सूत्र:
18—किसी
विषय को
प्रेमपूर्वक
देखो;
दूसरे
विषय पर मत
जाओ।
यहीं
विष्यय के
मध्य में—आंनद।
19—पावों
या हाथों का
सहारा दिया
बिना सिर्फ
नितंबों
पर
बैठो। अचानक
केंद्रित हो
जाओगे।
20—किसी
चलते वाहन में
लयबद्ध झूलने
के द्वारा,
अनुभव
को प्राप्त
हो।
या किसी
अचल वहन में अपने
को मंद से मंदतर
हो
अदृश्य
वर्तुलों में झूलने
देने से भी।
21—अपने
अमृत—भरे शरीर
के किसी अंग को
सूई से
भेदो
और भद्रता के साथ
उस भेदन में प्रवेश
करो,
मनुष्य का
शरीर एक
रहस्यमय
यंत्र है। और
यह दो आयामों
में काम करता
है। बाहर जाने
के लिए
तुम्हारी
चेतना
इंद्रियों के
द्वारा
यात्रा करती
है और संसार
से, पदार्थ
से मिलती है।
लेकिन यह
तुम्हारे
शरीर के सिर्फ
एक आयाम का काम
हुआ।
तुम्हारे
शरीर का एक
दूसरा आयाम भी
है—वह तुम्हें
भीतर ले जाता
है। जब चेतना
बाहर जाती है
तो वह पदार्थ
को जानती है।
और जब वही
चेतना भीतर
जाती है तो वह
अपदार्थ को
जानती है।
यथार्थत:
तो कोई विभाजन
नहीं है, पदार्थ और
अपदार्थ एक
हैं। यह सत्य आंख
से, इंद्रियों
से देखे जाने
पर पदार्थ की
भांति मालूम
होता है। और
यही सत्य
भीतर. से देखे
जाने पर—इद्रियों
द्वारा नहीं,
बल्कि
केंद्र के
द्वारा देखे
जाने पर—अपदार्थ
की भांति
मालूम होता है।
सत्य तो एक है,
लेकिन तुम
उसे दो ढंग से
देख सकते हो।
एक इंद्रियों
के द्वारा और
दूसरा अतींद्रिय
द्वारा।
ये जो
केंद्रित
होने की
विधियां हैं
वे तुम्हें
तुम्हारे
भीतर उस बिंदु
पर ले जाने के
लिए हैं जहां
इंद्रियों का
कोई काम नहीं
रहता, जहां
तुम
इंद्रियों के
पार चले जाते
हो। इन
विधियों में
प्रवेश करने
के पहले तीन
चीजें समझने
जैसी हैं।
पहली
बात। जब तुम आंखों
से देखते हो
तो आंखें नहीं
देखती हैं, वे मात्र
देखने के
द्वार हैं।
द्रष्टा तो आंखों
के पीछे है।
यही कारण है
कि तुम आंखें
बंद कर ले
सकते हो और तब
भी सपने, दृश्य
और चित्र
देखते रह सकते
हो। द्रष्टा
तो इंद्रियों
के पीछे है, वह
इंद्रियों के
माध्यम से संसार
में गति करता
है। लेकिन अगर
तुम अपनी
इंद्रियों को
बंद कर लो तो
भी द्रष्टा
भीतर बना रहता
है।
अगर यह
द्रष्टा, यह चेतना
केंद्रित हो
जाए तो उसे
अचानक अपना बोध
हो जाता है, वह अपने को
जान लेती है।
और जब तुम
अपने को जान
लेते हो तो
तुम समग्र अस्तित्व
को जान लेते
हो, क्योंकि
तुम और
अस्तित्व दो
नहीं हैं।’'' लेकिन अपने
को जानने के
लिए केंद्रित
होने की जरूरत
है। और
केंद्रित
होने से मेरा मतलब
है कि
तुम्हारी
चेतना अनेक
दिशाओं में बंटी
न हो, वह
कहीं गति न
करती हो, अपने
आप में थर हो, अचल हो, आधारित
हो; बस भीतर
हो।
भीतर
होना कठिन
लगता है, क्योंकि
हमारे मन के
लिए भीतर कैसे
रहें, इसका
विचार भी बाहर
जाने जैसा
लगता है। हम
विचार करने
लगते हैं, 'कैसे'
पर विचार
करने लगते हैं।
इस भीतर के
संबंध में
सोचना भी
हमारे लिए विचार
है। और
प्रत्येक
विचार बाहर का
है, भीतर
का नहीं, क्योंकि
तुम अपने
अंतर्तम
केंद्र पर
मात्र चेतना
हो। विचार
बादलों जैसे
हैं। वे
तुम्हारे पास
आए हैं, लेकिन
वे तुम्हारे
नहीं हैं। सब
विचार बाहर से
आते हैं, भीतर
तुम एक भी
विचार नहीं
निर्मित कर
सकते।
प्रत्येक
विचार बाहर से
आता है, भीतर
उसे पैदा करने
का कोई उपाय
नहीं है।
विचार बादलों
की भाति
तुम्हारे पास
आते हैं।
इसलिए
जब तुम विचार
कर रहे हो तब
तुम भीतर नहीं
हो, यह
याद रहे।
विचारणा
मात्र बाहर
होना है। अगर
तुम भीतर के
संबंध में, आत्मा के
संबंध में भी
सोच रहे हो तो
भी तुम भीतर
नहीं हो।
आत्मा, अंतस,
भीतर के
संबंध के सब
विचार बाहर से
आए हैं, वे
तुम्हारे
नहीं हैं। वह
जो शुद्ध
चेतना है, निरभ्र
आकाश की भांति,
वही
तुम्हारी है।
तो क्या किया
जाए? भीतर
की सीधी—सरल
चेतना को कैसे
उपलब्ध किया
जाए?
इसके
लिए कुछ उपाय
उपयोग किए
जाते हैं, क्योंकि
तुम उनके साथ
सीधे—सीधे कुछ
नहीं कर सकते।
कुछ उपाय
जरूरी हैं, जिनके
द्वारा तुम
भीतर फेंक दिए
जाते हो, वहां
पहुंचा दिए
जाते हो। इस
केंद्र के साथ
सदा परोक्ष
रूप से ही कुछ
किया जा सकता
है, तुम वहां
प्रत्यक्ष
रूप से नहीं
जा सकते। इस
बात को बहुत
साफ—साफ समझ
लो, क्योंकि
यह बहुत
बुनियादी बात
है।
तुम
खेल रहे हो।
बाद में तुम
कहते हो कि
खेल बहुत आनंदपूर्ण
था, मुझे
बहुत सुख मिला,
मैंने बहुत
मजा लूटा। एक
सूक्ष्म सुख
पीछे छूट गया
है। फिर कोई
तुम्हें
सुनता है। वह
भी सुख की खोज
में है। कौन
नहीं है? वह
कहता है कि तब
मैं भी
खेलूंगा, क्योंकि
अगर खेल से
सुख मिलता हो
तो मुझे भी यह
सुख पाना है।
वह खेलता भी
है, लेकिन
उसका ध्यान
सीधे—सीधे सुख,
आनंद, खुशी
पर है। और तब
उसे वह सुख, वह आनंद
नहीं मिलता है।
सुख तो उप—उत्पत्ति
है। अगर तुम
समग्रता से
खेलते हो, उसमें
डूबे हो, तो
सुख फलीभूत
होता है।
लेकिन अगर तुम
सतत सुख की
चिंता कर रहे
हो, उसका
पीछा कर रहे
हो, तो कुछ
भी नहीं होता।
तुम
संगीत सुन रहे
हो। कोई कहता
है कि मुझे
बहुत आनंद आ
रहा है। लेकिन
तुम अगर
निरंतर सीधे
आनंद के पीछे
पड़े रहे तो
सुनना भी कठिन
हो जाएगा।
आनंद के लिए
वह फिक्र, वह लालच
ही बाधा बन जाएगा।
आनंद उप—उत्पत्ति
है। तुम उसे
सीधे झपट्टा
मारकर नहीं ले
सकते। वह इतनी
नाजुक चीज है
कि तुम्हें
उसके पास परोक्ष
रूप से जाना
होगा। कुछ और
चीज करो और
आनंद घटित
होगा। उसके
साथ सीधे कुछ
नहीं किया जा
सकता है।
जो भी
सुंदर है, जो भी
शाश्वत है, वह इतना
नाजुक है, सुकुमार
है कि अगर
तुमने उसे
सीधे पकड़ने की
चेष्टा की तो
वह नष्ट ही हो
जाता है।
विधियों और
उपायों का यही
उपयोग है। ये
विधियां
तुम्हें कुछ
करने को कहती
हैं। तुम क्या
करते हो, वह
महत्वपूर्ण
नहीं म् है, लेकिन
तुम्हारे मन
को करने से, विधि से
मतलब रखना
चाहिए, उसके
फल से नहीं।
फल तो आता है, उसे आना ही
है। लेकिन वह
सदा परोक्ष
रूप से आता है।
इसलिए फल की
फिक्र मत करो।
सिर्फ विधि की
फिक्र करो; उसे उतनी
समग्रता से
करो जितनी
समग्रता से कर
सको, और फल
को भूल जाओ।
फल घटता है, लेकिन तुम
उसकी राह में
बाधा बन सकते
हो। अगर तुम
फल की ही
फिक्र करते
रहे तो कभी
नहीं घटेगा।
और तब
एक अजीब बात
घटती है। लोग
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं कि
आपने कहा था
कि फलां ध्यान
करो तो उससे
ऐसा होगा। हम
वह ध्यान कर
रहे हैं, लेकिन
कुछ हो नहीं
रहा है।
वे सही
हैं, लेकिन
उन्होंने
शर्त भुला दी
है। तुम्हें
फल को भूल
जाना होगा, तभी कुछ
होता है।
तुम्हें कर्म
में समग्रता
से जुटना होगा।
जितना ही तुम
कर्म में
होओगे उतना ही
शीघ्र फल आएगा।
लेकिन फल सदा
परोक्ष है।
तुम उसके
प्रति
आक्रामक नहीं
हो सकते, हिंसक
नहीं हो सकते;
वह ऐसी
नाजुक घटना है
कि उस पर
आक्रमण नहीं
किया जा सकता।
वह तुम्हारे
पास तब आता है
जब तुम कहीं
इस समग्रता से
उलझे होते हो
कि तुम्हारा आंतरिक
आकाश खाली
होता है।
ये
विधियां सब
परोक्ष हैं।
आध्यात्मिक
घटना के लिए
कोई
प्रत्यक्ष
विधि नहीं है।
अब
विधि को लें।
केंद्रित
होने की छठवीं
विधि:
किसी
विषय को
प्रेमपूर्वक
देखो; दूसरे विषय
पर मत जाओ।
यहीं विषय के
मध्य में—आनंद।
मैं फिर
दोहराता हूं 'किसी विषय
को
प्रेमपूर्वक
देखो; दूसरे
विषय पर मत
जाओ' किसी
दूसरे विषय पर
ध्यान मत ले
जाओ, 'यहीं
विषय के मध्य
में—आनंद।’
'किसी
विषय को
प्रेमपूर्वक
देखो...।’
प्रेमपूर्वक
में कुंजी है।
क्या तुमने
कभी किसी चीज
को
प्रेमपूर्वक
देखा है? तुम ही कह
सकते हो, क्योंकि
तुम नहीं
जानते कि किसी
चीज को प्रेमपूर्वक
देखने का क्या
अर्थ होता है।
तुमने किसी
चीज को लालसा—
भरी आंखों से
देखा होगा, कामनापूर्वक
देखा होगा। वह
दूसरी बात है।
वह बिलकुल
भिन्न, विपरीत
बात है। पहले
इस भेद को
समझो।
तुम एक
सुंदर चेहरे
को, सुंदर
शरीर को देखते
हो और तुम
सोचते हो कि
तुम उसे
प्रेमपूर्वक
देख रहे हो।
लेकिन तुम उसे
क्यों देख रहे
हो? क्या
तुम उससे कुछ
पाना चाहते हो?
तब वह वासना
है, कामना
है, प्रेम
नहीं। क्या
तुम उसका शोषण
करना चाहते हो?
तब वह वासना
है, प्रेम
नहीं। तब तुम
सच में यह
चाहते हो कि
मैं कैसे इस
शरीर को उपयोग
में लाऊं, कैसे
इसका मालिक
बनूं कैसे इसे
अपने सुख का
साधन बना लूं।
वासना
का अर्थ है कि
कैसे किसी चीज
को अपने सुख
के लिए उपयोग
में लाऊं।
प्रेम का अर्थ
है कि उससे
मेरे सुख का
कुछ लेना—देना
नहीं है। सच
तो यह है कि
वासना कुछ
लेना चाहती है
और प्रेम कुछ
देना चाहता है।
वे दोनों
सर्वथा एक—दूसरे
के प्रतिकूल
हैं।
अगर
तुम किसी
सुंदर
व्यक्ति को
देखते हो और
उसके प्रति
प्रेम अनुभव
करते हो तो
तुम्हारी चेतना
में तुरंत भाव
उठेगा कि कैसे
इस व्यक्ति को, इस पुरुष
या स्त्री को
सुखी करूं। यह
फिक्र अपनी
नहीं, दूसरे
की है। प्रेम
में दूसरा
महत्वपूर्ण
है, वासना
में तुम
महत्वपूर्ण
हो।
वासना
में तुम दूसरे
को अपना साधन
बनाने की सोचते
हो, और
प्रेम में तुम
स्वय साधन
बनने की सोचते
हो। वासना में
तुम दूसरे को पोंछ
देना चाहते हो; प्रेम में तुम
स्वय मिट जाना
चाहते हो।
प्रेम का अर्थ
है देना, वासना
का अर्थ है
लेना। प्रेम
समर्पण है; वासना
आक्रमण है।
तुम
क्या कहते हो, उसका कोई
अर्थ नहीं है।
वासना में भी
तुम प्रेम की
भाषा काम में
लाते हो।
तुम्हारी
भाषा का बहुत
मतलब नहीं है।
इसलिए धोखे
में मत पडो।
भीतर देखो और
तब तुम समझोगे
कि तुमने जीवन
में एक बार भी
किसी व्यक्ति
या वस्तु को
प्रेमपूर्वक
नहीं देखा है।
एक
दूसरा भेद भी
समझ लेने जैसा
है।
सूत्र कहता
है : 'किसी
विषय को
प्रेमपूर्वक
देखो......।’
असल
में अगर तुम
किसी पार्थिव, जड़ वस्तु
को भी
प्रेमपूर्वक
देखो तो वह
वस्तु व्यक्ति
बन जाएगी।
तुम्हारा
प्रेम वस्तु
को भी व्यक्ति
में रूपांतरित
करने की कुंजी
है। अगर तुम
वृक्ष को
प्रेमपूर्वक
देखो तो वृक्ष
व्यक्ति बन
जाएगा।
उस दिन
मैं विवेक से
बात करता था।
मैंने उससे
कहा कि जब हम
नए आश्रम में
जाएंगे तो
वहां हम हरेक
वृक्ष को नाम
देंगे, क्योंकि
हरेक वृक्ष
व्यक्ति है।
क्या कभी
तुमने सुना है
कि कोई
वृक्षों को नाम
दे? कोई
वृक्षों को
नाम नहीं देता
है, क्योंकि
कोई वृक्षों को
प्रेम नहीं
करता। अगर
प्रेम करे तो
वृक्ष
व्यक्ति बन
जाए। तब वह
भीड़ का, जंगल
का हिस्सा
नहीं रहा, वह
अनूठा हो गया।
तुम
कुत्तों और
बिल्लियों को
नाम देते हो।
जब तुम कुत्ते
को नाम देते
हो, उसे 'टाइगर' कहते
हो, तो
कुत्ता
व्यक्ति बन
जाता है। तब
वह बहुत से
कुत्तों में
एक कुत्ता
नहीं रहा, तब
उसको
व्यक्तित्व
मिल गया।
तुमने
व्यक्ति
निर्मित कर
दिया। जब भी
तुम किसी चीज
को
प्रेमपूर्वक
देखते हो वह
चीज व्यक्ति
बन जाती है।
और
इसका उलटा भी
सही है। जब
तुम किसी
व्यक्ति को
वासनापूर्वक
देखते हो तो
वह व्यक्ति
वस्तु बन जाता
है। यही कारण
है कि वासना—
भरी आंखों में
विकर्षण होता
है, क्योंकि
कोई भी वस्तु
होना नहीं
चाहता है। जब
तुम अपनी
पत्नी को, या
किसी दूसरी
स्त्री को, या पुरुष को,
वासना की
दृष्टि से
देखते हो, तो
उससे दूसरे को
चोट पहुंचती
है। तुम असल
में क्या कर
रहे हो? तुम
एक जीवित
व्यक्ति को
मृत साधन में,
यंत्र में
बदल रहे हो।
ज्यों ही
तुमने सोचा कि
कैसे उसका
उपयोग करें कि
तुमने उसकी
हत्या कर दी।
यही
कारण है कि
वासना— भरी आंखें
विकर्षक होती
हैं, कुरूप
होती हैं। और
जब तुम किसी
को प्रेम से
भरकर देखते हो
तो दूसरा ऊंचा
उठ जाता है, वह अनूठा हो
जाता है।
अचानक वह
व्यक्ति हो
उठता है।
एक
वस्तु बदली जा
सकती है, उसकी जगह
ठीक वैसी ही
चीज लायी जा
सकती है; लेकिन
उसी तरह एक
व्यक्ति नहीं
बदला जा सकता।
वस्तु का अर्थ
है जो बदली जा
सके; व्यक्ति
का अर्थ है जो
नहीं बदला जा
सके। किसी
पुरुष या
स्त्री के स्थान
पर ठीक वैसा
ही पुरुष या
स्त्री नहीं
लायी जा सकती।
व्यक्ति
अनूठा है, वस्तु
नहीं।
प्रेम
किसी को भी
अनूठा बना
देता है। यही
कारण है कि प्रेम
के बिना तुम
नहीं महसूस
करते कि मैं
व्यक्ति हूं।
जब तक कोई
तुम्हें गहन
प्रेम न करे, तुम्हें
तुम्हारे अनूठेपन
का एहसास ही
नहीं होता। तब
तक तुम भीड़ के
हिस्से हो—एक
नंबर, एक
संख्या। और
तुम बदले जा सकते
हो।
उदाहरण
के लिए, अगर तुम किसी
दफ्तर में क्लर्क
हो या स्कूल में
शिक्षक हो या विश्वविद्यालय
में प्रोफेसर
हो, तो
तुम्हारी
प्रोफेसरी
बदली जा सकती
है; दूसरा
प्रोफेसर
तुम्हारी जगह
ले लेगा। वह कभी
भी तुम्हारी
जगह ले सकता
है, क्योंकि
वहां तुम
प्रोफेसर के
रूप में काम
आते हो। वहां
तुम्हारे काम
से मतलब है।
वैसे ही अगर
तुम क्लर्क हो
तो कोई भी
तुम्हारा काम
कर दे सकता है।
काम तुम्हारा
इंतजार नहीं
करेगा। अगर
तुम इस क्षण
मर जाओ तो
अगले क्षण कोई
तुम्हारी जगह
ले लेगा, और
काम चलता
रहेगा। तुम एक
संख्या थे, दूसरी
संख्या से चल
जाएगा। तुम एक
उपयोग भर थे।
लेकिन
फिर कोई इसी
क्लर्क या
प्रोफेसर के
साथ प्रेम में
पड़ जाता है।
अचानक वह
क्लर्क
क्लर्क नहीं
रह जाता, वह एक अनूठा
व्यक्ति हो
उठता है। अगर
वह मर जाए तो
उसकी प्रेमिका
उसकी जगह किसी
को भी नहीं
बिठा सकती।
उसे बदला नहीं
जा सकता है।
तब सारी
दुनिया वैसी
की वैसी रह
सकती है, लेकिन
वह व्यक्ति जो
इसके प्रेम
में था वही नहीं
रहेगा। यह
अनूठापन, यह
व्यक्ति होना
प्रेम के
द्वारा घटित
होता है।
यह
सूत्र कहता
है. 'किसी
विषय को प्रेमपूर्वक
देखो......।’
यह
किसी विषय या
व्यक्ति में
कोई फर्क नहीं
करता है। उसकी
जरूरत नहीं है।
क्योंकि जब
तुम
प्रेमपूर्वक
देखते हो तो
कोई भी चीज
व्यक्ति हो
उठती है। यह
देखना ही
बदलता है, रूपांतरित
करता है।
तुमने
देखा हो या न
देखा हो, जब तुम किसी
खास कार को, समझो वह
फिएट है, चलाते
हो तो क्या
होता है। एक
ही जैसे
हजारों—हजार
फिएट हैं, लेकिन
तुम्हारी कार,
अगर तुम
अपनी कार को
प्रेम करते हो,
अनूठी हो
जाती है, व्यक्ति
बन जाती है।
उसे बदला नहीं
जा सकता; एक
नाता—रिश्ता
निर्मित हो
गया। अब तुम
इस कार को एक
व्यक्ति
समझते हो। अगर
कुछ गड़बड़ हो
जाए, जरा
सी आवाज आने
लगे, तो
तुम्हें
तुरंत उसका
एहसास होता है।
और कारें बहुत
तुनुकमिजाज
होती हैं। तुम
अपनी कार के
मिजाज से
परिचित हो कि
कब वह अच्छा
महसूस करती है
और कब बुरा।
धीरे—धीरे कार
व्यक्ति बन
जाती है।
क्यों?
अगर
प्रेम का
संबंध है तो
कोई भी चीज
व्यक्ति बन
जाती है। और
अगर वासना का
संबंध हो तो
व्यक्ति भी
वस्तु बन जाता
है। और यह बड़े
से बड़ा
अमानवीय
कृत्य है जो
आदमी कर सकता
है कि वह किसी
को वस्तु बना
दे।
'किसी
विषय को
प्रेमपूर्वक
देखो।’
इसके
लिए कोई क्या
करे? प्रेम
से जब देखते
हो तो क्या
करना होता है?
पहली बात :
अपने को भूल
जाओ। अपने को
बिलकुल भूल
जाओ। एक फूल
को देखो और
अपने को
बिलकुल भूल
जाओ। फूल तो
हो, लेकिन
तुम
अनुपस्थित हो
जाओ। फूल को
अनुभव करो और
तुम्हारी
चेतना से गहरा
प्रेम फूल की
ओर प्रवाहित
होगा। और तब
अपनी चेतना को
एक ही विचार
से भर जाने दो
कि कैसे मैं
इस फूल के
ज्यादा खिलने
में, ज्यादा
सुंदर होने
में, ज्यादा
आनंदित होने
में सहयोगी हो
सकता हूं। मैं
क्या कर सकता
हूं?
यह
महत्व की बात
नहीं है कि
तुम कुछ कर
सकते हो या
नहीं, यह
प्रासंगिक
नहीं है। यह
भाव कि मैं
क्या कर सकता
हूं यह पीड़ा, गहरी पीड़ा
कि इस फूल को
ज्यादा सुंदर,
ज्यादा जीवंत
और ज्यादा प्रस्फुटित
बनाने के लिए मैं
क्या करू, ज्यादा
महत्व की है।
इस विचार को
अपने पूरे
प्राणों में गूंजने
दो। अपने शरीर
और मन के
प्रत्येक
तंतु को इस
विचार से
भीगने दो। तब
तुम समाधिस्थ
हो जाओगे और
फूल एक व्यक्ति
बन जाएगा।
'दूसरे
विषय पर मत
जाओ।’
तुम जा
नहीं सकते।
अगर तुम प्रेम
में हो तो
नहीं जा सकते।
अगर तुम इस
समूह में बैठे
किसी व्यक्ति
को प्रेम करते
हो तो
तुम्हारे लिए
सब भीड़ भूल
जाती है और
केवल वही
चेहरा बचता है।
सच में तुम और
किसी को नहीं
देखते, उस एक चेहरे
को ही देखते
हो। सब वहां
हैं, लेकिन
वे नहीं के
बराबर हैं, वे तुम्हारी
चेतना की महज
परिधि पर होते
हैं। वे महज
छायाएं हैं।
मात्र एक
चेहरा रहता है।
अगर तुम किसी
को प्रेम करते
हो तो मात्र
वही चेहरा
रहता है।
इसलिए दूसरे
पर तुम नहीं
जा सकते।
दूसरे
विषय पर मत जाओ, एक के साथ
ही रहो। गुलाब
के फूल के साथ
या अपनी
प्रेमिका के
चेहरे के साथ
रहो। और उसके
साथ
प्रेमपूर्वक
रहो, प्रवाहमान
रहो, समग्र
हृदय से उसके
साथ रही। और
इस विचार के
साथ रहो कि
मैं अपनी
प्रेमिका को
ज्यादा सुखी
और आनंदित
बनाने के लिए
क्या कर सकता
हूं।
'यहीं
विषय के मध्य
में—आनंद।’
और जब
ऐसी स्थिति बन
जाए कि तुम
अनुपस्थित हो, अपनी
फिक्र नहीं
करते, अपने
सुख—संतोष की
चिंता नहीं
लेते, अपने
को पूरी तरह
भूल गए हो, जब
तुम सिर्फ
दूसरे के लिए
चिंता करते हो,
दूसरा
तुम्हारे
प्रेम का
केंद्र बन गया
है, तुम्हारी
चेतना दूसरे
में प्रवाहित
हो रही है, जब
गहन करुणा और
प्रेम के भाव
से तुम सोचते
हो कि मैं
अपनी
प्रेमिका को
आनंदित करने
के लिए क्या
कर सकता हूं
तब इस स्थिति
में अचानक, 'यहीं विषय
के मध्य में—आनंद',
अचानक उप—उत्पत्ति
की तरह
तुम्हें आनंद
उपलब्ध हो जाता
है। तब अचानक
तुम केंद्रित
हो गए।
यह बात
विरोधाभासी
लगती है।
क्योंकि
सूत्र कहता है
कि अपने को
बिलकुल भूल
जाओ, आत्म—केंद्रित
मत बनो, दूसरे
में पूरी तरह
प्रवेश करो।
बुद्ध
निरंतर कहते
थे कि जब भी
तुम
प्रार्थना करो
तो दूसरों के
लिए करो—अपने
लिए नहीं।
अन्यथा
प्रार्थना
व्यर्थ है।
एक
आदमी बुद्ध के
पास आया और
उसने कहा कि
मैं आपके
उपदेश को
स्वीकार करता
हूं लेकिन
उसकी एक बात
मानना बहुत
कठिन है। आप
कहते हैं कि
जब तुम
प्रार्थना
करो तो अपनी मत
सोचो, अपने
लिए मत कुछ
मांगो; सदा
यही कहो कि
मेरी
प्रार्थना से
जो फल आए वह सबको
मिले, कोई
आनंद उतरे तो
वह सब में बंट
जाए। उस आदमी
ने कहा, यह
बात भी ठीक है,
लेकिन मैं
इसमें एक
अपवाद, एक
ही अपवाद करना
चाहूंगा। और
वह यह कि यह
कृपा मेरे
पड़ोसी को न
मिले, क्योंकि
वह मेरा शत्रु
है। यह आनंद
मेरे पड़ोसी को
छोड्कर सबको
प्राप्त हो।
मन
आत्म—केंद्रित
है। बुद्ध ने
उस आदमी से
कहा कि तब
तुम्हारी
प्रार्थना व्यर्थ
है। अगर तुम
सब कुछ सबको
बांटने को
तैयार नहीं हो
तो कुछ भी फल
नहीं होगा। और
सबमें बांट
दोगे तो सब
तुम्हारा
होगा।
प्रेम
में तुम्हें
अपने को भूल
जाना है।
लेकिन तब यह
बात
विरोधाभासी
लगने लगती है।
तब केंद्रित होना
कब और कैसे घटित
होगा? दूसरे
में समग्ररूपेण
संलग्न होने से
जब। तुम स्वयं
को पूरी तरह
भूल जाते हो
और जब दूसरा
ही बचता है, तुम आनंद से,
आशीर्वाद
से भर दिए
जाते हो।
क्यों? क्योंकि
जब तुम्हें
अपनी फिक्र
नहीं रहती तो तुम
खाली, रिक्त
हो जाते हो।
तब आंतरिक
आकाश निर्मित
हो जाता है।
जब तुम्हारा
मन पूरी तरह
दूसरे में
संलग्न है तो
तुम अपने भीतर
मन—रहित हो
जाते हो, तब
तुम्हारे
भीतर विचार
नहीं रह जाते
हैं। और तब यह
विचार भी कि
मैं दूसरे को
अधिक सुखी, अधिक आनंदित
बनाने के लिए
क्या कर सकता
हूं जाता रहता
है। क्योंकि
सच में तुम
कुछ नहीं कर
सकते। तब यह
विचार विराम
बन जाता है, तुम कुछ
नहीं कर सकते।
क्या कर सकते
हो? क्योंकि
अगर सोचते हो
कि मैं कुछ कर
सकता हूं तो
अब भी तुम
अहंकार की
भाषा में सोच
रहे हो।
स्मरण
रहे, प्रेमपात्र
के साथ
व्यक्ति
बिलकुल असहाय
हो जाता है।
जब भी तुम
किसी को प्रेम
करते हो, तुम
असहाय हो जाते
हो। यही प्रेम
की पीड़ा है कि
तुम्हें पता
ही नहीं चलता
कि मैं क्या
कर सकता हूं।
तुम सब कुछ
करना चाहोगे,
तुम अपने
प्रेमी या
प्रेमिका को
सारा ब्रह्मांड
दे देना
चाहोगे।
लेकिन तुम कर
क्या सकते हो?
अगर तुम
सोचते हो कि
यह या वह कर
सकते हो तो
तुम अभी प्रेम
में नहीं हो।
प्रेम बहुत
असहाय है, बिलकुल
असहाय है। और
वह असहायपन
सुंदर है, क्योंकि
उसी असहायपन
में तुम
समर्पित हो
जाते हो।
किसी
को प्रेम करो
और तुम असहाय
अनुभव करोगे।
किसी को घृणा
करो और
तुम्हें
लगेगा कि तुम
कुछ कर सकते
हो। प्रेम करो
और तुम बिलकुल
असमर्थ हो। तुम
क्या कर सकते
हो? जो
भी तुम कर
सकते हो वह
इतना क्षुद्र
लगता है, इतना
अर्थहीन। वह
कभी भी
पर्याप्त
नहीं मालूम
पड़ता। कुछ
नहीं किया जा
सकता है। और
जब कोई समझता
है कि कुछ
नहीं किया जा
सकता तब वह
असहाय अनुभव
करता है। जब
कोई सब कुछ
करना चाहता है
और समझता है
कि कुछ नहीं
किया जा सकता,
तब मन रुक
जाता है। और
इसी
असहायावस्था
में समर्पण
घटित होता है।
तुम खाली हो
गए।
यही
कारण है कि
प्रेम गहन
ध्यान बन जाता
है। अगर सच
में तुम किसी
को प्रेम करते
हो तो किसी अन्य
ध्यान की
जरूरत न रही।
लेकिन
क्योंकि कोई
भी प्रेम नहीं
करता है, इसलिए एक सौ
बारह विधियों
की जरूरत पड़ी।
और वे भी काफी
नहीं हैं।
उस दिन
कोई यहां था।
वह कह रहा था
कि इससे मुझे
बहुत आशा बंधी
है। मैंने
पहली दफा आप
से ही सुना है
कि एक सौ बारह विधियां
हैं। इससे
बहुत आशा होती
है। लेकिन मन
में कहीं एक
विषाद भी उठता
है कि क्या
कुल एक सौ
बारह विधियां
ही हैं? क्योंकि अगर
मेरे लिए वे
सब की सब
व्यर्थ हुईं
तो क्या होगा?
क्या कोई एक
सौ तेरहवीं
विधि नहीं है?
और वह
आदमी सही है।
वह सही है! अगर
ये एक सौ बारह
विधियां
तुम्हारे काम
न आ सकीं तो
कोई उपाय नहीं
है। इसलिए
उसका कहना ठीक
है कि आशा के
पीछे—पीछे
विषाद भी
घेरता है।
लेकिन सच तो
यह है कि
विधियों की जरूरत
इसलिए पड़ती है
कि बुनियादी विधि
खो गई है। अगर
तुम प्रेम कर
सको तो किसी
विधि की जरूरत
नहीं है।
प्रेम स्वयं
सबसे बड़ी विधि
है।
लेकिन
प्रेम कठिन है, एक तरह से
असंभव। प्रेम का
अर्थ है अपने
को ही अपनी
चेतना से
निकाल बाहर
करना और उसकी
जगह, अपने
अहंकार की जगह
दूसरे को
स्थापित करना।
प्रेम का अर्थ
है अपनी जगह
दूसरे को
स्थापित करना,
मानो कि अब
तुम नहीं हो
और सिर्फ
दूसरा है।
ज्या
पाल सार्त्र
कहता है कि
दूसरा नरक है।
और वह सही है।
वह सही है, क्योंकि
दूसरा
तुम्हारे लिए
नरक ही बनाता
है। लेकिन
सार्त्र गलत
भी हो सकता है,
क्योंकि
दूसरा अगर नरक
है तो वह
स्वर्ग भी हो सकता
है।
अगर
तुम वासना से
जीते हो तो
दूसरा नरक है।
क्योंकि तुम
उस व्यक्ति की
हत्या करने
में लगे हो, तुम उसे
वस्तु में
बदलने में लगे
हो। तब वह
व्यक्ति भी
प्रतिक्रिया
में तुम्हें वस्तु
बनाना चाहेगा।
और उससे ही
नरक पैदा होता
है।
तो सब
पति—पत्नी एक—दूसरे
के लिए नरक
पैदा कर रहे
हैं, क्योंकि
हरेक दूसरे पर
मालकियत करने
में लगा है।
मालकियत
सिर्फ चीजों
की हो सकती है,
व्यक्तियों
की नहीं। तुम
किसी वस्तु को
तो अधिकार में
कर सकते हो, लेकिन किसी
व्यक्ति को
अधिकार में
नहीं कर सकते।
लेकिन तुम
व्यक्ति पर
अधिकार करने
की कोशिश करते
हो। और उस
कोशिश में
व्यक्ति
वस्तु बन जाते
हैं। और अगर
मैं तुम्हें
वस्तु बना दूं
तो तुम प्रतिशोध
लोगे। तब मैं
तुम्हारा शत्रु
हूं। तब तुम
भी मुझे वस्तु
बनाने की
कोशिश करोगे।
उससे ही नरक
बनता है।
तुम
अपने कमरे में
अकेले बैठे हो।
और तभी
तुम्हें
अचानक पता
चलता है कि
कोई चाबी के
छेद से भीतर
झांक रहा है।
गौर से देखो
कि क्या होता
है। तुम्हें
कोई बदलाहट
महसूस हुई? तुम
क्यों इस झांकने
वाले पर नाराज
होते हो? वह
कुछ भी तो
नहीं कर रहा
है, सिर्फ
झांक रहा है।
तुम नाराज
क्यों हो रहे
हो? उसने
तुम्हें
वस्तु में बदल
दिया। वह झांक
रहा है और
झांककर उसने
तुम्हें
वस्तु बना
दिया, आब्जेक्ट
बना दिया।
उससे ही
तुम्हें
बेचैनी होती
है।
और वही
बात उस आदमी
के साथ होगी।
अगर तुम उस
चाबी के छेद
के पास आकर
बाहर देखने लगो
तो दूसरा
व्यक्ति घबरा
जाएगा। एक
क्षण पहले वह
द्रष्टा था और
तुम दृश्य थे।
अब वह अचानक
पकड़ा गया है
और तुम्हें
देखते हुए
पकड़ा गया है।
और अब वही
वस्तु बन गया
है।
जब कोई
तुम्हें देख
रहा है तो
तुम्हें लगता
है कि मेरी
स्वतंत्रता
बाधित हुई, नष्ट हुई।
यही कारण है
कि
प्रेमपात्र
को छोड्कर तुम
किसी को घूर
नहीं सकते, टकटकी लगाकर
देख नहीं सकते।
अगर तुम प्रेम
में नहीं हो
तो वह घूरना
कुरूप होगा, हिंसक होगा।
ही, अगर
तुम प्रेम में
हो तो वह
घूरना सुंदर
है, क्योंकि
तब तुम घूरकर
किसी को वस्तु
में नहीं
बदलते हो। तब
तुम दूसरे की आंख
में सीधे झांक
सकते हो, तब
तुम दूसरे की आंख
में गहरे
प्रवेश कर
सकते हो। तुम
उसे वस्तु में
नहीं बदलते, बल्कि
तुम्हारा
प्रेम उसे
व्यक्ति बना
देता है। यही
कारण है कि
सिर्फ
प्रेमियों को
घूरना सुंदर
होता है, शेष
सब घूरना
कुरूप है, गंदा
है।
मनस्विद
कहते कि तुम
किसी व्यक्ति
को, अगर
वह अजनबी है, कितनी देर
तक घूरकर देख
सकते हो, इसकी
सीमा है।
तुम
इसका
निरीक्षण करो
और तुम्हें
पता चल जाएगा
कि इसकी अवधि
कितनी है। इस समय
की सीमा है। उससे
एक क्षण
ज्यादा घूरो
और दूसरा
व्यक्ति
क्रुद्ध हो
जाएगा। सार्वजनिक
रूप से एक चलती
हुई नजर क्षमा
की जा सकती है।
क्योंकि उससे
लगेगा कि तुम देख
भर रहे थे, घूर नहीं
रहे थे।
दृष्टि गड़ाकर
देखना दूसरी
बात है।
अगर
मैं तुम्हें
चलते—चलते देख
लेता हूं तो
उससे कोई
संबंध नहीं
बनता है। या
मैं गुजर रहा
हूं और तुम
मुझ पर निगाह
डालों तो उससे
कुछ बनता—बिगड़ता
नहीं है। वह
अपराध नहीं है, ठीक है।
लेकिन अगर तुम
अचानक रुककर
मुझे देखने
लगो तो तुम
निरीक्षक हो
गए। तब
तुम्हारी
दृष्टि से
मुझे अड़चन
होगी और मैं
अपमानित
अनुभव करूंगा।
तुम कर क्या
रहे हो? मैं
व्यक्ति हूं
वस्तु नहीं।
यह कोई देखने
का ढंग है?
इसी
वजह से कपड़े
महत्वपूर्ण
हो गए हैं।
अगर तुम किसी
के प्रेम में
हो तभी तुम
उसके समक्ष
नग्न हो सकते
हो। क्योंकि
जिस क्षण तुम
नग्न होते हो, तुम्हारा
समूचा शरीर
दृष्टि का
विषय बन जाता है,
कोई
तुम्हारे
पूरे शरीर को
निहार सकता है।
और अगर वह
तुम्हारे
प्रेम में
नहीं है तो
उसकी आंखें
तुम्हारे
पूरे शरीर को,
तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व को
वस्तु में बदल
देंगी। लेकिन
अगर तुम किसी
के प्रेम में
हो, तो तुम
उसके सामने
लज्जा महसूस
किए बिना ही
नग्न हो सकते
हो। बल्कि
तुम्हें नग्न
होना रास आएगा,
क्योंकि
तुम चाहोगे कि
यह रूपांतरकारी
प्रेम
तुम्हारे
पूरे शरीर को
व्यक्ति में
रूपांतरित कर
दे।
जब भी
तुम किसी को
वस्तु में
बदलते हो तो
वह कृत्य
अनैतिक है।
लेकिन अगर तुम
प्रेम से भरे
हो तो उस
प्रेम— भरे
क्षण में यह
घटना, यह
आनंद किसी भी
विषय के साथ
संभव हो जाता
है।
'यहीं
विषय के मध्य
में—आनंद।’
अचानक
तुम अपने को
भूल गए हो, दूसरा ही
है। और तब वह
सही क्षण आएगा,
जब कि तुम
पूरे के पूरे
अनुपस्थित हो
जाओगे, तब
दूसरा भी
अनुपस्थित हो
जाएगा। और तब
दोनों के बीच
वह धन्यता
घटती है।
प्रेमियों की
यही अनुभूति
है।
यह
आनंद एक
अज्ञात और
अचेतन ध्यान
के कारण घटता
है। जहां दो
प्रेमी हैं
वहां धीरे—
धीरे दोनों
अनुपस्थित हो
जाते हैं; और वहां
एक शुद्ध
अस्तित्व
बचता है
जिसमें कोई
अहंकार नहीं
है, कोई
द्वंद्व नहीं
है। वहां
मात्र संवाद
है, साहचर्य
है, सहभागिता
है। उस संयोग
में ही आनंद
उतरता है। यह
समझना गलत है
कि यह आनंद
तुम्हें किसी
दूसरे से मिला
है। वह आनंद
आया है, क्योंकि
तुम अनजाने ही
एक गहरी ध्यान—विधि
में उतर गए हो।
तुम यह
सचेतन भी कर
सकते हो। और
जब सचेतन करते
हो तो तुम और
गहरे जाते हो, क्योंकि
तब तुम विषय
से बंधे नहीं
हो। यह रोज ही
होता है। जब
तुम किसी को
प्रेम करते हो
तो तुम जो
आनंद अनुभव
करते हो उसका
कारण दूसरा
नहीं है, उसका
कारण बस प्रेम
है। और प्रेम
क्यों कारण है?
क्योंकि यह
घटना घटती है,
यह सूत्र
घटता है।
लेकिन
तब तुम एक
गलतफहमी से
ग्रस्त हो
जाते हो, तुम सोचते
हो कि अ या ब के
सान्निध्य के
कारण यह आनंद
घटा। और तुम
सोचते हो कि
मुझे अ को
अपने कब्जे
में करना चाहिए
क्योंकि अ की
उपस्थिति के
बिना मुझे यह आनंद
नहीं मिलेगा।
और तुम
ईर्ष्यालु हो जाते
हो। तुम्हें
डर लगने लगता
है कि अ किसी
दूसरे के कब्जे
में न चला जाए,
क्योंकि तब दूसरा
आनंदित होगा
और तुम दुखी
होओगे। इसलिए
तुम पक्का कर
लेना चाहते हो
कि अ किसी और
के कब्जे में
न जाए। अ को
तुम्हारे ही
कब्जे में
होना चाहिए, क्योंकि
उसके द्वारा
तुम्हें किसी
और लोक की झलक
मिली।
लेकिन
जिस क्षण तुम
मालकियत की
चेष्टा करते हो
उसी क्षण उस
घटना का सब
सौंदर्य, सब कुछ नष्ट
हो जाता है।
जब प्रेम पर
कब्जा हो जाता
है, प्रेम
समाप्त हो
जाता है। तब
प्रेमी महज एक
वस्तु होकर रह
जाता है। तुम
उसका उपयोग कर
सकते हो, लेकिन
फिर वह आनंद
नहीं घटित
होगा। वह आनंद
तो दूसरे के
व्यक्ति होने
से आता था।
दूसरा तो
निर्मित हुआ था;
तुमने उसके
भीतर व्यक्ति
को निर्मित
किया था, उसने
तुम्हारे
भीतर वही किया
था। तब कोई
आब्जेक्ट
नहीं था। तब
दोनों दो
जीवंत निजता
थे, ऐसा
नहीं था कि एक
व्यक्ति था और
दूसरा वस्तु।
लेकिन ज्यों
ही तुमने
मालकियत की कि
आनंद असंभव हो
गया।
और मन
सदा
स्वामित्व
करना चाहेगा, क्योंकि
मन सदा लोभ की
भाषा में
सोचता है।
सोचता है कि
एक दिन जो
आनंद मिला वह
रोज—रोज मिलना
चाहिए, इसलिए
मुझे
स्वामित्व
जरूरी है।
लेकिन यह आनंद
ही तब घटता है
जब स्वामित्व
की बात नहीं
रहती। और आनंद
दूसरे के कारण
नहीं, तुम्हारे
कारण घटता है।
यह स्मरण रहे
कि आनंद
तुम्हारे
कारण घटता है,
क्योंकि
तुम दूसरे में
इतने समाहित
हो गए कि आनंद
घटित हुआ।
यह
घटना गुलाब के
फूल के साथ भी
घट सकती है; चट्टान
या वृक्ष या
किसी भी चीज
के साथ घट सकती
है। एक बार
तुम उस स्थिति
से परिचित हो
गए जिसमें यह
आनंद घटता है,
तो वह कहीं
भी घट सकता है।
यदि तुम जानते
हो कि तुम
नहीं हो और
किसी गहन प्रेम
में तुम दूसरे
में प्रवेश कर
गए—चाहे वह
दूसरा वृक्ष
हो, आकाश
हो, तारे
हों, कोई
हों—यदि
तुम्हारी
समस्त चेतना
दूसरे की ओर
प्रवाहित हो
जाए तो अहंकार
तुम्हें छोड़
देता है और अहंकार
की उस
अनुपस्थिति
में आनंद फलित
होता है।
केंद्रित
होने की
सातवीं विधि :
पांवों
या हाथों को
सहारा दिए
बिना सिर्फ
नितंबों पर
बैठो। अचानक
केंद्रित हो
जाओने चीन में
ताओवादियो ने
सदियों से इस
विधि का
प्रयोग किया
है। यह एक
अदभुत विधि है
और बहुत सरल
भी।
इसे
प्रयोग करो : 'पांवों
या हाथों को
सहारा दिए
बिना सिर्फ
नितंबों पर
बैठो। अचानक
केंद्रित हो
जाओगे।’
इसमें
करना क्या है? इसके लिए
दो चीजें
जरूरी हैं। एक
तो बहुत
संवेदनशील
शरीर चाहिए, जो कि
तुम्हारे पास
नहीं है।
तुम्हारा
शरीर मुर्दा
है। वह एक बोझ
है, संवेदनशील
बिलकुल नहीं
है। इसलिए
पहले तो उसे
संवेदनशील
बनाना होगा, अन्यथा यह
विधि काम नहीं
करेगी। मैं
पहले तुम्हें
बताऊंगा कि
शरीर को
संवेदनशील
कैसे बनाया
जाए—खासकर
नितंब को।
तुम्हारा
जो नितंब है
वह तुम्हारे
शरीर का सब से
संवेदनहीन
अंग है। उसे
संवेदनहीन
होना पड़ता है, क्योंकि
तुम सारा दिन
नितंब पर ही
बैठे रहते हो।
अगर वह बहुत
संवेदनशील हो
तो अड़चन होगी।
तुम्हारे
नितंब को
संवेदनहीन
होना जरूरी है।
पांव के तलवे
जैसी उसकी
दशा है।
निरंतर उन क्
बैठे—बैठे पता
नहीं चलता कि
तुम नितंबों
पर बैठे हो।
इसके पहले
क्या
कभी
तुमने उन्हें
महसूस किया है? अब कर
सकते हो, लेकिन
पहले कभी नहीं
किया। और तुम पूरी
जिंदगी उन पर ही
बैठते रहे हो—बिना
जाने। उनका काम
ही ऐसा है कि वे
बहुत
संवेदनशील
नहीं हो सकते।
तो
पहले तो
उन्हें
संवेदनशील
बनाना होगा।
एक बहुत सरल
उपाय काम में
लाओ। यह उपाय
शरीर के किसी
भी अंग के लिए
काम आ सकता है।
तब शरीर संवेदनशील
हो जाएगा। एक
कुर्सी पर
विश्रामपूर्वक, शिथिल
होकर बैठो। आंखें
बंद कर लो और
शिथिल होकर
कुर्सी पर
बैठो। और बाएं
हाथ को दाहिने
हाथ पर महसूस
करो। कोई भी
चलेगा। बाएं
हाथ को महसूस
करो। शेष शरीर
को भूल जाओ और
बाएं हाथ को
महसूस करो।
तुम
जितना ही उसे
महसूस करोगे
वह उतना ही
भारी होगा।
ऐसे बाएं हाथ
को महसूस करते
जाओ। पूरे
शरीर को भूल
जाओ। बाएं हाथ
को ऐसे महसूस
करो जैसे तुम
बायां हाथ ही
हो। हाथ
ज्यादा से
ज्यादा भारी
होता जाएगा।
जैसे—जैसे वह
भारी होता जाए
वैसे—वैसे उसे
और भारी महसूस
करो। और तब
देखो कि हाथ
में क्या हो
रहा है।
जो भी
उत्तेजना
मालूम हो उसे
मन में नोट कर
लो—कोई
उत्तेजना, कोई झटका,
कोई हलकी
गति, सबको
मन में नोट
करते जाओ। इस
तरह रोज तीन
सप्ताह तक
प्रयोग जारी
रखो। दिन के
किसी समय भी
दस—पंद्रह
मिनट तक यह
प्रयोग करो।
बाएं हाथ को
महसूस करो और
सारे शरीर को
भूल जाओ।
तीन
सप्ताह के
भीतर तुम्हें
अपने एक नए
बाएं हाथ का
अनुभव होगा।
और वह इतना
संवेदनशील
होगा, इतना
जीवंत। और तब
तुम्हें हाथ
की सूक्ष्म और
नाजुक संवेदनाओं
का भी पता
चलने लगेगा।
जब हाथ
सध जाए तो
नितंब पर
प्रयोग करो।
तब यह प्रयोग
करो : आंखें
बंद कर लो और
भाव करो कि
सिर्फ दो
नितंब हैं, तुम नहीं
हो। अपनी सारी
चेतना को
नितंब पर जाने
दो। यह कठिन
नहीं है। अगर
प्रयोग करो तो
यह
आश्चर्यजनक
है, अदभुत
है। उससे शरीर
में जो
जीवंतता का
भाव आता है वह
अपने आप में
बहुत
आनंददायक है।
और जब तुम्हें
अपने नितंबों
का एहसास होने
लगे, जब वे
खूब
संवेदनशील हो
जाएं, जब
भीतर कुछ भी
हो उसे महसूस
करने लगो, छोटी
सी हलचल, नन्हीं
सी पीड़ा भी
महसूस करने
लगो, तब
तुम निरीक्षण
कर सकते हो, जान सकते हो।
तब समझो कि
तुम्हारी
चेतना
नितंबों से
जुड़ गयी।
पहले
हाथ से प्रयोग
शुरू करो, क्योंकि
हाथ बहुत
संवेदनशील है।
एक बार
तुम्हें यह
भरोसा हो जाए
कि तुम अपने हाथ
को संवेदनशील
बना सकते हो
तो वही भरोसा
तुम्हें
तुम्हारे
नितंब को
संवेदनशील
बनाने में मदद
करेगा। और तब
इस विधि को
प्रयोग में
लाओ। इसलिए इस
विधि में
प्रवेश करने
के लिए तुम्हें
कम से कम छह
सप्ताह की
तैयारी चाहिए—तीन
सप्ताह हाथ के
साथ और तीन
सप्ताह
नितंबों के
साथ। उन्हें
ज्यादा से
ज्यादा
संवेदनशील
बनाना है।
बिस्तर
पर पड़े —पड़े
शरीर को
बिलकुल भूल
जाओ, इतना
ही याद रखो कि
सिर्फ दो नितंब
बचे हैं।
स्पर्श अनुभव
करो—बिछावन की
चादर का, सर्दी
का या धीरे—धीरे
आती हुई उष्णता
का। अपने
स्नान टब में
पड़े—पड़े शरीर
को भूल जाओ, नितंबों को
ही स्मरण रखो, उन्हें
महसूस करो।
दीवार से
नितंब सटाकर
खड़े हो जाओ और
दीवार की ठंडक
को महसूस करो।
अपनी
प्रेमिका, पत्नी
या पति के साथ
नितंब से
नितंब मिलाकर
खड़े हो जाओ और
एक—दूसरे को
नितंबों के
द्वारा महसूस
करो। यह विधि
महज तुम्हारे
नितंब को पैदा
करने के लिए
है, उन्हें
उस स्थिति में
लाने के लिए
है जहां वे महसूस
करने लगें।
और तब
इस विधि को
काम में लाओ : 'पांवों
या हाथों को
सहारा दिए
बिना...।’
जमीन
पर बैठो, पांवों या
हाथों के
सहारे के बिना
सिर्फ
नितंबों के
सहारे बैठो।
इसमें बुद्ध
का पद्यासन
काम करेगा या
सिद्धासन या
कोई मामूली
आसन भी चलेगा।
लेकिन अच्छा
होगा कि हाथ
का उपयोग न
करो। सिर्फ
नितंबों के
सहारे रहो, नितंबों पर
ही बैठो। और
तब क्या करो? आंखें बंद
कर लो और
नितंबों का
जमीन के साथ
स्पर्श महसूस
करो। और चूंकि
नितंब
संवेदनशील हो
चुके हैं
इसलिए
तुम्हें पता
चलेगा कि एक
नितंब जमीन को
अधिक स्पर्श
कर रहा है।
उसका अर्थ हुआ
कि तुम एक
नितंब पर
ज्यादा झुके
हो और दूसरा
जमीन से कम
सटा है। और तब
दूसरे नितंब
पर झुक जाओ।
फिर तुरंत ही
पहले पर वापिस
आ जाओ। इस तरह
एक से दूसरे
नितंब पर बारी—बारी
से झुकते जाओ
और तब धीरे—
धीरे संतुलन
लाओ।
संतुलन
लाने का अर्थ
है कि
तुम्हारे
दोनों नितंब
एक सा अनुभव
करते हैं।
दोनों के ऊपर
तुम्हारा भार
बिलकुल समान
हो। और जब
तुम्हारे
नितंब
संवेदनशील हो
जाएंगे तो यह
संतुलन कठिन
नहीं होगा।
तुम्हें उसका
एहसास होगा।
और एक बार
दोनों नितंब
संतुलन में आ
जाएं तो तुम
केंद्र पर
पहुंच गए। उस
संतुलन से तुम
अचानक अपने
नाभि—केंद्र
पर पहुंच
जाओगे और भीतर
केंद्रित हो जाओगे।
तब तुम अपने
नितंबों को
भूल जाओगे, अपने
शरीर को भूल
जाओगे, तब
तुम अपने आंतरिक
केंद्र पर
स्थित होओगे।
इसी
वजह से मैं
कहता हूं कि
केंद्र नहीं, केंद्रित
होना
महत्वपूर्ण
है। चाहे यह
घटना हृदय में
या सिर में या
नितंब में
घटित हो, उसका
महत्व नहीं है।
तुमने
बुद्धों को
बैठे देखा होगा।
तुमने नहीं
सोचा होगा कि
वे अपने
नितंबों का संतुलन
किए बैठे हैं।
किसी मंदिर
में जाओ और
महावीर को
बैठे देखो या
बुद्ध को बैठे
देखो, तुमने
नहीं सोचा
होगा कि यह
बैठना
नितंबों का संतुलन
भर है। यह वही
है! और जब
असंतुलन न रहा
तो संतुलन से
तुम केंद्रित
हो गए।
केंद्रित
होने की आठवीं
विधि :
किसी
चलते वाहन में
लयबद्ध धूलने
के द्वारा अनुभव
को प्राप्त हो।
या किसी अचल
वाहन में अपने
को मंद से
मंदतर होते
अदृश्य
वर्तुलों में
धूलने देने से
भी।
दूसरे ढंग में
यह वही है।’किसी
चलते वाहन
में.....।’ तुम
रेलगाड़ी या
बैलगाड़ी से यात्रा
कर रहे हो। जब
यह विधि
विकसित हुई थी
तब बैलगाड़ी ही
थी। तो तुम एक
हिंदुस्तानी
सड़क पर—आज भी
सड़कें वैसी ही
हैं—बैलगाड़ी
में यात्रा कर
रहे हो। लेकिन
चलते हुए अगर
तुम्हारा
सारा शरीर हिल
रहा है तो बात
व्यर्थ हो गई।
'किसी
चलते वाहन में
लयबद्ध झूलने
के द्वारा.....।’
लयबद्ध
ढंग से झूलो।
इस बात को
समझो, बहुत
बारीक बात है।
जब भी तुम
किसी बैलगाड़ी
या किसी वाहन
में चलते हो
तो तुम
प्रतिरोध
करते होते हो।
बैलगाड़ी बाईं
तरफ
झुकती
है, लेकिन
तुम उसका
प्रतिरोध
करते हो; तुम
संतुलन रखने
के लिए दाईं
तरफ झुक जाते
हो, अन्यथा
तुम गिर जाओगे।
इसलिए तुम
निरंतर
प्रतिरोध कर
रहे हो। बैलगाड़ी
में बैठे—बैठे
तुम बैलगाड़ी के
हिलने—डूलने—डुलने
से लड़ रहे हो।
वह इधर जाती है।
तो तुम उधर जाते
हो। यही वजह
है कि रेलगाड़ी
में बैठे—बैठे
तुम थक जाते
हो। तुम कुछ
करते नहीं हो
तो थक क्यों
जाते हो? अनजाने
ही तुम बहुत
कुछ कर रहे हो।
तुम निरंतर
रेलगाड़ी से लड़
रहे हो, प्रतिरोध
कर रहे हो।
प्रतिरोध
मत करो, यह पहली बात
है। अगर तुम
इस विधि को
प्रयोग में
लाना चाहते हो
तो प्रतिरोध
छोड़ दो। बल्कि
गाड़ी की गति
के साथ—साथ
गति करो, उसकी
गति के साथ—साथ
झूलों।
बैलगाड़ी का
अंग बन जाओ, प्रतिरोध मत
करो। रास्ते
पर बैलगाड़ी जो
भी करे, तुम
उसके अंग बनकर
रहो। इसी कारण
यात्रा में
बच्चे कभी
नहीं थकते हैं।
पूनम
हाल ही में
लंदन से अपने
दो बच्चों के
साथ आई है।
चलते समय वह
भयभीत थी कि
लंबी यात्रा
के कारण बच्चे
थक जाएंगे, बीमार हो
जाएंगे। वह थक
गई और वे
हंसते हुए यहां
पहुंचे। वह जब
यहां पहुंची
तो थककर चूर—चूर
थी। जब वह
मेरे कमरे में
प्रविष्ट हुई,
वह थकावट से
टूट रही थी, और दोनों
बच्चे वहीं
तुरंत खेलने
में लग गए।
लंदन से बंबई
अठारह घंटे की
यात्रा है, लेकिन वे
जरा भी नहीं
थके थे। क्यों?
क्योंकि
अभी वे
प्रतिरोध
करना नहीं
जानते हैं।
एक
पियक्कड़ सारी
रात बैलगाड़ी
में यात्रा
करेगा और सुबह
वह ताजा का
ताजा रहेगा।
लेकिन तुम
नहीं। कारण यह
है कि पियक्कड़
भी प्रतिरोध
नहीं करता है।
वह गाड़ी के
साथ गति करता
है। वह लड़ता नहीं
है, वह
गाड़ी के साथ
एक है।
'किसी
चलते वाहन में
लयबद्ध झूलने
के द्वारा......।’
तो एक
काम करो, प्रतिरोध मत
करो। और दूसरी
बात कि एक लय
पैदा करो, अपने
हिलने—डुलने
में लय पैदा
करो, उसे
लय में बांधो।
उसमें एक छंद
पैदा करो। सड़क
को भूल जाओ; सड़क या
सरकार को
गालियां मत दो,
उन्हें भूल
जाओ। वैसे ही
बैल और
बैलगाडी को या
गाड़ीवान को
गाली मत दो, उन्हें भी
भूल जाओ। आंखें
बंद कर लो, प्रतिरोध
मत करो।
लयबद्ध ढंग से
गति करो और
अपनी गति में
संगीत पैदा
करो। उसे एक
नृत्य बना दो।
'किसी
चलते वाहन में
लयबद्ध झूलने
के द्वारा, अनुभव को
प्राप्त हो.....।’
सूत्र
कहता है कि
तुम्हें
अनुभव
प्राप्त हो जाएगा।
'या
किसी अचल वाहन
में.....।’
यह मत
पूछो कि
बैलगाड़ी कहां
मिलेगी! अपने
को धोखा मत दो।
क्योंकि
यह सूत्र कहता
है 'या
किसी अचल वाहन
में अपने को
मंद से मंदतर
होते अदृश्य
वर्तुलों में
झूलने देने से
भी।’
यहीं
बैठे—बैठे हुए
वर्तुल में
झूलो, घूमो।
वर्तुल को
छोटे से छोटा
किए जाओ—इतना
छोटा कि
तुम्हारा
शरीर दृश्य
रूप से झूलता
हुआ न लगे, लेकिन
भीतर एक
सूक्ष्म गति
होती रहे। आंख
बंद कर लो, और
बड़े वर्तुल से
शुरू करो। आंख
बंद कर लो, अन्यथा
जब शरीर रुक
जाएगा तब तुम
भी रुक जाओगे।
आंख बंद करके
बड़े वर्तुल
बनाओ, बैठे—बैठे
वर्तुलाकार
झूलो। फिर
झूलते हुए
वर्तुल को
छोटा, और
छोटा किए चलो।
दृश्य रूप से
तुम रुक जाओगे,
किसी को
नहीं मालूम
होगा कि तुम
अब भी हिल रहे हो।
लेकिन अपने
भीतर तुम सूक्ष्म
गति अनुभव करते
रहोगे। अब
शरीर नहीं चल
रहा, केवल
मन चल रहा है।
उसे भी मंद से
मंदतर किए चलो
और अनुभव करो,
वहीं केंद्रित
हो जाओगे।
किसी वाहन में,
किसी चलते
वाहन में एक
अप्रतिरोधी
और लयबद्ध गति
तुम्हें
केंद्रित कर
देगी।
गुरजिएफ
ने इन विधियों
के लिए अनेक
नृत्य निर्मित
किए थे। वह इस
विधि पर काम
करता था। वह
अपने आश्रम
में जितने
नृत्यों का
प्रयोग करता
था वे सच में
वर्तुल में
झूमने से
संबंधित थे।
सभी नृत्य
वर्तुल में
चक्कर लगाने
से संबंधित
हैं। बाहर
चक्कर लगाना
होता, भीतर
होशपूर्ण
रहना होता।
फिर वे धीरे—
धीरे वर्तुल
को छोटा और
छोटा किए जाते
हैं। तब एक
समय आता है कि
शरीर ठहर जाता
है, लेकिन
भीतर मन गति
करता रहता है।
अगर
तुम लगातार
बीस घंटों तक
रेलगाड़ी में
सफर करके घर
लौटो और घर पर आंख
बंद करके देखो
तो तुम्हें
लगेगा कि तुम
अब भी गाडी
में यात्रा कर
रहे हो। शरीर
तो ठहर गया है, लेकिन मन
को लगता है कि
वह गाड़ी में
ही है। वैसे
ही इस विधि का
प्रयोग करो।
गुरजिएफ
ने अदभुत
नृत्य पैदा
किए और सुंदर
नृत्य। इस सदी
में उसने
सचमुच
चमत्कार किया।
वे चमत्कार
सत्य साईं
बाबा के
चमत्कार नहीं
थे। साईं बाबा
के चमत्कार तो
कोई गली—गली
फिरने वाला
मदारी भी कर
सकता है।
लेकिन
गुरजिएफ ने
असली चमत्कार
पैदा किए।
ध्यानपूर्ण
नृत्य के लिए
उसने सौ
नर्तकों की एक
मंडली बनाई, और पहली
बार उसने
न्यूयार्क के
एक समूह के
सामने उनका
प्रदर्शन
किया।
सौ
नर्तक मंच पर
गोल—गोल नाच
रहे थे।
उन्हें देखकर
अनेक दर्शकों
के भी सिर
घूमने लगते थे—ऐसे
सफेद पोशाक
में वे सौ
नर्तक नृत्य
करते थे। जब
गुरजिएफ
हाथों से
नृत्य का
संकेत करता था
तो वे नाचते
थे और ज्यों
ही वह रुकने
का इशारा करता
था, वे
पत्थर की तरह
ठहर जाते थे
और मंच पर
सन्नाटा हो
जाता था। वह
रुकना
दर्शकों के
लिए था, नर्तकों
के लिए नहीं; क्योंकि
शरीर तो तुरंत
रुक सकता है, लेकिन मन तब
नृत्य को भीतर
ले जाता है और वहां
नृत्य चलता
रहता है।
उसे
देखना भी एक
सुंदर अनुभव
था कि सौ लोग
अचानक मृत
मूर्तियों
जैसे हो जाते
थे। उससे
दर्शकों में
एक आघात पैदा
होता था, क्योंकि सौ
नृत्य, सुंदर
और लयबद्ध
नृत्य अचानक
ठहरकर जम जाते
थे। तुम देख
रहे हो कि वे
घूम रहे हैं, गोल—गोल नाच
रहे है और
अचानक सब
नर्तक ठहर गए।
तब तुम्हारा
विचार भी ठहर
जाता।
न्यूयार्क
में अनेक को
लगा कि यह तो
एक बेबूझ, रहस्यपूर्ण
नृत्य है, क्योंकि
उनके विचार भी
उसके साथ
तुरंत ठहर जाते
थे। लेकिन
नर्तकों के
लिए नृत्य
भीतर चलता
रहता था, भीतर
नृत्य के
वर्तुल छोटे
से छोटे होते
जाते थे और
अंत में वे केंद्रित
हो जाते थे।
एक दिन
ऐसा हुआ कि
सारे नर्तक
नाचते हुए मंच
के किनारे पर
पहुंच गए। लोग
सोचते थे कि
अब गुरजिएफ
उन्हें रोक
देंगे, अन्यथा वे
दर्शकों की
भीड़ पर गिर
पड़ेंगे। सौ
नर्तक नाचते—नाचते
मंच के किनारे
पर पहुंच गए
हैं। एक कदम
और, और वे
नीचे दर्शकों
पर गिर पड़ेंगे।
सारे दर्शक इस
प्रतीक्षा
में थे कि
गुरजिएफ रुको
कहकर उन्हें
वहीं रोक देगा।
लेकिन
उसी क्षण
गुरजिएफ ने
उनकी तरफ अपनी
पीठ कर ली और
अपना सिगार
जलाने म् लगा, और सौ
नर्तकों की
पूरी मंडली
मंच से नीचे
नंगे फर्श पर
गिर पड़ी।
सभी
दर्शक उठ खड़े
हुए, उनकी
चीखे निकल गईं।
गिरना इस
धमाके के साथ
हुआ था कि
उन्हें लगा कि
अनेक दर्शकों
के हाथ—पांव
टूट गए होंगे।
लेकिन एक भी
व्यक्ति की चोट
नहीं लगी थी, किसी को खरोंच
भी नहीं लगी थी।
उन्होंने
गुरजिएफ से
पूछा कि क्या
हुआ कि एक आदमी
भी घायल नहीं
हुआ, जब
कि नर्तकों का
नीचे गिरना
इतना बड़ा था।
यह तो एक
असंभव घटना
मालूम होती
है!
कारण
इतना ही था कि
उस क्षण नर्तक
अपने शरीरों
में नहीं थे।
वे अपने भीतर
के वर्तुलों
को मंदतर किए
जा रहे थे। और
जब गुरजिएफ ने
देखा कि वे
पूरी तरह अपने
शरीरों को भूल
गए हैं तब
उसने उन्हें
नीचे गिरने
दिया।
तुम जब
शरीर को बिलकुल
भूल जाते हो
तो कोई
प्रतिरोध
नहीं रह जाता
है। और हड्डी
तो टूटती है
प्रतिरोध के
कारण। जब तुम
गिरने लगते हो
तो तुम
प्रतिरोध
करते हो, अपने को
गिरने से
रोकते हो; गिरते
समय तुम
गुरुत्वाकर्षण
के विरुद्ध संघर्ष
करते हो। और
वही प्रतिरोध,
वही संघर्ष
समस्या है।
गुरुत्वाकर्षण
नहीं, प्रतिरोध
से हड्डी
टूटती है। अगर
तुम
गुरुत्वाकर्षण
के साथ सहयोग
करो, उसके
साथ—साथ गिरो,
तो चोट लगने
की कोई
संभावना नहीं
है।
सूत्र
कहता है : 'किसी चलते
वाहन में
लयबद्ध झूलने
के द्वारा, अनुभव को
प्राप्त हो।
या किसी अचल
वाहन में अपने
को मंद से
मंदतर होते
अदृश्य
वर्तुलों में
झूलने देने से
भी।’
यह तुम
ऐसे भी कर
सकते हो, वाहन की
जरूरत नहीं है।
जैसे बच्चे
गोल—गोल घूमते
हैं वैसे गोल—गोल
घूमो। और जब
तुम्हारा सिर
घूमने लगे और
तुम्हें लगे
कि अब गिर
जाऊंगा तो भी
नाचना बंद मत
करो, नाचते
रही। अगर गिर भी
जाओ तो फिक्र
मत करो। आंख
बंद कर लो और
नाचते रहो।
तुम्हारा सिर
चक्कर खाने
लगेगा और तुम
गिर जाओगे।
तुम्हारा
शरीर गिर जाए
तो भीतर देखो;
भीतर नाचना
जारी रहेगा।
उसे महसूस करो।
वह निकट से
निकटतर होता
जाएगा और
अचानक तुम केंद्रित
हो जाओगे।
बच्चे
इसका खूब मजा
लेते हैं, क्योंकि
इससे उन्हें
बहुत ऊर्जा
मिलती है।
लेकिन उनके
मां—बाप
उन्हें नाचने
से रोकते हैं,
जो कि अच्छा
नहीं है।
उन्हें नाचने
देना चाहिए, उन्हें इसके
लिए उत्साहित
करना चाहिए।
और अगर तुम
उन्हें अपने
भीतर के नाच
से परिचित करा
सको तो तुम
उन्हें उसके
द्वारा ध्यान
सिखा दोगे।
वे
इसमें रस लेते
हैं, क्योंकि
शरीर—शून्यता
का भाव उनमें
है। जब वे गोल—गोल
नाचते हैं तो
बच्चों को
अचानक पता
चलता है कि
उनका शरीर तो
नाचता है, लेकिन
वे नहीं नाचते।
अपने भीतर वे
एक तरह से
केंद्रित हो
गए महसूस करते
हैं, क्योंकि
उनके शरीर और
आत्मा में अभी
दूरी बनी है, दोनों के
बीच अभी
अंतराल है। हम
सयाने लोगों
को वह अनुभव
इतनी आसानी से
नहीं हो सकता।
जब तुम
मां के गर्भ
में प्रवेश
करते हो तो
तुरंत ही शरीर
में नहीं
प्रविष्ट हो
जाते हो, शरीर में
प्रविष्ट
होने में समय
लगता है। और
जब बच्चा जन्म
लेता है तब भी
वह शरीर से
पूरी तरह नहीं
जुड़ा होता है,
उसकी आत्मा
शरीर में पूरी
तरह स्थित
नहीं होती है।
दोनों के बीच
थोड़ा अंतराल
बना रहता है।
यही कारण है
कि कई चीजें
बच्चा नहीं कर
सकता है। उसका
शरीर तो
उन्हें करने
को तैयार है, लेकिन वह
नहीं कर पाता।
अगर
तुमने खयाल
किया हो तो
देखा होगा कि
नवजात शिशु
दोनों आंखों
से देखने में समर्थ
नहीं होते, वे सदा एक
आंख से देखते
हैं। तुमने
गौर किया होगा
कि जब बच्चे
कुछ देखते हैं,
निरीक्षण
करते हैं, तो
दोनों आंख से
नहीं करते। वे
एक आंख से ही
देखते हैं, उनकी वह आंख
बड़ी हो जाती
है। देखते
क्षण उनकी एक आंख
की पुतली
फैलकर बडी हो
जाएगी और
दूसरी पुतली छोटी
बनी रहेगी।
बच्चे अभी
स्थिर नहीं
हुए हैं, उनकी
चेतना अभी
स्थिर नहीं है।
उनकी चेतना
अभी ढीली—ढीली
है। धीरे—
धीरे वह स्थिर
होगी और तब वे
दोनों आंख से
देखने लगेंगे।
बच्चे
अभी अपने और
दूसरे के शरीर
में फर्क करना
नहीं जानते
हैं। यह कठिन
है। वे अभी
अपने शरीर से
पूरी तरह नहीं
जुड़े हैं। यह
जोड़ धीरे—धीरे
आएगा।
ध्यान
फिर से अंतराल
पैदा करने की
चेष्टा है।
तुम अपने शरीर
से जुड़ गए हो, शरीर के
साथ ठोस हो
चुके हो। तभी
तो तुम समझते
हो कि मैं
शरीर हूं। अगर
फिर से एक
अंतराल बनाया
जा सके तो फिर
समझने लगोगे
कि मैं शरीर
नहीं हूं शरीर
से परे कुछ
हूं। इसलिए
झूलना और गोल—गोल
घूमना सहयोगी
होते हैं, वे
अंतराल पैदा
करते हैं।
केंद्रित
होने की नौवीं
विधि:
अपने
अमृत— भरे
शरीर के किसी
अंग को सुई से
भेदो और भद्रता
के साथ उस
भेदन में
प्रवेश करो और
आंतरिक
शुद्धि को
उपलब्ध होओ।
यह सूत्र
कहता है. 'अपने अमृत—
भरे शरीर के
किसी अंग को
सुई से भेदो..।’
तुम्हारा
शरीर मात्र
शरीर नहीं है, वह तुमसे
भरा है, और
यह तुम अमृत हो।
अपने शरीर को
भेदो, उसमें
छेद करो। जब
तुम अपने शरीर
को छेदते हो
तो तुम नहीं
छिदते, सिर्फ
शरीर छिदता है।
लेकिन
तुम्हें लगता
है कि तुम ही
छिद गए, इसी
से तुम्हें
पीड़ा अनुभव
होती है। और
अगर तुम्हें
यह बोध हो कि
सिर्फ शरीर
छिदा है, मैं
नहीं छिदा हूं
तो पीड़ा के
स्थान पर आनंद
अनुभव करोगे।
सुई से
भी छेद करने
की जरूरत नहीं
है। रोज ऐसी
अनेक चीजें
घटित होती हैं, जिन्हें
तुम ध्यान के
लिए उपयोग में
ला सकते हो।
या कोई ऐसी
स्थिति
निर्मित भी कर
सकते हो।
तुम्हारे
भीतर कहीं कोई
पीड़ा हो रही
है। एक काम
करो। शेष शरीर
को भूल जाओ, केवल उस
भाग पर मन को
एकाग्र करो
जिसमें पीड़ा है।
और तब एक अजीब
बात अनुभव में
आएगी। जब तुम
पीड़ा वाले भाग
पर मन को
एकाग्र करोगे
तो देखोगे कि
वह भाग सिकुड़
रहा है, छोटा
हो रहा है।
पहले तुमने
समझा था कि
पूरे पांव में
पीड़ा है, लेकिन
जब एकाग्र
होकर उसे
देखोगे तो
मालूम होगा कि
दर्द पूरे
पांव में नहीं
है, वह तो
अतिशयोक्ति
है, दर्द
सिर्फ घुटने
में है।
और
ज्यादा
एकाग्र होओ, और तुम
देखोगे कि
दर्द पूरे
घुटने में
नहीं है, एक
छोटे से बिंदु
में है। फिर
उस बिंदु पर
एकाग्रता
साधो, शेष
शरीर को भूल
जाओ। आंखें
बंद रखो और
एकाग्रता को
बढ़ाए जाओ और
खोजो कि पीड़ा
कहा है। पीड़ा
का क्षेत्र
सिकुड़ता
जाएगा, छोटे
से छोटा होता
जाएगा। और एक
क्षण आएगा जब
वह मात्र सुई
की नोक भर रह जाएगा।
उस सुई की नोक
पर भी
एकाग्रता की
नजर गडाओ, और
अचानक वह नोक
भी विदा हो
जाएगी और तुम
आनंद से भर
जाओगे। पीड़ा की
बजाय तुम आनंद
से भर जाओगे।
ऐसा
क्यों होता है? क्योंकि
तुम और
तुम्हारे
शरीर एक नहीं
हैं, वे दो
हैं, अलग—अलग
हैं। वह जो
एकाग्र होता
है वही तुम हो।
एकाग्रता
शरीर पर होती
है, शरीर
विषय है। जब
तुम
एकाग्र होते
हो तो अंतराल बड़ा
होता है, तादात्म्य
टूटता है। एकाग्रता
के लिए तुम भीतर
सरक जाते हो, शरीर से दूर
हो जाते हो।
पीड़ा के बिंदु
को
परिप्रेक्ष्य
में लाने के लिए
तुम्हें दूर
हटना पड़ता है।
और यह दूर
जाना अंतराल
पैदा करता है।
जब तुम
पीड़ा पर
एकाग्रता
साधते हो तो
तुम तादत्म्य
भूल जाते हो, तुम भूल
जाते हो कि
मुझे पीड़ा हो
रही है। अब
तुम द्रष्टा
हो और पीड़ा
कहीं दूसरी
जगह है। तुम
अब पीड़ा को
देखने वाले हो,
भोगने वाले
नहीं। भोक्ता
के द्रष्टा
में बदलने के
कारण अंतराल पैदा
होता है। और
जब अंतराल बड़ा
होता है तो
अचानक तुम
शरीर को
बिलकुल भूल
जाते हो, तुम्हें
सिर्फ चेतना
का बोध रहता
है।
तो तुम
इस विधि का
प्रयोग भी कर
सकते हो।
'अपने
अमृत— भरे
शरीर के किसी
अंग को सुई से
भेदो, और
भद्रता के साथ
उस भेदन में
प्रवेश करो.।’
अगर
कोई पीड़ा है
तो पहले
तुम्हें उसके
पूरे क्षेत्र
पर एकाग्र
होना होगा।
फिर धीरे—
धीरे वह
क्षेत्र घटकर
सुई की नोक के
बराबर रह जाएगा।
लेकिन पीड़ा की
प्रतीक्षा
क्या करनी, तुम एक
सुई से काम ले
सकते हो। शरीर
के किसी
संवेदनशील
अंग पर सुई
चुभोओ। पर
शरीर में ऐसे
भी कई स्थल
हैं जो मृत
हैं, उनसे
काम नहीं
चलेगा।
तुमने
शरीर के इन
मृत स्थलों के
बारे में नहीं
सुना होगा।
किसी मित्र के
हाथ में एक
सुई दे दो और
तुम बैठ जाओ
और मित्र से
कहो कि वह
तुम्हारी पीठ
में कई स्थलों
पर सुई चुभोए।
कई स्थलों पर
तुम्हें पीड़ा
का एहसास नहीं
होगा। तुम
मित्र से
कहोगे कि
तुमने सुई अभी
नहीं चुभोई है, मुझे
दर्द नहीं हुआ।
वे ही मृत
स्थल हैं।
तुम्हारे गाल
पर ही ऐसे दो
मृत स्थल हैं
जिनकी जांच की
जा सकती है।
अगर
तुम भारत के
गावों में जाओ
तो देखोगे कि
धार्मिक
त्योहारों के
समय कुछ लोग
अपने गालों को
तीर से भेद देते
हैं। वह
चमत्कार जैसा
मालूम होता है, लेकिन
चमत्कार है
नहीं। गाल पर
दो मृत स्थल
हैं। अगर तुम
उन्हें छेदो
तो न खून
निकलेगा और न
पीड़ा होगी।
तुम्हारी पीठ
में तो ऐसे हजारों
मृत स्थल हैं,
वहां पीड़ा
नहीं होगी।
तो
तुम्हारे
शरीर में दो
तरह के स्थल
हैं—संवेदनशील, जीवित
स्थल और मृत
स्थल। कोई
संवेदनशील
स्थल खोजो जहां
तुम्हें जरा
से स्पर्श का
भी पता चल जाए।
तब उसमें सुई
चुभोकर चुभन
में प्रवेश कर
जाओ। वही असली
बात है, वही
ध्यान है। और
भद्रता के साथ
भेदन में
प्रवेश करो।
जैसे—जैसे सुई
तुम्हारी
चमड़ी के भीतर
प्रवेश करेगी
और तुम्हें
पीड़ा होगी, वैसे—वैसे
तुम भी उसमें
प्रवेश करते
जाओ। यह मत
देखो कि
तुम्हारे
भीतर पीड़ा
प्रवेश कर रही
है; पीड़ा
को मत देखो, उसके साथ
तादात्म्य मत
करो। सुई के
साथ, चुभन
के साथ तुम भी
भीतर प्रवेश
करो। आंखें
बंद कर लो, पीडा
का निरीक्षण
करो। जैसे
पीडा भीतर जाए
वैसे तुम भी
अपने भीतर जाओ।
चुभती हुई सुई
के साथ
तुम्हारा मन
आसानी से एकाग्र
हो जाएगा।
पीड़ा के, तीव्र
पीड़ा के उस
बिंदु को गौर
से देखो, वही
भद्रता के साथ
भेदन में
प्रवेश करना
हुआ।
'और आंतरिक
शुद्धि को
उपलब्ध होओ।'
अगर तुमने
निरीक्षण करते
हुए, तादात्म्य
न करते हुए, अलग दूर खड़े
रहते हुए, बिना
यह समझे हुए
कि पीड़ा
तुम्हें भेद
रही है, बल्कि
यह देखते हुए
कि सुई शरीर
को भेद रही है और
तुम द्रष्टा हो,
प्रवेश
किया तो तुम आंतरिक
शुद्धता को
उपलब्ध हो
जाओगे; तब आंतरिक
निर्दोषता
तुम पर प्रकट
हो जाएगी। तब
पहली बार
तुम्हें बोध
होगा कि मैं
शरीर नहीं हूं।
और एक
बार तुमने
जाना कि मैं
शरीर नहीं हूं
तुम्हारा
सारा जीवन
आमूल बदल
जाएगा।
क्योंकि
तुम्हारा
सारा जीवन शरीर
के इर्द—गिर्द
चक्कर काटता
है। एक बार
जान गए कि मैं
शरीर नहीं हूं
तुम फिर इस जीवन
को नहीं ढो
सकते; उसका
केंद्र ही खो
गया। जब तुम
शरीर नहीं रहे
तो तुम्हें
दूसरा जीवन निर्मित
करना पड़ेगा।
वही जीवन
संन्यासी का
जीवन है। यह
और ही जीवन
होगा, क्योंकि
अब केंद्र ही
और होगा। अब
तुम संसार में
शरीर की भांति
नहीं, बल्कि
आत्मा की
भांति रहोगे।
जब तक
तुम शरीर की
तरह रहते हो
तब तक
तुम्हारा संसार
भौतिक
उपलब्धियों
का, लोभ,
भोग, वासना
और कामुकता का
संसार होगा।
और वह संसार
शरीर—प्रधान
संसार होगा।
लेकिन जब जान
लिया कि मैं
शरीर नहीं हूं
तो तुम्हारा
सारा संसार
विलीन हो जाता
है। तुम अब
उसे सम्हालकर
नहीं रख सकते,
तब एक दूसरा
संसार उदय
होगा जो आत्मा
के इर्द—गिर्द
होगा। वह
संसार करुणा,
प्रेम, सौंदर्य,
सत्य, शुभ
और निर्दोषता
का संसार होगा।
केंद्र हट गया,
वह अब शरीर
में नहीं है।
अब केंद्र
चेतना में है।
आज
इतना ही।
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