2
सितंबर 1970,
षणमुखानंद
हाल, मुम्बई
मेरे
प्रिय आत्मन्,
दूसरे महाव्रत
"अपरिग्रह' को समझने के
लिए परिग्रह
को समझना
आवश्यक है। बड़ी
भ्रांतियां
हैं परिग्रह
के संबंध में।
परिग्रह का
अर्थ वस्तुओं
का होना नहीं
होता। परिग्रह
का अर्थ होता
है--वस्तुओं
पर मालकियत की
भावना। परिग्रह
का अर्थ होता
है--पजेसिवनेस।
कितनी
वस्तुएं हैं
आपके पास, इससे
कुछ तय नहीं
होता। आप किस
दृष्टि से उन
वस्तुओं का
व्यवहार करते
हैं, आप
किस भांति उन
वस्तुओं से
संबंधित हैं,
सब कुछ इस
पर निर्भर है।
और वस्तुओं के
ही नहीं, हम
व्यक्तियों
के प्रति भी
परिग्रही, पजेसिव होते हैं।
हिंसा
के संबंध में
कुछ बातें
मैंने कल आपसे
कहीं।
परिग्रह, पजेसिवनेस,
हिंसा का ही
एक आयाम, एक
डायमेंशन है।
सिर्फ हिंसक
व्यक्ति ही पजेसिव, परिग्रही
होता है। जैसे
ही मैं किसी
व्यक्ति पर, किसी वस्तु
पर मालकियत की
घोषणा करता
हूं, वैसे
ही मैं गहरी
हिंसा में उतर
जाता हूं। बिना
हिंसक हुए
मालिक होना
असंभव है।
मालकियत हिंसा
है। वस्तुओं
की मालकियत तो
ठीक ही है, व्यक्तियों
की मालकियत भी
हम रखते हैं।
पति
मालिक है
पत्नी का। पति
शब्द का अर्थ
ही मालिक होता
है, द ओनर।
पति को हम
स्वामी कहते
हैं। स्वामी
का मतलब होता
है, मालिक।
परिग्रह का
अर्थ
है--स्वामित्व
की आकांक्षा।
पिता बेटे का
मालिक हो सकता
है, गुरु
शिष्य का
मालिक हो सकता
है। जहां भी
मालकियत है
वहां परिग्रह
है, और
जहां भी
परिग्रह है
वहां संबंध
हिंसात्मक हो
जाते हैं।
क्योंकि बिना
किसी के साथ
हिंसा किये
मालिक नहीं
हुआ जा सकता; और बिना
किसी को गुलाम
बनाये मालिक
नहीं हुआ जा
सकता। और बिना
परतंत्रता
थोपे पजेसिव
होना असंभव
है।
लेकिन
क्यों है
मनुष्य के मन
में इतनी
आकांक्षा कि
वह मालिक बने? क्यों दूसरे
का मालिक बनने
की आकांक्षा
है? दूसरे
के मालिक बनने
में इतना रस
क्यों है?
बहुत
मजे की बात है:
चूंकि हम अपने
मालिक नहीं हैं, इसलिए। जो
व्यक्ति अपना
मालिक हो जाता
है, उसकी
मालकियत की
धारणा खो जाती
है। लेकिन हम
अपने मालिक
नहीं हैं और
उसकी कमी हम
जिंदगी भर दूसरों
के मालिक होकर
पूरी करते
रहते हैं।
लेकिन
कोई चाहे सारी
पृथ्वी का
मालिक हो जाये
तो भी कमी
पूरी नहीं हो
सकती।
क्योंकि अपने
मालिक होने का
मजा और है, और दूसरे के
मालिक होने
में सिवाय दुख
के और कुछ भी
नहीं। अपना
मालिक होना एक
आनंद है, दूसरे
का मालिक होना
सदा दुख है।
इसलिए जितनी बड़ी
मालकियत होती
है, उतना
बड़ा दुख पैदा
हो जाता है।
जिंदगी भर हम
कोशिश करते
हैं कि वह जो
एक चीज चूक गई
है, कि हम
अपने मालिक
नहीं हैं, सम्राट
नहीं हैं अपने,
वह हम
दूसरों के
मालिक बन कर
पूरा करने की
कोशिश करते
हैं।
यह ऐसे
ही है जैसे
कोई प्यास को
आग से पूरा
करने की कोशिश
करे और प्यास
और बढ़ती चली
जाये। आग से
प्यास नहीं बुझायी जा
सकती। दूसरे
का मालिक बन
कर अपनी
मालकियत नहीं
पायी जा सकती।
बल्कि बड़े मजे
की बात है कि
जितना ही हम
दूसरे के
मालिक बनते
हैं, जिसके हम
मालिक बनते
हैं उसका हमें
गुलाम भी बन
जाना पड़ता है।
असल में
मालकियत
दोहरी
परतंत्रता
है। जिसके हम
मालिक बनते
हैं वह तो
हमारा गुलाम
बनता ही है, हमें भी
उसका गुलाम बन
जाना पड़ता है।
मालिक अपने
गुलाम का भी
गुलाम होता
है। पति कितना
ही पत्नी का
मालिक बनता हो,
लेकिन
गुलाम भी हो
जाता है। और
सम्राट कितने
ही बड़े राज्य
का मालिक हो, पूरी तरह
गुलाम हो जाता
है। गुलाम हो
जाता है भय का,
क्योंकि
जिन्हें हम
परतंत्र करते
हैं, उन्हें
हम भयभीत कर
देते हैं। और
जिन्हें हम परतंत्र
करते हैं, उनकी
तरफ से हमारे
प्रति
विद्रोह और
बगावत शुरू हो
जाती है। और
जिन्हें हम
परतंत्र करते
हैं, वे भी
हमें परतंत्र
करना चाहते
हैं।
मैंने
सुना है कि एक
आदमी एक गाय
को रस्सी बांध
कर जंगल की
तरफ ले जा रहा
है और एक
संन्यासी उस
रास्ते से
गुजर रहा है।
वह आदमी गाय
को खींचता हुआ
जंगल की तरफ
ले जा रहा है।
उस संन्यासी ने
खड़े होकर उस
गांव के लोगों
से पूछा कि
मैं एक सवाल
पूछना चाहता
हूं। यह गाय
इस आदमी के
साथ बंधी है
या यह आदमी इस
गाय के साथ
बंधा है? गांव
के लोगों ने
कहा, बात
सीधी और साफ
है, कि गाय
आदमी के साथ
बंधी है। तो
संन्यासी ने पूछा,
अगर गाय भाग
जाये तो आदमी
उसके पीछे
भागेगा या
नहीं भागेगा?
उन लोगों ने
कहा, भागना
ही पड़ेगा। तो
उस संन्यासी
ने कहा, गाय
बहुत दृश्य
रस्सी से बंधी
है; और यह
आदमी बहुत
अदृश्य रस्सी
से बंधा है।
यह भी गाय को
छोड़ नहीं
सकता। गाय के
गले में रस्सी
है जो बहुत
साफ है और
दिखाई पड़ रही
है। इस आदमी
के गले में भी
गाय की रस्सी
है जो बहुत
साफ है, पर
दिखाई नहीं पड़
रही है।
मालिक
और गुलाम में
इतना ही फर्क
है कि एक की गुलामी
दृश्य होती है
और दूसरे की
गुलामी अदृश्य
होती है। इससे
ज्यादा कोई भी
फर्क नहीं है।
हम जिसे गुलाम
बनाते हैं वह
हमें भी गुलाम
बना लेता है।
द पजेसर बिकम्स द पजेस्ड।
अपरिग्रह खोज
है इस बात की
कि मैं अपना
मालिक कैसे हो
जाऊं।
सुना
है मैंने, एक फकीर के
मरने का वक्त
करीब आ गया
था। थोड़े-से
पैसे उसके पास
थे। उसने अपने
शिष्यों से
कहा कि इस
गांव के सबसे
गरीब आदमी को
मैं ये पैसे दे
देना चाहता
हूं। तो गांव
के सारे गरीब
दूसरे दिन
इकट्ठे हो
गये। लेकिन
उसने किसी को
गरीब मानना
स्वीकार न
किया। एक-एक
को उसने कहा
कि नहीं तू
नहीं है, नहीं
तू नहीं है।
अभी असली गरीब
नहीं आया।
और फिर
दोपहर सम्राट
अपने रथ से
निकला तो उसने
अपने पैसों की
झोली सम्राट
के रथ पर फेंक
दी। सम्राट को
भी पता था कि
सबसे गरीब
आदमी को वे पैसे
मिलने वाले
हैं उस फकीर
के। उस सम्राट
ने हंस कर कहा कि
पागल हो गये
हो, सबसे
अमीर आदमी पर
पैसे फेंकते
हो? घोषणा
की थी सबसे
गरीब आदमी के
लिए।
तो उस
फकीर ने कहा
कि जिनके पास
कम चीजें हैं
उनकी गुलामी
भी कम है, उनकी
गरीबी भी कम
है। तुम्हारे
पास चीजें ज्यादा
हैं, तुम्हारी
गुलामी भी बड़ी
है और
तुम्हारी
गरीबी भी बड़ी
है। और मजा यह
है सम्राट, कि जिनके
पास बहुत कम
है शायद
उन्होंने और
खोज की आशा
छोड़ दी हो, किंतु
जिनके पास
बहुत ज्यादा
है उनकी खोज
की आशा का भी
कोई हिसाब
नहीं। तुमसे
बड़े गरीब आदमी
को मैं इस
जमीन पर नहीं
जानता हूं। ये
पैसे मैं
तुम्हें भेंट
कर जाता हूं।
शायद
उस फकीर का
कहना ठीक ही
था। बड़े गुलाम
वे ही हैं
जिन्हें
दूसरों के
सम्राट होने
का भ्रम पैदा
हो जाता है।
और बड़े गरीब
वे ही हैं जो
बाहर की
संपत्ति से
भीतर की गरीबी
मिटाना चाहते हैं।
और बड़े
परतंत्र वे ही
हैं जो दूसरों
को परतंत्र
करके स्वयं की
स्वतंत्रता
के खयाल में
भटकते हैं।
कोई भी आदमी
किसी को
परतंत्र करके
स्वतंत्र
नहीं हो सकता।
परिग्रह, इसी
भ्रांति का
नाम है।
मैं
स्वतंत्र
होना चाहता
हूं तो मैं
सोचता हूं कि
किसी को
परतंत्र कर
लूं तो मैं
स्वतंत्र हो
जाऊं। लेकिन
परतंत्रता
दोहरी है।
जंजीरें
दोनों तरफ कस
जाती हैं। जेलखाने
में वे जो
कैदी बंद हैं
वे ही जेल में
बंद नहीं हैं।
वह जो जेलखाने
के बाहर संतरी
खड़ा हुआ है वह
भी उतना ही
बंधा है। एक
दीवाल के बाहर
बंधा है, एक
दीवाल के भीतर
बंधा है। न
दीवाल के भीतर
वाला भाग सकता
है, न दीवाल
के बाहर वाला
भाग सकता है।
और बड़े मजे की बात
है कि दीवाल
के भीतर वाला
तो भागने का
उपाय भी करे, दीवाल के
बाहर वाला
भागने का उपाय
भी नहीं करता
है। वह इस
खयाल में है
कि स्वतंत्र
है।
मैंने
सुना है कि
डाकुओं के एक
गिरोह ने एक
नेता को पकड़
लिया। जंगल
में निकलती थी
कार, गाड़ी रोक
ली और डाकुओं
के गिरोह ने
उस नेता को पकड़
लिया। लेकिन
वे डाकू बड़े
मजेदार लोग
थे। नेता तो
बहुत घबड़ाया,
लेकिन उन
डाकुओं ने कहा,
घबड़ाओ मत, क्योंकि
हम सजातीय हैं,
हम एक ही
जाति के हैं।
उस नेता ने
कहा, मैं
मतलब नहीं
समझा। तो उन
डाकुओं ने कहा
कि कई बातों
में हमारा बड़ा
तालमेल है।
तुम्हारे आगे
पुलिस चलती है,
हमारे पीछे
पुलिस चलती
है। ज्यादा
फर्क नहीं है।
तुम पुलिस की
तरफ से आगे से
बंधे होते हो,
हम पीछे से
बंधे होते
हैं। और ध्यान
रहे, आगे
पुलिस हो तो
भागना जरा
मुश्किल है।
पीछे पुलिस हो
तो भागा भी जा
सकता है।
जिंदगी
के अनूठे
रहस्यों में
से एक यह है कि
हम जिसे भी बांधते
हैं उससे हमें
बंध ही जाना
पड़ेगा। उसे
बांधने के लिए
भी बंध जाना
पड़ेगा।
परिग्रह की
बड़ी गहराइयां
हैं। उसके
सूक्ष्मतम
हिस्सों को
समझ लेना
जरूरी है, तो उसके
बाहर के
विस्तार को भी
समझा जा सकता
है।
परिग्रह
की पहली जो
कोशिश है वह
यह है कि मुझे यह
खयाल भूल जाये
कि मैं
परतंत्र हूं।
मुझे यह खयाल
भूल जाये कि
मैं सीमित
हूं। मुझे यह
खयाल भूल जाये
कि मैं अपना
मालिक नहीं
हूं। लेकिन यह
खयाल भुलाया
नहीं जा सकता।
अगर मैं मालिक
नहीं हूं तो
नहीं हूं। और
कितना ही मैं
विस्तार करूं
इसे भुलाने का, उस सारे
विस्तार के
बीच भी मेरे
गहरे में मैं जानूंगा
कि मैं मालिक
नहीं हूं।
सिकंदर भी जानता
है कि वह
मालिक नहीं है,
हिटलर भी
जानता है कि
वह मालिक नहीं
है। और जितना
ही पता चलता
है कि मालिक
नहीं हूं, उतना
ही वह बाहर की
मालकियत को
फैलाता चला
जाता है, मजबूत
करता चला जाता
है। जितनी ही
बाहर की मालकियत
मजबूत होती है,
हो सकता है
थोड़ी-बहुत देर
को भूल जाता
हो, लेकिन
बार-बार स्मरण
लौट आता है कि
मैं मालिक नहीं
हूं।
हम
भीतर मालिक
क्यों नहीं
हैं? जो भीतर
है उसे हम
जानते भी नहीं,
तो मालिक
होना तो बहुत
असंभव है।
स्वामी
राम अमरीका
गये तो अमरीकी
प्रेसिडेंट
उनसे मिलने
आया। और उस
अमरीकी प्रेसिडेंट
ने राम की
बातें बड़ी
अजीब सी पायीं।
असल में भाषा
अलग थी, भाषा
अलग होगी ही।
संन्यासी जो
भाषा बोलता है
वह किसी और
दुनिया की
भाषा है। राम
सदा अपने को
बादशाह राम
कहते थे। उस
अमरीकी प्रेसिडेंट
ने कहा, मैं
जरा समझ नहीं
पा रहा। ह्वाट
डू यू मीन बाई
इट? यह
बादशाह राम, इसका मतलब
क्या है? आपके
पास कुछ दिखाई
तो पड़ता नहीं।
कुछ भी तो
नहीं है आपके
पास सिवाय
लंगोटी के। बादशाह
कैसे हो?
तो राम
ने कहा, यह
लंगोटी
थोड़ी-सी बाधा
है मेरी
बादशाहत में। इसलिए
घोषणा जरा
धीरे करता
हूं। ऐसे अब
मैं किसी चीज
से बंधा हुआ
नहीं हूं। बस,
यह लंगोटी
रह गई है। मैं
बादशाह हूं!
क्योंकि मुझे
कोई भी जरूरत
नहीं है। मेरी
कोई मांग नहीं
है। मेरी कोई
चाह नहीं है।
यह एक लंगोटी
है, यह
थोड़ा मुझे
बांधे हुए है।
और लंगोटी तो
मुझे क्या बांधेगी,
मैंने ही
इसको बांधा
हुआ है। इसलिए
हम दोनों बंध
गये हैं।
लंगोटी मुझसे
बंध गई है, मैं
लंगोटी से बंध
गया हूं।
निश्चित
ही महावीर अपने
को बादशाह कह
सकते हैं।
महावीर के बड़े
भाई ने शायद
सोचा होगा कि
राज्य छोड़कर
चला गया छोटा
भाई। सोचा
होगा, कैसा
पागल है? बड़े
के हाथ में सब
राज्य दे गया,
साम्राज्य
दे गया और खुद
नंगा होकर
फकीर हो गया।
नासमझ है।
लेकिन बहुत कम
लोग समझ पाये
कि बादशाह हो
गये महावीर, और बड़ा भाई
गुलाम रह गया।
बादशाहत
इस बात से
शुरू होती है
कि मैं जो हूं उतना
पर्याप्त
हूं। इट इज
एनफ टु बी वनसेल्फ।
कोई कमी नहीं
है जिसे मुझे
पूरा करना
पड़े। कोई कमी
नहीं है जिसकी
वजह से मैं
खाली रहूं। कोई
कमी नहीं है
जिसके बिना
मुझे लगे कि
कुछ अधूरा है।
बादशाहत एक
इनर फुलफिलमेंट
है, एक भीतरी
आप्तता है। सब
है, इसलिए
कोई कमी नहीं
है। लेकिन
सम्राट के पास
कुछ भी नहीं
है। बहुत है
उसके पास, जो
दिखाई पड़ता है
चारों तरफ, लेकिन वह
खुद ही उसके
पास नहीं है।
और भीतर एक खालीपन
है, भीतर
एक एंपटीनेस
है, एक
रिक्तता है।
भीतर
हम सब रिक्त
हैं। इस
रिक्तता को हम
फर्नीचर से भरेंगे, इस रिक्तता
को हम मकान से भरेंगे, इस रिक्तता
को हम धन से भरेंगे।
इस रिक्तता को
हम यश, पद, प्रतिष्ठा
से भरेंगे।
फिर भी हम
पायेंगे कि
सारी पद-प्रतिष्ठाएं
इकट्ठी हो गई
हैं; सारा
धन का ढेर लग
गया है, और
भीतर की
रिक्तता अपनी
जगह खड़ी है।
बल्कि पहले
इतनी दिखाई
नहीं पड़ती थी
जितनी अब
दिखाई पड़ती है,
क्योंकि
कंट्रास्ट
है--बाहर धन के
ढेर लग गये हैं
तो भीतर की
रिक्तता और प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ने लगती है।
गरीब आदमी को
अपनी गरीबी
उतनी साफ कभी
नहीं दिखाई
पड़ती जितनी अमीर
आदमी को अपनी
गरीबी दिखाई पड़नी शुरू
हो जाती है।
मेरी
दृष्टि में तो
अमीरी का एक
ही लाभ है कि उससे
गरीबी दिखाई
पड़ती है।
इसलिए मैं सदा
अमीरी के पक्ष
में रहता हूं।
क्योंकि उसके
बिना गरीबी
कभी दिखाई
नहीं पड़ सकती।
काले तख्ते पर
जैसे सफेद
रेखाएं उभर कर
दिखाई पड़ने
लगती हैं, ऐसे बाहर
इकट्ठे हो गये
धन में भीतर
की निर्धनता प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ने लगती है।
सब होता है
बाहर और भीतर
कुछ भी नहीं
होता है। वह
जो भीतर की
रिक्तता है, उसी को भरने
के लिए
परिग्रह है।
लेकिन
कोई सोच सकता
है कि बाहर की
चीजें छोड़ दें
तो क्या भीतर
की रिक्तता
मिट जायेगी? यही असली
सवाल है, क्या
हम बाहर की
चीजें छोड़ कर
भाग जायें तो
भीतर की
रिक्तता मिट
जायेगी?
अगर
बाहर की चीजों
के होने से
भीतर की
रिक्तता नहीं
मिटी तो बाहर
की चीजों के न
होने से कैसे मिटेगी? बाहर की
चीजों के होने
से भी न मिटी
तो बाहर की चीजों
के छूटने से
कैसे मिट सकती
है?
लेकिन
आदमी का मन
बुनियादी
भूलों में
घिरा रहता है।
पहले वह सोचता
है बाहर की
चीजों को इकट्ठा
करने से भर
लूंगा। फिर जब
पाता है कि
बाहर की चीजें
इकट्ठी हो गईं
और भराव नहीं
आया, तो सोचता
है, बाहर
की चीजों को
छोड़ कर भर
लूं। लेकिन
पागल हुआ है।
जब चीजों से
भरा न जा सका, तो चीजों के
हटाने से कैसे
भर जाएगा?
इसलिए
ध्यान रहे, अपरिग्रह का
अर्थ बाहर की
चीजों को
छोड़ना नहीं
है। अपरिग्रह
का अर्थ भीतर
की पूर्णता को
पाना है। और
जब भीतर
पूर्णता भरती
है, तो
बाहर चीजों को
भरने की दौड़
विदा हो जाती
है।
इसलिए
मैंने कहा, परिग्रह का
अर्थ वस्तुओं
से नहीं है, परिग्रह का
अर्थ पजेसिवनेस
से है। एक जनक
रह सकता है घर
में भी लेकिन
जनक परिग्रही
नहीं है।
परिग्रह तो है
बहुत, परिग्रही
नहीं है। और
एक संन्यासी
अपरिग्रही
दिखाई पड़ता है,
और
परिग्रही हो
सकता है।
अक्सर होता
है। क्योंकि
उसने दूसरी
भूल की है।
उसने भूल की
है कि चीजों
को हटा दूंगा।
लेकिन चीजों को
हटाने से क्या
होगा? भीतर
का खालीपन, हो सकता है
दिखाई पड़ना
बंद हो जाये, इतना हो
सकता है। इतना
हो सकता है कि
चूंकि बाहर
चीजें न रह
जायें इसलिए
बाहर भी खाली
हो जाये, भीतर
भी खाली हो
जाये तो
कंट्रास्ट न
रह जाये और चीजें
दिखाई पड़नी
बंद हो जायें।
लेकिन भीतर का
खालीपन बाहर
के खालीपन से
भी नहीं मिट
सकता। भीतर तो
भराव चाहिए, भीतर फुलफिलमेंट
चाहिए, भीतर
एक पूर्णता का
पॉजिटिव
जन्म, विधायक
जन्म चाहिए तो
ही बाहर की
पकड़ विदा होगी,
अन्यथा
विदा नहीं हो
सकती।
एक
फकीर हुआ है डायोजनीज।
नंगा गुजर रहा
है जंगल से।
शायद महावीर
की जोड़ का
आदमी पश्चिम
में वही हुआ।
नग्न ही है। उतना
ही मस्त, उतना
ही आनंदित, उतना ही
स्वस्थ। जंगल
से गुजरता है।
कुछ लोग गुलामों
को बेचने
बाजार में जा
रहे हैं।
उन्होंने
देखा इस डायोजनीज
को--अकेला, नंगा,
स्वस्थ, सुंदर,
शक्तिशाली।
सोचा, अगर
यह पकड़ में आ
जाये तो इसके
दाम अच्छे मिल
सकते हैं। मगर
डर लगा उन्हें
कि इसे पकड़ भी
पायेंगे! थे
तो वे आठ, लेकिन
डर लगा कि इसे
पकड़ भी
पायेंगे!
शक्तिशाली है
बहुत। कहीं
झंझट न हो
जाये। फिर भी
आठ हैं, कोशिश
कर ली जाये।
उन्होंने
बड़ी ताकत
इकट्ठी करके डायोजनीज
पर हमला बोला, लेकिन डायोजनीज
ने हमले का
जवाब तो नहीं
दिया; या
कहें कि जवाब
दिया, लेकिन
डायोजनीज
के ढंग से
दिया। बीच में
खड़ा हो गया
आंख बंद करके
और उनसे कहा
कि बोलो क्या
इरादे हैं? उसने कोई लड़ाई
ही न की। वे सब
कंप रहे थे भय
से। उसने कहा,
आश्वस्त हो
जाओ, भयभीत
मत होओ। मुझसे
तुम्हारा कोई
बुरा न होगा।
क्योंकि
जिसने अपने
प्रति बुरा
करना बंद कर
दिया, वह
किसी के प्रति
बुरा कैसे कर
सकता है? बोलो,
क्या इरादे
हैं?
वे
बहुत घबड़ाये।
क्योंकि डायोजनीज
उनके हमले का
जवाब दे देता
तो शायद इतने
न घबड़ाते।
उन्हें कहने
में बड़ी
कठिनाई हो गई
कि हम तुम्हें
गुलाम बनाने
आये हैं। वे
एक-दूसरे की
तरफ देखने
लगे। तो डायोजनीज
ने कहा, मत
फिक्र करो, बोलो, तुम
जो कहोगे वही
हो जाएगा।
उन्होंने
नीचे आंखें
झुका कर कहा
कि हम बहुत शघमदा
हैं, लेकिन
हम तुम्हें
गुलाम बनाने
आये हैं। डायोजनीज
ने कहा, यह
भी खूब बढ़िया
रहा। चलो, हम
गुलाम हुए। अब
क्या इरादे
हैं? उन
लोगों ने डायोजनीज
की तरफ देखा
और उन्होंने
कहा कि गुलाम
हुए? क्या
कोई विरोध न
करोगे? डायोजनीज ने कहा, हम
अपने मन के
मालिक हैं। हम
गुलाम होना भी
चुन सकते हैं,
लड़ाई कुछ भी
नहीं है। अब
कहां चलना है?
तो
उन्होंने कहा,
हम हाथ में
जंजीरें डाल
दें। डायोजनीज
ने कहा, पागलो,
जंजीरों की कोई
जरूरत नहीं।
हम तो
तुम्हारे साथ
चल ही रहे
हैं। चलो जहां
चलना है।
वे डायोजनीज
को लेकर बाजार
में पहुंचे।
भीड़ इकट्ठी हो
गई। इतना
सुंदर गुलाम
शायद ही कभी बिकने
आया हो। टिकटी
पर खड़ा किया
गया डायोजनीज
को। और जब
नीलाम करने
वाले आदमी ने
कहा कि जो इस
गुलाम को
खरीदना चाहे
वह बोली शुरू
करे। तो डायोजनीज
ने कहा, चुप
नासमझ, पूछ
उनसे कि कौन
किसके साथ आया
है? वे
मेरे पीछे आये
हैं कि मैं
उनके पीछे आया
हूं? बंधा
कौन किससे है?
मैं उनसे
बंधा हूं कि
वे मुझसे बंधे
हैं? गुलाम
शब्द का उपयोग
मत करना। हम
अपने मालिक हैं।
रुक, मैं
खुद ही आवाज
लगा देता हूं।
तो डायोजनीज
ने उस टिकटी
से खड़े होकर
कहा कि अगर
कोई एक मालिक
को खरीदना
चाहे तो एक
मालिक बिकने
आया हुआ है।
भीड़ हैरान हो
गई। उन्होंने
कहा, मालिक?
डायोजनीज ने कहा, मैं
अपना मालिक
हूं।
यह जो
अपनी मालकियत
है, यह एक
विधायक
उपलब्धि है।
यह विधायक
उपलब्धि हो
जाये तो बाहर
की पकड़ छूट
जाती है। बाहर
की पकड़ सिर्फ
इसीलिए है कि
भीतर की कोई
पकड़ नहीं है।
हम बाहर पकड़े
चले जाते हैं।
और जिसको भी
हम बाहर पकड़ते
हैं उसकी हम
हत्या करना
शुरू कर देते
हैं।
परिग्रह
की जो हिंसा
है वह यही है
कि अगर हम किसी
व्यक्ति को पकड़ेंगे
बाहर तो हम
उसे मारना
शुरू कर
देंगे।
क्योंकि बिना
मारे उसे पजेस
नहीं किया जा
सकता। उसे
मारना ही पड़ेगा।
अगर एक गुरु
एक शिष्य को
पकड़ ले तो वह
शिष्य को
मारना शुरू कर
देगा।
क्योंकि
जिंदा शिष्य
शिष्य नहीं
बनाया जा
सकता। उसे
मारना जरूरी
है। इसलिए आज्ञाएं, अनुशासन, नियम, मर्यादा
उन सब में उसे
मारा जाएगा।
उसकी स्वतंत्रता
काटी जाएगी।
जब वह मुर्दा
हो जाएगा तभी
शिष्य हो सकता
है। एक पति
अपनी पत्नी को
मारना शुरू कर
देगा, एक
पत्नी अपने
पति को मारना
शुरू कर देगी।
एक मित्र
दूसरे मित्र
को मारना शुरू
कर देगा। क्योंकि
जब उसे बिलकुल
मार डाला जाये,
तभी
आश्वस्त हुआ
जा सकता है कि
वह भाग नहीं
जाएगा। वह
स्वतंत्र
नहीं हो
जाएगा।
लेकिन
इसमें एक बड़ी
आंतरिक
कठिनाई है। जब
हम किसी
व्यक्ति को
मार कर उसके
मालिक हो जाते
हैं तो मालिक
होने का मजा
चला जाता है।
यह कंट्राडिक्शन
है। बिना मारे
मालिक नहीं हो
सकते, और
मारा कि मजा
गया। क्योंकि
मरे हुए के
मालिक होने
में कोई मजा
नहीं आता।
इसलिए
एक पत्नी से
मन दूसरी
पत्नी पर जाता
है, दूसरी से
तीसरी पर जाता
है। एक मकान
से दूसरे मकान
पर, दूसरे
से तीसरे मकान
पर। एक गुरु
से दूसरे गुरु
पर, एक
शिष्य से
दूसरे शिष्य
पर। जिस चीज
के हम मालिक
हो जाते हैं, वह बेमानी
हो जाती है।
क्योंकि
मालिक होते ही
वह मुर्दा हो
जाती है, और
मुर्दा के
मालिक होने
में कोई
ज्यादा मजा नहीं
आता। कोई मजा
नहीं है।
जिंदा का
मालिक होना
चाहिए।
इसलिए
मालकियत में
एक दूसरा
विरोधाभास
है। और वह
विरोधाभास यह
है कि मालकियत
मारती है और मार
कर अप्रसन्न
हो जाती है।
क्योंकि
प्रसन्नता खो
जाती है।
प्रेयसी
जितना सुख
देती है उतना
पत्नी नहीं
देती। लेकिन
प्रेयसी को
तत्काल पत्नी
बनाने की
इच्छा होती
है। क्योंकि
प्रेयसी की
मालकियत
अनिश्चित है।
पत्नी की
मालकियत
सुनिश्चित
है। लेकिन
पत्नी बनते ही
वह मर गई।
मरते ही वह
बेमानी हो गई।
इसलिए
जिस व्यक्ति
को हम पा लेते
हैं वह बेमानी
हो जाता है।
हम उसे भूल
जाते हैं, वह अर्थ ही
नहीं रह जाता।
जो लोग
व्यक्तियों को
मार-मार कर
इकट्ठा करते
जाते हैं, वे
धीरे-धीरे
व्यक्तियों
से ऊब जाते
हैं। क्योंकि
मारने में
व्यर्थ श्रम
करना पड़ता है।
श्रम के बाद
फल कुछ भी
नहीं मिलता।
इसलिए
जो समझदार
परिग्रही हैं, चालाक, वे
व्यक्तियों
को छोड़ कर
वस्तुओं पर
परिग्रह बिठाने
लगते हैं।
उनको मारने की
झंझट नहीं करनी
पड़ती। वे मरी-मराई ही
होती हैं।
इसलिए जो लोग
व्यक्तियों
से परेशान
होकर ऊब गये
हैं, वे धन
इकट्ठा करने
में, पद
इकट्ठा करने
में लग जाते
हैं। वह ज्यादा
सुविधापूर्ण
है, कनवीनिएंट है। एक घर
में कुर्सी ले
आये हैं तो वह
मरी हुई ही घर
में आती है।
उसको कहां
रखना है, इसके
आप पूरे मालिक
हैं। रखना है,
नहीं रखना
है, आप
पूरे मालिक
हैं। उसको
मारने की
जद्दोजहद और
परेशानी नहीं
होती। और जब
हम किसी
व्यक्ति को घर
में लाते हैं
तो उसको भी हम
कुर्सी बनाना
चाहते हैं। जब
तक वह कुर्सी
नहीं बनता तब
तक हमें बेचैनी
रहती है। जब
वह कुर्सी बन
जाता है तब
फिर बेचैनी
शुरू हो जाती
है।
इसलिए
जो चालाक
परिग्रही हैं, वे वस्तुओं
पर मेहनत करते
हैं। जो नासमझ
परिग्रही हैं,
वे
व्यक्तियों
पर मेहनत करते
रहते हैं।
लेकिन दोनों
ही अज्ञान की
मेहनत हैं। न
तो हम
व्यक्तियों
से भर सकते हैं
अपने को, न
वस्तुओं से भर
सकते हैं अपने
को। हमारे हाथ
खाली ही रह
जायेंगे।
भरने की जगह
सिर्फ एक है।
हम अपने से भर
सकते हैं। और
कोई भराव नहीं
है। इस दुनिया
में और कोई भराव
है ही नहीं।
कभी रहा ही
नहीं है। हम
सिर्फ अपने से
भर सकते हैं।
लेकिन अपना
हमें कोई पता
नहीं है।
इस
अपने का कैसे
पता लगे? और
इस अपने के
पता लगने में
अपरिग्रह की
दृष्टि कैसे
सहयोगी हो
सकती है? तो
एक बात आप से
कहना
चाहूंगा--जो
भी आपके पास है,
आल दैट यू
हैव, जो भी
आपके पास है, उस पर एक दफा
गौर से नजर
डाल कर देखना
कि क्या उससे
आप जरा भी, रंचमात्र
भी भर सके हैं?
जो भी आपके
पास है, क्या
उसने इंच भर
भी कहीं आपको
भरा है?
सबके
पास कुछ न कुछ
है। इस "कुछ' ने आपको जरा
भी भरा हो तो
फिर आप इस "कुछ'
को बढ़ाने
में लग जाना।
थोड़ा भरा है
तो और ज्यादा
भर सकेगा, और
ज्यादा भर
सकेगा, और
ज्यादा भर
सकेगा। लेकिन
अगर इस "कुछ' ने बिलकुल न
भरा हो तो फिर
थोड़ा समझना
पड़ेगा कि यह
"कुछ' कितना
ही ज्यादा हो
जाये तो भी भर
नहीं पाएगा।
यह गणित बहुत
सीधा है, लेकिन
अनुभव हमेशा
आशा के सामने
हार जाता है।
हमारा अतीत का
अनुभव तो यही
होता है कि परिग्रह
भर नहीं पाया,
लेकिन
भविष्य की आशा
यही होती है
कि शायद कुछ और
मिल जाये, और
भर जाये।
सुना
है मैंने कि
एक गांव में
एक आदमी की
तीसरी पत्नी
मरी और उसने
फिर चौथी शादी
की। तो गांव
के लोग उसे
कुछ भेंट करना
चाहते थे, लेकिन भेंट
करते-करते थक
गये थे। तीन
दफा शादी कर
चुका था। हर
बार भेंट कम
होती चली गई
थी। जब उसने
चौथी शादी की
तो उम्र भी
बहुत हो गई थी
और गांव के
लोग भी परेशान
हो गये थे कि
अब क्या भेंट
करें। तो गांव
के लोगों ने
एक तख्ती उसे
भेंट की जिस
पर लिखा
था--अनुभव के
ऊपर आशा की
विजय। तीन
पत्नियों का
अनुभव भी उसको
चौथी पत्नी से
न रोक पाया।
पूरा गांव जानता
था कि जब तक
पत्नी जिंदा
रहती है, तब
तक वह गांव
में पत्नी के
जिंदा होने के
लिए रोता है।
और जब पत्नी
मर जाती है तो
पत्नी के मरने
के लिए रोता
है।
अनुभव
पर आशा सदा जीत
जाती है।
परिग्रही का
चित्त जो है
वह आशा से
बंधा हुआ चलता
है। अपरिग्रह
की दृष्टि तो
तभी आयेगी जब
आशा पर अनुभव
जीते। आपका
अतीत, आपका
अनुभव
पर्याप्त है
कहने को कि सब
पाकर भी कुछ
पाया नहीं गया
है। और वे जो
राष्ट्रपति के
पदों पर पहुंच
जाते हैं, वे
कुर्सियों पर
बैठ कर अचानक
पाते हैं कि
कुर्सी पर बैठ
गये, पाया
कुछ भी नहीं
गया है।
असल
में जहां पाना
है वह है दिशा
बीइंग की, और जो हम पा
रहे हैं वह है
दिशा हैविंग
की। जो हम पा
रहे हैं वे
हैं चीजें, और जो हमें
पाना है वह है
आत्मा। ये
चीजें कभी भी
आत्मा नहीं बन
सकतीं। यह
भ्रांत-दौड़ एक
जिंदगी नहीं,
अनंत
जिंदगी चलती
है। असल में
हम अपने
पुराने अनुभवों
को भुलाते
चले जाते हैं।
ऐसा नहीं है
कि पिछले जन्म
के अनुभव
हमारे भूल गये
हैं, हमने
भुला दिये
हैं। हम इसी
जन्म के
अनुभवों को भुलाते, उपेक्षा
करते चले जाते
हैं। हम सदा
ही अनुभव को
इंकार करते
चले जाते हैं
और हम सोचते
हैं कि जो अब
तक हुआ उससे
भिन्न आगे हो
सकता है। अनेक
जन्मों का
अनुभव भी हमें
इस बात से
नहीं रोक पाता
है कि हम
वस्तु को
आत्मा न बना
सकेंगे। हैविंग,
बीइंग नहीं
बन सकता है।
वह असंभावना
है।
लेकिन
कभी-कभी ऐसा
होता है कि असंभव
की भी
आकांक्षा बड़ी
रसपूर्ण होती
है। जो नहीं
हो सकता, उसको
करने का भी
दिल होता है।
कई बार तो
इसीलिए होता
है कि वह नहीं
हो सकता। अब
चांद पर चढ़ने
का मजा चला
गया। हजारों
साल से आदमी
को था। चांद
पर पहुंचने की
आकांक्षा बड़ी
रसपूर्ण थी, क्योंकि वह
असंभव मालूम पड़ता
था। वह इतना
असंभव मालूम
पड़ता था कि जो
लोग चांद पर
पहुंचने का
खयाल करते थे,
उनको हम
पागल समझते
थे।
अंग्रेजी
का तो जो पागल
के लिए शब्द
है लूनाटिक, उसका मतलब
है चांदमारा।
वह लूना से
बना है। जिस
आदमी के दिमाग
में चांद छा
गया, जो अब
चांद पर
पहुंचना
चाहता है, तो
उसको पागल
कहते थे।
हिंदी में भी
पागल के लिए चांदमारा
शब्द है। जिस
पर चांद का
हमला हो गया, जो असंभव से
पीड़ित हो गया।
लेकिन
हम सब चांदमारे
हैं, हम सब लूनाटिक
हैं। लूनाटिक
इस अर्थ में
कि हम सब
असंभव के लिए
चाहते रहते हैं।
सबसे बड़ा
असंभव इस जगत
में क्या है--द
मोस्ट
इंपासिबल? चांद
पर पहुंचा जा
सकता है, इसलिए
अब चांद पर
पहुंचने
वालों को लूनाटिक
कहना ठीक नहीं
है। अब बात
खतम हो गयी।
अब यह शब्द
बदल देना
चाहिए। अब चांदमारा
पागल का
पर्यायवाची
नहीं रहा। अब
तो चांद पर बुद्धिमान
आदमी पहुंच
गये हैं, शायद
मंगल पर पहुंचें,
फिर शायद
किसी तारे पर
पहुंचें।
लेकिन ये सब कठिन
हैं, असंभव
नहीं हैं।
असंभव
सिर्फ जगत में
मेरे हिसाब से
एक चीज है और
वह यह है कि
वस्तु को कभी
भी आत्मा नहीं
बनाया जा
सकेगा--हैविंग
कैन नाट बी ट्रांसफार्म्ड
इनटू बीइंग।
वह एक
असंभावना है
जो सुनिश्चित रूप
से असंभव
रहेगी।
इसलिए
महावीर या
बुद्ध या जीसस
उन लोगों को
पागल कहते हैं
जो परिग्रह
में पड़े हैं।
परिग्रही, अर्थात
पागल। वह एक
ऐसे काम में
लगा है जो हो ही
नहीं सकता है।
हो सकता है कि
नहीं हो सकता,
यही उसका
आकर्षण हो।
लेकिन आकर्षण
से असत्य सत्य
नहीं बनते। परिग्रह
का सत्य यह है
कि वह
असंभावना है।
सुना
है मैंने कि
सिकंदर से डायोजनीज
ने एक बार कहा
था कि तू अगर
पूरी दुनिया
पा लेगा, तो
तूने कभी सोचा
है कि फिर
क्या करेगा? सिकंदर, कहते
हैं, सुन
कर उदास हो
गया और सिकंदर
ने कहा, यह
मेरे खयाल में
नहीं आया। ठीक
कहते हैं आप।
दूसरी तो कोई
दुनिया नहीं
है। अगर मैं एक
पा लूंगा तो
फिर क्या
करूंगा। एकदम अनएंप्लाएड
हो जाऊंगा,
बेकार ही हो
जाऊंगा।
सिकंदर उदास
हो गया यह जान
कर कि दूसरी
दुनिया नहीं
है। इसका मतलब?
इसका मतलब
यह कि जब वह
पूरी दुनिया
पा लेगा तब कितनी
उदासी होगी, अभी तो
सिर्फ खयाल
है।
आपने
कभी सोचा नहीं
कि जो आप
चाहते हैं, अगर पा
लेंगे तो क्या
होगा। अगर इस
दुनिया में
किसी दिन ऐसा
इंतजाम किया
जा सके जैसा
कि कथाओं में
वर्णन है, कि
स्वर्ग में
है--अगर हम कभी
इस दुनिया में
कल्पवृक्ष
बना सके तो
प्रत्येक
आदमी को
महावीर हो
जाना पड़ेगा।
अगर हम किसी
दिन
कल्पवृक्ष
बना सकें इस
दुनिया में, और
कल्पवृक्ष के
नीचे जो आपने
चाहा वह
तत्काल मौजूद
हो गया, तो
सारी दुनिया
अपरिग्रही हो
जायेगी। कोई
परिग्रह नहीं
रह जायेगा।
क्योंकि जैसे
ही कोई चीज
आपको तत्काल
मिल जाये, आप
हैरान होते
हैं कि मिलते
ही वह बेकार
हो गयी। आप
फिर पुरानी
जगह खड़े हो गये,
जहां आप
मिलने के पहले
थे। वही रुख
किसी और चीज
के लिए हो
गया। आप एक
भूख हैं, एक
खालीपन, एक
रिक्तता, जो
हर चीज के बाद
फिर आगे आकर
खड़ी हो जाती
है। आदमी एक
क्षितिज की
भांति, होरीजन की भांति
है।
देखते
हैं, आकाश छूता
हुआ मालूम
पड़ता है जमीन
को। चलते चले
जायें, लगता
है यही रहा
पास--दस मील
होगा, बीस
मील होगा। अभी
पहुंच
जायेंगे।
पहुंचते हैं
और पाते हैं
कि आकाश बीस
मील आगे हट
गया। हट नहीं
सकता था अगर
वहां होता।
आपके चलने से
आकाश के हटने
का कोई संबंध
नहीं है। आकाश
कभी भी कहीं
पृथ्वी को
नहीं छूता है,
सिर्फ छूता
हुआ दिखायी
पड़ता है।
पृथ्वी गोल है,
और इसलिए
आकाश छूता हुआ
दिखाई पड़ता
है। आकाश कहीं
भी छूता नहीं।
मनुष्य
की वासनाएं
सर्कुलर हैं, गोल हैं, और
इसलिए आशा
उपलब्धि बनती
हुई दिखायी
पड़ती है, कभी
बनती नहीं।
मनुष्य की
वासनाएं वर्तुलाकार
हैं, जैसे
पृथ्वी गोल है,
और आशा का
आकाश चारों
तरफ है, तो
ऐसा लगता है, ये रहे दस
मील। अभी
पहुंच जाऊंगा
जहां आशा
उपलब्धि बन
जायेगी, जहां
जो मैंने चाहा
है, वह मिल
जायेगा और मैं
तृप्त हो जाऊंगा।
दस मील चल कर
पता चलता है
कि होरीजन
आगे चला गया।
आकाश आगे बढ़
गया, वह अब
और आगे जाकर
छू रहा है।
फिर हम बढ़ते
हैं, और
जिंदगी भर
बढ़ते रहते हैं,
और अनेक
जिंदगी बढ़ते
रहते हैं।
और मजा
यह है कि हमें
यह कभी खयाल
नहीं आता कि दस
मील पहले जो
आकाश छूता हुआ
दिखायी पड़ता
था, वह फिर दस
मील आगे
दिखायी पड़ने
लगा। कहीं ऐसा
तो नहीं है कि
आकाश छूता ही
नहीं। अन्यथा
आकाश आप से डर
कर भाग रहा हो
और जमीन को
छूने के स्थान
बदल रहा हो, ऐसा तो नहीं
हो सकता।
फिर और
बड़े मजे की
बात है कि
हमसे दस मील
आगे जो और खड़े
हैं वे भी भाग
रहे हैं और
जहां हमें लगता
है कि आकाश
छूता है, वहां
खड़े लोग भी और
आगे भाग रहे
हैं। उन लोगों
के भी जो आगे
हैं, जहां
उन्हें लगता
है कि आकाश
छूता है, वे
भी भाग रहे
हैं। जब सारी
पृथ्वी भाग
रही हो, तो
जिन्हें थोड़ा
भी विवेक है, उन्हें यह
स्मरण आ जाना
कठिन नहीं है
कि आकाश पृथ्वी
को कहीं छूता
ही नहीं। छूना
सिर्फ एपियरेंस
है, सिर्फ
छूता हुआ
मालूम पड़ता
है। आशा कहीं
उपलब्धि नहीं
बनती। वासना
कहीं तृप्ति
नहीं बनती, कामना कहीं
पूर्ण नहीं
होती, सिर्फ
छूती हुई, होती
हुई मालूम
पड़ती है! और
आदमी दौड़ता
चला जाता है।
इसलिए
परिग्रह के
संबंध में
अपने
अतीत-अनुभव को
पूरा-का-पूरा
देख लेना
जरूरी है। लेकिन
हम धोखा देने
में कुशल हैं।
दूसरे को धोखा
देने में उतने
कुशल नहीं हैं
जितना अपने को
धोखा देने में
कुशल हैं।
दूसरे को धोखा
देना बहुत
मुश्किल भी है, क्योंकि
दूसरा जो है
वहां। पर अपने
को धोखा देना
बहुत आसान है,
सेल्फ
डिसेप्शन
बहुत ही आसान
है। हम अपने
को धोखा दिये
चले जाते हैं।
एक
रुपया, मैं
सोचता हूं, मुझे मिल
जाये तो
आनंदित हो जाऊंगा।
रुपया मेरे
हाथ में आ
जाता है, आनंदित
बिलकुल नहीं
होता। सोचता
हूं, दूसरा
रुपया मिल
जाये; लेकिन
दूसरा रुपया
भी पहले रुपये
की प्रतिलिपि
है, कापी
है, यह
खयाल में नहीं
आता। दूसरा भी
मिल जाता है।
तीसरा रुपया
भी मिल जाता
है, तीसरा
रुपया भी
दूसरे की
प्रतिलिपि
है। वह भी उसी
का चेहरा है।
तीसरा भी मिल
जाता है। ये
मिलते चले
जाते हैं, मिलते
चले जाते हैं।
एक दिन मैं
पाता हूं कि मैं
तो खो गया, रुपये
ही रुपये हो
गये हैं।
लेकिन वह जो
पहले रुपये के
वक्त जो आकाश
कहीं मुझे
छूता मालूम
पड़ता था, वह
करोड़
रुपये के बाद
भी वहीं छूता
हुआ मालूम
पड़ता है।
फासला उतना ही
है, जितना
एक रुपये की
आशा में था, उतना ही करोड़
रुपये के बाद
फिर पुनः उसी
आशा में है।
इसलिए
कभी-कभी हमें
हैरानी होती
है कि करोड़पति
भी एक रुपये
के लिए इतना
पागल क्यों
होता है! करोड़पति
भी एक रुपये
के लिए उतना
ही दीवाना
होता है जितना
जिसके पास एक
नहीं है वह
होता है; क्योंकि
फासला दोनों
का सदा बराबर
है। आशा और उपलब्धि
का फासला वही
है। आपके पास
कितना है इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। वह जो
आगे है, जो
नहीं है आपके
पास, वह दौड़ाता
चला जाता है।
और कई
बार तो करोड़पति
और भी कृपण हो
जाता है, क्योंकि
उसके अनुभव ने
कहा कि करोड़
रुपये हो गये,
फिर भी अभी
उपलब्धि नहीं
हुई। जीवन तो
चुक गया। अब
एक-एक रुपये
को जितने जोर
से पकड़
सके--क्योंकि
जीवन चुक रहा
है। इधर जीवन
समाप्त हो रहा
है। जब एक
रुपया पास था
तो जीवन भी
पास था। दौड़
भी थी, ताकत
भी थी, पर
अब वह भी खतम
हो गयी। अब करोड़
रुपये तो पास
हो गये हैं, पर जीवन की
शक्ति क्षीण
हो गयी है।
इसलिए बूढ़ा होतेऱ्होते
आदमी और
परिग्रही हो
जाता है, और
जोर से पकड़ने
लगता है कि अब
जिंदगी तो
बहुत कम है।
जितनी जल्दी,
जितना
ज्यादा पकड़ा
जा सके, जितनी
जल्दी जितनी
यात्रा की जा
सके...!
सुना
है मैंने, एलिस नाम की एक
लड़की स्वर्ग
पहुंच गयी है
और वहां जाकर
तकलीफ में है।
भूखी है, प्यासी
है, खड़ी
है। दूर की
यात्रा है
जमीन से
स्वर्ग तक की,
परियों के
देश तक की, और
फिर परियों की
रानी उसे
दिखायी पड़ी, वृक्ष के
नीचे खड़ी है
और बुला रही
है। आवाज सुनायी
पड़ती है।
आवाजें बड़ी
भ्रामक हैं, वे सुनायी
पड़ती हैं। हाथ
दिखायी पड़ता
है। हाथ बड़े
भ्रामक हैं, वे दिखायी
पड़ते हैं। और
उसके आस-पास मिठाइयों
का ढेर लगा है,
फल-फूल का
ढेर लगा है; और वह भूखी
लड़की दौड़ना
शुरू कर देती
है। सुबह है, सूरज उग रहा
है। वह भागती
है, भागती
है। दोपहर हो
गयी, सूरज
सिर पर आ गया, लेकिन फासला
उतना का उतना
है।
लेकिन
वह लड़की लड़की
है, अगर बूढ़ी
होती तो रुक
कर सोचती भी
नहीं। वह लड़की
खड़ी होकर
सोचती है कि
बात क्या है? सुबह हो गयी,
दोपहर हो
गयी
दौड़ते-दौड़ते,
और जो इतनी
निकट मालूम
पड़ती थी रानी,
अब भी उतनी
ही निकट है!
कुछ भी फर्क
नहीं पड़ा। डिस्टेंस
वही है! तो वह
चिल्ला कर
पूछती है कि रानी,
यह
तुम्हारा देश
कैसा है? सुबह
से दोपहर हो
गयी
दौड़ते-दौड़ते,
लेकिन
फासला कम नहीं
होता।
रानी
कहती है कि तू
थोड़ा धीरे
दौड़ती है, इसलिए फासला
कम नहीं होता।
जरा तेजी से
दौड़। तू दौड़
की ताकत कम
लगा रही है, दौड़ काफी
नहीं है।
यह बात
लड़की की समझ
में आ जाती
है। बूढ़े की
समझ में भी आ
जाती है तो
लड़की की समझ
में आ जाये तो
बहुत कठिन
नहीं। उसकी
समझ में आ
जाती है कि
जरूर फासला
इसीलिए पूरा नहीं
होता है कि
दौड़ कमजोर है।
इसलिए वह और
तेजी से दौड़ती
है। फिर सांझ
सूरज ढलने
लगता है, लेकिन
फासला उतना का
उतना ही है।
फिर वह चिल्ला
कर पूछती है
कि अब तो
अंधेरा भी
उतरने लगा। वह
रानी कहती है,
तेरी दौड़
कमजोर है। वह
लड़की और तेजी
से दौड़ती है।
अब तो अंधेरा
भी काफी छाने
लगा है, और
रानी का
दिखायी पड़ना
मुश्किल होने
लगा है। अब वह
अंधेरे में
चिल्ला कर
पूछती है, तेरा
देश कैसा है!
अब तो रात भी
उतर आयी, अब
पहुंचने की
आशा भी खोती
है।
रानी
की खिलखिलाहट
सुनायी पड़ती
है और वह कहती
है, पागल
लड़की, शायद
तुझे पता नहीं,
दुनिया में
सब जगह--जिस
पृथ्वी से तू
आती है, उस
जगह भी--कोई
कभी वहां नहीं
पहुंचता, जहां
पहुंचना
चाहता है।
फासला सदा वही
रहता है, जो
शुरू करते
वक्त होता है।
जन्म
के दिन जितना
फासला है, मृत्यु के
दिन उतना ही
फासला होता
है। सिर्फ एक
फर्क पड़ता है।
जन्म के दिन
सूरज निकलता
है, मृत्यु
के दिन सूरज
ढलता है और
अंधेरा हो रहा
होता है। जन्म
के दिन आशाएं
होती हैं, मृत्यु
के दिन फ्रस्ट्रेशन्स
होते हैं, विषाद
होता है, हार
होती है। जन्म
के दिन आकांक्षाएं
होती हैं, अभीप्साएं
होती हैं, दौड़ने
का बल होता है;
मृत्यु के
दिन थका मन
होता है, हार
होती है, टूट
गये होते हैं।
लेकिन फिर भी
ऐसा समझने की कोई
जरूरत नहीं है
कि मरता हुआ
आदमी
अपरिग्रही हो
जाता हो। मरता
हुआ आदमी भी
यही सोचता है,
काश थोड़ी
ताकत और होती,
और थोड़े दिन
और शेष होते
तो दौड़ लेता!
पहुंच जाता!
ऐसी
कथा है कि एक
सम्राट की मौत
करीब आ गयी।
सौ वर्ष पूरे
हो गये। मौत
भीतर आयी और
उसने सम्राट
से कहा, मैं
लेने आ गयी
हूं। आप तैयार
हो जायें। मौत
सभी के पास
आकर कहती है, आप तैयार हो
जायें। हम न
सुनें, यह
बात दूसरी है;
हम बहरे बन
जायें, यह
बात दूसरी है।
सम्राट
ने कहा, वक्त
आ गया जाने का,
लेकिन अभी
तो मैं कुछ भी
न भोग पाया।
अभी तो सब आशाएं
ताजी हैं, और
अभी कोई चीज
पूरी नहीं
हुई। अभी मैं
कैसे जा सकता
हूं? लेकिन
मौत ने कहा कि
मुझे तो किसी
को ले ही जाना
पड़ेगा। अगर
तुम्हारा कोई
बेटा राजी हो
तुम्हारी जगह
मरने को, तो
मैं उसे ले
जाऊं! वह अपनी
उम्र तुम्हें
दे दे। सम्राट
ने अपने बेटे
बुलाये, बहुत
बेटे थे उसके,
सौ बेटे थे।
बहुत रानियां
थीं उसकी।
उसने उन सब
बेटों से कहा,
कौन है जो
मुझे अपनी
उम्र दे दे, क्योंकि अभी
तो मेरा कुछ
भी पूरा नहीं
हुआ।
लेकिन
वे बेटे भी
आदमी थे और जब
मरता हुआ सौ
वर्ष का बूढ़ा
भी जिंदा रहना
चाहे तो पचास
साल का उसका
बेटा क्यों
जिंदा रहना न
चाहे? अस्सी
साल का उसका
बेटा जिंदा
क्यों न रहना
चाहे? और
बीस साल का
उसका बेटा
जिंदा क्यों न
रहना चाहे? वे
निन्यानबे
बेटे तो चुप
होकर बैठ गये।
जो सबसे कम
उम्र का बेटा
था वह उठ कर
खड़ा हुआ। उसकी
उम्र कोई
पंद्रह-सोलह
साल थी। उसने
कहा कि मेरी
उम्र ले लें।
मौत ने उसे
बहुत रोका कि
पागल तू यह
क्या कर रहा
है!
उसने
कहा कि जब
मेरे पिता सौ
वर्ष में कुछ
पूरा नहीं कर
पाये, तो
मैं भी क्या
पूरा कर
पाऊंगा! उनको
दे जाता हूं।
शायद दो सौ
वर्ष में वे
कुछ पूरा कर पायें। सौ
वर्ष ही तो
मेरे पास हैं
न! और मेरा भी
कोई बेटा शायद
ही राजी होगा
जिस दिन मुझे
उम्र की जरूरत
पड़ेगी।
क्योंकि
देखता हूं कि
निन्यानबे
बेटों में से
कोई राजी नहीं
है, तो
मेरा बेटा भी
शायद ही कोई
राजी होगा। और
उस बेटे ने
मौत से कहा कि
कम-से-कम मुझे
यह तो रहेगा कि
अपनी कोई आशा
विफल न हुई, क्योंकि
हमने कोई आशा
ही न की। तो
आनंद के साथ तो
मर सकूंगा।
पिता तो बहुत
विषाद से मर
रहे हैं। इतनी
कृपा करना मुझ
पर, कि जब
सौ साल बाद
पिता फिर से मरें, तो
मुझे जरा खबर
कर देना कि
क्या हालत
बनी।
सौ
वर्ष बीत गये।
वर्ष बीतने
में देर नहीं
लगती। सौ वर्ष
बीत गये, मौत
फिर से द्वार
पर खड़ी हो गयी
है आकर। सम्राट
ने कहा, लेकिन
अभी तो सब
आशाएं अधूरी
हैं, कोई
सपने पूरे
नहीं हुए। तब
तक उसके
पुराने सौ बेटे
मर चुके हैं, लेकिन और सौ
बेटे पैदा हो
गये हैं। उसने
कहा, मेरे
बेटों को बुलाओ।
मौत ने कहा, देखते नहीं
आप, दो सौ
वर्ष में भी
कुछ नहीं हो
पाया। उसने
कहा, थोड़ा
और समय मिल
जाये तो शायद
पूरा हो जाये।
वह
"शायद', वह
"परहेप्स'
आखिरी
मृत्यु के
क्षणों में भी
खड़ा रहता है।
शायद पूरा हो
जाये! ठीक, सौ
बेटे बुलाये
गये, फिर
एक बेटा राजी
हो गया। मौत
ने उसे भी
समझाया कि तू
पागल है। पर
उसने कहा, बेहतर
हो कि तू
हमारे पिता को
समझा कि वह
पागल हैं।
क्योंकि दो सौ
वर्ष में कुछ
पूरा नहीं हो
पाया तो मैं
भी क्या कर
पाऊंगा? उस
बेटे ने मरने
के पहले अपने
पिता से पूछा
कि थोड़ा-बहुत भी
पूरा हुआ है
दो सौ वर्षों
में? उसके
पिता ने कहा, थोड़ा-बहुत? कुछ भी पूरा
नहीं हुआ। मैं
वहीं खड़ा हूं
जहां मैं आया
था पृथ्वी पर,
तब था। तो
उस बेटे ने
कहा, मैं
खुशी से जाता
हूं, कोई
विषाद नहीं
है।
कहते
हैं, ऐसा एक
हजार साल तक
हुआ। वह बूढ़ा
एक हजार साल
तक जीया। उसके
बेटे बदलते
चले गये, उसकी
उम्र बढ़ती चली
गयी, और जब हजारवें
वर्ष मौत आयी
तो मौत थक
चुकी थी, लेकिन
वह बूढ़ा नहीं
थका था। और
मौत ने कहा, बस, अब
नहीं। अब काफी
हो गया। मैं
कब तक आती
रहूंगी? तुम
अनुभव से
सीखते ही
नहीं। उस बूढ़े
ने कहा, लेकिन
अभी तो कुछ भी
नहीं हुआ। अभी
तो सब वहीं का
वहीं रिक्त और
खाली है। थोड़ा
समय शायद मिल जाये
तो कुछ हो
सके। यह बात
वह दस बार मौत
से कह चुका
है। इस बूढ़े
पर हंसना मत
आप, यह
कहानी नहीं है,
यह हम सबकी
कहानी है। यह
बात हम भी मौत
से हजार बार
कह चुके हैं, याद नहीं
है। उसको भी
याद नहीं था।
अगर उसको भी
याद होता कि
दस बार यही
बात कही जा
चुकी है, तो
शायद दसवीं
बार कहने में
हिम्मत टूट
जाती। वह भी
भूल चुका था।
उसने मौत से
कहा, कौन-सा
अनुभव? कैसा
अनुभव? उस
मौत ने कहा, मैं दस बार आ
चुकी हूं। उस बूढ़े
ने कहा, मुझे
कुछ स्मरण
नहीं।
असल
में दुख को हम
भुलाना चाहते
हैं और हम भूल जाते
हैं। जो-जो
दुख है उसे हम
भूल जाते हैं, जो-जो सुख है
उसे हम सम्हाल
कर रखते हैं।
जो-जो दुख है
उसे हम छोटा
करते जाते हैं,
जो-जो सुख
है उसे हम
धीरे-धीरे मन
में बड़ा करते जाते
हैं। इसलिए
बूढ़ा आदमी
कहता है, बचपन
में बहुत सुख
था। कोई बच्चा
नहीं कहता। बच्चा
कहता है, कितनी
जल्दी बड़े हो
जायें। बड़े के
पास बहुत सुख
मालूम पड़ता
है। कोई बच्चा
सुखी नहीं है।
लेकिन सब बूढ़े
कहते हैं, बचपन
में बहुत सुख
था। बच्चे
बहुत जल्दी
बड़े होना
चाहते हैं। सब
बच्चे परेशान
हैं, क्योंकि
उनको हजार तरह
के दुख हैं।
बच्चा होना भी
बड़ा दुख है
बड़ों की
दुनिया में।
चारों तरफ बड़े
हैं और एक
छोटा बच्चा
है। बड़े गंभीर
चर्चा कर रहे
हैं और उसे
खेलने की
आज्ञा नहीं
है। और उस
छोटे बच्चे को
बड़ों की गंभीर
चर्चा एकदम
निपट नासमझी
की मालूम पड़ती
है, खेल
सार्थक मालूम
पड़ता है। सब
तरफ दबाव है, सब तरफ
आज्ञा है--यह
मत करो, वह
मत करो। बच्चा
बहुत जल्दी
बड़ा होना
चाहता है कि
कब वह बड़ा हो
जाये और
दूसरों से कह
सके कि यह मत
करो। लेकिन सब
बूढ़े कहते हैं
कि बचपन बहुत
सुखद था।
उन्होंने
बचपन के सब
दुख भुला
दिये।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, आप
कहेंगे कि
नहीं, एक
आदमी अगर सौ
बार मरा हो, दस बार मौत
आयी हो उसकी, तो भूल नहीं
सकता। आप
जन्मे थे, आपको
याद है जन्म
की? निश्चित
ही एक बात तो
कम-से-कम
पक्की है ही, पीछे के
जन्मों को हम
छोड़ दें, इस
बार आप जन्मे
हैं इतना तो
पक्का ही है।
लेकिन आपको
कोई याद है
जन्म की? जन्म
इतनी दुखद
प्रक्रिया है
कि उसकी याद
मन नहीं
बनाता। मां
जितना दुख
झेलती है जन्म
देते वक्त, वह कुछ भी
नहीं है, जो
बेटा झेलता
है। और मां तो
बहुत जल्दी
प्रसव-पीड़ा से
मुक्त हो
जायेगी। कोई
कारण नहीं है,
लेकिन बेटा,
वह जो दुख
झेलता है वह
इतना भारी है
कि उसे अपनी
स्मृति से हटा
देता है।
हमारी
स्मृति पूरे
वक्त चुनाव कर
रही है कि क्या
बचाना है, क्या हटाना
है। अगर हमें
कोई बताने
वाला न हो कि
हम जन्मे हैं,
तो हमें पता
ही नहीं चलेगा
कि हम जन्मे
हैं। लेकिन
जन्म के वक्त
आप थे, जन्म
की घटना आपके
ऊपर घटी है।
जन्म की घटना
से आप गुजरे
हैं, लेकिन
उसकी स्मृति
कहां है? उसकी
स्मृति नहीं
है, क्योंकि
वह बहुत दुखद
घटना है। मां
के अंधकारपूर्ण
पेट से, परम
विश्राम से, जहां श्वास
लेने की तकलीफ
भी नहीं है, जहां जीने
के लिए भी कुछ
करना नहीं पड़ता,
सिर्फ जीना
है।
मनोवैज्ञानिक
तो हजार-हजार
अनुभव के आधार
पर कहते हैं
कि मनुष्य को
मोक्ष की जो
कल्पना आयी है, वह गर्भ की
स्मृति से आयी
है। गर्भ में
इतनी शांति है,
इतना मौन है,
टोटल साइलेंस
है, कोई
श्रम नहीं है।
कुछ करना नहीं
है, सिर्फ
होना है। उस
होने की
दुनिया से एक
झटके के साथ
उस दुनिया में
आना जहां
जिंदा रहना हो
तो श्वास भी
लेनी पड़ेगी, भोजन भी
लेना पड़ेगा, रोना भी
पड़ेगा, चिल्लाना
भी पड़ेगा।
जहां जिंदगी
कठिनाइयों से
गुजरेगी।
उतने बड़े शांत
और सुखद अनुभव
से इतने बड़े
दुखद अनुभव
में प्रवेश!
बच्चा भूल जाता
है।
लेकिन
गहरी
हिप्नोसिस
में आपको याद
दिलाया जा
सकता है कि आप
जब पैदा हुए
तो आपका अनुभव
क्या था। गहरी
सम्मोहन की
अवस्था में या
गहरे ध्यान
में, आपको मां
के पेट के
अनुभव भी याद
दिलाये जा सकते
हैं। अगर आपकी
मां गिर पड़ी
थी तो वह जो
चोट लगी थी, उसकी खबर भी
आप तक पहुंची
थी। वह भी
आपकी स्मृति
का हिस्सा है,
लेकिन हम
भूल गये हैं।
ठीक ऐसे ही हम
भी बहुत बार
मरे हैं, जैसा
वह राजा ययाति,
जिसकी मैं
कहानी कह रहा
था, दस बार
मौत आयी लेकिन
भूलता चला
गया। उसने कहा,
मैं तो तुझे
पहचानता ही
नहीं हूं। मैं
तो सोचता हूं
तू पहली बार ही
आयी है, थोड़ा
समय मुझे मिल
जाये तो मैं
अपनी आकांक्षाएं
पूरी कर लूं।
लेकिन उस मौत
ने कहा कि
नहीं अब बहुत
हो चुका। तुम
हजार साल के
अनुभव से नहीं
सीखे, तो
तुम करोड़
वर्ष के अनुभव
से भी नहीं
सीख सकते हो।
जिसे
सीखना है वह
एक अनुभव से
भी सीखता है, जिसे नहीं
सीखना है वह
अनंत अनुभव से
भी नहीं
सीखता। हम ऐसे
ही लोग हैं, जिन्होंने
सीखना बंद कर
दिया है। ये
जिनको हम महावीर
या कृष्ण या
बुद्ध कहते
हैं, ये वे
लोग हैं जो
जिंदगी के
अनुभव से
सीखते हैं। हम
ऐसे लोग हैं
जो सीखते ही
नहीं। हम ऐसे
लोग हैं
जिन्होंने
जान-बूझ कर
आंखें बंद कर
रखी हैं और
सीखेंगे
नहीं। और वही
करते चले
जायेंगे जो हम
कर रहे थे; और
वही भोगते चले
जायेंगे जो हम
भोग रहे थे; और वही
आशाएं, वही
विषाद, वही
पुनरावृत्ति
और वही चक्र!
कभी
आपने शायद
खयाल न किया
हो, हमारा
शब्द है:
संसार। संसार
का मतलब होता
है: द ह्वील,
चक्र, जिसमें
वही स्पोक
बार-बार लौट
आते हैं, जिसमें
वही धुरी
बार-बार घूमने
लगती है। वह
जो भारत के
झंडे पर चक्र
बनाया हुआ है,
वह उन
राजनीतिज्ञों
को पता नहीं
है कि किसलिए
बना लिया है।
बस, अशोक
के स्तंभ पर
बना था तो
सोचा कि अशोक
का चिह्न है, उसे चुन
लिया है।
लेकिन
राजनीतिज्ञ
कैसे समझ
पायेगा कि वह
चक्र एक
धार्मिक
प्रतीक है। और
जितने चक्कर
में राजनीतिज्ञ
रहता है, उतने
चक्कर में तो
कोई नहीं रहता
है। वह तो चक्के
के भीतर है, वह तो स्पोक्स
को पकड़ कर
बैठा हुआ है, घूम रहा है
पूरे वक्त।
कुछ दूसरे
उसको छुड़ाने
की भी कोशिश कर
रहे हैं, तो
भी छूटता नहीं
है। वे दूसरे
भी उसे छुड़ा
कर उसके स्पोक
को खुद पकड़
लेना चाहते
हैं। और उन्हें
कभी खयाल नहीं
आता है कि जिस
भांति वे उसको
छुड़ाने
की कोशिश कर
रहे हैं, कुछ
लोग उनको छुड़ाने
की भी कोशिश
करेंगे, जब
वे पकड़ लेंगे।
वह चल रहा है
पूरे वक्त।
जगत, संसार, एक
चक्र है। जिस
चक्र में हम
वही किये चले
जाते हैं, वही
दोहराये
चले जाते हैं।
कल भी आपने
क्रोध किया था,
और कल भी आप पछताये थे,
और कल भी
आपने कसम खायी
थी कि अब
क्रोध नहीं करेंगे।
आज फिर आप
क्रोध करेंगे,
आज फिर आप पछतायेंगे,
आज फिर आप
कसम खायेंगे कि
क्रोध नहीं
करेंगे। कल भी
यही होगा, परसों
भी यही होगा।
हम आदमी हैं
या मशीन हैं? यंत्र अगर
घूमता चला
जाये तो समझ
में आता है, आदमी भी
घूमता चला
जाये तो शक
होता है कि यह
आदमी है या
मशीन है।
लोग
कहते हैं कि
आदमी जो है वह रेशनल
एनिमल है, लेकिन आदमी
इसका कोई सबूत
नहीं देता।
आदमी को देख
कर बिलकुल पता
नहीं चलता कि
आदमी
बुद्धिमान
है। आदमी से
ज्यादा बुद्धिहीन
प्राणी खोजना
बहुत मुश्किल
है। आदमी
सीखता ही
नहीं। जो
बड़ी-से-बड़ी
बात सीखने की
हो सकती है
जिंदगी में, वह यह है कि
परिग्रह एक
व्यर्थता है।
वस्तुएं व्यर्थ
हैं, यह
मैं नहीं कह
रहा हूं। आपके
घर में कुर्सी
है, यह
व्यर्थ है, यह मैं नहीं
कह रहा हूं।
कुर्सी कैसे
व्यर्थ हो
सकती है? कुर्सी
तो बैठने के
काम आती है, आ सकती है।
मैं यह नहीं
कह रहा कि
आपके पास मकान
है, वह
व्यर्थ है।
मकान रहने के
काम आ सकता है,
आता है, आना
चाहिए।
वस्तुएं
व्यर्थ हैं, यह मैं नहीं
कह रहा।
वस्तुओं की
अपनी सार्थकता
है। जो मैं कह
रहा हूं वह यह
कह रहा हूं कि
वस्तुओं से हम
अपने को भर
लेंगे, इसकी
कोई सार्थकता
नहीं है।
वस्तुएं
हमारी आत्माएं
बन जायेंगी,
इसका कोई
उपाय नहीं है।
परिग्रह
के प्रति अगर
हम थोड़ी-सी भी
आंख खोल कर
देख लें तो हम
अचानक
पायेंगे कि हम
उस दुनिया में
प्रवेश करने
लगे हैं, जहां
पजेसिवनेस
छूटती है, और
खोती है, और
विदा हो जाती
है। फिर जिस
दिन हम पकड़
छोड़ देते हैं
उस दिन एक
घटना घटती है
कि हम अकेले
ही रह जाते
हैं। न तो
पत्नी रह जाती
है, न
मित्र रह जाते
हैं, न भाई
रह जाते हैं, न मकान रह
जाता है। ये
सब अपनी जगह
हैं। ये एक बड़े
खेल के हिस्से
हैं।
और यह
खेल ठीक वैसा
है जैसा लोग
शतरंज खेलते हैं।
उसमें कोई
घोड़ा होता है, कोई हाथी
होता है, लेकिन
कभी कोई इस
भ्रम में नहीं
पड़ता कि इस घोड़े
पर सवारी की
जाये। शतरंज
के खेल और
नियम के भीतर
घोड़ा बड़ा
सार्थक है, उसकी अपनी
उपयोगिता है,
उसकी अपनी
चाल है, उसकी
अपनी हार और
जीत है। लेकिन
कभी-कभी लोग शतरंज
में भी पागल
हो जाते हैं।
इजिप्त
में एक सम्राट
शतरंज में
पागल हो गया। वह
धीरे-धीरे
इतना पागल हो
गया कि उसने
असली घोड़े छुड़वा
दिये अपने
अस्तबलों से
और शतरंज के
घोड़े बंधवा
दिये। वह
दिन-रात घोड़ेऱ्हाथियों
में जीने लगा
शतरंज के, और जब उस पर
हमला होने की
संभावना आयी
तो उसने कहा
कि शतरंज के
सब घोड़े लगा
दो। तब तो
उसके दरबार के
लोगों ने कहा
कि अब दिमाग
पूरा खराब हो गया
है। अब बड़ी
मुश्किल है, इसको कैसे
ठीक किया जाये,
यह कैसे ठीक
होगा?
तो देश
के सब विचारक, समझदार लोग,
वाइज़ मैन बुलाये
गये और उनसे
पूछा गया कि
यह कैसे ठीक
होगा।
उन्होंने कहा
कि इसने शतरंज
के खेल को
जिंदगी समझ
लिया है। एक
बूढ़ा आदमी जो
उन बुद्धिमानों
में आया हुआ
था वह उठ कर जाने
लगा। उसने कहा,
सम्राट ठीक
नहीं होगा।
क्योंकि जो
ठीक करने आये
हैं, इनमें
और उसमें बहुत
फर्क नहीं है।
इसने शतरंज के
खेल को जिंदगी
समझा हुआ है
और इन लोगों
ने जिंदगी को
शतरंज का खेल
बनाया हुआ है।
ये दोनों एक
से हैं। इनमें
बहुत फर्क
नहीं है।
उस
बूढ़े को उस सम्राट
ने पकड़ लिया
कि तुम कुछ
बुद्धिमानी
की बात कह रहे
हो। अगर हम
दोनों एक से
पागल हैं तो
तुम कुछ
बुद्धिमानी
की बात कह रहे
हो। मैं क्या करूं? तो उसने कहा
कि तुम कुछ मत
करो, तुम
सिर्फ शतरंज
खेलो, जोर
से शतरंज
खेलो। बड़े
शतरंज के खिलाड़ी
बुलाये गये और
राजा को उनके
साथ शतरंज
खेलने में लगा
दिया गया। साल
भर में ऐसा
हुआ कि राजा
ठीक हो गया और
उसके साथ खेलने
वाले पागल हो
गये। हो ही
जायेंगे।
राजा ठीक हो
गया, क्योंकि
साल भर
दिन-रात खेलता
ही रहा।
खेलते-खेलते
उसको दिखायी
पड़ा कि न तो
घोड़ा घोड़ा है,
न हाथी हाथी
है, सब खेल
है।
हम
बहुत खेल लिये
हैं, हम सब खेल
लिए हैं, हम
सब खेल रहे
हैं। लेकिन
हमें अभी
शतरंज का घोड़ा,
शतरंज का
घोड़ा नहीं
मालूम पड़ता, घोड़ा ही
मालूम पड़ता
है।
सारे
संबंध जिंदगी
के, शतरंज का
खेल हैं। उसके
नियम हैं।
उनका पालन करना
चाहिए। और
ध्यान रहे, जो आदमी
जिंदगी को खेल
समझता है, उसको
नियम-पालन
करना बड़ा आसान
हो जाता है, कठिनाई ही
नहीं रह जाती।
तब यह सब
गंभीरता नहीं
रह जाती, इसमें
कोई मामला ही
नहीं रह जाता।
इसमें कोई कठिनाई
नहीं रह जाती।
अगर यह खेल है,
तो गंभीरता
गयी। देन यू
आर नाट
सीरियस।
लेकिन
कुछ लोग खेल
को ही जिंदगी बना
लेते हैं, तब वे खेल
में भी गंभीर
हो जाते हैं, तब खेल में
भी तलवारें चल
जाती हैं।
शतरंज के खिलाड़ियों
में तलवारें
बहुत दफा चल
गयी हैं। अगर
शतरंज के घोड़े
और हाथी कुछ
भी समझते
होंगे तो इन खिलाड़ियों
पर बहुत हंसे
होंगे, कि
ये क्या कर
रहे हैं? लकड़ी
के घोड़ेऱ्हाथियों
पर तलवारें
चला रहे हैं।
जिंदगी
की हमारी जो
व्यवस्था है, वह सारी की
सारी
व्यवस्था
अपनी जगह ठीक
है। वस्तुएं वस्तुएं
हैं, हैविंग हैविंग
है, धन धन
है, पद पद
है। आत्मा कोई
भी नहीं। इस
स्मरण का नाम परिग्रह
से मुक्ति है।
परिग्रह छोड़
कर भाग जाने
का नाम नहीं
है। इसलिए
जिन्हें हम
संन्यासी
कहते हैं साधारणतया,
वे इनवर्टेड
परिग्रही हैं,
वे
शीर्षासन
करते हुए
परिग्रही
हैं। वे सिर्फ
उल्टे खड़े हो
गये हैं, हैं
वे आप ही। जो
आप हैं, वही
वे हैं। बल्कि
कई मामलों में
वे आपसे भी ज्यादा
गंभीर हैं।
मैं तो
सोच ही नहीं
सकता कि संन्यासी
और गंभीर! यह
असंभव होना
चाहिए। संन्यासी
अगर गंभीर है
तो उसका मतलब
है कि वह सिर्फ
शीर्षासन लगा
कर खड़ा हो गया
संसारी है।
गंभीरता का
मतलब यह है कि
संसार बड़ा
सार्थक है। वह
जो नासमझियों
का जाल है, वह बड़ा
कीमती है।
इसको कीमत हम
दो तरह से दे
सकते हैं। इसमें
उतर कर, डूब
कर, इसको
छाती से पकड़
कर। इसे हम एक
और तरह से
कीमत दे सकते
हैं। इससे
भयभीत होकर, इससे भाग
कर।
एक
अंतिम बात।
तीन संन्यासी
हुए चीन में।
जिन्हें मैं
संन्यासी
कहने को राजी
हूं, क्योंकि
उन तीन
संन्यासियों
से ज्यादा
गैर-गंभीर
आदमी शायद ही
हुए हों। उनको
लोग जानते
नहीं, उनका
नाम ही लोगों
को पता नहीं
है, क्योंकि
नाम वगैरह सब
खेल की बातें
हैं। उन संन्यासियों
ने कभी अपना
नाम नहीं
बताया कि उनका
नाम क्या है।
जब कोई उनसे
पूछता कि तुम
कौन हो, तो
वे एक-दूसरे
की तरफ देखकर
हंसते, और
इतने जोर से
खिलखिलाते कि
पूछने वाला भी
थोड़ी देर में
हंसने लगता।
धीरे-धीरे
उनकी हंसी
गांव भर में
फैल जाती। तो
लोग उनको इतना
ही जानते: द
थ्री लाफिंग
सेंट्स, तीन हंसते
हुए
संन्यासी।
उनका नाम कुछ
रहा नहीं। जब
भी उनसे कोई
सवाल पूछता तो
वे हंसते। उन्होंने
हंसने से ही
एक उत्तर
दिया। जब भी कोई
उनसे पूछता कि
आप हंसते
क्यों हैं
हमारे सवालों
से? तो वे
कहते कि तुम
इतनी गंभीरता
से पूछते हो कि
तुम्हें दिया
गया कोई भी
उत्तर खतरनाक
सिद्ध होगा।
तुम उसको भी
गंभीरता से
पकड़ लोगे।
परिग्रह
नासमझी है, तो परिग्रह
के खिलाफ साधा
गया त्याग भी
नासमझी है।
चीजों को पकड़ना
पागलपन है, तो चीजों को
छोड़ कर भागना
कम पागलपन
नहीं है। चीजों
के प्रति
मोहग्रस्त
होना पागलपन
है, तो
चीजों के
प्रति विरक्त
होना कम
पागलपन नहीं
है। ये दोनों
ही पागलपन हैं,
एक-दूसरे की
तरफ पीठ किये
हुए खड़े हैं।
और दोनों पागल
सोच रहे हैं
यही कि कहीं
दूसरा मजा न
ले रहा हो।
मुझे
संन्यासी
मिलते हैं जो
मुझे कहते हैं
कि कई दफा मन
में ऐसा संदेह
उठने लगता है
कि कहीं हमने
भूल तो नहीं
की? उठेगा, स्वाभाविक
है। संन्यासी
के मन में यह
खयाल उठना
स्वाभाविक है
कि कहीं मैंने
भूल तो नहीं
की जो मैं सब
छोड़ कर भाग आया।
जो लोग वहां
भोग रहे हैं, कहीं बड़े
आनंद में तो
नहीं हैं? और
जो भोग रहे
हैं वे बड़े
परेशान हैं, वे
संन्यासियों
के पैर छूते
रहते हैं
जाकर। वे
सोचते रहते
हैं कि
संन्यासी बड़े
आनंद में होगा।
हम तो बड़े दुख
में पड़े हैं।
यह
भ्रांति चलती
रहती है और
हमारे चेहरे
धोखा देते
रहते हैं।
संन्यासी
एकांत में
संदिग्ध होता
है, भीड़ में
आश्वस्त हो
जाता है। जब
लोग उसके पैर छूते
हैं, तब
उसे पक्का हो
जाता है कि
नहीं, ये
लोग आनंद में
नहीं हो सकते,
नहीं तो
मेरे पैर छूने
न आते। एकांत
में संदिग्ध
हो जाता है, जब भीड़ हट
जाती है।
इसलिए
अगर किसी को
अपने झूठे
संन्यास को
बनाये रखना हो
तो भीड़
अनिवार्य है, अन्यथा बहुत
मुश्किल है
संन्यास को
बनाये रखना।
अकेले में
संन्यासी
संदिग्ध हो
जाता है, कि
पता नहीं, गांव
में लोग आनंद
न लूट रहे
हों। इसलिए
धीरे-धीरे सब
संन्यासी
गांव में आ
जाते हैं।
वहां दोहरे
फायदे होते
हैं। एक तो
लोग सामने
रहते हैं।
दूसरे, लोग
पैर छूते हैं,
आदर देते
हैं तो
संन्यासी को
भरोसा आता है
कि नहीं, अगर
ये आनंद में
होते तो इधर
मेरे पास न
आते। त्यागी
के पास आ रहे
हैं। पर
संन्यासी को
पता नहीं कि
इनके भी संदेह
के क्षण हैं।
ये भी संदेह से
भर जाते हैं
कि पता नहीं, संन्यासी
आनंद न लूट
रहा हो। असल
में दूसरा आनंद
लूट रहा है, यह खयाल हम
सबके मन में
होता ही है।
क्योंकि दूसरों
का हम चेहरा
जानते हैं और
अपनी आत्मा जानते
हैं। अपना दुख
परिचित होता
है, दूसरे
के मुखौटे
परिचित होते
हैं।
नहीं, न तो
वस्तुएं पकड़ने
योग्य हैं, न वस्तुएं
छोड़ने योग्य
हैं। इसलिए
अपरिग्रह का
अर्थ वैराग्य
नहीं है, अपरिग्रह
का अर्थ
विरक्ति नहीं
है, अपरिग्रह
का अर्थ विराग
नहीं है, अपरिग्रह
का अर्थ त्याग
नहीं है। यह
आखिरी बात ठीक
से खयाल में
ले लेंगे, अन्यथा
मैंने
परिग्रह के
संबंध में जो
कहा, कहीं
वह आपको
त्यागी न बना
दे, कहीं
आप संसार को
छोड़ कर न
भागने लगें, कहीं आप
घर-द्वार को
छोड़ कर जंगल
की राह न ले लें।
नहीं, परिग्रह को
जो समझ लेगा, वह छोड़ने की
बात भूल कर न
करेगा।
क्योंकि छोड़ा
उसे जा सकता
है जिसे कभी
पकड़ा गया हो।
जो परिग्रह को
समझ लेगा, वह
पायेगा कि कुछ
पकड़ा ही नहीं
जा सका है, छोड़ना
किसे है? छोड़
कैसे सकते हैं,
छोड़ने का
उपाय कहां है?
जो दूसरा है,
जो अन्य है,
जो वस्तु है,
वह वस्तु है,
उसे छोड़ा
नहीं जा सकता।
मकान मकान है।
अपरिग्रह का
मतलब यह है कि
मकान के भीतर
एक आदमी हो, चाहे बाहर
हो, वह नान-पजेसिव हो
गया; उसका
कोई मालकियत
का भाव नहीं
रहा। अब वह
मालिक नहीं
है। उसने बाहर
की दुनिया में
मालकियत खोजनी
बंद कर दी।
उसका यह मतलब
नहीं है कि
बाहर की
दुनिया को छोड़
कर वह भाग
गया। भागेगा
कहां? सब
जगह जहां
जायेगा, बाहर
की दुनिया है।
और अगर कोई घर
छोड़ कर जायेगा
और एक वृक्ष
के नीचे बैठ
जायेगा, और
कल दूसरा आदमी
आकर संन्यासी
उससे कहेगा कि
हटो यहां से, इस वृक्ष के
नीचे हम धूनी
रमाना चाहते
हैं, तो वह
कहेगा: बंद
करो बकवास। इस
पर मेरा पहले
से कब्जा है।
यहां मैं पहले
से हूं। यह
वृक्ष मेरा है,
झंडा देखो
वृक्ष के ऊपर
लगा है। यह
मंदिर मेरा है,
यह आश्रम
मेरा है।
परिग्रह
से भागा हुआ
आदमी फिर
परिग्रह पैदा
कर लेगा।
क्योंकि
परिग्रह से
भागा हुआ आदमी
समझ नहीं पाया
कि परिग्रह
क्या है। वह
फिर पैदा कर
लेगा। हां, जनता उसको
रोकेगी, अनुयायी
उसको
रोकेंगे। वह
सब तरह की
चेष्टा करेंगे
कि परिग्रह
पैदा न हो
जाये। वे
कहेंगे, मकान
मत बनने दो।
वे कहेंगे, मंदिर मत
बनने दो। वे
कहेंगे, आश्रम
मत बनने दो।
वे कहेंगे, यह मत बनने
दो, वह मत
बनने दो। वे
सब तरफ से
रोकेंगे। तब
संन्यासी
बहुत सूक्ष्म
रास्ते
खोजेगा।
रुपये इकट्ठे
करना मुश्किल
हो जायेगा तो
वह सूक्ष्म
रास्ते
खोजेगा। वह
अनुयायी
इकट्ठे करने
लगेगा। और जो
मजा किसी को
तिजोरी के
सामने रुपया
गिनने में आता
है, वही
मजा उसको
अनुयायियों
को गिनने में
आने लगेगा कि
कितने
अनुयायी हो
गये। गिनता
रहेगा, कहेगा
सात सौ, कि
हजार, कि
दस हजार, कि
लाख, कि दो
लाख। कितने
अनुयायी हैं?
कितने
शिष्य हैं? कान फूंकने
लगेगा, मंत्र
बांटने लगेगा
और इकट्ठे
करने लगेगा आंकड़े।
आंकड़े का मजा
है--रुपये में
हो कि अनुयायियों
में हो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता है।
जिंदगी
भागने से नहीं
समझी जा सकती।
जो भागता है
वह नासमझी में
भाग गया।
जिंदगी जहां
है वहीं समझने
की जरूरत है।
और जब समझ ली
जाती है तो
अचानक हम पाते
हैं कि कुछ
चीजें एकदम से
विदा हो गयीं।
छोड़नी
नहीं पड़तीं।
एकदम से अचानक
हम पाते हैं
कि पति पत्नी
अपनी जगह हैं, लेकिन बीच
से पजेसन
खो गया, मालकियत
चली गई। अब
पति पति नहीं
है, सिर्फ
मित्र रह गया।
अब पत्नी
पत्नी नहीं है,
दासी नहीं
है, सिर्फ
मित्र रह गई।
वह बीच का
संबंध अचानक
खो गया।
अपरिग्रह
का मतलब है
हमारे और
व्यक्तियों, हमारे और
वस्तुओं के
बीच के संबंध
का रूपांतरण।
मालकियत गिर
गई। बीच से
मालकियत गिर
जाये मेरे और
किसी के बीच, तो अपरिग्रह
फलित हो गया।
इसलिए
अपरिग्रह त्याग
से बहुत कठिन
बात है।
अपरिग्रह
वैराग्य से
बहुत कठिन बात
है। वैराग्य
बहुत सरल बात
है। क्योंकि
वह दूसरी अति
है, और मन
का पैंडुलम
दूसरी अति पर
बहुत जल्दी जा
सकता है। जो
आदमी बहुत ज्यादा
खाना खाता है,
उससे उपवास
करवाना सदा
आसान है। जो
आदमी स्त्रियों
के पीछे पागल
है, उसे
ब्रह्मचर्य
की कसम
दिलवाना बहुत
आसान है। जो
आदमी बहुत
क्रोधी है, उसे अक्रोध
का व्रत
दिलवाना बहुत
आसान है।
लेकिन
ध्यान रहे, वह अक्रोध
का व्रत भी
क्रोधी आदमी
ले रहा है। इसलिए
जल्दी ले रहा
है। अगर कम
क्रोधी होता
तो थोड़ा सोच
कर लेता। अगर
और भी कम
क्रोधी होता तो
शायद लेता ही
नहीं।
क्योंकि व्रत
लेने के लिए
भी क्रोध होना
जरूरी है। अभी
तक वह दूसरों
पर क्रोधित था,
अब अपने पर
क्रोधित हो
गया है, और
कोई फर्क नहीं
है। अभी तक वह
दूसरों की गर्दन
दबाता था, अब
वह व्रत लेकर
अपनी गर्दन
दबायेगा कि अब
मैं क्रोध
नहीं करूंगा।
अब देखूं
कि कैसे क्रोध
होता है! अब वह
अपनी गर्दन
पकड़ लेगा। एक
अति से दूसरी
अति सदा आसान
है। लेकिन जो
मध्य में ठहर
जाते हैं, वे
धर्म को
उपलब्ध हो
जाते हैं।
कन्फ्यूशियस
एक गांव में
गया। और उस
गांव के लोगों
ने कहा कि
हमारे गांव
में एक बहुत
बुद्धिमान
आदमी है, आप
जरूर उनके
दर्शन करें।
कन्फ्यूशियस
ने कहा, उसे
तुम
बुद्धिमान
क्यों कहते हो?
तो
उन्होंने कहा
कि वह बहुत
विचारशील है।
कन्फ्यूशियस
ने कहा कि
ज्यादा
विचारशील तो
नहीं है? उन्होंने
कहा कि ज्यादा,
बहुत
ज्यादा
विचारशील है।
एक काम करता
है तो तीन बार
सोचता है। तो
कन्फ्यूशियस
ने कहा कि मुझे
उस आदमी से
बचाओ। मैं
वहां न जाऊंगा।
पर उन्होंने
कहा, आप
कैसी बातें कर
रहे हैं! क्या
वह आदमी बुद्धिमान
नहीं है? कन्फ्यूशियस
ने कहा, वह
जरा ज्यादा
बुद्धिमान हो
गया, जरा
ज्यादा अनबैलेंस्ड
हो गया। जो
आदमी एक बार
सोचता है वह
भी अति पर है, जो तीन बार
सोचने लगा वह
दूसरी अति पर
चला गया। दो
बार काफी है।
कन्फ्यूशियस
का मतलब कुल
इतना है कि जो
बीच में ठहर
जाये, काफी
है। वह जो
गोल्डन मीन है,
वह जो बीच
में ठहर जाना
है; न
त्याग, न
भोग। न
वस्तुओं की
पकड़, न
वस्तुओं का
छोड़।
अपरिग्रह तब
फलित होता है,
मध्य में
फलित होता है।
ये
थोड़ी-सी बातें
मैंने कहीं।
इसमें
अपरिग्रह की
आप बिलकुल
चिंता न करें।
आप चिंता करें
परिग्रह को समझने
की। और ध्यान
रखें, परिग्रह
को छोड़ने की
चिंता भर मत
करना, परिग्रह
को समझने की
चिंता करना।
परिग्रह क्यों,
क्या, कौन
सी कमी पूरी
कर रहा है? दो
चीजें जिस दिन
दिख जायेंगी
कि परिग्रह को
मैं अपनी
आत्मा की
भर्ती और पूर्ति
करना चाहता
हूं, आत्मा
के खालीपन और
रिक्तता को
भरना चाहता
हूं, यह
असंभव है--एक।
और दूसरी बात
यह कि जिस चीज
से हम बंधते
हैं, बांधते हैं, उससे
बंध भी जाते
हैं और गुलाम
हो जाते हैं।
और तीसरी कि
हमारे सारे
अतीत का अनुभव
कहता है कि सब
मिल जाये फिर
भी कुछ नहीं
मिलता है। खाली
के खाली रह
जाते हैं। यह
स्मरण पूरा हो
जाये तो आप
अचानक
पायेंगे कि
आपकी जिंदगी
में अपरिग्रह
की किरणें उतरनी
शुरू हो गई
हैं।
कल हम
तीसरे सूत्र अचौर्य पर
विचार
करेंगे। वह भी
परिग्रह की एक
और भी सूक्ष्म
यात्रा है।
मेरी
बातों को इतनी
शांति और
प्रेम से सुना, उससे बहुत
अनुगृहीत हूं,
और अंत में
सबके भीतर
बैठे प्रभु को
प्रणाम करता हूं,
मेरे
प्रणाम
स्वीकार करें!
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें