सूत्र:
25—जैसे ही
कुछ करने की
वृति हो,
रूक जाओ।
26—जब कोई
कामना उठे,
उस पर विमर्श
करो।
फिर,
अचानक, उसे
छोड़ दो।
27—पूरी तरह
थकने तक घूमते
रहो,
और
तब जमींन पर
गिरकर,
इस
गिरने में
पूर्ण होओ।
जीवन के
दो तल हैं, दो
संतुलन हैं :
एक होने का है,
दूसरा करने
का।
तुम्हारा
होना
तुम्हारा
स्वभाव है। वह
तुम हो, सदा
हो, उसे
पाने के लिए
तुम्हें कुछ
करना नहीं है।
वह तुम हो ही, वही तुम हो।
यह बात भी
नहीं है कि वह
कुछ है जो तुम्हारे
पास है, तुम्हारे
अधिकार में है।
तुममें और
उसमें इतनी
दूरी भी नहीं
है। तुम ही
अपना होना हो,
अस्तित्व
हो।
करना
एक उपलब्धि है।
जो कुछ भी तुम
करते हो वह
बिना किए न
होगा। तुम करो
तो वह होगा; तुम
न करो तो न
होगा। जो भी
शाश्वत नहीं
है वह
तुम्हारा
होना नहीं है।
जीने
के लिए, बचने
के लिए
तुम्हें बहुत
कुछ करना पड़ता
है। और तब
धीरे—धीरे
तुम्हारी
सक्रियता
तुम्हारे
होने को जानने
में बाधा बन
जाती है।
तुम्हारी
सक्रियता
तुम्हारी
परिधि है। तुम
उसके सहारे
जीते हो, तुम
उसके बिना
नहीं जी सकते।
लेकिन वह
सिर्फ परिधि
है। वह तुम
नहीं हो, वह
केंद्र नहीं
है। जो कुछ
तुम्हारे पास
है वह
तुम्हारे
कृत्य की
उपलब्धि है।
तुम्हारा
अर्जन, तुम्हारी
संपदा
तुम्हारे
कृत्य का फल
है। लेकिन इस
कृत्य ने, इसकी
उपलब्धि ने
केंद्र को
चारों तरफ से
घेर रखा है, आच्छादित कर
रखा है। तुम
तुम्हारे
कृत्यों और
उपलब्धियों
में बंद हो गए
हो।
इन
विधियों में
प्रवेश करने
के पहले पहली
विचारणीय बात
यह है कि जो
तुम्हारे पास
है वह तुम्हारा
होना नहीं है, और
जो तुम करते
हो या कर सकते
हो वह भी
तुम्हारा
होना नहीं है।
तुम्हारा
होना सब करने
के पहले है।
तुम्हारा
होना तुम्हारी
सभी
उपलब्धियों
के पहले है।
लेकिन मन है
कि वह निरंतर
करने और उसकी
उपलब्धियों
में संलग्न
रहता है। मन
के पार या मन
के पहले
तुम्हारा
होना है।
यही
वह चीज है
जिसे सभी धर्म
खोजते रहे हैं।
और यही वह चीज
है जिसे वे
सारे लोग
खोजते रहे हैं
जो मनुष्य—जीवन
के बुनियादी
सत्य में, उसकी
आत्यंतिकता
में, तुम्हारे
होने के सार—तत्व
में उत्सुक
रहे हैं। जब
तक तुम परिधि
और केंद्र के
इस भेद को न
समझ लोगे तब
तक इन सूत्रों
को, जिनकी
हम चर्चा करने
जा रहे हैं, समझना कठिन
होगा।
तो
इस भेद को
भलीभांति समझ
लो। जो
तुम्हारे पास
है—धन, ज्ञान, प्रतिष्ठा—जो
भी है, वह
तुम नहीं हो।
वे तुम्हारे
पास हैं, वे
तुम्हारी
संपदाएं हैं।
लेकिन तुम
उनसे पृथक हो,
भिन्न हो।
दूसरी बात कि
तुम जो कुछ
करते हो वह भी
तुम्हारा
होना नहीं है।
तुम चाहो तो
कुछ करो और
चाहो तो न करो।
मसलन, तुम
हंसते हो, यह
तुम्हारे हाथ
में है। चाहो
तो हंसो, चाहो
तो न हंसो।
तुम दौड़ते हो,
यह
तुम्हारे हाथ
में है। चाहो
तो दौड़ो, चाहो
तो न दौड़ो।
लेकिन
तुम्हारा
होना
तुम्हारे हाथ
में नहीं है, उसमें कोई
चुनाव नहीं है।
तुम अपना होना
नहीं चुन सकते,
तुम बस हो।
कृत्य
चुनाव है, तुम
उसे चाहे चुनो
और चाहे न
चुनो। यह
तुम्हारे हाथ
में है कि तुम
यह काम करो या
न करो। तुम
साधु बन सकते
हो, या तुम
चोर बन सकते
हो। लेकिन
तुम्हारे
साधुपन—चोरपन
दोनों कृत्य
हैं। तुम चुन
सकते हो, तुम
बदल भी सकते
हो। साधु चोर
बन सकता है और
चोर साधु बन
सकता है।
लेकिन वह
तुम्हारा
होना नहीं है,
तुम्हारा
होना
तुम्हारे
साधु और चोर
होने के पहले
है।
जब
तुम्हें कुछ
करना है तो
उसके पहले
तुम्हारा
होना जरूरी है।
होने के बिना
तुम्हारा कुछ
करना संभव
नहीं है। कौन
हंसता है? कौन
चोरी करता है?
कौन साधु
बनता है? सब
क्रिया के
पहले होना
अनिवार्य है।
कृत्य चुना जा
सकता है, अस्तित्व
नहीं चुना जा
सकता है।
तुम्हारा
अस्तित्व ही
चुनाव करता है।
वह चुनने वाला
है, चुना
जाने वाला
नहीं। तुम
चुनने वाले को
नहीं चुन सकते
हो। चुनने
वाला बस है।
उसके संबंध
में तुम कुछ
भी नहीं कर
सकते।
याद
रहे,
पाना या
करना
तुम्हारे साथ
वैसे ही है
जैसे केंद्र
के साथ परिधि
है। और केंद्र
तुम हो। यह
केंद्र आत्मा
है—या जो भी
नाम तुम देना
चाहो—यह
केंद्र
तुम्हारा
सबसे अंतरस्थ
बिंदु है। उस
तक कैसे
पहुंचा जाए?
और
जब तक कोई इस
अंतरतम को
नहीं पा लेता
है,
नहीं जान
लेता है, तब
तक वह उस
आनंदपूर्ण
स्थिति को
नहीं पहुंच
सकता जो
शाश्वत है, जो अमृत है, जो स्वयं
परमात्मा है।
जब तक कोई इस
केंद्र को
नहीं उपलब्ध
होता है, तब
तक उसे पीड़ा, दुख और
संताप में
रहना पड़ेगा।
परिधि नरक है।
ये
विधियां इस
केंद्र पर
पहुंचने के
साधन हैं।
पहली
विधि :
जैसे ही
कुछ करने की
वृत्ति हो रुक
जाओ।
ये
सारी विधियां
मध्य में
रुकने से
संबंधित हैं।
जार्ज
गुरजिएफ ने
पश्चिम में इन
विधियों को प्रचलित
किया था, लेकिन
उसे विज्ञान
भैरव तंत्र का
पता नहीं था।
उसने ये
विधियां
तिब्बत में
बौद्ध लामाओं
से सीखी थीं।
पश्चिम में
उसने इन
विधियों पर
काम किया और
अनेक साधक इन
विधियों के
द्वारा
केंद्र को उपलब्ध
हो गए। वह
उन्हें स्टॉप
एक्सरसाइज, रुक जाने का
प्रयोग कहता
था। लेकिन इन
प्रयोगों का
स्रोत
विज्ञान भैरव
तंत्र है।
बौद्धों
ने भी विज्ञान
भैरव तंत्र से
ही सीखा था।
सूफियों में
भी ऐसे प्रयोग
चलते हैं।
सबने विज्ञान
भैरव से ही
लिया है।
दुनिया में
ऐसी जो भी
विधियां चलती
हैं,
उन सबका
स्रोत—ग्रंथ
यही है।
गुरजिएफ
बहुत सरल ढंग
से इसका
प्रयोग करता
था। उदाहरण के
लिए,
वह अपने
शिष्यों को
नाचने के लिए
कहता था। बीस
लोगों का समूह
नाच रहा है।
नाच के बीच ही
वह अचानक जोर
से कहता, ‘स्टॉप!’
और जब
गुरूजिएफ
रूकने को कहता
तो उन्हें
तुरंत और समग्रत:
रुकना पड़ता था।
जब और जहां
रुकने की
आज्ञा होती
तभी और वहां ही
रुकना
अनिवार्य था।
उसमें जरा भी
हेर—फेर या
समायोजन की
गुंजाइश नहीं
थी। अगर
तुम्हारा एक
पैर जमीन से
ऊपर उठा था और
एक पैर पर तुम खड़े
थे तो तुम्हें
उसी मुद्रा
में जम जाना
पड़ता।
यह
बात अलग है कि
तुम गिर जाओ, लेकिन
इस गिरने में
कोई सहयोग
नहीं देना था।
अगर तुम्हारी आंखें
खुली थीं तो
उन्हें खुली
रहने देना था।
अब तुम उन्हें
बंद नहीं कर
सकते। यह बात
दूसरी है कि
वे अपने आप ही
बंद हो जाएं। जहां
तक तुम्हारा
संबंध है
तुम्हें
सचेतन रूप से
ज्यों का
त्यों रुक
जाना है, तुम्हें
पत्थर की मूर्ति
जैसा हो जाना
है।
और
इसके अदभुत
नतीजे आते थे।
क्योंकि जब
तुम सक्रिय
होते हो, नाचते
होते हो, गतिमान
होते हो, और
अचानक बीच में
रुक जाते हो, तो उससे एक
अंतराल पैदा
होता है। सभी
क्रिया का
अचानक बंद
होना तुम्हें
दो भागों में
बांट देता है,
तुम्हें
तुम्हारे
शरीर से अलग
कर देता है।
अभी तुम और
तुम्हारा
शरीर दोनों
गतिमान थे।
तुम अचानक रुक
जाते हो। शरीर
तब भी गति
करना चाहता है।
उसका मोमेंटम
है। तुम नाच
रहे थे तो
उसका मोमेंटम
है। शरीर इस
आकस्मिक
ठहराव के लिए
तैयार नहीं है।
तुम्हें
अचानक लगता है
कि शरीर अभी
भी कुछ करना
चाहता है।
लेकिन तुम रुक
गए हो, इससे
एक अंतराल
पैदा हो गया।
तुम्हें लगता
है, तुम्हारा
शरीर तुमसे
दूर है, बहुत
दूर है, जिसमें
अभी क्रिया का
संवेग भरा है।
लेकिन क्योंकि
तुम ठहर गए थे
और तुम अपने
शरीर के साथ, शरीर के
संवेग के साथ
सहयोग नहीं कर
रहे हो, इसलिए
तुम उससे पृथक
हो जाते हो।
लेकिन
तुम अपने को
धोखा भी दे
सकते हो। जरा
सा सहयोग, और
अंतराल घटित
नहीं होगा।
उदाहरण के लिए,
तुम कुछ
असुविधा
अनुभव कर रहे
हो, तभी
गुरु ने कहा
कि रुक जाओ।
तुम सुन भी
लेते हो, लेकिन
अपनी सुविधा
बनाकर रुकते
हो। इतने से
ही सब बात
बिगड़ गई, अब
कुछ नहीं होगा।
तब तुमने अपने
को धोखा दिया—गुरु
को नहीं। तब
तुम चूक गए।
तब विधि का
पूरा महत्व ही
नष्ट हो गया।
जब
अचानक रुकने
की आवाज सुनाई
पड़े,
तत्क्षण तुम्हें
रुक जाना है।
अब कुछ भी
नहीं करना है।
हो सकता है कि
जिस मुद्रा
में तुम थे वह
असुविधाजनक
थी। तुम्हें
डर था कि तुम
गिर जाओगे, तुम्हारी
हड्डी टूट
जाएगी। लेकिन
कुछ भी हो, तुम्हें
चिंता नहीं
लेनी है। यदि
तुमने चिंता
ली तो अपने को
ही धोखा दोगे।
यह
जो अचानक
मृतवत होना है
यही अंतराल
पैदा करता है।
रुकना तो शरीर
के तल पर होता
है,
लेकिन
रुकने वाला
केंद्र है।
परिधि और
केंद्र अलग—अलग
हैं। एकाएक
रुकने की घटना
में तुम पहली
बार अपने को
अनुभव करोगे,
पहली बार
केंद्र को
महसूस करोगे।
गुरजिएफ
ने इस विधि के
जरिए अनेक
लोगों की मदद
की। इस विधि
के कई आयाम
हैं,
यह विधि कई
ढंग से
इस्तेमाल
होती है।
लेकिन पहले
इसकी संरचना
को समझने की
चेष्टा करो।
संरचना सरल है।
तुम कोई काम
करते हो, जब
तुम काम में
होते हो तो
तुम अपने को पूरी
तरह भूल जाते
हो। तब कृत्य तुम्हारे
अवधान का
केंद्र हो जाता
है।
समझो
कि कोई
व्यक्ति मर
गया है और तुम
उसके लिए चीख—चिल्ला
रहे हो, आंसू बहा
रहे हो। अब
तुम अपने को
पूरी तरह भूल
गए हो। मरने वाला
केंद्र हो गया,
उसके चारों
ओर रोने की, आंसू की, शोक
की क्रिया घट
रही है। अगर
मैं एकाएक
कहूं कि रुक
जाओ और तुम
पूरी तरह रुक
जाओ, तो
तुम अपने शरीर
और कर्म के
जगत से सर्वथा
अलग हो जाओगे।
जब तुम काम
में होते हो
तो तुम उसमें
खो जाते हो।
अचानक ठहरना
तुम्हारे
संतुलन को
हिला देता है,
वह तुम्हें
कर्मों के
बाहर कर देता
है। और यही
चीज तुम्हें
तुम्हारे
केंद्र पर
पहुंचा देती
है।
सामान्यत:
हम एक काम से
दूसरे काम में
गति करते रहते
हैं,
अ से ब में, ब से स में।
ज्यों ही तुम
सुबह जागते हो,
कर्म का जगत
शुरू हो जाता
है। अब तुम
सारा दिन
सक्रिय रहोगे।
तुम अनेक बार
काम बदलोगे, लेकिन एक
क्षण को भी
निष्कि्रय
नहीं रहोगे। निष्क्रिय
रहना कठिन है।
अगर तुम निष्क्रिय
रहने की कोशिश
करोगे तो वही
सक्रियता बन
जाएगी।
अनेक
लोग निष्क्रिय
होने की
चेष्टा करते
हैं। वे बुद्ध
की तरह बैठ
जाते हैं और निष्क्रिय
होने की
चेष्टा करते
हैं। लेकिन निष्क्रिय
होने की
चेष्टा कैसे
हो सकती है? चेष्टा
ही सक्रियता
बन जाएगी। तुम
निष्क्रियता
को भी
सक्रियता बना
लोगे। तुम
अपने को
जबरदस्ती
शांत बना ले
सकते हो, लेकिन
वह जबरदस्ती
खुद मन की
क्रिया होगी।
यही
कारण है कि
अनेक लोग
ध्यान में
जाने की चेष्टा
करते हैं, लेकिन
कहीं नहीं
पहुंचते हैं।
कारण है कि
उनका ध्यान भी
एक सक्रियता
है, एक
क्रिया है।
क्रिया बदली
जा सकती है।
तुम एक साधारण
गीत गा रहे थे,
उसे छोड्कर
भजन गा सकते
हो। पहले तेज
गा रहे थे, अब
आहिस्ता गा
सकते हो।
लेकिन दोनों
क्रियाएं हैं।
तुम दौड़ रहे
हो, तुम चल
रहे हो, तुम
पढ़ रहे हो, सब
कुछ सक्रियता
है। तुम
प्रार्थना
करते हो—वह भी
सक्रियता है।
तुम एक क्रिया
से दूसरी
क्रिया में
गति करते रहते
हो। ऐसे रात
सोने तक कर्म
जारी रहता है।
और
सोते—सोते भी
तुम सक्रिय
रहते हो, क्रिया
रुकती नहीं है।
यही कारण है
कि स्वप्न
घटित होता है,
स्वप्न उसी
सक्रियता का
विस्तार है।
नींद में भी
क्रिया जारी
रहती है। अब तुम्हारा
अचेतन सक्रिय
है—कुछ करता
है, चीजें
बटोरता है, कुछ गवाता
है, कहीं
जाता है।
स्वप्न का
अर्थ है कि
थककर शरीर सो
गया है, लेकिन
क्रिया किसी
तल पर जारी है।
केवल
कभी—कभी और वह
भी कुछ क्षणों
के लिए—आधुनिक
मनुष्य के लिए
वह भी दुर्लभ
है—स्वप्न बंद
होता है और
तुम गाढ़ी नींद
में होते हो।
लेकिन यह निष्क्रियता
अचेतन है। तुम
अब चेतन नहीं
हो,
गहरी नींद
में हो, सक्रियता
बंद हो गई है।
अब कोई परिधि
नहीं है; अब
तुम केंद्र पर
हो, लेकिन
सर्वथा थके
हुए—अचेतन, मृतवत।
यही
कारण है कि
हिंदू सदा
कहते रहे हैं
कि सुषुप्ति
और समाधि समान
हैं। उनमें एक
ही भेद है, लेकिन
वह भेद बड़ा है।
भेद बोध का है।
सुषुप्ति में,
स्वप्नरहित
नींद में तुम
अपने केंद्र
पर होते हो, लेकिन अचेतन।
समाधि में भी,
जो ध्यान की
परम अवस्था है,
तुम केंद्र
पर होते हो, लेकिन चेतन।
यही भेद है, बड़ा भेद है।
क्योंकि बेहोश
होकर केंद्र
पर होने का
कोई अर्थ नहीं
है। यह ठीक है
कि इससे तुम
ताजा हो जाते
हो, जीवंत
हो जाते हो, ऊर्जावान हो
जाते हो, सुबह
तुम अधिक ताजा
और आनंदित रहते
हो। लेकिन अगर
तुम बेहोश हो,
तो केंद्र
पर होकर भी तुम
आदमी वही रहते
हो, जो थे।
समाधि
में तुम पूरे
होश से, पूरे
चैतन्य के साथ
प्रवेश करते
हो। और जब तुम
पूरे चैतन्य
के साथ केंद्र
पर होते हो तो
फिर कभी वह
आदमी नहीं
रहोगे जो थे।
अब तुम जानोगे
वे तुम्हारा
स्वभाव नहीं
हैं।
अचानक
रुकने की इन
विधियों का
उद्देश्य
तुम्हें निष्क्रियता
में डालना है।
इसीलिए इस
बिंदु का
अचानक आना
महत्वपूर्ण
है। क्योंकि
अगर निष्क्रिय
होने की
चेष्टा की
जाएगी तो वही
चेष्टा सक्रियता
बन जाएगी। तो
चेष्टा मत करो, बस
निष्क्रिय
हो जाओ। रुक
जाओ का यही
अर्थ है। अगर
तुम दौड़ रहे
हो और मैं
कहता हूं रुक
जाओ। तो तुम
तुरंत रुक जाओ,
चेष्टा मत
करो। अगर
चेष्टा करोगे
तो चूक जाओगे।
उदाहरण
के लिए, तुम
यहां बैठे हो
कुछ कर रहे हो;
मैं कहूं कि
रुक जाओ, तो
तुरंत, तत्क्षण
रुक जाओ। एक
क्षण भी नहीं
खोना है। अगर
तुमने कोशिश
की, कुछ
समायोजन किया
और तब कहा कि
ठीक, अब
मैं रुकता हूं
तो तुम चूक गए।
इस विधि का
आधार 'अचानक'
शब्द है।
रुकने के लिए
चेष्टा मत करो;
रुक जाओ।
तुम
कहीं भी इसका
प्रयोग कर
सकते हो। तुम
स्नान कर रहे
हो;
अचानक अपने
को कहो : स्टॉप!
अगर एक क्षण
के लिए भी यह
एकाएक रुकना
घटित हो जाए
तो तुम अपने
भीतर कुछ
भिन्न बात
घटित होते
पाओगे। तब तुम
अपने केंद्र
पर फेंक दिए
जाओगे। और तब
सब कुछ ठहर
जाएगा।
तुम्हारा
शरीर तो पूरी
तरह रुकेगा ही,
तुम्हारा
मन भी गति
करना बंद कर
देगा। जब
स्टॉप कहो तो
उस समय श्वास
भी मत लो। सब
कुछ रुक जाना
चाहिए—श्वास
भी, शरीर
की गति भी।
एक
क्षण के लिए
भी इस रुकने
में स्थित हो
जाओ तो तुम
पाओगे कि
राकेट की गति
से अपने
केंद्र में
अचानक प्रवेश
कर गए हो।
इसकी एक झलक
भी चमत्कारी
है,
क्रांतिकारी
है। यह झलक
तुम्हें बदल
देगी। फिर
धीरे— धीरे इस
केंद्र की और
भी झलकें
तुम्हें
मिलेंगी।
इसलिए निष्क्रियता
का अभ्यास
नहीं करना है।
विधि का उपयोग
आकस्मिकता
में है, अनपेक्षित
होने में है।
इसलिए
गुरु उपयोगी
हो सकता है।
यह
विधि समूह में
प्रयोग के लिए
है। गुरजिएफ
इसे समूह विधि
की तरह काम
में लाता था।
अगर तुम अपने
से ही कहो कि
रुक जाओ तो
उसमें तुम
अपने को आसानी
से धोखा दे
सकते हो। तुम
पहले अपनी
स्थिति
सुविधापूर्ण
बना लोगे और
तब रुक जाने
का हुक्म दोगे।
हो सकता है कि
सचेतन रूप से
तुम इसकी
तैयारी न करो।
लेकिन तुम
अचेतन रूप से
भी तैयार हो
सकते हो।
लेकिन
अगर यह मन का
काम है, अगर
इसके पीछे कुछ
तैयारी है, तो सब बात
व्यर्थ हो
जाती है। तब
यह विधि किसी
काम की नहीं
रहेगी। इसलिए
समूह में इसे
करना अच्छा है।
वहां एक गुरु
रहेगा जो
कहेगा कि रुक
जाओ। यह गुरु
उस क्षण में
ऐसा कहेगा जब
तुम किसी बहुत
असुविधापूर्ण
मुद्रा में
रहोगे। और तब
बिजली की कौंध
की तरह कुछ
घटित होगा।
सक्रियता
का अभ्यास हो
सकता है; लेकिन
निष्क्रियता
का अभ्यास
नहीं हो सकता।
अभ्यास करने
से निष्क्रियता
सक्रियता हो
जाती है। और निष्क्रियता
अचानक ही आती
है।
कभी
ऐसा होता है
कि तुम कार
चला रहे हो और
तुम्हें
अचानक लगता है
कि दुर्घटना
होने जा रही
है, कि सामने से
दुसरी कार
तुम्हारी
कार के इतने
करीब आ गई है
कि क्षणभर में
दोनों टकरा
जाएंगी। ऐसे
क्षण में आदमी
अपने केंद्र
पर फेंक दिया जाता
है। लेकिन
दुर्घटना में
भी तुम इसे
चूक सकते हो।
मैं
एक कार से
यात्रा कर रहा
था। और एक
दुर्घटना हो
गई जो कि
संभवत: अत्यंत
सुंदर घटना थी।
मेरे साथ तीन
व्यक्ति थे, लेकिन
वे बुरी तरह
चूक गए। वे
पूरी तरह चूक
गए। यहां उनके
जीवन में एक क्रांति
घटित हो सकती
थी; लेकिन
वे चूक गए।
कार पुल से
नीचे नदी में
गिर गई। नदी
सूखी थी। कार
पूरी तरह उलट
गई थी, और
तीनों सज्जन
जो मेरे साथ
थे रोने—धोने
लगे। एक
स्त्री भी थी,
वह भी चीख—चिल्ला
रही थी। वह
मेरे बगल में
ही थी और चिल्ला
रही थी : 'मैं
मर गई, मैं
मर गई।’
मैंने
उससे कहा कि
यदि तू मर गई
होती तो यह
कहने के लिए यहां
कोई नहीं
होता! लेकिन
वह थर— थर कैप
रही थी। उसने
कहा,
मैं मर गई; मेरे बच्चों
का क्या होगा!
जब हमने उसे
कार के बाहर
निकाला तब भी
वह कांप रही
थी और कहे जा
रही थी कि मैं
मर गई, मेरे
बच्चों का
क्या होगा!
उसे शांत होने
में कम से कम
आधा घंटा लगा।
लेकिन
वह चूक गई। यह
इतनी सुंदर
घटना थी, अगर
वह सब कुछ
एकाएक रोक
देती। उस समय
कोई कुछ नहीं
कर सकता था।
कार पुल से
नीचे गिर रही
थी, उस
स्त्री के लिए
करने को कुछ
नहीं था। कुछ
भी नहीं किया
जा सकता था।
लेकिन मन तो
सक्रियता
पैदा करने में
बहुत सक्षम
होता है। वह
स्त्री अपने
बच्चों के
बारे में
सोचने लगी और
चिल्लाने लगी
कि मैं मर गई।
ऐसे एक
सूक्ष्म अवसर
हाथ से चला
गया।
अचानक
स्थितियों
में मन क्यों
अपने ही आप
ठहर जाता है? मन
एक यंत्र है जो
यंत्रवत काम
करता है; वह
वही करता है, जिसे करने
को वह अभ्यस्त
है। तुम अपने
मन को
दुर्घटनाओं
के लिए
प्रशिक्षित
नहीं कर सकते।
अगर कर सकते
हो तो
दुर्घटना
दुर्घटना न
रहेगी। यदि
तुम उसके लिए
तैयार हो, यदि
तुमने उसका
रिहर्सल किया
हुआ है, तो
वे
दुर्घटनाएं
नहीं कहलाएंगी।
दुर्घटना
का अर्थ है कि
मन उसके लिए
तैयार नहीं है।
बात ही इतनी
अचानक है, इतनी
आकस्मिक है—मानो
कोई चीज
अज्ञात से
कूदकर सामने आ
गई हो। मन कुछ
भी नहीं कर
सकता। वह
तैयार नहीं है;
वह इसका
अभ्यस्त नहीं
है। ऐसी
स्थिति में
इसका ठहर जाना
अनिवार्य है,
अगर तुम कोई
और चीज न शुरू
कर दो—कोई ऐसी
चीज जिसके लिए
तुम्हारा मन
अभ्यस्त है।
यह
स्त्री, जो
अपने बच्चों
के लिए चिल्ला
रही थी, उसके
प्रति बेहोश
थी जो तत्क्षण
हो रहा था।
उसे इतना भी
होश नहीं था
कि मैं जीवित
हूं। वर्तमान
क्षण उसकी
चेतना के
सामने से हट
गया था। वह उस
स्थिति से
हटकर अपने
बच्चों के, मृत्यु के, अन्य चीजों
के पास सरक गई
थी। वह पलायन
कर गई थी। जहा
तक उसके अवधान
का संबंध है, वह उस पूरी
स्थिति से
पलायन कर गई
थी। लेकिन
जहां तक
स्थिति का
संबंध है, उसमें
कुछ भी नहीं
किया जा सकता
था, उसमें
सिर्फ
होशपूर्ण हुआ
जा सकता था।
जो हो रहा था
वह हो रहा था, उसमें केवल बोध
पूर्ण हुआ जा
सकता था।
जहां
तक दुर्घटना
के वर्तमान
क्षण का संबंध
है,
उसमें कुछ
भी नहीं किया
जा सकता है।
वह तुम्हारे
बस के बाहर की
चीज है, मन
उसके लिए
तैयार नहीं है।
मन उसमें काम
नहीं कर सकता, इसलिए ठहर
जाता है। यही
कारण है कि
खतरों में एक
गुह्म आकर्षण
है,
अंतर्निहित
आकर्षण है। वे
दरअसल ध्यान
के क्षण हैं।
यदि
तुम कार दौड़ा
रहे हो और वह
नब्बे मील से
आगे की रफ्तार
पकड़ लेती है, फिर
सौ की, एक
सौ दस और एक सौ
बीस की रफ्तार
पकड़ लेती है, तब एक
स्थिति आती है,
जिसमें कुछ
भी हो सकता है
और तुम. रोक
नहीं सकते।
कार अब
नियंत्रण के
बाहर होती जा
रही है। अचानक
मन पाता है कि
वह कुछ नहीं
कर सकता है, वह उसके लिए
तैयार नहीं है।
तीव्र गति का
यही रोमांच है;
क्योंकि उस
क्षण चुपचाप
एक मौन घटित
होता है और
तुम अपने
केंद्र पर
पहुंच जाते हो।
ये
विधियां किसी
दुर्घटना के
बिना, किसी
खतरे के बिना
तुम्हें
तुम्हारे
केंद्र पर ले
जाने में मदद
करती हैं।
लेकिन ध्यान
रहे कि तुम
उनका अभ्यास
नहीं कर सकते
हो। जब मैं
कहता हूं कि
तुम अभ्यास
नहीं कर सकते
हो तो मेरा
क्या मतलब है?
एक तरह से
तुम अभ्यास कर
सकते हो; तुम
एकाएक ठहर
सकते हो।
लेकिन यह
ठहरना एकाएक
ही हो।
तुम्हें उसका
अभ्यास नहीं
करना है।
तुम्हें उसके
बारे में
सोचना या
आयोजन नहीं करना
है कि बारह
बजे मैं ठहर
जाऊंगा। जब
तुम उसके लिए
तैयार नहीं हो,
अज्ञात को
घटित होने दो।
अनजाने ही
अज्ञात में
प्रवेश करो।
यह एक विधि
है : 'जैसे ही
कुछ करने की
वृत्ति हो, रुक जाओ।’
यह
एक आयाम है।
जैसे, तुम्हें
छींक आ रही है।
तुम्हें लगता
है कि अब तुम
छींकने—छींकने
को हो, एक
क्षण और, और
छींक आ जाएगी;
तब मैं कुछ
न कर सकूंगा।
लेकिन छींकने
की वृत्ति के
पहले एहसास के
साथ ही, जब
उसकी पहली—पहली
आहट सुनाई पड़े,
तभी ठहर जाओ।
तुम
क्या कर सकते
हो?
क्या छींक
को रोक सकते
हो?
अगर
तुम छींक को
रोकने की
कोशिश करोगे
तो वह और
जल्दी आएगी; क्योंकि
रोकने की
चेष्टा
तुम्हें सचेत
कर देगी और
छींक की
उत्तेजना को
बढ़ा देगी। तुम
ज्यादा
संवेदनशील हो
जाओगे, तुम्हारा
पूरा अवधान
वहीं इकट्ठा
हो जाएगा, और
उसी अवधान के
कारण छींक
जल्दी घटित हो
जाएगी। वह
असह्य हो
जाएगी।
तुम
सीधे—सीधे
छींक को नहीं
रोक सकते; लेकिन
तुम अपने को
रोक सकते हो।
क्या कर सकते
हो? तुम्हें
एहसास होता है
कि छींक आ रही
है—ठहर जाओ।
छींक को रोकने
की कोशिश मत
करो; बस
तुम स्वयं रुक
जाओं। कुछ मत
करो। पूरी तरह
अचल रहो, जिसमें
श्वास का आना—जाना
भी न हो।
क्षणभर के लिए
बिलकुल ठहर
जाओ। और तुम
देखोगे कि
छींकने की
वृत्ति वापस
लौट गई, खतम
हो गई। और
वृत्ति के
जाने के साथ
ही तुम्हारे
भीतर कोई
सूक्ष्म
ऊर्जा मुक्त
होकर तुम्हें
केंद्र पर ले
जाती है।
छींकने
के साथ या
किसी भी
वृत्ति के साथ
तुम्हारी कुछ
ऊर्जा बाहर
जाती है।
वृत्ति का अर्थ
है कि
तुम्हारी कुछ
ऊर्जा भारी हो
गई है और तुम
उसका कोई
उपयोग नहीं कर
सकते हो। वह
ऊर्जा तुम में
जज्ब भी नहीं
हो सकती; वह
सिर्फ बाहर जाना
चाहती है,
निकास चाहता
है।
तुम्हें
राहत की जरूरत
है। और यही
कारण है कि
छींकने के बाद
तुम अच्छा अनुभव
करते हो—एक
सूक्ष्म सुख
की अनुभूति। क्या
हुआ? कुछ भी नहीं, तुमने कुछ
उर्जा बाहर
फेंक दी है जो
व्यर्थ थी, फालतू थी, बोझ थी।
इसलिए उसके
निकल पर तुम
राहत अनुभव
करते हो। तब
तुम्हें अपने
भीतर एक
सूक्ष्म
विश्राम की अनुभूति
होती है।
यही
वजह है कि
पावलफ और बी.
एफ स्कीनर
जैसे शरीरशास्त्री
कहते हैं कि
सेक्स भी
छींकने जैसा है।
वे कहते हैं
कि
शरीरशास्त्र
की दृष्टि से
उनमें कोई
फर्क नहीं है; सेक्स
छींकने जैसा
ही है। तुम
किसी ऊर्जा से
बोझिल हो गए
हो और तुम उसे
फेंकना चाहते
हो। और उसे
फेंकने के बाद
तुम्हारा
शरीर—तंत्र
विश्राम में
चला जाता है; तुम निर्भार
हो जाते हो और
अच्छा अनुभव
करते हो।
शरीरशास्त्री
कहते हैं कि
यह अच्छा लगना
महज निकास है।
और
शरीरशास्त्री
ठीक कहता है।
शरीरशास्त्री
सही है।
तो
जब भी तुम्हें
कोई वृत्ति
पैदा हो, उदाहरण
के लिए कुछ
करने की
वृत्ति, तो
रुक जाओ। न
सिर्फ
शारीरिक
वृत्ति, कोई
भी वृत्ति इस
काम के लिए
उपयोग की जा
सकती है।
उदाहरण के लिए,
तुम पानी
पीने जा रहे
हो। तुमने
गिलास को हाथ
में लिया है—वही
एकाएक रुक जाओ।
हाथ वहीं है, पीने की
इच्छा भी वहीं
है, प्यास
भी वहीं है—लेकिन
तुम बिलकुल
रुक जाओ।
गिलास बाहर है,
प्यास भीतर
है; हाथों
में गिलास है;
गिलास पर आंखें
हैं; अचानक
ठहर जाओ। न
श्वास, न
गति—मानो तुम
मर गए। तब वही
वृत्ति, वही
प्यास ऊर्जा
को मुक्त कर
देगी, और
वह मुक्त
ऊर्जा
तुम्हें
तुम्हारे
केंद्र पर
पहुंचा देगी।
क्यों? क्योंकि
वृत्ति सदा
बाहर जाती है।
स्मरण रहे, वृत्ति का
मतलब ही है
बाहर जाती हुई
ऊर्जा।
एक
और बात खयाल
में रख लो कि
ऊर्जा सदा
गतिमान रहती
है। या तो वह
बाहर जाती है
या भीतर आती
है;
ऊर्जा कभी ठहराव
में नहीं होती
है। ये नियम
हैं। और यदि
तुमने नियमों
को समझा तो इस
विधि का सूत्र
पकड़ में आ
जाएगा। ऊर्जा
सदा गति है।
वह या तो बाहर
जाती है या
भीतर; पर
वह कभी अगति
में नहीं होती।
वह अगर अगति
में है तो वह
ऊर्जा ही नहीं
है। और ऐसा
कुछ भी नहीं
है जो ऊर्जा नहीं
है। इसलिए
प्रत्येक चीज
कहीं न कहीं
गति कर रही है।
तो
जब कोई वृत्ति
तुम में पैदा
होती है तो
उसका मतलब है
कि ऊर्जा बाहर
जा रही है।
इसी से
तुम्हारा हाथ
गिलास पर चला
जाता है। तुम
बाहर गए। कुछ
करने की इच्छा
पैदा हुई। सब
सक्रियता गति
है— भीतर से
बाहर की ओर। जब
तुम अचानक ठहर
जाते हो तो
तुम्हारे साथ
ऊर्जा नहीं
ठहरती है। तुम
अगति में हो; लेकिन
ऊर्जा अगति
में नहीं हो
सकती। और जिस
यंत्र के
द्वारा वह
बाहर गति करती
थी, वह मरा
नहीं है, मात्र
ठहर गया है।
तो ऊर्जा क्या
करे? वह
भीतर जाने के
सिवाय और कुछ
भी नहीं कर
सकती। ऊर्जा
स्थिर नहीं रह
सकती। वह बाहर
जा रही थी।
तुम रुक गए और
यंत्र भी रुक
गया। लेकिन जो
यंत्र उसे
केंद्र पर ले
जा सकता है वह
मौजूद है। अब
वह ऊर्जा भीतर
की ओर गति
करेगी।
और
तुम क्षण—
क्षण जाने—अनजाने
अपनी ऊर्जा को
रूपांतरित कर
रहे हो, उसके
आयाम को बदल
रहे हो। तुम
क्रोध में हो;
तुम किसी को
मारना चाहते
हो, कोई
चीज नष्ट करना
चाहते हो, या
कुछ हिंसा
करना चाहते हो।
इस। क्षण एक
प्रयोग करो।
किसी मित्र को,
अपनी पत्नी
को या अपने
किसी बच्चे को
प्रेम करने
लगो। उसे चूमो,
उसे गले
लगाओ। तुम गुस्से
में थे, तुम
किसी को
मिटाने जा रहे
थे; तुम
हिंसा पर
उतारू थे।
तुम्हारा
चित्त
विध्वंस के
लिए तत्पर था;
तुम्हारी
ऊर्जा हिंसा
की ओर गति कर
रही थी। और
तभी तुम किसी
की अचानक और
तुरंत प्रेम
करने लगते हो।
शुरू
में तुम्हें
लगेगा, यह तो
अभिनय जैसा है।
तुम्हें
आश्चर्य होगा
कि मैं प्रेम
कैसे कर सकता
हूं मैं तो
अभी क्रोध में
हूं। लेकिन
तुम मन के
यंत्र को नहीं
समझते हो। इसी
क्षण तुम गहरे
प्रेम में उतर
सकते हो।
क्योंकि
ऊर्जा जाग गई
है, वह उस
बिंदु पर
पहुंच गई है
जहां उसे
अभिव्यक्ति
चाहिए। ऊर्जा
को गति करने
की जरूरत है।
अगर इसी क्षण
तुम किसी को
प्रेम करने
लगो तो ऊर्जा
प्रेम में
प्रविष्ट हो जाएगी।
और तुम्हें
ऊर्जा का वह
प्रवाह
अभिभूत कर देगा
जिसका अनुभव
संभवत:
तुम्हें पहले
कभी नहीं हुआ
होगा।
ऐसे
लोग हैं जो
क्रोध और
हिंसा में
उतरे बिना प्रेम
में नहीं उतर
सकते। ऐसे लोग
हैं जो गहरे
प्रेम में तभी
उतर सकते हैं
जब उनकी ऊर्जा
हिंसात्मक हो
उठती है।
तुमने ध्यान
भला न दिया हो, लेकिन
ऐसा रोज होता
है। स्त्री—पुरुष
संभोग में
उतरने के पहले
लडाई—झगड़ा
करते हैं। पति—पत्नी
पहले क्रोध
करते हैं, लड़ाई—झगड़े
और हिंसा में
उतरते हैं, और तब संभोग
में। और
उन्हें पता भी
नहीं होता कि
वे क्या कर
रहे हैं। हो
सकता है, यह
उनकी
यांत्रिक आदत
बन गई हो।
लेकिन प्रेम
करने से पहले
वे लड़ते जरूर
हैं। और जिस
दिन लड़ाई—झगड़ा
नहीं होता, प्रेम भी
असंभव हो जाता
है।
भारत
के गांवों में
ऐसी बात खासकर
होती है। यहां
पत्नी को
पीटना आम बात
है। और अगर
कोई पति पत्नी
को पीटना बंद
कर दे तो समझा
जाएगा कि उसने
प्रेम करना
बंद कर दिया
है। पत्नियां
भी यह जानती
हैं कि अगर
पति उनकी तरफ
बिलकुल
अहिंसक हो गए
हैं तो उनका
प्रेम समाप्त
हो गया है।
उनका न लड़ना
बताता है कि
अब उनके बीच
प्रेम नहीं
रहा। ऐसा
क्यों है? लड़ाई—झगड़ा
और प्रेम इतने
जुड़े हुए
क्यों हैं?
ऐसा
इसलिए है कि
एक ही ऊर्जा
भिन्न—भिन्न
आयामों में
गति कर सकती
है,
और करती है।
तुम इसे प्रेम
कह सकते हो या
घृणा कह सकते
हो। वे परस्पर
विरोधी दिखते
हैं, लेकिन
हैं नहीं।
क्योंकि एक ही
ऊर्जा का खेल
है। जो आदमी
भयानक रूप से
क्रोध नहीं कर
सकता, वह
उस प्रेम के
लिए बेकार हो
जाता है जिसे
तुम प्रेम
समझते हो।
बुद्ध
भी प्रेम करते
हैं;
लेकिन वह
सर्वथा भिन्न
प्रेम है।
इसीलिए बुद्ध
उसे करुणा
कहते हैं; वे
उसे कभी प्रेम
नहीं कहते। वह
करुणा से अधिक
मिलता—जुलता
है, तुम्हारे
प्रेम से कम; क्योंकि
तुम्हारे
प्रेम में
घृणा, क्रोध,
हिंसा सब
निहित है।
तो
ऊर्जा गति
करती है; वह
अपनी दिशा बदल
सकती है। एक
ही ऊर्जा घृणा
बन जाती है, और वही
प्रेम बन जाती
है। और वही
ऊर्जा भीतर की
ओर गति कर
सकती है।
इसलिए जब भी
कुछ करने की
वृत्ति पैदा
हो तो रुक जाओ।
यह दमन नहीं
है। तुम किसी
चीज का दमन
नहीं कर रहे
हो, तुम
सिर्फ ऊर्जा
के साथ खेल
रहे हो। तुम
उसके रंग—ढंग
को समझ रहे हो;
समझ रहे हो
कि वह भीतर
कैसे काम करती
है।
लेकिन
ध्यान रहे, वृत्ति
सच्ची और
प्रामाणिक हो,
अन्यथा कुछ
भी नहीं होगा।
उदाहरण के लिए,
तुम्हें
प्यास नहीं है,
तुम गिलास
की ओर हाथ
बढ़ाते हो और
अचानक रुक जाते
हो। इसमें कुछ
नहीं होगा।
वहां कुछ होने
को नहीं है, वहा ऊर्जा
गतिमान ही
नहीं है।
तुम
अपनी पत्नी या
अपने पति या
मित्र के
प्रति प्रेम
अनुभव करते हो, तुम
उसे गले लगाना
चाहते हो—वहीं
रूक जाओ।
लेकिन इस वृति
को प्रामाणिक
होना चाहिए।
अगर भाव नहीं
हो और तुम
किसी की
सांत्वना के लिए
उसे चूमना
चाहते हो कि
उसे इसकी
अपेक्षा थी और
तब रुक जाते
हो, तो कुछ
भी नहीं होगा।
इसलिए कुछ
नहीं होगा
क्योंकि भीतर
में ऊर्जा गतिमान
नहीं हुई थी।
इसलिए
पहली बात याद
रखो कि वृत्ति
को प्रामाणिक, वास्तविक
होना चाहिए।
वास्तविक
वृत्ति के साथ
ही ऊर्जा गति
करती है। और
जब एक
वास्तविक
वृत्ति के साथ
ऊर्जा गति करती
है, और जब
एक वास्तविक
वृत्ति अचानक
रुकती है, तो
ऊर्जा भी
स्थगित हो
जाती है। और
जब ऊर्जा को
बाहर जाने का
मार्ग नहीं
मिलता तब वह
भीतर मुड जाती
है। उसे गति
करना ही है, वह स्थिर
नहीं रह सकती।
लेकिन
हम इतने झूठे
हैं कि कुछ भी
वास्तविक नहीं
मालूम पड़ता।
तुम घड़ी देखकर, समय
देखकर भोजन
करते हो, भूख
देखकर भोजन
नहीं करते।
ऐसे भोजन के
पहले रुकने से
कुछ नहीं होगा।
क्योंकि भूख
नहीं थी, भूख
की वृत्ति
नहीं थी। वहां
ऊर्जा गति
नहीं करती थी।
तुम अगर एक
बजे भोजन लेते
हो तो एक बजे
तुम्हें भूख
महसूस होगी।
लेकिन यह भूख
झूठी है, यह
महज यांत्रिक
आदत है—मृत
आदत।
तुम्हारा
शरीर भूखा
नहीं है। इस
वक्त यदि तुम
कुछ न खाओ तो
तुम्हें कुछ
कमी महसूस
होगी। लेकिन
अगर एक घंटा
बिना खाए रह
गए तो भूख
विदा हो जाएगी।
सच्ची भूख तो
बढ़नी चाहिए।
अगर भूख सच्ची
हो तो दो बजे
तुम्हें
ज्यादा लगेगी।
अगर भूख झूठी
हो तो दो बजे
तुम उसे
बिलकुल भूल जाओगे।
यथार्थ में दो
बजे भूख नहीं
रहेगी। यदि
तुम कुछ खाना
भी चाहो तो
भूख नहीं
मालूम होगी।
यह झूठी और
यांत्रिक भूख
थी। उसमें
ऊर्जा की गति
नहीं थी, सिर्फ
मन कहता था कि
खाने का समय
हो गया है।
वैसे
ही अगर
तुम्हें नींद
लग रही हो तो
रुक जाओ।
लेकिन नींद
सच्ची होनी
चाहिए। यही
समस्या है। और
हमारे लिए यही
समस्या है।
शिव के समय
ऐसा नहीं था।
जब विज्ञान
भैरव तंत्र का
उपदेश पहले
पहल दिया गया
था तो ऐसा
नहीं था।
मनुष्य
प्रामाणिक था; मनुष्यता
सच्ची थी, शुद्ध
थी। उसके साथ
कुछ भी झूठा
नहीं था।
हमारे साथ सब
कुछ झूठा है।
तुम प्रेम का
ढोंग करते हो;
तुम क्रोध
का भी ढोंग
करते हो। और
ढोंग करते—करते
तुम भूल जाते
हो कि यह ढोंग
है या सच। तुम्हारे
भीतर जो है, तुम उसे कभी
नहीं कहते, कभी नहीं
व्यक्त कुरते;
तुम उसे
व्यक्त करते
हो जो नहीं है।
तुम
अपना
निरीक्षण करो, और
तुम यही पाओगे।
तुम कहते एक
बात हो और
सोचते बिलकुल
दूसरी बात हो।
तुम बिलकुल
दूसरी बात
कहना चाहते थे;
लेकिन अगर
तुम सच बोल दो
तो तुम किसी
काम के न
रहोगे। कारण
यह है कि
समूचा समाज
झूठा है, और
एक झूठे समाज
में तुम झूठे
होकर ही रह
सकते हो।
जितने तुम
समाज से
समायोजित
होगे उतने ही
झूठे हो जाओगे।
और अगर सच्चे
होना चाहोगे
तो समाज के
साथ ताल—मेल
नहीं होगा।
तुम उखड़े—उखड़े
रहोगे।
यही
कारण है कि संन्यास
का जन्म हुआ।
वह झूठे समाज
के कारण आया।
बुद्ध को समाज
का त्याग
इसलिए नहीं
करना पड़ा कि
उसका कोई अपने
में अर्थ था।
उसका सिर्फ
निषेधात्मक
उपयोग था।
झूठे समाज के
साथ तुम सच्चे
नहीं रह सकते।
और यदि रहो तो
कदम—कदम पर
उसके साथ
अनावश्यक
संघर्ष करना
होगा। उससे
ऊर्जा नष्ट
होती है। झूठे
को छोड़ो ताकि
तुम सच्चे हो
सको,
सब संन्यास
का बुनियादी
कारण यही था।
अपना
निरीक्षण करो
कि तुम कितने
झूठे हो। अपने
दोहरे मन को
देखो। तुम
कहते एक बात
हो और सोचते
बिलकुल
विपरीत बात हो।
साथ ही साथ
तुम मन में
कुछ कह रहे हो
और बाहर कुछ
और बोल रहे हो।
ऐसी
किसी झूठी
वृत्ति के साथ
ठहरने से यह
विधि काम न
करेगी। अपने
बाबत कुछ
प्रामाणिक
खोजो, और उसके
साथ ठहरने का
प्रयोग करो।
सब कुछ झूठ
नहीं हो गया
है; बहुत
चीजें अभी भी
वास्तविक हैं।
सौभाग्य से
कभी—कभी
प्रत्येक
व्यक्ति
वास्तविक
होता है, किसी—किसी
क्षण में
प्रत्येक
व्यक्ति
प्रामाणिक होता
है। तब रुको।
तुम
क्रोध में हो, और
जानते हो कि
क्रोध सच्चा
है। तुम किसी
को नष्ट करने
जा रहे हो या
अपने बच्चे को
पीटने जा रहे
हो। वहां रुको।
लेकिन किसी
प्रयोजन से
नहीं। मत कहो
कि क्रोध करना
बुरा है, इसलिए
मैं रुकता हूं।
किसी मानसिक
सोच—विचार की
जरूरत नहीं है।
सोच—विचार से
ऊर्जा उसमें
ही लग जाती है।
यह भीतरी
व्यवस्था है।
अगर तुम कहते
हो कि मुझे
बच्चे को नहीं
मारना चाहिए,
क्योंकि
इससे उसका कोई
लाभ नहीं होने
जा रहा है, और
इससे मेरा लाभ
भी नहीं होगा,
यह व्यर्थ
है, किसी
काम का नहीं
है, तो जो
ऊर्जा क्रोध
बनने जा रही
थी, वह सोच—विचार
बन जाएगी। जब
तुम सारी चीज
पर विचार कर
लोगे तो क्रोध
की ऊर्जा उतर
जाएगी और सोच—विचार
में प्रवेश कर
जाएगी। उस
अवस्था में
रुकने पर गति
करने के लिए
ऊर्जा नहीं
रहती है। जब
तुम क्रोध में
हो तो विचार
मत करो। यह मत
कहो कि भला है
या बुरा। कुछ
विचार ही मत
करो। एकाएक
विधि को स्मरण
करो और रुक
जाओ।
क्रोध
शुद्ध ऊर्जा
है—न बुरा है न
भला। क्रोध
भला भी हो
सकता है और
बुरा भी—यह
उसके परिणाम
पर निर्भर है, ऊर्जा
पर नहीं। यह
बुरा हो सकता
है, अगर यह
बाहर जाए और
किसी को नष्ट
करे, अगर
यह विध्वंसक
हो जाए। वही
क्रोध सुंदर
समाधि में
परिणत हो सकता
है, अगर वह
भीतर मुड़ जाए
और वह तुम्हें
तुम्हारे केंद्र
पर फेंक दे।
तब वह फूल बन
जाएगा। ऊर्जा
मात्र ऊर्जा
है—स्वच्छ, निर्दोष, तटस्थ।
तो
विचार मत करो।
अगर तुम कुछ
करने जा रहे
हो तो सोचो मत; केवल
ठहर जाओ और
ठहरे रहो। उस
ठहरने में
तुम्हें
केंद्र की झलक
मिलेगी। तुम
परिधि को भूल
जाओगे और
तुम्हें
केंद्र दिखने
लगेगा।
'जैसे ही कुछ
करने की
वृत्ति हो, रुक जाओ।’
इसका
प्रयोग करो।
इस संबंध में
तीन बातें
स्मरण रखो। एक, प्रयोग
तभी करो जब
वृत्ति वास्तविक
हो। दो, रुकने
के संबंध में
विचार मत करो,
बस रुक जाओ।
तीन, प्रतीक्षा
करो। जब तुम
ठहर गए तो
श्वास न चले, कोई गति न हो—बस
प्रतीक्षा
करो कि क्या
होता है। कोई
चेष्टा न हो।
जब
मैं कहता हूं
कि प्रतीक्षा
करो तो उससे
मेरा मतलब है
कि आंतरिक
केंद्र के
संबंध में
विचार करने की
चेष्टा मत करो।
यदि चेष्टा की
तो फिर चूक
जाओगे।
केंद्र की मत
सोचो। मत सोचो
कि अब झलक आने
को है। कुछ भी
मत सोचो।
मात्र
प्रतीक्षा
करो। वृत्ति
को,
ऊर्जा को
स्वयं गति
करने दो। अगर
तुम केंद्र और
आत्मा और
ब्रह्म के
बारे में
विचार करने
लगे तो ऊर्जा
उसी विचारणा
में लग जाएगी।
तुम
बहुत आसानी से
आंतरिक ऊर्जा
को गंवा सकते
हो। एक विचार
भी उसे गति
देने के लिए
काफी है। तब
तुम सोचते चले
जाओगे। जब मैं
कहता हूं कि
ठहर जाओ तो
उसका मतलब है
पूरी तरह, समग्ररूपेण
ठहर जाओ। कुछ
भी गति न हो—मानो
कि सारा जगत
ठहर गया है, कोई गति
नहीं है, केवल
तुम हो। उस
केवल
अस्तित्व में
अचानक केंद्र
का विस्फोट
होता है।
दूसरी
विधि:
जब कोई
कामना उठे उस
पर विमर्श करो।
फिर अचानक उसे
छोड़ दो।
यह पहली
विधि का ही
दूसरा आयाम है।
'जब कोई
कामना उठे, उस पर
विमर्श करो।
फिर, अचानक,
उसे छोड़ दो।’
तुम्हें
कोई इच्छा
होती है—चाहे
वह कामवासना
हो,
चाहे प्रेम
की इच्छा हो, चाहे भोजन
की इच्छा हो।
तुम्हें
इच्छा होती है
तो उस पर
विमर्श करो।
जब यह सूत्र
कहता है कि
विमर्श करो तो
उसका मतलब
होता है कि
उसके पक्ष या
विपक्ष में
विचार मत करो,
बल्कि देखो
कि वह इच्छा क्या
है।
मन
में कामवासना
पैदा होती है
और तुम कहते
हो कि यह बुरी
है। यह विमर्श
करना नहीं हुआ।
तुम्हें
सिखाया गया है
कि कामवासना
बुरी है।
इसलिए उसे
बुरा कहना
विमर्श नहीं
है। तुम
शास्त्रों से
पूछ रहे हो।
तुम अतीत से
पूछ रहे हो।
तुम गुरुओं और
ऋषियों से पूछ
रहे हो। तुम
स्वयं कामना
पर विमर्श
नहीं कर रहे
हो। तुम किसी
और चीज पर
विमर्श कर रहे
हो। हो सकता
है,
वह
तुम्हारा
संस्कार हो, तुम्हारे
पालन—पोषण की
शैली हो, तुम्हारी
शिक्षा हो, तुम्हारी
संस्कृति हो,
तुम्हारा
धर्म हो। तुम
उन पर विचार
कर रहे हो, कामना
पर विमर्श नहीं।
यह
सीधी सी चाह
पैदा हुई है।
इसमें मन को
मत बीच में
लाओ। अतीत को, शिक्षा
को, संस्कार
को मत बीच में
लाओ। केवल इस
चाह पर विमर्श
करो कि यह
क्या है। अगर
वह सब
तुम्हारी
खोपड़ी से
बिलकुल पोंछ
दिया जाए जो
तुम्हें
तुम्हारे
समाज से, मां—बाप
से, शिक्षा
और संस्कृति
से मिला है, अगर
तुम्हारा मन
पोंछकर अलग कर
दिया जाए तो
भी कामवासना
पैदा होगी।
क्योंकि यह
वासना
तुम्हें समाज
से नहीं मिलती
है। यह वासना
जैविक रूप से
तुम में बिल्ट
इन है। वह तुम
में ही है।
उदाहरण
के लिए, एक
नवजात शिशु को
लो। यदि उसे
कोई भाषा न
सिखायी जाए तो
वह भाषा नहीं
जानेगा, भाषा
के बिना रहेगा।
भाषा एक
सामाजिक घटना
है; वह
सिखायी जाती
है। लेकिन जब
ठीक समय आएगा
तो इस बच्चे
को भी कामवासना
उठेगी।
कामवासना
सामाजिक घटना
नहीं है; वह
जैविक रूप से
बिल्ट इन है।
सही और प्रौढ़
क्षण आने पर
वह पैदा होगी,
वह आएगी। वह
सामाजिक नहीं
है, जैविक
है और गहरी है।
वह तुम्हारी
कोशिकाओं में
ही बिल्ट इन
है।
तुम्हारा
जन्म
कामवासना से
हुआ है, इसलिए
तुम्हारे
शरीर की
प्रत्येक
कोशिका काम—कोशिका
है। तुम काम—कोशिकाओं
से बने हो! जब
तक तुम्हारी
बायोलाजी पूरी
तरह न
मिटा
दी जाए तब तक
कामवासना रहेगी।
वह आएगी ही; क्योंकि
वह है ही।
कामवासना
बच्चे के जन्म
के साथ—साथ
आती है, क्योंकि
बच्चा मैथुन
की उप—उत्पत्ति
है। वह
कामवासना से
ही पैदा होता
है। उसका
समूचा शरीर
काम—कोशिकाओं
से बना है।
वासना मौजूद
है; सिर्फ
समय की जरूरत
है। जब उसका
शरीर प्रौढ़
होगा तो वासना
आएगी, और
वह उसमें
जाएगा। चाहे
कोई तुम्हें
सिखाए या न
सिखाए कि
कामवासना
बुरी है, कि
कामवासना
अच्छी है, कि
यह नरक है या
स्वर्ग है, यह है या वह
है, कामवासना
सदा मौजूद है।
पुरानी
परंपराएं, पुराने
धर्म, खासकर
ईसाइयत
कामवासना के
खिलाफ जोरदार
प्रचार करती
है। यिप्पी और
हिप्पी और
अन्य नए
संप्रदाय
इसके विपरीत आंदोलन
चला रहे हैं।
वे कहते हैं
कि कामवासना
शुभ है, कि
कामवासना में
परम सुख है।
वे कहते हैं
कि संसार में
कामवासना ही
असली चीज है।
उसे
अशुभ कहो या
शुभ,
दोनों ही
सिखावन हैं।
किसी सिखावन
के मुताबिक
अपनी चाह का विचार
मत करो। कामना
पर, उसकी
शुद्धि में, वह जैसी है, एक तथ्य की
तरह विमर्श
करो। उसकी
व्याख्या मत
करो। यहां
विमर्श का
मतलब
व्याख्या
नहीं है, तथ्य
को तथ्य की
तरह देखना है।
चाह है, उसे
सीधा और
प्रत्यक्ष
देखो।
विचारों और
धारणाओं को
बीच में मत लो।
कोई विचार
तुम्हारा
नहीं है; कोई
धारणा
तुम्हारी
नहीं है। हर
चीज तुम्हें
दी गई है; हर
धारणा उधार है।
कोई विचार
मौलिक नहीं है,
कोई विचार
मौलिक नहीं हो
सकता। इसलिए
विचार को बीच
में मत लो।
सिर्फ कामना
को देखो कि वह
क्या है। ऐसे
देखो जैसे कि
तुम्हें उसके
संबंध में कुछ
भी पता नहीं
है। उसका
साक्षात्कार
करो। विमर्श
का अर्थ यही
है।
'जब कोई
कामना उठे, उस पर
विमर्श करो।’
उसे
तथ्य की तरह
देखो; देखो कि
वह क्या है।
दुर्भाग्य से
यह सर्वाधिक
कठिन कामों
में से एक है।
इसके मुकाबले
चांद पर जाना
कठिन नहीं है,
गौरीशंकर
पर पहुंचना
कठिन नहीं है।
चांद पर
पहुंचना बहुत
जटिल है, अत्यंत
जटिल, लेकिन
आंतरिक मन के
किसी तथ्य के
साथ जीने की
बात के सामने
चांद पर
पहुंचना कुछ
भी नहीं है।
क्योंकि तुम
जो भी करते हो
उसमें मन बहुत
सूक्ष्म रूप
से संलग्न
रहता है। मन
उसमें सदा
समाया रहता है,
उलझा रहता
है।
इस
शब्द को देखो, ज्यों
ही मैंने कहा
कामवासना या
संभोग कि तुम तुरंत
उसके पक्ष या
विपक्ष में
कुछ निर्णय ले
लेते हो। जिस
क्षण मैंने
कहा संभोग कि
तुम ने
व्याख्या कर
ली। तुम कहते
हो, यह भला
है या यह बुरा
है। तुम शब्द
की भी
व्याख्या कर
लेते हो।
जब
'संभोग से
समाधि की ओर' पुस्तक
प्रकाशित हुई
तो बहुत से
लोग मेरे पास आए।
उन्होंने कहा
कि कृपा कर यह
नाम 'संभोग
से समाधि की
ओर' बदल
दीजिए। संभोग
शब्द से ही वे
घबड़ा जाते हैं।
उन्होंने
किताब भी नहीं
पढ़ी। और वे भी
नाम बदलने को
कहते हैं
जिन्होंने किताब
नहीं पढी है।
क्यों?
यह
शब्द ही तुम्हारे
भीतर
व्याख्या को
जन्म दे देता
है। मन ऐसा
व्याख्याकार
है कि अगर
मैंने कहा कि
नीबू का रस तो
तुम्हारी लार
टपकने लगती है।
तुमने शब्दों
की व्याख्या
कर ली।’नीबू
का रस' इन
शब्दों में
नीबू जैसी कोई
चीज नहीं है, लेकिन
तुम्हारी लार
बहने लगी। अगर
मैं कुछ क्षणों
के लिए रुक
जाऊं तो तुम
मुश्किल में
पड़ जाओगे।
तुम्हें लार
को निगलना
पड़ेगा। क्या
हुआ? मन ने
व्याख्या कर
ली; मन बीच
में आ गया।
जब
शब्दों से भी
तुम तटस्थ
नहीं रह सकते, तुम
व्याख्या किए
बिना नहीं रह
सकते, उस
समय क्या जब
कोई इच्छा
उठेगी? इच्छा
से अलग रहना, उसका निष्पक्ष
निरीक्षक
होना, मौन
और शांत होकर
व्याख्या के
बिना उसे
देखना तो बहुत
कठिन होगा।
मैं
कहता हूं 'यह
आदमी मुसलमान
है।’ जिस
क्षण मैं कहता
हूं कि यह
आदमी मुसलमान
है, हिंदू
सोच लेता है
कि यह आदमी
बुरा है। अगर
मैं कहूं कि
यह आदमी यहूदी
है तो ईसाई
निर्णय ले
लेगा कि यह
आदमी अच्छा
नहीं है।
यहूदी शब्द
सुनकर ही ईसाई
मन व्याख्या
कर लेता है; परंपरागत
धारणाएं, दकियानूसी
विचार उभरकर
ऊपर चले आते
हैं। कोई इस
यहूदी का
विचार नहीं
करेगा; एक
पुरानी
व्याख्या उस
पर लाद दी
जाएगी।
प्रत्येक
यहूदी भिन्न
है,
प्रत्येक
हिंदू भिन्न
है और अनूठा
व्यक्ति है।
तुम किसी
हिंदू की
व्याख्या
सिर्फ इसीलिए
नहीं कर सकते
क्योंकि तुम
और हिंदुओं को
जानते हो। तुम
यह निर्णय ले
सकते हो कि
जिन हिंदुओं
को मैं जानता
हूं वे सभी
बुरे हैं। तब
भी तुम इस
हिंदू को नहीं
जानते हो; यह
तुम्हारे
अनुभव में
नहीं आया है।
तुम अपने अतीत
के अनुभव के
आधार पर इस
हिंदू की
व्याख्या कर
रहे हो।
व्याख्या
मत करो।
व्याख्या
विमर्श नहीं
है। विमर्श का
अर्थ है कि
केवल इस तथ्य
पर विमर्श करो, केवल
इस तथ्य पर, इस तथ्य के
साथ जीओ।
ऋषियों ने कहा
है कि
कामवासना
बुरी है। हो
सकता है कि
उनके लिए बुरी
रही हो, लेकिन
तुम तो नहीं
जानते हो।
तुममें
कामवासना है,
और वह
कामवासना अभी
है। तुम उस पर
विमर्श करो, उस पर आंखें
गड़ाओ, पर
अवधान दो।
'फिर अचानक, उसे छोड़ दो।’
इस
विधि के दो
हिस्से हैं।
पहला कि तथ्य
के साथ रहो, जो
हो रहा है
उसके प्रति
सजग रहो, अवधानपूर्ण
रहो। देखो कि
जब कामवासना
पकड़ती है तो
तुम्हारे भीतर
क्या—क्या
घटित होता है।
तुम्हारा
शरीर
ज्वरग्रस्त
हो जाता है, कांपने लगता
है। तुम्हें
लगता है कि
कोई
विक्षिप्तता
तुम में प्रवेश
कर रही है।
तुम्हें लगता
है कि तुम
किसी से
आविष्ट हो।
इसको अनुभव
करो, इस पर
विमर्श करो, कोई निर्णय
न लो। सीधे
तथ्य में
प्रवेश करो।
यह मत कहो कि
यह बुरा है।
अगर बुरा कहा
तो विमर्श
समाप्त हो गया,
तुम ने
द्वार बंद कर
दिया। अब
कामवासना की
ओर तुम्हारी
पीठ है, मुंह
नहीं। तुम
उससे दूर सरक
गए। ऐसे तुम
ने एक गहरा और
कीमती क्षण
गंवा दिया, जिसमें तुम
अपने जीवन की
एक जैविक पर्त
का दर्शन कर
सकते थे।
तुम
अभी जिस पर्त
से परिचित हो
वह सामाजिक
पर्त है, और
तुम उससे ही
चिपके हो। वह
सतही है।
कामवासना
तुम्हारे
शास्त्रों से
गहरी है; क्योंकि
वह जैविक है।
अगर सभी
शास्त्र नष्ट
कर दिए जाएं—ऐसा
हो सकता है, ऐसा कई बार
हुआ है—तो
तुम्हारी
व्याख्या खो
जाएगी। लेकिन
कामवासना तब
भी रहेगी; वह
ज्यादा गहरी
है।
सतही
चीजों को बीच
में मत लाओ।
तथ्य पर अवधान
दो,
उसमें
प्रवेश करो, और देखो कि
तुम्हें क्या
हो रहा है।
किसी ऋषि
विशेष को, मोहम्मद
और महावीर को
क्या हुआ, वह
प्रासंगिक
नहीं है। इस
क्षण तुम्हें
क्या हो रहा
है, इस
जीवंत क्षण
में जो हो रहा
है, वह प्रासंगिक
है। उस पर
विमर्श करो, उसका ही
निरीक्षण करो।
और
अब दूसरा
हिस्सा; यह
सचमुच अदभुत
है।
शिव
कहते है 'फिर, अचानक, छोड़
दो।'
यहां
'अचानक' को
याद रखो। यह
मत कहो कि यह
खराब है, इसलिए
छोड़ रहा हूं।
यह मत कहो कि
यह खराब है, इसलिए इसे
नहीं रखूंगा।
यह मत कहो कि
यह बुरा है, यह पाप है, इसलिए इसके
साथ गति नहीं
करूंगा, मैं
इसे त्याग
दूंगा, मैं
इसका दमन कर
दूंगा। तब तो
दमन घटित होगा,
ध्यान नहीं
घटित होगा। और
दमन अपने ही
हाथों अपना एक
अमित चित्त
निर्मित करना
है।
दमन
मनोवैज्ञानिक
प्रक्रिया है; उसके
द्वारा तुम
समूचे यंत्र
को उपद्रव में
डाल रहे हो और
उन ऊर्जाओं को
दबा रहे हो जो
किसी न किसी
दिन फूटकर
बाहर आएंगी।
ऊर्जा तो है
ही, सिर्फ
दमित हो गई है।
न इसे बाहर
जाने दिया गया
है और न भीतर; उसे सिर्फ
दमित कर दिया
गया है। वह
कोने—कातर में
छिप गई है, जहां
वह पड़ी रहेगी
और विकृत होगी।
और
स्मरण रहे, विकृत
ऊर्जा ही
मनुष्य की
बुनियादी
समस्या है। जो
मानसिक
रुग्णताएं
हैं, वे
विकृत ऊर्जा
की उप—उत्पत्ति
हैं। तब वह
ऊर्जा ऐसे
ढंगों में
अभिव्यक्त
होगी, जिसकी
कोई कल्पना
नहीं हो सकती।
और इन
विकृतियों
में भी वह फिर
अपने को अभिव्यक्त
करने की
चेष्टा करेगी।
और जब वह
विकृत रूप में
अभिव्यक्त
होती है तो बहुत
दुख और संताप
लाती है।
विकृत ऊर्जा
की
अभिव्यक्ति
से संतुष्टि
नहीं मिलती है।
और अड़चन यह है
कि तुम विकृत
नहीं रह सकते,
तुम्हें
विकृति को
अभिव्यक्ति
देनी होगी।
दमन विकृति
पैदा करता है।
इस सूत्र का
दमन से कुछ
लेना—देना
नहीं है। यह
सूत्र यह नहीं
कहता कि
नियंत्रण करो;
यह सूत्र
दमन की बात ही
नहीं करता है।
यह
सूत्र कहता
है. 'अचानक, छोड़
दो।’
तो
क्या किया जाए
भू: कामना है; कामना
पर तुमने
विमर्श किया
है। अगर कामना
पर तुमने
विमर्श किया
है तो दूसरा भाग
कठिन नहीं
होगा। तब यह
आसान होगा।
यदि विमर्श
नहीं किया है
तो तुम्हारे
मन में विचार
चलते रहेंगे।
मन कहेगा, यह
अच्छा है कि
कामवासना को
हम अचानक छोड़
दें।
तुम
छोड़ना चाहोगे।
लेकिन वह सवाल
नहीं है। यह
पसंद
तुम्हारी न
होकर समाज की
हो सकती है।
यह पसंद
तुम्हारा
विमर्श न होकर
मात्र परंपरा
हो सकती है।
इसलिए विमर्श
करो। पसंद या
गैर—पसंद की
बात मत उठाओ।
केवल विमर्श
करो। और तब
दूसरा हिस्सा
आसान हो जाएगा।
तब तुम कामना
को छोड़ सकते
हो। कैसे छोड़
सकते हो?
जब
किसी चीज पर
तुम ने
समग्ररूपेण
विमर्श किया
है तो उसे
छोड़ना बहुत
आसान हो जाता
है। वह इतना
ही आसान है
जितना मेरे
लिए इस कागज
को गिराना
आसान है।’इसे
छोड़ दो।’ क्या
होगा? कामना
है; उसे
तुम ने दबाया
नहीं है।
कामना है, और
वह बाहर जाना
चाहती है। वह
उठ रही है और
उसने
तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व को
उद्वेलित कर
दिया है। सच
तो यह है कि जब
तुम किसी
कामना पर बिना
किसी व्याख्या
के विचार
करोगे तो
तुम्हारा
पूरा अस्तित्व
ही कामना बन
जाएगा।
समझो
कि कामवासना
है और तुम
उसके पक्ष या
विपक्ष में
नहीं हो, उसके
संबंध में तुम्हारी
कोई धारणा
नहीं है, तुम
सिर्फ उसे देख
रहे हो। तो इस
देखने भर से
तुम्हारा
पूरा
अस्तित्व उस
कामना में
संलग्न हो
जाएगा। एक
अकेली
कामवासना आग
की लपट बन
जाएगी।
उस लपट में
तुम्हारा
सारा
अस्तित्व
जलने लगेगा—मानो
कि तुम
समग्ररूपेण
कामुक हो उठे
हो। तब
कामवासना काम—केंद्र
पर ही सीमित
नहीं रहेगी,
वह तुम्हारे
पूरे शरीर पर
फैल जाएगी, तुम्हारे
शरीर का एक—एक
तंतु कांपने
लगेगा। कामना
अंगारा बन
जाएगी; तब
उसे छोड़ दो, उससे अचानक
हट जाओ। उससे
लड़ी मत, इतना
ही कहो कि मैं
छोड़ता हूं।
तब
क्या होगा? ज्यों
ही तुम कहते
हो कि मैं
छोड़ता हूं एक
अलगाव घटित
होता है।
तुम्हारा
शरीर, कामोत्तप्त
शरीर और तुम
दो हो जाते हो।
अचानक एक क्षण
को भीतर उनके
बीच जमीन—आसमान
की दूरी पैदा
हो गई। शरीर
तो आवेग से, कामवासना से
उद्वेलित है
और केंद्र
शांत है, मात्र
देख रहा है।
स्मरण रहे, वहां कोई
संघर्ष नहीं
है, सिर्फ
अलगाव है।
संघर्ष में
तुम अलग नहीं
होते, जब
तुम लड़ते हो,
तुम लड़ाई के
विषय के साथ
एक होते हो।
तुम जब मात्र
छोड़ देते हो
तब तुम अलग
होते हो, तब
तुम इसे देख
सकते हों—मानो
तुम नहीं, कोई
दूसरा देख रहा
है।
मेरे
एक मित्र बहुत
वर्षों तक
मेरे साथ थे।
वे सतत धूम्रपान
करते थे—चेन
स्मोकर थे। और
जैसा कि सभी
धूम्रपान
करने करते हैं, मेरे
मित्र ने भी
निरंतर उससे
छूटने की
चेष्टा की।
किसी सुबह
अचानक तय करते
कि अब मैं
धूम्रपान नहीं
करूंगा, और
शाम होते —होते
फिर पीने लगते।
और फिर वे
अपराधी अनुभव
करते और अपना
बचाव करते और तब
कुछ दिनों तक
धूम्रपान
छोड़ने का नाम
भी नहीं लेते।
फिर वे यह सब
भूल जाते और
किसी दिन साहस
जुटाकर फिर
कहते कि अब
मैं धूम्रपान
नहीं करूंगा।
और मैं सिर्फ
हंसता, क्योंकि
यह घटना इतनी
बार दुहर चुकी
थी।
फिर
वे खुद भी इस
दुश्चक्र से
ऊब उठे कि
धूम्रपान
करना और छोड़ना
मानो हमेशा—हमेशा
के लिए उनका
संगी बन गया
था। वे
गंभीरता से
सोचने लगे कि
क्या करूं। और
तब उन्होंने
मुझसे पूछा कि
मैं क्या करूं? मैंने
उनसे कहा कि
पहली बात तो
यह कि
धूम्रपान का
विरोध करना
छोड़ दो, धूम्रपान
करो और मजे से
करो। सात
दिनों तक इसका
कोई विरोध मत
करो, इसे
स्वीकार कर लो।
उन्होंने
कहा कि यह आप
क्या कह रहे
हैं! मैं इसके
विरोध में
रहकर भी इसे
नहीं छोड़ सकता, और
आप इसे
स्वीकारने को
कहते हैं। तब
तो छोड़ने की
जरा भी
संभावना नहीं
रहेगी। मैंने
उन्हें
समझाया कि तुम
शत्रुता का
रुख प्रयोग
करके देख चुके,
निष्फलता
ही हाथ लगी।
अब मैत्री के
रुख का प्रयोग
करो। बस सात
दिनों के लिए
धूम्रपान का
विरोध मत करों।
उन्होंने
छूटते ही पूछा
कि क्या तब
धूम्रपान छूट
जाएगा? मैंने
उनसे कहा : तुम
अब भी उसके
प्रति शत्रुता
का भाव रखते
हो। छोड़ने के
भाव में ही
शत्रुता है।
छोड़ने का
विचार ही मत
करो। क्या कोई
मित्र को
छोड़ने का
विचार करता है?
सात दिन तक
छोड़ने की बात
ही भूल जाओ।
धूम्रपान के
साथ रहो, उसके
साथ सहयोग करो।
जितना संभव हो
उतने प्रगाढ़
ढंग से, उतने
प्रेम के साथ
पीओ। जब तुम
धूम्रपान कर
रहे हो तो उस
समय सब कुछ भूलकर
धूम्रपान ही
हो जाओ। उसके
साथ आराम से
रहो, उसके
साथ संवाद साध
लो। सात दिन
तक जितना चाहो
उतना
धूम्रपान करो,
छोड़ने की
बात ही भूल
जाओ।
ये
सात दिन उनके
लिए विमर्श के
दिन बन गए। वे
धूम्रपान के
तथ्य को सीधा—साधा
देख पाए। वे
इसके विरोध
में नहीं थे।
इसलिए अब वे
इसका
साक्षात्कार
कर सकते थे।
जब तुम किसी
व्यक्ति या
वस्तु के
विरोध में होते
हो तो तुम
उसका
साक्षात्कार
नहीं कर सकते।
विरोध ही बाधा
बन जाता है।
तब विमर्श
कहां? क्या
तुम शत्रु पर
विमर्श करते
हो? तुम
उसे देख भी
नहीं सकते, तुम उसकी आख
से आख नहीं
मिला सकते।
शत्रु को
देखना बहुत
कठिन है। तुम
उसी व्यक्ति
की आखों में
आख डालकर देख
सकते हो जिसे
तुम प्रेम
करते हो।
प्रेम में ही
तुम गहरे उतर
सकते हो, अन्यथा
आख मिलाना
मुश्किल है।
मेरे
उन मित्र ने
धूम्रपान के
तथ्य का गहराई
से
साक्षात्कार
किया। सात दिन
तक वे विमर्श
करते रहे।
उन्होंने
विरोध छोड़ दिया
था,
इसीलिए ऊर्जा
सुरक्षित थी।
और यह ध्यान
बन गया।
उन्होंने
सहयोग किया और
वे धूम्रपान
ही बन गए।
सात
दिन बाद मेरे
मित्र मुझे
कहना भी भूल
गए कि क्या
हुआ। मैं
इंतजार कर रहा
था कि वे
आएंगे और
कहेंगे कि सात
दिन बीत गए, अब
मैं धूम्रपान
कैसे छोडूं।
वे सात दिन की
बात ही भूल
गए। तीन
सप्ताह गुजर
गए तो मैंने ही
उनसे पूछा कि
आप बिलकुल भूल
गए क्या? उन्होंने
कहा कि यह
अनुभव सुंदर
रहा, इतना
सुंदर कि अब
मैं किसी चीज
के विषय में
सोचना ही नहीं
चाहता। पहली
बार मैंने
तथ्य के साथ
संघर्ष नहीं
किया, पहली
बार मैं सिर्फ
अनुभव कर रहा
हूं—उसे जो
मेरे साथ घटित
हो रहा है।
तब
मैंने उनसे
कहा,
'अब जब भी
धूम्रपान की
वृत्ति पैदा
हो, तो उसे
छोड़ दो।' उन्होंने
फिर नहीं पूछा
कि कैसे छोड़ना
है। उन्होंने
पूरी चीज पर
विमर्श किया
था, और
उससे ही वह
पूरी चीज
बचकानी दिखने
लगी थी।
संघर्ष की
गुंजाइश ही न
रही। तब मैंने
उनसे कहा कि
अब जब फिर
धूम्रपान की चाह
पैदा हो तो
उसे देखो और
उसे छोड़ दो।
सिगरेट को
अपने हाथ में
ले लो, एक
क्षण के लिए
रुको और तब
सिगरेट को छोड़
दो, गिर
जाने दो। और
सिगरेट के
गिरने के साथ—साथ
धूम्रपान की
वृत्ति को भी
गिर जाने दो।
उन्होंने
फिर मुझसे
नहीं पूछा कि
कैसे छोड़ना है।
विमर्श सक्षम
बना देता है।
तुम छोड सकते
हो। और यदि न
छोड़ सको तो
मानना कि
तुमने तथ्य पर
विमर्श नहीं
किया, मानना
कि तुम उसके
विरोध में रहे,
सतत सोचते
रहे कि कैसे
छोड़ा जाए। उस
हालत में
छोड़ना असंभव
है। जब एकाएक
वृत्ति पैदा
हो और तुम उसे
छोड दो तो
सारी ऊर्जा एक
छलांग लेकर
भीतर गति कर जाती
है।
विधि
एक ही है, केवल
उसके आयाम
भिन्न हैं।
'जब कोई
कामना उठे, उस पर
विमर्श करो।
फिर, अचानक,
उसे छोड़ दो।'
तीसरी विधि
:
पूरी तरह
थकने तक घूमते
रहो और तब
जमीन पर गिरकर
इस गिरने में
पूर्ण होओ। वही
है, विधि
वही है।
'पूरी तरह
थकने तक घूमते
रहो।'
बस
वर्तुल में
घूमो। कूदो, नाचो,
दौड़ो, जब
तक थक न जाओ
घूमते रहो। यह
घूमना तब तक
जारी रहे जब
तक ऐसा न लगे
कि और एक कदम
उठाना असंभव
है। लेकिन यह
खयाल रखो कि
मन कह सकता है
कि अब पूरी तरह
थक गए। मन की
बिलकुल मत
सुनो। चलते
चलो, दौड़ते
रहो, नाचते
रहो, कूदते
रहो।
मन
बार—बार कहेगा
कि बस करो, अब
बहुत थक गए।
मन पर ध्यान
ही मत दो। तब तक
घूमना छ जब तक
महसूस न —विचारना
नहीं, महसूस
करना
महत्वपूर्ण
है—कि शरीर
बिलकुल थक गया
है और अब एक
कदम भी उठाना
संभव न होगा
और यदि उठाऊंगा
तो गिर जाऊंगा।
जब तुम अनुभव
करो कि अब
गिरा तब गिरा,
अब आगे चला
नहीं जा सकता,
शरीर भारी
और थककर चूर—चूर
हो गया है, 'तब,
जमीन पर
गिरकर, इस
गिरने में
पूर्ण होओ।’ तब गिर जाओ।
ध्यान
रहे कि थकना
इतना हो कि
गिरना अपने आप
ही घटित हो।
अगर तुमने
दौड़ना जारी
रखा तो गिरना
अनिवार्य है।
जब यह चरम
बिंदु आ जाए, तब—सूत्र
कहता है—गिरो
और इस गिरने
में पूर्ण होओ।
इस
विधि का
केंद्रीय
बिंदु यही है :
जब तुम गिर रहे
हो,
पूर्ण होओ।
इसका
क्या अर्थ है? पहली
बात यह कि मन
के कहने से ही
मत गिरी। कोई
आयोजन मत करो।
बैठने की
चेष्टा मत करो,
लेटने की
चेष्टा मत करो।
पूरे के पूरे
गिर जाओ, मानो
कि पूरा शरीर
एक है और वह
गिर गया है।
ऐसा न हो कि
तुमने उसे
गिराया है।
अगर तुमने
गिराया है तो
तुम्हारे दो
हिस्से हो गए,
एक गिराने
वाले तुम हुए
और दूसरा
गिराया हुआ शरीर
हुआ। तब तुम
पूर्ण न रहे, खंडित और विभाजित
रहे।
उसे
अखंडित गिरने
दो,
अपने को
समग्रत: गिरने
दो।’गिरो'
शब्द को याद
रखो।
व्यवस्था
नहीं करनी है,
मृतवत गिर
जाना है।’इस
गिरने में
पूर्ण होओ।’ अगर इस
भांति गिरे तो
पहली बार
तुम्हें अपने
पूरे
अस्तित्व का,
अपनी
पूर्णता का
एहसास होगा।
पहली बार
केंद्र को अखंड,
अद्वैत, एक
अनुभव करोगे।
यह कैसे घटित
होगा?
शरीर
में ऊर्जा के
तीन तल हैं।
एक है दैनंदिन
कामों का तल।
इस तल की
ऊर्जा आसानी
से चुक जाती
है। यह
दिनचर्या के
कामों के लिए
ही है। दूसरा
तल आपातकालीन
कामों के लिए
है,
यह ज्यादा
गहरा तल है।
जब तुम किसी
संकट में होते
हो तभी इस
ऊर्जा का
उपयोग करते हो।
और तीसरा तल
जागतिक ऊर्जा
का है, जो
अनंत है।
पहले
तल की ऊर्जा
आसानी से चुक
जाती है। यदि
मैं तुम्हें
दौड़ने को कहूं
तो तुम तीन—चार
चक्कर लगाकर
कहोगे कि मैं
थक गया। सच
में तुम थके
नहीं हो, पहले
तल की ऊर्जा
समाप्त हो गई
है। सुबह में
यह इतनी आसानी
से नहीं चुकती,
शाम में
जल्दी चुक
जाती है।
क्योंकि
दिनभर तुमने
उसका उपयोग
किया है, अब
इसे विश्राम
की जरूरत है।
यही वजह है कि
रात में शरीर
आराम खोजता है।
उसे गहरी नींद
की जरूरत होती
है। जागतिक
ऊर्जा के
भंडार से शरीर
फिर अगले दिन के
काम के लिए
जरूरी ऊर्जा
ले लेगा। यह
पहला तल हुआ।
अभी
यदि मैं तुमसे
दौड़ने को कहूं
तो तुम कहोगे
कि मुझे नींद
आ रही है। तभी
कोई आता है और
कहता है कि
तुम्हारे घर
में आग लग गई
है। अचानक
तुम्हारी
नींद काफूर हो
गई,
थकावट जाती
रही _ तुम
ताजा हो गए और
दौड़ पड़े।
अचानक क्या
हुआ? तुम
थके थे, लेकिन
आपातकाल ने
तुम्हें
तुम्हारी
ऊर्जा के
दूसरे तल से
जोड़ दिया, और
तुम फिर ताजा
हो उठे। यह
दूसरा तल है।
इस
विधि में
दूसरे तल की
ऊर्जा को
चुकाना है।
पहला तल बहुत
आसानी से चुक जाता
है। उसके
चुकने पर भी
दौड़ते रहो।
थकने पर भी
दौड़ते रहो।
कुछ ही क्षणों
में ऊर्जा की एक
नई लहर आएगी
और तुम फिर
ताजा हो जाओगे
और तुम्हारी
थकावट चली
जाएगीं।
अनेक
लोग मुझसे आकर
कहते हैं कि जब
हम साधना शिविर मैं होते है, तब एक चमत्कार
सा होता है कि हम
इतना कर लेते है।
सुबह में एक घंटा
सक्रिय ध्यान, जिसमें
हम पूरे पागल
की तरह ध्यान
करते हैं।
पिछले पहर भी
एक घंटा ध्यान
करते हैं। और
फिर रात में
भी। तीन—तीन
बार हम पागलों
की तरह ध्यान
करते हैं।
अनेक लोगों ने
कहा है कि यह
हमें असंभव सा
लगता है, लगता
है कि अब और
नहीं चलेगा, लगता है कि
अगले दिन हाथ—पांव
हिलाना भी
असंभव होगा।
लेकिन कोई
थकता नहीं है।
रोज तीन—तीन
सत्र, और
इतना कठिन
श्रम, और
इसके बावजूद
कोई भी नहीं
थकता है। ऐसा
क्यों है?
ऐसा
इसलिए है कि
लोग शिविर में
दूसरे तल की
ऊर्जा से
संबंधित हो
जाते हैं। यदि
तुम अकेले करो
तो थक जाओगे।
किसी पहाड़ पर
जाकर प्रयोग
करके देखो, पहले
तल के चुकते
ही तुम चुक
जाओगे, थक
जाओगे। लेकिन
एक बड़े समूह
में, जहां
पांच सौ लोग
सक्रिय ध्यान
कर रहे हों, बात दूसरी
है। तुम्हें
लगता है, दूसरे
लोग जब नहीं
थके हैं तो
तुमको भी कुछ
देर जारी रखना
चाहिए। और
हरेक आदमी ऐसा
ही सोच रहा है
कि जब कोई
नहीं थका है
तो मुझे भी
जारी रखना
चाहिए। जब सब
कोई ताजा और
सक्रिय हैं तो
मैं ही क्यों
थकान अनुभव
करूं?
यह
समूह— भाव
तुम्हें
प्रेरणा देता
है,
शक्ति देता
है, और तुम
दूसरे तल पर
पहुंच जाते हो।
और दूसरा तल
बहुत बड़ा है—आपातकालीन
तल जो है। और
जब आपातकालीन
तल चुकता है, तब, और
तभी, तुम
जागतिक तल से,
स्रोत से, अनंत से
संबंधित होते
हो। इसलिए
बहुत श्रम की
जरूरत है—इतने
श्रम की कि
तुम्हें लगे
कि अब यह मेरे
बस के बाहर है।
लेकिन
अभी भी यह
तुम्हारे वश
के बाहर नहीं
है। यह सिर्फ
तुम्हारे
पहले तल की
ऊर्जा के वश
के बाहर है।
जब पहले तल की
ऊर्जा चुकती
है तो थकावट
महसूस होती है।
दूसरे तल की
ऊर्जा के
चुकने पर
तुम्हें
लगेगा कि अब
अगर और ज्यादा
किया तो मर
जाऊंगा। अनेक
लोग मेरे पास
आते हैं और
कहते हैं कि
जब हम ध्यान
की गहराई में
उतरते हैं तो
एक क्षण आता
है कि हम
भयभीत हो जाते
हैं,
आतंकित हो
जाते हैं, क्योंकि
लगता है कि
मृत्यु करीब
है, इससे
आगे जाने पर
मृत्यु
निश्चित है।
यह
मृत्यु का भय
पकड़ता है और
लगता है कि
ध्यान से बाहर
आना नहीं हो
सकेगा। यही वह
क्षण है, ठीक
क्षण, जब
तुम्हें साहस
की जरूरत होगी।
थोड़ा और साहस,
और तुम
तीसरे तल में
प्रविष्ट हो
जाओगे। वह
सबसे गहरा तल
है—आत्यंतिक,
अनंत।
यह
विधि तुम्हें
ऊर्जा के
जागतिक सागर
में आसानी से
उतारने में
सहयोगी है।
'पूरी तरह
थकने तक घूमते
रहो, और तब,
जमीन पर
गिरकर, इस
गिरने में
पूर्ण होओ।’
और
जब तुम जमीन
पर गिरोगे तो
पहली बार तुम
पूर्ण हो
जाओगे—अद्वैत, एक।
कोई विभाजन, कोई द्वैत
नहीं रहेगा।
विभाजनों
वाला मन विदा
हो जाएगा, और
पहली बार वह
सत्ता प्रकट
होगी जो
अविभाजित है,
अविभाज्य
है।
आज
इतना ही।
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