प्रश्नसार:
1—कृपया
बताएं कि नाभि—केंद्र, तीसरी आँख
और मेरूदंड के
काम क्या है?
2—बुद्ध
की तपश्चर्या
संसार के
विपरित मालूम
होती है; यह मध्य
मार्ग नहीं
मालूम होती।
3—ह्रदय
केंद्र को
विकसित करने
के व्यावहारिक
उपायक्या है?
4—क्या
प्रेम में भी
मध्य मार्ग
पकड़ना चाहिए
या प्रेम और
घृणा की ध्रुवीय
अति को छूना
चाहिए?
पहला
प्रश्न :
उदगम
की कल रात
आपने कहा स्कइ
ज्ञान—प्राप्ति
यर दोनों आंखों
के बीच का
स्थान
सर्वग्राही, सर्वव्यापी
हो जाता है।
और उस दिन
आपने कहा था
कि सभी बुद्धपुरूष
नाभि—केंद्र
में स्थित
होते है। उसके
भी पहले आपने
मेरूदंड के बीच
स्थित रजत—रज्जु
की बात समझायी
थी। इस तरह
मनुष्य के
मूल के रूप
में हम तीन
बुनियादी
चीजें जानते
है। इन तीनों
के—नाभी
केंद्र,
तीसरी आँख और
रजत—रज्जु के—सापेक्ष
महत्व और
कार्य पर
प्रकाश डालने
की कृपा करें।
इन केंद्रों
के संबंध में
समझने की
बुनियादी बात
यह है कि जब
तुम भीतर
केंद्रित
होते हो, जिस क्षण
केंद्रित
होते हो और
जहां भी
केंद्रित
होते हो, तभी
तुम नाभि—केंद्र
में उतर जाते
हो। अगर तुम
हृदय में
केंद्रित
होते हो तो
हृदय अप्रासंगिक
है, केंद्रित
होना
अर्थपूर्ण है।
अगर तुम तीसरी
आंख में
केंद्रित
होते हो तो
तीसरी आंख
बुनियादी बात
नहीं है, बुनियादी
बात है कि
तुम्हारी
चेतना
केंद्रित हुई।
इसलिए जो भी
केंद्रित
होने का बिंदु
हो, अगर एक
बार तुम
केंद्रित हो
गए तो तुम
नाभि—केंद्र
में उतर जाओगे।
अस्तित्वगत
रूप से नाभि
बुनियादी
केंद्र है।
लेकिन
तुम्हारा
क्रियात्मक
केंद्र कहीं
भी हो सकता है।
तुम अपने आप
उस केंद्र से
नाभि—केंद्र
में उतर जाओगे।
इसके संबंध
में सोचने की
जरूरत नहीं है।
और यह बात न
सिर्फ हृदय—केंद्र
या त्रिनेत्र—केंद्र
के लिए सही है, अगर तुम
बुद्धि या सिर
में भी
केंद्रित हो
गए तो वहां से
भी तुम नाभि—केंद्र
में ही उतरोगे।
केंद्रित
होना असली बात
है।
लेकिन
बुद्धि में
केंद्रित
होना कठिन है।
उसकी अपनी
समस्याएं हैं।
हृदय—केंद्र
प्रेम, श्रद्धा और
समर्पण पर
निर्भर है।
सिर संदेह और
नकार पर
निर्भर है।
समग्रता से
इनकार करना
असंभव है, समग्रता
से संदेह करना
भी असंभव है।
लेकिन कभी—कभार
ऐसा हुआ है, क्योंकि कभी—कभार
असंभव भी संभव
होता है। किसी
समय तुम्हारा
संदेह ऐसी
तीव्रता को
उपलब्ध होता
है कि विश्वास
करने योग्य
कुछ भी नहीं
बचता, संदेह
करने वाला मन
भी विश्वास
योग्य नहीं रहता।
जब संदेह को
स्वयं पर
संदेह होने
लगता है और सब
कुछ संदेह में
बदल जाता है, उस हालत में
भी तुम तुरंत
नाभि—केंद्र
में उतर जाओगे।
लेकिन
यह घटना बहुत
दुर्लभ है।
श्रद्धा सरल
है। समग्रता
से संदेह करने
की बजाय
समग्रता से श्रद्धा
करना आसान है।
तुम नहीं कहने
की बजाय ही
आसानी से कह
सकते हो।
इसलिए
अगर तुम सिर
में भी
केंद्रित हो तो
केंद्रित होना
बुनियादी बात
है, तुम
वहां से भी
अपने
अस्तित्वगत
मूल में उतर
जाओगे। इसलिए
कहीं भी
केंद्रित होओ।
मेरुदंड से
काम चलेगा, हृदय से काम
चलेगा, सिर
से भी काम
चलेगा। या तुम
अपने शरीर में
दूसरे केंद्र
भी ढूंढ ले
सकते हो।
बौद्ध
नौ चक्रों की
बात करते हैं।
हिंदू सात
चक्रों की बात
करते हैं।
तिब्बती तेरह
चक्रों की बात
करते हैं। तुम
अपना चक्र या
केंद्र खोज ले
सकते हो। इनके
बारे में
अध्ययन करने
की जरूरत नहीं
है। शरीर का
कोई भी बिंदु
केंद्रित
होने का बिंदु
बनाया जा सकता
है।
उदाहरण
के लिए, तंत्र काम—केंद्र
को इसके लिए
उपयोग करता है।
तंत्र
तुम्हारी
चेतना को
समग्रता से इस
केंद्र पर
लाने के लिए
प्रयत्न करता
है। तो काम—केंद्र
से भी चलेगा।
ताओवादी पांव
के अंगूठे से
केंद्र का काम
लेते हैं।
अपनी चेतना को
पांव के
अंगूठे पर ले
जाओ, वहां
स्थित रहो और
शेष शरीर को
भूल जाओ। पूरी
चेतना को
अंगूठे पर जमा
कर दो। उससे
भी चलेगा।
क्योंकि यह
बात
प्रासंगिक
नहीं है कि
तुम कहां
केंद्रित हो
रहे हो, बुनियादी
बात यह है कि
तुम केंद्रित
हो रहे हो।
स्मरण
रहे कि घटना
केंद्रित
होने के कारण
घटती है, केंद्र के
कारण नहीं।
केंद्र महत्व
का नहीं है, केंद्रित
होना महत्व का
है। हम जिन एक
सौ बारह
विधियों की
चर्चा करने जा
रहे हैं उनमें
अनेक—अनेक
केंद्र उपयोग
में आने वाले
हैं, उससे
हैरान मत होना,
घबराना मत।
इस फिक्र में
मत लग जाना कि
कौन केंद्र
महत्व का है, कौन असली है।
कोई भी केंद्र
चलेगा। तुम
अपनी पसंद का
चुन लेना।
अगर
तुम्हारा
चित्त बहुत
कामुक है तो
काम—केंद्र को
चुनना अच्छा
रहेगा। उसका
उपयोग करो, क्योंकि
तुम्हारी
चेतना सहज
उसकी ओर
प्रवाहित हो
रही है। तब
उसे ही चुनना
बेहतर है।
लेकिन काम—केंद्र
को चुनना कठिन
हो गया है। वह
सबसे ज्यादा
स्वाभाविक
केंद्र है, उसकी ओर
तुम्हारी
चेतना जैविक
रूप से
आकर्षित होती
है। फिर क्यों
न इस जैविक
ऊर्जा को आंतरिक
रूपांतरण के
लिए उपयोग में
लाओ? उसे
अपने
केंद्रित
होने का बिंदु
बना लो। लेकिन
सामाजिक
संस्कार, काम—दमन
की शिक्षा, नैतिक उपदेश,
इन चीजों ने
मिल कर बहुत
नुकसान किया
है। नतीजा यह
हुआ है कि तुम
अपने काम—केंद्र
से विच्छिन्न
हो गए हो, कट
गए हो। सच तो
यह है कि
हमारे मन में
जो हमारी असली
छवि है उसमें
काम—केंद्र है
ही नहीं। तुम
कल्पना में
अपने शरीर को
देखो, तुम
जननेंद्रिय
को उसके बाहर
छोड़ दोगे।
यही
कारण है कि
अनेक लोग
समझते हैं कि
उनकी जननेंद्रिय
उनसे पृथक है, उनका
हिस्सा नहीं
है। और यही
कारण है कि
उसके संबंध
में इतनी
गोपनीयता है,
इतनी छिपाव
है। अगर किसी
दूसरे ग्रह का
वासी यहां आए
और तुम्हें
देखे तो उसे
सोचना
मुश्किल होगा
कि तुम्हारा
कोई काम—केंद्र
भी है। अगर वह
तुम्हारी
बातचीत सुने
तो उसे समझना
कठिन होगा कि
तुम्हारे
जीवन में
कामवासना भी
है। वह
तुम्हारे
समाज में घूमे,
तुम्हारे
औपचारिक
संसार में, तो उसे पता
भी नहीं चलेगा
कि यहां सेक्स
भी है।
हमने
भेद खड़ा कर
लिया है, अवरोध खड़ा
कर लिया है, हमने अपने
से काम—केंद्र
को अलग किया
हुआ है।
कामवासना के कारण
ही हमने शरीर
को दो हिस्सों
में बांट रखा
है। ऊपरी भाग
हमारे मन में
ऊंचा माना
जाता है और निचला
भाग नीचा माना
जाता है। नीचे
का अंग निंदित
है। उसे निचला
अंग कहकर हम
केवल यह सूचना
नहीं देते कि
वह निम्न
स्थिति है, हम उसका
मूल्यांकन भी
करते हैं। तुम
स्वयं नहीं
मानते कि नीचे
का शरीर तुम
हो।
अगर
कोई तुमसे
पूछे कि तुम
अपने शरीर में
कहं। हो, तो तुम अपने
सिर की तरफ
उदगम की
अंगुली
उठाओगे, क्योंकि
वह सबसे ऊंचा
है। इसी. वजह
से भारत के
ब्राह्मण
कहते हें कि
हम खोज मैं अंग
तुम्हारे अंग
हैं, तुम
नहीं हो।
इसी
विभाजन के लिए
हमने अपनी
पोशाक के भी
दो हिस्से किए
हैं, एक
ऊपरी शरीर के
लिए और दूसरा
निचले शरीर के
लिए। यह एक
सूक्ष्म
विभाजन है। और
इसमें निचला
शरीर
तुम्हारा अंग
नहीं रह जाता
है। वह बस
तुममें लटका
हुआ है—यह
दूसरी बात है।
यही
कारण है कि
काम—केंद्र को
केंद्रित
होने के लिए
उपयोग में
लाना कठिन है।
लेकिन अगर तुम
उसका उपयोग कर
सको तो वह
सबसे उत्तम है।
क्यों? क्योंकि
जैविक रूप से
तुम्हारी
ऊर्जा उसी केंद्र
की ओर
प्रवाहित है।
तो जब
तुम्हें
कामवासना
महसूस हो, अपनी आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
तुम्हारी
ऊर्जा काम—केंद्र
की ओर बह रही
है। उसे अपना
ध्यान बना लो।
अपने को काम—केंद्र
में केंद्रित
अनुभव करो। तब
अचानक तुम
ऊर्जा की
गुणवत्ता में
बदलाहट पाओगे।
तब कामुकता
विसर्जित हो
जाएगी और काम—केंद्र
ज्योतित हो
उठेगा, ऊर्जा
से भर जाएगा, जीवंत हो
उठेगा। और इसी
केंद्र पर
तुम्हें
तुम्हारा
जीवन अपने
शिखर पर अनुभव
होगा।
तुम
अगर सच में
केंद्रित हुए
तो उस क्षण
कामवासना
बिलकुल भूल
जाएगी और
तुम्हारी
ऊर्जा काम—केंद्र
से चलकर
तुम्हारे
पूरे शरीर में
प्रवाहित
होने लगेगी, यहां तक
कि शरीर के
पार जाकर पूरे
ब्रह्मांड में
फैलने लगेगी।
और अगर तुम
काम—केंद्र पर
समग्रता से
केंद्रित हो
तो तुम अचानक
अपने मूल
स्रोत नाभि—केंद्र
में उतर जाओगे।
तंत्र
ने काम—केंद्र
का उपयोग किया
है। और मैं
समझता हूं कि
मनुष्य के
रूपांतरण के लिए
तंत्र
सर्वाधिक
वैज्ञानिक
मार्ग है। यह
इसलिए कि
कामवासना का
उपयोग
वैज्ञानिक है।
जब मन अपने आप ही
उसकी ओर बह
रहा है तो
क्यों न इस
स्वाभाविक प्रवाह
को वाहन के
रूप में काम
में लाया जाए।
तंत्र
और नीतिवादी
शिक्षा में
यही बुनियादी भेद
है। नीतिवादी
शिक्षक काम—केंद्र
को रूपांतरण
के लिए उपयोग
में नहीं ला सकते, क्योंकि
वे भयभीत हैं।
और जो काम—ऊर्जा
से डरा हुआ है
उसे अपने को
रूपांतरित
करना बहुत—बहुत
कठिन होगा।
क्योंकि वह
नाहक धारा से
लड़ रहा है, नदी
के विपरीत तैर
रहा है।
नदी के
साथ बहना आसान
है, बहो।
और अगर तुम
किसी संघर्ष
के बिना बह
सकते हो तो तुम
इस केंद्र का
उपयोग करो।
केंद्रित
होने के लिए
कोई भी केंद्र
चलेगा। तुम
अपने केंद्र
भी निर्मित कर
सकते हो।
परंपरावादी
होने की जरूरत
नहीं है। सभी
केंद्र उपाय
हैं—केंद्रित
होने के उपाय।
और जब तुम
केंद्रित हो
जाओगे, तुम अपने ही
आप नाभि—केंद्र
पर सरककर
पहुंच जाओगे।
केंद्रित
चेतना अपने
मूल स्रोत पर
वापस पहुंच
जाती है।
दूसरा
प्रश्न :
बुद्ध
ने बहुत की
संख्या में
लोगों को संन्यासी
बनने के लिए
प्रेरित किया।
उनके
संन्यासी
अपने भोजन के
लिए भिक्षा
मांगते थे और
समाज, व्यवसाय
तथा राजनीति
से अलग रहते
थे। बुद्ध स्वयं
एक तपस्वी का
जीवन जीते थे।
यह तपश्चर्या
का जीवन
सांसारिक
जीवन का दूसरा
छोर मालूम
होता है। यह
मध्य मार्ग
नहीं मालूम
पड़ता। कृपया
इसे स्पष्ट
करें।
यह समझना
कठिन होगा, क्योंकि
तुम नहीं
जानते कि
सांसारिक
जीवन का दूसरा
छोर क्या है।
सांसारिक
जीवन का दूसरा
छोर सदा
मृत्यु है।
ऐसे शिक्षक
हुए हैं
जिन्होंने
कहा है कि
आत्मघात ही
एकमात्र
रास्ता है।
अतीत में ही
नहीं, आज
भी ऐसे विचारक
हैं जो कहते
हैं कि जीवन
अर्थहीन है।
जीवन अगर
अर्थहीन है तो
मृत्यु
अर्थपूर्ण हो जाती
है। जीवन और
मृत्यु एक—दूसरे
के सर्वथा
विपरीत हैं।
इसलिए जीवन का
विपरीत
मृत्यु है।
इसे
समझने की
कोशिश करो। और
यह तुम्हारे
लिए मार्ग
ढूंढने में
सहयोगी होगा, बहुत
सहयोगी होगा।
अगर मृत्यु
जीवन की
ध्रुवीय
विपरीतता है,
दूसरा छोर
है, तो मन
आसानी से
मृत्यु पर जा
सकता है। और
वही होता है।
जब कोई
आत्महत्या
करता है तो
क्या तुम नहीं
देखते कि
आत्महत्या
करने वाला
व्यक्ति जीवन
के प्रति बहुत
आसक्ति से भरा
था! सिर्फ वे
लोग ही आत्मघात
करते हैं जो
जीवन के प्रति
बहुत आसक्त
हैं।
उदाहरण
के लिए तुम
अपनी पत्नी या
पति के प्रति
बहुत आसक्त हो
और सोचते हो
कि उसके बिना
तुम न जी
सकोगे। फिर
पति या पत्नी
मर जाती है और
तुम आत्मघात कर
लेते हो। मन
दूसरे छोर पर
पहुंच गया, क्योंकि
वह पहले छोर
जीवन से बहुत
बंधा था। जब
जीवन निराशा
लाता है तो मन
तुरंत दूसरे
छोर पर चला
जाता है।
आत्मघात
भी दो तरह के
हैं—इकट्ठा
आत्मघात और
क्रमिक
आत्मघात। तुम
क्रमिक
आत्मघात भी कर
सकते हो। तुम
अपने को जीवन
से अलग कर ले
सकते हो, जीवन से
अपने लगाव
विच्छिन्न कर
सकते हो; धीरे—
धीरे, क्रमश:
मर सकते हो।
बुद्ध
के समय में
ऐसे संप्रदाय
थे जो आत्मघात
का प्रचार
करते थे। जीवन
के, सांसारिक
जीवन के
वास्तविक
विरोधी वे ही
थे। वे सिखाते
थे कि जीवन के
नाम से चलने
वाले इस अनर्थ
से, इस दुख—संताप
से निकलने का
एक ही उपाय है,
वह आत्मघात
है। वे कहते
थे कि अगर तुम
जीवित हो तो
दुख अनिवार्य
है, जीते
जी दुख के पार
जाने का कोई
उपाय नहीं है।
इसलिए
आत्महत्या कर
लो, अपने
को नष्ट कर
डालो।
जब हम
यह सुनते हैं
तो लगता है कि
यह बात कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण
है। लेकिन इसे
समझने की
कोशिश करो, इसमें भी
कुछ अर्थ है।
सिग्मंड
फ्रायड चालीस
वर्षों तक
मनुष्य के मन
के साथ निरंतर
काम करने के
बाद—और यह
सबसे लंबा
अनुसंधान है
जो कि व्यक्ति
कर सकता है—इस
नतीजे पर
पहुंचा कि
मनुष्य जैसा
है, सुखी
नहीं हो सकता
है। मन की जो
व्यवस्था है
उसमें दुख ही
पैदा हो सकता
है। इसलिए
अधिक से अधिक
आदमी के सामने
यही विकल्प है
कि कम दुख
झेले कि
ज्यादा दुख
झेले। दुख न
हो, यह
चुनाव उसके
सामने नहीं है।
अगर अपने मन
को समझा—बुझा
लो तो कम दुख
मिलेगा, बस।
यह
स्थिति बहुत
निराशाजनक है।
अस्तित्ववादी—सार्त्र, कामू और
दूसरे—कहते
हैं कि जीवन
कभी आनंदपूर्ण
नहीं हो सकता।
जीवन की
प्रकृति में
ही भय, संताप,
उत्पीड़न
आदि समाए हैं।
इसलिए आदमी
ज्यादा से
ज्यादा यही कर
सकता है कि
आशा के बिना
भी वह सब दुःख—संताप
का वीरता से सामना
करे। तुम उसे वीरता
से झेल भर सकते
हो, और वह भी
बिना किसी आशा
के।
यह
स्थिति सचमुच
निराशाजनक है।
इसलिए कामू
कहता है कि
अगर यही हाल
है तो आत्महत्या
क्यों न कर
लें? अगर
जीवन के दुखों
के पार जाने
का उपाय ही
नहीं है तो
क्यों न इस
जीवन को त्याग
दिया जाए?
दोस्तोवस्की
के उपन्यास 'ब्रदर्स
कर्माजोव' में—जो
संसार का एक
बड़े से बड़ा
उपन्यास है—उसका
एक पात्र कहता
है कि मैं
ईश्वर की तलाश
इसलिए कर रहा
हूं कि उसे
मैं जीवन में
प्रवेश का
टिकट वापस कर
दूं। मैं यहां
नहीं रहना
चाहता हूं। वह
पात्र कहता है
कि अगर कोई
ईश्वर है तो
वह बहुत हिंसक
और क्रूर होगा।
क्योंकि
मुझसे पूछे
बिना ही उसने
मुझे जीवन में
झोंक दिया है।
यह कभी मेरा
चुनाव नहीं था।
और मैं अपनी
मर्जी के बिना
जीवित क्यों
हूं?
बुद्ध
के समय में
ऐसे अनेक
विचारक थे।
बुद्ध का समय
मनुष्य के
इतिहास में
बौद्धिक रूप
से बड़ा ही
जीवंत और
उत्थान का समय
था। उदाहरण के
लिए अजित
केशकंबल था।
तुमने शायद
उसका नाम भी न
सुना हो, क्योंकि
आत्महत्या का
उपदेश देने
वालों के इर्द—गिर्द
अनुयायियों
की जमात नहीं
खड़ी होती है।
इसलिए अजित
केशकंबल का
कोई संप्रदाय
नहीं है।
लेकिन उसने
पचास वर्षों
तक निरंतर कहा
कि आत्मघात ही
एकमात्र
रास्ता है।
कहते हैं कि
किसी ने अजित
से पूछा कि तब
तुमने खुद अब
तक आत्महत्या
क्यों नहीं की?
उत्तर में
उसने कहा कि
इस बात का
उपदेश देने के
लिए मैं जीवन
को झेल रहा
हूं। मुझे
संसार को एक
संदेश देना है,
और अगर
मैंने ही
आत्महत्या कर
ली तो यह काम
कौन करेगा? यह संदेश
कौन देगा? यह
संदेश देने के
लिए ही मैं
यहां हूं अन्यथा
जीवन जीने
योग्य नहीं है।
हमारे
तथाकथित जीवन
का यह दूसरा
छोर है।
बुद्ध
का मध्य मार्ग
था। बुद्ध ने
कहा न मृत्यु
न जीवन। वही
संन्यास का
अर्थ भी है. न
जीवन से राग
और न विराग, बस बीच
में ठहर जाना।
इसलिए बुद्ध
कहते हैं कि
मध्य में, ठीक
मध्य में होना
संन्यास है।
संन्यास जीवन
का निषेध नहीं
है; संन्यास
जीवन और
मृत्यु दोनों
का निषेध है।
जब तुम जीवन
और मृत्यु
दोनों से
निर्लिप्त हो
तो तुम
संन्यासी हो।
अगर तुमने
जीवन और
मृत्यु के
दोनों छोर देख
लिए तो तुम
संन्यासी हो।
बुद्ध की
संन्यास—दीक्षा
मध्य मार्ग की
दीक्षा है।
संन्यासी
यथार्थ में
जीवन के विरोध
में नहीं है।
अगर है तो वह
संन्यासी
नहीं है। तब
वह
रुग्णचित्त
है, वह
दूसरी अति पर
चला गया है।
एक संन्यासी
की चेतना बहुत
संतुलित होती
है, मध्य
में होती है।
अगर
जीवन दुख है
तो मन कहता है
कि दूसरे छोर
पर चलो, मृत्यु को
वरण करो।
लेकिन बौद्ध—चिंतन
में जीवन दुख
इसीलिए है कि
तुम अति पर हो।
जीवन दुख है, क्योंकि वह
एक अति।
मृत्यु भी दुख
होगी, क्योंकि
वह दूसरी अति
है। आनंद मध्य
में हे। आनंद
संतुलन है।
संन्यासी
संतुलित
मनुष्य है। न
वह दायीं ओर
झुकता है, न वह
बायीं ओर
झुकता है। वह
न वामपंथी है और
न दक्खिनपंथी।
वह ठीक मध्य में
रहता —शांत, अचल, चुनावरहित,
केंद्रस्थ।
इसलिए
चुनाव ही मत
करो। चुनाव
दुख है। अगर
तुमने मृत्यु
चुनी तो दुख
चुना, और
अगर तुमने
जीवन चुना तो
भी दुख चुना।
क्योंकि जीवन
और मृत्यु दो
अतियां हैं।
और याद रहे, वे एक ही चीज
की दो अतियां
हैं; वे सच
में दो नहीं
हैं। जीवन और
मृत्यु एक ही
चीज के दो
ध्रुव हैं, दो छोर हैं।
और अगर तुम एक
को चुनोगे तो
दूसरे छोर के
विरोध में
जाना पड़ेगा।
उससे
ही दुख पैदा
होता है।
क्योंकि जीवन
में मृत्यु
निहित है। तुम
मृत्यु को
चुने बिना
जीवन को नहीं
चुन सकते हो।
कैसे चुनोगे? जिस क्षण
तुमने जीवन को
चुना, मृत्यु
भी चुन ली गयी।
उससे ही दुख
उपजता है।
क्योंकि जीवन
को चुनने के
साथ ही मृत्यु
उसके साथ आ
जाती है।
तुमने सुख
चुना कि युगपत
और अनजाने
तुमने दुख भी
चुन लिया, क्योंकि
दुख सुख का
हिस्सा है।
अगर तुमने
प्रेम चुना तो
तुमने घृणा भी
चुन ली। दूसरा
उसमें
अंतर्निहित
है, छिपा
है। जो प्रेम
चुनेगा वह दुख
पाएगा, क्योंकि
उसे घृणा से
गुजरना होगा।
और घृणा में
दुख है।
चुनाव
मत करो, मध्य में
रहो। मध्य में
सत्य है। एक
छोर पर मृत्यु
है और दूसरे
छोर पर जीवन
है। लेकिन
दोनों के बीच
मध्य में जो
ऊर्जा बह रही
है, वही
सत्य है।
इसलिए चुनो मत,
क्योंकि
चुनाव का अर्थ
है कि तुम एक
के विरुद्ध
दूसरे को
चुनते हो।
मध्य में होना
निर्विकल्प
होना है। और
उसका मतलब है
कि तुमने पूरी
चीज छोड़ दी।
और जब तुमने
चुनाव नहीं
किया तो तुम
दुखी नहीं हो
सकते। मनुष्य
चुनाव के कारण
दुख भोगता है।
चुनाव मत करो।
केवल होओ।
यह
कठिन है। करीब—करीब
असंभव मालूम
पड़ता है।
लेकिन प्रयोग
करो। जब भी दो
अतियों का
सामना पड़े, बीच में
रहो। धीरे—धीरे
तुम्हें उसका
एहसास होने
लगेगा, प्रतीति
होने लगेगी।
और एक बार
मध्य में होने
की यह प्रतीति
उपलब्ध हो जाए—जो
कि नाजुक बात
है, जीवन
की सब से
नाजुक बात—तब
तुम्हें कुछ
भी विचलित
नहीं करेगा, कुछ भी दुखी
नहीं करेगा।
तब तुम दुख के
बिना जीओगे।
और वही
संन्यासी का
अर्थ है—दुख
के बिना जीना।
लेकिन दुख के
बिना जीने के
लिए चुनाव के
बिना जीना होगा,
मध्य में
रहना होगा।
और
बुद्ध ने पहली
बार
बोधपूर्वक
सदा मध्य में रहने
का मार्ग
निर्मित किया।
तीसरा
प्रश्न :
हदय—केंद्र
के खुलने और
उसके विकास के
संबंध में कुछ
व्यावहारिक
बातें बताने
की कृपा करें।
पहली बात कि
सिर के बिना
होकर रहो। भाव
करो कि तुम
बिना सिर के
हो—सिर के
बिना गति करो।
यह बेतुका
मालूम पड़ता है, लेकिन यह
एक बहुत महत्व
का प्रयोग है।
प्रयोग करो और
तब तुम जानोगे।
चलो और भाव
करो कि
तुम्हारा सिर
नहीं है।
शुरू—शुरू
में यह एक
मान्यता भर
होगी और बहुत
अजीब मालूम
होगी। जब
तुम्हें यह भाव
आएगा कि मुझे
सिर नहीं है
तो वह बहुत
अजीब और
आश्चर्यजनक
मालूम पड़ेगा। लेकिन
धीरे— धीरे
तुम हृदय में
स्थित हो
जाओगे।
एक
नियम है।
तुमने देखा
होगा कि जो
अंधा है उसके
कान ज्यादा
ग्राहक होते
हैं, उसके
कान संगीत प्रवीण
होते है। अंधे
लोग ज्यादा संगीतप्रिय
होते है, संगीत
के लिए उनका रुझान
गहरा होता है।
क्यों? क्योंकि
जो ऊर्जा आंख
से बहती वह आंख
की राह न पाकर
दूसरी राह
चुनती है, वह
कान से होकर
बहती है।
अंधे
आदमी को
स्पर्श की
संवेदनशीलता
भी अधिक रहती
है। अगर कोई
अंधा आदमी
तुम्हें
स्पर्श करे तो
तुम्हें फर्क
पता चलेगा।
सामान्यत: हम आंख
से ही छूने का
बहुत काम करते
हैं; हम
एक—दूसरे को आंख
से स्पर्श
करते हैं।
अंधा आदमी आंख
से छूने में
असमर्थ है, इसलिए वह
हाथ से यह काम
करता है। अंधा
आदमी आंख वाले
से ज्यादा
संवेदनशील
होता है। इस
नियम के अपवाद
हो सकते हैं, लेकिन
सामान्यत: ऐसी
ही बात है। एक
केंद्र के
नहीं रहने से
ऊर्जा दूसरे
केंद्र से गति
करने लगती है।
तो इस
प्रयोग को करो—सिर
के बिना होने
का प्रयोग। और
अचानक
तुम्हें एक
आश्चर्यजनक
अनुभव होगा, वह यह कि
पहली बार तुम
अपने हृदय में
स्थित हो जाओगे।
ऐसे चलो कि
कंधे पर सिर
नहीं है।
ध्यान में बैठ
जाओ, आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
मेरा सिर नहीं
है। भाव करो
कि मेरा सिर
गायब हो गया
है। शुरू में
तो यह मान्यता
ही होगी, लेकिन
धीरे— धीरे
तुम महसूस
करोगे कि सिर
सचमुच गायब हो
गया है। और जब
महसूस करोगे
कि सिर गायब
है तो तुरंत
तुम्हारा
केंद्र हृदय
पर उतर आएगा।
तब तुम संसार
को सिर से
नहीं, हृदय
से देखोगे।
पहली
बार जब पश्चिम
के लोग जापान
गए तो उन्हें
विश्वास नहीं
आया कि सदियों
से जापानी
मानते आए हैं
कि वे पेट से
सोचते हैं।
अगर तुम एक
जापानी बच्चे
को, जो
पाश्चात्य
ढंग से
शिक्षित नहीं
हुआ है, पूछो
कि तुम्हारा
सोचना कहां है,
तो वह पेट
की तरफ इशारा
करेगा।
सदियां बीत
गईं और जापान
सिर के बिना
जी रहा है। यह
एक महज धारणा
है। अगर मैं
तुमको पूछूं
कि तुम्हारा
विचार कहां चलता
है, तो तुम
सिर की तरफ
इशारा करोगे।
लेकिन एक
जापानी पेट की
तरफ इशारा
करेगा, सिर
की तरफ नहीं।
और यह भी एक
कारण है कि
जापानी मन
ज्यादा शात और
इकट्ठा है।
अब यह
बात नहीं रही, क्योंकि
पश्चिम
सर्वत्र छा
गया है। अब
पूर्व कहीं
नहीं रहा; सिर्फ
यहां—वहां कुछ
व्यक्तियों
में, जो
द्वीप की तरह
हैं, पूर्व
जीवित है।
अन्यथा पूर्व
समाप्त हो गया
है। अब तो
सारा जगत
पाश्चात्य है।
तो
बेसिर होने का
प्रयोग करो।
स्नानघर में
अपने आईने के
सामने खड़े
होकर ध्यान
करो। अपनी आंखों
में गहरे देखो
और भाव करो कि
तुम हृदय से
देख रहे हो।
धीरे—धीरे
हृदय—केंद्र
काम करने
लगेगा। और जब
हृदय काम करता
है तो वह
तुम्हारे
पूरे व्यक्तित्व
को बदल देता
है, पूरी
संरचना को
रूपांतरित कर
देता है।
क्योंकि हृदय
के अपने ढंग
हैं।
इसलिए
पहली बात कि
बेसिर होना
सीखो। और
दूसरी बात कि
ज्यादा
प्रेमपूर्ण
होओ। प्रेम
सिर से नहीं
हो सकता है।
यही कारण है
कि जब कोई
प्रेम में
होता है तो वह अपनी
बुद्धि खो
बैठता है। लोग
कहते हैं कि
वह पागल हो
गया है। अगर
तुम पागल नहीं
हो और प्रेम
में हो तो
यथार्थ में
तुम प्रेम में
ही नहीं हो।
सिर को तो
खोना ही होगा।
अगर सिर ज्यों
का त्यों काम
करे तो प्रेम
नहीं हो सकता, क्योंकि
प्रेम के लिए
हृदय को
सक्रिय होना
है, सिर को
नहीं। प्रेम हृदय
का व्यापार।
ऐसा
होता है कि जब
कोई बहुत
बुद्धिमान
आदमी प्रेम
में पड़ता है
तो मूढ़ हो
जाता है। उसे
स्वयं लगता है
कि मैं कैसी
मूढ़ता में पड़
गया हूं! मैं
क्या कर रहा
हूं! तब वह
अपने जीवन को दो
खंडों में
बांट लेता है।
एक विभाजन
पैदा होता है।
उसका हृदय मौन, आत्मीय बना
रहता है। जब
वह अपने घर से
बाहर जाता है
तो वह अपने
हृदय से बाहर
आ जाता है, और
संसार में सिर
के सहारे जीता
है। और वह
हृदय के पास
फिर तभी आता
है जब प्रेम
करता होता है।
लेकिन यह कठिन
है, बहुत
कठिन है। और
सामान्यतया
ऐसा नहीं होता
है।
मैं
कलकत्ता में
एक मित्र के
घर ठहरा था, वे मित्र
हाईकोर्ट के
जज थे। उनकी
पत्नी ने
मुझसे कहा कि
मेरी एक ही
समस्या है
जिसमें आपकी
मदद चाहती हूं।
मैंने पूछा कि
समस्या क्या
है? उसने
कहा कि मेरे
पति आपके
मित्र हैं और
वे आपको प्रेम
और आदर करते
हैं। इसलिए
अगर आप उनसे
कुछ कहेंगे तो
उससे मेरी मदद
हो जाएगी। फिर
मैंने पूछा कि
उन्हें क्या
कहना है? उसने
कहा कि वे
बिस्तर में भी
हाईकोर्ट के
जज ही बने
रहते हैं।
मुझे तो अब तक
प्रेमी, मित्र
या पति नहीं
मिला; वे
दिन के
चौबीसों घंटे
जज बने रहते
हैं।
कठिन
है, अपनी
कुर्सी से
नीचे उतर आना
कठिन है। वह
फिक्स
एटिटयूड बन
जाता है। अगर
तुम दुकानदार
हो तो बिस्तर
में भी दुकानदार
ही बने रहते
हो। अपने भीतर
दो
व्यक्तियों
को समाना—सम्हालना
कठिन हो जाता
है। और अपने
रवैए को किसी
भी समय और
पूरी तरह और
तुरंत बदलना
भी कठिन होता
है। लेकिन
प्रेम में तो
तुम्हें सिर
से नीचे उतरना
ही होगा।
तो इस
ध्यान के लिए
ज्यादा से
ज्यादा
प्रेमपूर्ण
होओ। और जब
मैं
प्रेमपूर्ण
होने को कहता
हूं तो उसका
मतलब है कि
अपने संबंध की
गुणवत्ता
बदलो, उसे
प्रेम पर
आधारित करो। न
सिर्फ अपनी
पत्नी, बच्चे
या मित्र के
प्रति, बल्कि
पूरे जीवन के
प्रति अधिक
प्रेमपूर्ण
होओ।
यही
कारण है कि
महावीर और
बुद्ध ने
अहिंसा की बात
की; वह
जीवन के प्रति
प्रेमपूर्ण
दृष्टि
निर्मित करने
का उपाय था।
जब महावीर
चलते हैं तो
उन्हें ध्यान
है कि एक चींटी
भी न मर जाए।
क्यों? यह
चींटी की बात
नहीं है, वे
सिर से हृदय
में उतर रहे
हैं। वे पूरे
जीवन के प्रति
प्रेम की
दृष्टि
निर्मित कर
रहे हैं।
जितना
ही तुम्हारा
संबंध, सभी संबंध, प्रेम पर
आधारित होगा,
उतना ही
तुम्हारा
हृदय—केंद्र
सक्रिय होगा।
और जब वह
सक्रिय होगा
तो तुम और ही
निगाह से संसार
को देखने
लगोगे।
क्योंकि
संसार को हृदय
से देखने का
ढंग और ही है।
मन उस ढंग से
कभी नहीं देख
सकता, मन
के लिए वह
असंभावना है।
मन तो सिर्फ
विश्लेषण कर
सकता है। हृदय
संश्लेषण
करता है, मन
सिर्फ काट—छांट
और विभाजन
करता है। मन
बांटता है, हृदय एक
करता है।
जब तुम
हृदय से देखते
हो तो समस्त
ब्रह्मांड अद्वैत, अखंड
मालूम होता है।
और जब तुम उसे
मन से देखते
हो, संसार
आणविक हो जाता
है; उसमें
कोई एकता नहीं
रहती, अणु
ही अणु रहते
हैं। हृदय
एकता का अनुभव
देता है, वह
जोड़ता है। और
उसका ही
आत्यंतिक संश्लेषण
परमात्मा है।
अगर तुम हृदय
से देखो तो
सारी सृष्टि
एक दिखती है।
और वही म्
एकता
परमात्मा है।
यही
कारण है कि
विज्ञान
ईश्वर को नहीं
खोज सकता है।
वह असंभव है।
क्योंकि
विज्ञान
जो उपाय काम
में लाता है
वे आत्यंतिक एकता
तक नहीं पहुंच
सकते।
विज्ञान की पूरी
विधि है—बुद्धि, विश्लेषण
और विभाजन। इसलिए
विज्ञान अणु, परमाणु और इलेक्ट्रान
पर पहुंच जाता
है। और
विज्ञान
बांटता ही
जाएगा। वह कभी
समग्र की
जैविक एकता को
नही प्राप्त कर
सकता। सिर के
द्वारा समग्र
को देख पाना
असंभव है।
तो
ज्यादा से
ज्यादा प्रेम
दो। याद रहे, जो भी तुम
करो उसमें
प्रेम की
गुणवत्ता
समायी हो।
इसका सतत
स्मरण बना रहे।
तुम घास पर चल
रहे हो, अनुभव
करो कि घास जीवित
है, प्रत्येक
पत्ती उतनी ही
जीवंत है
जितने जीवंत
तुम हो।
महात्मा
गांधी एक बार
शाति निकेतन
में रवींद्रनाथ
ठाकुर के साथ
ठहरे थे। जरा
इनके
दृष्टिकोण के
भेद को देखो।
गांधी जी की
अहिंसा एक
मानसिक बात थी; वे सदा
उसको सोच—विचार
की नजर से
देखते थे। वह
उनकी बुद्धि
का खेल था। वे
उस पर विचार
करते थे, चिंतन—मनन
करते थे और तब
निर्णय लेते
थे। पहले
प्रयोग करते
थे, तब
निष्पत्ति
निकालते थे।
अगर तुमने
उनकी आत्मकथा
पढ़ी है तो
तुम्हें याद
होगा कि
उन्होंने उस
किताब का नाम
रखा, एक्सपेरिमेंट्स
विद ट्रुथ—सत्य
के साथ प्रयोग।
एक्सपेरिमेंट,
प्रयोग
शब्द ही
वैज्ञानिक
है, बुद्धि
का है, प्रयोगशाला
का है।
तो
गांधी जी कवि
रवींद्रनाथ
के मेहमान थे
और वे दोनों
बगीचे में
घूमने निकले।
जमीन हरी थी, जीवंत थी,
उसे देखकर
गांधी जी ने
रवींद्रनाथ
से कहा कि आएं,
हम लोग घास
पर बैठें।
रवींद्रनाथ
ने कहा, यह
असंभव है, मैं
घास पर नहीं
चल सकता। एक—एक
पत्ती उतनी ही
जीवंत है
जितना मैं, मैं ऐसी
जीवंत चीज पर
पांव नहीं रख
सकता।
और
रवींद्रनाथ
अहिंसा के
प्रचारक नहीं
थे, कतई
नहीं।
उन्होंने कभी
अहिंसा की बात
नहीं की।
लेकिन वे हृदय
से देखते थे।
वे घास को
अनुभव करते थे।
गांधी ने
रवींद्रनाथ
की बात पर
विचार किया और
तब कहा कि आप
सही हैं।
यह मन
की दृष्टि है।
यह मन का खेल
है।
प्रेम
करो, वस्तुओं
को भी प्रेम
करो। अगर
कुर्सी पर
बैठे हो तो
कुर्सी के
प्रति प्रेमपूर्ण
बनो। कुर्सी
को अनुभव करो,
कुर्सी के
प्रति कृतज्ञ
अनुभव करो।
कुर्सी
तुम्हें
विश्राम दे
रही है। उसके
स्पर्श को
महसूस करो, उसके प्रति
प्रेम का भाव
रखो। कुर्सी
ही
महत्वपूर्ण
नहीं है, अगर
भोजन कर रहे
हो तो प्रेम
से भोजन करो।
भारत की
दृष्टि है : अन
ब्रह्म! मतलब
यह है कि जब भोजन
करो तो भोजन
के प्रति
प्रेमपूर्ण
होओ। भोजन
तुम्हें
ऊर्जा, बल
और जीवन दे
रहा है। तुम
उसके प्रति
कृतज्ञता
अनुभव करो, उसे प्रेम
से लो।
सामान्यत:
हम बहुत हिंसक
ढंग से भोजन
करते हैं—मानो
हम किसी की
हत्या कर रहे
हों। ऐसा नहीं
लगता कि हम
भोजन को
आत्मसात कर
रहे हैं, हम उसकी
हत्या करते
होते हैं। या
तुम बहुत
उदासीन भाव से,
संवेदनहीन
ढंग से पेट
में कुछ भी
डाले चले जाते
हो।
अपने
भोजन को
प्रेमपूर्वक, कृतज्ञता
के भाव से हाथ
में लो; वह
तुम्हारा
जीवन है। उसे
आहिस्ते से
मुंह में डालो,
उसका स्वाद
लो, रस लो।
उसके प्रति
उदासीन मत रहो,
उसके साथ
हिंसा मत करो।
हमारे
दांत बहुत
हिंसक हैं। यह
हिंसा हमें
पशुओं से
विरासत में
मिली है।
पशुओं के पास
उनके नाखून और
दांत के सिवाय
और कोई हथियार
नहीं होता है।
तुम्हारे दांत
बुनियादी रूप से
तुम्हारे हथियार
है। इसलिए तुम
दांत से हिंसा
करते हो। तुम दाँत
से भोजन को
कुचलते हो।
यही कारण है
कि तुममें
जितनी ज्यादा
हिंसा है
तुम्हें उतने
अधिक भोजन की
जरूरत पड़ती है।
लेकिन
आखिर भोजन की
सीमा है, इसलिए आदमी
सिगरेट पीता
है या पान
खाता है। वह
भी हिंसा है, उसमें भी रस
है। क्योंकि
तुम दांत से
किसी को पीस
रहे हो, मिटा
रहे हो—चाहे
वह तंबाकू या
पान ही क्यों
न हो। वह
हिंसा का ही
ढंग है।
तो जो
भी करो, प्रेमपूर्वक
करो। उदासीन
मत रहो। तब
तुम्हारा
हृदय—केंद्र
सक्रिय होगा।
तब तुम हृदय
में गहरे उतर
जाओगे।
पहली
बात हुई
सिरविहीन
होना, दूसरी
बात प्रेम
करना। और
तीसरी बात कि
अपने सौंदर्य—बोध
को बढ़ाओ, सौंदर्य
के प्रति, संगीत
के प्रति, हृदय
को छूने वाली
चीजों के
प्रति ज्यादा
संवेदनशील
बनो। अगर यह
दुनिया गणित
से बढ़कर संगीत
में प्रशिक्षित
हो तो
मनुष्यता
ज्यादा भली
होगी। अगर मन
दर्शनशास्त्र
से बढकर काव्य
में प्रशिक्षित
हो तो
मनुष्यता
ज्यादा भली
होगी।
क्योंकि जब
तुम संगीत
सुनते हो या
संगीत का सृजन
करते हो तो उस
समय मन की
जरूरत नहीं
रहती है। उस
समय तुम मन से
हटकर हृदय के
पास होते हो।
इसलिए
ज्यादा
सौंदर्य—प्रिय, ज्यादा
काव्यपूर्ण, ज्यादा
संवेदनशील
होओ। जरूरी
नहीं है कि
तुम बड़े
संगीतज्ञ बनो
या बड़े कवि या
चित्रकार बनो।
तुम उनका आनंद
ले सकते हो, या तुम अपने
ढंग से कुछ
सृजन भी कर
सकते हो।
पिकासो बनने
की जरूरत नहीं
है। तुम अपने
घर को रंग
सकते हो, तुम
कोई चित्र रंग
सकते हो।
अलाउद्दीन
खां जैसे
संगीत—सम्राट
होने की जरूरत
नहीं है, लेकिन
तुम अपने घर
बैठे तो कुछ
बजा सकते हो।
तुम बांसुरी
तो बजा सकते
हो, चाहे
बहुत कुशल न
भी हो। लेकिन
कुछ करो जो
हृदय से संबंध
रखता हो। गाओ,
नाचो, कुछ
करो जो हृदय
से जुड़ा हो।
हृदय
की दुनिया के
प्रति ज्यादा
संवेदनशील होओ।
और संवेदनशील
होने के लिए
बहुत कुछ नहीं
चाहिए। एक
गरीब आदमी भी
संवेदनशील हो
सकता है, उसके लिए धन
जरूरी नहीं है।
संवेदनशील
होने के लिए
महल जरूरी
नहीं है, समुद्रतट
पर पडे—पड़े भी
संवेदनशील हो
सकते हो। रेत
के प्रति, सूरज
के प्रति, लहरों
के प्रति, हवा,
पेड़ और
आकाश के प्रति
संवेदनशील हो
सकते हो।
संवेदनशील
होने के लिए
सारा संसार
पड़ा है। इसलिए
ज्यादा से
ज्यादा
संवेदनशील, जीवंत और
सक्रिय रूप से
जीवंत बनो।
दुनिया
बहुत निष्क्रिय
हो गई है। तुम
सिनेमा जाते
हो; कोई
दूसरा
तुम्हारे लिए
कुछ कर रहा है
और तुम वहां
महज बैठकर
देखते हो। कोई
परदे पर प्रेम
कर रहा है और
तुम देख रहे
हो। तुम महज
देखते हो—निष्क्रिय,
मृत। तुम
कुछ करते नहीं
हो, कुछ भागीदार
नहीं हो। और
जब तक तुम
भागीदार नहीं
बनते तब तक
तुम्हारा
हृदय—केंद्र
सक्रिय नहीं
होगा।
इसलिए
कभी—कभी नाचना
बेहतर है। तुम
कोई बड़े नर्तक
नहीं होने जा
रहे हो। जरूरी
भी नहीं है।
टेढ़ा—मेढ़ा
जैसा बने, बस नाचो।
उससे तुम्हें
हृदय की
अनुभूति
मिलेगी। जब
तुम नाच रहे
हो, हृदय
तुम्हारा
केंद्र होगा।
उस समय बुद्धि
कभी केंद्र
नहीं हो सकती।
उछलो—कूदो, बच्चों
की तरह खेलो।
कभी—कभी अपने
नाम, पद, प्रतिष्ठा,
सबको पूरी
तरह भूल जाओ
और बच्चे की
भांति हो जाओ।
गंभीर मत रहो।
जीवन को खेल
की तरह लो। तब
हृदय विकास
करेगा। तब हृदय
को ऊर्जा
मिलेगी।
और जब
तुम्हारे पास
जीवित हृदय
होगा तब तुम्हारे
मन का गुणधर्म
भी बदल जाएगा।
तब तुम मन को साथ
ले सकते हो, तब तुम मन
से भी काम ले सकते
हो। लेकिन तब
मन महज एक
यंत्र होगा, तुम उसका
उपयोग कर सकते
हो। तब तुम
उससे ग्रस्त
नहीं रहोगे, और तब तुम जब
चाहो उससे हट
सकते हो। तब
तुम मालिक हो।
हृदय ही यह
भाव देगा कि
तुम मालिक हो।
एक और
बात, तब
तुम यह भी
जानोगे कि तुम
न सिर हो और न
हृदय हो।
क्योंकि तुम
तो सिर से
हृदय और हृदय
से सिर के बीच
गति कर सकते
हो। तब तुम
जानते हो कि
तुम कुछ और हो—भिन्न।
अगर तुम सिर
में ही रहो और
उससे अन्यत्र
न जाओ तो तुम
सिर से एकात्म
हो जाओगे। तब
तुम नहीं
जानोगे कि तुम
भिन्न हो। सिर
से हृदय और
हृदय से सिर
के बीच गति
करने से तुम्हें
पता चलता है
कि तुम उनसे
सर्वथा भिन्न
हो। कभी तुम
सिर में होते
हो और कभी
हृदय में, लेकिन
तुम खुद न सिर
हो न हृदय।
बोध का यह
तीसरा बिंदु
तुम्हें
तीसरे केंद्र
पर, नाभि—केंद्र
पर पहुंचा
देगा। और नाभि
कोई केंद्र
नहीं है सच
में। वहां तुम
ही हो। यही
कारण है कि
उसका विकास
नहीं किया
जाता, उसका
सिर्फ
आविष्कार
होता है।
चौथा
प्रश्न :
आपने
कहा कि पश्चिम
के मनस्विद अब
मानते हैं कि किसी
प्रेम— संबंध
में लड़ाई—झगडे
की नौबत आने पर
उससे भागने की
बजाय उसका
सामना करना बेहतर
है,
क्योंकि उससे
प्रेम प्रगाढ़
होता है। और
फिर आपने
बुद्ध के मध्य
मार्ग की
चर्चा की? जिसमें
दोनों अतियां
वर्जित हैं।
तो जिन्होंने
अभी उस प्रेम
को नहीं
उप्लब्ध किया है
जो अतियों के पार
है, उसके
लिए कौन सा
मार्ग आय
श्रेयस्कर
समझते हैं?
कुछ मूलभूत
बातें। एक कि
हमारा सामान्य
प्रेम घृणा और
प्रेम के दो घ्रुवों
के बीच डोलता
ही रहेगा। मन
के साथ
द्वंद्व
रहेगा ही।
इसलिए मन के
रहते यदि तुम
किसी के प्रति
प्रेमपूर्ण
हो तो दूसरे
छोर से नहीं
बच सकते। तुम
उसे छिपा सकते
हो, तुम
उसका दमन कर
सकते हो, तुम
उसे भुला सकते
हो—और हमारे
तथाकथित
सुसंस्कृत
यही करते हैं।
लेकिन तब वे
ठंडे, मुर्दा
हो जाते हैं।
अगर
तुम अपने
प्रेमी से लड़
नहीं सकते, तुम उस पर
क्रोध नहीं कर
सकते, तो
प्रेम की
प्रामाणिकता
नष्ट हो जाती
है। अगर तुम
अपने क्रोध का
दमन करते हो
तो वह दमित क्रोध
तुम्हारे
जीवन का अंग
हो जाएगा, और
वह तुम्हें
तुम्हारे
प्रेम में
समग्रता से
नहीं उतरने
देगा। वह
क्रोध वहां
सदा मौजूद
रहेगा, क्योंकि
तुमने उसे
रोका है, उसका
दमन किया है।
अगर
मैंने क्रोध को
दबा रखा है तो
प्रेम करते
समय दमित
क्रोध वहां
मौजूद रहेगा, और वह
मेरे प्रेम को
मुर्दा कर
देगा। अगर मैं
अपने क्रोध
में
प्रामाणिक
नहीं हूं तो
मैं अपने
प्रेम में भी
प्रामाणिक
नहीं हो सकता।
अगर तुम
प्रामाणिक हो
तो दोनों में
प्रामाणिक हो।
अगर किसी एक
में
अप्रामाणिक
हो तो दूसरे
में प्रामाणिक
नहीं हो सकते।
दुनिया
में सभ्यता और
संस्कृति के
नाम पर जो उपदेश
चलते हैं
उन्होंने
प्रेम की
हत्या कर दी है, उसे निष्प्राण
बना दिया है।
यह सारा काम प्रेम
के नाम पर हुआ है।
वे कहते है कि
यदि तुम किसी
को प्रेम करते
हो तो उस पर क्रोध
मत करो। और
अगर तुम क्रोध
करते हो तो
तुम्हारा
प्रेम झूठा है।
इसलिए लड़ो मत,
इसलिए घृणा
मत करो।
निश्चित
ही, यह
बात तर्कसंगत
मालूम पड़ती है।
अगर तुम प्रेम
में हो तो
घृणा कैसे कर
सकते हो? इसलिए
हम घृणा के
अंश को काट
देते हैं।
लेकिन घृणा के
कटते ही प्रेम
नपुंसक हो
जाता है। यह
वैसा ही है कि
तुम किसी आदमी
का एक पैर काट
दो और उससे
कहो कि चलो, तो क्या वह
चल सकता है? असंभव है।
घृणा
और प्रेम एक
ही घटना के दो
ध्रुव हैं।
इसलिए घृणा को
काटने से
प्रेम मृत और
नपुंसक हो
जाएगा। यही
कारण है कि
हरेक परिवार
नपुंसक हो गया
है। और तब तुम
खुलकर प्रकट
करने से डरने
लगते हो। तुम
अपने प्रेम
में समग्रता
से नहीं उतर
सकते, क्योंकि
तुम भयभीत हो।
अगर समग्रता
से उतरो तो
दबे हुए क्रोध,
हिंसा, घृणा
सब ऊपर आ जाएं।
तब तुम्हें
उन्हें
निरंतर दबाए
रखना पड़ता है।
तब तुम्हें
अपने गहरे में
निरंतर लड़ते
रहना पड़ता है।
और संघर्ष में
तुम
स्वाभाविक और
सहज नहीं हो सकते।
तब तुम प्रेम
का दिखावा
करते हो, तब
तुम प्रेम का
ढोंग करते हो।
और हरेक को
पता है।
तुम्हारी
पत्नी को भी
पता है कि तुम
दिखावा कर रहे
हो। और तुम भी
जानते हो कि
तुम्हारी
पत्नी प्रेम का
दिखावा कर रही
है। ऐसे हर
कोई दिखावा कर
रहा है। और तब
सारा जीवन
झूठा हो जाता
है।
मन के
पार जाने के
लिए दो चीजें
करनी होंगी।
ध्यान में
उतरो और तब
अपने भीतर अ—मन
के तल को
स्पर्श करो।
तब तुम उस
प्रेम को
उपलब्ध होओगे
जिसकी कोई ध्रुवीय
विपरीतता
नहीं है।
लेकिन उस
प्रेम में कोई
उत्तेजना
नहीं रहेगी, कोई आवेग
नहीं रहेगा।
वह प्रेम मौन
होगा, शांत
होगा। उस गहरी
शाति की झील
में एक भी लहर
नहीं होगी।
बुद्ध
और जीसस भी
प्रेम करते
हैं, लेकिन
उनके प्रेम
में कोई
उत्तेजना, कोई
ज्वर नहीं
रहता। ज्वर और
उत्तेजना तो
ध्रुवीय
विपरीतता से
उत्पन्न होते
हैं। दो
विपरीत ध्रुव
तनाव पैदा
करते हैं।
बुद्ध और जीसस
का प्रेम शांत
घटना है।
इसलिए वे ही
उनके प्रेम को
समझ सकते हैं
जो अ—मन को
उपलब्ध हो गए
हैं।
जीसस
कहीं जा रहे
थे और दोपहर
का समय था। वे
थके थे। इसलिए
एक पेड़ के
नीचे विश्राम
करने लगे। वे
नहीं जानते थे
कि वह पेड़
किसका है। पेड़
मेरी
मेग्दालिन का
था। और
मेग्दालिन एक
वेश्या थी।
उसने अपनी
खिड़की से
झांका और इस
अति सुंदर पुरुष
को देखा—ऐसा
सुंदर पुरुष
कभी—कभी होता
है। वह
आकर्षित हुई; आकर्षित
ही नहीं, वह
उन पर मोहित
हो गई।
वह
बाहर आई और
उसने जीसस से
कहा कि आप
यहां क्यों
आराम कर रहे
हैं! आप मेरे
घर के अंदर
आएं; आपका
स्वागत है!
जीसस ने उसकी आंखों
में भरे राग
को देखा, प्रेम
को, तथाकथित
प्रेम को देखा
और कहा. दूसरी
बार जब मैं
यहां से
गुजरता हुआ
थका होऊंगा तो
तुम्हारे घर
आऊंगा। अभी तो
मेरी जरूरत
पूरी हो गई है,
मैं चलने को
तत्पर हूं।
धन्यवाद!
मेरी
ने अपमान
अनुभव किया।
ऐसा कभी नहीं
हुआ था, इसके पहले
उसने कभी किसी
को आमंत्रित
नहीं किया था।
दूर—दूर से
लोग सिर्फ
उसको एक नजर
देखने के लिए आते
थे, राजे—महाराजे
तक आते थे। और
यहां एक
भिखारी उसका
निमंत्रण
ठुकरा रहा है! जीसस
तो भिखारी ही
थे, एक
आवारा हिप्पी।
और उन्होंने
उसे इनकार कर
दिया। मेरी ने
जीसस से पूछा कि
क्या आप मेरे
प्रेम को नहीं
देखते है? यह
प्रेम का निमंत्रण
है, आप आएं।
अस्वीकार न
करें। क्या
आपके हृदय में
प्रेम नहीं है?
जीसस
ने उत्तर में
कहा कि मैं भी
तुम्हें प्रेम
करता हूं। सच
तो यह है कि जो
प्रेम करने का
दावा करते हुए
तुम्हारे पास
आते हैं वे तुम्हें
प्रेम नहीं
करते, सिर्फ
मैं तुम्हें
प्रेम करता
हूं।
और वे
सही थे। लेकिन
उस प्रेम का
गुणधर्म ही और
है। उस प्रेम
का विपरीत
नहीं होता, इसलिए
उसमें तनाव
नहीं होता है।
उसमें
उत्तेजना का
अभाव रहता है।
जीसस के प्रेम
में उत्तेजना
नहीं है, ज्वर
नहीं है। उनके
लिए प्रेम कोई
संबंध नहीं है,
वह होने की
अवस्था है।
मन के
पार जाओ, अ—मन को
प्राप्त करो।
तब प्रेम का
फूल खिलता है।
लेकिन उस
प्रेम में
विपरीत तत्व
नहीं रहता है।
मन के पार
द्वंद्व नहीं
रहता, मन
के पार सब एक
है।
लेकिन
अगर तुम मन के
भीतर हो तो
पाखंडी होने
की बजाय
प्रामाणिक
होना बेहतर है।
इसलिए जब
तुम्हें अपने
प्रेमी या
प्रेमिका के
प्रति क्रोध
हो तो
प्रामाणिक
होकर क्रोध को
प्रकट करो।
उसका दमन मत
करो। प्रेम का
क्षण भी आएगा।
जब मन दूसरी
अति पर जाएगा, तब
तुम्हारे
प्रेम का प्रवाह
सहज होगा, स्वतःस्फूर्त
होगा। इसलिए
लड़ाई—झगड़े को
प्रेम का अंग
मानो। मन की
गत्यात्मकता
का ढंग ही
विरोधों में
गति करना है।
अपने क्रोध
में, अपने
झगड़े में भी
प्रामाणिक
रहो। तब तुम
प्रेम में भी
प्रामाणिक
होओगे।
तो
प्रेमियों को
मैं कहना
चाहूंगा—प्रामाणिक
बनो। और अगर
तुम सचमुच
प्रामाणिक
हुए तो एक
अदभुत घटना
घटेगी। तुम
ध्रुवीय
विपरीतताओ के
बीच डोलने की
सारी मूढ़ता से
थक जाओगे।
लेकिन
प्रामाणिक
बनो, अन्यथा
तुम कभी थकोगे
नहीं।
एक
दमित चित्त को
कभी ठीक से
पता ही नहीं
चलता है कि वह
विपरीतताओ के
चक्कर में
फंसा है। वह न
कभी ठीक से
क्रोध करता है, न कभी ठीक
से प्रेम में
उतरता है, इसलिए
उसे कभी चित्त
का, मन का
यथार्थ अनुभव
भी नहीं हो
पाता है।
तो
मेरा सुझाव है
कि पहले
प्रामाणिक
बनो। पाखंडी
मत बनो, सच्चे बनो।
और
प्रामाणिकता
का अपना
सौंदर्य है।
जब तुम सच में,
प्रामाणिक
रूप से क्रोध
करोगे तो
तुम्हारा
प्रेमी या तुम्हारी
प्रेमिका
तुम्हें सहानुभुतिपूर्वक
समझेगी। केवल
झूठे क्रोध या
झूठे अक्रोध
को क्षमा करना
कठिन है। झूठे
आदमी को क्षमा
नहीं किया जा
सकता।
तो
क्रोध में
प्रामाणिक
होओ। और तब
तुम प्रेम में
भी प्रामाणिक
हो सकोगे। वह
प्रामाणिक
प्रेम मुआवजे
का काम करेगा।
और फिर इस
प्रामाणिक
जीवन जीने से
तुम्हें इसकी
व्यर्थता
दिखाई पड़ेगी।
तब तुम्हें
हैरानी होगी
कि मैं क्या
कर रहा हूं!
मैं क्यों
पेंडुलम की
भांति एक अति
से दूसरी अति
पर डोल रहा
हूं! तुम बुरी
तरह ऊब जाओगे।
और तभी अतियों
के पार, मन के पार
जाने का
निर्णय ले
सकोगे।
प्रामाणिक
पुरुष बनो या
प्रामाणिक
स्त्री बनो।
झूठ को मत जगह
दो; ढोंग
मत रचो। सच्चे
बनो और सच्चाई
का दुख झेलो।
दुख झेलना
अच्छा है। दुख
प्रशिक्षण है,
अनुशासन है।
सच्चाई का दुख
झेलो। क्रोध,
प्रेम और
घृणा, सबका
दुख झेलो। एक
ही बात स्मरण रहे—कभी
पाखंडी मत बनो।
अगर तुम प्रेम
अनुभव नहीं
करते तो कहो, वैसा कह दो।
प्रेम का ढोंग
मत करो, दिखावा
मत करो कि
तुम्हें
प्रेम है। अगर
तुम क्रोध में
हो तो कहो कि
मैं क्रोध में
हूं। तब सचमुच
क्रोध करो।
इससे
बहुत दुख होगा, उस दुख को
भोगो। उसी
पीड़ा से एक
नयी चेतना का
जन्म होगा।
तुम घृणा और
प्रेम की सारी
मूढ़ता के
प्रति जाग
जाओगे। तुम
जिस आदमी को
घृणा करते हो
उसी को प्रेम
भी करते हो और
एक वर्तुल में
घूमते रहते हो।
वह वर्तुल तब
तुम्हें साफ—साफ
दिखाई देने
लगेगा। और वह
दृष्टि सिर्फ
दुख से गुजरने
से प्राप्त
होती है।
दुख से
मत भागो।
तुम्हें
सच्चे दुख की
जरूरत है। वह
आग की भांति
है, वह
तुम्हें जला
डालेगी। और जो
भी झूठ है वह
जल जाएगा और
जो सच है वह बच
जाएगा।
अस्तित्ववादी
इसी को
प्रामाणिकता
कहते हैं।
प्रामाणिक
बनो और तब तुम
मन के बाहर हो
जाओगे।
अप्रामाणिक
रहो और तुम
जन्मों—जन्मों
मन की कैद में
पड़े रहोगे।
तुम
द्वंद्व से
तभी ऊबोगे, थकोगे, जब तुम उसे
यथार्थत:
जीओगे।
दिखावा करने
से काम नहीं
चलेगा।
द्वंद्व को
जीकर ही
जानोगे कि मन
का तथाकथित प्रेम
एक रोग है।
क्या तुमने
नहीं देखा है
कि प्रेमी सो
नहीं सकता? वह बेचैन है।
वह
ज्वरग्रस्त
है। अगर तुम
उसकी जांच करो
तो तुम्हें
उसमें अनेक
रोगों के
लक्षण
मिलेंगे।
यह
प्रेम, मन और शरीर
का यह तथाकथित
प्रेम सच में
एक रोग है।
लेकिन उसकी एक
उपयोगिता है
कि वह तुम्हें
व्यस्त रखता
है। उसके बिना
तुम्हें खाली—खाली
लगेगा, मानो
संसार में कुछ
करने को नहीं
है। तुम्हें
लगेगा कि मेरी
पूरी जिंदगी
रिक्त है, इसलिए
उस रिक्तता को
तुम प्रेम से
भरते हो। मन
स्वयं एक रोग
है। इसलिए जो
भी मन का है वह
रोग है। दूसरे
प्रेम का फूल
तो मन के पार
खिलता है, जहां
तुम द्वंद्व
में नहीं बंटे
हो, जहां
तुम अखंड हो, एक हो। जीसस
उसे प्रेम
कहते हैं, बुद्ध
उसे ही करुणा
कहते हैं। वह
सिर्फ फर्क
कहने के लिए
है। लेकिन
इससे भेद नहीं
पड़ता कि तुम
उसे क्या कहते
हो।
जिस
प्रेम का
विपरीत नहीं
है, वह
तभी संभव है, जब तुम इस
प्रेम के पार
चले जाओ। और
पार जाने के
लिए ही मैं तुम्हें
प्रामाणिक
होने को कहता
हूं। घृणा, प्रेम, क्रोध,
सब में
प्रामाणिक
होओ। दिखावा
मत करो।
क्योंकि
यथार्थ का ही
अतिक्रमण हो
सकता है।
अयथार्थ का
अतिक्रमण
कैसे होगा?
आज
इतना ही।
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