दिनांक
2 अप्रैल, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
हमारे
का करे हांसी
लोग।
मोरा
मन लागा
सतगुरु से भला
होय कै खोर।
जब
से सतगुरु—ज्ञान
भयो है, चले
न केहु के जोर।।
मातु
रिसाई पिता
रिसाई, रिसाये
बटोहिया लोग।
ग्यान
— खड्ग तिरगुन
को मारूं, पांच
— पचीसो चोर।।
अब
तो मोहि ऐसी
बनि आवै
सतगुरु रचा
संजोग।
आवत
साथ बहुत सुख
लागै, जात
वियापै रोग।।
धरमदास
बिनवै कर जोरी, सुनु
हो बन्दी—छोर।
जाको
पद त्रैयलोक
से न्यारा, सो
साहब कस होय।।
साहेब
येहि विधि ना
मिलै, चित
चंचल भाई।
माला
तिलक उरमाइके, नाचै
अरु गावै।
अपना
मरम जानै नहीं, औरन
समुझावै।।
देखे
को बक ऊजला, मन
मैला भाई।।
आंखि
मुंदि मौनी
भया, मछरी
धरि खाई।।
कपट—कतरनी
पेट में, मुख
वचन उचारी।
अंतरगति
साहेब लखै, उन
कहां छिपाई।।
आदि
अंत की वार्ता, सतगुरु
से पावो।
कहै
कबीर धरमदास
से, मूरख
समझावो।।
मेरे
मन बस गए
साहेब कबीर।
हिंदू
के तुम गुरु
कहावो, मुसलमान
के पीर।।
दोऊ
दीन ने झगड़ा
मांडेव, पायो
नाहिं सरीर।।
सील
संतोष दया के
सागर, प्रेम
प्रतीत मति
धीर।
वेद
कितेब मते के
आगर, दोऊ
दीनन के पीर।।
बड़े—बड़े
संतन हितकारी, अजरा
अमर सरीर।
धरमदास
की विनय
गुसाईं, नाव
लगावो तीर।।
समझी
नहीं हयात की
शामो—सहर को
मैं
हैरत
से देखती रही
शम्मो—कमर को
मैं
यह कौन
गायबाना है, जल्वे
दिखा रहा
बेताब
पा रही हूं जो
अपनी नजर को
मैं
मंजिल
का होश है, न
अपनी खबर मुझे
मुद्दत
से तक रही हूं
तेरी रहगुजर
को मैं
दिल
की कली कभी न
खिली फिर भी
आज तक
हसरत
से तक रही हूं
नसीमे—सहर को
मैं
मेरे
जसे—शौक का
आलम तो देखिए
सज्दे
भी कर रही हूं
तो अपने ही दर
को मैं
मुड—मुड
के देखने पर
वह मजबूर हो
गए
अब
कामयाब पाती
हूं अपनी नजर
को मैं
यह
किसके नक्शे—पा
ने हैं थामे
मेरे कदम
मंजिल
समझ कर बैठ गई
रहगुजर को मैं
माना
नहीं है कोई
तबस्तुम—नवाज
आज
फिर
भी परख रही
हूं किसी की
नजर को मैं
आदमी
एक खोज है।
किसकी, यह भी
ठीक—ठीक साफ
नहीं। पर खोज
है, इतना निश्चित।
कोई अज्ञात, किसी गहरे
अचेतन तल पर प्रश्न
बन कर खड़ा है।
आदमी
एक प्रश्न है, एक
जिज्ञासा।
किसकी, यह
भी ठीक पता
नहीं। प्रश्न
किस के संबंध में
है, यह भी
साफ नहीं। पर प्रश्न
है, इतना निश्चित
है।
समझी
नहीं हयात की
शामो—सहर को
मैं।.. .यह
जिंदगी की
क्या है सुबह
और क्या है
शाम,
कुछ समझ में
नहीं आता।
कहां है
प्रारंभ, कहां
है अंत, कुछ
समझ में नहीं
आता।
समझी
नहीं हयात की
शामो—सहर को
मैं
हैरत
से देखती रही
शम्मो—कमर को
मैं
चांद
कहां से, सूरज
कहां से; यह
विस्तार, यह
ब्रह्माण्ड——इसके
पीछे कौन छिपा
है; क्या इसका
राज है?
यह
कौन गायबाना
है जल्वे दिखा
रहा!.. इस सारे
उत्सव के
पीछे कौन छिपा
है। कौन है गुप्त
इस सारे रहस्य
के पीछे!
किसके हाथ
हैं! किसके
हस्ताक्षर
हैं। ये गीत
किसके गाए हुए
ये फूल किसके
बनाए हुए हैं!
यह
कौन गायबाना
है जल्वे दिखा
रहा!..... रहा है! यह
छिप—छिप कर
कौन रहस्यों
को प्रकट कर
रहा है।
बेताब
पा रही हूं जो
अपनी नजर को
मैं!...... और जब तक
इसका पता न चल
जाए, तब जाए, तब तक आंखें
खोजती ही रहती
हैं। तब तक आंखें
खोजती ही
रहेंगी तब तक
प्यास जलती ही
रहेगी। और तुम
ऊपर—ऊपर से
कितने ही अपने
को समझाने के
उपाय करो, वे
सब उपाय देर—अबेर
टूट जाएंगे।
हर बार विषाद
हाथ लगेगा।
इसी
गहरी
जिज्ञासा को
तृप्त करने
में आदमी ने संसार
का सारा फैलाव
कर लिया है।
पता नहीं चलता
किसकी खोज है, धन
खोजने लगता है।
पता नहीं चलता
किसकी खोज है,
पद खोजने
लगता है। और
फिर एक दिन धन
भी पा लेता है
बहुत दौड़ कर— —और
पाता है कुछ
हाथ न लगा। पद
भी मिल जाता
है— —बहुत जीवन
गंवाकर, बहुत
जीवन दांव पर
लगाकर— — मिलने
पर पता चलता
है, हाथ
राख से भरे हैं,
जीवन
व्यर्थ गया।
लेकिन
जो धन खोजने
जाता है, वह भी
खोजने तो जा
रहा है। जो पद
खोजने जाता है,
वह भी खोजने
जा रहा है।
ऐसा आदमी ही
खोजना कठिन है
जो खोज न रहा
हो। क्योंकि
आदमी खोज है, एक जिज्ञासा
है। जब तक
जिज्ञासा का
तीर परमात्मा
की तरफ नहीं लग
जाता, तब
तक हमारा
भटकाव जारी
रहता है। तब
तक हम घूमते
रहते हैं
कोल्हू के बैल
की भांति— —उसी
रास्ते पर।
यह
कौन गायबाना
है,
जल्वे दिखा
रहा
बेताब
पा रही हूं जो
अपनी नजर को
मैं
मंजिल
का होश है, न
है अपनी खबर
मुझे
मुद्दत
से तक रही हूं
तेरी रहगुजर
को मैं
कुछ
पता भी नहीं है
कि मंजिल क्या
है,
कहां जाना
है, कहां
से आते हैं, किसलिए आए
हैं, किसलिए
जाना है?
मंजिल का होश
है, न अपनी
खबर मुझे! ठन
यही पता है कि
यह खोजने वाला
कौन है! यह कौन
मेरे भीतर
बेताब है! यह
कौन मेरे भीतर
बेचैन है! यह
कौन मेरे भीतर
प्रश्न बनकर
खड़ा है जो
मिटता ही
नहीं! धन दो, पद दो, प्रतिष्ठा
दो, यश दो, सब दे दो— —और
मेरे भीतर यह
कौन— सा पात्र
है जो भरता ही
नहीं, खाली
का खाली रह
जाता है! फिर आंखें
बेताब हो जाती
हैं। फिर दिल
बेचैन हो जाता
है। फिर खोज शुरू
हो जाती है।
इसलिए
तो एक वासना
चुकती भी नहीं
कि दूसरी वासना
शुरू हो जाती
है। क्योंकि
खोज तब तक
जारी रहेगी जब
तक कि ठीक को न
खोज लिया जाए।
उस ठीक का नाम
ही परमात्मा
है। तुम उसे
क्या नाम देते
हो,
इससे फर्क
नहीं पड़ता।
तुम्हारे
भीतर ठीक प्रश्न
के बन जाने का
नाम धर्म है।
ठीक प्रश्न
के बन जाने का
नाम धर्म है— —
और ठीक प्रश्न
एक ही है, गलत
प्रश्न हजार
हो सकते हैं।
जब तक
तुम्हारे
भीतर ठीक प्रश्न
निर्मित नहीं
हुआ है, ठीक
जिज्ञासा
नहीं बनी है, तब तक तुम
कुछ तो पूछोगे
ही। पूछना ही
पड़ेगा। आदमी
का स्वभाव है।
वह आदमी की
नियति है। तुम
कुछ तो
तलाशोगे— —
तलाशना ही
पड़ेगा। उससे
बचने की कोई
सुविधा नहीं
है। ईश्वर को
इनकार कर दो, फिर भी खोज
जारी रखनी
पड़ेगी। कुछ और
खोजोगे। एक
बेहतर समाज— —
समाजवाद, साम्यवाद!
एक सुंदर
भविष्य। एक
वर्ग— विहीन
समाज।... कुछ
खोजोगे।
लेकिन खोज
जारी रहेगी।
तुम खोज से
नहीं बच सकते।
खोज से बचने
का कोई उपाय
नहीं है।
खोज
के साथ एक ही
स्वतंत्रता
है— — गलत खोज हो
सकती है, तब
हजार खोजें हो
सकती हैं। ठीक
खोज होगी तो
एक खोज होगी।
स्वास्थ्य
तो एक ही होता
है,
बीमारियां
अनेक होती हैं।
जब मैं स्वस्थ
हो जाऊं, जब
तुम स्वस्थ हो
जाओ, जब
कोई और स्वस्थ
हो जाए, तो
स्वास्थ्य
स्वास्थ्य
में भेद नहीं
होता। इसलिए
कभी भूल कर मत
पूछना कि
बुद्ध और
कृष्ण और
क्राइस्ट और
मुहम्मद में
कोई भेद है या
नहीं।
स्वास्थ्य
में भेद होता
ही नहीं। भेद
बीमारी में
होते हैं।
तुम्हारी
बीमारी अलग, मेरी बीमारी
अलग। कोई टी ०
बी लिए चल रहा
है, कोई
कैंसर लिए चल रहा
है, कोई
कुछ और लिए चल
रहा है। लेकिन
स्वास्थ्य तो
एक होता है, स्वास्थ्य
को कोई विशेषण
ही नहीं होता।
तुम
किसी से यह
नहीं पूछते...
कोई कहे कि
मैं बीमार हूं
तो तुम पूछते
हो,
कौन—सी
बीमारी?
कोई तुमसे कहे
कि मैं स्वस्थ
हूं, क्या
तुम पूछते हो,
कौन— सा
स्वास्थ्य? वह बात ही
बेहूदी है, वह प्रश्न
ही व्यर्थ है।
स्वास्थ्य तो
बस स्वास्थ्य
है। इसलिए जो
व्यक्ति
उपलब्ध हो
जाता है, वह
हिंदू नहीं
होता, मुसलमान
नहीं होता, ईसाई नहीं
होता। ये
बीमारियों के नाम
हैं। धार्मिक
आदमी बस
धार्मिक होता
है। इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि किस घर में
पैदा हुआ?
इससे क्या
फर्क पड़ता है
कि किस कुएं
से पानी पिया?
— —प्यास बुझ
गयी। जलस्रोत
एक है। घाट
अनेक होंगे, लेकिन
जलस्रोत एक है।
किस बर्तन में
पानी भरा......
इससे भी क्या
फर्क पड़ता है
कि सोने के
पात्र थे कि
मिट्टी के
पात्र थे, कि
पूरब की दिशा
में बैठ कर
पानी पिया था
कि पश्चिम की
दिशा में बैठ
कर पानी पिया
था। कोई फर्क
नहीं पड़ता। उस
परमात्मा को
अल्लाह कहा था
कि राम कहा था,
कोई फर्क
नहीं पड़ता।
क्या नाम दिए
थे.. . हमारे दिए
नाम हैं।
परमात्मा
बेनाम है, अनाम
है।
मंजिल
का होश है, न
अपनी खबर मुझे
मुद्दत
से तक रही हूं
तेरी रहगुजर
को मैं
लेकिन
राह तो देखी
जा रही है : '' आता
ही होगा वह!'' कौन?
उसका हमें साफ
कुछ भी पता
नहीं। हो भी
कैसे पता, उससे
कभी मुलाकात
नहीं हुई। आंख
— भर उसे कभी
देखा नहीं।
उससे कभी गुप
गुफ्तगू नहीं
हुई। उससे कभी
दो बातें नहीं
हुई। उससे परिचय
ही नहीं है।
मगर तड़प है, खोज है, आकांक्षा
है।
दिल
की कली कभी न
खिली फिर भी
आज तक
हसरत
से तक रही हूं
नसीमे—सहर को
मैं
यह
दिल की कली
खिली तो नहीं
आज तक, लेकिन
फिर भी सुबह
की
प्रातःकालीन
हवा आएगी और
मेरी कली को
खिलाएगी और
फूल बनाएगी और
सूरज निकलेगा
और सूरज की
रोशनी में
मेरी गंध भी
लुटेगी और मैं
तृप्त होऊंगा——वह
आकांक्षा
गहरे में बैठी
है। वह
आकांक्षा ही
तुम हो।
अपनी
आकांक्षा को
ठीक—ठीक परख
लेना, पहचान
लेना। अपनी
आकांक्षा को
ठीक—ठीक दिशा
दे देनी, इतना
ही धर्म का
काम है। यह
दिशा कौन देगा?
यह दिशा
कैसे मिलेगी?
यह दिशा
कहां से आएगी?.....
इसलिए सदगुरू
का अर्थ है।
आज
के सूत्र सदगुरू
के संबंध में
हैं। सदगुरू
का अर्थ है:
जिसने पा लिया; जो
मंजिल पर आ
गया। सदगुरू
का अर्थ है:
जिसकी
अभीप्सा
तृप्ति बन गई;
जिसके भीतर
अब कोई प्रश्न
नहीं। जिसके
भीतर प्रश्न
नहीं है, उसी
के भीतर उत्तर
हो सकता है।
जब तक प्रश्न
है तब तक
उत्तर नहीं हो
सकता। जब तक
तुम पूछ रहे
हो, तब तक
कैसे उत्तर
होगा? उत्तर
ही होता तो
पूछते क्यों?
जब तक
तुम्हारे
भीतर
रंचमात्र भी प्रश्न
रह जाए तो
समझना अभी खोज
जारी है।
पर
ऐसी घड़ी निश्चित
आती है, जब
सारे प्रश्न
गिर जाते हैं।
प्रश्रों के
गिराने की
प्रक्रिया का
नाम ध्यान है।
ध्यान उत्तर
पाने की चेष्टा
नहीं है, ध्यान
प्रश्न को
विदा करने की
चेष्टा है, मन को
निष्प्रश्र
करने की
चेष्टा है। जब
मन में कोई प्रश्न
नहीं होता, अर्थात् कोई
विचार नहीं होता,
क्योंकि
सभी विचार प्रश्न
हैं, चाहे
उनके पीछे प्रश्न
— चिह्न लगा हो
या न लगा हो, सभी विचार प्रश्न
हैं। विचार उठ
ही इसलिए रहे
हैं कि हमें
ज्ञान नहीं है।
विचार ज्ञान
के अभाव में
उठ रहे हैं।
जानते ही
विचार समाप्त
हो जाते हैं।
या विचार
समाप्त हो
जाएं तो जानना
हो जाता है।
वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं।
जिस
व्यक्ति के
सारे विचार
समाप्त हो गए
हैं,
जिसके भीतर
सन्नाटा छा
गया है, जिसके
भीतर अब
तरंगें नहीं
उठती, जिसे
अब कहीं जाना
नहीं है, जो
अब किसी
रास्ते पर
बैठकर राह
नहीं देख रहा है,
जिसकी राह
पूरी हो गई, जिसकी
प्रतीक्षा का
अंत आ गया, जो
तृप्त है, जिसके
भीतर परम
संतोष की
वर्षा हो गई— —
उसे सदगुरू
कहा है। उसके
पास उत्तर है।
ऐसे
किसी व्यक्ति
को खोज लेना
अत्यंत जरूरी
है,
जिसके पास
उत्तर हो।
उससे दोस्ती
बना लेना
जरूरी है।
उसके साथ गांठ
बांध लेनी
जरूरी है।
उसके साथ
बंधते ही
तुम्हारे
जीवन में
रूपांतरण शुरू
हो जाता है।
उसके पास होने
का नाम सत्संग
है। उससे जुड
जाने का नाम
शिष्यत्व है।
आज
के सूत्र, धनी
धरमदास ने
कबीर को पाया,
तब लिखे हैं।
लेकिन
कठिनाइयां
आएंगी जो
उन्हें आईं।...''
हमरे का करे
हांसी लोग!'' लोग हंसते
हैं।
धनी
धर्मदास सफल
व्यवसायी थे।
सब तरह से सफल
व्यक्ति थे।
खूब धन था, प्रतिष्ठा
थी, सम्मान
था। और एक दिन
अचानक कबीर के
साथ पागल हो
गए। फिर घर ही
न लौटे। फिर
घर खबर भेज दी
कि लुटा दो जो
मेरा है, क्योंकि
मेरा कुछ भी
नहीं है। और
अब मैं वापिस
नहीं आ रहा
हूं, क्योंकि
जिसकी मुझे तलाश
थी वह मिल गया
है। अब वापस
जाना कैसा?
वे चरण मिल गए
जिनको मैं
टटोलता था
जन्मों—
जन्मों से। अब
उनमें झुक गया।
अब झुक गया तो
उठना कैसा?
सच
में जो झुकता
है वह फिर कभी
उठता नहीं।
लोग हंसने लगे
होंगे। लोग
समझे होंगे
पागल हो गए।
स्वाभाविक है।
लोगों का
समझना भी
स्वाभाविक है।
लाओत्सु
का प्रसिद्ध
वचन है : जब
सत्य बोला जाए
तो जो समझते
हैं वे
आनन्दित होंगे;
जो नहीं समझते
हैं वे
हंसेंगे। जो
नहीं समझते
हैं अगर वे न
हंसे तो समझना
कि सत्य बोला
ही नहीं गया।
उनका हंसना
जरूरी है, क्योंकि
उन्होंने
झूठों को सत्य
मान लिया है।
उनके लिए सत्य
झूठ मालूम
होगा।
हम
अपने भीतर
जिसको सत्य की
तरह पकड़ लिए
हैं,
उसी से तो
तौलेंगे न, वही तो
तराजू होगा!
किसी ने धन को
सत्य समझा है और
तुम ध्यान में
मग्न हो जाओगे,
वह समझेगा
कि तुम पागल
हो गए। उसके
पास एक तराजू
है, अगर
तुम भी धन की
दौड़ में हो तो
तुम समझदार हो।
जो पद की
आकांक्षा से
पीड़ित है, जिसके
भीतर बस एक ही
प्रार्थना है
और एक ही पूजा
है और एक ही
अर्चना है— —
दिल्ली चलो! — —
अगर वह तुमको
देखेगा कि तुम
कहीं ओर जा
रहे हो, तो
समझेगा कि '' पागल हो गए
हो। सारी
दुनिया
दिल्ली जा रही
है, तुम
कहां जा रहे
हो? होश में
हो? '' और
अगर तुम
दिल्ली में ही
थे और दिल्ली
छोड्कर जाने
लगे, तब तो
वह निश्चित
पागल समझेगा— — ''
तुम्हारा
मस्तिष्क
खराब हो गया
है। सारी दुनिया
आ रही है
राज्य—
सिंहासन की
तरफ, तुम
कहां जा रहे
हो? '' उसके
पास एक तर्क
है, उसकी
एक भाषा है।
पद उसके मापने
का ढंग है, उसका
मापदंड है। जो
पद को छोड़ता
है, वह
पागल है।
लोग
हंसेंगे।
हंसना उनकी
आत्मरक्षा का
उपाय है। अगर
वे न हंसे तो
अपनी
आत्मरक्षा न
कर सकेंगे।
तुम संन्यस्त
हो जाओ और
बाजार के लोग
अगर तुम पर न
हंसे तो बाजार
के लोगों को
बड़ी मुश्किल हो
जाएगी। फिर
अपना बचाव
कैसे करेंगे?
निहत्थे हो
जाएंगे, नि
: शस्त्र हो
जाएंगे। तुम
अगर सही हो तो
वे गलत हो
जाएंगे। और
कोई इस दुनिया
में यह जानकर
कि मैं गलत
हूं, जी
नहीं सकता, बहुत
मुश्किल हो
जाता है जीना।
गलत भी हो
आदमी तो मानना
पड़ता है कि
ठीक हूं।
मानकर ही ठीक,
जिया जा
सकता है।
खयाल
रखना, सत्य के
साथ ही जी
सकते हो तुम।
चाहे झूठ के
साथ जियो तो
उसी को सत्य
मान लेना पड़ता
है। असत्य को
असत्य की तरह
जान लेना, फिर
उसके साथ जीना
असंभव हो जाता
है। तुम्हें
समझ में आ गया
कि जिस नाव
में तुम बैठे
हो वह कागज की
नाव है, फिर
कितनी देर
बैठे रहोगे? कागज की ही
भले हो, मगर
तुम यह मानोगे
नहीं कि यह
कागज की है, तो बैठे रह
सकते हो।
तुमने एक मकान
बनाया है, रेत
पर बना लिया
है। तुम यह
मानना नहीं
चाहोगे कि रेत
पर बनाया है; क्योंकि
रेत पर बनाया
है, यह बात
साफ हो गई तो
तुम मकान से
निकल भागोगे,
निकलना ही
पड़ेगा। वहां
खतरा है।... जो
तुमसे कहेगा
रेत पर मकान
बनाया है, तुम
उसे पागल
कहोगे। और निश्चित
ही, भीड़
तुम्हारे साथ
है, क्योंकि
उन सबने भी
रेत पर मकान
बनाए हैं और उन
सबने भी कागज
की नावें
तैरायी हैं और
वे भी सपनों
में जी रहे
हैं। मत
तुम्हारे साथ
है। बुद्ध तो
कभी कोई एक— आध
होता है। कबीर
तो कोई एक—आध
होता है। बुq बहुत हैं, उनकी संख्या
बड़ी है। वे सब
तुमसे राजी
होंगे, क्योंकि
उनका भी निहित
स्वार्थ
तुम्हारे ही साथ
जुड़ा हुआ है
तुम गलत हो तो
वे भी गलत हैं।
इसलिए
तो लोग इतना
विवाद करते
हैं दुनिया
में। विवाद की
इतनी जरूरत
क्या है?
इसलिए इतना
विवाद करते
हैं कि बिना
विवाद के जीना
ही मुश्किल हो
जाएगा। हिंदू
लड़ता है कि
मेरी किताब
ठीक, मुसलमान
लड़ता है मेरी
किताब ठीक।
दुनिया में
सारे लोग अपना
विचार ठीक है,
इस बात के
लिए बड़ा
संघर्ष करते
हैं। क्यों? असल में
जितना उन्हें
हर होता है
हमारी बात
कहीं गलत न हो,
उतने ही जोर
से संघर्ष
करते हैं।
कपेंसेशन, एक
परिपूरकता है
उसमें। जितना
तुम भीतर
भयभीत होते हो
कि कहीं ऐसा न
हो कि मैं गलत
होऊं, तुम
उतने ही
आक्रामक ढंग
से अपने को
सिद्ध करना
चाहते हो कि
मैं सही हूं।
जो आदमी अपने
को बहुत
आक्रामक ढंग
से सही सिद्ध
करना चाहता है,
पक्का जान
लेना कि उसके
भीतर भी शक
उठने लगा है, उसके भीतर
भी संदेह जगने
लगा है, संदेह
ने सिर उठाया
है। वह किसी
और को नहीं
समझा रहा है, वह जोर से
चिल्लाकर
अपने को ही
समझा रहा है
कि मैं ठीक
हूं। और वह मत
इकट्ठे करेगा,
क्योंकि जब
बहुत लोग उसके
साथ हों तो
उसे भरोसा आ जाता
है कि इतने
लोग गलत नहीं
हो सकते;
मैं एक गलत हो
सकता हूं, इतने
लोग गलत नहीं
हो सकते।
इसलिए
तो लोग भीड़ का
हिस्सा बनते
हैं। इसलिए तो
तुम अकेले खड़े
नहीं होते— —
हिंदू की भीड़, मुसलमान
की भीड़, जैन
की भीड़, ईसाई
की भीड़। तुम
भीड़ के हिस्से
बनते हो। तुम
अकेले खड़े
नहीं होते।
तुम कभी यह
नहीं कहते कि
मैं मैं हूं, व्यक्ति।
तुम कहीं— न—
कहीं समाज, समूह, क्लब,
पार्टी, धर्म...
कहीं— न— कहीं
अपने को जोड़ते
हो। क्योंकि
अकेले, शक
उठेंगे, संदेह
उठेंगे, उनको
दबाओगे कैसे? अकेला आदमी
गलत हो सकता
है; उस हर
से बचने के
लिए आदमी भीड़
का हिस्सा बन
जाता है। भीड़
का हिस्सा
बनते ही
तुम्हारी
चिंता समाप्त
हो जाती है।
भीड़ में एक बल
है; भीड़
में एक
सम्मोहन है, एक जादू है।
भीड़ का एक
मनोविज्ञान
है। और जब इसभीड़
के विपरीत कोई
चलेगा तो यह
भीड़ हंसेगी, जोर से हंसेगी।
यह तिरस्कार
करेगी। यह
इनकार करेगी।
यह मजाक
उडाएगी।
जरूरी है यह।
यह इसकी
आत्मरक्षा के
लिए जरूरी है,
अन्यथा इस
सारी भीड़ का
क्या होगा?
जब
बुद्ध ने
राजमहल छोड़ा
और जब वे
राजमहल छोड्कर
अपने राज्य से
चले गए, तो
जिस राज्य में
गए उसी राज्य
का राजा, उसी
राज्य— परिवार
के लोग उनको
समझाने आए। वे
अपना राज्य
छोड्कर इसलिए
गए थे कि
राज्य के भीतर
रहेंगे तो
पिता आदमियों
को समझाने भेजेंगे।
मगर वे बड़े
हैरान हुए कि
जिनसे कोई
संबंध न था, जिनसे कोई
पहचान न थी, वे राजे भी
समझाने आए।
यही नहीं, जिनसे
उनके पिता की
दुश्मनी थी, वे भी
समझाने आए। तब
तो बहुत बुद्ध
चकित हुए कि
इनसे तो पिता
का जीवनभर
विरोध रहा, ये तो दुश मन
थे, एक —दूसरे
की छाती पर
तलवार लिए खड़े
रहे। दुश्मन
क्यों समझाने
आया? दुश मन
को तो खुश
होना चाहिए कि
अच्छा एक हुआ,
बरबाद हुआ
यह परिवार।
क्योंकि
बुद्ध अकेले
बेटे थे।
इकलौता बेटा
भाग गया घर से।
यह परिवार
नष्ट हो गया।
बाप बूढा था, इकलौता बेटा
भाग गया, अब
इस परिवार का
कोई भविष्य
नहीं है। इस
परिवार को
नष्ट किया जा
सकता है, इसके
राज्य को हड़पा
जा सकता है।
लेकिन नहीं; वे भी
समझाने आए।
क्यों समझाने
आए?
क्योंकि
बुद्ध ने
समस्त राज—
परिवारों में
तहलका मचा
दिया। उनको भी
शक होने लगे
पैदा : हम यह
सिंहासन पर बैठे
जो कर रहे हैं
वह ठीक है?
हम यह जो पद को
पकड़े बैठे हैं,
कहीं ऐसा तो
नहीं कि हम
जीवन गंवा रहे
हैं? कहीं
यह भाग आया
सिद्धार्थ ही
सही न हो!
ये
संदेह उठने
लगे। ये गहरे संदेह
थे। इन गहरे
संदेहों को
दबाने के लिए
एक ही उपाय था— —
इसको किसी तरह
समझा—बुझाकर
वापस कर लो।
यह आदमी प्रश्न—
चिह्न बन गया।
राजाओं
ने कहा कि
हमारे घर आ
जाओ।
तुम्हारी
पिता से नहीं
बनती होगी, कोई
फिक्र न करो।
अगर पिता से
नहीं बनती, हम समझ सकते
हैं। यह तुम्हारा
राज्य है, इसको
अपना समझो।
मेरी बेटी
जवान है, उससे
विवाह कर लो।
मेरी अकेली ही
बेटी है, तुम्हीं
इस राज्य के
मालिक हो
जाओगे। यह
तुम्हारे
पिता के राज्य
से दोगुना बड़ा
राज्य है।
लेकिन
बुद्ध हंसते।
वे कहते कि
छोटे और बड़े
राज्य का सवाल
नहीं है।
राज्य ही व्यर्थ
है। मेरा पिता
से कोई झगड़ा
नहीं है। मेरा
कोई विरोध
नहीं है किसी
से। मुझे इस
जीवन की
तथाकथित सुख—सुविधा, इस
जीवन की
तथाकथित पद—प्रतिष्ठा
व्यर्थ दिखाई
पड़ गई हैं। तब
एक खाई से
निकला और
दूसरी खाई में
गिरूं। मुझे
क्षमा करो।
धन्यवाद
तुम्हारी
कृपा का!
लेकिन जिन
राजाओं ने
उनसे आकर
प्रार्थना की
थी, वे सो न
सके होंगे
रातों में।
उनके मन में
विचार उठते
रहे होंगे कि
कहीं यह ठीक न
हो। और क्यों
न उठेंगे
विचार, क्योंकि
जिंदगी
उन्होंने भी
गंवायी है, पाया क्या
है? प्रमाण
तो सब बुद्ध
के पक्ष में
हैं, भीड़
उनके पक्ष में
है। इस भेद को
खयाल में कर
लेना।
प्रमाण
तो धर्म के
पक्ष में है, भीड़
संसार के पक्ष
में है।
प्रमाण तो
ध्यान के पक्ष
में है, भीड़
धन के पक्ष
में है। तुम
भी जीवन से
जानते हो, क्या
पाया है— —संबंधों
में, सफलता
में, दौड़—
धाप में, आपा—
धापी में?
गंवाया होगा
कुछ, पाया
क्या है?
लेकिन, अगर
तुम इस बात की
घोषणा करोगे
कि यहां कुछ
भी नहीं है...
अगर एक चोर
घोषणा कर दे
कि मैं साधु
होता हूं, बाकी
चोर हंसेंगे
कि पागल हुआ, इसने बुद्धि
गंवायी।
''हमरे का करे
हांसी लोग। '' धनी धरमदास
कहते हैं कि
लोग हमारी
हंसी क्यों कर
रहे हैं?
हमने कुछ बुरा
तो किया नहीं।
''
मोरा मन
लागा सदगुरू
से, भला
होय कै खोर। '' मेरा मन
सतगुरु से लग
गया है, इसमें
लोगों के
हंसने का क्या
कारण है?
अपेक्षा का
क्या कारण है? मेरे विरोध
का क्या कारण
है? और मैं
परम सुख को
उपलब्ध हो रहा
हूं। फिर मेरा
गुरु ठीक हो
कि गलत हो... '' भला
होय कि खोर''... इससे किसी
को क्या
प्रयोजन है? मैंने धन से
मोह लगाया था,
कोई हंसा
नहीं था। किसी
ने मुझसे नहीं
कहा था कि धन
कहीं बुराई में
न ले जाए।
और
धेन बुराई में
ले जाता है।
गरीब आदमी
आमतौर से भला
होता है; बुरे
होने के लिए
भी तो सुविधा
चाहिए न! पद
बुराई में ले
जाता है।
जिनके पास
सत्ता नहीं है,
वे बुराई भी
करेंगे तो
कितनी बुराई
कर सकेंगे?
लार्ड
ऐक्टन का
प्रसिद्ध वचन
तुमने सुना है
न : पावर
करप्ट्स एंड
करप्ट्स
एब्सोलूटली!
उससे मैं राजी
नहीं हूं और
राजी हूं भी।
ऐक्टन ठीक
कहता है और
ठीक नहीं भी
कहता। ठीक
इसलिए कहता है
कि जो भी
सत्ता में
जाते हैं, वे
सभी सत्ता के
द्वारा
व्यभिचारित
हो जाते हैं।
सत्ता उन्हें
नष्ट कर देती
है। सत्ता
उनकी साधुता
छीन लेती है।
मगर यह सत्ता
का कसूर नहीं
है, जिस
कारण मैं
ऐक्टन से सहमत
नहीं हूं। यह
सत्ता का दोष
नहीं है। ये
भ्रष्ट लोग थे
ही; सिर्फ
इनके पास
सत्ता नहीं थी,
इसलिए साधु
बने थे। साधु
बिना सत्ता के
आदमी बन सकता
है। असाधु
बनने के लिए
सत्ता चाहिए।
अगर
अपनी पत्नी के
पास ही घर में
बैठे रहना हो, इसके
लिए बहुत धन
की जरूरत नहीं
है, लेकिन
वेश्या के घर
जाना हो तो
फिर धन की
जरूरत पड़ती है।
किसी से झगड़ा
इत्यादि न
करना हो, शांत
जीवन बिताना
हो, तो
इसके लिए कोई
बड़ी सुविधा की
जरूरत नहीं है; लेकिन
लोगों की छाती
पर चढ़ना हो, लोगों की
गरदनें काटनी
हों, लोगों
को नीचा
दिखाना हो, फिर सत्ता
की जरूरत है।
सत्ता
के पीछे राज
ही क्या है?
लोग क्यों सत्ता
चाहते हैं?
क्योंकि
सत्ता के साथ
ही उनके हाथ
में श आती है।
और शस्त्र के
साथ वे जो सदा
करना चाहते थे
और कर नहीं
पाते थे, अब
कर सकते हैं।
सत्ता नहीं
किसी को नष्ट
करती, सत्ता
नहीं किसी को
विकृत करती — —
विकृत लोग
सत्ता की तलाश
करते हैं।
इस
देश में तुमने
देखा? रोज — रोज
यह होता रहा।
उन्नीस सौ
सैंतालीस में
जब देश आजाद
हुआ तो जो लोग
सत्ता में गए।
साधु लोग थे, भले लोग थे।
किसी ने कभी
सोचा नहीं था
कि इनमें कुछ
बुराई हो सकती
है। और भले
आदमी कहां
खोजते! तकली
चलाते थे, चर्खा
चलाते थे, खादी
पहनते थे, शाकाहारी
थे, भजन —
कीर्तन करते
थे। '' अल्ला
ईश्वर तेणे
नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान!'' — — ऐसी
— ऐसी
सद्धावनाएं
करते थे। और
अच्छे आदमी
तुम पाते कहां
से! सब
महात्मा थे।
लेकिन सत्ता
में गए तो
हालत बदल गयी।
सत्ता में
जाने से ही
बदल गयी। तो
मैं तुमसे यह
कहना चाहता
हूं कि भीतर इनके
आकांक्षा तो
कुछ और थी। ये
जो ऊपर — ऊपर से
राम — राम जप
रहे थे, वह सिर्फ
बगल में दबी
हुई छुरी को
छिपाने का
उपाय था।
और
यह रोज — रोज
होता है। हर
बार सत्ता
बदलती है
दुनिया में और
हर बार नए
आदमी पहुंचते
हैं। जब वे
जाने के
रास्ते पर
होते हैं, तो
बड़े साधु होते
हैं; सत्ता
में पहुंचते
ही साधुता
धीरे — धीरे
विसर्जित हो
जाती है।
सत्ता आदमी के
भीतर छिपे हुए
असाधु को
प्रकट कर देती
है।
धन
आदमी के भीतर
छिपी हुई
बुराई को बाहर
ले आता है। धन
अतूत है इस
लिहाज से।
आदमी की पहचान
करनी हो तो धन
दो। आदमी की
परख तभी हो
पाएगी जब उसके
पास धन हो।
उसको धन दे दो
पूरा और तुम
उसकी असलियत
को जान लोगे;
असलियत उभरकर
ऊपर आ जाएगी।
गरीब आदमी को
अपनी असलियत
भीतर दबाकर
रखनी पड़ती है।
रखनी ही पड़ेगी,
मजबूरी है,
कोई और उपाय
नहीं है।
बुरा
होने के लिए
थोड़ी समृद्धि
चाहिए, सुविधा
चाहिए। बुराई
में खतरे हैं,
थोड़ी श चाहिए।
तुम बुरा
करोगे तो
दूसरे भी बुरा
करेंगे।
तुम्हारे पास
इतनी श होनी
चाहिए कि तुम
बुरा करो और
दूसरा जवाब न
दे सके, मन
मारकर रह जाए।
ऐक्टन
ठीक कहता है
कि सत्ता
लोगों को
विकृत करती है।
लेकिन फिर मैं
कहता हूं कि
और गहराई से
खोजने पर पता
चलता है कि
विकृत लोग ही
सत्ता की तलाश
करते हैं।
सत्ता का कसूर
नहीं है।
लोग
हंसे नहीं थे।
धरमदास ने खूब
धन कमाया, कोई
नहीं हंसा। और
किसी ने नहीं
कहा कि धन का
दुरुपयोग
होगा — — और धन का
सदा दुरुपयोग
होता है! और आज
कबीर के साथ
हो लिया
धरमदास, तो
लोग हंस रहे
हैं और लोग
हजार तरह के
सवालों का
जवाब मांग रहे?
मोरा
मन लागा
सतगुरु से!... और
यह बात मन के
लग जाने की है।
इसके लिए कोई
तर्क नहीं है, इसको
स्मरण रखना।
ये सूत्र बड़े
बहुमूल्य
हैं...। मोरा मन
लागा! इसके
लिए कोई तर्क
नहीं है। यह
कोई वैचारिक
प्रक्रिया से
पहुंची गई निष्पत्ति
नहीं है। यह
कोई ऐसा नहीं
है कि सोचा, विचारा, अनुभव
किया— — यह
प्रेम है।
वसीयत
मीर ने मुझको
यही की,
कि
सब कुछ होना, तू
आशिक न होना।
क्यों?
समझदार क्यों
कहते हैं कि
प्रेमी मत
होना?
क्योंकि
प्रेम इस
दुनिया की
समझदारी के
बिल्कुल
विपरीत पड़
जाता है। प्रेम
नासमझी है।
अगर इस दुनिया
के समझदार
समझदार हैं तो
प्रेम नासमझी
है। और अगर
प्रेम
समझदारी है तो
यह सारी
दुनिया नासमझी
है। अगर प्रेम
समझदारी है तो
तर्क पागलपन
है। दो में से
चुनना होगा— —तर्क
या प्रेम। जो
प्रेम को चुन
लेता है वह
तर्क को छोड़
देता है। जो
तर्क को पकड़
लेता है वह
प्रेम से
वंचित रह जाता
है। तर्क से
बहुत चीजें
मिलती हैं, प्रेम नहीं
मिलता। और
प्रेम नहीं
मिलता तो
परमात्मा
नहीं मिलता।
तर्क से बहुत
चीजें मिलती
हैं, लेकिन
हृदय खो जाता
है। और हृदय
खो जाता है तो
जीवन का सार
खो जाता है।
तर्क से बहुत
चीजें मिलती
हैं, लेकिन
उल्लास नहीं
मिलता, उत्सव
नहीं मिलता।
तर्क से लोगों
के जीवन
रेगिस्तान हो
जाते हैं, मरूद्यान
नहीं रह जाते,
उनमें फिर
फूल नहीं
खिलते। फूल तो
प्रेम से
खिलते हैं।
फूल तो बेबूझ
प्रेम से
खिलते हैं।
वसीयत
मीर ने मुझको
यही की,
कि
सब कुछ होना, तू
आशिक न होना।
लेकिन
बड़ी मुश्किल
है। यह आदमी
के हाथ में
नहीं है।
प्रेम
तुम्हारे हाथ
में तो नहीं
है। हो जाता
है,
किया नहीं
जाता। ऐसे ही सदगुरू
से भी प्रेम
हो जाता है।
वह भी होने की
ही बात
इश्क
पर जोर नहीं, है
ये वो आतिश
गालिब
कि
लगाए न लगे, और
बुझाए न बुझे।
—
— न तो लगाने
से लगती है और
न बुझाने आतिश
गालिब! यह ऐसी
आग है कि लगाए
सदा कहते रहे
हैं : बचना, सावधान
रहना! इसमें
प्रेम के उपाय
नहीं छोड़े हैं।
इस दुनिया
से
बुझती है।
इश्क पर जोर
नहीं, है ये वो
न लगे और
बुझाए न बुझे।
मगर समझदार समझदारों
ने यह दुनिया ऐसी
बना दी है कि
को प्रेम—शुन्य
बना दिया है।
और मजा यह है कि
यही समझदार
मंदिर और
मस्जिद में भी
जाने की बात
करते हैं और
दुनिया को
प्रेम— शून्य
बना दिया है।
और जो दुनिया
प्रेम—शुन्य
है, उसमें
मंदिर—मस्जिद
झूठे हो
जाएंगे।
क्योंकि
प्रेमपूर्ण
दुनिया में ही
वस्तुत :
मंदिर उग सकता
है। प्रेम — शून्य
दुनिया में
मंदिर
जबर्दस्ती
थोपा जाता है, उगता
नहीं, उसकी
जड़ें नहीं
होतीं। जैसे
किसी उत्सव के
दिन तुमने
लाकर
जबर्दस्ती और
वृक्षों को
अपने घर में
थोप दिया हो, एक — दो दिन
हरियाली
दिखाई पड़ेगी।
उनकी जड़ें
नहीं हैं।
केले के वृक्ष
काट लाए हो और
उनको सौंप
दिया जमीन को,
एक — आध दो
दिन हरे रह
जाएंगे। पर सब
झूठ है।
तुम्हारे
मंदिर —
मस्जिद ऐसे ही
झूठ हैं, क्योंकि
जिस दुनिया
में तुमने ये
मंदिर —
मस्जिद
आरोपित किए
हैं, वह
दुनिया प्रेम —
शून्य है।
मंदिर तो
प्रेमपूर्ण
दुनिया में ही
उठ सकता है।
इश्क
से लोग मना
करते हैं
जैसे
कुछ इख्तियार
है अपना।
आदमी
के हाथ में
नहीं है
प्रेम।
साधारण प्रेम भी
आदमी के हाथ
में नहीं है।
तुम एक स्त्री
के प्रेम में
पड़ गए, कि एक
पुरुष के
प्रेम में पड़
गए, कि एक
मित्र के
प्रेम में पड़
गए——यह भी
तुम्हारे हाथ में
नहीं है।
अचानक तुम
पाते हो : किसी
से तरंग मेल
खा गयी। अचानक
तुम पाते हो : किसी के साथ
बस संगीत बंध
गया, लयबद्धता
हो गयी। किसी
को देखते ही
एक छन्द उमगा,
जो
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, जो तुम्हारे
बस में नहीं
है।
तो
सदगुरू के साथ
तो यह पागलपन
और भी बड़ा होता
है। बस प्रेम
हो जाता है।
हमने
अपने से की
बहुत, लेकिन
मर्जे
इश्क का इलाज
नहीं।
जो
प्रेम में
पड़ता है वह भी
बचना चाहता है।
क्योंकि
प्रेम अहंकार
को डुबाता है, मिटाता
है। कौन अपने
अहंकार को
डुबाना चाहता
है! दुनिया भी
कहती है बचो, और भीतर
अहंकार भी
कहता है बचो।
दुनिया और
अहंकार के बीच
सांठ—गांठ है।
दुनिया और
अहंकार एक ही
भाषा बोलते
हैं। लेकिन जब
प्रेम की किरण
उतर आती है तो
फिर कोई उपाय
नहीं है।
मोरा
मन लागा
सतगुरु से!......
सौभाग्य का
क्षण है ऐसा
कि सतगुरु से
मन लग जाए।
क्योंकि यह
परमात्मा की
तरफ पहला और
अंतिम कदम है।
पहला भी और
अंतिम भी।
इसके बाद कोई
और कदम नहीं
हैं। एक ही
कदम में
यात्रा पूरी
हो जाती है।
क्योंकि
सतगुरु के दो
काम हैं! एक
तरफ से वह दुनिया
से तुम्हें
तोड़ देता है।
और तुम दुनिया
से टूटे कि
परमात्मा से
जुडे।
तुम्हें कोई
और चीज रोके
नहीं है; तुम
दुनिया से
जुड़े हो, इसलिए
परमात्मा से
टूटे हो।
इंसान
को बे इश्क
सलीका नहीं
आता
जीना
तो बड़ी चीज है, मरना
भी नहीं आता।
प्रेम
के बिना न तो
जीना आता है।...
जीना तो बड़ी
चीज है, मरना
भी नहीं आता।
प्रेम दोनों
बातें सिखा
जाता है — — एक ही
झलक में सिखा
जाता है। मरना
भी सिखा जाता
है और जीना भी
सिखा जाता है।
तुम
ध्यान रखना, जब
तक तुम्हारी
जिंदगी में
कोई ऐसी चीज न
हो जिसके लिए
तुम मर न सको, तो समझना
तुम्हारी
जिंदगी में
ऐसी कोई चीज
नहीं, जिसके
लिए तुम जी
सको। जीना और
मरना साथ घट
जाते हैं। जब
तुम्हारी
जिंदगी में
ऐसी कोई चीज
होती है कि
तुम उसके लिए
जिंदगी भी
निछावर कर दो,
तभी
तुम्हारी
जिंदगी में अर्थ
होता है, त
भी तुम्हारी
जिंदगी में
कोई अभिप्राय
होता है, त
भी तुम्हारी
जिंदगी में
कोई गीत होता
है।
यह
बड़े मजे की
बात है, बड़ी
विरोधाभासी
है। जिसके पास
मरने का कारण
होता है, उसके
पास जीने का
कारण होता है।
अधिकतर लोगों
के पास न तो
मरने का कारण
है न कोई जीने
का कारण है।
वे ऐसे धक्के
खाते हैं।
जीते नहीं, बहे जाते
हैं। उनके
जीवन में कोई
दि श नहीं
होती — — कहां जा
रहे हैं, क्यों
जा रहे हैं? और सब जा रहे
हैं, इसलिए
वे भी जा रहे
हैं। उनसे
पूछो ही मत।
ऐसे प्रश्न
शिष्ट नहीं
समझे जाते, अशिष्ट समझे
जाते हैं। ऐसी
बातें पूछो मत।
भले लोग, सुसंस्कृत
लोग ऐसी बातें
नहीं पूछते — —
कहां जा रहे
हो, क्यों
जा रहे हो, किसलिए
जा रहे हो?
अच्छे — भले
लोग भीड़ जहां
जाती है, उस
तरफ चलते रहते
हैं, चुपचाप।
अच्छे — भले
लोग
आज्ञाकारी
होते हैं, विद्रोही
नहीं होते।
और
धर्म विद्रोह
है। और प्रेम
विद्रोह का
पाठ सिखाता है।
कोयल
की सदाएं आती
हों जब रह—रह
के गुलजारों
से
इक
नग्मए—शीरीं
फूट पड़े जब
दिल के नाजुक
तारों से
उस
वक्त हटाके
पर्दो को तू
काश चमन में
दर आए
हस्ती
क मेरा जरी —
जरी तस्वीरे
मसर्रत बन जाए।
कोई
घड़ी होती है, कोई
बसंत की घड़ी
होती है — — जब
तुम्हारी आंखें
ताजा होती हैं।
कोई प्रभात
होता है
तुम्हारे
जीवन में। उस
घड़ी में अगर
तुम्हें किसी
ऐसे व्यक्ति
से मिलन हो
जाए, जो पा
गया है...।
संयोग की ही
बात है, आयोजन
नहीं किया जा
सकता।
सदगुरू
अतिथि की तरह
आता है। तिथि
बताकर नहीं
आता इसलिए
अतिथि। पहले
से खबर नहीं
हो सक ती कि आ
रहा हूं। शायद
पहले से खबर
हो तो तुम भाग
ही जाओ।
अनायास घटती
है घटना। तुम शायद
किसी और ही
काम से गए थे।
तुम शस्त्र किसी
और ही वजह से
गए थे। तुमने कभी
सोचा भी न था
कि इतने गहरे
जाल में पड़
जाओगे। तुम
हिसाब — किताब
से न गए थे।
हिसाब — किताब
किया होता तो
गए ही न होते।
हिसाब
— किताबी सदगुरूओं
के पास नहीं
जाते। धनी
धरमदास भी
नहीं गए थे।
धनी धरमदास
धनी थे। और
जैसे धनी लोग
धार्मिक होते
हैं,
इसी तरह
धार्मिक भी थे
— — सत्यनारायण
की कथा, पूजा—
पाठ, यज्ञ—
हवन करवाते थे।
इसी पूजा, हवन,
यज्ञ
इत्यादि
करवाने की
प्रक्रिया
में मथुरा गए
थे। वहां किसी
न कहा कि आप आ
ही गए हो, कबीर
भी यहां आए
हुए हैं, दर्शन
कर लो। बहुत
साधु— संतों
के दर्शन किए
थे, सोचा
चलो इस साधु
का भी कर लें।
मगर यह साधु
और साधुओं
जैसा साधु
नहीं था। और
तो तुम्हारे
साधु—
संन्यासी
तुम्हारे
संसार के ही
अंग हैं, तुम्हारी
सांत्वना के
हिस्से हैं।
तुम्हें सोए
रखने में नींद
की दवा का काम
करते हैं।
तुम्हें
बच्चा नहीं
होता, वे
यज्ञ करवा
देते हैं।
धर्म तो
तुम्हें फिर दुबारा
पैदा न होना
पड़े, इसकी
प्रक्रिया है; वे दूसरे तक
को पैदा
करवाने का
उपाय करवा देते
हैं। तुम्हें
चुनाव लड़ना है,
वे यज्ञ
करवा देते हैं,
कि जीत निश्चित
करवा देते हैं।
धर्म तो
तुम्हें इसे
संसार में
हराने की प्रक्रिया
है, ताकि
तुम यहां हार
जाओ तो
परमात्मा का
स्मरण आए।
हारे को
हरिनाम! लेकिन
वे तुम्हें
यहां जीत करवा
देते हैं। तुम
लाटरी के टिकट
खरीदो और यहां
तुम्हें लोग
मिल जाते हैं,
महात्मा, जो आशीर्वाद
दे देते हैं।
मैं
बम्बई से जब
यात्रा करता
था बार— बार तो
मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाता था।
बम्बई के
स्टेशन पर जब
बहुत मित्र
मुझे छोड़ने
आते तो देख
लेता गार्ड भी, देख
लेता ड्राइवर
भी कि इतने
लोग आए हैं
छोड़ने, जरूर
कोई महात्मा
होगा। गाड़ी
क्या चलती, मैं मुश्किल
में पड़ जाता।
गार्ड आकर पैर
पकड़े पड़ा है
कि नंबर बता
दीजिए।... किस
बात का नंबर? वे कहते : आप
तो सब जानते
ही हैं, आपको
क्या कहना है? मगर एक बार
मिल जाए बस
लाटरी, सिर्फ
एक बार! और
आपकी कृपा से
क्या नहीं हो
सकता!
मुझे
बड़ी कठिनाई हो
जाती। मैं
जितना उनको
समझाता कि भई
मुझे कोई नंबर
वगैरह पता
नहीं। और
लाटरी मैं
दिलवाता नहीं, हरवाता
हूं।
वे
कहते : नहीं—
नहीं, आप भी
क्या बात कर
रहे हैं?
महात्मा कभी
ऐसा कर सकते
हैं?
महात्मा का तो
काम ही यह है
कि आशीर्वाद
दे। आप मुझे
टाल नहीं सकते।
आज तो नंबर
लेकर ही
जाऊंगा। एक
बार बस, दुबारा
फिर आपको नहीं
सताऊंगा। बस
एक बार हो जाए
तो सब ठीक— ठीक
हो जाए। अब आप
देखिए, मेरी
लड़की है, बड़ी
हो गई, शादी
करनी है। बेटा
है नौकरी नहीं
लगती। तो कोई
ऐसा आप से
नाजायज काम
नहीं करवा रहा
हूं।
तुम्हारे
साधु, तुम्हारे
महात्मा यही
करते रहे हैं
सदियों से, वेद से लेकर
अब तक। और ऐसे—
ऐसे काम करते
रहे हैं कि
तुम हैरान
होओगे।
दुश्मन को
मारना है, उसके
लिए भी
तुम्हारा महात्मा
आशीर्वाद दे
देता है।
वेदों में इस
तरह की ऋचाएं
हैं, जो
बड़ी बेहूदी
हैं, जिनमें
इंद्र से
प्रार्थना की
गई है कि हे
इंद्र! मेरे
दुश मन के खेत
में फसल न हो, पानी न गिरे; कि मेरे दुश मन
की गाय के थन
सूख जाएं, उनसे
दूध न बहे।
जिसने ये
प्रार्थनाएं
की होंगी वे
धार्मिक थे? और जिनने यह
प्रार्थनाएं
संग्रहीत कीं,
वे धार्मिक
थे? और जो
सदियों से इस
किताब को
पूजते रहे हैं,
वे धार्मिक
हो सकते हैं?
लेकिन
तथाकथित धर्म
ऐसा ही है। वह
तुम्हारे
संसार का ही
फैलाव है, वह
उसी का हिस्सा
है।
धनी
धरमदास बहुत
साधुओं के पास
गए थे और सभी
साधुओं को
उन्होंने
शांति दी थी।
किसी को धन
दान कर दिया
था,
किसी को
मकान दान कर
दिया था, किसी
को मंदिर बनवा
दिया था। कबीर
के पास जाकर
मुश्किल में
पड़ गए। भूल से
चले गए थे, नहीं
तो शायद गए भी
नहीं होते। वह
जो आंख मिली
कबीर से, कुछ
बात और हो गई।
मोरा मन लागा
सतगुरु से!
थी
वह निगाहे नाज
या नावक का
तीर था
मिलते
ही आंख रह गया
मैं कह के : हाय
दिल!
पागल
होने की घड़ी आ
गयी। मोरा मन
लागा सतगुरु
से,
भला होय कि
खोर! और अब यह
सवाल ही कहां
है कि इससे
अच्छा होगा या
बुरा होगा। यह
अच्छे—बुरे के
पार घटना है।
इसलिए
तो तुम प्रेमी
को कभी नहीं
समझा सकते कि
इससे बुरा हो
जाएगा। वह
कहता है, बुरा
हो तो बुरा हो
जाए। प्रेम
इतनी बड़ी घटना
है कि बुरा
सहा जा सकता है।
रहिमन
मैन तुरंग चढ़ि
चलिबो पावक
माहि।
प्रेम
पंथ ऐसो कठिन
सब कोई निबहत
नाहिं।।
अंतर
दांव लगी रहे, धुआ
न प्रकटे सोय।
कै
जिय जाने आपनो
कै जा सिर
बीती होय।।
जे
सुलगे ते बुझि
गए,
बुझे ते
सुलगे माहि।
रहिमन
दाहे प्रेम के, बुझि—बुझि
के सुलगाहि।।
यह
न रहीम सराहिए, लेन—देन
की प्रीत।
प्रानन
बाजी राखिए, हार
होय कि जीत।।
फिर
अब हार होगी
कि जीत, यह तो
सवाल नहीं
उठता। प्राण
की बाजी लगानी
होती है।.. .
प्रेम—पंथ ऐसो
कठिन सब कोई
निबहत नाहिं।
दुकानदारों
का यह काम
नहीं। यह
जुआरियों का
काम है। धरमदास
जुआरी रहे
होंगे।
हिम्मतवर थे।
दांव पर सब
लगा दिया। वह
जो आंखों में
दिख गया था
कबीर के, तय
कर लिया कि जब
तक मुझे न दिख
जाए तब तक अब
जीवन में कोई
सार नहीं। वह
जो कबीर के
पास आभा
दिखायी पड़ी थी,
वह जो रोशनी
दमक गयी थी
दामिनी की तरह,
जब तक मेरे
जीवन का भी
अंग न हो जाए
तब तक सब व्यर्थ
है। सब दांव
पर लगा दिया।
लौटे ही नहीं।
कहा : बात खत्म
हो हो गई। अब
तक जो मिले थे,
बस
नाममात्र के
महात्मा थे; आज महात्मा
से मिलना हुआ।
अब तक तो जो महात्मा
मिले थे, वे
धनी धरमदास से
ही कुछ पाना
चाहते थे;
आज पहली दफा
कोई महात्मा
मिला, जिससे
धनी धरमदास को
कुछ मिल सकता
था— —जिससे वे
वस्तुत : धनी
हो सकते थे।
मोरा
मन लागा
सतगुरु से भला
होय कि खोर।
जब
से सतगुरु—ज्ञान
भयो है चले न
केहु के जोर।।
और
एक बार इस बात
की
प्रत्यभिज्ञा
हो जाए, पहचान
हो जाए, रिकग्नीशन
हो जाए कि यह
रहा सतगुरु, फिर किसी का
बस नहीं चलता।
फिर सारी
दुनिया एक तरफ
और सारी
दुनिया कहे
गलत, तो भी
अंतर नहीं
पड़ता।
जब
से सतगुरु
ज्ञान भयो है.......।
यह ज्ञान कैसे
हो जाता है? शिष्य
के उपाय से
नहीं होता।
शिष्य क्या
उपाय करेगा? बस इतना ही
शिष्य कर सकता
है कि सतगुरु
की छाया में
मौजूद हो जाए।
और क्या कर
सकता है? बैठे,
उठे, जाए,
सत्संग करे——कभी
तो घड़ी आएगी
सौभाग्य की, जब मिलन हो
जाएगा।
सतगुरु के पास
बैठते—बैठते
बैठते—बैठते ऐसी
घड़ी आ जाती है,
सुनते—सुनते
ऐसी घड़ी आ
जाती है, जब
तुम्हारी
श्वास सतगुरु
के साथ लयबद्ध
हो जाती है, तुम्हारे
विचार धीरे—धीरे
धीरे—धीरे
समाप्त हो
जाते हैं। एक
सन्नाटा
तुम्हारे
भीतर छा जाता
है। उसी घड़ी
कोई उतर आता
है अज्ञात से
तुम्हारे
भीतर। उसी घड़ी
तुम्हारा
पात्र भर जाता
है——अमृत से! और
वह स्वाद लगा,
फिर किसी का
जोर नहीं
चलता। फिर तो
स्वयं परमात्मा
भी आकर तुमसे
कहे कि गुरु
को छोड़ दो, तो
भी तुम नहीं
छोड़ सकते। तुम
कहोगे:
परमात्मा को
छोड़ सकता हूं,
क्योंकि
परमात्मा का
मुझे कुछ पता
नहीं था। परमात्मा
का पता ही मुझे
सदगुरू के
द्वारा चला
है।
कबीर
ने कहा है:
गुरु गोविंद
दोइ खड़े, काके
लागू पांव!
किसके पैर
पहले लगूं?
गुरु, गोविंद——इनके
बीच चुनाव
कबीर को करना
पड़ रहा है!
क्यों? क्योंकि
गुरु ने ही
गोविंद
जन्माया।
गुरु ने आंखें
दीं, जिनसे
रोशनी दिखाई
पड़ी। रोशनी तो
रही होगी पहले
भी, मगर
उसके होने न
होने से क्या
फर्क पड़ता था!
गोविंद तो रहे
होंगे पहले भी,
लेकिन जब तक
गुरु सेतु न
बना तब तक
गोविंद से कोई
संबंध नहीं था।
तो कृपा किसकी
है?
मात
रिसाई पिता
रिसाई, रिसाये
बटोहिया लोग।
साथी—संगी सब
नाराज हो गए।
मां नाराज हो
गयी, पिता
नाराज हो गए।
अकसर
ऐसा होता है।
होगा ही। किसी
स्वाभाविक नियम
के अनुसार
होता है। जब
भी तुम गुरु
को चुनोगे, पिता
निश्चित
नाराज होगा, मां निश्चित
नाराज होगी।
अगर न हो मां
और पिता नाराज,
तो तुम
धन्यभागी हो।
मगर ऐसे बिरले
अवसर होंगे।
अगर पिता और
मां को भी
गुरु से कुछ
जोड़ बना हो, कभी जीवन
में स्वाद लगा
हो, तभी यह
हो सकता है, नहीं तो
नहीं, नाराज
होंगे ही।
क्यों? मां
से तुम्हारा
पहला जन्म हुआ——देह
का। और गुरु
से तुम्हारा
दूसरा जन्म
होगा। गुरु से
मां की
प्रतिस्पर्धा
हो जाती है।
और निश्चित
ही गुरु
तुम्हारी मां
से बड़ी मां
है। क्योंकि
मां से तो
केवल देह मिली,
गुरु से
आत्मा मिलेगी।
मां से तो
बाहर का जीवन
मिला, गुरु
से भीतर का
जीवन मिलेगा।
तो मां को
स्पर्धा हो ही
जाएगी, जलन
हो ही जाएगी।
मां गुरु को
बर्दाश्त
नहीं कर
सकेगी। पिता
भी बर्दाश्त
नहीं कर सकेगा,
क्योंकि
पिता का अब तक
तुम पर कब्जा
था। अब किसी
का तुम पर
इतना कब्जा हो
गया कि अगर
गुरु कहे कि
पिता की काट
लाओ गरदन, तो
तुम काट कर ले
आओगे। यह
खतरनाक बात
है।
जीसस
के बड़े
प्रसिद्ध वचन
हैं और बड़े
कठोर भी——कि ''जब
तक तुम अपने
माता—पिता को
इनकार न करोगे,
मेरे पीछे न
चल सकोगे। अनलैस
यू डिनाय..... जब
तक तुम इनकार
न करोगे अपने
माता—पिता को,
मेरे पीछे न
चल सकोगे।'' ईसाइयों को
बड़ी कठिनाई
रही है इन
वचनों को ठीक—ठीक
समझाने की।
उनको पता नहीं
है कुछ। ये
वचन जीसस के
पास किसी
बुद्ध—परंपरा
से आए होंगे।
बुद्ध के वचन
और भी खतरनाक
हैं। बुद्ध ने
कहा : जब तक
तुम अपने मां—बाप
को मार ही न
डालोगे, मेरे
पीछे न चल
सकोगे।
एक
सुबह एक
संन्यासी
विदा हो रहा
है,
बुद्ध का एक
भिक्षु विदा
हो रहा है, यात्रा
पर जा रहा है
बुद्ध का
संदेश
पहुंचाने।
उसने झुककर
बुद्ध के
चरणों में
प्रणाम किया है।
सम्राट
प्रसेनजित उस
दिन दर्शन को
आया था, वह
भी पास बैठा
है। बुद्ध ने
उसके सिर पर हाथ
रखा है——भिक्षु
के। बड़े गद्गद्द
होकर
आशीर्वाद
दिया है। और
फिर
प्रसेनजित से
कहा कि यह
भिक्षु अहत है,
इसने अपने
मां और पिता
को मार डाला
है। प्रसेनजित
तो बहुत
घबड़ाया।
सम्राट था वह।
इस बात की प्रशंसा
की जा रही है
और यह आदमी
हत्यारा है!
वह थोड़ा परेशान
हुआ। उसने कहा
कि यह आदमी
कौन है, इसका
पता—ठिकाना
क्या है? मुझे
इसकी खबर
क्यों नहीं हो
सकी अब तक? इसने
मां—बाप को
मार डाला!
बुद्ध
के भिक्षु
हंसने लगे।
उन्होंने कहा : आप
समझे नहीं।
इसने वस्तुत:
मां—बाप नहीं
मार डाले हैं।
आपके नियम—कानून
के भीतर नहीं
पकड़ा जा सकता
है यह आदमी। यह
किसी और बड़े
नियम के भीतर
चल रहा है।
बुद्ध जब कहते
हैं कि इसने
अपने मां—बाप
मार डाले हैं
तो इसका मतलब
यह है कि अब
बुद्ध के
अतिरिक्त
इसके मां—बाप
नहीं हैं, और
कोई मां—बाप
नहीं, बात
समाप्त हो गई
है। वह नाता
गया। वह संबंध
गया।
तो गुरु
के साथ अड़चन
तो है।
मात
रिसाई, पिता
रिसाई, रिसाए
बटोहिया लोग।
ग्यान
— खड्ग तिरगुन
को मारूं, पांच
पचीसो चोर।।
धरमदास
कहते हैं : लेकिन
मुझे अब फिक्र
नहीं है, मेरे हाथ
में वैसी
तलवार आ गई है
कि मां — बाप को मारने
में तो क्या
रखा है, मित्रों
को मारने में
क्या रखा है!
त्रिगुण, जिनसे
यह पूरा
अस्तित्व बना
है — — सत, रज, तम — — उनको मार
डालूंगा।
जिनसे यह जीवन
बना है, उनको
मार डालूंगा।
इस जीवन की
मूल आधारशिला
को तोड़ दूंगा,
जड़ को काट
दूंगा।.....पांच
पचीसो चोर... ये जो
पांच
इंद्रियों ने
पच्चीसों चोर
खड़े कर रखे
हैं, इन
सबको काटकर
फेंक दूंगा।
तलवार मेरे
हाथ लग गई है।
अब
तो मोहि ऐसी
बनि आवै, सतगुरु
रचा संजोग।
गुरु का काम
ही है संयोग
रचना। बुद्ध
ने इस संयोग
रचने को कहा
है : बुद्धक्षेत्र।
गीता शुरू
होती है——कुरुक्षेत्रे
धर्म—क्षेत्रे।
वह जो
कुरुक्षेत्र
था, वह जो
युद्ध हो रहा
था पांडव और
कौरवों के बीच,
वह
धर्मक्षेत्र
था। उसकी
गहराई में कोई
जाए तो पाएगा
कि वह भी
कृष्ण का रचा
हुआ खेल था।
उस संघर्ष से
ही कृष्ण के
शिष्य साक्षी
बन सकते थे और
निमित्तमात्र
बनकर मुक्त हो
सकते थे।
गुरु
का काम है
संयोग रचना; डिवाइस;
उपाय; एक
परिस्थिति
पैदा करना, जिसमें
घटनाएं घटनी शुरू
हो जाएं।
घटनाएं तो
घटती हैं
शिष्य के
अंतस्तल में,
लेकिन बाहर
वातावरण रचना
होता है। इसी
वातावरण को
रचने के लिए
बहुत उपाय किए
गए हैं। बुद्ध
ने हजारों
लोगों को
भिक्षु बनाया;
वह यही उपाय
था। एक समुदाय
निर्मित
किया। एक मित्रों
की मंडली
इकट्ठी खड़ी
की। एक संघ
निर्मित
किया। अकेले—अकेले
शायद तुम
संसार से न लड़
पाओ। अकेले—अकेले
शायद तुम टूट
जाओ। अकेले—अकेले
शायद तुम डूब
जाओ। तुम्हें
एक वातावरण दिया।
बुद्ध के साथ
दस हजार
भिक्षु चलते थे।
उन दस हजार
भिक्षुओं की
हवा, उन दस
हजार
भिक्षुओं की
शांति, उन
दस हजार
भिक्षुओं का
आनंद साथ चलता
था। उसमें जब
कोई नया
भिक्षु आकर
डूबता था, सरलता
से डुबकी मार
लेता था। यह
दस हजार की तरंग
पर सवार हो
जाता था।
अब
तो मोहि ऐसी
बनि आवै, सतगुरु
रचा संजोग।
आवत
साथ बहुत सुख
लागै, जात
वियापै रोग।।
अब
तो साधु को
देखकर ही बड़ा
सुख लगता है।
अब तो साधु से
मिलन हो जाता
है तो बड़ा सुख
लगता है। अब
तो साधु से
संबंध टूटता
है तो बड़ी
पीड़ा होती है, रोग
लग जाता है।
साधु
किसको कहते
हैं? — —जिसके पास
बैठकर
परमात्मा की
याद आए। जिसके
पास बैठकर
अंतर्यात्रा
की स्मृति
पकड़े। जिसके
पास बैठकर सार
सुनाई पड़े, असार छूटे।
और स्वभावत :
जब साधु के
पास बैठकर
सत्संग जमेगा,
जहां चार
दीवाने मिल
जाते हैं और
परमात्मा की चर्चा
होती है, वहां
आंसुओ की धार
लग जाती है, हृदय नाचने
लगते हैं। तो
फिर जब विदाई
होगी तो पीड़ा
भी होगी।... जात
वियापै रोग।
खून
बन कर मेरी आंखों
से टपकने वाले
नूर
बन कर मेरी आंखों
में समाया
क्यों था?
मगर
जो नूर बनकर
समाएगा, वह
खून बनकर
टपकेगा भी। पर
धीरे—धीरे
धीरे—धीरे
बाहर साधु के
सत्संग की
जरूरत समाप्त
हो जाती है।
अपने ही भीतर
का साधु पैदा
हो जाता है। तब
फिर कोई जरूरत
नहीं रह जाती।
फिर तुम जहां
हो वहीं तीर्थ
है। जहां बैठे
वहीं काबा।
जहां सिर
झुकाया वहीं
मंदिर। जहां पैर
पड़ जाते, वहीं
पवित्रता का
जन्म हो जाता
है।
लेकिन
शुरूआत तो
साधु—संगति से
करनी होगी।
साधुओं के
प्रेम में पड़ो, पर
उसके पूर्व
सतगुरु से मिल
लेना जरूरी
है। नहीं तो
साधु को पहचान
ही न सकोगे।
और असाधु बहुत
हैं और साधु
कभी कोई
बिरला। पहले
तो सतगुरु से
प्रेम लगे।
इश्क
जन्नत है आदमी
के लिए।
इशक
नेमत है आदमी
के लिए।
पहले
तो प्रेम लगे
सतगुरु से।
थोड़ा स्वर्ग
का स्वाद तो
लगे! थोड़ा वह
मंगलदायी अनुभव
तो हो! फिर जब सदगुरू
दिखाई पड़ गया
है,
तो फिर जहां
भी रो श की
छोटी — सी किरण
होगी, तुम
पहचान लोगे।
फिर कहीं जरा —
सा तारा
टिमटिमाता
होगा, तो
भी तुम पहचान
लोगे। तब तुम
सब तरफ सा धु
को पहचानने
लगोगे। और तब
तुम हारे जीवन
में एक
रूपांतरण हो
जाता है। तुम
असा धुओं की
दुनिया के
हिस्से नहीं
रह जाते। तुम
धीरे — धीरे
साधुओं की
दुनिया के
हिस्से हो
जाते हो।
और
तुम जैसे होने
लगते हो वैसे
व्यक्ति
तुम्हारे पास
आने लगते हैं।
और तुम जैसे
व्यक्तियों
के पास जाने
लगते हो वैसे
व्यक्तियों
की पहचान बढ़ने
लगती है। धीरे
— धीरे इसी पृथ्वी
पर तुम किसी
दूसरे ही
संसार के
हिस्से हो जाते
हो। वह दूसरा
संसार : बुद्ध
क्षेत्र, धर्म
क्षेत्र।
धरमदास
बिनवै कर जोरी
सुनु हो बंदी —
छोर। गुरु से
कहते हैं कि
मैं हाथ जोड़
कर प्रार्थना
करता हूं!
तुमने ही मुझे
बंधन से
छुड़ाया, तुमने
मुझे कारागह
से बाहर
निकाला।
जाको
पद त्रैयलोक
से न्यारा सो
साहब कस होय।...
और अभी तो
मैंने गुरु को
ही जाना है — — और
इतना आनंद
इतनी अपूर्व
अनुभूति हो
रही है, कैसा
होगा उसका लोक
— — परमात्मा का! अभी
तो परमात्मा
को जाननेवाले
को जाना है, तो भी इतना
आनंद झलक रहा
है। अभी तो
दर्पण में
उसकी तस्वीर
देखी है। अभी
उसकी तस्वीर
नहीं देखी। अभी
तो पानी की
झील में बनता
हुआ चांद देखा
है। अभी असली
चांद नहीं
देखा। अभी तो
गुरु के भीतर
क्या घटा है, यह देखा है।
मगर जिसके
कारण घटा है, उस मालिक को,
उस साहब को...
या मालिक!
''
साहब '' शस्त्र
बड़ा प्यारा है।
साहब का मतलब : मालिक!
गुरु को भी
साहब कहते हैं,
क्योंकि
पहले तो साहब
के दर्शन गुरु
में ही होते
हैं। गुरु में
हम अ ब स सीखते
हैं साहब का।
गुरु, ऐसा
समझो कि तुम
तैरने गए हो, तो उथले — उथले
पानी में
तैरना सीखते
हो; एक दफे
तैरना सीख
लिया तो फिर
सागरों में
तैर जाओ। गुरु
तो उथला — उथला
पानी है, जहां
तुम तैरना सीख
सकते हो। गुरु
तुम्हारे और
परमात्मा के मध्य
की कड़ी है।
गुरु किनारे
और मध्य के
बीच कड़ी है।
गुरु देह में
परमात्मा है।
रूप है, आकार
है, सीमा
है। सीमा है, रूप है, आकार
है — — इसलिए तुम
संबंधित हो
सकते हो, प्रेम
कर सकते हो।
अरूप को कैसे
प्रेम करोगे? निराकार को
कैसे प्रेम
करोगे?
निराकार के
प्रेम में
गिरोगे कैसे?
तो
पहले तो साहब
को खोजो गुरु
में। फिर गुरु
तुम्हें धीरे—
धीरे उस साहब
से मिला देगा
जो निराकार है।
आकार का प्रेम
धीरे— धीरे
निराकार की
अनुभूतइ में
सहयोगी हो
जाता है। रूप
को पहचानते—पहचानते
अरूप से भी
मिलन होने
लगता है।
स्भूल से
पहचान करो तो
धीरे— धीरे
सूक्ष्म में
भी गति हो
जाती है।
जाको
पद त्रैयलोक
से न्यारा सो
साहब कस होय।
साहब
येहि विधि ना
मिलै चित चंचल
भाई।... अड़चन
क्या है? साहब
मिलता क्यों
नहीं?
क्योंकि
चित्त चंचल है।
चित्त ठहरता
नहीं। चित्त
रुकता ही नहीं।
तुमने
क्या कभी देखा, जब
तुम्हारा
किसी से प्रेम
हो जाता है तो
चित्त ठहरने
लगता है। किसी
स्त्री के तुम
प्रेम में पड़
गए, फिर
तुम लाख कामों
में उलझे रहते
हो, उसकी
याद भीतर बहती
रहती है— —सतत
धारा की भांति।
बाजार में हो— —और
उसकी याद भीतर।
दुकान पर हो— —और
उसकी याद भीतर।
काम कर रहे हो— —और
उसकी याद भीतर।
रात सोते हो, उसका सपना
भीतर चलता है।
दिन उसकी
स्मृति। कुछ
भी करते रहते
हो, उसकी
याद बहती रहती
है। एक सातत्य
हो जाता है
स्मृति का। एक
मृंखला बंध
जाती है।
तुम्हारे
जीवन में बस
प्रेम का ही
एक अनुभव है, जब
तुम्हारे
चित्त की
चंचलता थोड़ी
कम होती है।
इसी अनुभव से
सीखो। यही
प्रेम बहुत
विराट होकर
गुरु के साथ
जुड़ जाए तो
चित्त अचंचल
हो जाता है।
साहब
येहि विधि ना
मिलै चित्त
चंचल भाई।
माला
तिलक उरमाइके
नाच अरु गावै।
फिर
तुम कितनी ही
माला घुमाओ, कितना
ही तिलक लगाओ,
कितने ही
नाचो और गाओ— —अगर
प्रेम नहीं लग
गया है तो सब
थोथा—थोथा है,
सब ऊपर—ऊपर
है, सब
औपचारिक है, क्रियाकांड
है। और तुम
भेद समझ लेना।
क्योंकि
क्रियाकांड
बहुत प्रचलित
है। मंदिर में
जाते हो तो
फूल चढ़ा देते
हो। जरा सोचना,
हृदय चढ़ता
है या नहीं? मंदिर के
सामने से
निकले, हाथ
जोड़ लेते हो।
प्राण जुड़ते
हैं या नहीं? नहीं तो
उपचार छोड़ दो।
उपचार का धोखा
मत रखो। उपचार
पाखंड है। अगर
प्राण न जुड़ते
हों तो हाथ मत
जोड़ो। और अगर
हृदय न चढ़ता
हो तो प१३२.::द)ल
मत चढ़ाओ। क्या
सार होगा हृदय
का फूल चढ़े तो
ही चढ़े। फिर
बाहर का फूल
भी उपयोगी हो
जाता है। हृदय
से जोड़ बन जाए
तो कुछ ऐसा
नहीं है कि
धनी धरमदास कह
रहे हैं कि
नाचना और गाना
मत। धनी धरमदास
खुद खूब नाचे
और गाए।
उन्हीं का गीत
तो हम सुन रहे
हैं। यह नहीं
कह रहे हैं कि
नाचना और गाना
मत। यही कह
रहे हैं कि
नाच और गाने
में तुम होना,
बस नाच ही
गाना न हो।
ओठों पर ही न
हो गीत, रोएं—रोएं
में समाया हो।
पुकार ऊपर ही
ऊपर शब्दों की
न हो।
ऐसी
नमाज से गुजर, ऐसे
इमाम से गुजर
बेसरूर—
— जिसमें नशा
ही नहीं है, आंखें
मदमाती नहीं
हैं...! मंदिर
चले गए, तुम्हारी
आंख में कोई
नशा नहीं
दिखाई पड़ता।
तुम मंदिर से
लौटकर
डगमगाते नहीं
दिखते। शराबी
बेहतर है।
लड़खड़ाता तो
है! तुम
लड़खड़ाते ही
नहीं हो! इतनी
बड़ी मधुशाला
में गए और ऐसे
ही चले आए! होश
संभाले के
संभाले!
बेहोशी जरा भी
लगी नहीं।
तेरा
इमाम बेहजर, तेरी
नमाज बेसरूर
ऐसी
नमाज से गुजर, ऐसे
इमाम से गुजर
छोड़ो
ऐसी नमाज!
छोड़ो ऐसा
क्रियाकांड।
ऐसी प्रार्थना, जो
तुम्हें न शे
से नहीं भर
देती, जो
तुम्हें नचा
नहीं देती, जो तुम्हें
आनंद — मग्न
नहीं कर देती,
जो
तुम्हारे
भीतर मधु श गला
के द्वार नहीं
खोल देती — —
छोड़ो!
जाहिदे
कमनिहाद ने
रस्म समझ लिया
तो क्या
कसदे
कयाम और है
रस्मे— कयाम
से गुजर
एक
तो रस्म है— —
उपचार। और एक
असलियत है— —
भाव। तुम किसी
से कहते हो, '' मुझे
तुमसे प्रेम
है '' और
भीतर कोई
प्रेम नहीं
हैं— — तो यह
रस्मे— कयाम
है। बस एक
उपचार निभा
रहे हो। कहना
चाहिए सो कह
रहे हो। फिर
तुम्हारा
किसी से प्रेम
है और शायद
तुम कहते भी
नहीं, कहने
की शायद जरूरत
भी नहीं पड़ती,
बिना
शब्दों के
प्रकट हो जाता
है। तुम्हारे
आने का ढंग
कहता है।
तुम्हारे
देखने का ढंग
कहता है।
तुम्हारा हाथ
हाथ में लेने
का ढंग कहता
है। तुम्हारी आंखें
कहती हैं।
तुम्हारा नशा
कहता है। और
अगर तब तुम
कहो भी कि
मुझे तुमसे
प्रेम है तो
उसमें अर्थ
होता है। अर्थ
प्राणों से
आता है। अर्थ
शब्दों में
कभी नहीं होता।
शब्द तो चली
हुई कारतूस
जैसे भी हो
सकते हैं।
भीतर बारूद
होनी चाहिए।
जाहिदे
कमनिहाद ने
रस्म समझ लिया
तो क्या?
और
लोग रस्म समझ
कर बैठ गए हैं, निभा
रहे हैं।
मंदिर जाना
चाहिए सो जाते
हैं। गणेश—
उत्सव आ गया, सो गणेश जी
की पूजा करते
हैं। न गणेश
जी से कुछ
लेना है, न
पूजा से कोई
प्रयोजन है।
सदा होता रहा
तो करते हैं।
बाप—दादे करते
रहे हैं तो हम
भी करते हैं।
एक लकीर है, सो उसको
पीटते हैं।
मस्जिद जाना
है तो मस्जिद
जाते हैं।
रविवार का दिन
है तो चर्च
जाते हैं।
रविवारीय
धर्म से उतरो,
पार हटो!
रविवारीय
धर्म से गुजरो।
रस्मे—कयाम से
ऐसी नमाज से
गुजर, तेरी
नमाज बेसरूर!.......
नशा चाहिए!
और
एक बड़ी
अनिवार्य बात खयाल
रखना, अगर तुम
व्यर्थ न करो
तो सार्थक
करने की स्मृति
आए बनी नहीं रहेगी।
आएगी ही।
क्योंकि
मनुष्य एक खोज
है। तुम अगर
खिलौनों में
उलझे रहो, तो
तुम असली की
तलाश करोगे ही।
तुमने
देखा, छोटे
बच्चों को हम
धोखा देते
हैं! मां काम
में है और
बच्चे को अभी
स्तन नहीं दे
सकती, उसको
एक अनी पकड़ा
देती है— — रबर
की अनी। बच्चा
रबर की अनी
मुंह में ले
लेता है, आंख
बंद करके बड़े
मजे में हो
जाता है।
चूसता है, सोचता
है कि स्तन है।
स्तन जैसा
मालूम पड़ता है।
मगर उससे कोई
पुष्टि तो
मिलेगी नहीं।
उससे कोई पोषण
तो मिलेगा
नहीं। तुमने
बच्चे को धोखा
दे दिया। धोखे
की शुरूआत हो
गई। फिर ऐसे
ही पंडित —
पुजारी
तुम्हें अनी
दे रहे हैं।
हृदय में तो
परमात्मा
विराजमान
नहीं है;
बाजार गए और
एक मूर्ति खरीद
लाए। विराज
दिया
परमात्मा को
घर में और
हृदय में जगह
नहीं है कोई।
तुम अनी ले आए,
इससे पोषण
नहीं होगा, इससे प्राण
रूपांतरित
नहीं होंगे।
तुम किसको
धोखा दे रहे
हो? यह
खिलौना ले आए।
खिलौनों की
पूजा में लगे
हो?
छोटे—
छोटे बच्चे
गुइडा — गुड्डी
का विवाह
रचाते हैं और
बड़ी उम्र के
बच्चे रामलीला
करते हैं। मगर
सब खेल है।.......
ऐसे इमाम से
गुजर, ऐसी नमाज
से गुजर।......
इससे तुम छूट जाओ
तो तुम ज्यादा
देर खाली न रह
सकोगे। अगर
बच्चे को उसकी
अनी छीन ली
जाए, वह
फिर रोने
लगेगा। वह फिर
पुकारने
लगेगा मां को
कि मुझे भूख
लगी है। वह
अनी धोखा दे
रही है।
इसलिए
बहुत बार
तुम्हें मेरी
बातें कठिन
लगती होंगी, क्योंकि
मैं बहुत
चोटें करता हू
तुम्हारी उन सब
बातों पर
जिनको तुमने
धर्म समझा है।
चोट इसलिए
करता हूं कि
अनी तुम्हारे
मुंह से निकाल
ली जाए तो तुम
मां को फिर
पुकारो, तो
तुम्हें अपनी
भूख का पता
चले, तो
तुम्हें अपनी
पीड़ा का अनुभव
हो। और पीड़ा
से प्रार्थना
है। पीड़ा से
पुकार है। तब
एक पुकार
उठेगी जो दूर
आकाश को भेद
देती है, जो
सारे
अस्तित्व के
प्राणों को
कंपा देती है।
परमात्मा
का उत्तर आ
सकता है, मगर
तुम्हारी
पुकार नहीं आ
रही। तुम अपनी
अनी लिए बैठे
हो। अलग — अलग
चूसनियां हैं।
किसी की एक
ढंग की, किसी
की दूसरे ढंग
की। किसी के
पास एक
फैक्ट्री की
बनी, किसी
के पास दूसरी
फैक्ट्री की
बनी। कोई गीता
को चूस रहा है,
कोई कुरान
को चूस रहा है।
पर सब
चूसनियां लिए
बैठे हुए हैं।
उनकी शस्त्र?
से पता चल
रहा है कि अनी
लिए बैठे हैं।...
तेरी नमाज बेसरूर!
जागो!
धर्म का संबंध
तो मतवालेपन
का संबंध है।
वह दीवानों की
बात है। एक
बूंद पड़ जाएगी
तो नाच उठोगे।
एक बूंद ऐसा
नचाएगी कि नाच
रुकेगा नहीं।
और तुम अनी
लिए बैठे हो
इतने दिन से
और कोई नाच पैदा
नहीं हुआ। कोई
जीवन में आनंद
की जरा — सी झलक
नहीं, कोई फूल
नहीं खिले।
माला—तिलक
उरमाइके, नाचै
अरु गावै।
अपना
मरम जानै नहीं
औरन समुझावै।।
और
बड़ा मजा चल
रहा है इस
दुनिया में, जिनको
खुद कुछ पता
नहीं है वे
दूसरों को
समझा रहे हैं।
समझाने का एक
फायदा है :
उससे तुम्हें
यह बात भूल
जाती है कि
हमको पता नहीं।
समझाने में एक
दूसरा और
फायदा है कि
दूसरे को समझाते—
समझाते
तुम्हें यह
भांति पैदा हो
जाती है कि मैं
भी समझ गया।
दूसरे में
उलझकर अपनी
याद ही भूल
जाती है।
दूसरे की
चिंताएं, दूसरे
के प्रश्रों
का जवाब देते—
देते तुम्हें
याद ही नहीं
रहता कि मेरे
भी अभी प्रश्न
हैं जिनके
जवाब मिले
नहीं। फिर
अहंकार को भी
बड़ी तृप्ति
मिलती है कि
मैं जाता और
दूसरा
अज्ञानी।
समझाने का यही
तो मजा है।
समझानेवाला
जानी हो जाता
है, जो
समझने बैठ गया
वह अज्ञानी हो
जाता है।
पांडित्य
से बचना।
पांडित्य जहर
है। और यह रोग
ऐसा है कि एक
बार पकड़ जाए
तो बड़ी
मुश्किल से
छूटता है।
कैंसर का इलाज
है,
पांडित्य
का इलाज नहीं
है। कैंसर का
नहीं है तो हो
जाएगा कल इलाज,
लेकिन
पांडित्य का
कभी नहीं रहा
और कभी नहीं होगा।
कैंसर तो शरीर
को मार डालता
है, पांडित्य
आत्मा को सड़ा
डालता है।
अपना मरम जानै
नहीं, और न
समुझावै।
जख्मे—दिल
पर दवा तो लग
जाए
आंख
मेरी जरा तो
लग जाए
खून
हो—होके दिल
टपकता है
इसके
मुंह को मजा
तो लग जाए
रक्शे—आलम
को यूं ही
रहने दो
दिल
मिरा एक जौ तो
लग जाए
क्यों
दरे—मैकदा का
बंद करें
शेख
गुजरे हवा तो
लग जाए
उसको
दुनिया में
ढूंढ ही लेंगे
अपने
दिल का पता तो
लग जाए
मगर
अपने दिल का
पता ही नहीं
लगता। और
परमात्मा को
लोग खोजने चल
पड़ते हैं, स्वयं
को अभी खोजा
नहीं।
उसको
दुनिया में
ढूंढ ही लेंगे
अपने
दिल का पता तो
लग जाए
खाक
ही होके चैन
पा जाऊं
मुझको
इक बदुआ तो लग
जाए
तुझको
मेरा पता
लगाना है
मेरे
आलम में आ, तो
लग जाए
लाख
वह बेवफा सही ''सलमा''
उसको
मेरी वफा तो
लग जाए
सबसे
महत्वपूर्ण, सबसे
प्रथम काम है
इस बात को
समझना कि मुझे
पता नहीं है, कि मैं
अज्ञानी हूं,
कि मेरा
सारा ज्ञान
थोथा है, कि
मैंने ज्ञान
सब उधार लिया
है, कि
मेरा ज्ञान
नगद नहीं है।
जिसको अपने
अज्ञान का पता
है उसने ज्ञान
की तरफ पहला
और सबसे
महत्वपूर्ण
कदम उठा लिया।
लेकिन
पंडित को यह
पता नहीं चल
पाता। उसे सब
पता है। और
उसका पता वैसे
ही है जैसे
तोतों को पता
होता है। तोते
को जो कहो, दोहरा
दे। और कभी—कभी
तो तोता पंडित
से ज्यादा
बेहतर होता है।
मैंने
सुना है कि एक
पंडित एक तोता
खरीदने गया।
उसने तोते की
दुकान पर कई
तोते देखे। एक
तोता उसे पसंद
आया। बड़ा
शानदार तोता
था। पर
दुकानदार ने
कहा : यह जरा
मैं बेचना
नहीं चाहता।
यह मुझे भी
बहुत प्यारा
है। यह मेरी
दुकान की रौनक
और मेरी शान
है। पर पंडित
ने कहा : जो भी
दाम होंगे, दूंगा।
मेरा भी मन भा
गया है इस
तोते पर। इसकी
खूबी क्या है?
उसने
कहा कि इसकी
खूबी यह है कि
अगर... इसके
बाएं पैर में
देखते हो, एक
रस्सी बंधी है,
धागा पतला—सा,
इसको जरा
खींच दो तो यह
तत्क्षण
गायत्री
मंत्र बोलता है।
पंडित
तो बहुत खुश
हुआ कि यह तो
बड़ी खूबी की
बात है।
और
इसके दाएं पैर
में जो बंधा
है? उसने कहा कि
अगर दाएं पैर
का खींच दो तो
तत्क्षण
नमोकार मंत्र
बोलता है। यह
तोता जैनियों
और हिंदुओं
दोनों को
प्यारा है।
पंडित
ने पूछा : और
अगर दोनों
धागे एक साथ
खींच दो?
तोता
बोला : अरे बुद्धू! चारों
खाने चित नीचे
गिर पडूंगा।
कभी—कभी
तोते
तुम्हारे
पंडितों से
ज्यादा समझदार
होते हैं।
दोनों पैर अगर
खींचोगे तो
गिर ही पड़ेगा
चारों खाने
चित। पंडित
सोचता था कि
शायद दोनों
पैर एक साथ
खींचने से कुछ
समन्वय का
सूत्र बोलेगा :
'' अल्ला ईश्वर
तेरे नाम, सबको
सन्मति दे
भगवान! ''....... कि
नमोकार मंत्र
और गायत्री
मंत्र का
मिक्श्वर
करके बोलेगा
या कुछ होगा।
पांडित्य
तोता—रटत है।
शास्त्र से
मुक्त होना
पड़ता है सत्य
की यात्रा में।
शब्द से जागना
पड़ता है सत्य
की यात्रा में।
अपना
मरम जानै नहीं
औरन समुझावै।
देखे
को बक ऊजला, मन
मैला भाई।
देखते
हो बगुले को!
बिल्कुल
गांधीवादी!
शुभ खादी के
वस्त्र! बगुले
को देखते हो!
बड़े—बड़े
नेताओं के
वस्त्र भी
थोड़े फीके पड़
जाएं। बगुला
बड़ा पुराना
गांधीवादी है।
सदा से ही शुभ
खादी में
भरोसा करता है।
देखे को बक
ऊजला, मन मैला
भाई। लेकिन
भीतर...।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
चला जा रहा था
एक रास्ते पर।
नुमाइश लगी थी।
बड़े शुभ
वस्त्र पहने
हुए— —झकझक, अभी
धुलवाए! बूढा
हो गया है, बाल
भी सफेद, वस्त्र
भी सफेद! बड़ा
प्यारा लग रहा
था! मगर एक सुंदर
स्त्री के
पीछे हो लिया।
बारबार उसे
धक्के देने
लगा, कहीं
टुहनी मारने
लगा, कहीं
च्योंटिया
निकालने लगा।
आखिर
उस स्त्री ने
कहा कि भले
मानस! कुछ
खयाल तो करो!
अपने सफेद
कपड़ों का खयाल
करो! अपने
सफेद बालों का
तो खयाल करो।
मुल्ला
ने कहा कि बाई, बालों
के सफेद होने
से क्या होता
है, दिल तो
अभी भी काला
है। और दिल का
ही सवाल है।
पांडित्य
बस ऊपर—ऊपर के
सफेद वस्त्र
हैं,
भीतर कुछ भी
नहीं है।
अहंकार का मजा
है। दूसरे को
समझाने में
मजा आता है।
इसलिए तो
दुनिया में
सलाह जितनी दी
जाती है उतनी
और कोई चीज
नहीं दी जाती।
मुफ्त दी जाती
है। सलाह
देनेवालों का
कोई अंत ही
नहीं है। और
मजा यह भी है
कि सलाह इतनी
दी जाती है, मगर लेता
कोई नहीं।
कहते हैं
दुनिया में
सबसे ज्यादा
दी जानेवाली
चीज सलाह है
और सबसे कम ली
जानेवाली चीज
भी सलाह है।
देनेवाले को
देने का मजा
है; उसको
भी फिक्र नहीं
है कि तुम लो।
सच तो यह है, उसने अपनी
सलाह के
अनुसार खुद भी
चलकर कभी देखा
नहीं है।
एक
मनोवैज्ञानिक
के पास एक
स्त्री गयी।
उसका बेटा उसे
परेशान कर रहा
था,
बहुत ऊधमी
था, मारपीट
भी करनी पड़ती
थी। उसने
मनोवैज्ञानिक
से कहा कि मैं
क्या करूं?
मनोवैज्ञानिक
ने कहा कि यह
बिल्कुल ठीक
नहीं है।
मनोविज्ञान
के अनुसार
बच्चे को
मारना बिल्कुल
गलत है, अपराध
है। फ्रायड कह
गए हैं, एडलर,
जुंग भी कह
गए हैं, सब
बड़े
मनोवैज्ञानिक
कह गए हैं कि
बच्चे को मारना
उसको जीवनभर
के लिए
ग्रंथियों से
ग्रस्त कर
देना है।
उस
स्त्री ने कहा
: अच्छा! आपके
बच्चे हैं या
नहीं?
मनोवैज्ञानिक
थोड़ा ढीला पड़ा।
उसने कहा कि
बच्चे हैं।
तो
उस स्त्री ने
पूछा : ईमान से
मुझे कहो, सच—सच
कहो।
मनोविज्ञान
एक तरफ रखो।
कभी उनको
मारते हो या
नहीं?
अब
उसने कहा : अब
तुम से क्या झूठ
बोलें। अगर
ऐसी ही बात
पूछती हो, तो
आत्मरक्षा के
लिए मारना ही
पड़ता है।
आत्म—रक्षा
के लिए!
तुम
जरा खयाल करना, तुम
जो सलाह दूसरे
को देते हो, कभी स्वयं
भी मानी?
अगर दुनिया
में लोग अपनी
सलाहों पर थोड़ा
विचार करें तो
दुनिया बड़ी
शांत हो जाए।
लोग सलाहें न
दें, पहले
उसका उपयोग
करें।
आंख
मुंदि मौनी
भया मछरी धारि
खाई।... देखते
हो बगुले को, खड़ा
रहता है, बिल्कुल
मौन साधे, बिल्कुल
ध्यान करता।
बुद्ध भी थोड़े—बहुत
हिलते होंगे,
मगर बगुला
नहीं हिलता।
और एक टांग पर खड़ा
होता है! सबसे
पुराना योगी
है। एक पैर पर
खड़े होना, फिर
बिल्कुल बिना डूले,
एकटक, शांत,
मौन... जरा भी
नहीं हिलता, क्योंकि
हिले तो पानी
हिल जाए, तो
मछली भाग जाती
है।
तुम
जरा अपने साधु—महात्माओं
के पास गौर से
जाकर देखना— —कहीं
तुम्हारी
मछली को
फांसने के लिए
आंख बंद करके
तो नहीं बैठे
हैं? तुमसे कुछ
लेने को तो
नहीं हैं?
तुमसे कुछ
पाने की
आकांक्षा तो
नहीं हैं?
और तुम चकित
होओगे कि तुम
जिनके पास गए
हो वे वैसे ही
भिखारी हैं
जैसे तुम
भिखारी हो।
उनकी नजर, जो
तुम्हें शांत
दिखाई पड़ती है,
सिर्फ धोखा
है। और उनका
आसन, जो
तुम्हें अडिग
दिखाई पड़ता है,
केवल धौखा
है, पाखंड
है। और ऐसा
नहीं है कि
सभी बगुले हैं,
कभी—कभी कोई
हंस भी है।
मगर बड़ी
सावधानी
चाहिए। बड़ी
सावधानी से
चलोगे तो ही सदगुरू
को पा सकोगे।
और
अकसर ऐसा हो
जाता है कि
बगुला
तुम्हें ज्यादा
जंच जाएगा, क्योंकि
बगुला तुम्हारे
हिसाब से चलता
है। वह देखकर
चलता है;
तुम्हारी
क्या—क्या
आकांक्षाएं
हैं, वह
पूरी करता है।
तुम अगर कहते
हो कि जनेऊ
धारण होना
चाहिए तो वह
जनेऊ धारण
करता है। तुम
कहते हो माथे
पर ऐसा तिलक
होना चाहिए, तो वैसा
तिलक लगाता है।
वह तुम्हारी
आकांक्षाएं
पूरी करने को बैठा
है। वह जानता
है तुम्हारी
क्या अपेक्षा
है। वह पूरी
करता है। सदगुरू
तुम्हारी कोई
अपेक्षा पूरी
नहीं करेगा।
इसलिए सदगुरू
को अकसर तुम
पसंद न कर
पाओगे।
इसको
खयाल में रखना, बगुला
तुम्हें अकसर
पसंद आ जाएगा,
क्योंकि
तुमसे मेल
खाएगा। वह
तुम्हारे लिए
ही बैठा हुआ
है। तुम्हारे
साथ मेल खाने
की उसने
तैयारी ही कर रखी
है। तुम अगर
उपवास पसंद
करते हो, वह
उपवास का ढोंग
करेगा। तुम
अगर राम—नाम
मानते हो तो
वह राम—नाम की
चदरिया ओढ़े
बैठा हुआ है।
तुम जो मानते
हो, उसने
उसका आयोजन
किया हुआ है।
वह तुम्हीं को
फांसने बैठा
है, तुम्हें
राजी न करेगा
तो कैसे?
लेकिन
सदगुरू
तुम्हें राजी
करने नहीं, सदगुरू
तुम्हें
नाराज करेगा। सदगुरू
तुम्हें
झकझोरेगा। सदगुरू
तुम पर चोट
करेगा। तुम
तिलमिला
उठोगे। तुम
नाराज हो
जाओगे। तुम
शायद कसम खा
लोगे कि
दुबारा इस जगह
नहीं आना है, यह आदमी
खतरनाक है। सदगुरू
तुम्हारे
विचारों से
सहमत हो ही
नहीं सकता।
अगर तुम्हारे
विचारों से
सहमत हो जाए
तो तुम्हारे
काम का ही न
रहा। सदगुरू
के साथ
तुम्हें सहमत
होना पड़ेगा, सदगुरू
तुम्हारे साथ
सहमत नहीं
होता।
मैं
एक घर में
मेहमान था।
जैन घर था।
उन्होंने बड़ा
मेरा स्वागत
किया और कहा
कि आप तो हमें
ऐसे हैं जैसे
पच्चीसवें
तीर्थंकर।
मैने कहा :
थोड़ा ठहरो!
तीन दिन
तुम्हारे घर
रह
जाऊं, जाते
वक्त फिर
पूछूंगा।
उन्होंने कहा :
क्यों? वे
थोड़ा चौंके।
मैंने कहा : तुम
अभी मुझे
जानते ही नहीं
हो, अभी
इतनी जल्दी
पच्चीसवां तीर्थंकर
मत कहो।
शाम
को ही गड़बड़ हो
गयी। शाम को
ही भोजन का
समय आया और एक
सज्जन मुझसे
मिलने आ गए।
बूढे थे, बड़ी
दूर से चलकर
आए थे, तो
मैं उनसे
बातचीत में लग
गया। गृहणी ने
आकर कहा कि
समय हो गया, '' अन्थउ '' का
समय हो गया।
सूरज ढला जाता
है, आप
जल्दी उठिए।
मैंने
कहा : सूरज को
ढल जाने दो।
ये वृद्ध
सज्जन बड़ी दूर
से आए हैं, इनसे
मैं पूरी बात
कर
लू।
वह
महिला तो
चौंककर खड़ी हो
गई। उसने कहा : क्या
आप रात्रि —
भोजन करते हैं?
मैंने कहा : मुझे
जब भूख लगती
है तब भोजन
करता हूं। दिन
और रात से भोजन
का क्या संबंध? भोजन का
संबंध भूख से
है।
लेकिन
उसने कहा कि
महावीर
स्वामी तो
रात्रि — भोजन
नहीं करते थे।
मैंने कहा : उनके
समय में बिजली
नहीं थी, मेरे
समय में बिजली
है। उनके समय
में मैं भी
होता तो मैं
भी रात भोजन नहीं
करता।
जब
मैं लौटने लगा
— — और इस तरह की
कई तीन दिनों
में घटनाएं
घटीं — — जब
मैंने पूछा
तीसरे दिन
चलते वक्त कि
क्या विचार है, मैं
पच्चीसवां तीर्थंकर
हूं कि नहीं? उन्होंने
कहा : अब हम
नहीं कह सकते।
रात्रि — भोजन
आप करते हैं!
तीर्थंकर
रात्रि — भोजन
कर ही नहीं
सकता।
तो
मैने कहा : गया
मेरा तीर्थंकर
— पद। फिर
दुबारा
उन्होंने
मुझे कभी
निमंत्रण
नहीं दिया घर
में ठहरने का।
बात ही खत्म
हो गई। मैं
किसी काम का
ही न रहा।
उनसे राजी हो
जाता तो मैं
पच्चीसवां तीर्थंकर
था,
लेकिन तब
मैं बेकार था।
तब वे मेरे
गुरु थे, मैं
उनका शिष्य था,
उनसे मैं
राजी हुआ था।
जानकर उस दिन
मैंने रात्रि —
भोजन किया, आमतौर से
मैं नहीं करता।
उस दिन रात्रि
— भोजन करना ही
पड़ा, यह
मौका मैंने
नहीं छोड़ा। यह
एक चोट थी जो
करनी जरूरी थी।
ऐसे
वर्षो में कभी
एक — आध मौका
कोई आता है, जब
किसी को चोट
करनी हो तो
मैं रात्रि
भोजन करता हूं,
नहीं तो नहीं
करता।
क्योंकि
बिजली होने से
ही क्या होता
है? सूरज
के साथ भूख
तृप्त हो जाए,
तो शस्त्र के
लिए सबसे
बेहतर है। मगर
इसकी कोई लकीर
का फकीर बनाने
की जरूरत नहीं
है। इस पर कोई
जीवन ढालने की
जरूरत नहीं है।
ये कोई जीवन
के और धर्म के
नियम नहीं हैं।
ये स्वास्थ्य
के नियम हैं, हाइजिन के
नियम हैं।
इनसे किसी
धर्म का कोई
लेना — देना
नहीं है।
यह
बिल्कुल ठीक
है कि सूरज के साथ
भोजन ले लिया
जाए। जब सूरज
उष्ण होता है
तो श में
पचाने की
क्षमता होती
है। जैसे ही
सूरज ढल जाता
है,
श के पचाने
की क्षमता ढल
जाती है। मगर
यह नियम तो स्वास्थ्य
का है। स्वास्थ्य
का नियम
तोड्ने से पाप
नहीं होता। स्वास्थ्य
का नियम
तोड्ने से
थोड़ा — बहुत स्वास्थ्य
में नुकसान
पहुंचता है।
और ऐसा कोई एक—आध
दिन रात भोजन
कर लेने से
कोई तुम्हारी
पाचन—प्रक्रिया
नष्ट नहीं हो
जाती है। ऐसा
रोज—रोज करते
रहो तो होती
है।
मगर
उस रात मुझे
करना ही पड़ा।
वह बूढा तो सिर्फ
बहाना था। उसे
मैंने और
बातों में
लगाए रखा।
थोड़ी रात हो
ही जाने दी, क्योंकि
वह पच्चीसवां
तीर्थंकर
होना मुझे नहीं
जंच रहा था।
मैं किसी का
तीर्थंकर
नहीं होना
चाहता। मैं
पिटी—पिटाई
किसी परंपरा
का हिस्सा
नहीं होना
चाहता। जब मैं
पहला ही हो
सकता हूं तो
पच्चीसवां
क्यों होना? किसको
अच्छा लगता है
क्यू में खड़ा
होना! चौबीस
के पीछे खड़े
हैं, अभी
आगे के
तीर्थंकर जब
हटेंगे तब
नंबर आएगा।
आंखि
मुंदइ मौनी
भया,
मछरी धरि
खाई।
कपट—कतरनी
पेट में, मुख
वचन उचारी।
अंतर
गति साहेब लखै, उन
कहां छिपाई।।
यह
जो पंडित है, यह
जो दूसरों को
समझा रहा है, यह जो
समझाने को ही
अपने अहंकार
की यात्रा बना
लिया है, यह
अनिवार्य रूप
से तुमसे राजी
होगा। यह
तुम्हें
देखकर चलेगा।
तुम जो कहोगे,
वही करेगा।
राजनीति
का एक नियम है :
नेता को सदा
अपने अनुयायी
के पीछे चलना
होता है।
अनुयायी जो
कहे,
नेता उसको
और जोर से
कहता है।
अनुयायी को यह
भांति होती है
कि नेता ने
पहले नारा
दिया। यह बात
बिल्कुल गलत
है। नेता तो
जांचता रहता
है कि अनुयायी
क्या कहने जा
रहा है।
मैंने
सुना, मुल्ला
नसरुद्दीन
अपने गधे पर
बैठकर बाजार से
निकल रहा था।
एकदम तेजी से
चला जा रहा था।
लोगों ने कहा :
नसरुद्दीन, कहां जा रहे
हो? उसने
कहा : मुझसे मत
पूछो, गधे
से पूछो।
क्योंकि इस
गधे के साथ
बड़ी हुज्जत
होती है। अगर
मैं इसको कहीं
ले जाना चाहता
हूं तो बीच
बाजार में अड़
जाता है, इधर—उधर
जाने लगता है।
उससे बड़ी
बदनामी होती
है। लोग कहते
हैं, तुम्हारा
गधा है मुल्ला
और तुम्हीं से
नहीं मानता।
तो मैंने अब
एक तरकीब सीख
ली है। जब
निकलता हूं, लगाम
बिल्कुल छोड़
देता हूं।
इससे कहता हूं,
बेटा चल
जहां जाए, बाजार
से वहीं मुझे
ले चल। मगर
बाजार में
प्रतिष्ठा तो
रहे कि मेरा
गधा मुझे
मानकर चलता है।
नेता
हमेशा
अनुयायी के
पीछे चलता है।
तुम जो कहो, नेता
उसी को जोर से
चिल्लाता है।
नेता देखता
रहता है पीछे
लौट—लौट कर कि
तुम किस तरफ
जा रहे हो, जल्दी
से उचक कर
तुम्हारे आगे
हो जाता है।
वही होशियार
नेता कहलाता
है। उसी को
राजनीतिज्ञ
कहते हैं, जो
देख ले समय के
पहले, हवा
बदलनेवाली है।
वह नई हवा पर
सवार हो जाए।
वह पुराना ही
रट लगाए रखे
तो कोई ज्यादा
समझदार नेता
नहीं है। जनता
ही चली गई, वे
अकेले ही रह
गए। वे चिल्ला
रहे हैं, कोई
सुननेवाला
नहीं है। चूक
गए।
नेता
को समय की परख
होनी चाहिए।
मगर नेता नेता
नहीं होता, धौखा
है नेता का।
सदगुरू
कोई नेता नहीं
है,
राजनीतिज्ञ
नहीं है। सदगुरू
तुम क्या
मानते हो, उसको
कहकर नहीं
तुम्हें राजी
कर लेता। सदगुरू
को जैसा
दिखायी पड़ता
है वैसा कहता
है। फिर
तुम्हें चोट
लगे तो लगे, तुम नाराज
होओ तो होओ, सूली चढ़ाओ
तो चढ़ाओ, तुम
जहर पिलाओ तो
पिलाओ। मगर सदगुरू
के साथ ही
होओगे तो
रूपांतरण है।
जो तुम्हारे
साथ हो गए हैं,
जो साधु —
संन्यासी, महात्मा
तुम्हारे
पीछे चल रहे
हैं, उनसे
तुम्हारे
जीवन में क्या
क्रांति हो
सकती है?...
कपट— कतरनी
पेट में मुख
वचन उचारी।
कुछ कहता है और
भीतर कुछ और
है।
अंतर
गति साहब लखै...
लेकिन
परमात्मा तो
अंतर गति
जानता है।
तुम्हारे कहे
को नहीं
सुनेगा, तुम्हारे
भीतर की गति
को पहचनाता है।
उन
कहां छिपाई...
उससे छिपाने
से क्या होगा?...
आदि अंत की
वार्ता सदगुरू
से पाओ। और
जैसा परम
परमात्मा
तुम्हारी
अंतर— गति
जानता है, वैसे
ही सदगुरू
तुम्हारी
अंतर— गति
जानता है।...
अंतर गति साहब
लखै...। '' साहब
'' दोनों के
लिए प्रयोग
होता है। गुरु
तुम्हारे
भीतर की गति
देख रहा है— —
तुम क्या कर
रहे हो, क्या
सोच रहे हो, कहां जा रहे
हो, क्या
मांग रहे हो
और क्या
वस्तुत :
तुम्हारे लिए
हितकर है?
उससे तुम छिपा
न सकोगे।
आदि
अंत की वार्ता
सदगुरू से पाओ।...
तुम अपने
सिद्धांत
छोड़ो। तुम
अपने शास्त्र
छोड़ो। तुम
उससे पूछो कि
क्या है प्रारंभ, क्या
है अंत। तुम
उससे सुनो।
तुम अपने
विचार लेकर
उससे मेल
बिठाने मत बैठ
जाओ, क्योंकि
उसमें सब गड़बड़
हो जाएगा। अगर
तुम्हारे
विचार ही सही
होते, तब
तो तुम पहुंच
ही गए होते।
तुम्हारे
विचार सही
नहीं हैं, इसलिए
तो तुम पहुंचे
नहीं हो। अब
इन्हीं
विचारों को
लिए अगर तुमने
सदगुरू को
सुना तो सुना
ही नहीं।
कहै
कबीर धरमदास
से,
मूर्ख
समझाओ।... कबीर
कहते हैं
धरमदास से : जाओ,
मूर्खो को
समझाओ, कि
तुम किनकी मान
रहे हो! जो
तुम्हारी मान
रहे हैं, उनकी
तुम मान रहे
हो। यह खूब
पारस्परिक
षडयंत्र चल
रहा है! तुम
किसकी सुन रहे
हो? जिनका
धर्म उधीर है,
जिन्होंने
कहीं से पढ़ा
है, गुना
है, सुना
है, जिन्होंने
जाना नहीं है,
उनके पीछे
चल रहे हो?
अंधा—अंधा
ठेलिया, दोनों
कूप पड़त!
मेरे
मन बस गए
साहेब कबीर।
धरमदास
कहते हैं :
मेरे
मन कबीर बस गए।
उस
गैरते नाहिद
की हर तान पर
दीपक,
शोला
सा चमक जाए है
आवाज तो देखो।
सुनी
आवाज, सुनी
वाणी, सुना
कबीर का शब्द
और भीतर कोई
शोला—सा चमक
गया, दीपक
जल गए। सदगुरू
अर्थात् दीपक
राग। उसे
सुनकर अगर
तुम्हारे भीतर
का दीया न जल
जाए तो समझना
कि तुम पहचाने
नहीं।
मेरे
मन बस गए
साहेब कबीर।
हिंदू
के तुम गुरु
कहाओ, मुसलमान
के पीर।
दोऊ
दीन ने झगड़ा
मांडेव, पायो
नाहिं सरीर।।
और
दोनों धेर्म
लड़ रहे हैं, झगड़
रहे हैं। और
दोनों के झगड़े
के कारण
परमात्मा देह
नहीं ले पाता
है। परमात्मा
उतर नहीं पाता
है। दोनों के
झगड़े के कारण
परमात्मा उतर
ही नहीं सकता
है। दोनों के
झगड़े में
परमात्मा कट
रहा है। धर्मो
के झगड़ों ने
परमात्मा को
मार डाला है।
मैंने
सुना है, एक
गुरु एक दोपहर,
गर्मी की
दोपहर सोया।
उसके दो शिष्य
थे। दोनों
सेवा करना
चाहते थे, क्योंकि
सुना था सेवा
से मेवा मिलता
है। तो गुरु
ने कहा ठीक है
सेवा करो।
गुरु तो सो
गया, दोनों
ने गुरु को
आधा — आधा बांट
लिया कि बायां
पैर में सेवा
करूंगा, दायां
पैर तू सेवा
करना। और गुरु
को कुछ पता
नहीं है। नींद
में गुरु ने
करवट ले ली, बाएं पैर पर
दायां पैर पड़
गया। जिसका
बायां पैर था,
उसने दूसरे
से कहा : हटा ले
अपने पैर को!
देख हटा ले!
मेरे पैर पर
तेरा पैर पड़
जाए, यह
बदी श त के
बाहर है।
उसने
कहा : देख
लिए
हटानेवाले!
देख लिए तेरे
जैसे हटानेवाले!
हो हिम्मत तो
हटा दे! अगर
मेरा पैर भी
छुआ,
आज गरदनें
कट जाएंगी।
दोनों
ने डंडे उठा
लिए। उनकी
आवाज श प्रेरगुल
सुनकर गुरु की
नींद खुल गई।
उसने आंख बंद
पड़े — पड़े सारा
मामला समझा कि
मामला क्या है?
वह तो डंडे
उठाकर पिटाई
करनी है — — गुरु
की पिटाई!
क्योंकि '' उसका
पैर मेरे पैर
पर चढ़ गया है। ''
गुरु ने कहा
कि हद हो गई, ये दोनों
पैर मेरे हैं।
तुमसे कहा
किसने?
तुमने बांटे
कैसे? तुम
हो कौन इनकी
मालकियत करनेवाले?
यह
सारा
अस्तित्व
उसका है, लेकिन
बांट बैठे हैं।
हिंदू जाकर
मस्जिद में आग
लगा देते हैं,
मुसलमान
जाकर मंदिर की
मूर्ति तोड़
देते हैं। किसकी
मूर्ति, किसका
मंदिर, किसकी
मस्जिद?
दोऊ
दीन ने झगड़ा
मांडेव, पायो
नाहिं सरीर।.....
इनके झगड़े
के कारण
परमात्मा का अवतरण
नहीं हो पाता
है। यह पृथ्वी
परमात्मा—पूर्ण
नहीं हो पाती
है।
सील
संतोष दया के
सागर प्रेम
प्रतीत मति
धीर।... कहते
हैं धरमदास कि
कबीर में मुझे
सब मिल गया— —सील, संतोष,
दया के सागर,
प्रेम
प्रतीत, मति
धीर। यहां
मैंने प्रेम
को साकार पा
लिया है। यहां
न हिंदू है न
मुसलमान है।
यहां भेद नहीं।
यहां
संप्रदाय
नहीं। यहां
विभाजन नहीं
है अस्तित्व
का— —अविभाज्य
है।
वेद
कितेब मते के
आगर... और कबीर
को भाषा आती
नहीं। कहा है : मसि
कागद छुयो
नहीं। कभी स्याही
और कागज छुआ
नहीं। फिर
कैसे सब चीजों
के सागर हो गए।
वेद
कितेब मते के
आगर... सारे वेद
और सारे कुरान
उनसे बोल रहे
हैं। यह कैसे
घटा? ढाई आंख,
प्रेम के पढ़े
सो पंडित होय।
कबीर ने ढाई अक्षर
पढ़े हैं। उन
ढाई अक्षरों
में जितना है
उतना चार
वेदों में
नहीं, उतना
कुरान, बाइबिल
में नहीं। असल
में कुरान, बाइबिल, वेद,
धम्मपद में,
गीता में जो
बहा है, वह
उनसे ही बहा
है जिन्होंने
ढाई अ क्षर
जाने। प्रेम
को जान लिया
तो परमात्मा
को जान लिया।
सील
संतोष दया के
सागर, प्रेम
प्रतीत मति धीर।
वेद
कितेब मते के
आगर,
दोऊ दीनन के
पीर।।
बड़े
बड़े संतन
हितकारी अजरा
अमर सरीर।
कबीर
के पास जो
बैठे, जिन्होंने
कबीर का अजर —
अमर शस्त्र देखा,
जिन्होंने
कबीर की इस
देह के भीतर
छिपे हुए अदेही
को पहचाना, जिन्होंने
कबीर के आकार
में निराकार
को पकड़ा, वे
बड़े — बड़े संत
हो गए। कबीर
के पास बैठ —
बैठ कर बड़े —
बड़े संत हो गए।
धरमदास
की विनय
गुसाईं... हे
साहब! धरमदास
कहते हैं : मेरी
एक ही विनय है — —
नाव लगाओ तीर!
मेरी नाव को
भी किनारे से
लगा दो! बहुत
तुम्हारा
सहारा लेकर
पार हो गए, मुझे
भी पार करा दो।
शिष्य
प्रार्थना ही
कर सकता है।
शिष्य
प्रार्थना है।
और जिस दिन प्रार्थना
पूरी हो जाती
है उस दिन
घटना घट जाती
है। प्रार्थना
जब तक कम है, अधूरी
है, आशिक
है, आधी —
आधी है, कुनकुनी
है, तब तक
परिणाम नहीं
होता।
सदगुरू
की नाव उस
किनारे ले जा
सकती है। उस
किनारे
परमात्मा है।
और वह किनारा
दूर नहीं। नाव
तैयार है।
चढ़ने की
हिम्मत चाहिए।
दुनिया हंसेगी।
...
हमरे का करे
हांसी लोग।
लोग हंसेंगे।
मेरे
संन्यासियों
से पूछो। लोग
उन पर हंसते
हैं। लोग
उन्हें पागल
समझते हैं।
लोग समझते हैं
सम्मोहित हो
गए हैं। फिक्र
न करना। लोग
सदा ही हंसते
रहे हैं। यह
कोई नई बात
नहीं है, पुरानी
परंपरा है।
लोग हंसने ही
चाहिए। अगर
लोग हंसेंगे
नहीं, तो
संन्यास झूठा
होगा। लोग जिन
संन्यासियों
की पूजा करते
हैं, समझना
वहां कुछ झूठ
है, नहीं
तो लोग पूजा
नहीं करते।
लोग इतने झूठे
हैं कि झूठ की
ही पूजा कर
सकते हैं। लोग
जब हंसे, तभी
समझना कि कुछ
सत्य की बात
होनी शुरू हुई,
कोई दीवाना
पैदा हुआ, कोई
मस्ती उतरनी शुरू
हुई।
और
नाव पर सवार
होने की
हिम्मत चाहिए।
समर्पण, नाव
पर सवार हो
जाना है।
प्रार्थना
करने की
हिम्मत चाहिए।
कंजूसी मत
करना प्रार्थना
में।
धरमदास
की विनय
गुसाईं, नाव
लगावो तीर।
शिष्य
का अर्थ ही
इतना होता है
कि जिसने अपनी
प्रार्थना
निवेदन कर दी
और जो
प्रतीक्षा
करता है।
जब
कली कोई
मुस्कराती है
मेरी
आंख अश्क से
भर आती है
दूर
बजती हो जैसे
शहनाई
इस
तरह उनकी याद
आती है
दिल
की किश्ती
निकल के तूफां
से
आके
साहिल पै डूब
जाती है
जैसे
जमना में
अक्से—ताजमहल
दिल
में यूं उनकी
याद आती है
सुबहे—नौ
की किरन उफक
के करीब
सुर्ख
घूंघट में
मुस्कराती है।
गुरु
की याद से भरो!
साहब की याद
से भरो! फिर
साहब ही उस
पार ले जाता
है। सच पूछो
तो कोई ले
जाता नहीं— —तुम्हारा
याद से भर
जाना, तुम्हारा
प्रार्थना से
परिपूर्ण हो
जाना ही, ले
जाता है।
नाव
तो अपने से
चलती है।
रामकृष्ण ने
कहा है, पतवार
भी नहीं चलानी
पड़ती, सिर्फ
पाल खोल देने
पड़ते हैं।
उसकी हवाएं ले
जाती हैं। कोई
चलाता नहीं
नाव को। मगर
नाव में बैठने
की हिम्मत
चाहिए, क्योंकि
यह नाव जाती
है अज्ञात की
तरफ, अपरिचित
की तरफ— — जिससे
तुम्हारी
पहचान नहीं, जिसे तुमने
कभी जाना नहीं,
जिसे कभी
अनुभव नहीं
किया।
तुम्हारा
परिचित तट छूट
जाएगा; और
अपरिचित तट, जो दूर
कुहासे में
छिपा है, पता
नहीं हो या
नहीं हो!
वह
जो नहीं हो, उसकी
यात्रा पर
निकल जाने के
साहस का नाम
शिष्यत्व है।
और जो भी उतना
साहस करता है,
संतुष्ट हो
जाता है। उस
साहस में ही
वर्षा हो जाती
है।
जुआरी
बनो। प्रेम
जुआरीपन है।
रहिमन
मैं तुरंग चढ़ि
चलि हो पावक
माहि।
प्रेम
पंथ ऐसो कठिन
सब कोई निबहत
नाहि।।
अंतर
दांव लगी रहे
धुआ न प्रकटे
सोय।
कै
जिय जानौ आपनो
कै जा सिर
बीती होय।।
जे
सुलगे ते बुझि
गए बुझे ते
सुलगे माहि।
रहिमन
दाहे प्रेम के
बुझि बुझि के
सुलगाहि।।
यह
न रहीम सराहिए
लेन—देन की
प्रीत।
लेने—देने
का हिसाब मत
रखना। लेना—देना
यानि व्यवसाय।
यह
न रहीम सराहिए
लेन—देन की
प्रीत।
प्रानन
बाजी राखिए
हार होय कि
जीत।।
और
तब निश्चित
ही जीत होती
है। हार कभी
हुई नहीं।
निरपवाद रूप
से जीत हुई
है। जिसने
दांव लगाया है, वह
जीता है।
आज इतना
ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें