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शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

तंत्र--सूत्र-(भाग--1) प्रवचन--15

शुद्ध चैतन्‍य में प्रवेश की विधियां(प्रवचनपंद्रहवां)

सूत्र:

22—अपने अवधान को ऐसी जगह रखो,
जहां तुम अतीत की किसी घटना को देख रहे हो
और अपने शरीर को भी।
रूप के वर्तमान लक्षण खो जाएंगे,
और तुम रूपांतरित हो जाओगे।
      23—अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।
            इस एक को छोड़कर अन्‍य सभी विषयों की
            अनुपस्‍थिति को अनुभव करो।
            फिर विषय—भाव और अनुपस्‍थिति—भाव को भी
            छोड़कर आत्‍मोपलब्‍ध होओ।
      24—जब किसी व्‍यक्‍ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव
            उठे तो उसे उस व्‍यक्‍ति पर मत आरोपित करो,
            बल्‍कि केंद्रित रहो।



र्तमान युग के एक बहुत बड़े तांत्रिक, जार्ज गुरजिएफ का कहना है कि एक ही पाप है और वह तादात्म्य है। और केंद्रित होने के संबंध में जो अगला सूत्र है, दसवां सूत्र है—जिसमें हम आज रात प्रवेश करने जा रहे है—वह इसी तादात्म्य से संबंधित है। इसलिए पहले साफ समझ लेना है कि यह तादात्म्य क्या है।
तुम कभी बच्चे थे, अब नहीं हो। शीघ्र ही तुम जवान हो जाओगे, शीघ्र ही तुम बूढ़े हो जाओगे। और बचपन अतीत में खो जाएगा। जवानी भी चली गई, लेकिन अब भी तुम अपने बचपन से तादात्म्य किए बैठे हो। तुम यह नहीं देख सकते कि यह किसी और के साथ घटित हो रहा है, तुम इसके साक्षी नहीं हो पाते हो। जब भी तुम अपने बचपन को देखते हो, तुम उसके साथ एकात्म अनुभव करते हो; तुम उससे अलग नहीं होते हो। वैसे ही जब कोई अपनी जवानी को याद करता है तो वह उससे एकात्म हो जाता है। लेकिन हकीकत यह है कि यह अब केवल स्वप्न है।
और अगर तुम अपने बचपन को स्‍वप्‍न की तरह देख सको, वैसे ही जैसे पर्दे पर फिल्म देखते हो और उससे तादात्म्य नहीं करते, बस उसके साक्षी रहते हो, अगर ऐसा कर सको तो तुममें एक सूक्ष्म अंतर्दृष्टि का उदय होगा। अगर तुम अपने अतीत को फिल्म की तरह, स्वप्न की तरह देख सको—तुम उसके हिस्से नहीं हो, तुम उसके बाहर हो, और सचमुच बाहर हों—तो बहुत चीजें घटित होंगी।
अगर तुम अपने बचपन के बारे में सोच रहे हो; तुम वह नहीं हो, हो नहीं सकते। बचपन अब एक स्मृति भर है, अतीत स्मृति; तुम उसे देख रहे हो। तुम उससे भिन्न हो, तुम मात्र साक्षी हो। अगर तुम्हें इस साक्षीत्व की प्रतीति हो सके और तुम अपने बचपन को पर्दे पर फिल्म की तरह देख सको, तो अनेक चीजें घटित होंगी।
एक, अगर बचपन स्‍वप्‍न बन जाए और तुम उसे वैसे देख लो, तो अभी तुम जो कुछ हो वह भी अगले दिन स्वप्न हो जाएगा। यदि तुम जवान हो तो तुम्हारी जवानी स्वप्न हो जाएगी। यदि तुम बूढ़े हो तो तुम्हारा बुढ़ापा स्‍वप्‍न हो जाएगा। किसी दिन तुम बच्चे थे, अब वह बचपन स्वप्न बन गया। तुम इस तथ्य को देख सकते हो।
अतीत से शुरू करना अच्छा है। अतीत को देखो और उसके साथ अपना तादात्म्य हटा लो, सिर्फ गवाह हो जाओ। तब भविष्य को देखो, भविष्य के बारे में तुम्हारी जो कल्पना है, उसे देखो और उसके भी द्रष्टा बन जाओ। तब तुम अपने वर्तमान को आसानी से देख सकोगे, क्योंकि तब तुम जानते हो कि जो अभी वर्तमान है, कल भविष्य था और कल फिर वह अतीत हो जाएगा। लेकिन तुम्हारा साक्षी न कभी अतीत है न कभी भविष्य, तुम्हारी साक्षी चेतना शाश्वत है। साक्षी चेतना समय का अंग नहीं है। और यही कारण है कि जो भी समय में घटित होता है वह स्वप्न बन जाता है।
यह भी याद रखो कि जब रात में तुम सपने देखते हो तो सपने के साथ एकात्म हो जाते हो, स्वप्न में तुम्हें यह स्मरण बिलकुल नहीं रहता कि यह स्‍वप्‍न है। सिर्फ सुबह जब तुम नींद से जागते हो तो तुम्हें याद आता है कि वह सपना था, यथार्थ नहीं। क्यों? इसलिए कि अब तुम उससे अलग हो, उसमें नहीं हो; अब एक अंतराल है। और अब तुम देख सकते हो कि यह स्‍वप्‍न था।
तुम्हारा समूचा अतीत क्या है? जो अंतराल है, जो अवकाश है, उससे देखो कि वह सपना है। अतीत अब सपना ही है, सपने के सिवाय कुछ भी नहीं है। क्योंकि जैसे स्वप्न स्मृति बन जाता है वैसे ही अतीत भी स्मृति बन जाता है। तुम सचमुच सिद्ध नहीं कर सकते कि जो भी तुम अपने बचपन के रूप में सोचते हो, वह यथार्थ था या सपना। यह सिद्ध करना कठिन है। हो सकता है वह सपना ही रहा हो; हो सकता है वह सच ही हो। स्मृति नहीं कह सकती है कि वह स्वप्न था या सत्य।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि बूढ़े लोग अक्सर अपने स्वप्न और यथार्थ में भेद नहीं कर पाते हैं। और बच्चों को तो हमेशा यह उलझन पकड़ती है, सुबह नींद से जागकर उन्हें यह उलझन होती है। रात उन्होंने स्वप्न में जो देखा था वह सत्य नहीं था, लेकिन सुबह जागकर वे सपने में टूट गए खिलौने के लिए जोर—जोर से रोते हैं।
और तुम भी तो नींद के टूटने के बाद थोड़ी देर तक अपने स्‍वप्‍नों से प्रभावित रहते हो। अगर स्वप्न में कोई तुम्हारा खून कर रहा था तो जागने के बाद भी तुम्हारी छाती धड़कती रहती है, तुम्हारे रक्त का संचालन तेज बना रहता है, तुम्हारा पसीना बहता रहता है और एक सूक्ष्म भय अब भी तुम्हें घेरे रहता है। अब तुम जाग गए हो और स्वप्न बीत गया है, तो भी यह समझने में तुम्हें समय लगता है कि सपना सपना ही था। और जब तुम समझ लेते हो कि सपना सपना था तभी तुम उसके बाहर होते हो, और तब भय नहीं रह जाता।
वैसे ही तुम देख सकते हो कि तुम्हारा अतीत भी एक स्वप्न था। तुम्हारा अतीत स्वप्न था, इसे आरोपित नहीं करना है, इसे जबर्दस्ती अपने पर लादना नहीं है। यह तो अंतर्दृष्टि का परिणाम है। यदि तुम अपने अतीत को देख सको, उससे एकात्म हुए बिना उसे देख सकी, उससे अलग होकर उसे देख सको, तो अतीत स्वप्न हो जाता है। जिसे भी तुम साक्षी की तरह देखते हो वह स्वप्न हो जाता।
यही वजह है कि शंकर और नागार्जुन कह सके कि संसार स्वप्न है। ऐसा नहीं है कि यह स्‍वप्‍न है। वे इतने मूढ़ नहीं थे कि यह संसार उन्हें दिखाई नहीं पड़ता था। इसे स्वप्न कहने में उनका यही अभिप्राय था कि वे साक्षी हो गए हैं, इस यथार्थ जगत के प्रति वे साक्षी हो गए हैं। और जब तुम किसी चीज के साक्षी हो जाते हो तो वह स्वप्न बन जाती है। इसी वजह से व जगत को माया कहते हैं। यह नहीं कि वह यथार्थ नहीं है, उसका इतना ही अर्थ है कि कोई इस जगत का भी साक्षी हो सकता है। और एक बार तुम साक्षी हो जाओ, पूरे बोधपूर्ण हो जाओ तो पूरी चीज तुम्हारे लिए स्‍वप्‍नवत हो जाती है। क्योंकि वह तो है, लेकिन अब तुम उससे एकात्म नहीं हो। लेकिन हम तो तादात्म्य किए ही जाते हैं।
कुछ दिन पहले मैं जीन जेकुअस रूसो की पुस्तक कन्‍फेशंन पढ़ रहा था। यह एक अदभुत पुस्तक है। विश्व—साहित्य में यह पहली किताब है जिसमें किसी ने अपने को पूरा उघाड़कर रख दिया है। रूसो ने जो भी पाप किए थे, जो भी अनैतिकता की थी, सबको उसने पूरी नग्नता में प्रकट कर दिया है। लेकिन अगर तुम उसकी कन्‍फेशंन को पढ़ो तो तुम्हें स्पष्ट पता चलेगा कि रूसो अपने पापों का मजा ले रहा है, वह उनसे आनंदित है। अपने पापों और अनाचारों की चर्चा करते हुए रूसो बहुत आह्लादित मालूम पड़ता है। पुस्तक की भूमिका में रूसो ने लिखा है कि जब अंतिम न्याय का दिन आएगा तो मैं परमपिता से कहूंगा कि तुम मेरी फिक्र मत करो, बस मेरी किताब पढ़ लो। और पुस्तक के अंत में उसने लिखा है कि हे परमपिता! अब मेरी एक ही इच्छा पूरी कर दो, मैंने सब कुछ स्वीकार कर लिया है। अब एक बहुत बड़ी भीड़ इकट्ठी होकर मेरे कन्‍फेशंन को सुन ले।
अब यह संदेह किया जाता है और सही संदेह किया जाता है कि रूसो ने वे पाप भी स्वीकार किए जो उसने नहीं किए थे। क्योंकि वह पूरी चीज से इतना आह्लादित है, उसने सबके साथ तादात्म्य कर लिया है। रूसो ने एक ही पाप स्वीकार नहीं किया है, और वह है तादात्म्य का पाप। उसने अपने किए और अनकिए सभी पापों के साथ तादात्म्य किया हुआ है। और जो मनुष्य के मन को गहराई में जानते हैं वे कहते हैं कि तादात्म्य मौलिक पाप है।
जब पहली दफा रूसो ने बुद्धिजीवियों के एक समूह के सामने अपनी कन्‍फेशंन पढ़कर सुनाई तब उसे खयाल था कि कोई भूकंपकारी घटना शुरू हो रही है। क्योंकि जैसा उसने कहा, वह पहला व्यक्ति था जिसने इतनी सच्चाई से सब कुछ स्वीकारा था। लेकिन जो सुविधाजन उसे सुन रहे थे वे सुनते—सुनते ऊबने लगे। रूसो बड़ा हैरान हुआ, क्योंकि उसे खयाल था कि कोई चमत्कार घटित होने जा रहा है।
जब उसने पढ़ना समाप्त किया तब श्रोताओं ने राहत की सांस ली और किसी ने कुछ कहा नहीं। कुछ देर तक पूरा सन्नाटा रहा। रूसो की तो छाती बैठ गई। उसने तो सोचा था कि कोई बड़ी क्रांतिकारी, भूकंपकारी, ऐतिहासिक घटना घट रही है, और यहां सन्नाटा है, और लोग सोच रहे हैं कि कैसे यहां से सरका जाए।
तुम्हारे पापों में कौन उत्सुक है? न कोई तुम्हारे पापों में उत्सुक है, न कोई तुम्हारे पुण्यों में उत्सुक है। लेकिन आदमी है कि वह अपने पुण्य के मजे लेता है और अपने पाप के भी मजे लेता है, कि वह अपने पुण्य से अहंकार को भरता है और अपने पाप से भी अहंकार को भरता है। कन्‍फेशंन लिखकर रूसो अपने को संत—महात्मा समझने लगा था, लेकिन मौलिक पाप अपनी जगह खड़ा था।
समय में हुई घटनाओं के साथ तादात्म्य ही बुनियादी पाप है। जो भी समय में होता है वह स्‍वप्‍नवत है। और जब तक तुम उससे निसंग नहीं होते तब तक तुम नहीं जान सकते कि आनंद क्या है। तादात्म्य दुख है, गैर—तादात्म्य आनंद है।
यह दसवीं विधि तादात्म्य से संबंधित है।

 केंद्रित होने की दसवीं विधि :

अपने अवधान को ऐसी जगह रखो जहां तुम अतीत की किसी घटना को देख रहे हो और अपने शरीर को भी। रूप के वर्तमान लक्षण खो जाएंगे और तुम रूपांतरित हो जाओगे।
तुम अपने अतीत को याद कर रहे हो। चाहे वह कोई भी घटना हो; तुम्हारा बचपन, तुम्हारा प्रेम, पिता या माता की मृत्यु, कुछ भी हो सकता है। उसे देखो। लेकिन उससे एकात्म मत होओ। उसे ऐसे देखो जैसे वह किसी और के जीवन में घटा हो। उसे ऐसे देखो जैसे वह घटना पर्दे पर फिर से घट रही हो, फिल्माई जा रही हो, और तुम उसे देख रहे हो—उससे अलग, तटस्थ, साक्षी की तरह।
उस फिल्म में, कथा में तुम्हारा बीता रूप फिर उभर जाएगा। यदि तुम अपनी कोई प्रेम—कथा स्मरण कर रहे हो, अपने प्रेम की पहली घटना, तो तुम अपनी प्रेमिका के साथ स्मृति के पर्दे पर प्रकट होओगे और तुम्हारा अतीत का रूप प्रेमिका के साथ उभर आएगा। अन्यथा तुम उसे याद न कर सकोगे। अपने इस अतीत के रूप से भी तादात्म्य हटा लो। पूरी घटना को ऐसे देखो मानो कोई दूसरा पुरुष किसी दूसरी स्त्री को प्रेम कर रहा है, मानो पूरी कथा से तुम्हारा कुछ लेना—देना नहीं है; तुम महज द्रष्टा हो, गवाह हो।
यह विधि बहुत—बहुत बुनियादी है। इसे बहुत प्रयोग में लाया गया—विशेषकर बुद्ध के द्वारा। और इस विधि के अनेक प्रकार हैं। इस विधि के प्रयोग का अपना ढंग तुम खुद खोज ले सकते हो। उदाहरण के लिए, रात में जब तुम सोने लगो, गहरी नींद में उतरने लगो तो पूरे दिन के अपने जीवन को याद करो। इस याद की दिशा उलटी होगी, यानी उसे सुबह से न शुरू कर वहां से शुरू करो जहां तुम हो। अभी तुम बिस्तर में पड़े हो तो बिस्तर में लेटने से शुरू कर पीछे लौटो। और इस तरह कदम—कदम पीछे चलकर सुबह की उस पहली घटना पर पहुंचो जब तुम नींद से जागे थे। अतीत स्मरण के इस क्रम में सतत याद रखो कि पूरी घटना से तुम पृथक हो, अछूते हो।
उदाहरण के लिए, पिछले पहर तुम्हारा किसी ने अपमान किया था; तुम अपने रूप को अपमानित होते हुए देखो, लेकिन द्रष्टा बने रहो। तुम्हें उस घटना में फिर नहीं उलझना है, फिर क्रोध नहीं करना है। अगर तुमने क्रोध किया तो तादात्म्य पैदा हो गया। तब ध्यान का बिंदु तुम्हारे हाथ से छूट गया।
इसलिए क्रोध मत करो। वह अभी तुम्हें अपमानित नहीं कर रहा है, वह तुम्हारे पिछले पहर के रूप को अपमानित कर रहा है। वह रूप अब नहीं है। तुम तो एक बहती नदी की तरह हो जिसमें तुम्हारे रूप भी बह रहे हैं। बचपन में तुम्हारा एक रूप था, अब वह नहीं है। वह जा चुका। नदी की भांति तुम निरंतर बदलते जा रहे हो।
रात में ध्यान करते हुए जब दिन की घटनाओं को उलटे क्रम में, प्रतिक्रम में याद करो तो ध्यान रहे कि तुम साक्षी हो, कर्ता नहीं। क्रोध मत करो। वैसे ही जब तुम्हारी कोई प्रशंसा करे तो आह्लादित मत होओ। फिल्म की तरह उसे भी उदासीन होकर देखो।
प्रतिक्रमण बहुत उपयोगी है, खासकर उनके लिए जिन्हें अनिद्रा की तकलीफ हो। अगर तुम्हें ठीक से नींद नहीं आती है, अनिद्रा का रोग है, तो यह प्रयोग तुम्हें बहुत सहयोगी विधियां होगा। क्यों? क्योंकि यह मन को खोलने का, निर्ग्रंथ करने का उपाय है। जब तुम पीछे लौटते हो तो मन की तहें उघडने लगती हैं। सुबह में जैसे घड़ी में चाबी देते हो वैसे तुम अपने मन पर भी तहें लगाना शुरू करते हो। दिनभर में मन पर अनेक विचारों और घटनाओं के संस्कार जम जाते हैं; मन उनसे बोझिल हो जाता है। अधूरे और अपूर्ण संस्कार मन में झूलते रहते हैं, क्योंकि उनके घटित होते समय उन्हें देखने का मौका नहीं मिला था।
इसलिए रात में फिर उन्हें लौटकर देखो—प्रतिक्रम में। यह मन के निर्ग्रंथ की, सफाई की प्रक्रिया है। और इस प्रक्रिया में जब तुम सुबह बिस्तर से जागने की पहली घटना तक पहुंचोगे तो तुम्हारा मन फिर से उतना ही ताजा हो जाएगा जितना ताजा वह सुबह था। और तब तुम्हें वैसी नींद आएगी जैसी छोटे बच्चे को आती है।
तुम इस विधि को अपने पूरे अतीत जीवन में जाने के लिए भी उपयोग कर सकते हो। महावीर ने प्रतिक्रमण की इस विधि का बहुत उपयोग किया है।
अभी अमेरिका में एक आंदोलन है, जिसे डायनेटिक्स कहते हैं। वे इसी विधि का उपयोग कर रहे हैं, और वह बहुत काम की साबित हुई है। डायनेटिक्स वाले कहते हैं कि तुम्हारे सारे रोग तुम्हारे अतीत के अवशेष हैं—तलछट। और वे ठीक कहते हैं। अगर तुम अपने अतीत में लौटो, अपने जीवन को फिर से खोलकर देख लो, तो उसी देखने में बहुत से रोग विदा हो जाएंगे। और यह बात बहुत से प्रयोगों से सही सिद्ध हो चुकी है।
बहुत लोग किसी ऐसे रोग से पीड़ित होते हैं जिसमें कोई चिकित्सा, कोई उपचार काम नहीं करता है। यह रोग मानसिक मालूम होता है। तो उसके लिए क्या किया जाए? यदि किसी को कहो कि तुम्हारा रोग मानसिक है तो उससे बात बनने की बजाय बिगड़ती है। यह सुनकर कि मेरा रोग मानसिक है, किसी भी व्यक्ति को बुरा लगता है। तब उसे लगता है कि अब कोई उपाय नहीं है। और वह बहुत असहाय महसूस करता है।
प्रतिक्रमण एक चमत्कारिक विधि है। अगर तुम पीछे लौटकर अपने मन की गांठें खोलो तो तुम धीरे— धीरे उस पहले क्षण को पकड़ सकते हो जब यह रोग शुरू हुआ था। उस क्षण को पकड़कर तुम्हें पता चलेगा कि यह रोग अनेक मानसिक घटनाओं और कारणों से निर्मित हुआ है। प्रतिक्रमण से वे कारण फिर से प्रकट हो जाते हैं।
अगर तुम उस क्षण से गुजर सको जिसमें पहले पहल इस रोग ने तुम्हें घेरा था, अचानक तुम्हें पता चल जाएगा कि किन मनोवैज्ञानिक कारणों से यह रोग बना था। तब तुम्हें कुछ करना नहीं है, सिर्फ उन मनोवैज्ञानिक कारणों को बोध में ले आना है। इस प्रतिक्रमण से अनेक रोगों की ग्रंथियां टूट जाती हैं और अंततः रोग विदा हो जाते हैं। जिन ग्रंथियों को तुम जान लेते हो वे ग्रंथियां विसर्जित हो जाती हैं और उनसे बने रोग समाप्त हो जाते हैं।
यह विधि गहरे रेचन की विधि है। अगर तुम इसे रोज कर सको तो तुम्हें एक नया स्वास्थ्य और एक नई ताजगी का अनुभव होगा। और अगर हम अपने बच्चों को रोज इसका
प्रयोग करना सिखा दें तो उन्हें उनका अतीत कभी बोझिल नहीं बना सकेगा। तब बच्चों को अपने अतीत में लौटने की जरूरत नहीं रहेगी। वे सदा यहां और अब, यानी वर्तमान में रहेंगे। तब उन पर अतीत का थोड़ा सा भी बोझ नहीं रहेगा, वे सदा स्वच्छ और ताजा रहेंगे।
तुम इसे रोज कर सकते हो। पूरे दिन को इस तरह उलटे क्रम से पुन: खोलकर देख लेने से तुम्हें नई अंतर्दृष्टि प्राप्त होगी। तुम्हारा मन तो चाहेगा कि यादों का सिलसिला सुबह से शुरू करें। लेकिन उससे मन का निर्ग्रंथन नहीं होगा। उलटे पूरी चीज दुहरकर और मजबूत हो जाएगी। इसलिए सुबह से शुरू करना गलत होगा।
भारत में ऐसे अनेक तथाकथित गुरु हैं जो सिखाते हैं कि पूरे दिन का पुनरावलोकन करो और इस प्रक्रिया को सुबह से शुरू करो। लेकिन यह गलत और नुकसानदेह है। उससे मन मजबूत होगा और अतीत का जाल बड़ा और गहरा हो जाएगा। इसलिए सुबह से शाम की तरफ कभी मत चलो, सदा पीछे की ओर गति करो। और तभी तुम मन को पूरी तरह निर्ग्रंथ कर पाओगे, खाली कर पाओगे, स्वच्छ कर पाओगे।
मन तो सुबह से शुरू करना चाहेगा, क्योंकि वह आसान है। मन उस क्रम को भलीभांति जानता है, उसमें कोई अड़चन नहीं है। प्रतिक्रमण में भी मन उछलकर सुबह पर चला जाता है और फिर आगे चला चलेगा। वह गलत है, वैसा मत करो। सजग हो जाओ और प्रतिक्रम से चलो।
इसमें मन को प्रशिक्षित करने के लिए अन्य उपाय भी काम में लाए जा सकते हैं। सौ से पीछे की तरफ गिनना शुरू करो—निन्यानबे, अट्ठानबे, सत्तानबे। प्रतिक्रम से सौ से एक तक गिनो। इसमें भी अड़चन होगी, क्योंकि मन की आदत एक से सौ की ओर जाने की है, सौ से एक की ओर जाने की नहीं। इसी क्रम में घटनाओं को पीछे लौटकर स्मरण करना है।
क्या होगा? पीछे लौटते हुए मन को फिर से खोलकर देखते हुए तुम साक्षी हो जाओगे। अब तुम उन चीजों को देख रहे हो जो कभी तुम्हारे साथ घटित हुई थीं, लेकिन अब तुम्हारे साथ घटित नहीं हो रही हैं। अब तो तुम सिर्फ साक्षी हो, और वे घटनाएं मन के पर्दे पर घटित हो रही हैं।
अगर इस ध्यान को रोज जारी रखो तो किसी दिन अचानक तुम्हें दुकान पर या दफ्तर में काम करते हुए खयाल होगा कि क्यों नहीं अभी घटने वाली घटनाओं के प्रति भी साक्षीभाव रखा जाए! अगर समय में पीछे लौटकर जीवन की घटनाओं को देखा जा सकता है, उनका गवाह हुआ जा सकता है—दिन में किसी ने तुम्हारा अपमान किया था और तुम बिना क्रोधित हुए उस घटना को फिर देख सकते हो—तो क्या कारण है कि उन घटनाओं को जो अभी घट रही हैं, नहीं देखा जा सके? कठिनाई क्या है?
कोई तुम्हारा अपमान कर रहा है। तुम अपने को घटना से पृथक कर सकते हो और देख सकते हो कि कोई तुम्हारा अपमान कर रहा है। तुम यह भी देख सकते हो कि तुम अपने शरीर से, अपने मन से और उससे भी जो अपमानित हुआ है, पृथक हो। तुम सारी चीज के गवाह हो सकते हो। और अगर ऐसे गवाह हो सकी तो फिर तुम्हें क्रोध नहीं होगा। क्रोध तब असंभव जाएगा। क्रोध तो तब संभव होता है जब तुम तादात्म्य करते हो, अगर तादात्म्य म् नहीं है तो क्रोध असंभव है। क्रोध का अर्थ तादात्म्य है।
यह विधि कहती है कि अतीत की किसी घटना को देखो, उसमें तुम्हारा रूप उपस्थित होगा। यह सूत्र तुम्हारी नहीं, तुम्हारे रूप की बात करता है। तुम तो कभी वहां थे ही नहीं। सदा
किसी घटना में तुम्हारा रूप उलझता है, तुम उसमें नहीं होते। जब तुम मुझे अपमानित करते हो तो सच में तुम मुझे अपमानित नहीं करते। तुम मेरा अपमान कर ही नहीं सकते, केवल मेरे रूप का अपमान कर सकते हो। मैं जो रूप हूं तुम्हारे लिए तो उसी की उपस्थिति अभी है और तुम उसे अपमानित कर सकते हो। लेकिन मैं अपने को अपने रूप से पृथक कर सकता हूं। यही कारण है कि हिंदू नाम—रूप से अपने को पृथक करने की बात पर जोर देते आए हैं। तुम तुम्हारा नाम—रूप नहीं हो, तुम वह चैतन्य हो जो नाम—रूप को जानता है। और चैतन्य पृथक है, सर्वथा पृथक है।
लेकिन यह कठिन है। इसलिए अतीत से शुरू करो, वह सरल है। क्योंकि अतीत के साथ कोई तात्कालिकता का भाव नहीं रहता है। किसी ने बीस साल पहले तुम्हें अपमानित किया था, उसमें तात्कालिकता का भाव अब कैसे होगा! वह आदमी मर चुका होगा और बात समाप्त हो गई है। यह एक मुर्दा घटना है। अतीत से याद की हुई। उसके प्रति जागरूक होना आसान है। लेकिन एक बार तुम उसके प्रति जागना सीख गए तो अभी और यहां होने वाली घटनाओं के प्रति भी जागना हो सकेगा। लेकिन अभी और यहां से आरंभ करना कठिन है। समस्या इतनी तात्कालिक है, निकट है, जरूरी है कि उसमें गति करने के लिए जगह ही कहा है! थोड़ी दूरी बनाना और घटना से पृथक होना कठिन बात है।
इसीलिए सूत्र कहता है कि अतीत से आरंभ करो। अपने ही रूप को अपने से अलग देखो और उसके द्वारा रूपांतरित हो जाओ।
इसके द्वारा रूपांतरित हो जाओगे, क्योंकि यह निर्ग्रंथन है—एक गहरी सफाई है, धुलाई है। और तब तुम जानोगे कि समय में जो तुम्हारा शरीर है, तुम्हारा मन है, अस्तित्व है, वह तुम्हारा वास्तविक यथार्थ नहीं है, वह तुम्हारा सत्य नहीं है। सार—सत्य सर्वथा भिन्न है। उस सत्य से चीजें आती—जाती हैं और सत्य अछूता रह जाता है। तुम अस्पर्शित रहते हो, निर्दोष रहते हो, कुंवारे रहते हो। सब कुछ गुजर जाता है, पूरा जीवन गुजर जाता है। शुभ और अशुभ, सफलता और विफलता, प्रशंसा और निंदा, सब कुछ गुजर जाता है। रोग और स्वास्थ्य, जवानी और बुढ़ापा, जन्म और मृत्यु, सब कुछ व्यतीत हो जाता है और तुम अछूते रहते हो। लेकिन इस अस्पर्शित सत्य को कैसे जाना जाए?
इस विधि का वही उपयोग है। अपने अतीत से आरंभ करो। अतीत को देखने के लिए अवकाश उपलब्ध है, अंतराल उपलब्ध है, परिप्रेक्ष्य संभव है। या भविष्य को देखो, भविष्य का निरीक्षण करो। लेकिन भविष्य को देखना भी कठिन है। सिर्फ थोड़े से लोगों के लिए भविष्य को देखना कठिन नहीं है। कवियों और कल्पनाशील लोगों के लिए भविष्य को देखना कठिन नहीं है। वे भविष्य को ऐसे देख सकते हैं जैसे वे किसी यथार्थ को देखते हैं। लेकिन सामान्‍यत: अतीत को उपयोग में लाना अच्छा है, तुम अतीत में देख सकते हो।
जवान लोगों के लिए भविष्य में देखना अच्छा रहेगा। उनके लिए भविष्य में झांकना सरल है, क्योंकि वे भविष्योन्मूख होते हैं। बूढ़े लोगों के लिए मृत्यु के सिवाय कोई भविष्य नहीं है। वे भविष्य में नहीं देख सकते हैं, वे भयभीत हैं। यही वजह है कि बूढ़े लोग सदा अतीत के संबंध में विचार करते हैं। वे पुन: —पुन: अपने अतीत की स्मृति में घूमते रहते हैं। लेकिन वे भी वही भूल करते हैं। वे अतीत से शुरू कर वर्तमान की ओर आते हैं। यह गलत है। उन्हें प्रतिक्रमण करना चाहिए।
अगर वे बार—बार अतीत में प्रतिक्रम से लौट सकें तो धीरे— धीरे उन्हें महसूस होगा कि उनका सारा अतीत बह गया। और तब कोई आदमी अतीत से चिपके बिना, अटके बिना मर सकता है। अगर तुम अतीत को अपने से चिपकने न दो, अतीत में न अटको, अतीत को हटाकर मर सको, तब तुम सजग मरोगे, तब तुम पूरे बोध में, पूरे होश में मरोगे। और तब मृत्यु तुम्हारे लिए मृत्यु नहीं रहेगी, बल्कि वह अमृत के साथ मिलन में बदल जाएगी।
अपनी पूरी चेतना को अतीत के बोझ से मुक्त कर दो, उससे अतीत के मैल को निकालकर उसे शुद्ध कर दो, और तब तुम्हारा जीवन रूपांतरित हो जाएगा।
प्रयोग करो। यह उपाय कठिन नहीं है। सिर्फ अध्यवसाय की, सतत चेष्टा की जरूरत है। विधि में कोई अंतर्भूत कठिनाई नहीं है। यह सरल है। और तुम आज से ही इसे शुरू कर सकते हो। आज ही रात अपने बिस्तर में लेटकर शुरू करो, और तुम बहुत सुंदर और आनंदित अनुभव करोगे। पूरा दिन फिर से गुजर जाएगा।
लेकिन जल्दबाजी मत करो। धीरे— धीरे पूरे क्रम से गुजरों, ताकि कुछ भी दृष्टि से चूके नहीं। यह एक आश्चर्यजनक अनुभव है, क्योंकि अनेक ऐसी चीजें तुम्हारी निगाह के सामने आएंगी जिन्हें दिन में तुम चूक गए थे। दिन में बहुत व्यस्त रहने के कारण तुम बहुत—बहुत चीजें चूकते हो, लेकिन मन उन्हें भी अपने भीतर इकट्ठा करता जाता है, तुम्हारी बेहोशी में भी मन उनको ग्रहण करता जाता है।
तुम सड़क से जा रहे थे और कोई आदमी गा रहा था। हो सकता है कि तुमने उसके गीत पर कोई ध्यान न दिया हो, तुम्हें यह भी बोध न हुआ हो कि तुमने उसकी आवाज भी सुनी। लेकिन तुम्हारे मन ने उसके गीत को भी सुना और अपने भीतर स्मृति में रख लिया था। अब वह गीत तुम्हें पकड़े रहेगा, वह तुम्हारी चेतना पर अनावश्यक बोझ बना रहेगा।
तो पीछे लौटकर उसे देखो, लेकिन बहुत धीरे— धीरे उसमें गति करो। ऐसा समझो कि पर्दे पर बहुत धीमी गति से कोई फिल्म दिखायी जा रही है। ऐसे ही अपने बीते दिन की छोटी से छोटी घटना को गौर से देखो, उसकी गहराई में जाओ। और तब तुम पाओगे कि तुम्हारा दिन बहुत बड़ा था। वह सचमुच बड़ा था, क्योंकि मन को उसमें अनगिनत सूचनाएं मिलीं और मन ने सबको इकट्ठा कर लिया।
तो प्रतिक्रमण करो। धीरे— धीरे तुम उस सबको जानने में सक्षम हो जाओगे जिन्हें तुम्हारे मन ने दिनभर में अपने भीतर इकट्ठा कर लिया था। वह टेप रेकार्डर जैसा है। और तुम जैसे—जैसे पीछे जाओगे, मन का टेप पुंछता जाएगा, साफ होता जाएगा। और जब तक तुम सुबह की घटना के पास पहुंचोगे, तुम्हें नींद आ जाएगी। और तब तुम्हारी नींद की गुणवत्ता और होगी। वह नींद भी ध्यानपूर्ण होगी।
और दूसरे दिन सुबह नींद से. जागने पर अपनी आंखों को तुरंत मत खोलो। एक बार फिर रात की घटनाओं में प्रतिक्रम से लौटी। आरंभ में यह कठिन होगा। शुरू में बहुत थोड़ी गति होगी। कभी कोई स्‍वप्‍न का अंश, उस स्‍वप्‍न का अंश जिसे ठीक जागने के पहले तुम देख रहे थे, दिखाई पड़ेगा। लेकिन धीरे— धीरे तुम्हें ज्यादा बातें स्मरण आने लगेंगी, तुम गहरे प्रवेश करने लगोगे। और तीन महीने के बाद तुम समय के उस छोर पर पहुंच जाओगे जब तुम्हें नींद लगी थी, जब तुम सो गए थे।
और अगर तुम अपनी नींद में प्रतिक्रम से गहरे उतर सके तो तुम्हारी नींद और जागरण

 की गुणवत्ता बिलकुल बदल जाएगी। तब तुम्हें सपने नहीं आएंगे, तब सपने व्यर्थ हो जाएंगे। अगर दिन और रात दोनों में तुम प्रतिक्रमण कर सके तो फिर सपनों की जरूरत नहीं रहेगी।
अब मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि सपना भी मन को फिर से खोलने, खाली करने की प्रक्रिया है। और अगर तुम स्वयं यह काम प्रतिक्रमण के द्वारा कर लो तो स्वप्न देखने की जरूरत नहीं रहेगी। सपना इतना ही तो करता है कि जो कुछ भी मन में अटका पड़ा था, अधूरा पड़ा था, अपूर्ण था, उसे वह पूरा कर देता है।
तुम सड़क से गुजर रहे थे और तुमने एक सुंदर मकान देखा और तुम्हारे भीतर उस मकान को पाने की सूक्ष्म वासना पैदा हो गई। लेकिन उस समय तुम दफ्तर जा रहे थे और तुम्हारे पास दिवा—स्वप्न देखने का समय नहीं था। तुम उस कामना को टाल गए, तुम्हें यह पता भी नहीं चला कि मन ने मकान को पाने की कामना निर्मित की थी। लेकिन वह कामना अब भी मन के किसी कोने में अटकी पड़ी है। और अगर तुमने उसे वहां से नहीं हटाया तो वह तुम्हारी नींद मुश्किल कर देगी।
नींद की कठिनाई यही बताती है कि तुम्हारा दिन अभी भी तुम पर हावी है और तुम उससे मुक्त नहीं हुए हो। तब रात में तुम स्वप्न देखोगे कि तुम उस मकान के मालिक हो गए हो, और अब तुम उस मकान में वास कर रहे हो। और जिस क्षण यह स्वप्न घटित होता है, तुम्हारा मन हलका हो जाता है।
सामान्यत: लोग सोचते हैं कि सपने नींद में बाधा डालते हैं, यह सर्वथा गलत है। सपने नींद में बाधा नहीं डालते। सच तो यह है कि सपने नींद में सहयोगी होते हैं। सपनों के बिना तुम बिलकुल नहीं सो सकते हो। जैसे तुम हो, तुम सपनों के बिना नहीं सो सकते हो। क्योंकि सपने तुम्हारी अधूरी चीजों को पूरा करने में सहयोगी हैं।
और ऐसी चीजें हैं जो पूरी नहीं हो सकतीं। तुम्हारा मन अनर्गल कामनाएं किए जाता है, वे यथार्थ में पूरी नहीं हो सकती हैं। तो क्या किया जाए? वे अधूरी कामनाएं तुम्हारे भीतर बनी रहती हैं और तुम आशा किए जाते हो, सोच—विचार किए जाते हो। तो क्या किया जाए? तुम्हें एक सुंदर स्त्री दिखाई पड़ी और तुम उसके प्रति आकर्षित हो गए। अब उसे पाने की कामना तुम्हारे भीतर पैदा हो गई, जो हो सकता है संभव न हो। हो सकता है वह स्त्री तुम्हारी तरफ ताकना भी पसंद न करे। तब क्या हो?
स्‍वप्‍न यहां तुम्हारी सहायता करता है। स्वप्न में तुम उस स्त्री को पा सकते हो। और तब तुम्हारा मन हलका हो जाएगा। जहां तक मन का संबंध है, स्वप्न और यथार्थ में कोई फर्क नहीं है। मन के तल पर क्या फर्क है? किसी स्त्री को यथार्थत: प्रेम करने और सपने में प्रेम करने में क्या फर्क है?
कोई फर्क नहीं है। अगर फर्क है तो इतना ही कि स्वप्न यथार्थ से ज्यादा सुंदर होगा। स्वप्न की स्त्री कोई अड़चन नहीं खड़ी करेगी। स्वप्‍न तुम्हारा है और उसमें तुम जो चाहो कर सकते हो। वह स्त्री तुम्हारे लिए कोई बाधा नहीं पैदा करेगी। वह तो है ही नहीं, तुम ही हो। वहां कोई भी अड़चन नहीं है, तुम जो चाहो कर सकते हो। मन के लिए कोई भेद नहीं है, मन स्वप्न और यथार्थ में कोई भेद नहीं कर सकता है।
उदाहरण के लिए तुम्हें यदि एक साल के लिए बेहोश करके रख दिया जाए और उस बेहोशी में तुम सपने देखते रहो तो एक साल तक तुम्हें बिलकुल पता नहीं चलेगा कि जो भी तुम देख रहे हो वह सपना है। सब यथार्थ जैसा लगेगा, और स्वप्न सालभर चलता रहेगा। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि अगर किसी व्यक्ति को सौ साल के लिए कोमा में रखा दिया जाए तो वह सौ साल तक सपने देखता रहेगा, और उसे क्षणभर के लिए भी संदेह नहीं होगा कि जो मैं कर रहा हूं वह स्वप्न में कर रहा हूं। और यदि वह कोमा में ही मर जाए तो उसे कभी पता नहीं चलेगा कि मेरा जीवन एक स्वप्न था, सच नहीं था।
मन के लिए कोई भेद नहीं है, सत्य और स्‍वप्‍न दोनों समान हैं। इसलिए मन अपने को सपनों में भी निर्ग्रंथ कर सकता है। अगर इस विधि का प्रयोग करो तो सपना देखने की जरूरत नहीं रहेगी। तब तुम्हारी नींद की गुणवत्ता भी पूरी तरह बदल जाएगी। क्योंकि सपनों की अनुपस्थिति में तुम अपने अस्तित्व की आत्यंतिक गहराई में उतर सकोगे। और तब नींद में भी तुम्हारा बोध कायम रहेगा।
कृष्ण गीता में यही बात कह रहे हैं कि जब सभी गहरी नींद में होते हैं तो योगी जागता है। इसका यह अर्थ नहीं कि योगी नहीं सोता है। योगी भी सोता है, लेकिन उसकी नींद का गुणधर्म भिन्न है। तुम्हारी नींद ऐसी है जैसी नशे की बेहोशी होती है। योगी की नींद प्रगाढ़ विश्राम है, जिसमें कोई बेहोशी नहीं रहती है। उसका सारा शरीर विश्राम में होता है; एक—एक कोश विश्राम में होता है, वहां जरा भी तनाव नहीं रहता। और बड़ी बात कि योगी अपनी नींद के प्रति भी जागरूक रहता है।
इस विधि का प्रयोग करो। आज रात से ही प्रयोग शुरू करो, और तब फिर सुबह भी इसका प्रयोग करना। एक सप्ताह में तुम्हें मालूम होगा कि तुम विधि से परिचित हो गए हो। एक सप्ताह के बाद अपने अतीत पर प्रयोग करो। बीच में एक दिन की छुट्टी रख सकते हो, किसी एकांत स्थान में चले जाओ। अच्छा हो कि उपवास करो—उपवास और मौन। स्वात समुद्र—तट पर या किसी झाडू के नीचे लेटे रहो और वहां से, उसी बिंदु से अपने अतीत में प्रवेश करो। अगर तुम समुद्र—तट पर लेटे हो तो रेत को अनुभव करो, धूप को अनुभव करो और तब पीछे की ओर सरको। और सरकते चले जाओ, अतीत में गहरे उतरते चले जाओ और देखो कि कौन सी आखिरी बात स्मरण आती है।
तुम्हें आश्चर्य होगा कि सामान्यत: तुम बहुत कुछ स्मरण नहीं कर सकते हो। सामान्यत: अपनी चार या पांच वर्ष की उम्र के आगे नहीं जा सकोगे। जिनकी याददाश्त बहुत अच्छी है वे तीन वर्ष की सीमा तक जा सकते हैं। उसके बाद अचानक एक अवरोध मिलेगा जिसके आगे सब कुछ अंधेरा मिलेगा। लेकिन अगर तुम इस विधि का प्रयोग करते रहे तो धीरे— धीरे यह अवरोध टूट जाएगा और तुम अपने जन्म के प्रथम दिन को भी याद कर पाओगे।
वह एक बड़ा रहस्योदघाटन होगा। तब धूप, बालू और सागर—तट पर लौटकर तुम एक दूसरे ही आदमी होगे।
यदि तुम श्रम करो तो तुम गर्भ तक जा सकते हो। तुम्हारे पास मां के पेट की स्मृतियां भी हैं। मां के साथ नौ महीने होने की बातें भी तुम्हें याद हैं। तुम्हारे मन में उन नौ महीनों की
कथा भी लिखी है। जब तुम्हारी मां दुखी हुई थी तो तुमने उसको भी मन में लिख लिया था। क्योंकि मां के दुखी होने से तुम भी दुखी हुए थे। तुम अपनी मां के साथ इतने जुड़े थे, संयुक्त थे कि जो कुछ तुम्हारी मां को होता था वह तुम्हें भी होता था। जब वह क्रोध करती थी तो तुम भी क्रोध करते थे। जब वह खुश थी तो तुम भी खुश थे। जब कोई उसकी प्रशंसा करता था तो तुम भी प्रशंसित अनुभव करते थे। और जब वह बीमार होती थी तो उसकी पीड़ा से तुम भी पीड़ित होते थे।
यदि तुम गर्भ की स्मृति में प्रवेश कर सको तो समझो कि राह मिल गई। और तब तुम और गहरे उतर सकते हो। तब तुम उस क्षण को भी याद कर सकते हो जब तुमने मां के गर्भ में प्रवेश किया था। इसी जाति—स्मरण के कारण महावीर और बुद्ध कह सके कि पूर्वजन्म है और पुनर्जन्म है। पुनर्जन्म कोई सिद्धात नहीं है, वह एक गहन अनुभव है।
और अगर तुम उस क्षण की स्मृति को पकड़ सको जब तुमने मा के गर्भ में प्रवेश किया था तो तुम उससे भी आगे जा सकते हो, तुम अपने पूर्व—जीवन की मृत्यु को भी याद कर सकते हो। और एक बार तुमने उस बिंदु को छू लिया तो समझो कि विधि तुम्हारे हाथ लग गई। तब तुम आसानी से अपने सभी पूर्व—जन्मों में गति कर सकते हो।
यह एक अनुभव है, और इसके परिणाम आश्चर्यजनक हैं। तब तुम्हें पता चलता है कि तुम जन्मों—जन्मों से उसी व्यर्थता को जी रहे हो जो अभी तुम्हारे जीवन में है। एक ही मूढ़ता को तुम जन्मों—जन्मों में दुहराते रहे हो। भीतरी ढंग—ढांचा वही है, सिर्फ ऊपर—ऊपर थोड़ा फर्क है। अभी तुम इस स्त्री के प्रेम में हो, कल किसी अन्य स्त्री के प्रेम में थे। कल तुमने धन बटोरा था, आज भी धन बटोर रहे हो। फर्क इतना ही है कि कल के सिक्के और थे, आज के सिक्के और हैं। लेकिन सारा ढांचा वही है, जो पुनरावृत्त होता रहा है।
और एक बार तुम देख लो कि जन्मों—जन्मों से एक ही तरह की मूढ़ता एक दुश्चक्र की भांति घूमती रही है तो अचानक तुम जाग जाओगे और तुम्हारा पूरा अतीत स्‍वप्‍न से ज्यादा नहीं रहेगा। तब वर्तमान सहित सब कुछ स्वप्न जैसा लगेगा। तब तुम उससे सर्वथा टूट जाओगे और अब नहीं चाहोगे कि भविष्य में फिर यह मूढ़ता दुहरे। तब वासना समाप्त हो जाएगी। क्योंकि वासना भविष्य में अतीत का ही प्रक्षेपण है, उससे अधिक कुछ नहीं है। तुम्हारा अतीत का अनुभव भविष्य में दुहरना चाहता है। वही तुम्हारी कामना है, चाह है।
पुराने अनुभव को फिर से भोगने की चाह ही कामना है। और जब तक तुम इस पूरी प्रक्रिया के प्रति होशपूर्ण नहीं होते हो तब तक वासना से मुक्त नहीं हो सकते। कैसे हो सकते हो? तुम्हारा समस्त अतीत एक अवरोध बनकर खड़ा है; वह चट्टान की तरह तुम्हारे सिर पर सवार है और वही तुम्हें तुम्हारे भविष्य की ओर धका रहा है। अतीत कामना को जन्म देकर उसे भविष्य में प्रक्षेपित करता है।
अगर तुम अपने अतीत को स्‍वप्‍न की तरह जान जाओ तो सभी कामनाएं बांझ हो जाएंगी। और कामनाओं के गिरते ही भविष्य समाप्त हो जाता है। और इस अतीत और भविष्य की समाप्ति के साथ तुम रूपांतरित हो जाते हो।

केंद्रित होने की ग्यारहवीं विधि:

अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो। फिर विषय— भाव और अनुपस्थिति— भाव को भी छोड़कर आत्मोपलब्ध होओ।
'पने सामने किसी विषय को अनुभव करो।
कोई भी विषय, उदाहरण के लिए एक गुलाब का फूल है—कोई भी चीज चलेगी।अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो।
देखने से काम नहीं चलेगा, अनुभव करना है। तुम गुलाब के फूल को देखते हो, लेकिन उससे तुम्हारा हृदय आदोलित नहीं होता है। तब तुम गुलाब को अनुभव नहीं करते हो। अन्यथा तुम रोते और चीखते, अन्यथा तुम हंसते और नाचते। तुम गुलाब को महसूस नहीं कर रहे हो, सिर्फ गुलाब को देख रहे हो।
और तुम्हारा देखना भी पूरा नहीं, अधूरा है। तुम कभी किसी चीज को पूरा नहीं देखते, अतीत हमेशा बीच में आता रहता है। गुलाब को देखते ही अतीत—स्मृति कहती है कि यह गुलाब है। और यह कहकर तुम आगे बढ़ जाते हो। लेकिन तब तुमने सच में गुलाब को नहीं देखा। जब मन कहता है कि यह गुलाब है तो उसका अर्थ हुआ कि तुम इसके बारे में सब कुछ जानते हो, क्योंकि तुमने बहुत गुलाब देखे हैं। मन कहता है कि अब और क्या जानना है, आगे बढ़ो। और तुम आगे बढ़ जाते हो।
यह देखना अधूरा है। यह देखना देखना नहीं है। गुलाब के फूल के साथ रहो। उसे देखो और फिर उसे महसूस करो, उसे अनुभव करो। अनुभव करने के लिए क्या करना है? उसे स्पर्श करो, उसे शो, उसे गहरा शारीरिक अनुभव बनने दो। पहले अपनी आंखों को बंद करो और गुलाब को अपने पूरे चेहरे को छूने दो। इस स्पर्श को महसूस करो। फिर गुलाब को आंख से स्पर्श करो। फिर गुलाब को नाक से सूंघों। फिर गुलाब के पास हृदय को ले जाओ और उसके साथ मौन हो जाओ। गुलाब को अपना भाव अर्पित करो। सब कुछ भूल जाओ। सारी दुनिया को भूल जाओ। और ऐसे गुलाब के साथ समग्रत: रहो।
'अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड़कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो।
यदि तुम्हारा मन अन्य चीजों के संबंध में सोच रहा है तो गुलाब का अनुभव गहरा नहीं जाएगा। सभी अन्य गुलाबों को भूल जाओ। सभी अन्य लोगों को भूल जाओ। सब कुछ को भूल जाओ। केवल इस गुलाब को रहने दो। यही गुलाब, हा यही गुलाब। सब कुछ को भूल जाओ और इस गुलाब को तुम्हें आच्छादित कर लेने दो। समझो कि तुम इस गुलाब में डूब गए हो।
यह कठिन होगा, क्योंकि हम इतने संवेदनशील नहीं हैं। लेकिन स्त्रियों के लिए यह उतना कठिन नहीं होगा। क्योंकि वे किसी चीज को आसानी से महसूस करती हैं। पुरुषों के लिए यह ज्यादा कठिन होगा। ही, अगर उनका सौंदर्य—बोध विकसित हो, जैसे कवि, चित्रकार या संगीतज्ञ का सौंदर्य—बोध विकसित होता है तो बात और है। तब वे भी अनुभव कर सकते हैं। लेकिन इसका प्रयोग करो।
बच्चे यह प्रयोग बहुत सरलता से कर सकते हैं। मैं अपने एक मित्र के बेटे को यह में प्रयोग सिखाता था। वह किसी चीज को आसानी से अनुभव करता था। फिर मैंने उसे गुलाब का फूल दिया और उससे वह सब कहा जो तुम्हें अब कह रहा हूं। उसने यह किया और उसने इसका आनंद भी लिया। जब मैंने उससे पूछा कि कैसा अनुभव करते हो तो उसने कहा कि मैं गुलाब का फूल बन गया हूं मेरा भाव यही है कि मैं ही गुलाब का फूल हूं।
बच्चे इस विधि को बहुत आसानी से कर सकते हैं। लेकिन हम उन्हें इसमें प्रशिक्षित नहीं करते। प्रशिक्षित किया जाए तो बच्चे सर्वश्रेष्ठ ध्यानी हो सकते हैं।
'अपने सामने किसी विषय को अनुभव करो। इस एक को छोड्कर अन्य सभी विषयों की अनुपस्थिति को अनुभव करो।
प्रेम में यही घटित होता है। अगर तुम किसी के प्रेम में हो तो तुम सारे संसार को भूल जाते हो। और अगर अभी भी संसार तुम्हें याद है तो भलीभांति समझो कि यह प्रेम नहीं है। प्रेम में तुम संसार को भूल जाते हो, सिर्फ प्रेमिका या प्रेमी याद रहता है। इसलिए मैं कहता हूं कि प्रेम ध्यान है। तुम इस विधि को प्रेम—विधि के रूप में भी उपयोग कर सकते हो। तब अन्य सब कुछ भूल जाओ।
कुछ दिन हुए, एक मित्र अपनी पत्नी के साथ मेरे पास आए। पत्नी को पति से कोई शिकायत थी, इसलिए पत्नी आई थी। मित्र ने कहा कि मैं एक वर्ष से ध्यान कर रहा हूं। और अब उसमें मैं गहरे जाने लगा हूं तो अचानक मेरे मुंह से रजनीश—रजनीश की आवाज निकलने लगती है। यह आवाज मेरे ध्यान में सहयोगी है। लेकिन अब एक आश्चर्य की घटना घटती है। जब मैं अपनी पत्नी के साथ संभोग करता हूं और संभोग शिखर छूने लगता है तब भी मेरे मुंह से रजनीश—रजनीश की आवाज निकलने लगती है। और इस कारण मेरी पत्नी को बहुत अड़चन होती है। वह अक्सर पूछती है कि तुम प्रेम करते हो या ध्यान करते हो या क्या करते हो? और ये रजनीश बीच में कैसे आ जाते हैं?
उस मित्र ने कहा कि मुश्किल यह है कि अगर मैं रजनीश—रजनीश न चिल्लाऊं तो संभोग का शिखर चूक जाता है। और चिल्लाऊं तो पत्नी पीड़ित होती है, वह रोने —चिल्लाने लगती है और मुसीबत खड़ी कर देती है। तो उन्होंने मेरी सलाह पूछी और कहा कि पत्नी को साथ लाने का यही कारण है।
उनकी पत्नी की शिकायत दुरुस्त है। क्योंकि वह कैसे मान सकती है कि कोई दूसरा व्यक्ति उनके बीच में आए। यही कारण है कि प्रेम के लिए एकांत जरूरी है, बहुत जरूरी. है। सब कुछ को भूलने के लिए एकांत अर्थपूर्ण है।
अभी यूरोप और अमेरिका में वे समूह—संभोग का प्रयोग कर रहे हैं—एक कमरे में अनेक जोड़े संभोग में उतरते हैं। यह मूढ़ता है! आत्यंतिक मूढ़ता है। क्योंकि समूह में संभोग की गहराई नहीं छुई जा सकती; वह सिर्फ काम—क्रीड़ा बन कर रह जाएगी। दूसरों की उपस्थिति बाधा बन जाती है। तब इस संभोग को ध्यान भी नहीं बनाया जा सकता है।
अगर तुम शेष संसार को भूल सको तो ही तुम किसी विषय के प्रेम में हो सकते हो। चाहे वह गुलाब का फूल हो या पत्थर हो या कोई भी चीज हो, शर्त यही है कि उस चीज की उपस्थिति महसूस करो और अन्य चीजों की अनुपस्थिति महसूस करो। केवल वही विषय—वस्तु तुम्हारी चेतना में अस्तित्वगत रूप से रहे।
अच्छा हो कि इस विधि के प्रयोग के लिए कोई ऐसी चीज चुनो जो तुम्हें प्रीतिकर हो। अपने सामने एक चट्टान रखकर शेष संसार को भूलना कठिन होगा। यह कठिन होगा, लेकिन झेन सदगुरुओं ने यह भी किया है। उन्होंने ध्यान के लिए रॉक गार्डन बना रखे हैं। वहां पेड़—पौधे या फूल—पत्ती नहीं होते, पत्थर और बालू होते हैं। और वे पत्थर पर ध्यान करते हैं।
वे कहते हैं कि अगर किसी पत्थर के प्रति तुम्हारा गहन प्रेम हो तो कोई भी आदमी तुम्हारे लिए बाधा नहीं हो सकता है। और मनुष्य चट्टान जैसे ही तो हैं। अगर तुम चट्टान को प्रेम कर सकते हो तो मनुष्य को प्रेम करने में क्या कठिनाई है? तब कोई अड़चन नहीं है। मनुष्य चट्टान जैसे हैं, उससे भी ज्यादा पथरीले। उन्हें तोड़ना, उनमें प्रवेश करना कठिन है।
लेकिन अच्छा हो कि कोई ऐसी चीज चुनो जिसके प्रति तुम्हारा सहज प्रेम हो। और तब शेष संसार को भूल जाओ। उसकी उपस्थिति का मजा लो, उसका स्वाद लो, आनंद लो। उस वस्तु में गहरे उतरो और उस वस्तु को अपने में गहरा उतरने दो।
'फिर विषय— भाव को छोड्कर......।
अब इस विधि का कठिन अंश आता है। तुमने पहले ही सब विषय छोड़ दिए हैं, सिर्फ यह एक विषय तुम्हारे लिए रहा है। सबको भूलकर एक इसे तुमने याद रखा था। अब 'विषय— भाव को छोड्कर।अब उस भाव को भी छोड्कर। अब तो दो ही चीजें बची हैं, एक विषय की उपस्थिति है और शेष चीजों की अनुपस्थिति है। अब उस अनुपस्थिति को भी छोड़ दो। केवल यह गुलाब या केवल यह चेहरा, या केवल यह स्त्री या केवल यह पुरुष, या यह चट्टान की उपस्थिति बची है। उसे भी छोड़ दो। और उसके प्रति जो भाव है, उसे भी। तब तुम अचानक एक आत्यंतिक शून्य में गिर जाते हो, जहां कुछ भी नहीं बचता।
और शिव कहते हैं. 'आत्मोपलब्ध होओ।इस शून्य को, इस ना—कुछ को उपलब्ध हो। यही तुम्हारा स्वभाव है, यही शुद्ध होना है।
शून्य को सीधे पहुंचना कठिन होगा—कठिन और श्रम—साध्य। इसलिए किसी विषय को माध्यम बनाकर वहां जाना अच्छा है। पहले किसी विषय को अपने मन में ले लो और उसे इस समग्रता से अनुभव करो कि किसी अन्य चीज को याद रखने की जरूरत न रहे। तुम्हारी समस्त चेतना इस एक चीज से भर जाए। और तब इस विषय को भी छोड़ दो, इसे भी भूल जाओ। तब तुम किसी अगाध—अतल में प्रविष्ट हो जाते हो, जहां कुछ भी नहीं है। वहां केवल तुम्हारी आत्मा है—शुद्ध और निष्कलुष। यह शुद्ध अस्तित्व, यह शुद्ध चैतन्य ही तुम्हारा स्वभाव है।
लेकिन इस विधि को कई चरणों में बांटकर प्रयोग करो। पूरी विधि को एकबारगी काम में मत लाओ। पहले एक विषय का भाव निर्मित करो। कुछ दिन तक सिर्फ इस हिस्से का प्रयोग करो, पूरी विधि का प्रयोग मत करो। पहले कुछ दिनों तक या कुछ हफ्तों तक इस एक हिस्से की, पहले हिस्से की साधना करो। विषय— भाव पैदा करो, पहले विषय को महसूस करो। और एक ही विषय चुके, उसे बार—बार बदलों मत। क्योंकि हर बदलते विषय के साथ तुम्हें फिर—फिर उतना ही श्रम करना होगा।
अगर तुमने विषय के रूप में गुलाब का फूल चुना है तो रोज—रोज गुलाब के फूल का ही उपयोग करो। उस गुलाब के फूल से तुम भर जाओ, भरपूर हो जाओ। ऐसे भर जाओ कि एक दिन कह सको की मैं फूल ही हूं। तब विधि का पहला हिस्सा सध गया, पूरा हुआ।
जब फूल ही रह जाए और शेष सब कुछ भूल जाए, तब इस भाव का कुछ दिनों तक आनंद लो। यह भाव अपने आप में सुंदर है, बहुत—बहुत सुंदर है। यह अपने आप में बहुत प्राणवान है, शक्तिशाली है। कुछ दिनों तक यही अनुभव करते रहो। और जब तुम उसके साथ रच—पच जाओगे, लयबद्ध हो जाओगे, तो फिर वह सरल हो जाएगा। फिर उसके लिए संघर्ष नहीं करना होगा। तब फूल अचानक प्रकट होता है और समस्त संसार भूल जाता है, केवल फूल रहता है।
इसके बाद विधि के दूसरे भाग पर प्रयोग करो। अपनी आंख बंद कर लो और फूल को भी भूल जाओ। याद रहे, अगर तुमने पहले भाग को ठीक—ठीक साधा है तो दूसरा भाग कठिन नहीं होगा। लेकिन यदि पूरी विधि पर एक साथ प्रयोग करोगे तो दूसरा भाग कठिन ही नहीं, असंभव होगा। पहले भाग में अगर तुमने एक फूल के लिए सारी दुनिया को भूला दिया तो दूसरे भाग में शून्य के लिए फूल को भूलना आसानी से हो सकेगा। दूसरा भाग आएगा। लेकिन उसके लिए पहला भाग पहले करना जरूरी है।
लेकिन मन बहुत चालाक है। मन सदा कहेगा कि पूरी विधि को एक साथ प्रयोग करो। लेकिन उसमें तुम सफल नहीं हो सकते हो। और तब मन कहेगा कि यह विधि काम की नहीं है, या यह तुम्हारे लिए नहीं है।
इसलिए अगर सफल होना चाहते हो तो विधि को कम में प्रयोग करो। पहले पहले भाग को पूरा करो और तब दूसरे भाग को हाथ में लो। और तब विषय भी विलीन हो जाता है और मात्र तुम्हारी चेतना रहती है—शुद्ध प्रकाश, शुद्ध ज्योति—शिखा।
कल्पना करो कि तुम्हारे पास दीया है, और दीए की रोशनी अनेक चीजों पर पड़ रही है। मन की आंखों से देखो कि तुम्हारे अंधेरे कमरे में अनेक— अनेक चीजें हैं और तुम एक दीया वहां लाते हो और सब चीजें प्रकाशित हो जाती हैं। दीया उन सब चीजों को प्रकाशित करता है जिन्हें तुम वहां देखते हो।
लेकिन अब तुम उनमें से एक विषय चुन लो, और उसी विषय के साथ रहो। दीया वही है, लेकिन अब उसकी रोशनी एक ही विषय पर पड़ती है। फिर उस एक विषय को भी हटा दो। और तब दीए के लिए कोई विषय नहीं बचा।
वही बात तुम्हारी चेतना के लिए सही है। तुम प्रकाश हो, ज्योति—शिखा हो। और सारा संसार तुम्हारा विषय है। तुम सारे संसार को छोड़ देते हो, और एक विषय पर अपने को एकाग्र करते हो। तुम्हारी ज्योति—शिखा वहीं रहती है, लेकिन अब वह अनेक विषयों में व्यस्त नहीं है। वह एक ही विषय में व्यस्त है। और फिर उस एक विषय को भी छोड़ दो। अचानक तब सिर्फ प्रकाश बचता है, चेतना बचती है। वह प्रकाश किसी विषय को नहीं प्रकाशित कर रहा है।
इसी को बुद्ध ने निर्वाण कहा है। इसी को महावीर ने कैवल्य कहा है, परम एकांत कहा है। उपनिषदों ने इसे ही ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान कहा है। शिव कहते हैं कि अगर तुम इस विधि को साध लो तो तुम ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध हो जाओगे।

केंद्रित होने की बारहवीं विधि :

जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत आरोपित करो बल्कि केंद्रित रहो।
गर हमें किसी के विरुद्ध घृणा अनुभव हो या किसी के लिए प्रेम अनुभव हो तो हम क्या करते हैं? हम उस घृणा या प्रेम को उस व्यक्ति पर आरोपित कर देते हैं। अगर तुम मेरे प्रति घृणा अनुभव करते हो तो उस घृणा के ही कारण तुम अपने को बिलकुल भूल जाते हो और मैं तुम्हारा एकमात्र लक्ष्य या विषय बन जाता हूं। वैसे ही जब तुम मुझे प्रेम करते हो तो भी तुम अपने को बिलकुल ही भूल जाते हो और मुझे अपना एकमात्र विषय बना लेते हो। तुम अपनी घृणा को, प्रेम को या जो भी भाव हो, उसे मुझ पर प्रक्षेपित कर देते हो। उस दशा में तुम आंतरिक केंद्र को भूल जाते हो और दूसरे को अपना केंद्र बना लेते हो।
यह सूत्र कहता है कि जब किसी के प्रति घृणा, प्रेम या और कोई भाव पक्ष या विपक्ष में पैदा हो तो उसको, उस भाव को उस व्यक्ति पर आरोपित मत करो, बल्कि स्मरण रखो कि उस भाव का स्रोत तुम स्वयं हो।
मैं तुम्हें प्रेम करता हूं। इसमें सामान्य भाव यह है कि तुम मेरे प्रेम के स्रोत हो। लेकिन यह हकीकत नहीं है। मैं ही स्रोत हूं तुम तो महज वह पर्दा हो जिस पर मैं अपने प्रेम को प्रक्षेपित करता हूं। तुम मात्र पर्दा हो, मैं अपना प्रेम तुम पर प्रक्षेपित करता हूं। और मैं कहता हूं कि तुम मेरे प्रेम के स्रोत हो। लेकिन यह तथ्य नहीं है। यह झूठ है। यह मेरी ही प्रेम की ऊर्जा है जिसे मैं तुम पर प्रक्षेपित कर रहा हूं। इस प्रेम की ऊर्जा की प्रभा में पड़कर तुम सुंदर हो जाते हो। हो सकता है किसी के लिए तुम सुंदर न होओ, हो सकता है किसी के लिए तुम बिलकुल कुरूप और विकर्षण भरे होओ। ऐसा क्यों है? अगर तुम ही प्रेम के स्रोत हो तो प्रत्येक व्यक्ति को तुम्हारे प्रति प्रेमपूर्ण होना चाहिए।
लेकिन तुम स्रोत नहीं हो। मैं तुम पर प्रेम आरोपित करता हूं तो तुम सुंदर हो जाते हो। कोई दूसरा व्यक्ति तुम पर घृणा आरोपित करता है और तुम कुरूप हो जाते हो। और हो सकता है कोई तीसरा व्यक्ति तुम्हारे प्रति बिलकुल उदासीन हो, तटस्थ हो। उसने तुम्हें देखा तक न हो। आखिर हो क्या रहा है? हम अपने — अपने भाव दूसरों पर फैला रहे हैं।
यही कारण है कि सुहागरात में चंद्रमा तुम्हें सुंदर, चमत्कारपूर्ण और अपूर्व दिखाई देता है। उस समय सारा संसार तुम्हें अपूर्व मालूम देता है। और हो सकता है उसी रात तुम्हारे पड़ोसी के लिए यह अदभुत रात्रि अस्तित्व में न हो। और अगर उसका बच्चा मर गया हो तो वही चांद उसके लिए उदास, दुखी और असहनीय मालूम पड़ेगा। और वही चांद तुम्हारे लिए इतना मोहक है, मादक है और तुम्हें पागल किए दे रहा है। क्यों? क्या चंद्रमा स्रोत है, आधार है? यह चंद्रमा केवल पर्दा है जिस पर तुम अपने को फैला रहे हो, प्रक्षेपित कर रहे हो।
यह सूत्र कहता है : 'जब किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कोई भाव उठे तो उसे उस व्यक्ति पर मत आरोपित करो, बल्कि केंद्रित रहो।
यहां व्यक्ति की जगह कोई वस्तु भी हो सकती है—विषय के रूप में कुछ भी काम देगा। तुम सदा केंद्रित रहो। याद रहे कि तुम स्रोत हो और विषय की ओर गति करने की बजाय स्रोत की ओर गति करो। जब घृणा का भाव उठे तो घृणा के विषय पर जाने की बजाय उस बिंदु पर जाना बेहतर है जहां से घृणा आ रही है। उस व्यक्ति को मत खोजो जो इस घृणा का विषय है, लक्ष्य है; उस केंद्र को खोजो जहां से घृणा उठ रही है। केंद्र की तरफ चलो, भीतर जाओ। अपनी घृणा या प्रेम या जो भी भाव हो उसे केंद्र की ओर, स्रोत की ओर, उदगम की ओर यात्रा का साधन बनाओ। उदगम पर जाओ, और वहां केंद्रित रहो।
इसे प्रयोग करो। यह बहुत ही मनोवैज्ञानिक विधि है। किसी ने तुम्हारा अपमान किया और तुम क्रोधित हो गए, ज्वरग्रस्त हो गए। अभी तुम्हारा यह क्रोध उस व्यक्ति की तरफ प्रवाहित हो रहा है जिसने तुम्हें अपमानित किया। तुम अपने पूरे क्रोध को उस आदमी पर प्रक्षेपित कर दोगे। लेकिन उसने कुछ भी नहीं किया है। अगर उसने तुम्हें अपमानित किया तो सच में क्या किया? उसने केवल तुम्हें थोड़ा कुरेदा। उसने तुम्हारे क्रोध को उभरने में थोड़ी सहायता कर दी। लेकिन यह क्रोध तुम्हारा है।
वही व्यक्ति बुद्ध के पास जाए और उन्हें अपमानित करे तो वह उनमें कोई क्रोध पैदा नहीं कर सकेगा। वह अगर जीसस के पास जाए तो जीसस उसे अपना दूसरा गाल भी हाजिर कर देंगे। और बोधिधर्म के पास जाए तो वे अट्टाहास कर उठेंगे। यह व्यक्ति—व्यक्ति पर निर्भर है।
इसलिए दूसरा व्यक्ति स्रोत नहीं है। स्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। दूसरा सिर्फ स्रोत पर चोट कर रहा है। लेकिन अगर तुम्हारे भीतर क्रोध नहीं है तो क्रोध बाहर नहीं आएगा। यदि तुम बुद्ध को चोट करो तो करुणा आएगी, क्योंकि उनके भीतर करुणा ही है। बुद्ध के भीतर से क्रोध नहीं आएगा, क्योंकि वहां क्रोध नहीं है।
एक सूखे कुएं में बाल्टी डालो तो कुछ भी हाथ नहीं आता। पानी वाले कुएं में बाल्टी डालो और वह पानी से भरकर बाहर आती है। लेकिन पानी कुएं में है, कुआ स्रोत है। बाल्टी तो पानी को बाहर लाने का निमित्त मात्र है।
जो आदमी तुम्हें अपमानित करता है वह बाल्टी का काम करता है; वह तुम्हारे भीतर से तुम्हारे क्रोध, घृणा या किसी भी आग को बाहर ले आता है। तो स्मरण रहे, तुम स्रोत हो।
इस विधि के लिए विशेष रूप से इस बात को ध्यान में रख लो कि दूसरों पर तुम जो भी भाव प्रक्षेपित करते हो उसका स्रोत सदा तुम्हारे भीतर है। इसलिए जब भी कोई भाव पक्ष या विपक्ष में उठे तो तुरंत भीतर प्रवेश करो और उस स्रोत के पास पहुंचो जहां से यह भाव उठ रहा है। स्रोत पर केंद्रित रहो, विषय की चिंता ही छोड़ दो। किसी ने तुम्हें तुम्हारे क्रोध को जानने का मौका दिया है, इसके लिए उसे तुरंत धन्यवाद दो और उसे भूल जाओ। फिर आंखें बंद कर लो और अपने भीतर सरक जाओ। और उस स्रोत पर ध्यान दो जहां से यह प्रेम या क्रोध का भाव उठ रहा है।
भीतर गति करने पर तुम्हें वह स्रोत मिल जाएगा, क्योंकि ये भाव उसी स्रोत से आते हैं। घृणा हो या प्रेम, सब तुम्हारे स्रोत से आता है। इस स्रोत के पास उस समय पहुंचना आसान है जब तुम क्रोध या प्रेम या घृणा सक्रिय रूप से अनुभव करते हो। इस क्षण में भीतर प्रवेश करना आसान होता है। जब तार गर्म है तो उसे पकड़कर भीतर जाना आसान होता है।
और भीतर जाकर जब तुम एक शीतल बिंदु पर पहुंचोगे तो अचानक एक भिन्न आयाम, एक दूसरा ही संसार सामने खुलने लगता है।
इसलिए क्रोध, घृणा या प्रेम जो भी हो उसका उपयोग अंतर्यात्रा के लिए करो। हम सदा दूसरों की तरफ गति करने में इन भावों का उपयोग करते है। जब अपने भाव आरोपित करने के लिए हमें कोई नहीं मिलता तो बड़ी निराशा लगती है, तब हम अपने भावों को निर्जीव वस्तुओं पर भी आरोपित करने लगते हैं। मैंने लोग देखे हैं जो अपने जूतों पर क्रोध करते हैं और क्रोध में उन्हें फेंकते हैं। वे क्या कर रहे हैं? मैंने लोग देखे हैं जो घर के दरवाजे पर क्रोध करते हैं, क्रोध में उसे खोलते हैं, उसे गालियां तक देते हैं। वे क्या कर रहे हैं?
इस प्रसंग में मैं एक झेन अंतर्दृष्टि की चर्चा से अपनी बात समाप्त करूं। एक बहुत बडे झेन सदगुरु लिंची कहा करते थे :
मैं जब युवा था तो मुझे नौका—विहार का बहुत शौक था। मेरे पास एक छोटी सी नाव थी और उसे लेकर मैं अक्सर अकेला झील की सैर करता था। मैं घंटों झील में रहता था।
एक दिन ऐसा हुआ कि मैं अपनी नाव में आंख बंद कर सुंदर रात पर ध्यान कर रहा था। तभी एक खाली नाव उलटी दिशा से आई और मेरी नाव से टकरा गई। मेरी आंखें बंद थीं, इसलिए मैंने मन में सोचा कि किसी व्यक्ति ने अपनी नाव मेरी नाव से टकरा दी है और मुझे क्रोध आ गया।
मैंने आंखें खोलीं और मैं उस व्यक्ति को क्रोध में कुछ कहने ही जा रहा था कि मैंने देखा कि दूसरी नाव खाली है। अब मुझे कुछ करने का कोई उपाय न रहा। किस पर यह क्रोध प्रकट करूं? नाव तो खाली है! और वह नाव धार के साथ बहकर आई थी और मेरी नाव से टकरा गई थी। अब मेरे लिए कुछ भी करने को न रहा। एक खाली नाव पर क्रोध उतारने की कोई संभावना न थी। तब फिर एक ही उपाय बाकी रहा। मैंने आंखें बंद कीं और अपने क्रोध को पकड़कर उलटी दिशा में बहना शुरू किया। और वह खाली नाव मेरे आत्मज्ञान का कारण बन गई। उस मौन रात में मैं अपने भीतर, अपने केंद्र पर पहुंच गया। वह खाली नाव मेरा गुरु थी।
और फिर लिंची ने कहा, अब जब कोई आदमी मेरा अपमान करता है तो मैं हंसता हूं और कहता हूं कि यह नाव भी खाली है। मैं आंखें बंद करता हूं और अपने भीतर चला जाता हूं।
इस विधि को प्रयोग करो। यह तुम्हारे लिए चमत्कार कर सकती है।

आज इतना ही।

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