मौका नहीं मिलता, मौका मिलता है भविष्य में। कल क्या करूंगा, इससे तत्काल मौका मिल जाता है। कल क्या होगा, तत्काल मौका मिल जाता है। अभी हूं, यहां हूं...।
आप मुझे यहां सुन रहे हैं। अगर आप मुझे सिर्फ सुन रहे हैं, तो आप जरा-सी भी शक्ति नहीं खोयेंगे। आप एक वर्तुलाकार व्यक्तित्व बन गये। नान-डायमेंशनल। अब आपका कोई आयाम न रहा। अब आप बह नहीं सकते, अगर सिर्फ सुन रहे हैं। अगर सुनने के साथ सोच रहे हैं तो आप थक जायेंगे। आपकी शक्ति क्षीण होगी। अगर मैं सिर्फ बोल रहा हूं तो मैं थकने वाला नहीं हूं, अगर मुझे बोलने के साथ सोचना भी पड़ रहा है, तो मैं थक जाऊंगा। अगर कोई भी क्रिया पूरी हो रही है तो शक्ति नहीं खोती, शक्ति संग्रहीत होती है। कोई भी क्रिया अगर टोटल है तो शक्ति संग्रहीत होती है। प्रेम अगर पूर्ण है तो शक्ति लाता है। क्रोध अगर पूर्ण है तो वह भी शक्ति खोता नहीं। जो भी पूर्ण हो जाता है, वह खोता नहीं। और बड़े मजे की बात है कि अगर क्रोध पूर्ण हो जाये तो आप क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। क्योंकि वह इतना व्यर्थ मालूम पड़ता है। अगर आप प्रेम में पूर्ण हो जायें तो आप प्रेम से भर जाते हैं। क्योंकि वह इतना बहुत सार्थक मालूम पड़ता है।
जिस क्रिया को पूर्णता से किया जा सके उसे मैं पुण्य कहता हूं। और जिस क्रिया को पूर्णता में किया ही न जा सके, उसे मैं पाप कहता हूं। पाप और पुण्य की और कोई कसौटी जगत में नहीं है।
अगर आप क्रोध को पूरी तरह कर सकते हैं और फिर दुबारा भी कर सकते हैं तो फिर क्रोध पाप नहीं है। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ। आप क्रोध को अधूरा करते हैं, इसलिए दुबारा फिर कर पाते हैं। अगर आप क्रोध को एक बार पूरा कर लें, तो आपके चारों तरफ नरक उपस्थित हो जायेगा, जिस नरक को आपने शास्त्रों में पढ़ा है वह आपके आस-पास खड़ा हो जायेगा। और दुबारा आप उस नरक में फिर प्रवेश नहीं चाहेंगे। फिर आप माफी नहीं मांगेंगे किसी से; बस, क्रोध से बाहर हो जायेंगे। आग इतनी जोर से लगेगी कि उससे बाहर होने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं रह जायेगा।
लेकिन हम कुनकुनी आग में जीते हैं, ल्युकवार्म। थोड़ा-थोड़ा करते रहते हैं तो जिंदगी भर चलता रहता है। चुकता भी नहीं और चलता भी रहता है। नरक पूरा बन जाये तो स्वर्ग में जाने में देर नहीं है। लेकिन नरक भी हम इतने धीरे-धीरे बनाते हैं कि वह कभी पूरा नहीं बन पाता, उससे छुटकारा नहीं हो पाता।
इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं अकाम की यात्रा के लिए और काम के ऊर्ध्वगमन के लिए, वह है प्रतिपल जीना। संन्यासी का अर्थ घर छोड़ कर भाग जाना नहीं है। संन्यासी का अर्थ: जो प्रतिपल जी रहा है, जो पल के बाहर नहीं जीता, जो अभी जीता है, यहीं जीता है, कहीं और नहीं जीता। जो भी व्यक्ति ऐसी चित्त-दशा में आ जाये, वह संन्यासी है। संन्यास का अर्थ है: टु बी इन द प्रेजेंट, टु बी इन द लिविंग मूमेंट। वह जो जीवंत-क्षण है उसमें अगर हम हैं तो हमारी शक्ति ऊपर उठनी शुरू हो जायेगी।
यह बड़े मजे की बात है कि अगर यह जीवंत-क्षण हमारे चारों ओर से हमें घेर ले--क्रोध में भी हम पूरे हो सकें तो क्रोध से हम मुक्त हो जायेंगे और अगर यौन में भी, सेक्स में भी पूरे हो सकें तो हम सेक्स से मुक्त हो जायेंगे। क्योंकि जो व्यक्ति संभोग के क्षण में, सेक्स के क्षण में, यौन के क्षण में पूरी तरह मौजूद है, वह दुबारा फिर आकांक्षा नहीं करेगा, बात समाप्त हो गई, बात व्यर्थ हो गयी। वह बात इतनी राख हो गयी कि अब दुबारा मुट्ठी बांधने का कोई अर्थ न रहा। लेकिन हम उस क्षण में भी पूरे वहां नहीं हैं। आदमी आतुर है संभोग के लिए। चौबीस घंटे दौड़ रहा है। पूरी जिंदगी दौड़ रहा है। धन कमा रहा है, मकान बना रहा है, बहुत गहरे में सेक्स की तृप्ति की दौड़ चल रही है। सब हो जाये तो वह उसकी तृप्ति कर सके। और फिर जब सेक्स का क्षण आता है तब वह उसमें पूरा नहीं है। तब वह हजार दूसरी बातें सोचने लगता है कि ब्रह्मचर्य अच्छा है, वह सोचने लगता है कि ब्रह्मचर्य परम जीवन है। जब सेक्स का क्षण आता है तब वह यह सोचता है। और जब ब्रह्मचर्य की कसम लेता है तब सेक्स का विचार करता रहता है। यह आदमी पागल है, इनसेन है। यह पागलपन हमारी जिंदगी की ऊर्जा को कभी भी ऊपर की तरफ जाने नहीं देता।
इसलिए पहला सूत्र आपसे कहता हूं: पल-पल जीना। तो आपके भीतर अकाम शुरू हो जायेगा, काम क्षीण होने लगेगा, क्योंकि काम के लिए भविष्य जरूरी है। कामना के लिए कल जरूरी है। सच तो यह है कि कल अस्तित्व में होता ही नहीं, सिर्फ कामना में होता है। इट इज ए बाय प्रोडक्ट आफ डिजायर। कल तो होता ही नहीं, कल तो कहीं है ही नहीं। कल सिर्फ वासना की उत्पत्ति है। भविष्य कहीं है ही नहीं। जो है वह सदा वर्तमान है। भविष्य सिर्फ कामना की उत्पत्ति है।
हम निरंतर कहते हैं कि समय के तीन हिस्से हैं--भविष्य, वर्तमान, अतीत। गलत कहते हैं। समय का तो सिर्फ एक ही रूप है, वर्तमान। समय के तीन रूप नहीं हैं। समय का एक ही रूप है, वर्तमान। समय तो हमेशा नाउ, अभी है। यह भविष्य और अतीत कहां से पैदा हुए? अतीत हमारी स्मृतियों से पैदा हुआ है और भविष्य हमारी कामनाओं से पैदा हुआ है।
पहला सूत्र काम-मुक्ति का: वर्तमान के क्षण में होने की कोशिश। जंगल जाने को नहीं कहता। जहां आप हैं वहीं पूरी तरह हों। भोजन करें तो पूरी तरह और सोयें तो पूरी तरह, स्नान करें तो पूरी तरह। और बहुत छोटी चीजों से शुरू करें।
दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं: सृजनात्मक हों, बी क्रिएटिव। क्योंकि जो आदमी सृजनात्मक नहीं है, उसकी ऊर्जा निरंतर सेक्स से बहना चाहेगी, क्योंकि वह भारी हो जायेगा। उसके पास शक्ति तो होगी, काम नहीं होगा। और हम बहुत "क्रिएटिव' बिलकुल नहीं हैं। हमारे जीवन में सृजन जैसी कोई चीज नहीं है। हमने कोई चीज ऐसी नहीं बनायी है, जिसे हम कहें सृजनात्मक है। इसका मतलब क्या?
नहीं, आप कहेंगे, हमने बनाया है। हमने कुर्सी बनायी है। हम फर्नीचर बनाते हैं। हम मकान बनाते हैं। हम कपड़े बनाते हैं। हम सृजनात्मक हैं। नहीं, यह सृजन नहीं है।
सृजन और निर्माण का फर्क समझ लें। निर्माण का मतलब है, कोई उपयोगी चीज बनाना, युटीलिटेरियन। कुर्सी पर बैठा जा सकता है, उसका कोई उपयोग है, बाजार में उसका कुछ दाम है, इसलिए कुर्सी का बनाना सृजन नहीं है। प्रोडक्शन, उत्पादन है। लेकिन एक आदमी गीत गाता है, कोई मूल्य नहीं है। एक आदमी एक चित्र बनाता है, कोई मूल्य नहीं है। एक आदमी नाचता है, कोई हेतु, परपजिवनेस नहीं है। सृजन वहां से शुरू होता है जहां यूटीलिटी, उपयोगिता खतम होती है। जहां तक उपयोगिता है वहां तक सृजन नहीं है। आप कुछ जिंदगी में ऐसा भी करते रहें जिसकी कोई उपयोगिता नहीं, सिवाय इसके कि आपको उसे करने में आनंद आता है। जिंदगी में ऐसा कुछ चलता रहे जिसे करने में आपको आनंद आता है, जिसके अंतिम परिणाम से कोई संबंध नहीं है।
वानगाग ने चित्र बनाये, जब उसने बनाये थे तब उनको खरीदने के लिए कोई राजी नहीं था। एक चित्र वानगाग की जिंदगी में बिका नहीं। उसके छोटे भाई ने कभी यह खयाल किया कि बेचारे का एक चित्र नहीं बिका, कितना दुखी न होगा यह! तो उसने एक आदमी को कुछ पैसे दिये और कहा, तू मेरी तरफ से जाकर एक चित्र खरीद ले। कम-से-कम उसे एक तृप्ति तो मिल जायेगी कि उसकी एक चीज तो बिकी। वह आदमी गया।
कोई आदमी चित्र खरीदने आया! वानगाग उसे चित्र बताने लगा। लेकिन वह कोई खरीददार तो न था। वह कोई चित्र को प्रेम करने वाला आदमी नहीं था। वह तो किसी का सिर्फ एजेंट था। पैसे भी किसी और के थे। कोई भी चित्र खरीद लेना था। उसने कोई भी चित्र उठाकर कहा, यह पैसे लो। वानगाग की आंख से आंसू बहने लगे, उसने पैसे वापस कर दिये और कहा, मालूम होता है मेरे भाई ने तुम्हें भेजा है। वापस लौट जाओ।
उसका भाई आया माफी मांगने। तो उसके भाई ने उससे पूछा कि जब तुम चित्र बेचना भी नहीं चाहते तो बनाते किसलिए हो? वानगाग ने कहा, बनाने में ही मिल जाता है वह जो चाहिये। बनाते क्षण में ही मिल जाता है वह जो चाहिए। जब मैं चित्र बनाता हूं, तब सब मुझे मिल जाता है, अब और कुछ चाहिए नहीं।
जब कोई गीत गाता है, तो सब मिल जाता है गाने में। लेकिन हां, अगर गायक भी प्रशंसा के लिए आतुर हो तो बाजारू है। वह सृजनात्मक नहीं है। अगर चित्रकार भी बाजार में बेचने के लिए चित्र बनाता है, तो यह कंस्ट्रक्शन है, प्रोडक्शन है। यह क्रिएशन नहीं है।
हम कहते हैं कि परमात्मा ने जगत बनाया, क्रिएट किया। बनाया नहीं बनाया--बड़े अर्थ की बात नहीं है, लेकिन परमात्मा को हम कहते हैं, उसने सृजन किया। उसका एक ही अर्थ है। हम यह नहीं कहते, प्रोडयूस्ड बाई; परमात्मा ने उत्पादन किया। कम कहते, सृजन किया। सिर्फ इसलिए कि नान-परपज़िव है। परमात्मा को इससे कुछ भी मिलने का नहीं है। परमात्मा को इससे कुछ भी उपलब्ध होने वाला नहीं है। अगर कुछ भी मिला होगा, तो इसके बनाने में ही मिला होगा, इसके बनने में ही मिला होगा, अन्यथा इसके बाहर कुछ मिलने को नहीं।
जिस आदमी की जिंदगी में कुछ ऐसे क्षण हैं जब वह आनंद और सृजन में जीता है, वह आदमी धीरे-धीरे अकाम को उपलब्ध हो जायेगा। क्योंकि काम की दूसरी शर्त है, काम की दूसरी शर्त है: द रिजल्ट! कामना का आखिरी स्रोत, उदगम का, दौड़ का, शक्ति का, एक ही है कि मिलेगा क्या? हम हमेशा पूछते हैं...।
लोग मेरे पास आते हैं, वे कहते हैं, ध्यान हम करें, लेकिन ध्यान में मिलेगा क्या? उनको पता ही नहीं कि ध्यान का मतलब ही एक ऐसा काम है जिसमें कुछ मिलेगा नहीं, ध्यान ही मिलेगा। और ध्यान के मिलने का अपना अर्थ है।
हम जूता खरीदते हैं, तो जूते का दूकानदार यह नहीं कह सकता कि आप बस आनंद से खरीद लें, मिलेगा कुछ नहीं। नहीं, जूता एक यूटीलिटी है, कोई खरीदेगा नहीं। लेकिन आप अगर जूते की दूकान पर जिस भांति जाते हैं उस भांति मंदिर में गये और पूछा कि प्रार्थना से मिलेगा क्या? तो आप गलत जगह पर पहुंच गये। नहीं, जिंदगी में जो भी महत्वपूर्ण है, उसका परिणाम नहीं है महत्वपूर्ण। उसका होना ही महत्वपूर्ण है। पर हमारी जिंदगी में ऐसा कोई क्षण नहीं है जो अपने में महत्वपूर्ण हो!
जिस व्यक्ति को धर्म के जगत में प्रवेश करना है और जिसे ऊर्जा को ऊपर ले जाना है उसे कुछ ऐसे काम खोजने पड़ेंगे जो काम नहीं हैं। जो सिर्फ खेल हैं, लीलाएं हैं। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम चरित्र नहीं कहते। राम के जीवन को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन चरित्र है। बहुत गंभीर मामला है। राम हर चीज को बड़ी गंभीरता से ले रहे हैं, उनके लिए खेल नहीं है मामला। उनके लिए जिंदगी एक काम है। कृष्ण के लिए जिंदगी एक खेल है। नाच रहे हैं, तो कुछ मिलने वाला नहीं है। बांसुरी बजा रहे हैं, तो कुछ मिलने वाला नहीं है। राम तो जो भी कर रहे हैं उसमें कम-से-कम चरित्र मिलेगा, मर्यादा मिलेगी, वंश-परंपरा की प्रतिष्ठा मिलेगी। वह सब मिलना है, राम बहुत यूटीलिटेरियन हैं। राम की बुद्धि बहुत उपयोगितावादी है। इसलिए एक धोबी के कहने से वे पत्नी को बाहर फेंक सकते हैं। यूटीलिटी में तकलीफ हो रही है, उपयोगिता में बाधा पड़ रही है। राम की मर्यादा क्षीण हो जायेगी। राम के चरित्र पर धब्बा लग जायेगा। राम की रघुकुल-परंपरा का क्या होगा? यश, वंश, सब उपयोगिता है।
कृष्ण अगर राम की जगह होते तो सीता को फेंक नहीं सकते थे। हो सकता था, खुद ही बांसुरी बजाते हुए भाग जाते। यह हो सकता था, सीता को नहीं फेंक सकते थे। अगर राम की जगह कृष्ण होते तो सीता की अग्नि-परीक्षा नहीं लेते--बहुत बेहूदी बात मालूम पड़ती, बहुत यूटीलिटेरियन मालूम पड़ती। प्रेम की कहीं परीक्षाएं होती हैं? और अगर प्रेम की भी परीक्षा होती है तो फिर इस जिंदगी में बिना परीक्षा के कुछ भी नहीं बचेगा। सीता की परीक्षा ली जा सकी कि तुम आग से गुजरो, क्योंकि प्रेम पवित्र है या नहीं इसका पक्का होना चाहिए। प्रेम अपने आप में ही पवित्र है। प्रेम की और कोई पवित्रता नहीं होती। सीता ने नहीं कहा राम से कि तुम भी गुजरो। तुम भी साथ चले आओ, क्योंकि तुम भी अकेले थे, क्या भरोसा? और स्त्री का तो थोड़ा-बहुत भरोसा हो सकता है, पुरुष का होना जरा मुश्किल है। लेकिन सीता ने नहीं कहा। सीता के लिए जिंदगी एक गंभीरता नहीं है, एक प्रेम है, इसलिए सीता राजी हो गयी। निकल गयी। प्रेम परीक्षा नहीं मांगता, प्रेम सब परीक्षाएं दे सकता है। लेकिन कृष्ण तो बात ही नहीं करते, यह कोई सवाल ही नहीं था। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम चरित्र नहीं कहते। कृष्ण के जीवन को हम लीला कहते हैं। वह कृष्ण-लीला है। लीला का मतलब है कि पूरी जिंदगी क्रिएटिव है। परपजिव नहीं है, यूटीलिटेरियन नहीं है। जिंदगी एक खेल है।
धार्मिक आदमी की जिंदगी गंभीर नहीं होती। और जो आदमी गंभीर है वह बोझिल हो जायेगा और जो बोझिल होगा, उसको सेक्स से रास्ता खोजना पड़ेगा।
इसलिए जिंदगी जितनी गंभीर होती जा रही है उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ रही है। जिंदगी जितनी सीरियस होती जा रही है उतनी सेक्सुअलिटी बढ़ रही है। क्योंकि जितने आप गंभीर होंगे, उतने तनाव से भर जायेंगे। जितने तनाव से भर जायेंगे, उतनी रिलीफ की जरूरत पड़ेगी। इसलिए जिस मुल्क में जितना तनाव है, उतनी ज्यादा कामुकता बढ़ जायेगी, क्योंकि और कोई रास्ता नहीं दिखता। चित्त बोझिल हो जायेगा। शक्ति को बाहर फेंको, हल्के हो जाओ। एक ही रास्ता रह जायेगा।
दूसरा सूत्र आपसे कहता हूं--जिंदगी को गंभीरता से मत लेना। डोंट टेक इट सीरियसली, सीरियसनेस इज ए बेसिक डिसीज़। बहुत बुनियादी बीमारी है सीरियस होना। लेकिन आमतौर से हमारा साधु, संन्यासी बहुत सीरियस होता है। सच तो यह है कि अगर चेहरा गंभीर और रोता हुआ न हो तो साधु होने की योग्यता पूरी नहीं होती। क्वालीफिकेशन जरूरी है वह। इसलिए अक्सर रोते हुए लोग साधु-संन्यासी हो जाते हैं। साधु-संन्यासी होने की वजह से रोते हुए दिखाई पड़ते हैं, ऐसा मत समझना; रोते हुए थे, इसलिए साधु-संन्यासी हो जाते हैं। क्योंकि वहां उनके रोने को भी प्रतिष्ठा और आदर मिलने लगता है। वैसे रोते हुए दिखाई देते तो कोई भी पूछता कि यह क्या शक्ल ले कर घूम रहे हो? लेकिन संन्यास में वह शक्ल प्रतिष्ठित हो जाती है।
नहीं, जिंदगी गंभीरता नहीं है। और जो जिंदगी में गंभीर है वह काम से मुक्त नहीं हो सकेगा। जिंदगी खेल बन जाये तो आदमी काम से मुक्त हो जाता है। पर पूरी जिंदगी को नहीं कह रहा हूं कि आप खेल बना लें, शायद वह संभव नहीं है; लेकिन जिंदगी में कुछ तो हो, जो खेल हो। बच्चे इतने हल्के हैं। और ध्यान रहे बच्चे इतने अकामी हैं, उसका कुल कारण इतना है कि बच्चों की जिंदगी गंभीर नहीं है, एक खेल है, जिंदगी एक लीला है। बच्चा खेल रहा है, गंभीर नहीं है। जैसे-जैसे गंभीर होगा, वैसे-वैसे सेक्स उसकी दुनिया में आयेगा।
क्या आपको यह पता है कि सेक्सुअल-मेच्योरिटी की उम्र रोज नीचे गिरती जा रही है? चौदह साल से अमरीका में बारह साल हो गयी, ग्यारह साल हो गयी। कुछ लड़कियां ग्यारह साल में मेच्योर होने लगी हैं और संभावना है कि इस सदी के पूरे होतेऱ्होते मेच्योरिटी की उम्र सात साल तक भी आ सकती है। सात साल...मामला क्या है? लड़कियां हमेशा चौदह साल में मेच्योर होती थीं, ये सात साल में क्यों होने लगीं? असल में सात साल में ही लड़कियां इतनी गंभीर हो गयी हैं अब, जितनी चौदह साल में पहले हुआ करती थीं। जिंदगी सात साल में ही काफी भारी हो गयी। शिक्षा, व्यवस्था, शिष्टाचार, सभ्यता, संस्कृति रोज भारी होती जा रही है। छोटे बच्चे जितने भारी हो जायेंगे, उतनी जल्दी उन्हें शक्ति बाहर फेंकने के लिए सेक्स का मार्ग खोजना पड़ेगा।
इससे उल्टा भी हो सकता है। अगर हम बच्चों को देर तक हल्का रख सकें, बहुत हल्का रख सकें, तो शायद बीस साल, पच्चीस साल तक...।
हम कहानियां सुनते हैं लेकिन हमें पता नहीं है, और जो गुरुकुल चलाते हैं उनको भी पता नहीं है कि मामला क्या है। क्योंकि गुरुकुल चलाने वाले लोग तो आम तौर से गंभीर होते हैं। लेकिन पच्चीस साल तक किसी जमाने में हम गुरुकुल में युवकों को काम के, सेक्स के, बाहर रख सके थे। उसका कारण क्या था? उसका कारण था कि हम पच्चीस साल तक उन्हें गंभीर होने से बचा सके थे। और कोई कारण नहीं था। जितनी गंभीरता बढ़ेगी उतना बोझ बढ़ जायेगा, जितना बोझ बढ़ेगा, तनाव हो जायेगा। जितना तनाव होगा उतना निकास चाहिए। हम पच्चीस साल तक उनको गंभीर होने से बचा सके थे। हमने पच्चीस साल तक उनकी जिंदगी को खेल...न परीक्षाओं की गंभीरता थी, न जिंदगी से लड़ने की गंभीरता थी, न उत्तरदायित्व और रिस्पांसबिलिटी की गंभीरता थी। जिंदगी एक खेल थी जंगल में। उस खेल के बीच सब बहुत आहिस्ता चल रहा था। लकड़ियां काट रहे थे लड़के, जंगल में दौड़ रहे थे, पौधे बना रहे थे, खेती कर रहे थे। कभी घंटा आधा घंटा पढ़ते थे, पढ़ना कोई गंभीर काम नहीं था--फुरसत के क्षण में हुई बातचीत थी, निकट गुरु के बैठ कर थोड़ी बात कर लेते थे। तो पच्चीस साल तक अगर वे काम के बाहर रह जाते थे तो कोई आश्चर्य नहीं। और अगर आज आपके बच्चे चौदह और पंद्रह साल के बाद ही पूरे अडल्ट, पूरे प्रौढ़ और पूरी प्रौढ़ता की कामवासना की मांग कर रहे हैं तो भी कोई आश्चर्य नहीं, क्योंकि आप उन्हें पूरे गंभीर बनाने की योजना किये हुए हैं।
जिस आदमी को अकाम को उपलब्ध होना है उसे जिंदगी से गंभीरता को अलग कर देना चाहिए अन्यथा बोझ हो जायेगा, और बोझ उसे काम में ले जायेगा। कैसे यह होगा? दो-चार काम तो हर आदमी खोज सकता है जब वह गैर-गंभीर है। कभी आप अपने बच्चों के साथ घर में खेलते हैं? आप कहेंगे, कैसी पागलपन की बात कर रहे हैं आप? बच्चों के साथ और खेल! बाप जब भी बेटे से मिलता है तो गंभीर मिलता है। एक तो मिलता ही नहीं, कभी कोई गंभीर मौका आ जाता तो मिलता है। बेटा जब बाप से मिलता है तब गंभीर मिलता है। वह भी बचा रहता है बाप से। बाप को जब कोई उपदेश देना होता है तब बेटे से मिलता है। बेटे को जब कुछ पैसे लेना होता है तब बाप से मिलता है। ऐसे दोनों बच कर निकलते रहते हैं।
नहीं, कभी आप बच्चों के साथ घर में खेलते हैं, इसे जरा प्रयोग करके देखें। वह परिवार परिवार नहीं है जिसके सारे लोग मिलकर एक घंटा खेलते नहीं। और आप हैरान होंगे--एक घंटा आप खेल कर देखें और एक महीने भर में आप फर्क पायेंगे। आपकी सेक्सुअलिटी में फर्क पड़ना शुरू हो गया। एक काम तो मिला गैर-गंभीर होने का। आप घर में बैठ कर करते क्या हैं? अखबार पढ़ते हैं, अखबार बड़ा गंभीर मामला है। करते क्या हैं घर में बैठ कर? छह घंटा दुकान या दफ्तर में बैठने के बाद घर में करते क्या हैं? चित्र बनाते हैं, कभी बैठ कर रंगत्तूलिका...घर की दीवाल रंगते हैं? कैसी बेहूदगी है कि घर की दीवाल भी रंगने के लिए हमें दूसरे आदमी लाने पड़ते हैं, अपनी दीवाल भी नहीं रंग सकते! कभी दीवाल पर कोई चित्र बनाते हैं? जरूरी नहीं कि वह चित्र कोई बड़े चित्रकार जैसे हों, जरूरी यह है कि वह आपसे निकले।
अब बड़े मजे की बात है कि मेरी दीवाल पर अगर किसी दूसरे चित्रकार का चित्र है तो उसे मेरी दीवाल कहने का मुझे हक भी कहां है? उधार है, बासा है। मेरी दीवाल पर मेरे हाथ का चित्र होना चाहिए। कभी घर में बैठ कर नाचते हैं सबको इकट्ठा करके? घर के लोग नाचने लगते हैं...नहीं, आप कहेंगे, यह कैसी बातें कर रहे हैं?
अगर घर में एक आदमी धार्मिक हो जाये तो सबको बैठा कर वह ऐसा उदासी का और ऐसा रोने का वातावरण तैयार करवाता है कि जिसका कोई हिसाब नहीं। लेकिन घर में अगर आप घंटे भर नाचते हैं...नाचने के लिए विधि और व्यवस्था की जरूरत नहीं कि आप कत्थक या भरतनाटयम् सीखें और कथकली सीखें। कूद तो सकते हैं! अगर एक घंटे घर में आप मौज से कूदते हैं, नाचते हैं, जो गा सकते हैं गाते हैं, जो बजा सकते हैं बजाते हैं, जो पेंट कर सकते हैं पेंट करते हैं, तो आप पायेंगे आपकी जिंदगी में सेक्सुअलिटी कम होने लगी। जो हजार ब्रह्मचर्य के नियम लेने से कम नहीं होगी वह कम होने लगेगी, क्योंकि आपकी जिंदगी में सृजनात्मक काम शुरू हो गया।
हर आदमी दुनिया में छोटा-मोटा कवि है, और हर आदमी छोटा-मोटा चित्रकार है, और हर आदमी छोटा-मोटा संगीतज्ञ है, और हर आदमी छोटा-मोटा नृत्यकार है। और सबको यह सब होना चाहिए। और जब आप इसमें से गुजरेंगे तो आप बहुत हैरान हो जाएंगे कि आपकी जो वासना थी, जो बोझ था चित्त पर शक्ति का, वह सृजनात्मक हो गया। एक बार शक्ति सृजनात्मक होनी शुरू हो तो ऊपर बहनी शुरू होती है। इससे उल्टा भी होता है, अगर आपकी शक्ति सृजनात्मक न हो पाये तो विध्वंसात्मक हो जाती है।
यह आपको शायद जानकर हैरानी होगी कि हिटलर चित्रकार होना चाहता था, मां-बाप ने चित्रकार नहीं होने दिया। अब किसी दिन भविष्य की अदालत में शायद यह तय करना मुश्किल होगा कि इस बड़े महायुद्ध के लिए, इतने करोड़ों लोगों के मरने के लिए हिटलर जिम्मेदार है कि उसके मां-बाप जिम्मेदार हैं। क्योंकि हिटलर अगर चित्रकार हो जाता तो कम-से-कम दूसरा महायुद्ध तो नहीं होने वाला था। लेकिन हिटलर चित्रकार नहीं हो पाया। उसके भीतर जो ऊर्जा सृजनात्मक बन सकती थी वह अटक गयी, और विध्वंसक हो गयी। वह कुछ बनाता, वह नहीं बन पाया, उसने कुछ मिटाना शुरू कर दिया। ध्यान रहे अगर आप बनायेंगे नहीं तो आप मिटायेंगे जरूर। अगर आप सृजन नहीं करेंगे तो विध्वंस करेंगे। अगर क्रियेट नहीं करेंगे तो डिस्ट्रक्ट करेंगे। इन दो के बीच उपाय नहीं है। और अगर इन दो के बीच आपको टिकना हो तो फिर आपको ऊर्जाहीन, इंपोटेंसी चाहिए, फिर आपके पास ऊर्जा नहीं होनी चाहिए। अगर ऊर्जा होगी तो ऊर्जा कुछ करेगी, विध्वंस करेगी या निर्माण करेगी, सृजन करेगी या तोड़ेगी या मिटायेगी
तो आप अपनी जिंदगी में--दूसरा सूत्र अकाम की तरफ--सृजनात्मक हों, टु बी क्रियेटिव। दो चार क्षण खोजें, कुछ भी खोजें और सृजन में लग जाएं। बगीचे में काम कर सकते हैं, नाच सकते हैं, गीत गा सकते हैं। गंभीरता को कुछ देर के लिए अलग कर दें, गैर-गंभीर हो जायें, हल्के हो जायें कुछ देर के लिए। जवान न रह जायें, बूढ़े न रह जायें, बच्चे हो जायें। और जो आदमी बुढ़ापे में भी घंटे भर के लिए बच्चा हो जाये तो उसकी जिंदगी बदलनी शुरू हो जाती है। उसकी ऊर्जा फिर बचपन की तरह इकट्ठी होने लगती है।
और तीसरी अंतिम बात...।
एक, पल-पल जीयें; भविष्य और कामना से मुक्त हों; दो, सृजनात्मक बनें; उपयोगिता काफी नहीं है अर्थपूर्ण काम काफी नहीं है, अर्थहीन काम की भी जरूरत है। चरित्र ही बनाने में न लगे रहें। थोड़ी-सी लीला भी जीवन में आने दें। और तीसरी अंतिम बात, जब भी मौका मिल जाए तो होशपूर्वक समस्त इंद्रियों के द्वार बंद करके भीतर देखें।
चौबीस घंटे हम बाहर देखते हैं। जब भीतर देखने का मौका आता है तब हम सो गये होते हैं--तब भीतर देखना नहीं हो पाता। या तो बाहर देखते हैं या नहीं देखते हैं, दो काम हैं हमारी जिंदगी में। दिन भर बाहर देखते हैं, रात में नहीं देखते। या कुछ लोग देखते हैं तो स्वप्न देखते हैं, वह भी बाहर देखना है। वह भी भीतर देखना नहीं है। थोड़ी देर होशपूर्वक चौबीस घंटे में आंख बंद कर के भीतर देखें। क्या मतलब भीतर देखने का? आंख बंद करें और देखने की कोशिश करें। कुछ और मतलब नहीं है। आंख बंद कर लें और देखने की कोशिश करें। सिर्फ कुछ मत करें, आंख बंद कर लें और देखने की कोशिश करें। आंख खोलकर तो हम देख लेते हैं, कोशिश नहीं करनी पड़ती, चीजें दिखाई पड़ जाती हैं। आंख बंद करके कुछ भी दिखाई नहीं पड़ेगा। अंधेरा दिखाई पड़ेगा तो अंधेरे को ही देखें। बस देखने की कोशिश करें जो भी दिखाई पड़े। हो सकता है कोई चित्र दिखाई पड़े, उसे देखने की कोशिश करें; कोई सपना दिखाई पड़े, उसे देखने की कोशिश करें। भीतर जो भी होता है, इंद्रियों को बंद करके देखने की...।
पहले आंख से शुरू करें, क्योंकि आंख हमारी सबसे महत्वपूर्ण इंद्रिय बन गयी है। फिर भीतर सुनने की कोशिश करें, जो भी सुनाई पड़े उसे सुनने की कोशिश करें। फिर भीतर सूंघने की कोशिश करें, फिर भीतर स्वाद लेने की कोशिश करें। इंद्रियों से जो-जो बाहर किया है, वह-वह भीतर करने की कोशिश करें। और आप दंग हो जायेंगे। भीतर के अपने नाद हैं। भीतर की अपनी ध्वनियां हैं। भीतर के अपने रंग हैं। भीतर के अपने स्वाद हैं। भीतर की अपनी सुगंधें हैं। और धीरे-धीरे वह पैदा होनी शुरू हो जायेंगी। और जिस दिन आपके भीतर का रंग आपको दिखाई पड़ेगा, उस दिन बाहर के रंग एकदम अनरिअल मालूम पड़ने लगेंगे। फिर बाहर जाने की इच्छा बंद होने लगेगी। जिस दिन भीतर का संगीत सुनाई पड़ेगा, उस दिन बाहर का संगीत एकदम बेमानी हो जायेगा, शोरगुल मालूम पड़ेगा। जिस दिन भीतर की सुगंध का अनुभव होगा, उस दिन फ्रेंच बाजारों में बनी सारी परफ्यूमें बिलकुल बेकार मालूम पड़ेंगी। और जिस दिन भीतर के सौंदर्य का बोध होगा, उस दिन बाहर कोई सौंदर्य न रह जायेगा।
तो तीसरा सूत्र, जब भी मौका मिले तो कुछ भीतर करने की कोशिश करें। चौबीस घंटे बाहर ही बाहर न करते रहें। क्योंकि जहां हम करते हैं, ऊर्जा उसी तरफ बहनी शुरू हो जाती है। अगर हम बाहर कुछ करते हैं तो बाहर बहती है। अगर हम भीतर कुछ करते हैं तो भीतर बहती है। जहां काम है, ऊर्जा को वहीं जाना पड़ता है। जहां काम है, ऊर्जा उसी ओर दौड़ पड़ती है। तो भीतर थोड़ा काम करें ताकि ऊर्जा भीतर दौड़ने लगे।
ये तीन सूत्र आप पूरे करें और आप हैरान हो जायेंगे कि जिंदगी से काम चला गया, अकाम उपलब्ध हुआ। ऊर्जा भीतर इकट्ठी होगी, ऊपर उठेगी, अंतस के और द्वार खुलेंगे। अंतस के दूसरे चक्र सक्रिय होंगे और भीतर के रस और भीतर के अमृत झरने लगेंगे। अकाम अंततः अमृत बन जाता है और काम अंततः मृत्यु बन जाता है। काम है मृत्यु की खोज। अकाम है अमृत की खोज।
कल पांचवें और अंतिम सूत्र अप्रमाद पर आप से बात करूंगा। अप्रमाद का अर्थ है: अमूर्च्छा। अप्रमाद का अर्थ है: अवेयरनेस। चार दिन जो हमने कहा है, कल उस साधन की हम बात करेंगे जिससे चार दिन हमने जो कहा है वह उपलब्ध हो सकता है। कल साधन की बात है।
क्या करें कि अहिंसा आ जाये? क्या करें कि अचौर्य आ जाये? क्या करें कि अपरिग्रह आ जाये? क्या करें कि अकाम आ जाये? कौन-सा है मार्ग? कौन-सा है द्वार? कौन-सा है सूत्र?
ये थोड़ी-सी बातें इतने प्रेम और शांति से आपने सुनीं, उससे मैं बहुत अनुगृहीत हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे प्रभु को प्रणाम करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें।
आज इतना ही।




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