प्रश्नसार:
1—दमन
के बिना अपने
स्त्रोत पर
लौटने का क्या
उपाय है?
2—पश्चिम
के मनोविश्लेषक
मन के
निर्ग्रंथन
के उपाय में
सफल क्यों
नहीं हो पाते?
3—क्या यह सच
नहीं है कि
कोई विधि तब
तक शक्तिशाली
नहीं होती जब
तक व्यक्ति
को दीक्षित न
किया जाए?
4—अगर तादात्म्य
एकमात्र पाप
है तो अनेक
विधियां ऐसा
क्यों कहती
है कि किसी
चीज के साथ
एकात्म हो
जाओ?
पहला
प्रश्न :
अचेतन
पाप के कल जिस
विधि की आपने
चर्चा की
उसमें कहा गया
की जब कोई भाव
किसी व्यक्ति
के पक्ष या
विपक्ष में
उठे तो उसे उस
व्यक्ति पर
आरोपित मत करो, बल्कि
केंद्रित
रही। लेकिन जब
हम इस विधि का
प्रयोग अपने
क्रोध,
घृणा आदि
भावों पर करते
हैं तो ऐसा
लगता है कि हम
अपने मनोभावों
का दमन कर रहे
हैं और उससे
एक दमन—
ग्रंथि निर्मित
होती है।
कृपया समझाए कि
इन विधियों का
प्रयोग करते
हुए दमन—
ग्रंथि से
कैसे बचा जाए?
अभिव्यक्ति
और दमन एक ही
सिक्के के दो
पहलू है। वि
विरोधाभासी
है,
लेकिन
बुनियादी रूप
से भिन्न
नहीं है। अभिव्यक्ति
और दमन दोनों
में दूसरा
व्यक्ति
केंद्र रहता
है, दूसरा
ही
महत्वपूर्ण
रहता है। मुझे
क्रोध हुआ और
मैं उस क्रोध
को दमित करता हूं।
मैं तुम्हारे
विरुद्ध
क्रोध को
प्रकट करने जा
रहा था, अब
उसका दमन कर
रहा हूं।
लेकिन चाहे
अभिव्यक्ति
हो या दमन, क्रोध
तुम पर ही
आरोपित हो रहा
है। यह विधि
दमन के लिए
नहीं है। यह
विधि
अभिव्यक्ति
और दमन दोनों
के आधार को ही
बदल देती है।
विधि कहती है
कि भाव को
दूसरे पर
आरोपित मत करो,
उसके स्रोत
तुम स्वयं हो।
चाहे
अभिव्यक्ति
करो या दमन, तुम स्रोत
हो।
यहां
अभिव्यक्ति
या दमन पर जोर
नहीं है, जोर इस बात
के जानने पर
है कि भाव
कहां से उठ रहा
है। तुम्हें
उस उदगम की ओर
यात्रा करनी
है, जहां
से क्रोध, घृणा
और प्रेम का
भाव उदित हो
रहा है। जब
तुम उसका दमन
करते हो तो
तुम केंद्र की
ओर गति नहीं
करते, तुम
सिर्फ
अभिव्यक्ति
से लड़ते हो।
यदि
मेरे भीतर
क्रोध पैदा
हुआ है तो
सामान्यत: मैं
दो काम करूंगा, या तो उसे
किसी पर प्रकट
करूंगा या उसे
दमित करूंगा।
लेकिन दोनों
स्थिति में
मैं दूसरे की
फिक्र करूंगा।
क्रोध की
ऊर्जा से, जो
उठकर सतह पर आ
गई है, मेरा
लेना—देना है।
क्रोध का
स्रोत यहां मेरी
चिंता में
नहीं है।
यह
विधि दूसरे को
बिलकुल भूल
जाने को कहती
है। यह कहती
है कि क्रोध
की उठती हुई
ऊर्जा को देखो
और उसके साथ
प्रतिक्रम से
अपने भीतर उस
स्रोत तक जाओ
जहां से वह
आती है। और जब
वह स्रोत मिल
जाए तो उस
स्रोत के साथ
केंद्रित
होकर रहो।
याद
रहे, क्रोध
के साथ यहां
कुछ नहीं करना
है।
अभिव्यक्ति
में क्रोध के
साथ तुम कुछ
करते हो। इस
विधि के
प्रयोग में
क्रोध के साथ
कुछ नहीं करना
है। उसमें
गहरे उतरो,
ताकि जान सको
कि उसका जन्म
कहां होता है।
और जब स्रोत
का पता चल जाए
तो वहां केंद्रित
होना बहुत
आसान है। सच तो
यह है कि हम
यहां क्रोध का
उपयोग स्रोत
तक जाने की राह
के रूप में
करते है। इसके
लिए क्रोध ही
नहीं, कोई
भी मनोभाव काम
देगा।
जब तुम
दमन करते हो
तो तुम स्रोत
को नहीं खोज रहे
हो। तुम केवल
उस ऊर्जा के
साथ संघर्ष कर
रहे हो जो उठी
है और प्रकट
होना चाहती है।
तुम उसे दमित
कर सकते हो, लेकिन
देर—अबेर वह
प्रकट होगी।
जागी हुई
ऊर्जा के साथ
निरंतर
संघर्ष संभव
नहीं है। वह
अभिव्यक्त
होगी ही। तुम
अगर उसे अ पर न
प्रकट कर सके
तो ब या स पर
प्रकट करोगे।
जो भी तुम्हें
तुमसे कमजोर
मिलेगा, तुम
उस ऊर्जा को
उस पर प्रकट
कर दोगे। और
जब तक प्रकट
नहीं करोगे तब
तक तुम
तनावग्रस्त, भारग्रस्त,
बोझिल और
बीमार अनुभव
करोगे। उसे
प्रकट होना ही
है। तुम उसे
सतत दबाकर
नहीं रख सकते,
कहीं न कहीं
से वह ऊर्जा
फूट निकलेगी।
क्योंकि अगर
नहीं निकले तो
उसके कारण तुम
निरंतर
चिंतित रहोगे।
इसलिए
दमन यथार्थत:
स्थगन है, टालना है।
तुम
अभिव्यक्ति
को टाल भर रहे
हो। तुम्हें
अपने मालिक पर
क्रोध आया है,
तुम उसे
प्रकट नहीं कर
सकते। प्रकट
करना लाभप्रद
नहीं होगा।
तुम उस क्रोध
को नीचे सरका
दोगे। ऐसा
करके तुम महज
प्रतीक्षा
करोगे और मौका
आने पर उसे
अपनी पत्नी, बच्चे या
नौकर पर प्रकट
कर दोगे। घर
पहुंचने की
देर है और तुम
उसे प्रकट कर
दोगे। और वहां
क्रोध प्रकट
करने के लिए
तुम कारण भी
ढूंढ लोगे।
क्योंकि
मनुष्य
तर्कनिष्ठ
प्राणी है।
तुम अपने
क्रोध को
तर्कसम्मत
बनाना चाहोगे।
उसके लिए कोई
भी छोटा सा
कारण बहाना बन
जाएगा और तुम
उस छोटे से
कारण को बहुत
अर्थपूर्ण
बना लोगे। दमन
स्थगन का उपाय
है। और तुम
किसी भाव को
महीनों और
वर्षों तक
स्थगित कर
सकते हो। और
जो जानते हैं
वे कहते हैं
कि तुम उन्हें
जन्मों—जन्मों
तक स्थगित कर
सकते हो।
लेकिन अंततः
उसे प्रकट
होना है।
इस
विधि को दमन
या
अभिव्यक्ति
से कुछ लेना—देना
नहीं है। यह
विधि अपने
भीतर जाने के
लिए, गहरे
उतरने के लिए
तुम्हारे भाव
को मार्ग की तरह
उपयोग में
लाती है।
गुरजिएफ
ऐसी स्थिति
पैदा करता था
जिसमें तुम अपने
क्रोध, घृणा या
किसी भी भाव
को प्रकट करने
के लिए मजबूर
हो जाते। वह
स्थिति
कृत्रिम होती
थी, तुम्हें
उसका पता भी
नहीं चलता।
गुरजिएफ अपने
शिष्यों के
साथ बैठा है
और तुमने उसके
कमरे में
प्रवेश किया।
तुम्हें पता
नहीं है कि
वहां क्या
होने वाला है।
लेकिन वहां वे
लोग तुम्हारे
क्रोध को भड़काने
के लिए तैयार
बैठे हैं। वे
कुछ ऐसा व्यवहार
करेंगे कि
तुम्हारे भीतर
क्रोध भड़क
उठे। कोई
व्यक्ति कुछ
बोलेगा और शेष
लोग ऐसे अपमानजनक
ढंग से पेश
आएंगे कि तुम
आग—बबूला हो
उठोगे। अचानक
क्रोध उठ आया
और तुम अंगारा
बन गए।
और जब
गुरजिएफ
देखता कि वह
बिंदु आ गया
जहां से तुम
भीतर सरक सकते
हो या उसे
प्रकट कर सकते
हो, जहां
क्रोध शिखर पर
आ गया और
विस्फोट होने
वाला है, वह
तुमसे कहता कि
आंखें बंद करो
और अपने क्रोध
के प्रति जागो
और पीछे लौटी।
तब तुम्हें
पता चलेगा कि
सारी स्थिति
तुम्हारे लिए
बनाई गयी थी।
कोई सच में
तुम्हें
अपमानित नहीं
करना चाहता था।
वह एक नाटक था—मनोनाटक।
लेकिन
क्रोध तो पैदा
हो ही गया और
यह जानने पर
भी कि वह नाटक
था, वह
तुरंत विलीन
होने वाला
नहीं है। वह
समय लेगा। अब
तुम इस गिरती
हुई ऊर्जा के
साथ उतर सकते हो
और स्रोत पर
पहुंच सकते हो।
यह ऊर्जा
तुम्हें वहां
ले जाने में
सहयोगी होगी जहां
से वह आई है।
इस ऊर्जा के
सहारे अब तुम मूल
स्रोत से
संबंधित हो
सकते हो।
यह
विधि ध्यान
की सर्वाधिक
सफल विधियों
में एक है।
कोई भी भाव
पैदा कर लो। पैदा
करने की भी
जरूरत नहीं है, क्योंकि दिनभर भाव
आते—जाते रहते
हैं। और ध्यान
के लिए किसी
भी भाव का
उपयोग कर सकते
हो। तब तुम
दूसरे
व्यक्ति को
भूल जाते हो, और तब तुम
कुछ दमन नहीं
कर रहे हो।
तुम सिर्फ उस
ऊर्जा के साथ
नीचे की ओर
गति करते हो
जो ऊर्जा ऊपर
उठ आई थी।
हरेक ऊर्जा
स्रोत से आती
है। और जब आती
है तब मार्ग
सक्रिय हो
जाता है, और
उस मार्ग को
तुम
प्रतिक्रमण
के लिए उपयोग
में ला सकते
हो। और जिस
क्षण ऊर्जा
अपने मूल
स्रोत पर
पहुंचती है, वह उसमें
विलीन हो जाती
है।
यह दमन
नहीं है, ऊर्जा सिर्फ
अपने मूल
स्रोत में लौट
गई है। और जब
तुम अपनी
ऊर्जा को मूल
स्रोत से
संयुक्त करने
में सक्षम हो
जाते हो तो
तुम अपने शरीर
के, मन के
और अपनी ऊर्जा
के मालिक हो
गए। अब तुम
मालिक हो, अब
तुम अपनी
ऊर्जा नष्ट
नहीं कर सकते।
एक बार तुम
जान गए कि
कैसे ऊर्जा को
उसके स्रोत पर
वापस लौटा
लिया जाए तो
फिर न दमन की
जरूरत है और न
अभिव्यक्ति
की। अभी तुम
क्रोध में
नहीं हो। मैं
कुछ कहता हूं
और तुम
क्रोधित हो
जाते हो। यह
ऊर्जा कहां से
आती है? एक
क्षण पहले
तुम्हें
क्रोध नहीं था,
लेकिन
तुममें ऊर्जा
तो थी। वही
ऊर्जा क्रोध
बन गई। अगर यह
ऊर्जा अपने
स्रोत में
वापस लौट जाए
तो तुम वैसे
ही हो जाओगे
जो क्षणभर
पहले थे।
स्मरण
रहे, ऊर्जा
न क्रोध है, न प्रेम है
और न घृणा है।
ऊर्जा मात्र
ऊर्जा है—तटस्थ
ऊर्जा। वही ऊर्जा
क्रोध बन जाती
है। वही ऊर्जा
कामवासना बन
जाती है। वही
ऊर्जा प्रेम
बन जाती है।
और वही घृणा
भी बन जाती है।
वे एक ही
ऊर्जा के अलग—अलग
रूप हैं। रूप
तुम देते हो, रूप
तुम्हारा मन
देता है, और
ऊर्जा उसमें
प्रवेश कर
जाती है।
ध्यान
रहे, अगर
तुम गहरे
प्रेम में हो
तो तुम्हारे
पास क्रोध
करने के लिए
बहुत ऊर्जा
नहीं बचेगी।
लेकिन अगर तुम
प्रेम बिलकुल
नहीं करते तो
क्रोध के लिए
तुम्हारे पास
अतिशय ऊर्जा
होगी। और उसे
प्रकट करने के
लिए तुम सदा
अवसर की खोज में
रहोगे कि
क्रोध को
प्रकट कर सको।
अगर तुम्हारी
ऊर्जा
कामवासना में प्रकट
होती है तो
तुममें हिंसा
की मात्रा बहुत
कम होगी। और
अगर वह
कामवासना में
प्रकट नहीं
होती है तो
तुम बहुत
हिंसक होओगे।
यही कारण है
कि सेना में
सिपाहियों के
लिए काम—संबंध
निषिद्ध है, वर्जित है।
अगर उन्हें
काम— भोग में
उतरने दिया
जाए तो सेनाएं
युद्ध के लिए
बिलकुल
नपुंसक हो
जाएंगी। और
यही कारण है
कि जब कोई
सभ्यता शिखर
छूती है तो
उसकी युद्ध की
क्षमता
समाप्त हो
जाती है।
इसलिए
सदा सभ्य और
सुसंस्कृत
समाज अपने से
कम सभ्य
समाजों
द्वारा
पराजित होते
आए हैं। यह
सदा हुआ है।
क्योंकि एक
विकसित समाज
अपने लोगों की
हर जरूरत की
फिक्र करता है; इन
जरूरतों में
कामवासना भी
सम्मिलित है।
जब कोई समाज
सचमुच
प्रतिष्ठित
और समृद्ध होता
है, तब
उसके हर सदस्य
की कामजन्य
आवश्यकता
पूरी की जाती
है। और जिसकी
कामवासना की
जरूरत पूरी
होती है वह लड़
नहीं सकता है।
अगर तुम्हारी कामवासना
की जरूरत पूरी
नहीं हुई है
तो तुम लड़
सकते हो, और
आसानी से लड़
सकते हो।
इसलिए
अगर दुनिया
में शाति
चाहिए तो
कामवासना के
लिए अधिक
स्वतंत्रता
जरूरी
हो जाती
है। और यदि
युद्ध चाहिए, हिंसा और
रक्तपात
चाहिए, तो
काम—दमन जरूरी
हो जाता, काम—विरोधी
दृष्टि जरूरी हो
जाती है।
यह बड़ी
विरोधाभासी
बात है कि एक
ओर तथाकथित साधु—महात्मा
शाति की चर्चा
करते हैं और
दूसरी ओर वे
कामवासना की
निंदा भी किए
जाते हैं। एक
साथ वे यौन—विरोधी
वातावरण
बनाते हैं और
शाति की जरूरत
पर भी बल देते
हैं। यह बहुत
अनर्गल बात है।
उनसे तो
हिप्पी
ज्यादा ठीक
हैं।
हिप्पियों का
नारा है—प्रेम
करो, युद्ध
मत करो। यह
सही
दृष्टिकोण है।
अगर तुम सच
में प्रेम करो
तो तुम युद्ध
नहीं कर सकते।
इसीलिए
तथाकथित
संन्यासी, जिन्होंने
अपनी
कामवासना का
दमन किया है, हमेशा क्रोध
और हिंसा से
भरे रहते हैं।
वे अकारण ही
क्रोध और हिंसा
से भरे होते
हैं, और
इतने कि किसी
भी क्षण
विस्फोट हो
सकता है। उनकी
सब ऊर्जा
अनभिव्यक्त
पड़ी है। और जब
तक उसे स्रोत
से न संयुक्त
कर दिया जाए, तब तक सच्चा
ब्रह्मचर्य
संभव नहीं
होगा। तुम काम—दमन
कर सकते हो, लेकिन तब वह
हिंसा में
प्रकट होगा।
तुम्हारी
काम—ऊर्जा अगर
केंद्र पर
पहुंच जाए तो
तुम फिर बच्चे
की भांति हो
जाओगे। बच्चे
में तुमसे
ज्यादा काम—ऊर्जा
है, लेकिन
अभी वह अपने
स्रोत पर
स्थित है। अभी
वह शरीर में
नहीं गई है, लेकिन जाएगी।
जब शरीर तैयार
होगा, ग्रंथियां
तैयार होंगी,
जब शरीर
प्रौढ़ होगा, तब काम—ऊर्जा
शरीर में चली
जाएगी।
बच्चा
क्यों इतना
निर्दोष है? इसलिए कि
उसकी ऊर्जा
अभी स्रोत पर
है, वहां
से अलग नहीं
हुई है। वही
घटना दूसरी
बार घटती है, जब कोई
व्यक्ति
बुद्धत्व को
प्राप्त होता
है। तब उसकी
सब ऊर्जा
स्रोत में लौट
आती है, और
वह व्यक्ति
बच्चे की
भांति हो जाता
है। जीसस का
यही मतलब है, जब वे कहते
हैं कि मेरे
प्रभु के
राज्य में वे ही
प्रवेश कर
सकेंगे जो
बच्चों की
भांति होंगे।
इसका
क्या अर्थ है? इसका
वैज्ञानिक
अर्थ है कि
तुम्हारी
समूची ऊर्जा
अपने स्रोत पर
लौट आई है। जब
तुम ऊर्जा को
अभिव्यक्ति
देते हो तो वह
बाहर जाती है।
अभिव्यक्ति
देकर तुम
ऊर्जा के लिए
बाहर जाने की,
स्खलित
होने की आदत
निर्मित करते
हो। और जब तुम
ऊर्जा को दमित
करते हो, तब
ऊर्जा न भीतर
जाती है और न
बाहर, वह
सिर्फ अधर में
लटकी रहती है।
और अधर में
लटकी हुई
ऊर्जा बोझ बन
जाती है।
यही
वजह है कि जब
तुम क्रोध
निकाल देते हो, तुम
हलकापन महसूस
करते हो। जब
तुम संभोग से
गुजर लेते हो
तब तुम एक तरह
की राहत अनुभव
करते हो। वैसे
ही जब तुम
किसी चीज को
नष्ट करके
अपनी घृणा को
प्रकट करते हो
तो तुम्हें
चैन सा लगता है।
दमित
ऊर्जा बोझ बनी
रहती है।
तुम्हारा मन
उससे भारी बना
रहता है। और
तुम्हारे
सामने दो ही
विकल्प हैं।
या तो उस
ऊर्जा को बाहर
फेंको, या उसे पीछे
लौटकर अपने
स्रोत से
संयुक्त होने
दो। स्रोत में
वापस लौटकर
ऊर्जा
निराकार हो
जाती है।
स्रोत पर सब
ऊर्जा
निराकार होती
है।
उदाहरण
के लिए, बिजली है, वह भी
निराकार है।
जब बिजली पंखे
में जाती है
तो एक रूप ले
लेती है, और
वही बल्व
में प्रवेश कर
दूसरा रूप ले
लेती है। तुम
हजार तरह से उसका
उपयोग कर सकते
हो। ऊर्जा वही
है, और
यंत्र के
द्वारा उसे
आकार मिलता है।
वैसे
ही क्रोध एक
यंत्र है, काम, प्रेम,
घृणा भी
यंत्र हैं।
ऊर्जा जब घृणा
की नहर में जाती
है तो घृणा बन
जाती है। वही
ऊर्जा प्रेम
में प्रवेश कर
प्रेम बन जाती
है। और जब वह अपने
स्त्रोत पर लौट
आती है। तो फिर
वह अरूप उर्जा,
शुद्ध ऊर्जा
बन जाती है।
यह अरूप ऊर्जा
निर्दोष है।
निराकार परम
निर्दोष है।
यही कारण है
कि बुद्ध इतने
निर्दोष
दिखते हैं।
उनकी ऊर्जा
स्रोत पर
पहुंच गई है।
ऊर्जा
को अभिव्यक्त
मत करो, क्योंकि वह
अपव्यय है।
वैसा करके तुम
अपनी ही ऊर्जा
नष्ट नहीं
करते, दूसरे
की ऊर्जा भी
नष्ट करने में
सहयोगी होते हो।
और ऊर्जा का
दमन भी मत करो।
क्योंकि दमित
ऊर्जा तनाव
में होती है
और सदा प्रकट
होने की राह
खोजती है। तो
करना क्या?
यह
विधि कहती है
कि भाव के साथ
कुछ मत करो, बल्कि उस
स्रोत की तरफ
जाओ जहां से
वह भाव आया है।
और जब भाव
सक्रिय है तब
मार्ग भी
स्पष्ट है, और उसी क्षण
तुम भीतर गति
कर सकते हो।
भावों का
ध्यान के लिए
उपयोग करो।
उसके अदभुत
परिणाम होंगे,
जिन पर
तुम्हें
विश्वास न
होगा। और एक
बार तुम्हें
वह कुंजी मिल
गई जो ऊर्जा को
उसके स्रोत पर
पहुंचा देती
है तो
तुम्हारे व्यक्तित्व
का गुणधर्म ही
और हो जाएगा।
तब तुम अपनी
ऊर्जा नष्ट न
करोगे। नष्ट
करना मूढ़ता
मालूम होगी।
बुद्ध
कहते हैं कि
जब तुम किसी
पर क्रोध करते
हो तो उसका
अर्थ है कि
दूसरे के दुष्कृत्यों
के लिए तुम
अपने को दंड
दे रहे हो।
किसी ने
तुम्हें
अपमानित किया, यह उसका
कृत्य है। और
क्रुद्ध होकर
तुम अपने को
दंड देते हो, तुम अपनी
ऊर्जा नष्ट
करते हो। यही मूढ़ता है।
फिर हम
बुद्ध, महावीर और
जीसस को सुनकर
ऊर्जा का दमन
करने लगते हैं।
हम सुनते हैं
कि क्रोध करना
मूढ़ता है
तो हम सोचते
हैं कि क्रोध
नहीं करना
चाहिए। और तब
हम अपनी ऊर्जा
से लड़ते हैं, उसका दमन
करते हैं।
परिणामस्वरूप
हम दमित ऊर्जा
के
ज्वालामुखी बन
जाते हैं, जिसका
किसी भी क्षण
विस्फोट हो
सकता है।
तुम
इकट्ठा कर रहे
हो। दिनभर
का क्रोध
इकट्ठा हो गया, फिर महीनेभर
का क्रोध
इकट्ठा हो गया,
फिर वर्षभर
का क्रोध, फिर
पूरे जीवनभर
का क्रोध
इकट्ठा हो गया।
ऐसे जन्मों—जन्मों
का क्रोध भी
इकट्ठा हो
सकता है। वह
सब वहां
इकट्ठा है जो
किसी भी क्षण
फूट सकता है।
और तब तुम
जीने से भी डरने
लगते हो, क्योंकि
किसी भी क्षण
कोई चिंगारी
विस्फोट पैदा
कर सकती है।
इसलिए तुम
भयभीत हो, और
तुम्हारा
प्रत्येक
क्षण
खींचातानी बन
जाता है।
मनोविज्ञान
कहता है कि
दमन की बजाय
अभिव्यक्ति
बेहतर है, लेकिन
धर्म ऐसा नहीं
कह सकता। धर्म
कहता है कि
दमन और
अभिव्यक्ति दोनों
मूढ़ताएं
हैं। ऊर्जा को
अभिव्यक्ति
देकर तुम
दूसरे को हानि
पहुंचाते हो
और अपने को भी।
दमन करके तुम
अपनी हानि कर
रहे हो, और
किसी दिन
दूसरे की भी
हानि करोगे।
धर्म कहता है
कि स्रोत की
तरफ लौट चलो, जहां
पहुंचकर
ऊर्जा
निराकार हो
जाती है। तब
क्रोध किए
बिना ही तुम
शक्तिशाली
महसूस करोगे।
तब तुम ओजस्वी
और जीवंत
होओगे। तब
तुम्हारे
जीवन में
तीव्रता और
त्वरा होगी और
तुम्हारी
उपस्थिति
प्रभावकारी
होगी। तब
तुम्हें किसी
पर प्रभुत्व
करने की जरूरत
नहीं रहेगी,
तुम्हारी
उपस्थिति ही
कहेगी कि यहां
कोई शक्ति का
स्रोत आ गया
है।
जब तुम किसी
बुद्ध या
कृष्ण के पास
पहुंचते हो तो
तुरंत अपने को
एक भिन्न ही माहौल
में पाते हो।
कारण यह है कि
बुद्ध और
कृष्ण शक्ति
के स्रोत बन
जाते हैं।
उनकी सन्निधि
में जाते ही
तुम पर
चुंबकीय प्रभाव
पड़ता है, जादू सा हो
जाता है। कोई
तुम पर जादू
करता नहीं है,
कुछ भी नहीं
करता है, सिर्फ
उपस्थिति काम
करती है।
तुम्हें
लगेगा कि किसी
ने तुम्हें
सम्मोहित कर
दिया। लेकिन
बात ऐसी नहीं
है। यह बुद्ध
की उपस्थिति
है जो
सम्मोहित कर
रही है, क्योंकि
बुद्ध की
ऊर्जा स्रोत
पर पहुंच गई
है, वह
ऊर्जा
केंद्रित
होकर निराकार
हो गई है। ऐसी
उपस्थिति
सम्मोहक होती
है।
बुद्धत्व
प्राप्ति के
पूर्व बुद्ध
के पांच शिष्य
थे। वे सभी
तपस्वी थे। तब
बुद्ध स्वयं
एक बड़े तपस्वी
थे। उन्हें
अपने शरीर को सताने में
बड़ा रस आता था।
वे नए—नए
ढंगों से, अनेक
ढंगों से अपने
को सताते थे।
एक तरह से वे
आत्म—पीड़क
थे। और उस समय
ये पांचों
उनके
निष्ठावान
शिष्य थे।
और फिर
बुद्ध को बोध
हुआ कि तपस्या
बिलकुल व्यर्थ
है, अपने
को सताकर
कोई बुद्धत्व
को नहीं
प्राप्त हो
सकता है। जब
उन्हें यह बोध
हुआ तो
उन्होंने
तपस्या का मार्ग
छोड़ दिया।
फलत: उनके
पांचों शिष्य
तुरंत उन्हें छोड्कर
अलग हो गए।
उन्होंने कहा
कि तुम अब
तपस्वी न रहे,
तुम्हारा
पतन हो गया है।
और वे सभी
कहीं और चले
गए।
फिर जब
बुद्ध
बुद्धत्व को
उपलब्ध हुए तो
सबसे पहले
उन्हें अपने
इन पांचों
शिष्यों का
स्मरण आया।
कभी वे उनके
अनुयायी थे, इसलिए
उन्हें पहले
उनकी खोज करनी
चाहिए। बुद्ध
को लगा कि
मेरा उनके
प्रति एक
कर्तव्य है।
पहले उन्हें
खोजकर वह
बताना है जो
मुझे मिला है।
तो
बुद्ध उन्हें
ढूंढने के लिए
बोधगया
से वाराणसी गए।
वे लोग उन्हें
सारनाथ में
मिले। कथा
कहती है कि
बुद्ध दूसरी
बार लौटकर
वाराणसी कभी
नहीं गए, सारनाथ कभी
नहीं गए। वे
सिर्फ इन
शिष्यों के
लिए आए थे।
जब
बुद्ध सारनाथ
पहुंचे तो
संध्या का समय
था। बुद्ध के
पांचों शिष्य
एक पहाड़ी पर
बैठे थे। जब
उन्होंने
बुद्ध को अपनी
ओर आते देखा
तो उन्होंने
कहा कि यह वही
गौतम
सिद्धार्थ है
जो मार्ग छोड्कर
पतित हो गया
है; 'हम
उसे कोई आदर
नहीं देंगे, हम उसके साथ
मामूली
शिष्टाचार भी
नहीं निभाएंगे।
और ऐसा कहकर
पांचों ने आंखें
बंद कर लीं।
लेकिन
जैसे—जैसे
बुद्ध उनके
निकट पहुंचे, अनदेखे
ही उन पांचों
के मन बदलने
लगे। वे बेचैन
हो उठे। और जब
बुद्ध बिलकुल
उनके पास आ गए
तो अचानक उन पांचों
की आंखें खुल
गईं और वे
सीधे बुद्ध के
चरणों पर गिर
पड़े। बुद्ध ने
पूछा कि तुम
लोग ऐसा क्यों
करते हो? तुमने
तो यह तय किया
था कि तुम
मुझे सम्मान
नहीं दोगे।
फिर यह क्या?
उन्होंने
कहा कि हम कुछ
कर नहीं रहे
हैं, सब
अपने आप हो
रहा है। आपको
कुछ मिला है, आप एक चुंबकीय
शक्ति बन गए
हैं और हम
आपकी तरफ खिंचे
जा रहे हैं।
क्या आप हम पर
सम्मोहन कर
रहे हैं? बुद्ध
ने कहा, नहीं,
मैं कुछ
नहीं कर रहा हूं।
लेकिन मुझे कुछ
हुआ, कुछ
मिला। मेरी
समस्त ऊर्जा
अपने स्रोत से
जा मिली है।
इसलिए मैं
जहां जाता हूं
वहा एक चुंबकीय
शक्ति अनुभव
होती है।
इसी
कारण से
सदियों से
बुद्ध या
महावीर के विरोधी
कहते आए हैं
कि वे लोग
अच्छे नहीं थे, वे लोगों
को सम्मोहित
कर लेते थे।
असल में कोई
सम्मोहित
नहीं करता है,
यह दूसरी बात
है कि लोग सम्मोहित
हो जाते है। जब
ऊर्जा मूल स्त्रोत
से मिलती है तो
वह एक चुंबकीय
केंद्र पैदा
करती है। यह
विधि तुम्हारे
भीतर वही
चुंबकीय
केंद्र पैदा
करने की विधि है।
दूसरा
प्रश्न :
कल आपने
कहा कि मन को
निर्ग्रंथ
करने की जो
ध्यान— विधियां
है, वे
बहुत महत्वपूर्ण
हैं। पश्चिम
में सैकड़ों
फ्रायडवादी
और जुंगवादी
मनोचकित्सक
इन विधियों का
प्रयोग कर रहे
है, लेकिन
व्यक्ति की
रूपांतरित
करने में
उन्हें कोई महत्वपूर्ण
सफलता नहीं मिली
है। उनकी
असफलता के
कारण क्या हैं?
उनकी विधि
की त्रुटियां
क्या हैं?
अनेक बातें यहां
विचारणीय हैं।
एक तो यह कि
पाश्चात्य
मनोविज्ञान
अभी मनुष्य की
आत्मा में
विश्वास नहीं
करता है। वह
केवल मनुष्य
के मन को
मानता है। अभी
पश्चिम के
मनोविज्ञान
के लिए मन के
पार कुछ नहीं
है। और अगर मन
के पार कुछ भी
नहीं है तो
फिर तुम जो भी
करोगे उससे
मनुष्य का भला
नहीं होगा।
ज्यादा से
ज्यादा उससे
मनुष्य को
सामान्य बनाया
जा सकता है, बस। और यह
सामान्य होना
क्या है?
सामान्य
होना औसत होना
है। और अगर
औसत व्यक्ति
ही सामान्य
नहीं है तो सामान्य
होने का कुछ
भी अर्थ नहीं
है। उसका केवल
इतना अर्थ
होता है कि
तुम भीड़ के साथ
समायोजित हो
गए। पश्चिम का
मनोविज्ञान
एक ही काम
करता है—जब भी
किसी व्यक्ति
का भीड़ के साथ
समायोजन टूट
जाता है तो
पश्चिमी
विधियां फिर
से भीड़ के साथ
उसका समायोजन
जोड़ देती हैं।
लेकिन भीड़ को
कोई नहीं
देखता कि यह
भीड़ ठीक है अथवा
नहीं।
पूर्वीय
मनोविज्ञान
के लिए भीड़
मापदंड नहीं है।
इस फर्क को
स्मरण रखो।
पूर्व के
मनोविज्ञान
के लिए भीड़
मापदंड नहीं है, समाज
मापदंड नहीं
है। समाज तो
खुद रुग्ण है।
फिर मापदंड
क्या है? हमारे
लिए बुद्ध
मापदंड हैं।
जब तक तुम
बुद्ध जैसे
नहीं होते तब
तक तुम रुग्ण
हो। समाज
मापदंड नहीं
है।
लेकिन
पश्चिमी
मनोविज्ञान
के लिए समाज
ही मापदंड है, बुद्ध
उनके लिए
मापदंड नहीं
हो सकते।
क्योंकि वे
नहीं मानते कि
आत्मा जैसी
कोई चीज है।
और अगर आत्मा
नहीं है तो
बुद्धत्व भी
नहीं हो सकता
है। क्योंकि
आत्मा का
प्रकाशित
होना ही
बुद्धत्व है।
इसलिए पश्चिम
का
मनोविज्ञान
मात्र
चिकित्सा है,
चिकित्सा
का अंग है। वह
तुम्हें
समायोजित
होने में
सहयोग देता है।
वह अतिक्रमण
नहीं है।
पूर्व
मन के
अतिक्रमण के
लिए प्रयत्न
करता है।
क्योंकि
हमारे लिए
मानसिक रुग्णताएं
नहीं हैं। याद
रहे, हमारे
लिए मानसिक
रोग नहीं हैं।
हमारे लिए तो
मन ही रुग्णता
है, मन ही
रोग है।
पश्चिम के
मनोविज्ञान
के लिए मन रोग
नहीं है। वह
तो तुमको मन
समझता है, तुम
मन हो। वह मन
को रोग कैसे
मान सकता है!
उसके लिए मन
स्वस्थ भी हो
सकता है, मन
बीमार भी हो
सकता है।
हमारे लिए मन
ही रोग है, मन
कभी स्वस्थ
नहीं हो सकता
है। जब तक तुम
मन के पार
नहीं जाते, तुम स्वस्थ
नहीं हो सकते।
तब तक
तुम या तो
रुग्ण और
समायोजित हो
या रुग्ण और
असमायोजित हो, लेकिन
स्वस्थ नहीं हो।
सामान्य आदमी
स्वस्थ नहीं।
वह सीमा के
भीतर रुग्ण है।
असामान्य वह
है जो सीमा के
बाहर चला जाता
है। और
सामान्य तथा
असामान्य में
केवल मात्रा
का फर्क है
गुण का नहीं।
तुम्हारे और
पागलखाने में
रहने वाले के
बीच कोई गुणात्मक
फर्क नहीं है,
सिर्फ
मात्रा का
फर्क है। वह
तुमसे थोड़ा
ज्यादा
विक्षिप्त है,
बस। तुम
सीमा के भीतर
हो। कामकाज के
तल पर तुम चला
लेते हो। वह
नहीं चला पाता
है। वह तुमसे
आगे बढ़ गया है।
उसकी बीमारी
बहुत आगे बढ़
गई है। तुम
रास्ते में हो,
वह पहुंच
गया है।
पश्चिम
का
मनोविज्ञान
इस आगे चले गए
आदमी को भीड़
में वापिस
लाकर
समायोजित कर
देता है। वह
उसे सामान्य
बना देता है।
यह ठीक है; जितना हो
जाए उतना ही
ठीक है। लेकिन
हमारे लिए जब
तक आदमी मन के
पार नहीं जाता
है तब तक वह
पागल ही है, क्योंकि मन
ही पागलपन है।
इसलिए हम मन
का निर्ग्रंथन
करते हैं, ताकि
हम उसको जान
सकें जो मन के
पार है। वे भी
मन के
निर्ग्रंथन
के कुछ उपाय
करते हैं, लेकिन
उद्देश्य
समायोजन है।
उनके लिए मन
के पार कुछ
नहीं है। और
खयाल रहे, जब
तक तुम स्वयं
के पार नहीं
जाते, कुछ
भी
महत्वपूर्ण
घटित नहीं
होगा। जब तक
तुम्हारे लिए
तुमसे कुछ पार
पाने को नहीं
है, तब तक
जीवन निरर्थक
है।
कुछ और
बातें हैं।
फ्रायड और फ्रायडवादियों
के लिए मनुष्य
ऐसा प्राणी है
जो सुखी नहीं
हो सकता है।
उसके होने में
ही कुछ है कि
आदमी सुखी
नहीं हो सकता
है। तुम दुखी
न होओ, यही
काफी है। इतने
से संतुष्ट हो
जाओ कि तुम
दुखी नहीं हो,
यही काफी है।
तुम सुखी तो
हो नहीं सकते।
क्यों?
इसलिए
कि फ्रायडवादी
मनोविज्ञान
कहता है कि
केवल वृत्ति
के अनुकूल
जीने से पशुवत
जीने से सुख
उपलब्ध होता
है। लेकिन
मनुष्य वैसा
नहीं हो सकता।
बुद्धि
निरंतर
हस्तक्षेप
करती है, दखल देती है।
अगर तुम अपनी
बुद्धि को छोड़
दो, तर्क
को अलग कर दो, तो सुखी हो
सकते हो।
लेकिन
तब तुम्हें
अपने सुख का
बोध नहीं होगा।
फ्रायडियन
मनोविज्ञान
का यही
विरोधाभास है।
अगर तुम नीचे
गिरकर पशु हो
जाओ तो सुखी
तो हो जाओगे, लेकिन इस
सुख का
तुम्हें बोध
नहीं होगा। और
अगर तुम
बोधपूर्ण
होने की कोशिश
करोगे तो सुखी
नहीं रह सकते,
क्योंकि तब
तुम्हारे लिए
पशु जैसा होना
कठिन हो जाएगा।
और
बुद्धि
निरंतर हर चीज
में
हस्तक्षेप
करती है।
मनुष्य तर्क
को छोड़ नहीं
सकता, और
तर्क के साथ
रहना बड़ी
मुसीबत है। और
यही मनुष्य की
समस्या है, पीड़ा है। फ्रायड
के अनुसार
सुखी होना
असंभव है।
ज्यादा से
ज्यादा तुम
यही कर सकते
हो, अगर
तुम
बुद्धिमान हो,
कि अपने
जीवन को इस
ढंग से
नियोजित करो
कि दुख न हो।
लेकिन यह बहुत
नकारात्मक
बात है।
पूर्वीय
मनोविज्ञान
के सामने एक
विधायक गंतव्य
भी है। और वह
है कि तुम
सुखी हो सकते
हो। सुखी ही
नहीं, तुम
आनंदपूर्ण हो
सकते हो। और
पूर्वीय
मनोविज्ञान
यह भी कहता है कि
अगर तुम्हें पता
कि तुम दुखी
हो तो उसका
इतना ही अर्थ
है कि तुम्हारे
भीतर सुखी होने
की क्षमता है,
संभावना है।
अन्यथा दुख का
बोध नहीं हो
सकता। यदि कोई
व्यक्ति
अंधेरे
को देख
सकता है तो
उसका अर्थ है
कि उसके पास आंखें
हैं। और जो
अंधेरे को देख
सकता है वह
प्रकाश को भी
देख सकता है।
याद रहे, अंधा व्यक्ति
अंधकार को नहीं
देख सकता है। तुम
सोचते हो कि अंधे
लोग अंधकार
में जीते
होंगे। इस बात
को भूल जाओ।
वे अंधेरे को
भी नहीं देख
सकते हैं, क्योंकि
उसके लिए भी आंखें
चाहिए। वैसे
ही अगर तुम
दुख अनुभव
करते हो तो
सुख भी अनुभव
कर सकते हो।
सच तो यह है कि
अगर तुम सुख
नहीं अनुभव कर
सकते तो दुख
को भी अनुभव
करने की कोई
संभावना नहीं है।
ये ध्रुवीय विपरीतताए
हैं।
तुम
पूरी तरह सुखी
हो सकते हो, लेकिन तब
मन व्यर्थ हो
जाएगा। इसे
ऐसे समझो—अगर
तुम नीचे उतरकर
सिर्फ शरीर रह
जाओ तो तुम
सुखी हो जाओगे।
फ्रायड भी इस
बात से सहमत
है कि अगर तुम
नीचे गिरकर
अपनी बुद्धि
को बिलकुल भूल
जाओ, अगर
तुम पशु जैसे
हो जाओ, सिर्फ
शरीर रह जाओ, तो तुम सुखी
हो जाओगे।
लेकिन तब
तुम्हें यह
होश नहीं
रहेगा कि मैं
सुखी हूं। मन
से तुम जान सकते
हो कि तुम
सुखी हो, लेकिन
तब कठिनाई यह
है कि तुम
सुखी नहीं हो
सकते, क्योंकि
मन सदा
हस्तक्षेप
करता रहता है।
शरीर तो सुखी
हो सकता है, लेकिन मन
उसमें बाधा
डालता है।
पूर्व
ने एक और
संभावना का
विकास किया है, और वह है
पार जाने की
संभावना।
फ्रायड कहता
है कि तुम
पीछे लौटकर और
पशु होकर सुखी
हो सकते हो, लेकिन इस
सुख का बोध
नहीं होगा।
बोध के लिए मन
जरूरी है, मन
में होकर ही
तुम सुख को
जान सकते हो।
लेकिन मन के
रहते सुखी
नहीं हुआ जा
सकता है।
पूर्वीय
अनुसंधान
कहता है कि मन
के पार जाने से
तुम सुखी हो
सकते हो और
साथ—साथ
होशपूर्ण भी।
वह तीसरा
विकल्प है—मन
के पार जाने
का विकल्प।
तो ये
तीन विकल्प
हैं। मनुष्य
बीच में है।
नीचे पशु का
जगत है। जंगल
में जाकर
पशुओं को देखो, अनजाने
ही_ सही, वे सुखी हैं।
उन्हें नहीं
मालूम है कि
वे सुखी हैं, लेकिन तुम
जान सकते हो
कि वे सुखी
हैं। सुबह—सुबह
समुद्र—तट पर
चले जाओ, या
किसी बगीचे
में चले जाओ
और चिड़ियों की
चहचहाहट सुनो।
उन्हें भले ही
पता न हो, लेकिन
तुम जान जाओगे
कि वे सुखी
हैं। उनकी तरह
तुम कभी नहीं
गा सके हो।
उनकी आंखों
में झांककर
देखो, कैसी
निरभ्र और
निर्दोष आंखें
हैं! वे पक्षी
सुखी हैं, पर
तुम सुखी नहीं
हो।
नीचे
गिरकर केवल
शरीर रह जाओ
तो तुम सुखी
हो जाओगे। या
ऊपर उठकर 'आत्मा हो
जाओ तो भी तुम
सुखी हो जाओगे।
लेकिन मध्य
में रहकर तुम
सदा तनाव में
रहोगे।
क्योंकि मन
मंजिल नहीं है,
वह दो यथार्थों
के बीच, शरीर
और आत्मा के
बीच तनी हुई
एक रस्सी है।
तुम्हारी
हालत रस्सी पर
चलने वाले नट
जैसी है। वह
कभी चैन में
नहीं रह सकता।
या तो उसे आगे
जाना होगा या
पीछे जाना
होगा, बीच
में खड़ा नहीं
रहा जा सकता।
तब उसे रस्सी
से उतरना होगा।
दो ही विकल्प
हैं, या तो
वह आगे जाए या
पीछे जाए। मन
भी वैसी रस्सी
है, और मन
के साथ जीना
रस्सी पर चलना
है। उसमें
असंतुलन और
बेचैनी
अनिवार्य है।
हरेक क्षण
चिंता और
संताप का क्षण
है। मन का
जीवन तनाव का
जीवन है।’
यही
कारण है कि
पश्चिम का
मनोविज्ञान
तुम्हें
सामान्य बना
देता है, लेकिन वह
तुम्हें आत्मोपलब्ध
नहीं बना सकता।
लेकिन अब
पश्चिम भी सोच
रहा है, वहां
भी नए अंकुर
फूट
रहे हो प्रगाढ़
रूप से पूर्व पश्चिम
में प्रवेश कर
रहा।
असल
में पूरब के
जीतने का वही
ढंग है।
पश्चिम ने
पूरब पर विजय
पाई, लेकिन
उसका ढंग बड़ा
स्थूल था।
पूरब के जीतने
के अपने
रास्ते हैं।
वे बहुत
सूक्ष्म और
शांत हैं। अब
पूरब पश्चिमी
मन में प्रवेश
कर रहा है।
किसी हिंसा और
संघर्ष के
बगैर पूरब
पश्चिम के मन
में छाता जा
रहा है। देर—अबेर
पश्चिम के
मनोविज्ञान
को अतिक्रमण
की धारणा, मन
के पार जाने
की धारणा
विकसित करनी
होगी।
मन का
निर्ग्रंथन
दोनों ढंग से
सहयोगी सिद्ध हो
सकता है। अगर तुम
सिर्फ चित्त
को सामान्य
बनाना चाहते
हो तो वह
उसमें भी
सहयोगी होगा।
उस हालत में
अतिक्रमण
तुम्हारा
उद्देश्य नहीं
है। और अगर
अतिक्रमण
उद्देश्य हो
तो उसमें भी
निर्ग्रंथन
सहयोगी होगा।
ये विधिया
मानसिक शाति
के लिए भी काम
आ सकती हैं।
और ये विधियां
उस सच्ची शांति
के लिए भी काम
आ सकती हैं जो
मन की नहीं
हैं।
शांति
भी दो प्रकार
की है। एक तो
मन की शांति
है और दूसरी
शाति है जो मन
के पार की है।
और मन के नहीं
हो जाने पर जो
शांति उपलब्ध
होती है, वह मन की
शांति से
सर्वथा भिन्न
है। मन की
शाति में मन
रह जाता है, लेकिन उसकी
विक्षिप्तता
न्यून हो जाती
है।
पश्चिम
के
मनोविज्ञान
को अध्यात्म
पर आना होगा, तभी
मनुष्य
अतिक्रमण कर
सकता है। उसको
दर्शन भी बनना
होगा, और
अंततः उसे
धर्म बनना
होगा। केवल
तभी वह मनुष्य
को समाधि में
ले जा सकता है।
तीसरा
प्रश्न:
आप
ध्यान की अनेक
विधियों हमें समझाते
रहे है। लेकिन
क्या हय सच नहीं
है कि कोई विधि
तब तक बहुत शक्तिशाली
और कारगर नहीं
हो सकती जब तक साधक
को उसमे दीक्षित
न किया जाये?
कोई भी विधि
गुणात्मक रूप
से भिन्न हो
जाती है जब
तुम्हें
उसमें
दीक्षित किया
जाता है। मैं
विधियों की
चर्चा कर रहा
हूं तुम
उन्हें
प्रयोग में ला
सकते हो। तुम
उसकी
वैज्ञानिक
पृष्ठभूमि को
और उसके ढंग—ढांचे
को जान लो, तो तुम
उसे प्रयोग
में ला सकते
हो। लेकिन
दीक्षा से
उसकी
गुणवत्ता बदल
जाएगी। अगर मै
तुम्हें किसी
विशेष विधि
में दीक्षित करूं
तो बात और हो
जाएगी।
दीक्षा
के संबंध में
बहुत सी बातें
समझने जैसी
हैं। जब मैं
तुमसे किसी
विधि की चर्चा
और व्याख्या
करता हूं तो
तुम अपने ढंग
से उसे प्रयोग
में ला सकते
हो। विधि तो
तुम्हें समझा
दी गई है, लेकिन वह
तुम्हारे
अनुकूल है या
नहीं, वह
तुम पर काम
करेगी या नहीं,
या तुम किस
ढंग के आदमी
हो, ये
बातें नहीं
बताई गईं। वह
संभव भी नहीं
है।
दीक्षा
में तुम विधि
से अधिक
महत्वपूर्ण
होते हो। जब
गुरु तुम्हें
दीक्षित करता
है तो तुम्हारा
निरीक्षण भी
करता है। वह
खोजता है कि
तुम किस ढंग
के आदमी हो, कि तुमने पिछले
जन्मों में
क्या साधना की
है, कि तुम
ठीक इस क्षण कहां
हो, कि इस
क्षण तुम किस
केंद्र
पर जीते हो, और तब वह
विधि के संबंध
में निर्णय
लेता है, तब
वह तुम्हें
तुम्हारी
विधि देता है।
यह वैयक्तिक
मामला है।
उसमें विधि
नहीं तुम
महत्वपूर्ण
हो। उसमें
तुम्हारा
अध्ययन, निरीक्षण
और विश्लेषण किया
जाता है। तुम्हारे
पूर्वजन्म, तुम्हारी चेतना, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
शरीर, सबको
काट—पीटकर
देखा जाता है।
तुम अभी कहां
हो, इस बात
की पूरी
छानबीन की
जाती है।
क्योंकि
यात्रा उसी
बिंदु से शुरू
होती है जिस
बिंदु पर तुम
अभी हो।
इसलिए
ऐसा नहीं है
कि किसी भी
विधि से काम
चल जाएगा।
इतनी छानबीन
के बाद गुरु
तुम्हारे लिए
कोई खास विधि
चुनता है। और
अगर उसे लगे
कि तुम्हारे
लिए किसी विधि
में कोई हेर—फेर
की जरूरत है
तो गुरु उतना हेर—फेर
करके विधि को
तुम्हारे
उपयुक्त
बनाता है। और
तब वह दीक्षा
देता है। तब
वह विधि देता
है।
यही
कारण है कि इस
बात पर जोर
दिया जाता है
कि जब तुम
किसी विधि में
दीक्षित किए
जाओ तो तुम
उसके बारे में
किसी को कुछ
मत बताओ। इसे
गुप्त इसलिए
रखना है कि यह
वैयक्तिक है।
किसी दूसरे को
बताने से न
सिर्फ उसका
लाभ खो सकता
है, बल्कि
वह हानिकर भी
सिद्ध हो सकती
है।
इसलिए
गोपनीयता
जरूरी है। जब
तक तुम उपलब्ध
न हो जाओ और
तुम्हारे
गुरु न कहें
कि तुम अब
दूसरों को
दीक्षित कर
सकते हो, तब तक इसके
संबंध में
अपने पति, अपनी
पत्नी, या
मित्र से भी
एक शब्द नहीं
कहना है। यह
अत्यंत
गोपनीय है, क्योंकि यह
खतरनाक है, यह बहुत
शक्तिशाली है।
यह केवल
तुम्हारे लिए
चुनी गई विधि
है, इसलिए
तुम पर ही काम
करेगी।
सच तो
यह है कि
प्रत्येक
व्यक्ति इतना
अनूठा है कि
उसके लिए एक
अलग विधि की
जरूरत पड़ेगी।
और थोड़े ही हेर—फेर
के साथ कोई
विधि उसके लिए
उपयुक्त हो
सकती है। यह
जो चर्चा मैं
इन एक सौ बारह
विधियों के
संबंध में कर
रहा हूं वे
सामान्य
विधियां हैं, सामान्यीकृत
विधियां हैं।
वे विधियां
हैं जिन पर
प्रयोग हुए
हैं। यह उनका
सामान्य रूप
है ताकि तुम
उनसे परिचित
हो सको, ताकि
तुम प्रयोग कर
सको। यदि
उनमें से कोई
तुम्हें जंच
जाए, तो
तुम उसे जारी
रख सकते हो।
लेकिन
यह विधि में
दीक्षा नहीं
है। दीक्षा तो
गुरु और शिष्य
के बीच बिलकुल
वैयक्तिक बात
है। दीक्षा एक
गुह्य
संप्रेषण है।
इतना ही नहीं, दीक्षा
में और अनेक
बातें निहित
हैं। तब गुरु
को विधि देने
के लिए एक
सम्यक क्षण का
चुनाव करना
पड़ता है, ताकि
विधि
तुम्हारे
अचेतन की
गहराई में उतर
सके।
जब मैं
इनकी चर्चा कर
रहा हूं तो
तुम्हारा चेतन
मन सुन रहा है।
तुम उन्हें
भूल जाओगे। जब
चर्चा
समाप्तं होगी, तब इन एक
सौ बारह
विधियों के
तुम नाम भी
नहीं बता
सकोगे। अनेक
को तुम पूरी
तरह भूल जाओगे।
और जो थोड़ी सी
विधियां याद
रहेंगी वे एक—दूसरे
में इतनी उलझी
होंगी कि
तुम्हें कहना
मुश्किल होगा
कि कौन क्या
है।
इसलिए
गुरु को ठीक क्षण
खोजना पड़ता है
जब कि
तुम्हारा
अचेतन ग्राहक
हो, तभी
वह विधि बताता
है। ऐसा करने
से विधि अचेतन
की गहराई में
उतर जाती है।
इसलिए अनेक बार
नींद में दीक्षा
दी जाती जब
तुम्हारा
चेतन मन
बिलकुल सोया
होता है और
अचेतन मन खुला
होता है।
यही कारण
है कि दीक्षा
में समर्पण
बहुत जरूरी है।
जब तक तुम
समर्पित नहीं
होते तब तक दीक्षा
नहीं दी जा
सकती। इसका
कारण कि
समर्पण के
बिना चेतन मन
सजग बना रहता
है। समर्पण के
बाद चेतन मन
को छुट्टी दे
दी जाती है और
अचेतन मन सीधे—सीधे
गुरु के
संपर्क में
होता है।
इसलिए दीक्षा
का क्षण चुनना
बहुत
महत्वपूर्ण
है।
इतना
ही नहीं, दीक्षा के
लिए तैयारी भी
उतनी ही जरूरी
है। तुम्हें
तैयार करने
में महीनों लग
सकते हैं।
उसके लिए
सम्यक भोजन
चाहिए, सम्यक
नींद चाहिए।
और सब चीजों
को एक शांत
बिंदु पर
इकट्ठा होना चाहिए।
तभी तुम्हें
दीक्षा दी जा
सकती है।
दीक्षा एक
लंबी
प्रक्रिया है,
वैयक्तिक
प्रक्रिया है।
जब तक कोई
पूरी तरह
समर्पित होने
को तैयार नहीं
है तब तक
दीक्षा संभव
नहीं है।
तो मैं
यहां तुम्हें
इन विधियों
में दीक्षित नहीं
कर रहा हूं
मैं सिर्फ
तुम्हें उनसे
परिचित करा
रहा हूं। अगर
किसी को लगे
कि कोई विधि
उसको गहन रूप
से छूती है और
उसे उस विधि में
दीक्षित होना
चाहिए तो ही
मैं उसे
दीक्षित कर
सकता हूं।
लेकिन तब यह
एक लंबी
प्रक्रिया
होगी। तब
तुम्हारी
वैयक्तिकता
को पूरी तरह
जानना होगा।
तब तुम्हें
पूरी तरह नग्न
हो जाना पड़ेगा, ताकि कुछ
भी छिपा न रहे।
और तब चीजें
आसान हो जाती
हैं। क्योंकि
जब किसी सम्यक
व्यक्ति को
किसी सम्यक
क्षण में कोई
सम्यक विधि दी
जाती है तो वह
विधि तुरंत
कारगर होती है।
कभी—कभी
तो ऐसा होता
है कि शिष्य
दीक्षित होते—होते
ही बुद्धत्व
को उपलब्ध हो
जाता है। उसके
लिए दीक्षा ही
संबोधि बन
जाती है। जब
गुरु
गोपनीयता के
साथ और
वैयक्तिक ढंग
से किसी शिष्य
को विधि देता
है तो वह विधि
जीवंत हो उठती
है।
तो
यहां जो मैं
कह रहा हूं वह
दीक्षा नहीं
है, इसे
याद रखो। यह तो
एक सौ बारह
विधियों को पुनजीवित
करने के लिए, उन्हें
प्रकाश में
लाने के लिए
एक वैज्ञानिक प्रयत्न
है। लेकिन अगर
कोई उत्सुक
होगा तो उसे
दीक्षा दी जाएगी।
और जब कोई
सचमुच उत्सुक
होता है तो वह
दीक्षा की खोज
करता है। किसी
विधि पर अकेले—अकेले
काम करना बड़ी
लंबी
प्रक्रिया है।
उसमें वर्षों
लग सकते हैं, जन्मों लग
सकते हैं। और
हो सकता है कि
इतने लंबे समय
तक चलने का
धीरज
तुम्हारे पास
न हो।
दीक्षा
से बात बहुत
सरल हो जाती
है। तब विधि
खुद संप्रेषण
बन जाती है।
तब विधि के
जरिए गुरु तुम
पर काम करने
लगता है।
दीक्षा गुरु
के साथ जीवंत
संबंध है। और
जीवंत संबंध
निस्संदेह
गहरा जाता है।
वह तुम्हें
बदल देता है
और रूपांतरित
करता है।
अगला
प्रश्न:
आपने जार्ज
गुरूजिएफ को उद्धृत
करते हुए कहा कि
तादात्म्य ही
एक मात्र पाप है।
लेकिन यहां अनेक
विधियों में तादात्म्य
का उपयोग किया
गया है। उदाहरण
के लिए, कहा गया है कि
अपनी प्रेमिका
के साथ एक हो जाओ, गुलाब के फूल
के साथ एक हो जाओ, कि गुरु के साथ
एक अनुभव करो।
और फिर समानुभूति
को ध्यानपूर्ण
और आध्यात्मिक
गुण माना जाता
है। इसलिए गुरूजिएफ
का यह कथन अंशत:
ही सही हो सकता
है, और वह भी
थोड़ी सी विधियों
के प्रसंग में
ही।
नहीं, यह अंशत:
नहीं समग्रत:
सही है। लेकिन
इसे समझने की
जरूरत है। तादत्म्य
अचेतन
प्रक्रिया है।
लेकिन जब तुम
किसी ध्यान—विधि
में तादात्म
का उपयोग करते
हो तो वह चेतन प्रक्रिया
है।
उदाहरण
के लिए, तुम्हारा
नाम राम है।
किसी ने राम
को गाली दी तो
तुम तुरंत
अपमानित अनुभव
करते हो, क्योंकि
राम नाम के साथ
तुम्हारा
तादात्म है।
लेकिन यह
तादात्म चेतन
नहीं, अचेतन
है। तुम्हारा
मन इस तरह कभी
नहीं विचार
करता है कि
लोग मुझे राम
कहते हैं, लेकिन
मैं राम नहीं
हूं; यह
सिर्फ नाम है
मेरा, वैसे
हर कोई अनाम
पैदा होता है;
नाम दिया
हुआ है, कामचलाऊ
है; वह
आदमी मेरे
कामचलाऊ नाम
को गाली दे
रहा है; इसलिए
विचारणीय है
कि मैं क्रोध
करूं या नहीं।
तुम इस तरह
कभी तर्क—वितर्क
नहीं करते हो।
और अगर करो तो
तुम्हें कभी
क्रोध नहीं
होगा। लेकिन
होता यह है कि
राम को गाली
दी जाती है और तुम
अपमानित
अनुभव करते हो,
यद्यपि यह
नाम कामचलाऊ
और सांयोगिक
है। यह
तादात्म
अचेतन है, चेतन
नहीं।
लेकिन
जब तुम गुलाब
के साथ तादत्म्य
कर रहे हो तो
यह चेतन
प्रयत्न है।
गुलाब के साथ
तुम्हारा
पहले से कोई
तादात्म नहीं
है। तुम गुलाब
के साथ
तादात्म्य
बनाने की
चेष्टा करते
हो और तुम
अपने को भूलने
की चेष्टा
करते हो। तुम
गुलाब के साथ
एक होने के
प्रयत्न में
हो और तुम्हें
इसका गहरा बोध
है, पूरी
प्रक्रिया के
प्रति तुम
जागरूक हो। यह
तुम कर रहे हो।
और यदि
तादात्म भी
सचेतन किया
जाए तो वह
ध्यान बन जाता
है।
और यह
भी स्मरण रहे
कि अगर किसी
ध्यान की विधि
को बेहोशी में
प्रयोग करो तो
वह ध्यान नहीं
है। तुम हर
सुबह या हर
रात
प्रार्थना
करते हो। यह
बिलकुल अचेतन
है, तुम्हारी
दिनचर्या का
हिस्सा है। यह
यांत्रिक है।
प्रार्थना
करते हुए
तुम्हें होश
नहीं है कि तुम
क्या कर रहे
हो।
प्रार्थना के
जो शब्द कहते
हो उनके प्रति
भी तुम सजग
नहीं हो। तुम
तोते की तरह
उन्हें दोहरा
भर रहे हो। यह
ध्यान नहीं है।
और अगर
तुम स्नान भी
होशपूर्वक
करते हो तो वह ध्यान
है। इस बात को
खयाल में रख
लो कि जो भी
तुम सचेतन, सावधानी
से और
बोधपूर्वक
करते हो वह
ध्यान बन जाता
है। अगर पूरे
होश में
बोधपूर्वक
तुम किसी की
हत्या भी कर
दो तो वह
ध्यान है।
इसीलिए
कृष्ण अर्जुन
को कह सके कि
डरो मत, मारो—यह
जानते हुए
मारो कि न कोई
मारता है और न
कोई मरता है।
अर्जुन आसानी
से अपने
शत्रुओं को
बेहोशी में मार
सकता है, वह
क्रोध से पागल
होकर हत्या कर
सकता है। यह
आसान है।
लेकिन कृष्ण
कहते हैं कि
जागरूक रहो, पूरे होश
में रहो और
परमात्मा के
निमित्त बन जाओ,
और यह भी
जानो कि कोई न
मरता है न
मारा जाता है।
आत्मा अमर है,
शाश्वत है।
कृष्ण अर्जुन
को कहते हैं
कि सिर्फ शरीर
मरता है, इसलिए
शरीर को मारो।
और अगर
अर्जुन इतना
ध्यानपूर्ण
हो सकता है, इतना
जागरूक हो
सकता है तो
उसमें कोई
हिंसा नहीं है।
फिर न कोई
मरता है और न
कोई पाप होता
है।
मैं
तुम्हें
नागार्जुन के
जीवन से एक
प्रसंग बताता
हूं। भारत ने
जो महान गुरु
पैदा किए हैं, नागार्जुन
उनमें से एक
थे। वे बुद्ध,
महावीर और
कृष्ण की
क्षमता रखते
थे। और
नागार्जुन एक
दुर्लभ प्रतिभा
थी। सच तो यह
है कि बौद्धिक
तल पर सारी
दुनिया में वे
अतुलनीय हैं। ऐसी
तीक्ष्ण और प्रगाढ़
प्रतिभा कभी —कभी
घटित होती है।
नागर्जुन एक नगर से
गुजर रहे थे।
वह राजधानी है।
और नागार्जुन
सदा नग्न रहते
थे। उस राज्य
की रानी को
नागार्जुन के
प्रति बहुत
प्रेम था, बहुत
श्रद्धा थी, बहुत भक्ति
थी।
नागार्जुन
भोजन मांगने
राजमहल आए।
उनके हाथ में
लकड़ी का भिक्षापात्र
था। रानी ने
उनसे कहा कि
आप कृपा कर
मुझे यह भिक्षापात्र
दे दें। मैं
इसे आपकी भेंट
समझूंगी
और इसकी जगह
मैंने आपके
लिए दूसरा भिक्षापात्र
निर्मित कराया
है।
नागार्जुन
ने भेंट
स्वीकार कर ली।
दूसरा भिक्षापात्र
सोने का बना
था और उसमें
बहुमूल्य
रत्न जड़े हुए
थे। वह बहुत
कीमती था।
लेकिन
नागार्जुन ने
कुछ नहीं कहा।
सामान्यत: कोई
संन्यासी उसे
नहीं लेता, वह कहता
कि मैं सोना
नहीं छूता हूं।
लेकिन
नागार्जुन ने
उसे ले लिया।
अगर सच में
सोना मिट्टी
है तो भेद
क्या करना? नागार्जुन
ने उसे ले
लिया।
रानी
को यह बात
अच्छी नहीं
लगी। उसने
सोचा कि इतने
बड़े संत हैं, उन्हें
इनकार करना
चाहिए था।
स्वयं नग्न
रहते हैं, पास
में कुछ
संग्रह नहीं
रखते, फिर
उन्होंने
इतना कीमती भिक्षापात्र
कैसे स्वीकार
किया! और अगर
नागार्जुन
इनकार करते तो
रानी उन पर
लेने के लिए
जोर डालती और
तब उसे अच्छा
लगता। लेकिन
नागार्जुन
उसे लेकर चले
गए।
एक चोर
ने नगर से
उन्हें
गुजरते हुए
देखा। उसने
सोचा कि यह
आदमी ऐसा
बहुमूल्य भिक्षापात्र
अपने पास नहीं
रख सकेगा, कोई न कोई
जरूर इसकी
चोरी कर लेगा।
एक नंगा आदमी
कैसे उसकी
रक्षा कर सकता
है? और वह
चोर
नागार्जुन के
पीछे हो लिया।
नागार्जुन
नगर के बाहर
एक मठ में
रहते थे और अकेले
रहते थे। वह
मठ जीर्ण—शीर्ण
था।
नागार्जुन
उसके भीतर गए।
उन्होंने
अपने पीछे आते
हुए इस आदमी
की पदचाप सुनी।
वे समझ गए कि
वह किस लिए
पीछे—पीछे आ
रहा है, वह मेरे लिए
नहीं इस भिक्षापात्र
के लिए आ रहा
है। अन्यथा इस
जरा—जीर्ण मठ
में कौन आता!
नागार्जुन मठ
के अंदर गए और
चोर बाहर
दीवार के पीछे
खड़ा हो गया।
यह
देखकर कि चोर
बाहर ताक में
खड़ा है, नागार्जुन
ने भिक्षापात्र
को दरवाजे से
बाहर फेंक
दिया। चोर तो
चकित रह गया, उसको कुछ
समझ में नहीं
आया। यह कैसा
आदमी है! नंगा
है, इसके
पास इतना
कीमती पात्र
है और यह उसे
बाहर फेंक
देता है!
तो चोर
ने नागार्जुन
से कहा कि
क्या मैं अंदर
आ सकता हूं
क्योंकि मुझे
एक प्रश्न
पूछना है।
नागार्जुन ने
कहा कि मैंने
पात्र को
इसीलिए बाहर
फेंक दिया कि
तुम अंदर आ
सको। मैं अभी
अपनी दोपहर की
नींद लेने जा
रहा हूं। तुम भिक्षापात्र
लेने अंदर आते, लेकिन
मुझसे
तुम्हारी
मुलाकात नहीं
होती। तुम
अंदर आ जाओ।
चोर
अंदर गया।
उसने पूछा कि
ऐसी बहुमूल्य
वस्तु को आपने
फेंक कैसे
दिया? मैं
चोर हूं।
लेकिन आप ऐसे
संत हैं कि
आपसे मैं झूठ
नहीं बोल सकता।
मैं चोर हूं।
नागार्जुन ने
कहा कि चिंता
मत करो, हर
कोई चोर है।
तुम अपनी बात
निस्संकोच
कहो। फिजूल की
बातों में
वक्त मत खराब
करो।
चोर ने
कहा कि कभी—कभी
आप जैसे
व्यक्ति को
देखकर मेरे मन
में भी कामना
उठती कि काश, इस
स्थिति को मैं
भी उपलब्ध
होता! लेकिन चोर
हूं और यह
स्थिति मेरे
लिए असंभव
है। लेकिन
मेरी आशा और
प्रार्थना
रहेगी कि किसी
दिन मैं भी
ऐसी कीमती चीज
फेंक
सकूं।
बड़ी कृपा होगी
यदि आप मुझे
उपदेश करें।
मैं अनेक
संतों के पास
गया हूं। वे
मुझे जानते
हैं, क्योंकि
मैं एक नामी
चोर हूं। वे
सब यही कहते हैं
कि तुम पहले
अपने धंधे को छोड़ो, तभी तुम्हें
ध्यान में गति
मिल सकती है। लेकिन
यह मेरे लिए असाध्य
मालूत होता
है।मैं
चोरी का धंधा
छोड़ नहीं सकता।
क्या मेरे लिए
ध्यान नहीं है?
नागार्जुन
ने उत्तर में
कहा कि अगर
कोई कहता है
कि पहले चोरी छोड़ो और तब
ध्यान करो, तो उसे
ध्यान के बारे
में कुछ भी
पता नहीं है।
ध्यान और चोरी
के बीच संबंध
क्या है? कोई
संबंध नहीं है।
तुम जो भी
करते हो किए
जाओ। और मैं
तुम्हें विधि
देता हूं तुम
उसका प्रयोग
करो। तो चोर
ने कहा कि ऐसा
लगता है कि
आपके साथ मेरा
तालमेल बैठ
सकता है। क्या
सच ही मैं
अपना धंधा
जारी रख सकता
हूं? कृपया
जल्दी अपनी
विधि बताएं।
नागार्जुन
ने कहा, तुम सिर्फ
होश रखो, बोध
बढ़ाओ। जब
चोरी करने जाओ
तो उसके प्रति
भी सजग रहो, होशपूर्ण
रहो। जब सेंध
लगाओ तब जानते
रहो कि मैं
सेंध लगा रहा
हूं पूरे होश
में रहो। जब खजाने से
कुछ निकालो
तब भी जागरूक
रहो, होश
के साथ निकालो।
तुम क्या करते
हो इससे मुझे
लेना—देना
नहीं है, लेकिन
जो भी करो
बोधपूर्वक
करो। और
पंद्रह दिन
बाद मेरे पास
आना। लेकिन
यदि इस विधि
का अभ्यास न
कर सको तो मत
आना। पंद्रह
दिन निरंतर
अभ्यास करो।
जो भी जी में
आए करो, लेकिन
पूरे सजग होकर
करो।
चोर
तीसरे ही दिन
वापिस आया और
उसने
नागार्जुन से
कहा, पंद्रह
दिन का समय
बहुत है, मैं
आज ही आ गया।
आप बड़े चालाक
आदमी मालूम
होते हैं।
आपने ऐसी विधि
बताई कि मेरा
धंधा चलना
मुश्किल है।
पूरा होश रखकर
मैं चोरी नहीं
कर सकता हूं।
पिछली तीन
रातों से मैं
राजमहल जा रहा
हूं। मैं खजाने
तक गया, उसे
खोल भी लिया।
मेरे सामने
बहुमूल्य
हीरे—जवाहरात
थे, लेकिन
मैं तभी पूरी
तरह सजग हो
गया। और सजग
होते ही मैं
बुद्ध की
मूर्ति की तरह
हो गया, मैं
कुछ भी नहीं
कर सका। मेरे
हाथों ने
हिलने से
इनकार कर दिया
और सारा खजाना
व्यर्थ मालूम
पड़ने लगा। तीन
रातों से मैं
लौट—लौटकर
राजमहल जाता
हूं। समझ में
नहीं आता कि
मैं क्या
करूं! आपने तो
कहा था कि इस
विधि में धंधा
छोड़ने की शर्त
नहीं है, लेकिन
ऐसा लगता है
कि विधि में
ही कोई छिपी
प्रक्रिया है।
नागार्जुन
ने कहा, दुबारा मेरे
पास मत आना।
अब चुनाव
तुम्हें करना
है। अगर चोरी
जारी रखना
चाहते हो तो
ध्यान को भूल जाओ।
और अगर ध्यान
चाहते हो तो
चोरी को भूल
जाओ। चुनाव
तुम्हें करना
है।
चोर ने
कहा, आपने
तो मुझे बड़े
धर्मसंकट में
डाल दिया। इन
तीन दिनों में
मैंने जाना कि
मेरे भी आत्मा
है, और जब
मैं राजमहल
में कुछ चोरी
किए बिना
वापिस आया तो
पहली दफा मुझे
लगा कि मैं
सम्राट हूं
चोर नहीं। ये
तीन दिन इतने आनंदपूर्ण
रहे हैं कि
मैं अब ध्यान
नहीं छोड़ सकता।
आपने मेरे साथ
चालाकी की। अब
आप मुझे
दीक्षा दें और
अपना शिष्य
बना लें। और
अधिक प्रयोग
की जरूरत नहीं
है, तीन
दिन काफी हैं।
कुछ भी
विषय हो, यदि तुम सजग
रहो तो सब कुछ
ध्यान बन जाता
है।
तादात्म्य को
जागरूक होकर
प्रयोग में
लाओ, तब वह
ध्यान बन
जाएगा।
बेहोशी में
किया गया
तादात्म्य पाप
है।
तुम सब
अनेक चीजों से
तादात्म्य
किए बैठे हो।
यह मेरा है, वह मेरा है—यह
तादात्म्य है।
यह मेरा देश
है, यह
मेरा
राष्ट्रीय
झंडा है—ऐसा
भाव
तादात्म्य है।
अगर किसी ने तुम्हारे
राष्ट्रीय झंड़े को फेंक
दिया तो तुम्हें
क्रोध से भभक उठते
हो। लेकिन वह कर
क्या रहा है?
तुम्हारा
कोई राष्ट्र
नहीं है और
सभी राष्ट्रीय
झंडे कल्पित
हैं, झूठे
हैं। बच्चों
की तरह उनके
साथ खेलना
अच्छा है, वे
खिलौने ही हैं।
लेकिन तुम
उनके लिए मरने—मारने
पर उतारू हो।
एक राष्ट्रीय
झंडे के अपमान
के लिए देश
बनते हैं और
नष्ट किए जाते
हैं। और यह सब
केवल एक कपड़े
के टुकड़े के
लिए! यह क्या है?
यह सब
तुम्हारा
तादात्म है।
यह तादात्म्य
मूर्च्छा में है।
और मूर्च्छा
पाप।
आज
इतना ही।
(प्रथम भाग
समाप्त)
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