अध्याय—18
प्रवचन—
अध्येष्यते
च य इमं
धर्म्यं
संवादमावयो:।
ज्ञानयज्ञेन
तेनाहमिष्ट
स्यामिति मे
मति:।। 70।।
श्रद्धावाननसूयश्च
श्रृणुयादीय
यो नर:।
सोऽपि
मुक्त:
शुभाँल्लोकान्प्राम्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।
71।।
तथा
हे अर्जुन, जो पुरूष इस
धर्ममय हम
दोनों के संवाद—
रूप गीता को
पढ़ेगा
अर्थात नित्य
पाठ करेगा,
उसके द्वारा मैं
ज्ञान— यज्ञ
से पूजित
होऊंगा,
ऐसा मेरा मत
है।
तथा
जो पुरूष श्रद्धायुक्त
और दोष—
दृष्टि से
रहित हुआ इस
गीता का श्रवण—
मात्र भी करेगा, वह भी
पापों से मुक्त
हुआ पुण्य
करने वालों के
श्रेष्ठ
लोकों को
प्राप्त
होवेगा।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न : यदि
कोई तपरहित और
भक्तिरहित
व्यक्ति भी
गीता सुनना चाहे, तो उसे
सुनाना चाहिए
अथवा नहीं?
पहली बात, बजाय यह
सोचने के कि
किसको सुनाना
चाहिए, पहले
यह सोच लेना
चाहिए कि मैं
सुनाने योग्य
हूं या नहीं।
और यदि तुम
सुनाने योग्य
हो, तो
तुम्हें
दर्पण की
भांति स्पष्ट
हो जाएगा, किसको
सुनाना चाहिए,
किसको नहीं
सुनाना चाहिए।
तब निर्भर
करेगा—जो
व्यक्ति तप और
भक्ति से रहित
है, वह भी
तप और भक्ति
के लिए
लालायित हो
सकता है। जो
आज दूर है, कल
पास हो जाएगा।
जो आज गिरा है,
कल उठेगा।
तप और
भक्ति से रहित
व्यक्ति यदि
सुनना चाहे, तो सुनना
चाहने के दो
कारण हो सकते
हैं। एक, मात्र
कुतूहल। तब तो
नहीं सुनाना
चाहिए।
क्योंकि
कुतूहल तो
खुजली जैसा है,
वह कहीं ले
जाने वाला
नहीं है।
खुजाओ, थोड़ा
रस मालूम होता
है। लेकिन
खुजली से घाव
बनते हैं।
अगर
कुतूहल मात्र
हो, तो
गीता के शब्द
ही पहुंच
पाएंगे उसके
पास, अर्थ
न पहुंच पाएगा।
अर्थ की उसे
आकांक्षा भी
नहीं है। और
उसके जीवन में
गीता के
शब्दों के घाव
बन जाएंगे।
गीता के
अर्थों के फूल
तो न लगेंगे, शब्दों के
घाव बन जाएंगे।
तुम्हारे
सुनाने से
अहित होगा
उसका, हित
न होगा। वह
पंडित हो
जाएगा।
कुतूहल ज्यादा
से ज्यादा
पांडित्य तक
ले जा सकता है,
क्योंकि
कुतूहल
बौद्धिक
खुजलाहट है।
लेकिन
यह भी हो सकता
है कि तप और
भक्ति से रहित
व्यक्ति
जिज्ञासु हो; कुतूहल न
हो, वस्तुत:
जिज्ञासा जगी
हो। अभी तप और
भक्ति का उदय
तो नहीं हुआ, लेकिन
प्राणों में
एक प्यास की
पहली आवाज सुनाई
पडी है, पहली
पुकार उठी है।
स्वभावत:, पहली
पुकार
जिज्ञासा की
ही तरह उठेगी।
गीता
सुनाने से जिज्ञासु
का खोज का
द्वार खुलता
है। उसके भीतर
धीरे — धीरे
मुमुक्षा का
जन्म होने
लगेगा।
लेकिन
यह सारी बात
तुम्हें
दिखाई पड़
जाएगी, अगर तुम
सुनाने के
योग्य हो।
कृष्ण
ने कुछ भी
नहीं कहा इस
संबंध में कि
कौन सुनाए।
किसको सुनाए, यह तो कहा,
कौन सुनाए,
यह नहीं कहा।
उसका कारण है।
क्योंकि
कृष्ण को यह
खयाल भी नहीं
आया कि कृष्ण
हुए बिना कोई
सुनाने की
कोशिश करेगा।
लेकिन लोगों
ने की है। तो
गीता के आस—पास
पंडितों की
टीकाओं—टिप्पणियों
का बड़ा जाल खड़ा
हो गया है।
सुनने
वाला हो सकता
है, गलत
ढंग से सुने
और भटक जाए।
लेकिन एक ही
सुनने वाला
गलत ढंग से
सुनता है, भटकता
है। सुनाने
वाला तो
हजारों लोगों
को सुनाता है,
लाखों को
सुनाता है।
अगर सुनाने
वाला ही गलत
है, तो वह
लाखों—करोड़ों
को भटका देता
है। और ध्यान
रखना, गलत
सुनाने वाला
अनिवार्य रूप
से गलत सुनने
वाले को
आकर्षित कर
लेगा।
जीवन
में आकर्षण के
बड़े सूक्ष्म
जाल हैं। जैसे
स्त्री पुरुष
को आकर्षित कर
लेती है, या पुरुष
स्त्री को
आकर्षित कर
लेता है; जैसे
चुंबक के पास
लोहकण खिंचे
चले आते हैं, ऐसे जीवन
में बड़े
सूक्ष्म जाल
हैं आकर्षण के।
अगर
गलत सुनाने
वाला व्यक्ति
है, तो
गलत सुनने
वालों की भीड़
अपने आप
इकट्ठी हो जाएगी।
ठीक सुनने
वाला तो वहां
टिक ही न
सकेगा।
क्योंकि ठीक
सुनने वाले को
तो वहां कुछ
दिखाई ही न
पड़ेगा सिवाय
अंधकार के।
ठीक सुनने
वाले की कसौटी
पर तो ठीक
सुनाने वाला
ही उतरेगा।
लेकिन गलत
सुनने वालों
की भीड़ इकट्ठी
हो जाएगी।
कृष्ण
ने कुछ कहा
नहीं उस संबंध
में, क्योंकि
कहना भी
मुश्किल है।
और कृष्ण को
खयाल भी न आया
होगा कि लोग
ऐसी अहम्मन्यता
भी करेंगे। उन
दिनों ऐसी
अहम्मन्यता
होती भी नहीं
थी।
कृष्ण, महावीर
और बुद्ध के समय
में वही
व्यक्ति
बोलने जाता था,
जिसने जाना
हो; जिसने
जाना न हो, वह
बोलने की
चेष्टा भी
नहीं करता था।
क्योंकि बिना
जाने बोलना
महा अपराध है।
उससे तुम न
मालूम कितने
लोगों के जीवन
में कांटे बो
दोगे। शायद
तुम्हें
बोलने में
थोड़ा मजा आ
जाए, रस आ
जाए; शायद
बोलते—बोलते
तुम्हें लगे
कि तुम बड़े
महत्वपूर्ण
हो गए हो, क्योंकि
कई लोग
तुम्हें सुन
रहे हैं; शायद
पांडित्य की
अकड़ और अहंकार
में थोड़ी तुम्हें
तृप्ति मिले।
लेकिन
तुम्हारी
व्यर्थ की
तृप्ति के लिए
न मालूम कितने
लोग मार्ग से
च्युत हो
जाएंगे। तुम
उन्हें भटका
दोगे।
और इस
संसार में बड़ा
से बड़ा पाप
हत्या नहीं है, इस संसार
में बड़ा से
बड़ा पाप किसी
को उसके मार्ग
से भटका देना
है।
तो
जितने बड़े पाप
अपात्र बोलने
वालों ने किए
हैं, उतने
बड़े पाप किसी
ने भी नहीं
किए हैं।
क्योंकि कोई
गरदन पर
तुम्हारी
तलवार मार दे,
तो शरीर ही
कटता है, फिर
शरीर मिल
जाएगा। लेकिन
कोई तुम्हारी
आत्मा को
रास्ते से
भटका दे, तो
कुछ ऐसी चीज
भटक जाती है
कि जन्मों—जन्मों
खोजकर शायद
तुम मुश्किल
से वापस अपनी जगह
पर आ पाओगे।
क्योंकि एक
भटकाव दूसरे
भटकाव में ले
जाता है, कड़िया
जुड़ी हैं।
दूसरा भटकाव
तीसरे भटकाव
में ले जाता
है। और पीछे
लौटना
मुश्किल होता
चला जाता है।
तो
पहली तो बात
ध्यान रखना, इसकी
फिक्र मत करना
कि कौन पात्र
है सुनने में,
कौन नहीं।
पहले तो इसकी
फिक्र करना कि
मैं बोलने में
पात्र हूं? मैं कृष्ण
पर कुछ कहूं? जब तक कृष्ण—चेतना
का आविर्भाव न
हुआ हो, तब
तक मत कहना।
और
इसके लिए किसी
से पूछने जाना
है? यह
तो तुम भीतर
ही जान सकोगे
कि कृष्ण—चेतना
का आविर्भाव
हुआ या नहीं
हुआ। इसकी और
किसी से कसौटी
लेने की जरूरत
भी नहीं है, किसी से
पूछने का कोई
कारण भी नहीं
है। पूछने तो
वही जाएगा, जो संदिग्ध
है। और कृष्ण—चेतना
में संदेह
नहीं है, वह
असंदिग्ध, स्वतःप्रमाण्य
अवस्था है। जब
भीतर उदित
होती है, तो
तुम जानते हो,
जैसे सूरज
उग गया। अब
तुम किसी से
पूछते थोड़े ही
हो कि रात है
या दिन! और
पूछो, तो
बताओगे कि तुम
अंधे हो।
कृष्ण
ने नहीं लगाई
कोई शर्त
बोलने वाले पर, क्योंकि
उन दिनों यह
होता ही न था
कि जो न जानता
हो, वह
बोले। जानकर
ही कोई बोलता
था। और जब तक न
जान लेता था, तब तक कितना
ही शास्त्रों
से इकट्ठा कर
ले, इस
भ्रांति में
नहीं पड़ता था
कि मुझे अनुभव
हो गया है।
श्वेतकेतु
घर लौटा अपने
पिता के पास।
उद्दालक ने
कहा कि तू उस
एक को जानकर आ
गया, जिसे
जानने से सब
जान लिया जाता
है? क्योंकि
श्वेतकेतु
बड़ा अकड़कर आ
रहा था, जैसा
कि पंडित सदा
ही अकड़ जाता
है। सब
परीक्षाएं
उत्तीर्ण कर
लीं, सभी
शास्त्र
जानकर आ रहा
था, वेदों
का पारंगत
ज्ञाता हो गया
था। जो कुछ भी
विश्वविद्यालय
में सिखाया जा
सकता था, सब
सीख लिया था।
गुरु के आश्रम
में अब कुछ और
बचा ही न था
सीखने को।
स्वभावत:, युवा
था, अभी
अहंकार ताजा
था, अभी
अकड़ नई थी; अभी
बाढ़ में था
जीवन, अकड़कर
आ रहा था।
पिता
ने देखा उसे
आते, उसकी
अकड़ लगी कि
गलत है।
क्योंकि
जानने वाला
ऐसे अकड़कर
कहीं आता है! यह
तो अज्ञानी का
लक्षण है।
पहली
ही बात, बेटा आकर
चरणों में
झुका, पिता
ने पूछा कि 1
मालूम होता है,
तू सब जानकर
आ गया!
श्वेतकेतु ने
कहा, आप
ठीक पहचाने।
कुछ मैंने
छोड़ा नहीं; जो भी जानने
योग्य था, सब
जान लिया। सब
चुकता करके
आया हूं,
कुछ बचा नहीं
है।
तो
पिता ने कहा, एक बात का
उत्तर दे।
तूने उस एक को
जाना, जिसे
जानने से सब
जान लिया जाता
है? और
जिसे न जानने
से, कुछ भी
जाना हो, तो
जानने का कोई
मूल्य नहीं?
श्वेतकेतु
ने कहा, कैसा एक? कौन—सा
एक? गुरु
ने उसकी तो
कोई बात ही
नहीं की!
तो
पिता ने कहा, फिर वापस
जा। यह भी कोई
जानना है? हमारे
कुल में
नाममात्र के
ब्राह्मण
नहीं हुए हैं।
हम ब्रह्म को
जानकर ही अपने
को ब्राह्मण
कहते रहे हैं।
ऐसा पैदाइश से
हमारे कुल में
कोई ब्राह्मण
अपने को नहीं
कहा है। तू
जानकर लौट, ब्रह्म को
जानकर लौट, अन्यथा
ब्राह्मण न
कहला सकेगा।
उन
दिनों कोई
जरूरत न थी यह
बात कहने की, क्योंकि
ऐसा महापातक
कोई करता ही न
था। इसलिए
कृष्ण ने कहने
वाले के लिए
कुछ भी नहीं कहा
है, सुनने
वाले के लिए
कहा है।
और अगर
तुम्हारे
भीतर जागरण हो
गया है चैतन्य
का, तो
उस जागरण में
तुम
प्रत्यक्ष
देख लोगे, किससे
कहना, किससे
नहीं कहना।
कुतूहल वाले
व्यक्ति को मत
कहना, जिज्ञासु
को कहना।
जिज्ञासा और
कुतूहल में
बड़ा बारीक
फासला है। वे
एक जैसे दिखाई
पड़ते हैं।
कुतूहल
जिज्ञासा का
झूठा सिक्का
है। एक जैसे
दिखाई पड़ते
हैं।
जैसे
छोटा बच्चा
पूछता है, चले जा
रहे हो रास्ते
पर, तुम्हारा
बच्चा साथ है,
वह पूछता है,
पक्षियों
को दो पंख
क्यों हैं? वृक्ष में
लाल फूल क्यों
लगे हैं? सूरज
सुबह ही क्यों
उगता है? उगना
तो रात में
चाहिए, जब
अंधेरा रहता
है! परमात्मा
नासमझ है; सुबह
उगाता है, जब
कि प्रकाश है,
और रात में
डुबा देता है
जब कि अंधेरा
है। वह पूछता
जाता है।
तुम
उसकी बात पर
बहुत ज्यादा
ध्यान नहीं
देते। तुम कुछ—कुछ
कहकर उसे
टालते रहते हो।
और तुम न भी
टालो, तो
वह खुद ही एक
क्षण बाद भूल
जाता है कि
उसने क्या
पूछा था, क्योंकि
दूसरे प्रश्न
खड़े हो जाते
हैं।
वह कुछ
पूछने के लिए
नहीं पूछ रहा
है। उसकी कोई
जिज्ञासा
नहीं है; कुतूहल है।
उसके मन में
तरंगें उठ रही
हैं। हर चीज
प्रश्नवाची
है। लेकिन तुम
यह मत सोचना
कि वह कोई
किसी प्रश्न से
अटका है; कि
इस प्रश्न का
हल न हुआ, तो
उसका जीवन
दांव पर लग
जाएगा। उसे
कुछ मतलब ही
नहीं है। तुम
इतना ही कह दो,
बड़े होकर
जान लोगे, बात
खतम हो गई। वह
यह भी नहीं पूछता
कि तुम बड़े हो
गए हो, तुमने
जाना? वह
कहता है, ठीक
होगा। तुम कुछ
भी उत्तर दे
दो, उत्तर
में उसे बहुत
रस भी नहीं है;
उसे पूछने
का मजा है।
जैसे
पंडित को
बोलने का मजा
है, वैसे
कुतूहली को
पूछने का मजा
है। इसलिए
पंडित और
कुतूहली का
मेल बैठ जाता
है। पंडितों
के पास कुतूहल?
लोग इकट्ठे
हो जाते हैं।
जिज्ञासु
को पूछने के
लिए नहीं
पूछना है; पूछने पर
प्राण अटके
हैं; पूछने
पर निर्भर है
सब कुछ; पूछने
पर दाव लगा है,
या इस पार
या उस पार; वह
जीवन—मरण का
सवाल है; वह
हर कुछ नहीं
पूछ रहा है।
इसलिए
जिज्ञासु कभी—कभी
पूछेगा; लेकिन
अपने प्राण उस
एक प्रश्न में
डुबा देगा।
कुतूहली रोज
पूछेगा, दिन
में हजार
बातें पूछेगा,
और भूल
जाएगा पूछकर,
फिर दुबारा
याद भी नहीं
करेगा।
परमात्मा
कुतूहल से
नहीं जाना
जाता। कुतूहल
बहुत सस्ता है, जिसमें
तुम दांव ही
नहीं लगाते।
बस, पूछ
लिया, राह
चलते पूछ हया!
मेरे
पास ऐसे लोग आ
जाते थे। मैं
यात्राओं में
था। मैं ट्रेन
पकड़ने के लिए
प्लेटफार्म
पर चला जा रहा
हूं; कोई
आदमी देख लेगा,
पहचान
जाएगा, पास
आ जाएगा; कि
आपसे जरा एक
बात पूछनी है,
मन शात कैसे
हो?
मैं
ट्रेन पकड़ रहा
हूं ट्रेन
छूटने को है, उसको खुद
भी ट्रेन पकड़नी
है! स्टेशन पर
पूछ रहा है, मन शांत
कैसे हो? जैसे
कोई बच्चों का
खेल है! कि कोई
पूछता है कि ईश्वर
है या नहीं? आप
संक्षिप्त
में उत्तर दे
दें, ही या
ना?
मेरे
ही और न से
क्या हल होगा? अगर मेरे
ही और न से
तुम्हारी
ईश्वर की खोज
पूरी हो जाती,
तो वह कोई
खोज थी? वह
दो कौड़ी की थी।
खोज ही न थी।
जिज्ञासा
बात और है।
तुम जिज्ञासा
को हल करने के
लिए चुकाने को
तैयार होते हो, चाहे
पूरा जीवन भी
चुकाना पड़े।
प्रश्न केवल
प्रश्न नहीं
हैं, प्रश्न
तुम्हारे
भीतर की
अंतर्व्यथा
हैं। जीवन में
उलझाव है, तुम
समाधान चाहते
हो, उत्तर
नहीं।
कुतूहली
उत्तर चाहता
है; जिज्ञासु
समाधान चाहता
है। इसलिए
कुतूहली
पांडित्य तक
पहुंच जाएगा
कभी, जिज्ञासु
समाधि तक
जाएगा।
लेकिन
जिसके भीतर
कृष्ण—चैतन्य
का आविर्भाव
हुआ है, वह देख लेगा,
कहां
कुतूहल है, कहां
जिज्ञासा है।
उसे पहचानने
में जरा भी
भूल नहीं होती।
ऐसे ही जैसे
तुम मुरदे को
पहचान लेते हो
और जिंदा आदमी
को पहचान लेते
हो। भला तुम
बहुत बड़े
चिकित्साशास्त्र
के ज्ञाता न
होओ, क्या
तुम्हें अड़चन
लगती है जानने
में कि यह आदमी
मुरदा है और
यह आदमी जिंदा
है? लाश को
पहचानने में
किसे देर लगती
है!
जिज्ञासा
तो जीवंत है।
कुतूहल मुरदा
है, लाश
है। और लाश के
साथ सिर मत
फोडना।
दूसरा
प्रश्न :
भगवद्गीता पर
आपके अमृत
वचनों को
सुनने के लिए
क्या हमने
पिछले जन्मों
में पुण्य
अर्जित किया
था?
उत्तर तो बाद
में, पहले
प्रश्न को
समझने की
कोशिश करनी
चाहिए।
अहंकार
बड़े सूक्ष्म
रूप लेता है।
मुझे सुन भी
रहे हो, तो वह भी
तुमने पिछले
जन्म में
अर्जित किया
होगा पुण्य!
तुम्हारे भाव
में प्रसाद—रूप
से कभी कुछ
घटित ही नहीं
होता!
तुम्हारे कर्तापन
की अकड़ बड़ी
गहरी है।
इस
जन्म में तो
दिखाई नहीं
पड़ता कि तुमने
कुछ अर्जित
किया हो, तो निश्चित
तुमने पिछले
जन्म में
पुण्य किए
होंगे। तभी
तुम सुन रहे
हो! तुम मुझे
धन्यवाद भी
तो नहीं दे
सकते।
तुम्हारा
ही अर्जन है! तुमने
कमाया! अगर
रहा हूं तो
तुम्हारी ही
कमाई की वजह
से बोल रहा
हूं! तुम्हें
प्रसाद कहीं
भी दिखाई नहीं
पड़ता?
तुम
अगर परमात्मा
के पास भी
पहुंच जाओगे, तो तुम
यही कहोगे कि
जन्मों—जन्मों
के पुण्य
कर्मों से
तुझे कमाया
है! वहीं तुम
चूक जाओगे। यह
अकड़ तुम्हें
कहीं का न
रखेगी। तुम
पहुंच ही न
पाओगे, क्योंकि
यह अकड़ ही तो
रोक लेगी।
जिसने
पुण्य किया है, वह तो
विनम्र होता
है। वह तो यह
कहता है कि
मेरा क्या
पुण्य है? मैंने
कुछ भी तो
किया नहीं; और इतना पा
लिया है।
निश्चित ही, परमात्मा की
अनुकंपा होगी,
अनुग्रह
होगा। मुझ
अपात्र पर
इतनी वर्षा
हुई है! मैं
धन्यभागी हूं!
लेकिन जिसने
पुण्य किया है,
उसकी तो यह
भाव—दशा होगी
कि मैं
धन्यभागी हूं, क्योंकि
मुझ अपात्र पर
वर्षा हो गई
है। मैंने कुछ
भी तो नहीं
किया।
और
जिसने पुण्य
नहीं किया है, उसका यह
अहंकार होगा
कि जो कुछ हुआ
है, मेरे
ही पुण्यों का
अर्जन है।
मैंने कमाया
था, मैंने
पाया है।
शायद
दूसरे तरह के
आदमी को यह भी
लगे कि जितना मिलना
था, उतना
भी नहीं मिला।
कमाया तो बहुत
था, उसके योग्य
पाया भी नहीं
है अभी।
क्योंकि
अहंकार को सदा
ऐसा लगता है
कि मेरा श्रम
ज्यादा है, पुरस्कार कम
है। निरहंकारिता
को सदा ऐसा
लगता है कि
मेरा श्रम तो
कुछ भी नहीं
है, पुरस्कार
बहुत है। ना—कुछ
किए मिल रहा
है, अनायास
मिल रहा है!
तो
पहले तो अपने
प्रश्नों को
बहुत गौर से
सोचा करें।
तुम्हारे
प्रश्न ऐसे ही
आकाश से नहीं
आते, तुमसे
आते हैं।
तुम्हारे
प्रश्न ऐसे ही
शून्य से
अवतरित नहीं
हो जाते, तुम्हारे
चित्त की गंध
को साथ लाते
हैं। सुगंध हो,
तो सुगंध को
लाते हैं; दुर्गंध
हो, तो
दुर्गंध को
लाते हैं।
तुम्हारे
प्रश्नों में
तुम्हारी
पूरी आत्मा
धड़कती है, तुम्हारी
पूरी भाव—दशा
धड़कती है।
क्या
तुम कभी भी
प्रसाद को न
समझ पाओगे? और यह
पूरी गीता
प्रसाद की
चर्चा है! और
गीता पूरी
होने आ गई और
तुम पूछ रहे
हो, क्या
मेरे पुण्य
कर्मों के
कारण ही आपके
अमृत वचन
सुनने का अवसर
मिला?
तुम
कर्ता को
क्यों नहीं
छोड़ सकते? तुम यह
कर्तापन को
क्यों पकडे
हुए हो?
इसी कर्तापन
के पीछे तुम्हारा
अहंकार छिपा
है।
समझो! जानों!
तुम्हारे
किए से क्या
मिलेगा?
तुम्हारे
हाथ कितने
छोटे है। तुम
इन छोटे—छोटे
हाथों से
परमात्मा
बांधने चले हो,
आलिंगन
करने चले हो।
कर पाओगे? तुम्हारी
बुद्धि कितनी
छोटी है! उस
बुद्धि के छोटे—से
छिद्र में तुम
परमात्मा के
विराट आकाश को
भरने चले हो।
भर पाओगे?
तुम्हारे
कृत्य का
मूल्य क्या है? तुमने
पुण्य भी किए
होंगे, तो
क्या किए
होंगे? किसी
भिखारी को कुछ
पैसे दे दिए
होंगे। और
पहले उसे? बनाया
होगा शोषण
करके, तब
पैसे दिए
होंगे। पैसे
कहां से आए थे
तुम्हारे पास
देने को? पहले
शोषण, फिर
दान! पहले पाप,
फिर पुण्य!
पहले हाथ रंग
लो खून से, फिर
धो लेना!
तुम्हारे
सभी पुण्य
तुम्हारे पाप
का प्रायश्चित्त
हो सकते हैं, इससे
ज्यादा उनका
कोई मूल्य
नहीं है। उनसे
तुम कुछ पाते
नहीं हो। उनसे
तुम कुछ बहुत
अहोभाव से मत
भर जाना, कि
तुमने एक
अस्पताल खोल
दिया, कि
एक धर्मशाला
बना दी।
तुम्हारे
कारण कितने
लोग बीमार हुए
हैं, इसका
तुमने हिसाब
रखा है? और
तुम्हारे
कारण कितने
लोग बेघरबार
हुए हैं, इसका
तुमने हिसाब
रखा है? एक
धर्मशाला बना
दी, उसका
तुमने हिसाब
रखा है!
तुमने
कितने
प्राणों को
चोट पहुंचाई
है, रुग्ण
किया है, कितने
प्राणों में
घाव बनाए हैं,
उसका तुमने
हिसाब रखा है?
नहीं, तुमने
एक छोटा—सा
दवाखाना खोल
दिया, जहां
होमियोपैथी
की दो पैसे की
दवाएं तुम बांटते
रहते हो। वह
तुमने पुण्य
किया है!
तुम्हारे
पुण्य क्या
हैं?
पुण्यवान
व्यक्ति को
ऐसा लगता है
कि पुण्य कर ही
कैसे सकता हूं? मेरा
करना ही क्या
है? यह
पापी की
दृष्टि है कि
वह कहता है, मैंने पुण्य
किए हैं। यह
पाप का ही भाव
है कि मैंने
किया है।
अहंकार
पाप है। और
पुण्य का
अहंकार तो बहुत
गहन पाप है।
पुण्यात्मा
को तो पता ही
इतना चलता है
कि मैंने
भूलें ही
भूलें की हैं।
थोड़ा—बहुत
सुधारने की
कोशिश की, लेकिन
क्या हल होता
है! भूलें
अनंत हैं, सुधार
न के बराबर है।
इसलिए
पुण्यवान तो
कहेगा, परमात्मा जब
मिलेगा, वह
उसके प्रसाद—रूप
मिलता है, मेरे
प्रयास—रूप
नहीं। वह उसकी
कृपा से
मिलेगा, मेरे
कर्मों से
नहीं। मैं कर
भी क्या
सकूंगा?
और जिस
दिन तुम्हें
यह प्रसाद की
भावना का उदय
होगा, उस
दिन तुम पाओगे,
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
होने लगी।
नहीं तो तुम
अपने अहंकार
को बचाए ही
चले जाओगे नए—नए
रूपों में।
अब यह
तुमने खूब नई
तरकीब खोजी!
मुझे सुन रहे
हो, उसमें
भी तुम अपने
कर्ता को ले
आए! सुनने
जैसी सरल
क्रिया में भी
तुम्हारा
तिरछा कर्ता आ
गया।
तुम्हें
कुछ भी नहीं
करना पड़ रहा
है; तुम
सिर्फ सुन रहे
हो। वह भी
पूरी तरह सुन
रहे हो, यह
संदिग्ध है।
सुनने में भी
तुम अपना
प्राण लगाए हो,
यह भी
निश्चित नहीं
है। इधर सुने,
उधर भूल
जाते हो। मगर
निश्चित, तुम्हारा
अहंकार कहता
है कि अगर यह
सुनने का अवसर
मिला है, तो
जरूर पिछले
जन्म में कोई
पुण्य कर्म
किए होंगे।
अन्यथा यह
मिलता ही
कैसे!
प्रसाद—रूप
कुछ मिलता ही
नहीं? तो
फिर तुम गीता को
कभी भी न समझ
पाओगे। फिर
गीता से
तुम्हारा कोई
ताल ही न
बैठेगा।
तुम्हारे सुर
अलग ही बज रहे
हैं।
गीता
की पूरी
भूमिका इतनी
है कि आदमी के
किए कुछ होता
है! सब उसके
किए होता है।
और जिस दिन
तुम यह पहचान
लेते हो, उसी दिन
पुण्य का
आविर्भाव
होता है; उसके
पहले पाप ही
पाप है। अगर
सार में समझो,
तो अहंकार
पाप है, निरहंकारिता
पुण्य है।
इसलिए पुण्य
को यह तो भाव
हो ही नहीं
सकता कि मैंने
किया है, यह
भाव पाप को ही
हो सकता है।
करने की बात
ही जरा
दुर्गंधयुक्त
है।
एक मां
है। उससे पूछो
कि तूने अपने
बेटे के लिए
कितना किया है? वह कहेगी,
कुछ भी नहीं
किया। जो—जो
करना था, कुछ
भी नहीं कर
पायी। वह रोने
लगेगी; कि
जो कपड़े देने
थे बेटे को, नहीं दे
पायी। गरीबी
है। जो दवा
देनी थी, वह
नहीं दे पायी।
पैसे नहीं हैं।
जो शिक्षा
देनी थी, वह
नहीं दे पायी।
एक मां
से पूछो कि
तूने क्या—क्या
किया है, तो वह गिना
ही न सकेगी कि
उसने क्या
किया है। और
उसने बहुत
किया है! एक
मां के करने
का कोई अंत
नहीं है।
लेकिन वह गिना
न सकेगी। अगर
तुम उससे
फेहरिस्त
बनाने को कहो,
तो कागज
खाली रहेगा, सिर्फ उसके
आंसुओ की
बूंदें उस पर
टपक जाएंगी।
वह कहेगी, और
कुछ भी नहीं
किया, बस!
जो होना था, वह तो हो ही
नहीं पाया।
लेकिन
किसी संस्था
के सेक्रेटरी
को पूछो, या किसी देश
के
प्रधानमंत्री
को पूछो!
फेहरिस्त
लंबी होती
जाएगी कि क्या—क्या
किया है। जो
नहीं किया है,
वह भी उसमें
जुड़ा है। जो
कभी सोचा भी
नहीं करने का,
वह भी लिस्ट
में है। लिस्ट
बड़ी होती चली
जाती है।
संस्था का
सेक्रेटरी, यह कोई
प्रेम का
संबंध नहीं है।
जहां
प्रेम है, वहा लगता
है, कुछ भी
तो नहीं कर
पाए। जो—जो करना
था, सब
अधूरा रह गया।
जहां प्रेम का
संबंध नहीं है,
लाभ—लोभ का
संबंध है, वहा
जो नहीं किया
है, उसका
भी दावा है कि
किया है; जो
नहीं हुआ है, उसकी भी
घोषणा है कि
हो गया है।
पुण्य
की भाव—दशा तो
मां के हृदय
जैसी होगी।
तुम बता ही न
पाओगे, क्या—क्या
तुमने किया है।
तुम जब भी
परमात्मा के
सामने मौजूद
होओगे, तुम
गिर पड़ोगे, तुम रोओगे; तुम कहोगे
कि मेरी कोई
पात्रता न थी!
यह तेरी अनुकंपा
है! अगर तू
मुझे नर्क भी
भेज देता, तो
भी बुरा न था।
उससे गणित
सीधा बैठ जाता।
उसके मैं
योग्य था। वह
मेरे सारे
कर्तव्य की
सार—संपदा थी,
नर्क ले आया।
लेकिन तू मुझे
अपने पास बुला
लिया है। यह
तो मेरे कृत्य
से इसका कोई
संबंध नहीं
जुड़ता। ही, इससे तेरी
करुणा का
संबंध होगा; मेरे कृत्य
का कोई संबंध
नहीं है।
अपने
प्रश्नों को
थोडा गौर से
देखा करें। वे
तुम्हारे
भीतर की अचेतन
खबरें लाते
हैं।
तीसरा
प्रश्न :
भगवान कृष्ण
ने सब समय के
लिए गीता
सुनने—सुनाने
के लिए कुछ
नियम बताए।
लेकिन छापे के
आविष्कार के
बाद उसकी
लाखों प्रतियां
बिक रही हैं।
फिर उसकी
गोपनीयता
कहां बची?
गोपनीयता कुछ
ऐसी है कि
नष्ट की ही
नहीं जा सकती।
गोपनीयता न तो
बोलने से नष्ट
हो सकती है, न लिखने
से नष्ट हो
सकती है।
गोपनीयता, जो
कहा है, उसके
स्वभाव में है।
गीता
बिक रही है, इससे
गीता और भी
गोपनीय हो गयी
है। यह सुनकर
तुम थोडे
हैरान होओगे।
इजिप्त
में एक पुरानी
कहावत है कि
जिस चीज को आदमी
से छिपाना हो, वह उसकी आंख
के सामने रख
दो, फिर वह
उसे न देख
पाएगा।
तुम्हें
याद है, तुमने कितने
दिनों से अपनी
पत्नी का
चेहरा नहीं
देखा? खयाल
है तुम्हें कि
तुमने कब से
अपनी मां की आंख
में आंख डालकर
नहीं देखा?
पत्नी
इतनी मौजूद है, मां इतनी
पास है, देखना
क्या! तुम भूल
ही गए हो कि
उसका होना भी
होता है।
पत्नी मर जाती
है, तब पता चलता
है कि थी। पति
जा चुका होता
है, तब याद
आती है कि अरे,
यह आदमी
इतने दिन साथ
रहा, परिचय
भी न हो पाया!
इसीलिए
तो लोग किसी
के मर जाने पर
इतना रोते हैं।
वे रोते उसके
मर जाने के
कारण नहीं हैं; वे रोते
इसलिए हैं कि
जिसके साथ
इतने दिन थे, उसे देख भी न
पाए भर आंख, जिसके पास
इतने दिन थे, उसके हृदय
की धड़कन भी न
सुन पाए; उससे
कोई पहचान ही
न हो पायी, वह
अजनबी ही रहा,
अजनबी ही
विदा हो गया!
और अब कोई
उपाय नहीं है।
इस विराट
संसार में
कहीं मिलना
होगा दुबारा उससे,
अब कोई उपाय
नहीं है। यह
अब घटना कभी
घटेगी, कहा
नहीं जा सकता।
घटी थी और चूक
गए। इसलिए लोग
रोते हैं।
जब
तुम्हारा
प्रियजन चल
बसता है, तो तुम रोते
इसलिए हो कि
अवसर मिला था
और चूक गया, हम उसे
प्रेम भी न कर
पाए। वे
इजिप्शियन
फकीर ठीक कहते
हैं कि जिस
चीज को छिपाना
हो, उसे
लोगों की आंख
के सामने रख
दो। जो चीज
जितनी निकट
होगी, उतनी
ही ज्यादा भूल
जाती है। और
जो चीज जितनी
ज्यादा साफ
होगी, उतनी
ही उलझ जाती
है।
गीता
इतनी गूढ कभी
भी न थी, जब छपी न थी, जब से छप गयी,
बहुत गूढ़ हो
गयी। घर के
सामने रखी है,
किताब खुली
है, बैठे
हो, पढ रहे
हो; हजार
दफे पढ़ लिए।
और तुम्हें यह
भ्रम पैदा हो
गया है हजार
दफे पढ़ लेने
से कि जान
लिया, अब
जानने को बचा
क्या?
यही
उसकी
गोपनीयता है, बिना
जाने तुम सोच
रहे हो कि
तुमने जान
लिया। शब्द के
परिचय को तुम
अर्थ का परिचय
समझ रहे हो!
शरीर की पहचान
को तुम आत्मा
की पहचान समझ
रहे हो!
शब्द
अर्थ नहीं है।
शब्द तो केवल
अर्थ को खोलने
की कुंजी है।
गीता, बाइबिल
या कुरान जिस
दिन से छप गई
हैं, उस
दिन से बहुत
गोपनीय हो गई
हैं सब चीजें।
जब ये छपी हुई
न थीं, जब
ऐसी सरलता से
उपलब्ध न थीं,
तो लोग
हजारों मील की
यात्रा करते
थे। अब कहीं
जाने की जरूरत
नहीं है। गीता
प्रेस
गोरखपुर की
गीता चार पैसे
में बाजार—बाजार
में उपलब्ध है।
ज्ञान बाजार
में बिक रहा
है, खरीद
लाओ! जितनी
गठरी भरनी हो,
भर लाओ!
जब
शास्त्र छपे न
थे, तब
तुम्हें गुरु
खोजना पड़ता
था, क्योंकि
शास्त्र को
तुम सीधा समझ
ही न सकोगे।
तुम्हें कोई
व्यक्ति
खोजना पड़ता
था, जो
शास्त्र का
धनी हो; जो
शास्त्र को
तुम्हारे लिए
गम्य बनाए; जो शास्त्र
की गोपनीयता
को उघाड़े; जो
परदे उठाए, जो घूंघट
हटाए।
तुम्हें
कोई व्यक्ति
खोजना पड़ता था।
तुम बुद्ध को, महावीर
को, कृष्ण
को खोजते
फिरते थे।
हजारों मील की
यात्रा लोग
करते थे। कोई
ऐसा व्यक्ति
मिल जाए, जो
उस गुप्त को
प्रकट कर दे।
उस
यात्रा में ही
तुम्हारे
जीवन में क्रांति
घटती थी, क्योंकि वह
यात्रा ही
तपश्चर्या थी।
उस यात्रा में
टिके रहना ही
तुम्हारी
भक्ति थी, तुम्हारी
श्रद्धा थी।
वह यात्रा
कठिन थी। जीवन
लग जाता था।
मुश्किल से
कुंजियां हाथ
आती थीं।
जितनी
मुश्किल थी, उतनी ही तुम
खोज में जाते
थे।
अब खोज
की जरूरत क्या
है? अब
गीता समझने
तुम हिमालय
जाओगे? अब
गीता समझने के
लिए तुम किसको
खोजोगे? किसी
व्यास को
खोजोगे? किसी
कणाद को, किसी
कपिल को, किसी
बुद्ध को? किसी
पतंजलि के
चरणों में
बैठोगे? क्या
जरूरत है! चार
पैसे में
मिलती है गीता,
इसके लिए
इतने परेशान
होने की जरूरत
क्या! खरीद
लाओ!
लेकिन
जो किताब तुम
घर ले आओगे, उस किताब का
कृष्ण से कोई
भी संबंध नहीं
है। क्योंकि
उस किताब में
से तुम जो
अर्थ निकालोगे,
वे
तुम्हारे
होंगे। तुम
अपने से
ज्यादा अर्थ
थोड़े ही निकाल
पाओगे। तुम
अपने को ही पढ़
लोगे किताब
में, तुम
कृष्ण को थोड़े
ही पढ़ सकोगे।
तुम्हारी जहां
तक पहुंच है, वहीं तक तो
तुम उन शब्दों
में भी पहुंच
पाओगे। तुमने
अब तक जो सोचा—समझा
है, वहीं
तक तुम सोच—समझ
पाओगे। तुमसे
पार किताब
तुम्हें कैसे
ले जाएगी?
नहीं, किताब
जिस दिन से छप
गयी है, उस
दिन से
गोपनीयता गहन
हो गयी है, बहुत
गहरी हो गयी
है। अब तो
मुश्किल से
कभी कोई उसका
घूंघट उठाने की
यात्रा पर
जाता है। और
मुश्किल से
कभी तुम्हें
वह आदमी मिल
सकेगा जो
घूंघट उठाने
में समर्थ है।
हां, तुम्हें
गीता के पंडित
अब बहुत मिल
जाएंगे; कृष्ण
न मिल सकेंगे।
गीता की
किताबों ने
गीता के पंडित
खड़े कर दिए हैं।
उनसे जाकर तुम
सब समझ लोगे
जो ऊपर—ऊपर का
है। वे शब्द
की खाल
निचोड़कर रख
देंगे, बाल
की खाल निकाल
देंगे।
लेकिन
जब तुम आओगे, तो जैसे
खाली हाथ गए
थे, वैसे
ही खाली हाथ
वापस लौट आओगे।
तुम्हारे
प्राण भरे हुए
न होंगे।
तुम्हारे
भीतर का दीया
वैसा ही बुझा
होगा। और खतरा
यह है कि हो
सकता है, तुम
यह सोचकर लौट
आओ कि समझकर आ
गए—गोपनीयता
और महा
गोपनीयता हो
गयी!
नहीं; छापेखाने
से गोपनीयता
मिटी नहीं, बढ़ गयी है।
और अब तो बहुत
गहरी खोज हो, तो ही तुम
खोज पाओगे।
यात्रा
करते थे लोग
हजारों मील की।
बौद्धों
का बड़ा
विश्वविद्यालय
था, नालंदा।
दस हजार
विद्यार्थी
थे। चीन और
लंका और कंबोदिया
और जापान और
दूर—दूर से
लोग, मध्य
एशिया और
इजिप्त, सब
तरफ से
विद्यार्थी
आते थे। पैदल
यात्रा थी। जो
चल पड़ा, वह
लौटकर भी आएगा
घर वापस, इसका
पक्का न था।
लोग रो लेते
थे; मान
लेते थे कि यह
आदमी मरा।
जो भी
तीर्थयात्रा
को जाता, लोग रो लेते
और गांव के
बाहर जाकर विदा
कर आते कि गया
यह आदमी, अब
क्या लौटेगा!
घने जंगल थे, पहाड़—पर्वत
थे, भयंकर
खाइयां थीं, डाकू थे, जंगली
जानवर थे। और
फिर जो गया है
ऐसी खोज में, वह कहीं
लौटता है! यह
खोज ऐसी है।
नालंदा
जैसी जगह में, जहां
ज्ञानियों का
वास था, वहा
वर्षों लग
जाते। जवान
आते लोग और
बूढ़े हो जाते।
और जब तक गुरु
कह न दे कि हां,
पूरी हो गयी
बात.......।
तीन
विद्यार्थी
आखिरी
परीक्षा पार
कर लिए थे, लेकिन
गुरु जाने के
लिए नहीं कह
रहा था। आखिर
एक दिन एक ने
पूछा कि हम
सुनते हैं कि
आखिरी
परीक्षा भी
हमारी हो गयी,
लेकिन लगता
है हुई नहीं, क्योंकि
हमसे जाने के
लिए नहीं कहा
जा रहा है! बीस वर्ष
हो गए हमें आए
हुए। घर के
लोग जीवित हैं
या नहीं, जिनको
पीछे छोड़ आए
हैं, वे
बचे भी या
नहीं; मां—बाप
बूढ़े हैं! अब
हम जाएं अगर
हमारी
परीक्षा पूरी
हो गयी हो?
तो
गुरु ने कहा, आज सांझ
तुम जा सकते
हो।
लेकिन
आखिरी
परीक्षा शेष
रह गयी थी। पर
आखिरी
परीक्षा ऐसी
थी कि वह ली
नहीं जा सकती
थी, वह
तो एक तरह की
कसौटी थी, जिसमें
से गुजरना
पड़ता।
सांझ
को तीनों
विद्यार्थी
विदा हुए। दूर
नगर है, जहां रात
जाकर टिकेंगे।
सांझ होने लगी,
सूरज ढल गया।
एक झाड़ी के
पास आए। गुरु
झाड़ी में छिपा
बैठा है। उसने
झाड़ी के बाहर
कांटे बिछा
दिए हैं; छोटी—सी
पगडंडी है, कांटे बिछा
दिए हैं। एक
विद्यार्थी
पगडंडी से
नीचे उतरकर, कीटों को
पार करके आगे
बढ़ गया। दूसरे
विद्यार्थी
ने छलांग लगा
ली। तीसरा रुक
गया और कीटों
को बीनकर झाड़ी
में डालने लगा।
उन दो
ने कहा, यह क्या कर
रहे हो? जल्दी
ही रात हो
जाएगी। दूर
हमें जाना है,
जंगल है, बीहड़ है, खतरा
है। ये कांटे—वांटे
बीनने में मत
लगो।
पर उस
तीसरे
विद्यार्थी
ने कहा कि
सूरज डूब गया
है, रात
होने के करीब
है। हमारे बाद
जो भी आएगा, उसे दिखायी
नहीं पड़ेगा।
हम आखिरी हैं
इस पगडंडी पर
आज की रात, जिनको
कि दिखायी पड़
रहा है। बस, अब ढला सूरज,
ढला। रात
उतर रही है।
इन्हीं बीनना
ही पड़ेगा। तुम
चलो, मैं
थोड़े पीछे हो
लूंगा।
और तभी
वे चौंके कि
झाड़ी से गुरु
बाहर आ गया और उसने
कहा, दो
जो चले गए हैं,
वापस लौट
आएं, वे
परीक्षा में
असफल हो गए।
अभी उन्हें
कुछ वर्ष और
रुकना पडेगा।
और तीसरा जो
रुक गया है
कांटे बीनने,
वह
उत्तीर्ण हो
गया; वह जा
सकता है।
क्योंकि
अंतिम
परीक्षा शब्द
की नहीं है, अंतिम
परीक्षा तो
प्रेम की है।
अंतिम
परीक्षा
पांडित्य की
नहीं है, अंतिम
परीक्षा तो
करुणा की है।
गुरु
के चरणों में
बैठकर लोग
सीखते थे, वर्षों
लग जाते थे।
अजीब—अजीब
परीक्षाएं
थीं। लेकिन
खोजी खोज ही
लेते थे उन
चरणों को, जहां
घूंघट उठ जाते
हैं।
देर
लगती थी, कठिनाई होती
थी। लेकिन
कठिनाई की भी
अपनी खूबी है।
कठिनाई भी
निखारती है, भीतर की राख
को अलग करके
झाडू देती है,
कूड़ा—करकट
को जला देती
है।
अब कुछ
कठिन नहीं है।
गीता चार पैसे
में खरीद लो, खुद पढ़ लो।
सब सरल अर्थ
लिख दिए गए
हैं। तुम यह
मत सोचना कि
गीता की
गोपनीयता
नष्ट हो गयी; गोपनीयता
बहुत बढ़ गयी
है। गीता आंख
के सामने रख
दी गयी है, अब
तुम्हें गीता
दिखायी ही
नहीं पड़ रही
है।
अब तो
बहुत थोड़े—से
लोग, जिनको
समझ है इस बात
की कि तुम
पढ़ोगे, तो
तुम अपने को
ही पढ़ोगे
शास्त्र में,
शास्त्र को
कैसे पढ़ोगे? तुम्हें जो
पता ही नहीं
है, वह तुम
शास्त्र में
कैसे निकाल
लोगे? जो
तुम्हें
ज्ञात है, उसी
की
प्रतिध्वनि
तुम्हें शब्द
में भी सुनाई
पड़ेगी। जिन्हें
यह बोध है, वे
केवल गुरु की
तलाश में
जाएंगे।
शास्त्र
की कुंजियां
भी शास्ताओं
के हाथ में हैं।
शास्त्र अपने
आप में समर्थ
नहीं हैं। वह
भी किसी
शास्ता के हाथ
में पड़कर
जीवंत होता है।
तुम
शास्त्र को
लिए घूमते रहो, इससे कुछ
भी न होगा। जब।
तक कि किसी
शास्ता को न
खोज लो, जो
तुम्हारे
शास्त्र को
पुनरुज्जीवित
कर दे, जो
अपने प्राण
डाल दे उसमें,
जो अपना
अर्थ उसमें
डाल दे और
तुम्हारे
सामने आविर्भूत
हो जाए वह
चैतन्य, जिससे
पहली दफा
शास्त्र उतरा
होगा। अन्यथा
गोपनीय
गोपनीय रहेगा।
गोपनीय इतनी
आसानी से
खुलता नहीं।
सत्य
का स्वभाव
उसकी
गोपनीयता है।
तुम उसे बाजार
में बेच ही
नहीं सकते।
मैंने
सुना है कि एक
रात ऐसा हुआ, एक पति घर
वापस लौटा थका—मादा
यात्रा से।
प्यासा था, थका था। आकर
बिस्तर पर बैठ
गया। उसने
अपनी पत्नी से
कहा कि पानी
ले आ, मुझे
बड़ी प्यास लगी
है।
पत्नी
पानी लेकर आयी, लेकिन वह
इतना थका—मादा
था कि लेट गया,
उसकी नींद
लग गयी। तो
पत्नी रातभर
पानी का गिलास
लिए खड़ी रही
बिस्तर के पास।
क्योंकि उठाए,
तो ठीक नहीं,
नींद
टूटेगी। खुद
सो जाए, तो
ठीक नहीं, पता
नहीं कब नींद
टूटे और पानी
की मांग उठे, क्योंकि पति
प्यासा सो गया
है। तो रातभर
गिलास लिए खड़ी
रही।
सुबह
पति की आंख
खुली, तो
उसने कहा, पागल,
तू सो गयी
होती! उसने
कहा, यह
संभव न था।
तुम्हें
प्यास थी, तुम
कभी भी उठ आते!
तो तू उठा
लेती, पति
ने कहा। उसने
कहा, वह भी
मुझसे न हो
सका, क्योंकि
तुम थके भी थे
और तुम्हें
नींद भी आ गयी
थी। तो यही
उचित था कि
तुम सोए रहो, मैं गिलास
लिए खड़ी रहूं।
जब नींद
खुलेगी, पानी
पी लोगे। नहीं
नींद खुलेगी,
तो कोई
हर्जा नहीं, एक रात
जागने से कुछ
बिगड़ा तो नहीं
जाता है।
यह बात
पूरे गांव में
फैल गयी।
सम्राट ने गांव
के उस पत्नी
को बुलाकर
बहुत हीरे—जवाहरातों
से स्वागत
किया। उसने
कहा कि ऐसी
प्रेम की धारा
मेरी इस राजधानी
में थोड़ी भी
बहती है, तो हम अभी मर
नहीं गए हैं; अभी हमारी
संस्कृति का
प्राण जीवित
है, स्पंदित
है।
पड़ोस
की महिला इससे
बड़ी ईर्ष्या
से भर गयी कि यह
भी कोई खास
बात थी! एक रात
गिलास हाथ में
लिए खड़े रहे, इसके लिए
लाखों रुपए के
हीरे—जवाहरात
दे दिए हैं! यह
भी कोई बात है?
उसने
अपने पति से
कहा कि देखो
जी, आज
तुम थके—मांदे
होकर लौटना।
आते से ही
बिस्तर पर बैठ
जाना। पानी
मांगना। मैं
पानी लेकर आ
जाऊंगी।
लेकिन तुम आंख
बंद करके सो
जाना और मैं
खड़ी रहूंगी
रातभर। और
सुबह जब
तुम्हारी आंख
खुले, तो
तुम इस—इस तरह
के वचन मुझसे
बोलना, कि
तू क्यों
रातभर खड़ी रही?
तू उठा लेती।
मैं कहूंगी, कैसे उठा
सकती थी? तुम
थके —मांदे थे।
कि तू सो जाती!
तो मैं कहूंगी,
कैसे सो
जाती? तुम्हें
प्यास लगी थीं।
और इतने जोर
से यह बात
चाहिए कि पड़ोस
में लोगों को
पता चल जाए, सुनाई पड़
जाए। क्योंकि
यह तो हद हो
गयी! जरा
रातभर... और
किसको पक्का
पता है कि खड़ी
भी रही कि
नहीं, क्योंकि
रात सो ली हो, झपकी ले ली
हो और फिर
सुबह उठ आयी
हो, और बात
फैला दी हो!
मगर हमें भी
यह सम्राट से
पुरस्कार
लेना है।
पति
सांझ थका—मादा
वापस लौटा।
लौटना पड़ा, जब पत्नी
कहे, थके—मांदे
लौटो, लौटना
पड़ा। आते ही
बिस्तर पर
बैठा। कहा, प्यास लगी
है। पत्नी
पानी लेकर आयी।
पति आंख बंद
करके लेट गया।
कोई नींद तो
आई नहीं, लेकिन
मजबूरी है। जब
पत्नी कहती है,
तो मानना
पड़ेगा। और फिर
लाखों—करोड़ों
के हीरे—जवाहरात
उसके मन को भी
भा गए।
अब
पत्नी ने सोचा
कि बाकी दृश्य
तो सुबह ही होने
वाला है। अब
कोई रातभर
बेकार खड़े
रहने में भी
क्या सार है? और किसको
पता चलता है
कि खड़े रहे कि
नहीं खड़े रहे?
वह भी सो
गयी गिलास—विलास
रखकर।
सुबह
उठकर उसने जोर
से बातचीत
शुरू की कि
पड़ोस जान ले।
सम्राट के
द्वार से उसके
लिए भी बुलावा
आया, तो
बहुत प्रसन्न
हुई। लेकिन जब
दरबार में
पहुंची, तो
बड़ी हैरान हुई;
सम्राट ने
वहा कोड़े लिए
हुए आदमी
तैयार रखे थे,
और उस पर
कोड़ों की
वर्षा करवा दी।
वह चीखी—चिल्लाई
कि यह क्या
अन्याय है? एक को हीरे—जवाहरात;
मुझे कोड़े?
किया मैंने
भी वही है!
सम्राट
ने कहा, किया वही है,
हुआ नहीं है।
और होने का
मूल्य है, करने
का कोई मूल्य
नहीं है।
और
जीवन में यह
रोज होता है।
अगर हृदय में
स्पंदन न हो
रहा हो, तो तुम कर
सकते हो, लेकिन
उस करने से
क्या अर्थ है?
सारे
मंदिर, मस्जिद, गिरजे,
गुरुद्वारे
कर रहे हैं।
धर्म
क्रियाकांड
है। हो नहीं
रहा है। गीता
पढ़ी जा रही है,
की जा रही
है; हो
नहीं रही है।
तुमने सुन
लिया है कि
गीता को पढ़ने
वाले पाप से
मुक्त हो गए, मोक्ष को
उपलब्ध हो गए।
तुमने सोचा, हम भी हो
जाएं! तुमने
भी पढ़ ली।
लेकिन
तुम्हारा
पढ़ना उस दूसरी
पत्नी जैसा है।
तुम परमात्मा
को धोखा न दे
पाओगे।
साधारण
सम्राट भी
धोखा न खा सका, वह भी समझ
गया कि ऐसी घटनाएं
रोज नहीं घटती।
और पड़ोस में
ही घट गई! और
वही की वही
घटी, बिलकुल
वैसी ही घटी!
यह तो कोई
नाटक हुआ।
जीवन
पुनरुक्त
नहीं होता। हर
भक्त ने
परमात्मा की
प्रार्थना
अपने ढंग से
की है, किसी
और के ढंग से
नहीं। हर
प्रेमी ने
प्रेम अपने
ढंग से किया
है। कोई मजनू
और शीरी और
फरिहाद, उनकी
किताब रखकर और
पन्ने पढ़—पढ़कर
और कंठस्थ कर—करके
प्रेम नहीं
किया है।
कोई
जीवन नाटक
नहीं है कि
उसमें पीछे
प्राम्पटर
खड़ा है, और वह कहे
चले जा रहा है,
अब यह कहो, अब यह कहो।
जीवन जीवन है।
तुम उसे
पुनरुक्त
करके खराब कर
लोगे।
गीता
तुम हजार दफे
पढ़ लो; लेकिन
जैसे अर्जुन
ने पूछा था, वैसी
जिज्ञासा न
होगी, वैसी
प्राणपण से
उठी हुई
मुमुक्षा न
होगी। तो जो
कृष्ण को सरल
हुआ कहना, जो
अर्जुन को
संभव हुआ
समझना, वह
तुम्हें न घट
सकेगा।
दोहराया
जा ही नहीं
सकता जगत में
कुछ।
प्रत्येक
घटना अनूठी है।
इसलिए सभी
रिचुअल, सभी
क्रियाकाड
धोखाधड़ी है, पाखंड है।
तुम भूलकर भी
किसी की
पुनरुक्ति मत
करना, क्योंकि
वहीं धोखा आ
जाता है और
प्रामाणिकता खो
जाती है।
प्रामाणिक
के लिए मुक्ति
है, पाखंड
के लिए मुक्ति
नहीं है। और
तुम कितना ही
लाख सिर पटको
और कहो कि
मैंने भी तो
वैसा ही किया
था, मैंने
भी तो ठीक
अक्षरश: पालन
किया था नियम
का, फिर यह
अन्याय क्यों
हो रहा है? अक्षरश:
पालन का सवाल
ही नहीं है।
हृदय के साथ
उठे स्वर।
चौथा
प्रश्न : क्या
यह सही है कि
ज्ञानी और
गुरु बोले या
लिखे गए
शास्त्रों
में सब ज्ञान
नहीं प्रकट
करते? क्या कुछ
कीमती
कुंजियां
छिपा ली जाती
हैं, जो
पात्र
शिष्यों को
गोपनीयता में
बताई जाती हैं?
नहीं, ज्ञानी कुछ
भी छिपाता
नहीं; लेकिन
सत्य का
स्वभाव छिपा
होना है।
ज्ञानी तो सब
बता देना
चाहता है, लेकिन
चाहकर भी बता
नहीं सकता।
सत्य का
स्वभाव
अभिव्यक्ति
में आता नहीं,
उसकी
अभिव्यंजना
होती नहीं।
बांधो—बांधो,
शब्द तो आ
जाता है बाहर,
अर्थ पीछे
ही छूट जाता
है। इसलिए
लाओत्सु कहता
है, जो कहा
जा सके, वह
धर्म नहीं, सत्य नहीं, ताओ नहीं।
जो न कहा जा
सके, वही
सत्य है।
तो गुरु
तो सब देना
चाहता है।
गुरु और कृपण
होगा देने में, यह बात ही
मानने की नहीं
है। वह तो तुम
पात्र न भी
होओगे, तो
भी उंडेल देना
चाहता है।
लेकिन कुछ ऐसा
है, जो
देकर दिया ही
नहीं जा सकता।
वह तो तुम जब
पात्र हो
जाओगे, तब घटता
है। कोई देता
नहीं, कोई
लेता नहीं, घटता है।
फिर से
तुमसे कहता
हूं कल की बात
कि बगुलों की कतार
निकल जाती है
झील के ऊपर से; न तो
बगुलों की कोई
आकांक्षा है
कि झील में प्रतिबिंब
बने और न झील
का कोई मनोभाव
है कि प्रतिबिंब
बनाए; पर
बगुलों की
कतार गुजरती
है, प्रतिबिंब
बनता है।
वह जो
परम गोपनीय है, प्रकट
होता है, जब
गुरु और शिष्य
का मिलन होता
है; शब्द
का संवाद नहीं,
अंतरतम का
मिलन होता है,
एक गहन
चैतन्य का
आलिंगन होता
है। वह ठीक
वैसी ही
अवस्था है, जैसे कभी
प्रेमी और
प्रेयसी के
संभोग में घटती
है। वह शरीर
का संभोग है।
गुरु और शिष्य
के बीच आत्मा
का संभोग घटित
होता है।
संभोग शब्द ही
उसके लिए सही
है, उससे
कम कोई शब्द
काम नहीं देगा।
पुरुष
और स्त्री के
बीच, दो
प्रेमियों के
बीच तो शरीर
मिलते हैं, शरीर की
ऊर्जा का लेन—देन
होता है। उसी
लेन—देन से नए
शरीर का जन्म
होता है, बच्चे
पैदा होते हैं,
जीवन का
आविर्भाव
होता है। गुरु
और शिष्य के
बीच एक संभोग
घटित होता है।
वह चैतन्य का
है। वहां दो
आत्माएं
मिलती हैं और
एक हो जाती
हैं। और
उन्हीं दो
आत्माओं के
मिलन में
शिष्य का पुनर्जन्म
होता है। एक
नया व्यक्ति
पैदा होता है।
शिष्य जो था कल
तक, एक
क्षण पहले तक,
वह गया, अब
जो आता है, वह
बिलकुल और है।
इन
दोनों के बीच
कोई सातत्य भी
नहीं। इन
दोनों के बीच
कोई सिलसिला
भी नहीं, कोई
श्रृंखला भी
नहीं। पुराना
गया, नए का
आविर्भाव
होता है। यह
नया पुराने का
ही सुधरा हुआ
रूप नहीं है; यह पुराने
में ही की गयी
टीम—टाम, ऊपर
से लीपा—पोती
नहीं है; यह
बिलकुल नया है।
पुराने को
इसका पता ही न
था। एक बीच
में खाई पड़
गयी। पुराना,
नया, बीच
में खाई है, कोई सेतु
नहीं है।
इसको
हमने द्विज
होना कहा है।
जब गुरु की
चेतना से
शिष्य की
चेतना का
संभोग घटित
होता है, तो शिष्य
द्विज हो जाता
है, ट्वाइस
बॉर्न, उसका
दुबारा जन्म
हुआ! तभी हम
उसको
ब्राह्मण कहते
हैं; उसके
पहले उसे
ब्राह्मण मत
कहना।
क्योंकि
द्विज जब तक
कोई नहीं, वह
क्या
ब्राह्मण? वह
नाममात्र को
ब्राह्मण है।
ठीक ब्राह्मण
तो तभी है, जब
फिर से जन्म
हो गया।
एक
जन्म मिलता है
मां—बाप से, वह जन्म
दो शरीरों के
मिलन से होता
है। एक जन्म
मिलता है गुरु
से, वह
जन्म दो
चेतनाओं के मिलन
से होता है।
शरीर
कितने ही पास
आ जाएं, तो भी दूर
बने रहते हैं।
क्षणभर को
शायद बस मिलन
होता है। वह
मिलन भी पूरा
नहीं है। उस
मिलन में भी
फासला रहता है।
कम रहता है, बहुत कम
रहता है, दूरी
न के बराबर
रहती है, लेकिन
न के बराबर
दूरी भी काफी
दूरी है।
असली
मिलन तो
आत्माओं का है, जहां कोई
दूरी नहीं रह
जाती; जहां
कल तक दो थे, अब एक ही
धड़कता है।
तो
गुरु छिपाता
कुछ भी नहीं, लेकिन
कुछ है, जिसे
वह चाहे तो भी
प्रकट नहीं कर
सकता। उस कुछ
का स्वभाव
गोपनीयता है।
वह घटता है
किसी मिलन के
क्षण में।
बुद्ध
एक पहाड़ से
गुजर रहे हैं।
जंगल है और पतझड़
के दिन हैं, और पत्ते
ही पत्ते
रास्तों पर
बिछे हैं।
आनंद ने उनसे
पूछा कि भंते,
भगवान, क्या
आपने सभी कह
दिया है जो आप
कहना चाहते थे
या कुछ छिपा
लिया है?
बुद्ध
ने सूखे पत्ते
अपने हाथ में
उठा लिए
मुट्ठियों
में और कहा, आनंद, देखता
है मेरे हाथ
में कितने
पत्ते हैं? आनंद ने कहा,
देखता हूं।
तो बुद्ध ने
कहा, इतना
मैंने कहा है।
और देखता है, इस वन—प्रांत
में कितने
पत्ते पड़े हैं?
इतना अनकहा
रह गया है।
लेकिन
तू यह मत
सोचना कि
मैंने उसे
बचाया है; वह कहा ही
नहीं जा सकता
है। मेरी सब
चेष्टा के
बावजूद भी
इतना कह पाया
हूं जितने
मेरे हाथ में
पत्ते हैं।
इतना अनकहा रह
गया है।
लेकिन
जिसने मेरे
हाथ के पत्तों
की कुंजियां समझ
लीं, वह
इस अनकहे को
भी खोल लेगा।
जो मैंने कहा
है, वह
कुंजी जैसा
छोटा है, लेकिन
महल खुल
जाएंगे। जो
उसे समझ गया, उसे यह सब
अनकहा भी एक
दिन सुना हुआ
हो जाएगा। जो
मैंने कभी कहा
नहीं, वह
भी सुन लिया
जाएगा।
नहीं, गुरु तो
कुछ छिपाता
नहीं। छिपाना
उसका स्वभाव
नहीं है।
लेकिन सत्य का
स्वभाव छिपा
होना है। सत्य
ऐसा ऊपर सतह
पर आता नहीं; वह गहराई
में होता है।
इसलिए
कहते हैं; कहने की
भरसक चेष्टा
होती है, थोड़ी—बहुत
भनक आती भी है,
बस भनक ही
आती है, असली
पीछे छूट जाता
है। उस असली
को जानने के
लिए तो गुरु
के साथ परम मिलन
की अवस्था!
उसके पूर्व वह
घटित नहीं
होता है।
पांचवां
प्रश्न : गीता
तो शाश्वत है, सर्वजनहिताय
है, फिर भी
कृष्ण ने
व्यक्ति
विशेष और समय
विशेष की सीमा
दे दी, और
आप भी इससे
सहमत, होते
लगते हैं!
क्या सीमा
देने से
असंख्यों के
लिए द्वार बंद
नहीं हो गए?
कोई किसी के
लिए द्वार बंद
नहीं करता है।
द्वार तो खुला
ही हुआ है, लेकिन
तुम अगर
प्रवेश ही न
करना चाहो, तो जबरदस्ती
धक्के देकर
प्रविष्ट भी
नहीं किए जा।
सकते। तुम अगर
द्वार को
देखना ही न
चाहो, तो
तुम्हें कोई
भी नहीं दिखा
सकता। हजार
कृष्ण
तुम्हारे आस—पास
खड़े हो जाएं, तो भी
तुम्हें नहीं
दिखा सकते।
तुमने अगर न
देखने का तय
ही कर रखा हो, तो देखने का
कोई उपाय नहीं
है।
नहीं, कृष्ण
किसी के लिए
द्वार बंद
नहीं कर रहे
हैं। वे तो
इतना ही कह
रहे हैं, जो
न देखना चाहें,
उनको
व्यर्थ कष्ट
मत देना; उनको
स्वतंत्रता
देना। कृष्ण
कह रहे हैं, जो सुनना न
चाहे, उसे
सुनाना मत।
क्या
तुम चाहते हो, उसको
सुनाया जाए, जो सुनना
नहीं चाहता? यह तो पाप
होगा। यह तो
हिंसा होगी।
यह द्वार
खोलना न होगा,
यह तो द्वार
और भी बंद कर
देना होगा।
क्योंकि जो
सुनना नहीं
चाहता था, सुनने
से और भी
नाराज हो
जाएगा। जो
सुनना न चाहता
था, उसके
भीतर
प्रतिरोध
पैदा होगा।
उसके भीतर तुम
ऐसी दशा पैदा
कर दोगे कि वह
कभी अगर सुनना
भी चाहता
भविष्य में, तो अब वह भी न
हो सकेगा।
बहुत
बार जबरदस्ती
लोगों को
अच्छा बनाने
की चेष्टा ही
उन्हें बुरा
बनाने का कारण
होती है।
जबरदस्ती
किसी को साधु
नहीं बनाया जा
सकता।
क्योंकि
साधुता
स्वतंत्रता
से फलित होती
है। जबरदस्ती
से साधुता का
कोई संबंध ही
नहीं है।
तुम
थोड़ा सोचो, क्या
तुम्हें
जबरदस्ती
मोक्ष में ले
जाया जा सकता
है? यह तो
बात ही उलटी
हो जाएगी।
क्योंकि
मोक्ष का अर्थ
ही मुक्ति है।
वहां भी अगर
जबरदस्ती से
ले जाए गए—हाथ
में हथकड़ियां
डालकर और पीछे
बंदूक लगाकर—तो
वह नर्क होगा;
मोक्ष कैसे
होगा! वह तो
तुम्हारी
स्वतंत्रता से
ही फलित होगा।
तुम ही जाओगे
नाचते हुए, अहोभाव से
भरे हुए, तो
ही जा सकते हो।
कोई तुम्हें
धक्के नहीं दे
सकता।
कृष्ण
इतना ही कह
रहे हैं कि जो
न सुनना चाहे, उसे मत सुनाना।
यह भी
करुणावश!
तुम्हें
बड़ा कठिन होगा
यह समझना कि
इसमें कैसी
करुणा हो सकती
है! करुणा तो
यह है कि कोई
सुने या न
सुने, तुम
लाउडस्पीकर
लगाकर उसकी
छाती पर अर
मूतना। ऐसा
लोग करते हैं।
और उनसे अगर
तुम कहोगे कि
भई, तुम यह
लाउडस्पीकर
लगाकर क्यों
गीता का पाठ कर
रहे हो? तो
वे कहते हैं, यह धार्मिक
काम है, इसमें
सबको सुनना ही
चाहिए।
विद्यार्थियों
को परीक्षा
देनी है और वे
धार्मिक काम
कर रहे हैं! वे
रातभर अखंड
गीता का पाठ
कर देते हैं।
वे पाप कर रहे
हैं। असल में
गीता तो
गुफ्तगू है।
वह तो जो
सुनना चाहता
है उसके बीच, और जो
सुनाने की
योग्यता रखता
है उसके बीच, एक निजी
संबंध है।
उसके लिए
बाजार में
लाउडस्पीकर
लगाकर और जो नहीं
सुनना चाहते,
उनको
सुनवाना! धर्म
की जो तुम
वर्षा मुफ्त
करवाते हो, वह अधर्म की
हो जाती है।
तुम्हारी
करुणा है, अगर तुम
उसको
जबरदस्ती न
सुनाओ जो
सुनना नहीं
चाहता। क्यों?
क्योंकि
शायद तब किसी
दिन वह सुनने
को अपने आप
राजी हो जाए।
उसे जीवन से
ही सीखने दो।
इसलिए
अक्सर ऐसा
होता है, अच्छे मां—बाप
के घर अच्छे
बेटे पैदा
नहीं होते।
क्योंकि
अच्छे मां—बाप
अच्छा बनाने
की इतनी
चेष्टा करते
हैं; उसी
में बिगाड़
देते हैं।
गांधी
जैसे अच्छे
बाप को खोजना
मुश्किल है।
लेकिन गांधी
के लड़के सब
तीन तेरह हो
गए। बड़ा लड़का
मुसलमान हो
गया। मुसलमान
होने में कुछ
हर्जा नहीं है।
लेकिन गांधी
का लड़का
मुसलमान हो
क्यों गया? शराब
पीने लगा, जुआरी
हो गया।
हरिदास उसका
नाम था, उसने
अपना नाम
अब्दुल्ला
गांधी रख लिया।
गांधी
का ही हाथ था
इसमें। गांधी
समझ नहीं पाए।
वे जबरदस्ती
सुधारने की
कोशिश में लगे
थे। जबरदस्ती
सुधारने की
कोशिश का यह
फल हुआ। उठो
तीन बजे
ब्रह्ममुहूर्त
में! पूजा, स्नान—
ध्यान! बच्चे
बच्चे हैं।
क्रोध आता है।
नींद के दिन
हैं अभी। अभी
सुबह बड़ी मधुर
लगती है, मधुर
नींद आती है।
उस वक्त वेद—वचन
और उपनिषद और
गीता बड़े
कर्कश मालूम
होते हैं। उस
समय मधुरतम
वाणी भी बड़ी
बेसुरी लगती
है।
जबरदस्ती
उठाए जाओ; जबरदस्ती
श्रम में लगाए
जाओ, जबरदस्ती
पूजा—पाठ—प्रार्थना।
न यह खा सकते
हो, न वह पी
सकते हो।
बच्चे के साथ ऐसा
व्यवहार किया
जाए जो कि का
भी जरा बेचैनी
अनुभव करता है
करने में। न
सिनेमा देख
सकते, न
नाटक जा सकते;
न होटल में
जा सकते हो, न मिठाई खा
सकते हो; न
ज्यादा नमक, न ज्यादा
मिर्च, न
ज्यादा मसाला।
सब तरह से
बच्चों को ऐसा
सताया! न
स्कूल—कालेज
में पढ़ने जा
सकते हो, क्योंकि
यह शिक्षा
अधार्मिक है!
तो गांधी ही बाप,
वही शिक्षक,
वही गुरु!
उन्होंने
चौबीस घंटे
सता दिया इन
बच्चों को। यह
लड़का भाग खड़ा
हुआ।
यह
मुसलमान
क्यों हो गया? और जब
मुसलमान हुआ,
और गांधी को
खबर मिली और
गांधी दुखी
हुए, तो वह
बहुत प्रसन्न
हुआ। तो उसने
कहा, फिर
क्या हुआ
गांधी का वह
अल्लाह ईश्वर
तेरे नाम सब
को सन्मति दे
भगवान? जब
वे सदा यही
कहते हैं कि
अल्लाह और
ईश्वर एक के
ही नाम हैं, तो मेरे
मुसलमान होने
से तकलीफ
क्यों हो रही
है?
वह
जानना चाहता
था कि तकलीफ
होती है या
नहीं! होती है, तो तुम
नाहक झूठी
बातें कर रहे
थे। जुआ खेलने
लगा, शराब
पीने लगा, मांसाहारी
हो गया। गांधी
ने शाकाहारी
बनाने की ऐसी
अथक चेष्टा की
कि मांसाहारी
बना डाला।
इसमें गांधी
जिम्मेवार
हैं।
अतिशय
नियम बगावत पर
ले जाता है, विद्रोह
पर ले जाता है,
प्रतिक्रिया
पैदा करता है।
कृष्ण
कहते हैं—कृष्ण
की समझ बहुत
गहरी है—जो न
सुनना चाहे, उसे मत
सुनाना।
नाराज भी होने
की कोई जरूरत
नहीं है। यह
स्वतंत्रता
है उसकी।
और जो
भक्तिपूर्वक
न सुनना चाहे, उसे भी मत
सुनाना। कोई
सुनना भी चाहे
और
भक्तिपूर्वक
न सुनना चाहे,
उसे भी मत
सुनाना।
क्योंकि यह
बात ही ऐसी है
कि बहुत प्रेम
में ही समझ
में आती है।
उसका समय
क्यों खराब
करना? अपना
समय क्यों
खराब करना?
और अगर
कोई तपपूर्वक
न सुनना चाहे, तो मत
सुनाना।
क्योंकि यह
बात ऐसी है, यह जीवन को
निखारने की है।
अग्नि से
गुजरना होगा।
तपश्चर्या
मार्ग है। जो
इसके लिए राजी
न हो, उसके
लिए ऐसी बातें
सुनाकर उसके
संसार को खराब
मत करना। उसको
संसार में
चलने दो, भोगने
दो। वह अपने
ही भोगने से
किसी दिन
त्याग के तत्व
को समझेगा; तभी उसे
समझाना।
कृष्ण
किसी के लिए
द्वार बंद
नहीं कर रहे
हैं; जो
द्वार से नहीं
जाना चाहते, उन्हें
जबरदस्ती
धक्के मत देना,
इतना ही कह
रहे हैं। और
यह शुद्धतम
करुणा है।
आखिरी
सवाल : अक्सर
हिंदुओं में
वृद्धजनों को उनके
मरणकाल में
गीता सुनाई
जाती है। क्या
यह महज
क्रियाकांड
है अथवा इसमें
कुछ तत्व है?
तत्व तो था, है नहीं
अब। अब तो महज
क्रियाकांड
है। तत्व था, और तत्व फिर
भी हो सकता है।
तत्व तब हो
सकता है, जब
किसी ने
जीवनभर गीता
के साथ अपनी
सुर—धुन बजाई
हो, गीता
के साथ कोई
रमा हो; गीता
के साथ नाचा
हो; गीत
गीता का गंजा
हो प्राणों
में, जीवनभर
कोई गीता की
छाया में जीया
हो; गीता
में
विश्रांति
पायी हो, गीता
में शरण खोजी
हो, गीता
में
ज्योतिर्मय
का दर्शन हुआ
हो, गीता
के शब्द शब्द
ही न रहे हों, गीता के
शब्दों में
छिपे हुए अर्थ
की थोड़ी— थोडी
प्रतीति, थोड़ा—
थोडा स्वाद
आना शुरू हुआ
हो—ऐसा जीवनभर
किसी ने साधा
हो, तो फिर
मृत्यु के
क्षण में गीता
से ही विदा देना
सार्थकता है।
क्योंकि
मृत्यु के
क्षण में
जीवनभर का
सारा निचोड़
संगृहीत होता
है। मृत्यु के
क्षण में
प्राण जीवनभर
के अनुभव को
इकट्ठा करते
हैं, फिर
पंख फैलाते
हैं और नयी
यात्रा पर
जाते हैं।
तो
जीवनभर जो
स्वर बजा हो, उसी स्वर
के साथ
समाप्ति हो, समारोप हो, ताकि अगले
जीवन का आधार
बन जाए गीता।
क्योंकि इस
जीवन में जो
आखिरी भाव—दशा
होगी, वही
अगले जीवन में
पहली भाव—दशा
होगी। इस जीवन
में जो अंत है,
शिखर है, वही अगले
जीवन की
बुनियाद है।
लेकिन
किसी आदमी का
जीवनभर गीता
से कोई संबंध ही
न रहा हो, कृष्ण से
कुछ लेना—देना
न रहा हो, कोई
आत्मीयता ही न
हो; जीवनभर
बाजार में
बीता हो; धन—पद
की चौकड़ी में
ही जीवन गया
हो, राजनीति
की शतरंज में
ही सब गंवा
दिया हो; व्यर्थ
की दौड़—धूप
में, आपा—धापी
में सब गंवा
दिया हो—ऐसे
हारे— थके
आदमी को अब और
गीता का कष्ट
मत देना।
अब इसे
कम से कम शांति
से मर जाने दो।
इसका गीता से
कुछ लेना—देना
नहीं है, इसे गीता
बड़ी बेसुरी
मालूम पड़ेगी,
अनजाना
स्वर मालूम
पड़ेगा। इसके
कान में गीता
से रस पैदा
नहीं होगा, विरसता आएगी।
इस मरते आदमी
को कम से कम शांति
से मर जाने दो।
अच्छा
तो यही होगा
कि जब यह मर
रहा हो, तो इसके पास
रुपए खनकाना। इसके
जीवनभर का सार
वही है। जब यह
मर रहा हो, तो
कहना, घबड़ाओ
मत, मरने
के बाद
तुम्हें नोबल
प्राइज मिलने
वाली है, कि
घबड़ाओ मत, राष्ट्रपति
ने तय कर लिया
है, भारत—
भूषण या भारत—रत्न
मरने के बाद, पोस्टघूमस
तुम्हें
उपाधि मिलने
वाली है; कि
घबड़ाओ मत, इस
जिंदगी में तो
प्रधानमंत्री
न हो सके, लेकिन
अगली जिंदगी
में बिलकुल
निश्चित है।
कुछ ऐसी बातें
कहना, जिससे
इसके प्राण का
तालमेल हो।
जीवनभर जो अशांति
रही, कम से
कम इसको मरते
वक्त झूठी
सांत्वना दे
देना, कम
से कम विदा
होते वक्त
उधेड़बुन में न
जाए। अब और
गीता मत
सुनाना। क्योंकि
गीता से इसका
क्या लेना—देना?
यह
गीता उसे ऐसी
लगेगी कि यह
क्या हो रहा
है? इससे
इसका कोई
संबंध ही नहीं
है। लेकिन
मरता बेचारा
कुछ कर भी
नहीं सकता, वह करीब—करीब
बेहोश हालत
में हुआ जा
रहा है और तुम
गीता रटे जा
रहे हो। अब
तुम जो भी
दुष्टता करना
चाहो, वह
कर सकते हो।
और
कृष्ण ने कहा
है, जो
सुनना न चाहे,
उसे सुनाना
मत। कृष्ण ने
कहा है, जो
भक्ति से न
सुनना चाहे, उसे सुनाना
मत। कृष्ण ने
कहा है, जो
तपपूर्वक न
सुनना चाहे, उसे सुनाना
मत। इस मरते
हुए आदमी में
तुम क्या देख
रहे हो? यह
सुनना चाहता
है? भक्तिपूर्वक
सुनना चाहता
है? तपपूर्वक
सुनना चाहता
है?
जिसने
जीवन में न
सुना, वह
मृत्यु में
कैसे सुत्रना
चाहेगा? मृत्यु
तो सार—निचोड़
है जीवन का।
तुम इसे दुख
मत दो। तुम
इसे चुपचाप मर
जाने दो।
लेकिन
अक्सर ऐसा
होता है कि
जिसने
जिंदगीभर राम
का नाम न लिया, उसके कान
में हम राम
दोहराते हैं।
हम सोचते हैं
कि चलो
जिंदगीभर
नहीं हुआ, मरते
वक्त तो कम से
कम हो जाए।
लेकिन जो इसने
नहीं किया है,
वह किया
नहीं जा सकता।
कोई दूसरा
थोड़े ही इसके
लिए नाम ले
सकता है। जो
इसने अपनी
स्वतंत्रता
से नहीं किया
है, वह
इसकी संपदा
नहीं बन सकता।
तुम
नाम लोगे राम
का। तुम भी
कहा लोगे! घर
के लोगों को
भी कहां फुर्सत
है! उनको
दुकान, बाजार, पच्चीस
चीजें हैं! वे
एक पंडित—पुरोहित
को पकड़ लाएंगे,
किराए का एक
आदमी! वह इसके
कान में राम—राम
जपेगा। उसको
भी कोई मतलब
नहीं है; उसको
भी अपने से
मतलब है, काम
पूरा हो, समय
बीते, पैसा
ले, अपने
घर जाए। मरते
वक्त उसको भी
कोई किराए का
आदमी ही सुनाएगा।
धर्म
कहीं किराए के
आदमियों से हो
सकता है? तुम किसी से
प्रेम करते हो।
क्या तुम
प्रेम करने के
लिए किसी
किराए के आदमी
को भेज सकते
हो? कि
मुझे जरा
फुर्सत नहीं,
काम— धाम
में लगा हूं
तू जरा चला जा
और मेरी
प्रेयसी को
प्रेम कर आ! वह
अकेली है और
तड़फती होगी, उसे मेरी
याद आती होगी,
लेकिन अभी
मैं उलझा हूं।
अगर
तुम प्रेम
किराए के आदमी
से नहीं करवा
सकते, तो
प्रार्थना
तुम कैसे करवा
सकते हो त्र:
तुम परमात्मा
के पास दलाल भेजते
हो? तुम
कहते हो, हम
तो न आ सकेंगे,
जरा उलझे
हैं; मगर
आप नाराज मत
होना, एक
किराए का आदमी
भेज देते हैं!
इससे
तो बेहतर था, तुम किसी
को भी न भेजते।
कम से कम शोभन
था। यह तो
बहुत अशोभन है।
किराए का आदमी
और धर्म में
बीच में लाना?
बिलकुल
अशोभन है। यह
तो अपमानजनक
है। यह तो तुम
परमात्मा का
तिरस्कार कर
रहे हो। इससे
बड़ा और
तिरस्कार
क्या हो सकता
है?
नहीं, भूलकर भी
नहीं। ही, जिस
आदमी के जीवन
में गीता
गुंथी रही हो,
उसे सुना
देना चाहे।
हालांकि उसे
सुनाने की कोई
जरूरत नहीं; उसके भीतर
गज होती ही
रहेगी। गीता
उसके कंठ में
ही होगी।
कृष्ण उसके
प्राण में ही
होंगे, जब
वह विदा होगा।
यही तो उसका
निचोड़ है।
जीवनभर फूलों
से यही तो
उसने इत्र
छांटा है। वह
इसी में डूबा
हुआ जाएगा।
तुम्हारे
सुनाने की
जरूरत नहीं।
लेकिन सुना दो,
तो कोई
हर्जा नहीं।
पर
उसको तो
सुनाना ही मत, जिसका
गीता से कोई
संबंध न रहा
हो। वह तो बड़ी
बेतुकी बात हो
जाएगी। वह तो
ऐसे हो जाएगा
कि जिसने कभी
शास्त्रीय संगीत
में कोई रस न
लिया हो, वह
मर रहा है और
तुम
शास्त्रीय
संगीतज्ञ
उसके पास बिठा
दो। वह कहेगा
कि कम से कम
मुझे शांति से
मर जाने दो।
यह दुखस्वप्न
और क्यों पैदा
कर रहे हो? यह
इनका आलाप
मेरे प्राणों
को कंपाता है!
ये मुझे यमदूत
जैसे मालूम
होते हैं!
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
सुनने गया था
एक शास्त्रीय
संगीतज्ञ को।
जब वह आलाप
भरने लगा, तो
उसकी आंख से आंसू
गिरने लगे। वह
एकदम बहुत
विह्वल होकर
रोने लगा।
पड़ोसी ने कहा
उसे कि क्या
हुआ
नसरुद्दीन? हमने कभी
सोचा भी न था
कि तुम
शास्त्रीय
संगीत के इतने
बड़े प्रेमी हो।
तुम्हारी आंख
से आंसू बह
रहे हैं!
नसरुद्दीन
ने कहा कि मैं
तुम्हें
बताता हूं भाईजान, यही
बीमारी मेरे
बकरे को भी हो
गयी थी। बस, ऐसे ही आsss
आsss.. आऽsss.....
करते —करते
मेरा बकरा भी
मरा था। यह
आदमी मरेगा।
शास्त्रीय
संगीत से मुझे
कुछ लेना—देना
नहीं, मगर
यह आदमी बीमार
है।
तुम
गीता सुना रहे
हो उसको, जिसका
शास्त्रीय
संगीत से कोई
संबंध नहीं!
वह समझेगा कि
क्यों ये बकरे
मर रहे हैं! ये
क्यों आsss... sss. sss.. का
आलाप कर रहे
हैं?
जीवन
में एक संगति
है। जो कदम
तुमने कभी
नहीं उठाया, वह मरते
वक्त न उठा
सकोगे। उसका
कोई उपाय नहीं
है।
अब
सूत्र :
तथा
हे अर्जुन, जो पुरुष
इस धर्ममय हम
दोनों के
संवाद—रूप
गीता को पढ़ेगा
अर्थात नित्य
पाठ करेगा, उसके द्वारा
मैं ज्ञान—यज्ञ
से पूजित
होऊंगा, ऐसा
मेरा मत है।
हे
अर्जुन, जो पुरुष
इस धर्ममय हम
दोनों के
संवाद—रूप
गीता को
पड़ेगा.....।
जिस
संभोग की
मैंने बात कही, वही
कृष्ण कह रहे
हैं, इस।
धर्ममय हम
दोनों के
संवाद—रूप....।
एक तो
विवाद है, जहां जो
भी तुमसे कहा
जाता है, तुम
उसके विपरीत
सोचते हो। एक
संवाद है, जहां
तुमसे जो भी
कहा जाता है, तुम उसके
अनुकूल सोचते
हो, सामंजस्य
का अनुभव करते
हो। तुम्हारा
हृदय उसके साथ—साथ
धड़कता है, विपरीत
नहीं। एक गहन
सहयोग होता है।
तो
कृष्ण कहते
हैं, इस
धर्ममय हम
दोनों के
संवाद—रूप
गीता को जो भी
पड़ेगा...।
एक
संवाद घटित
हुआ है, एक अनूठी
घटना घटी है।
दो
व्यक्तियों
ने एक—दूसरे
को अपने में
उंडेला है, एक—दूसरे
में डूबे हैं।
इस अनूठी घटना
को कृष्ण
धर्ममय कहते
हैं। यही धर्म
की घटना है, जहां दो
चेतनाएं इतने
अपूर्व रूप से
एक—दूसरे में
डूब जाती हैं
कि कोई
अस्मिता और
अहंकार की
घोषणा नहीं रह
जाती कि हम
अलग— अलग हैं; अपनी कोई
सुरक्षा की
आकांक्षा
नहीं रह जाती।
बूंद जैसे
सागर में डूब
जाए, सरिता
जैसे सागर में
कूद जाए!
इस
धर्ममय हम
दोनों के
संवाद—रूप
गीता को जो
पड़ेगा, नित्य पाठ
करेगा…..।
नित्य
पाठ एक अनूठी
बात है, जो पूरब में
ही विकसित हुई।
पश्चिम में
नित्य पाठ जैसी
कोई चीज नहीं
है। पश्चिम
में लोग
किताबें पढ़ते
हैं, पाठ
नहीं करते।
किताब पढ़ने का
अर्थ है, पढ़
ली एक बार, खतम
हो गई बात; अब
उसे दुबारा
क्या पढ़ना? जो पढ़ ही ली, उसे दुबारा
क्या पढ़ना? एक फिल्म एक
बार देख ली, बात खतम हो
गई, दुबारा
क्या देखने को
बचता है? एक
उपन्यास एक
बार पढ़ लिया, बात खतम हो
गई। फिर
दुबारा उसे
वही पड़ेगा, जो
मंदबुद्धि हो,
जिसकी अकल
में कुछ भी न
आया हो।
दुबारा कोई
क्यों पड़ेगा?
लेकिन
पाठ का अर्थ
है, करोड़ों
बार पढ़ना, रोज
पढ़ना, जीवनभर
पढ़ना।
नित्य
पाठ का क्या
अर्थ है फिर? यह
साधारण पढ़ना
नहीं है।
नित्य पाठ का
अर्थ है, धर्म
के वचन ऐसे
वचन हैं कि
तुम एक बार
उन्हें पढ़ लो,
तो यह मत
समझना कि
तुमने पढ़ लिया।
उनमें पर्त दर
पर्त अर्थ हैं।
उनमें गहरे—गहरे
अर्थ हैं। तुम
जैसे—जैसे
गहरे उतरोगे,
वैसे—वैसे
नए अर्थ प्रकट
होंगे। जैसे—जैसे
तुम उनमें
प्रवेश करोगे,
वैसे—वैसे
पाओगे, और
नए द्वार
खुलते जाते
हैं।
गीता
को तुम जितनी
बार पढ़ोगे, उतने ही
अर्थ हो
जाएंगे।
बहुआयामी है
प्रत्येक
शब्द धर्म का।
और तुम्हारी
जितनी
प्रज्ञा
विकसित होगी,
उतनी ही
ज्यादा
तुम्हें अर्थ
की
अभिव्यंजना होने
लगेगी। कृष्ण का
ठीक—ठीक अर्थ
जानते—जानते
तो तुम कृष्ण
ही हो जाओगे, तभी जान
पाओगे, उसके
पहले न जान
पाओगे।
ऐसा
समझो कि जब
तुम गीता शुरू
करोगे, तो तुम ऐसे
पढ़ोगे, जैसा
अर्जुन है, और जब गीता
पूरी होगी, तो तुम ऐसे
पढ़ोगे, जैसे
कृष्ण हैं। और
बीच में
हजारों
सीढ़ियां
होंगी।
बहुत बार, बहुत बार
तुम्हें
लगेगा, इतनी
बार पढने के
बाद भी यह
अर्थ इसके
पहले क्यों
नहीं दिखाई
पड़ा? यह
शब्द कितनी
बार मैं पढ़
गया हूं लेकिन
इस शब्द ने
कभी ऐसी धुन
नहीं बजाई
मेरे भीतर! आज
क्या हुआ?
आज भाव—दशा
और थी। आज
तुम्हारा
चित्त शांत था, तुम
आनंदित थे, तुम प्रफुल्लित
थे, तुम
थोड़े ज्यादा
मौन थे, नया
अर्थ प्रकट हो
गया। कल तुम
परेशान थे, मन उपद्रव
से भरा था, यही
शब्द
तुम्हारी आंख
के सामने से
गुजरा था, लेकिन
हृदय पर इसका
कोई अंकुरण
नहीं हुआ था, कोई छाप
नहीं छोड़ सका
था, कोई
संस्कार नहीं
बना सका था।
ऐसे
बहुत—बहुत भाव—दशाओं
में, बहुत—बहुत
चेतना की
स्थितियों
में तुम गीता
का पाठ करते
रहना, बहुत—बहुत
तरफ से गीता
को देखते रहना,
तुम्हें नए—नए
अर्थ मिलते
चले जाएंगे।
हम
धर्मग्रंथ
उसी को कहते
हैं, जो
पढ़ने से न पढ़ा
जा सके, जो
केवल पाठ से
पढ़ा जा सके।
इसलिए हर
किताब का पाठ
नहीं किया
जाता, सिर्फ
धर्मग्रंथ का
पाठ किया जाता
है।
असल
में जिसका पाठ
किया जा सकता
है, वही
धर्मग्रंथ है।
जिसमें रोज—रोज
नए—नए अर्थ की
कलमें लगती
जाएं, नए
फूल खिलते
जाएं; तुम
हैरान ही हो
जाओ कि तुम
जितने भीतर
जाते हो, और
नए रहस्य
खुलते चले
जाते हैं, इनका
कोई अंत नहीं
मालूम होता, तभी तुम
धर्मग्रंथ पढ़
रहे हो। इसे
तुम्हें रोज
ही पढ़ना होगा।
यह तुम्हें तब
तक पढ़ना होगा,
जब तक कि
आखिरी अर्थ
प्रकट न हो
जाए, जब तक
कि कृष्ण का
अर्थ प्रकट न
हो जाए।
जैसे
हम प्याज को
छीलते हैं, ऐसे गीता
को रोज छीलते
चले जाना। एक
पर्त उघाड़ोगे,
नयी ताजी
पर्त प्रकट
होगी। वह पहले
से ज्यादा
ताजी होगी, नयी होगी, गहरी होगी।
उसे भी
उघाड़ोगे, और
भी नयी पर्त
मिलेगी। ऐसे
उघाडते जाओगे,
उघाडते
जाओगे, एक
दिन सब पर्तें
खो जाएंगी, भीतर का
शून्य प्रकट
होगा।
वही
शून्य कृष्ण
का अर्थ है।
उस शून्य में
ही समर्पण हो
जाता है, उस शून्य
में ही कोई
डूब जाता है।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, जो
हम दोनों के
इस धर्ममय
संवाद—रूप
गीता को पड़ेगा,
नित्य पाठ
करेगा, उसके
द्वारा मैं
ज्ञान—यज्ञ से
शुइजत होऊंगा,
ऐसा मेरा मत
है।
उसे
कोई और यज्ञ
करने की जरूरत
नहीं, उसने
रोज ज्ञान—यज्ञ
कर लिया।
जितनी बार
उसने मेरे
शब्दों को, तुझसे कहे
शब्दों को
अर्जुन, बड़े
प्रेम और
श्रद्धा और
आस्था से पढ़ा;
और जितनी
बार इस गीत का
उसके भीतर भी
थोड़ा— थोड़ा
उदय हुआ; वह
भी नाचा और
डोला और
मतवाला हुआ; उसने भी यह
शराब पी, जो
हम दोनों के
बीच घटी है, वह भी इसी
मस्ती में मस्त
हुआ, जिसमें
हम दोनों
डोलते गए हैं
और डूबते गए
हैं, उतनी
ही बार उसने
ज्ञान—यज्ञ
किया, ऐसा
मेरा मत है।
उसे किसी और
यज्ञ की कोई
जरूरत भी नहीं
है।
तथा जो
पुरुष
श्रद्धायुक्त
और दोष—दृष्टि
से रहित इस
गीता का श्रवण—मात्र
भी करेगा, वह भी
पापों से
मुक्त हुआ पुण्य
कर्म करने
वालों के
श्रेष्ठ
लोकों को प्राप्त
होवेगा।
और जो
पुरुष
श्रद्धायुक्त।
बड़े
प्रीतिभाव से, अनन्य
श्रद्धा से।
संदेह की एक
रेखा भी न
उठती हो।
दोष—दृष्टि
से रहित.....।
दोष न
खोजने को
तैयार हो।
क्योंकि दोष
जो खोजने को
तैयार है, उसे मिल
ही जाएंगे।
लेकिन इन
दोषों के मिल
जाने से किसी
और की कोई
हानि नहीं है,
उसकी ही
हानि है। तुम
अगर गुलाब के
पौधे के पास
जाओगे और काटे
ही खोजना
चाहते हो, तो
मिल ही जाएंगे।
वे वहां हैं, काफी हैं।
मगर इससे
सिर्फ
तुम्हारी
हानि हुई। जो
गुलाब के फूल
का दर्शन हो
सकता था, और
जो दर्शन
तुम्हारे
जीवन को
रूपांतरित कर
देता, उससे
तुम वंचित हो
गए।
जो दोष—दृष्टि
से रहित, श्रद्धाभाव
से......।
कीटों
को नहीं
गिनेगा जो, फूलों को
छुएगा जो, फूलों
की गंध को
अपने भीतर ले
जाएगा। अपने
द्वार खोलेगा।
भयभीत नहीं, संदिग्ध
नहीं, असंशय,
आस्था से
भरा हुआ।
वह
श्रवण—मात्र
से भी...!
क्योंकि
ऐसी घड़ी में, ऐसी भाव—दशा
में श्रवण भी
काफी है। ऐसा
सुन लिया, तो
सुनने से भी
पार हो जाता
है। क्योंकि
ऐसा सुना हुआ
तीर की तरह
प्राणों के प्राण
तक उतर जाता
है।
श्रवण—मात्र
भी करेगा, वह पापों
से मुक्त हुआ
पुण्य कर्म
करने वालों के
श्रेष्ठ
लोकों को प्राप्त
हो जाएगा।
मात्र
श्रवण से मी!
बुद्ध
ने बड़ा जोर
दिया है, सम्यक श्रवण।
महावीर ने कहा
है कि मेरा एक
घाट श्रावक का
है। जिसने ठीक
से सुन लिया, वह भी नाव पर
सवार हो गया, वह भी उस पार
पहुंच जाएगा।
कृष्णमूर्ति
राइट लिसनिंग
पर रोज—रोज
समझाते हैं, ठीक से सुन
लो।
जानने
का अर्थ सिर्फ
ठीक से सुन
लेना है।
लेकिन ठीक से
सुन लेना बड़ी
मुश्किल से
घटता है।
क्योंकि हजार
बाधाएं हैं, आलोचक की
दृष्टि है, दोष देखने
का भाव है, निंदा
का रस है।
उसमें तुम
काटो में उलझ
जाते हो।
काटे
हैं। मेरे पास
तुम सुन रहे
हो; अगर
दोष देखने की
दृष्टि हो, दोष मिल
जाएंगे। इस
पृथ्वी पर ऐसा
कुछ भी नहीं
है, जहां
काटे न हों।
क्योंकि काटे
फूलों की
रक्षा के लिए
हैं। काटे
फूलों के
दुश्मन नहीं
हैं, विपरीत
भी नहीं हैं।
वे फूलों की
रक्षा के लिए
हैं; वे
फूलों के
पहरेदार हैं;
उनके बिना
फूल नहीं हो
सकते। और
जितना
सुगंधयुक्त
गुलाब होगा, उतने ही बड़े
काटे होंगे।
जितना बड़ा
गुलाब का फूल
होगा, उतने
ही बड़े काटे
होंगे। वे
रक्षा कर रहे
हैं। तो
तुम्हें
कीटों से
उलझने की कोई
जरूरत नहीं है।
कांटे हैं; तुम फूल को
देखो।
और एक
मजे की बात है।
अगर तुमने फूल
को ठीक से
देखा, जीया,
अपने भीतर
जाने दिया, तो तुम एक
दिन पाओगे कि
सब काटे फूल
हो गए।
तुम्हारी
दृष्टि फूल की
हो गयी, अब
तुम्हें काटे
दिखायी ही
नहीं पड़ते। और
अगर तुमने
कीटों को ही
गिना और उनको
ही चुभा—चुभाकर
देखा, घाव
बनाए, तो
तुम फूल से भी
डर जाओगे; फूल
से भी ऐसे
डरोगे, जैसे
फूल भी काटा
है। एक दिन
तुम पाओगे, फूल बचे ही
नहीं
तुम्हारे लिए,
कांटे ही
काटे हो गए।
तुम्हारी
दृष्टि ही
अंततः
तुम्हारा
जीवन बन जाती
है।
तो
जिसने
श्रद्धा से, प्रेम से,
अहोभाव से,
दोष—दृष्टि
से नहीं, सत्य
की आकांक्षा—अभीप्सा
से मात्र सुना
भी, वह भी
मुक्त हो जाता
है।
इससे
बड़ी भूल पैदा
हुई। कृष्ण के
इन वचनों से
वही हुआ जिसका
डर था। लोगों
ने समझा, तो फिर ठीक
है, गीता
सुन लेने से
सब हो जाता है।
मगर वे भूल गए
कि शर्तें
हैं.
श्रद्धायुक्त,
दोष—दृष्टि
से रहित......।
इसका
मतलब यह नहीं
कि सोए—सोए
सुन लेना। सोए
रहोगे, न संदेह
उठेगा, न
दोष—दृष्टि
होगी; आंख
बंद किए झपकी
लेते रहना।
धार्मिक
सभाओं में लोग
सोए रहते हैं।
इसका मतलब सोए—सोए
सुनना नहीं है,
इसका मतलब
है, बहुत
जागरूक होकर
सुनना, ताकि
दोष—दृष्टि
प्रविष्ट न हो
जाए। दोष—दृष्टि
नींद का
हिस्सा है, मूर्च्छा का
हिस्सा है।
बहुत
अनन्य जागरूक, चैतन्य
होकर सुनना, ताकि
श्रद्धा का
आविर्भाव हो
जाए। तो ही
सुनने से भी
कोई पार हो
जाता है।
आज
इतना ही।
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