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बुधवार, 8 जुलाई 2015

गीता दर्शन--(भाग--8) प्रवचन--219

परतामात्‍मा को झेलने का पात्रता

(प्रवचनइक्‍कीसवां)

अध्‍याय—18
सूत्र—

 सजय उवाच:
ड़त्यहं वासुदेवस्य यार्थस्य च महात्मन:।
संवादभिममश्रौषमद्भुतं रोमहर्षणम्।। 74।।
व्याक्यसादाच्‍छूतवानेतदगह्यमहं परम्।
योगं योगेश्वरात्कृष्णात्‍साक्षाक्कथयत स्वयम्।। 75।।
राजन्संस्मृत्य संस्मृत्य संवादमिममद्भुतम्।
केशवार्जुनयो पुण्यं हृष्यामि च मुहुर्मुहु:।। 76।।
तव्च संस्मृत्य संस्मृत्य रूयमत्यद्भुतं हरे:।
विस्मयो मे महान् राजन्हष्यामि च युन: पुन:।। 77।।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पाथों धनर्धर:।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिमर्तिर्मम।। 78।।

इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्‍य—दृष्टि के द्वारा मैने हम परम रहस्ययुक्त गोयनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।
इसीलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के हम रहस्ययुक्तु कल्याण्स्कारक और अदभुत संवाद को पुनः—युन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
तथा हे राजन, श्री हरि के उस अति अदभुत रूप को भी पुन—पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान विस्मय होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वही पर श्री? विजय, विभूति और अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।


 पहले कुछ प्रश्न।

पहला प्रश्न : गीता में कृष्ण का जोर समर्पण, भक्ति, श्रद्धा पर है, लेकिन आज की विश्व—स्थिति में लोग बुद्धि—केंद्रित और संकल्प—केंद्रित हैं। इस स्थिति में गीता का मार्ग किस प्रकार मौज बैठता है?

 सलिए ही मौजूं बैठता है।
लोग जब अति बुद्धि—केंद्रित होते हैं, तब बुद्धि एक घाव की तरह हो जाती है। बुद्धि का उपयोग तो उचित है, लेकिन बुद्धि के द्वारा संचालित होना उचित नहीं है। बुद्धि उपकरण रहे, उपयोगी है, बुद्धि मालिक बन जाए, घातक है।
चूंकि युग बुद्धि—केंद्रित है, बुद्धि एक घाव बन गयी है। उससे न तो जीवन में आनंद फलित होता, न शांति का आविर्भाव होता, न जीवन में प्रसाद बरसता। जीवन केवल चिंताओं, और चिंताओं से भर जाता है। विचार, और विचारों की विक्षिप्त तरंगें व्यक्ति को घेर लेती हैं।
बुद्धि अगर मालिक हो जाए, तो विक्षिप्तता तार्किक परिणाम है। बुद्धि अगर सेवक हो, तो अनूठी है। उसके ही सहारे तो सत्य की खोज होती है। फर्क यही ध्यान रखना कि बुद्धि तुम्हारी मालिक न हो; मालिक हुई, कि बुद्धि उपाधि हो गयी।
इसीलिए कृष्ण का उपयोग है। उनकी समर्पण की दृष्टि औषधि बन सकती है।
एक तरफ ढल गया है जगत, बुद्धि की तरफ। अगर थोड़ा भक्ति, थोड़ी श्रद्धा का संगीत भी पैदा हो, तो बुद्धि से जो असंतुलन पैदा हुआ है, वह संतुलित हो जाए; यह जो एकागीपन पैदा हुआ है, एकांत पैदा हुआ है, वह छूट जाए; जीवन ज्यादा संगीतपूर्ण हो, ज्यादा लयबद्ध हो।
हृदय और बुद्धि अगर दोनों तालमेल से चलने लगें, तो तुम परमात्मा तक पहुंच जाओगे।
ऐसा ही समझो कि कोई आदमी यात्रा पर निकला हो; बायां पैर कहीं जाता हो, दायां कहीं जाता हो; वह कैसे पहुंचेगा मंजिल तक? हृदय कुछ कहता हो, बुद्धि कुछ कहती हो, दोनों में तालमेल न हो, तो तुम कैसे पहुंच पाओगे? बुद्धि ले जाएगी व्यर्थ के विचारों में, व्यर्थ के ऊहापोह में, कुतूहल में; हृदय तड़पेगा प्रेम के लिए, प्यासा होगा श्रद्धा के लिए। दोनों दो दिशाओं में खींचते रहेंगे; तुम न घर के रह जाओगे, न घाट के।
ऐसी ही दशा मनुष्य की हुई है।
समर्पण का यह अर्थ नहीं है कि बुद्धि को तुम नष्ट कर दो। समर्पण का इतना ही अर्थ है कि बुद्धि अपने से महत्तर की सेवा में संलग्न हो जाए।
अभी श्रेष्ठ को अश्रेष्ठ चला रहा है; यही तुम्हारी पीड़ा है।
श्रेष्ठ अश्रेष्ठ को चलाने लगे, यही तुम्हारा आनंद हो जाएगा। अभी तुम सिर के बल खड़े हो; जीवन में पीड़ा ही पीड़ा है, नर्क ही नर्क है। तुम पैर के बल खड़े हो जाओ। अभी तुम उलटे हो।
बुद्धि कीमती है, इसे ध्यान रखना। लेकिन बुद्धि घातक है, अगर अकेली ही कब्जा करके बैठ जाए। और बुद्धि की वृत्ति है मोनोपोली की, एकाधिकार की। बुद्धि बड़ी ईर्ष्यालु है। जब बुद्धि कब्जा करती है, तो फिर किसी को मौका नहीं देती। जब विचार तुम्हें पकड़ लेते हैं, तो फिर निर्विचार के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते। अगर दो विचारों के बीच निर्विचार भी तिरता रहे, तो विचारों से कुछ बिगड़ता नहीं, तुम उनका भी उपयोग कर लोगे।
जो होशियार हैं, जो कुशल हैं, वे जीवन में किसी चीज का इनकार नहीं करते, वे सभी चीज का उपयोग कर लेते हैं। जो कुशल कारीगर है, वह किसी पत्थर को फेंकता नहीं; वह मंदिर के किसी न किसी कोने में उसका उपयोग कर लेता है। और कभी—कभी तो ऐसा हुआ है कि जो पत्थर किसी भी काम का न था और फेंक दिया गया था, आखिर में वही शिखर बना।
जीवन में कुछ भी फेंकने योग्य नहीं है, क्योंकि परमात्मा व्यर्थ तो देगा ही नहीं। अगर तुम्हें फेंकने जैसा लगता हो, तो तुम्हारी नासमझी होगी। जीवन में सभी कुछ सम्यकरूपेण उपयोग कर लेने जैसा है। आज मनुष्य ज्यादा बुद्धि की तरफ झुक गया है। वह पक्षपात ज्यादा हो गया; संतुलन टूट गया है। आदमी गिरा—गिरा ऐसी अवस्था में है; नाव डूबी—डूबी ऐसी अवस्था में है, एक तरफ झुक गयी है। कृष्ण की बात इसीलिए मौजूं है।
संकल्प का भी मूल्य है, जैसे बुद्धि का मूल्य है। वस्तुत: जिसके भीतर संकल्प न हो, वह समर्पण भी कैसे करेगा?
तुम इन बातों को सुनकर चुनाव करने में मत लग जाना, अन्यथा पछताओगे। ये बातें चुनाव करने के लिए नहीं हैं; ये बातें तुम्हें पूरे जीवन की एक विहंगम दृष्टि देने के लिए हैं। जीवन की समग्रता तुम्हें दिखायी पड़नी चाहिए। और जब भी कभी एक चीज ज्यादा हो जाती है, तो उससे विपरीत पर जोर देना पड़ता है, ताकि संतुलन थिर हो जाए।
समर्पण का यह अर्थ मत समझना कि जिनके जीवन में संकल्प की कोई क्षमता नहीं, वे समर्पण कर पाएंगे। वे समर्पण भी कैसे करेंगे? समर्पण से बड़ा संकल्प है कोई? सब कुछ छोड़ता हूं इससे बड़ा कोई संकल्प हो सकता है? सब कुछ परमात्मा के चरणों में रख देता हूं इससे बड़ा कोई संकल्प हो सकता है? यह तो महा संकल्प है।
संकल्प का भी उपयोग कर लेता है समझदार व्यक्ति। वह संकल्प को समर्पण में नियोजित कर देता है। वह संकल्प के बैलों को समर्पण की गाड़ी में जोत देता है। यात्रा तो वह समर्पण की करता है, लेकिन संकल्प की सारी ऊर्जा का उपयोग कर लेता है। और ध्यान रखना, ऊर्जा तटस्थ है। ऊर्जा कहीं भी नहीं ले जा रही है; तुम जहां ले जाना चाहो, वहीं ले जाएगी।
मैंने सुना है कि मुल्ला नसरुद्दीन एक कार बेचने वाली दुकान में गया। उसने एक कार बड़ी देर तक गौर से देखी। दुकानदार ने बहुत समझाया। उसकी उत्सुकता देखी, लगा कि खरीददार है। प्रशंसा में उसने कहा कि यह कार दो घंटे में दिल्ली पहुंचा देती है, बड़ी तेज गाड़ी है। नसरुद्दीन ने कहा, फिर सोचकर कल आऊंगा।
वह कल आया। कहने लगा कि नहीं भाई, नहीं खरीदनी है। दुकानदार ने कहा, लेकिन हो क्या गया? क्या भूल—चूक मिली? उसने कहा, भूल—चूक का सवाल ही नहीं। मुझे दिल्ली जाना ही नहीं; मुझे लखनऊ जाना है! रातभर सोचा कि दिल्ली जाने का कोई कारण? कोई कारण दिखायी नहीं पड़ता!
अब कार न तो दिल्ली ले जाती है, न लखनऊ ले जाती है, सिर्फ ले जाती है। ऊर्जा तटस्थ है।
संकल्प अहंकार में भी ले जा सकता है, समर्पण में भी। यह बड़ी गुह्य बात है। इसे थोड़ा ध्यानपूर्वक समझना।
संकल्प अहंकार में भी ले जा सकता है; वह तो ऊर्जा है। तुमको अगर अहंकार भरना हो, तो तुम अपने सारे संकल्प को अहंकार के भरने के लिए ही नियोजित कर देना। तुम परमात्मा की तरफ पीठ कर लेना। लेकिन पीठ करने में भी ताकत लगती है। वह ताकत उतनी ही है, जितनी चरणों में सिर रखने में लगती है।
परमात्मा के खिलाफ लड़ने में उतनी ही ताकत लगती है, जितनी उसके आनंद में विभोर होकर नाचने में लगती है। नास्तिक परमात्मा के खिलाफ तर्क खोजने में उतनी ही शक्ति लगाता है, जितना आस्तिक उसकी अर्चना में लगाता है।
नास्तिक नासमझ है। क्योंकि अगर यह सिद्ध भी हो जाए कि परमात्मा नहीं है, तो भी नास्तिक को कुछ मिलेगा नहीं। उसकी जीवन— धारा मरुस्थल में खो गयी, वह सागर तक पहुंचेगी नहीं। इसी जीवन— धारा से सागर तक पहुंचा जा सकता था।
नास्तिक को मैं गलत नहीं कहता, सिर्फ नासमझ कहता हूं। आस्तिक को मैं समझदार कहता हूं। नास्तिक को मैं पापी नहीं कहता, सिर्फ भूल से भरा हुआ कहता हूं। और भूल से किसी और को वह नुकसान नहीं पहुंचाता, अपने को ही पहुंचाता है। जितनी ताकत परमात्मा से लड़ने में लगती है, उतनी ताकत में तो परमात्मा मिल जाता है।
ऊर्जा तटस्थ है। संकल्प को ही लगाना पड़ता है अहंकार के लिए, और संकल्प को ही लगाना पड़ता है समर्पण के लिए।
अगर अहंकार से थक गए हो, उसके कांटे चुभ गए हैं हृदय में गहरे, घाव बन गए हैं, तो अब उसी संकल्प को जिसे तुमने अहंकार की पूजा में निरत किया था, अब उसी संकल्प को समर्पण की सेवा में लगा दो।
ऊर्जा का कोई गंतव्य नहीं है; गंतव्य तुम्हारा है; तुम जिस तरफ चल पड़ो। अगर तुम नर्क जाना चाहो, तो पैर नर्क ले जाएंगे। पैर यह न कहेंगे कि नर्क क्यों ले जाते हो! पैरों को कोई प्रयोजन नहीं। पैरों को चलने से प्रयोजन है। तुम स्वर्ग ले जाओ, पैर स्वर्ग ले जाएंगे।
ध्यान रखना, तुमने जीवन की जो भी दशा बना ली है, उसी ऊर्जा से जीवन की दशा बिलकुल भिन्न भी हो सकती है।
तुमने कभी खयाल किया, चिंतित आदमी कितनी शक्ति लगाता है चिंता में! वही शक्ति प्रार्थना में लग सकती थी। अशात व्यक्ति कितनी शक्ति लगाता है अशांति में! उससे ही तो शून्य का जन्म हो सकता था। तुम व्यर्थ को खोजने में कितना दौड़ते हो! उतनी दौड़ से तो सार्थक घर आ जाता। उतनी दौड़ से तो तुम अपने घर वापस आ जाते। बाजार में कितना तुम श्रम कर रहे हो! उतने श्रम से तो यह सारा संसार मंदिर हो जाता। इसे बहुत खयाल में रख लो।
यह युग बुद्धि का युग है और संकल्प का, संकल्प यानी अहंकार का। इसलिए मैं कहता हूं कि अगर पश्चिम धर्म की तरफ मुड़ा, जैसा कि मुड़ रहा है, तो पूरब को मात कर देगा; क्योंकि ऊर्जा उसके पास है। अभी उसने बड़े भवन बनाने में लगाई है ऊर्जा, तो सौ और डेढ़ सौ मंजिल के मकान खड़े कर दिए हैं। अभी उसने चांद—तारों पर पहुंचने में ऊर्जा लगाई है, तो चांद—तारों पर पहुंच गया है। अगर कल उसके जीवन में क्रांति आयी..।
आएगी ही! क्योंकि चांद—तारे तृप्त नहीं कर रहे हैं। डेढ़ सौ मंजिल के मकान भी कहीं नहीं पहुंचाते, अधर में लटका देते हैं। विराट धन—संपदा पैदा हुई है। ऊर्जा है, संकल्प है, बल है।
अगर ये बलशाली लोग कल धर्म की तरफ लगेंगे, तो इनके मंदिर तुम्हारे मंदिरों जैसे दीन—हीन न होंगे। ये अगर चांद पर पहुंचने के लिए जीवन को दाव पर लगा देते हैं, तो समाधि में पहुंचने के लिए भी जीवन को दाव पर लगा देंगे। ये तुम जैसे काहिल सिद्ध न होंगे, सुस्त सिद्ध न होंगे।
इस बात को स्मरण रखो कि जिसके पास बड़ा संकल्प है, उसी के पास बड़ा समर्पण होगा; जिसके पास पका हुआ अहंकार है, वही तो चरणों में झुकने की क्षमता पाता है।
इसलिए मैं नहीं कहता कि तुम अहंकार को काटो, गलाओ। मैं कहता हूं पकाओ, प्रखर करो, तेजस्वी करो; तुम्हारा अहंकार जलती हुई एक लपट बन जाए; तभी तुम समर्पण कर सकोगे। तुमसे मैं यह नहीं कहता हूं कि तुम काहिल होकर गिर जाओ पैरों में, क्योंकि खड़े होने की ताकत ही न थी। ऐसे गिरे हुए का क्या मूल्य होगा? खडे हो ही न सकते थे, इसलिए गिर गए! सिर उठा ही न सकते थे, इसलिए झुका दिया। ऐसे पक्षाघात और लकवे से लगे लोगों के समर्पण का कोई भी मूल्य नहीं है।
मूल्य तो उसी का है, जिसने सिर को उठाया था और उठाए चला गया था, और सब आकाशों में सिर को उठाए खड़ा रहा था। बल था, बडे तूफान आए थे और सिर नहीं झुकाया था; बड़ी आधियां आई थीं और इंचभर हिला न सकी थीं। संसार में लड़ा था, जूझा था।
अर्जुन जैसा अहंकार चाहिए! योद्धा का अहंकार चाहिए! इसलिए जब अर्जुन झुकता है, तो क्षणभर में महात्मा हो जाता है।
अब तक संजय अर्जुन को महात्मा नहीं कहता, आज अचानक अर्जुन महात्मा हो गया! इस आखिरी घड़ी में, पटाक्षेप होने को है, गीता अध्याय समाप्त होने को है, अचानक अर्जुन महात्मा हो गया! क्या घटना घटी? वही ऊर्जा जो योद्धा बनाती थी, वही अब समर्पित हो गयी।
तुम यह मत सोचना कि अर्जुन की जगह अगर कोई दुकानदार होता, तो इतनी आसानी से महात्मा हो जाता। नहीं; वह अपने हिसाब लगाता। वह गणित बिठाता। वह देखता कि फायदा किस में है। जीवन दाव पर न लगता। वह इतनी सरलता से न कहता, जो आपकी आशा!
ऐसा नहीं कि अर्जुन लड़ा नहीं; लड़ा; लड़ा तभी तो कह सका; लड़ा, जूझा; कृष्ण से उसने कोई कमी नहीं रखी लड़ने में। वह सब तरफ से उसने संघर्ष लिया; सब तरफ से कोशिश की अपनी ही बात पर अडिग रहने की। लेकिन जब पाया कि अपनी बात गलत है; जब सब तरफ से पाया, छिद्र ही छिद्र हैं; नाव सब तरफ से बचाने की उसने कोशिश की, लेकिन न बचा पाया; नाव डूब गयी; तो झुका। यह झुकना ऐसा ही नहीं है कि बस, झुक गया औपचारिकता से। नहीं; संघर्ष किया, अपने संकल्प को बचाए रखने की कोशिश की; कृष्ण को जल्दी और सरलता से झुक नहीं गया। झुका तब, जब झुकने के सिवाय उपाय ही न रहा। जब संकल्प ने ही बता दिया कि यही मार्ग है; जब अहंकार ने ही पककर कह दिया कि अब फल को गिरना चाहिए; पक गया, पक गया, अब कोई कच्चा नहीं है; तब गिरा।
इसलिए कहता हूं, इस युग को कृष्ण की जरूरत है। अहंकार पक गया है। संकल्प प्रगाढ़ हुआ है। मनुष्य के हाथ में बड़ी ऊर्जा है। यह ऊर्जा नर्क ले जाएगी। यह ऊर्जा पृथ्वी को हिरोशिमा और नागासाकी में बदल देगी। अगर जल्दी ही इस ऊर्जा का रूपांतरण न हुआ, अगर यह ऊर्जा संकल्प से हटकर समर्पण की तरफ न बही, तो यह रेगिस्तान में खो जाएगी, मरुस्थल में खो जाएगी। इसके साथ आदमी भी खो जाएगा। एक महा अग्नि होगी, महा विस्फोट होगा।
मनुष्य की प्रौढ़ता पकी है, और कृष्ण के संदेश की ऐसे क्षण में जरूरत है।

दूसरा प्रश्‍न:
कृष्‍ण ने ग्यारहवें अध्याय में अर्जन को दिव्य—दृष्टि दी और अपना विराट विश्वरूप दिखाया, फिर अर्जुन के भयभीत होने पर उसके बाद भक्ति—योग का उपदेश दिया। दिव्य—दृष्टि के मिलने के पश्चात सात अध्यायों के बाद अर्जन का समर्पण पूरा हुआ तथा वह कृष्ण—चेतना के प्रसाद से कृतकृत्य हुआ। दिव्य—दृष्टि और कृष्ण—चेतना के बीच इस अंतराल का अर्थ क्या है? इतना फासला क्यों है?

 सका कारण है। जो दिव्य—दृष्टि अर्जुन को मिली, वह अर्जुन की उपलब्धि न थी, कृष्ण की भेंट थी। वह कृष्ण ने दी थी। वह उधार थी। अर्जुन की पात्रता से ज्यादा थी। पात्र कंप गया, भयभीत हो गया। अर्जुन इतनी विराट घटना के लिए तब तैयार न था। अर्जुन ने बूंद मांगी थी और सागर आ गया! बूंद होती, सम्हाल लेता; सागर को न सम्हाल पाया। जड़ों तक कंप गया, भयभीत हो गया, चिल्लाने लगा, अब बंद करो यह। वापस लौट आओ अपने मनमोहक रूप में। यह मुझसे नहीं देखा जाता।
कृष्ण ने जानकर यह धक्का दिया। नहीं कि कृष्ण को पता नहीं है कि अर्जुन अभी तैयार नहीं है; लेकिन साधना के लंबे पथ पर बहुत—से धक्कों की भी जरूरत पड़ती है। क्योंकि तुम अपने जीवन की आदतों में इतने जड़ हो गए हो कि जब तक कोई विराट धक्का न लगे, तब तक तुम हिलते ही नहीं। तुम अपनी आदतों के वर्तुल में इस भांति घूमते रहते हो, जैसे यंत्र। जब तक कोई आकर जोर से तुम्हें धक्का ही न दे, तब तक तुम पटरी से नीचे नहीं उतरते।
एक विद्युत के धक्के की तरह, एक इलेक्ट्रिक शॉक की तरह बहुत बार गुरु को शिष्य के ऊपर टूट पड़ना पड़ता है। वैसा ही कृष्ण ने किया। वही जो झेन फकीर करते हैं, लेकर डंडा शिष्य पर टूट पड़ते हैं। मारते भी हैं, पीटते भी हैं; कभी उठाकर द्वार के बाहर भी फेंक देते हैं। ऐसे ही कृष्ण टूट पड़े बड़े सूक्ष्म रूप से।
अर्जुन बार—बार कह रहा था कि मुझे भरोसा नहीं आता, तुम यह जो कहे जाते हो कि तुम्हीं हो केंद्र सारे अस्तित्व के, कि तुम्हीं ने बनाया, इस पर मुझे संदेह है। मैं तो तुम्हारा यही रूप देखता हूं जो सदा से देखा, तुम मेरे सखा हो। अगर ऐसा सच है, तो दिखाओ मुझे वह विराट रूप जिसकी तुम बात करते हो।
एक ऐसी घड़ी आ गयी कि कृष्ण को वह विराट रूप अर्जुन पर गिरा देना पड़ा। उससे अर्जुन हिला, कंपा; सदा के लिए कैप गया, फिर दुबारा वापस अपने पुराने ढांचे में बैठ न पाया। उसकी जिज्ञासा ने नया आयाम ले लिया।
लेकिन वह दृष्टि उधार थी। वे कृष्ण ने आंखें दी थीं, इसलिए उन आंखों से उसने देखा। कृष्ण ने आंखें वापस ले लीं, वापस संसार, वापस माया का जगत दिखायी पड़ने लगा।
इसका बड़ा महत्वपूर्ण अर्थ है। इसका अर्थ है कि बुद्ध पुरुष अगर तुम्हें कुछ झलक भी दिखा दें, तो वह तुम्हारी न हो पाएगी। तुम्हें निखरना होगा। तुम्हें अपनी जीवन—दृष्टि को उतना पारदर्शी करना होगा।
तो बुद्ध पुरुषों से दृष्टि उधार मत मांगना, दृष्टि को स्वच्छ करने के उपाय भर मांगना। उनसे यह मत कहना कि एक बार आपकी आंख से इस संसार को देख लेने दो। तुम देख भी लोगे, तो सिर्फ घबडाओगे। तुम उसे पचा न पाओगे। जो तुम देखोगे, वह इतना विराट होगा कि तुम्हारे अपान में समा न पाएगा; तुम्हारा आंगन टूट जाएगा; दीवालें गिर जाएंगी; तुम एक खंडहर हो जाओगे।
समय के पहले कुछ भी न मांगना; हालांकि मन होता है समय के पहले माग लेने का। मन तो बच्चों जैसा है। जिसकी न पात्रता है, न तैयारी है, उसको भी पा लेने की आकांक्षा होती है।
अर्जुन जिद्द किए गया। फिर कृष्ण ने देखा कि ठीक है, योद्धा है, क्षत्रिय है, गिरने दो इस पर पूरा आकाश। शायद वही इसे कंपाएगा; शायद वही इसे मेरे प्रति सजग करेगा कि मैं कौन हूं। नहीं तो यह मुझे ऐसे ही देखता रहेगा, जैसा इसे मैं दिखायी पड़ रहा हूं।
बुद्ध को तुमने देखा, महावीर को देखा, कृष्ण को देखा, कुछ भी तो दिखायी नहीं पड़ा; साधारण पुरुष दिखायी पड़े। जैसे तुम थे, ऐसे ही वे थे। इसका कारण यह नहीं था कि वे तुम जैसे थे; इसका कारण कुल इतना था कि तुम्हारे पास और ढंग से देखने की आंख ही न थी। अन्यथा तुम उनमें सब देख लेते। सारे चेतना के शिखर उनमें प्रकट थे; लेकिन तुम्हारी आंख चमड़ी से ज्यादा भीतर न जा सकी। हड्डी—मास—मज्जा की देह ही तुम देख सके। बस, उतनी ही तुम्हारी आंख की क्षमता है।
अर्जुन ने आंख उधार मांग ली। उससे उसे विराट दिखा, ब्रह्म दिखा, विस्तीर्ण दिखा। लेकिन जिसके लिए तुम्हारी तैयारी न हो गयी हो, वह अगर प्रसाद से भी मिल जाए तो तुम्हें उसे छोड़ना पड़ेगा। क्योंकि तुम उसे पचा ही न पाओगे। तुम उसे आत्मसात न कर सकोगे। तुम उसे अपने जीवन का अंग न बना पाओगे। तुममें और उसमें फासला इतना होगा कि वह एक दुख—स्वप्न की भांति हो जाएगा! तुम उसे भुलाना चाहोगे। तुम चाहोगे, जल्दी वापस ले लो।
इस जगत में सब कुछ उधार दिया जा सकता है, दिव्यता उधार नहीं दी जा सकती, यह अर्थ है उस घटना का। दिव्यता के लिए तुम्हें धीरे— धीरे अपने को निखारना होता है, एक शुचिता लानी होती है। फिर भी दिव्यता जब मिलती है, तब प्रसाद—रूप ही मिलती है। तुम्हारी पात्रता के कारण नहीं मिलती, पर तुम्हारी पात्रता के कारण मिलती है तो खोती नहीं। अगर अर्जुन पात्र रहा होता उस क्षण में, तो वह जो दृष्टि मिली थी, वह उसकी हो जाती। गीता वहीं समाप्त हो जाती। सात अध्यायों की और जरूरत न थी।
सात प्रतीकात्मक आकड़ा है। किसी की शादी करते हैं, तो हम सात चक्कर लगवाते हैं। सात यानी संसार। दिव्य—दृष्टि मिल गयी, फिर भी पूरा संसार का चक्कर जारी रहा, सात चक्कर लग गए! सात दिन में हमने समय को बांट दिया है। समय यानी संसार। सात का वर्तुल है। दिव्य—दृष्टि उधार थी, इसलिए पूरा संसार फिर लगा, फिर पूरे संसार से भटकना पड़ा, फिर सात भांवर लीं, तब कहीं वह उस जगह आ पाया, जहां उसको अपनी दृष्टि मिली।
वही है प्रामाणिक, जो तुम्हारे भीतर उगा है, उपजा है। जो फूल तुम्हारे भीतर खिला है, वही सच्चा है। यद्यपि उसको खिलने के लिए भी बहुत हजारों—करोड़ों मील दूर सूरज की किरणों की जरूरत है; वह भी बिना प्रसाद के नहीं खिलेगा।
समझें फर्क! एक कली है, रातभर प्रतीक्षा की है, जन्मों—जन्मों से राह देखी है। छिपी थी कभी बीज में, फिर जमीन में उपजी, अंकुर में छिपी, वृक्ष में छिपी थी; हजारों कठिनाइयों और संघर्षों के बाद कली बनी; रातभर प्रतीक्षा की है; पंखुड़ियां तैयार हैं खुलने को। पर सूरज की प्रसाद—रूप वर्षा हो तभी न!
सुबह सूरज उगा, कली खिल गयी! पास में ही एक प्लास्टिक का फूल भी रखा है, वह बिना ही सूरज के खिला है; न रात देखता, न दिन देखता। वह सच्चा है ही नहीं। उसे खिलने की कोई जरूरत नहीं, मरने की भी कोई जरूरत नहीं। उसमें कोई सुगंध भी नहीं है; उसमें जीवन की लीला भी नहीं है। उसमें न कुछ कंपता, न डुलता। उसमें कोई प्रवाह नहीं है। वह जड़ है, वह मृत है। प्लास्टिक से ज्यादा मुरदा चीज तुम न खोज पाओगे!
और अब वैज्ञानिक कहते हैं कि जल्दी हम हृदय भी प्लास्टिक के लगा देंगे। आदमी के शरीर के अंग भी प्लास्टिक के कर देंगे। आदमी वैसे ही बहुत झूठा हो गया है। अब कृपा करो! अब उसको और प्लास्टिक का मत करो, नहीं तो वह और झूठा हो जाएगा। अभी थोड़ी—बहुत उसकी कली कभी—कभी खिलती है किसी कृष्ण के सूर्य के पास, वह भी मुश्किल हो जाएगी। प्लास्टिक का हृदय क्या धड्केगा?
यह संजय कहता है कि ये वचन मैंने स्वयं ही सुने, स्मरण कर—करके मेरा हृदय आह्लादित होता है।
कहीं प्लास्टिक का होता हृदय, तो यह कहता, वचन सुने; मेरे हृदय में कुछ भी नहीं होता है। प्लास्टिक का हृदय कहीं हर्षित होगा स्मरण कर—करके!
यह बात ही रोमांचित करती है संजय को। वह कहता है, मैंने सिर्फ सुनी है, दूर से सुनी है; गुरु की कृपा से सुनी है, व्यास की कृपा से सुनी है। मैंने सिर्फ सुनी है। मैं कोई भागीदार न था। मुझसे बात कही भी न गयी थी। कहने वाले कृष्ण थे, सुनने वाला अर्जुन था; मैं तो बहुत दूर, व्यास की कृपा से मुझे दृष्टि मिली, उसे देख रहा था। लेकिन मेरा हृदय भी आंदोलित होता है आनंद से। सुन—सुनकर भी मैं पुलकित हो गया हूं। ऐसी अनूठी, ऐसी विस्मयकारक घटना घटी! हरि का ऐसा रूप देखा!
होता प्लास्टिक का हृदय, तो जैसे टेलीविजन दूर से देख लेता है, ऐसा संजय ने भी देखा होता। संजय न हुए होते, टेलीविजन हुए होते। कुछ भी पुलकित न होता, कुछ भी हर्षित न होता। टेलीविजन को क्या फर्क पड़ता है कि फिल्म अभिनेता का चित्र उतरता है उस पर, कि कोई तस्कर का, कि कृष्ण का, कि बुद्ध का! कोई फर्क नहीं पड़ता; यंत्रवत है।
असली फूल खिलता है अपने भीतर से, लेकिन जरूरत होती है सूरज के प्रसाद की। नकली फूल कभी खिलता ही नहीं; उसे किसी प्रसाद की भी कोई जरूरत नहीं होती।
तुम जब खिलोगे, तब दो घटनाओं का मेल होगा। तुम तैयार होओगे कली की भांति और सूरज आएगा, और तुम्हें तुम्हारी नींद से जगाएगा। सूरज फैलाएगा अपनी किरणों का जाल तुम्हारे चारों तरफ।
वही तो कृष्ण करते हैं, वही बुद्ध करते हैं। वही अगर तुम राजी हो, तो मैं कर रहा हूं। तुम्हारी कली के आस—पास किरणों का एक जाल, किरणों की अंगुलियों से धीमे— धीमे तुम्हें सहलाना और जगाना! नींद लंबी है, बहुत प्राचीन है। उठना बहुत मुश्किल है। पर अगर कली जीवित है, तो उठ ही आएगी।
एक घड़ी घटी अर्जुन के जीवन में, जब आंख उधार थी। उससे केवल भय पैदा हुआ। उससे अर्जुन महात्मा न बना। उससे अर्जुन के जीवन में महत का अवतरण न हुआ। विराट देख लिया और महात्मा न बना! महत का अवतरण न हुआ! विराट द्वार पर खड़ा हो गया, उसने घबड़ाकर आंखें बंद कर लीं। जैसे सूरज की तरफ तुमने देखा हो और आंखें धुंधिया गईं, कुछ दिखाई न पड़ा, आंखें बंद हो गईं, अंधेरा फैल गया।
विराट को देखने का अर्थ है, अरबों—खरबों सूरज को एक साथ देखना। यह एक सूरज तो बहुत छोटा सूरज है, टिमटिमाता दीया है। अरबों—खरबों सूरज देखे अर्जुन ने कृष्ण के भीतर, सूरजों का जन्म देखा, उनका विलीन होना देखा; सृष्टि का बनना देखा और मिटना देखा; सृजन के क्षण से लेकर प्रलय के क्षण तक पूरा एक क्षण में सब संग्रहीभूत देखा; जन्म में छिपी मौत देखी, प्रकाश में छिपा अंधेरा देखा; सौंदर्य में छिपी कुरूपता देखी। घबड़ा गया। कंप गया। कहा, बंद करो! यह आंख अपनी वापस लो।
महत द्वार पर खड़ा हुआ, अर्जुन महात्मा न हो सका। अभी अर्जुन तैयार ही न था। यह अमृत तो आया, लेकिन ऐसे आया, जैसे वर्षा में नदी में बाढ़ आ जाती है। तुम घबड़ा उठते हो। तुम कहते हो, गंगा मैया, वापस ले ले। यह तो घर बहा जाता है! यह तो खेत डूब गया! यह तो जानवर मरे जाते हैं! यह तो प्राण पर संकट हो गया!
यही जल खेती को हरियाली देता है। इसी जल के बिना पशु मर जाते हैं। इसी जल के बिना आदमी न होगा, सभ्यता न होगी। सारी सभ्यताएं नदियों के किनारे बड़ी हुईं। इसलिए तो हिंदू नदियों को इतनी पूजा देते रहे हैं। क्योंकि सारा मनुष्य, सारा संस्कार, सारी सभ्यता, सारा खेल नदी के किनारे है, जल के आस—पास है। तुम अगर वैज्ञानिक से पूछो, तो बताएगा, तुम अपने भीतर अट्ठासी परसेंट पानी हो; जल ही जल है, गंगा ही गंगा भीतर बह रही है।
जल खो जाता है, सभ्यताएं खो जाती हैं, मरुस्थल रह जाते हैं, खंडहर रह जाते हैं। इसी जल से जीवन है! और यही जल बाढ़ की तरह आता है, भयंकर विकराल बाढ़ की तरह, और जीवन को मिटाने लगता है, मृत्यु हो जाता है। जिसने सींचा था वृक्षों को, वही बहा ले जाता है। जिसने कंठों की प्यास बुझाई थी, उन्हीं को डुबा देता है; चीख—पुकार, कुछ सुनाई नहीं पड़ती।
अर्जुन को दृष्टि तो मिली थी, लेकिन उस दिन कृष्ण में बाढ़ आयी। अर्जुन तैयार न था उतनी बड़ी बाढ़ के लिए। उसके पास बांध न था कि इस बाढ का उपयोग कर लेता। इस विराट जल को भर लेता, इतनी उसके भीतर क्षमता न थी। सात अध्याय और लग गए, एक पूरा संसार और लग गया, तब कहीं जाकर उसे अपनी दृष्टि उत्पन्न हुई।
दोनों में बड़ा फर्क है। जब अर्जुन कृष्ण से दृष्टि मांग रहा था, तब वह अहंकारी है। वस्तुत: वह मानता नहीं है कि कृष्ण यह कर सकते हैं। उसे विश्वास नहीं है, भीतर संदेह है। वह तो परीक्षा ले रहा है। शिष्य गुरु की परीक्षा ले रहा है! दुर्घटना घटेगी।
गुरु शिष्य की परीक्षा ले, समझ में आ सकता है। लेकिन अर्जुन जब पूछ रहा है, दिखाओ अपना विराट रूप! तो वह यह नहीं सोच रहा है कि ये दिखा पाएंगे। वह जानता है कि भलीभांति इनको जानता हूं बचपन के साथी हैं, सखा हैं; अच्छे—बुरे सब कामों में साथ रहे हैं, धोखाधड़ी में भी तालमेल रहा है; षड्यंत्र में सहयोगी रहे हैं; अचानक ये विराट के दावेदार हो गए! ये भगवान हैं?
इसको एकदम इनकार भी नहीं कर सकता, क्योंकि कृष्ण की मौजूदगी भीतर उसे हलके—हलके हृदय को भी छूती है; कहीं ऐसा लगता भी है, हो न हो ठीक ही हों। लेकिन भरोसा भी नहीं आता, संदेह प्रबलता से खड़ा है, पैर जमाकर खड़ा है, अंगद की भांति खड़ा है, वह हटता नहीं। वह तो बाढ़ न आ जाएगी, तब तक अंगद हटेगा भी नहीं; आकाश न टूटेगा, तब तक अंगद हटेगा भी नहीं। पूछता है कृष्ण से अर्जुन। उसे भरोसा नहीं था। और कृष्ण ने जो उसे अपना विराट रूप दिखाया, वह इसलिए नहीं दिखाया कि उसका समर्पण था और वह विराट देखने के योग्य हो गया था। उसका अहंकार था, और अहंकार मिटेगा नहीं, जब तक वह विराट के नीचे दब न जाए, टूटेगा नहीं।
तो पहली घटना तो अहंकार से ही उपजी थी, संदेह से उपजी थी। दूसरी घटना सात अध्यायों के बाद समर्पण से उपजी है। अब उसने अपने को कृष्ण के चरणों में छोड़ा है। उसने कहा, जो तुम्हारी आज्ञा, जो तुम्हारी मर्जी। मुझे स्मृति उपलब्ध हो गयी। मेरा प्राण थिर हुआ, प्रज्ञा स्थिर हुई। अब मैं देखने में समर्थ हुआ हूं। जीवन का सब राज मुझे दिखाई पड़ गया है, तुम्हारी प्रसाद—रूप कृपा से। अब तुम्हारी जो आज्ञा। अब मैं नहीं हूं; अब तुम ही हो। अब तुम जो कराओ, वही होगा। पहले भी तुम जो करा रहे थे, वही हो रहा था, लेकिन मैं समझता था कि मैं कर रहा हूं। अब सच बात दिखायी पड़ गयी।
होता तो वैसा ही है, जैसा परमात्मा करवाता है, तुम चाहे मानो, या न मानो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। न मानने से तुम सिर्फ अज्ञान में जीते हो, मानने से तुम बोध को उपलब्ध हो जाते हो। होता तो वही है, जो वह कराता है। रत्तीभर भी फर्क नहीं पड़ता तुम्हारे करने से। लेकिन तुम्हें बहुत फर्क पड़ जाता है, जमीन—आसमान का फर्क पड़ जाता है।
अब यह जो घटना घटी है, यह समर्पण से घटी है, श्रद्धा से घटी है। संदेह जा चुका है। स्मृति उपलब्ध हुई है।
यह बड़ा प्यारा उदघोष है कि मुझे स्मृति उपलब्ध हुई; मैं जाग गया; मैं अपने को देख लिया हूं। अब कोई झंझट नहीं। अब मैं जानता हूं कि मैं हूं ही नहीं।
अब यह बड़े मजे की बात है। जिन्होंने अपने को नहीं देखा, वे मानते हैं कि हैं; और जिन्होंने अपने को देखा, उन्होंने जाना कि वे नहीं हैं। जो अपने से मिले नहीं, उनको पक्का भरोसा है कि वे हैं, और जिन्होंने अपने से मुलाकात की, उन्होंने पाया कि वहां कोई है ही नहीं, घर सूना है, सिर्फ परमात्मा की आवाज गूंजती है, वही है। जो अपने भीतर गए, उन्होंने परमात्मा को पाया, स्वयं को कभी पाया ही नहीं। जो अपने से बाहर—बाहर रहे, उन्होंने स्वयं को पाया। इसलिए तो कबीर उलटबासिया कहते हैं। वे कहते हैं, बड़ी उलटी बातें संसार में हो रही हैं। वे कहते हैं कि मैंने देखा कि नदी में आग लगी है; मैंने देखा कि मछलियां झाडू पर चढ़ गयी हैं! वे इसी बात की तरफ इशारा कर रहे हैं।
कहते हैं, एक अचंभा मैंने देखा, नदिया लागी आग।
वे इसी अचंभे की तरफ कह रहे हैं कि जो है ही नहीं, जो हो ही नहीं सकता, नदी में आग लगना, वह मैंने होते देखा है।
तुम हो ही नहीं और तुम्हारे न होने के बिना भी तुममें आग लगी है। तुम जले जा रहे हो, तडूपे जा रहे हो, परेशान हुए जा रहे हो; दौड़े जा रहे हो उस अहंकार को भरने को, जो है ही नहीं! जिसे भरने का उपाय भी कैसे हो सकेगा, जो है ही नहीं? होता, तो भर भी लेते! और जिन्होंने अपने को जाना—अब यह बड़े मजे की बात है—जिन्होंने अपने को जाना, उन्होंने यही जाना कि नहीं हैं। अज्ञानी हैं और ज्ञानी नहीं हैं!
लाओत्से इसीलिए बार—बार कहता है कि एक मुझको छोड्कर सभी समझदार हैं। एक मैं ही नादान हूं; एक मैं ही पागल हूं यहां समझदारों की बस्ती में, सभी होशियार हैं। क्योंकि सभी को पक्का पता है कि वे हैं; एक मैं ही संदिग्ध हो गया हूं; एक मेरी ही नींव कट गई है, जड़ें कट गई हैं; मुझे ही पता है कि मैं नहीं हूं। एक मैं ही कंप रहा हूं हवा के झोंकों में, बाकी लोग तो थिर खड़े हैं, बड़े अडिग खड़े हैं!
यह घटना घट रही है। यह अचंभा रोज घट रहा है।
जिस क्षण अर्जुन ने अपने को देखा, कहा, तुम्हारी जो आज्ञा! क्योंकि तुम्हीं हो। और मैं इनकार करूं, तो भी कर नहीं सकता हूं क्योंकि मैं हूं नहीं। और जो मैंने अब तक इनकार किए थे, वे सब झूठे हो गए, सपने में किए होंगे। क्योंकि यह हो ही कैसे सकता है! जब मैं ही न था, तो इनकार कैसे होते?
इसको कहते हैं, मुझे अपनी स्मृति आ गयी! और स्मृति आते ही प्रज्ञा थिर हो जाती है।
जब मैं हूं ही नहीं, तो कंपेगा कौन? क्या ऐसी कोई पत्ती कंप सकती है तूफानों में जो है ही नहीं? जब तक पत्ती है, कंपेगी, छोटा—सा भी हवा का झोंका आएगा, तो कंपेगी, और तूफान आएंगे, तब तो बहुत कंपेगी, विक्षिप्त होकर कंपेगी। ही, पत्ती हो ही न, तो फिर क्या कंपेगी?
बुद्ध एक गांव से गुजरे हैं। लोगों ने गालियां दी हैं। और उन्होंने कहा कि ठीक, तुम्हें जो करना था, तुमने किया; अब मैं जाऊं? मुझे दूसरे गांव जल्दी पहुंचना है। पर उन्होंने कहा, हमने जो गालियां दी हैं, उनका क्या? तो बुद्ध बहुत हंसने लगे। उन्होंने कहा, तुम थोड़ी देर से आए। दस वर्ष पहले आना था, तब मैं था। तब तुम्हारी गालियों के उत्तर मुझसे निकलते। अब कौन उत्तर दे? तुम गालियां देते हो, यहां भीतर सन्नाटा है। वहां उत्तर देने वाला अब नहीं है।
उसी दिन प्रशा थिर होती है, जिस दिन तुम मिट जाते हो। जब तक तुम हो, तब तक थिरता न आएगी। स्थितप्रज्ञ वही हो पाता है, जो शुन्यभाव को उपलब्ध हो जाता है।
यह था अंतराल। सात अध्याय पूर्व उधार थी दृष्टि; सात अध्याय बाद दृष्टि अपनी है।
उधार का भरोसा मत करना; दो कौड़ी उसका मूल्य नहीं है। अपनी ही खोज करना।
बुद्ध पुरुषों से संकेत लेना, सत्य मत लेना। सत्य तो कोई किसी को दे नहीं सकता। उनसे मार्ग लेना, मंजिल मत ले लेना। मंजिल तो कोई किसी को दे नहीं सकता। वे इशारा करें, उनके इशारे पर चलना, लेकिन चलना तुम्हीं। यह मत सोचना कि बुद्ध पुरुष तुम्हारे लिए चलें, और तुम उनकी आंखों से देख लोगे और उनके पहुंचने में तुम पहुंच जाओगे।
नहीं; कृष्ण जैसा पुरुष भी अपनी आंख देकर अर्जुन को केवल पीड़ा ही दे पाता है, कोई आनंद नहीं दे पाता। उधार आंख का कोई भी मूल्य नहीं है।
तुम बुद्ध पुरुषों के हृदय से न धड़क सकोगे, धड़कोगे भी तो घबड़ा जाओगे, क्योंकि वह हृदय बड़ा है, वह विराट है। उसमें तुम तूफानों की गंज पाओगे, आंधियों का अंधड़ पाओगे, पहाड़ों का गिरना पाओगे, सृजन पाओगे, प्रलय पाओगे। उस धड़कन को तुम सह न पाओगे। तुम्हारा छोटा—सा हृदय, घड़ी की तरह टिक—टिक होने वाला हृदय, उस विराट उथल—पुथल को सह न पाएगा। तुम उसके नीचे दबकर मिट जाओगे।
तो अगर कृष्ण जल्दी ही न खींच लें अपनी दृष्टि को वापस, तो अर्जुन खो जाएगा, जल जाएगा, भस्मीभूत हो जाएगा।
नहीं; दृष्टि उधार नहीं पायी जा सकती। दृष्टि के लिए स्वयं को निखारना जरूरी है।

 तीसरा प्रश्न : जर्मन विचारक शापेनहार ने जब गीता पढ़ी, तो उसे सिर पर उठाकर नाचने लगा। फिर क्या वह कृष्ण—चेतना की ओर अग्रसर हुआ? और बर्ट्रेड रसेल ने भी गीता पढ़ी, परंतु वे कृष्ण से बहुत प्रभावित नहीं हुए। संभवत: वे बुद्ध से प्रभावित हुए हैं। फिर भी वे बुद्ध के भी शिष्य नहीं बने! इन दोनों घटनाओं पर कछ प्रकाश डालें।

 शापेनहार और रसेल की चित्त—दशा बिलकुल अलग— अलग है। शापेनहार विषाद की दशा में है, वहीं जहां अर्जुन। शापेनहार पश्चिम का सबसे दुखवादी विचारक है, उदास। जीवन सिर्फ एक संताप है! वह विषाद—योग की दशा में था, जब उसके हाथ में गीता पड़ी। सब तरफ उसने खोजा था। लेकिन उसका विषाद मिटता नहीं था, घना होता था। वह अर्जुन की ही भाव—दशा में था।
बहुत प्रगाढ विचारक था शापेनहार। प्रगाढ़ विचारक विषाद की अवस्था में पहुंच ही जाते हैं। उसे कोई किरण न दिखाई पड़ती थी। अंधेरा ही अंधेरा था! अमावस की रात थी। कहीं सुबह होती भी है, इसका भी भरोसा खो गया था।
और तब उसके हाथ में गीता पड़ी, ऐसे जैसे प्यासे को मरुस्थल में अचानक झरना मिल गया! वह झरने का कलकल नाद अगर अचानक मरुस्थल में मिल जाए, तो तुम तानसेन के संगीत को सुनना पसंद न करोगे। सब संगीत फीके हो जाएंगे। वह नाद अदभुत होगा, क्योंकि तुम्हारी प्यास से मेल खाएगा।
संयोग की बात थी, शापेनहार ठीक अर्जुन की दशा में था, और गीता उसके हाथ पड़ गयी। गीता उसने पढ़ी और एक ही बैठक में पढ़ गया। वह आंख न झपक सका। श्वास अवरुद्ध हो गयी। उठायी गीता सिर पर और नाचने लगा।
घर के लोगों ने, परिवार के लोगों ने, मित्रों ने, शिष्यों ने समझा कि अब वह पूरा पागल हुआ। डर तो उन्हें पहले से था कि इतने विषाद में कोई रहेगा, तो पागल हो जाएगा। अब हो गया पागल! यह क्या पागलपन है?
लेकिन शापेनहार ने कहा, जिस किरण का मुझे भरोसा नहीं था, वह किरण का भरोसा मिला। यात्रा लंबी है; मंजिल मिले या न मिले; पर भरोसा मिल गया। गीता में मुझे किरण मिल गयी, झलक मिल गयी।
नहीं कि वह महात्मा हो गया; हो जाएगा किसी जन्म में। क्योंकि जहां आशा है, वहां सुबह ज्यादा दूर नहीं। देर—अबेर शापेनहार घर लौट गया होगा, या लौट जाएगा। लेकिन विषाद अकेला नहीं रहा; विषाद में अंधेरे भरे घर में एक सूरज की किरण उतर आई। अब उस किरण के सहारे को लेकर सूरज तक जाया जा सकता है। लंबी यात्रा है। लेकिन सूरज भी कहीं होगा, अन्यथा किरण नहीं हो सकती थी। कृष्ण की किरण उसे छू गयी।
रसेल विषाद में नहीं था, इसलिए चित्त—दशा राजी ही नहीं थी। रसेल साधारण प्रसन्नचित्त आदमी था। उदासी और दुख से उसका कोई तालमेल नहीं। और जब विषाद ही न हो, तो गीता शुरू ही नहीं होती। इसलिए तो गीता विषाद—योग से शुरू होती है। जो अभी जीवन में दुखी ही नहीं हुआ, उसे अभी जीवन की पीड़ा ही नहीं दिखायी पड़ी, उसने जीवन की रात ही नहीं पहचानी, काटे का ही अनुभव नहीं हुआ, अभी उससे गीता का मेल नहीं होगा।
रसेल ने पढ़ ली होगी, ऐसे ही जैसे बिन प्यासे आदमी के पास से जल की धार बहती रहे। देख ली, आंख उठा ली; बाकी उस देखने से कोई नाचेगा नहीं। बिन प्यासे आदमी के पास से जल का कलकल नाद होता रहे, थोड़ी देर में उसे लगेगा कि बंद करो यह शोरगुल, कोई काम ही नहीं हो पाता। उसे उस कलकल नाद में जीवन का परम संगीत नहीं सुनायी पड़ेगा।
ध्यान रखना, भीतर प्यास हो, तो ही बाहर जल में संगीत सुनायी पड़ सकता है।
रसेल ठीक अवसर में नहीं था। ठीक क्षण न था, जहां गीता से मेल हो जाए। चूक गया। बुद्ध से थोड़ा मेल रसेल का हुआ, क्योंकि बुद्ध प्रखर बुद्धिवादी हैं। यद्यपि बुद्धि के पार ले जाते हैं, लेकिन बुद्धि के ही माध्यम से ले जाते हैं।
कृष्ण का सूत्र तो समर्पण है। बुद्ध का सूत्र समर्पण नहीं है। बुद्ध का सूत्र तो ध्यान है। बुद्ध तो कहते हैं, बुद्धि से विचार करो जितना कर सकते हो, अंततः करो, आत्यंतिक रूप से विचार करो। और ऐसी घड़ी आ जाएगी कि विचार करते—करते ही तुम विचार के पार हो जाओगे, क्योंकि विचार की एक सीमा है, और तुम्हारी सीमा नहीं है। लेकिन विचार से ही तुम पाओगे।
बुद्ध का धर्म बुद्धि का धर्म है। रसेल को जमा। रसेल को जीसस भी इतने नहीं जमते हैं, यद्यपि वह ईसाई घर में पैदा हुआ है। क्योंकि जीसस का भी तालमेल कृष्ण से ज्यादा है—समर्पण, प्रार्थना, भक्ति— भाव! तर्क पर नहीं है जोर जीसस का। लेकिन बुद्ध बड़े तर्कनिष्ठ हैं। इसलिए दुनिया में जो आदमी भी तर्कनिष्ठ है, वह बुद्ध से निश्चित प्रभावित होगा।
लेकिन बुद्ध के साथ भी रसेल बहुत दूर तक न गया। वह वहीं तक गया, जहां तक बुद्ध रसेल के साथ गए। इस फर्क को समझ लेना।
जहां तक बुद्ध रसेल के साथ गए, वहां तक रसेल उनके साथ गया। उसके आगे रास्ते अलग हो गए। फिर वह बुद्ध के साथ नहीं गया, इसलिए बुद्ध का शिष्य नहीं बना।
जहां तक रसेल के साथ बुद्ध ने मेल खाया, रसेल ने कहा, बिलकुल ठीक। जहां मेल भिन्न हुआ, टूटा, रसेल ने बुद्ध से कहा, अपने रास्ते और तुम्हारे रास्ते अलग, अब हम अलग—अलग जाते हैं। यहां तक साथ रहा, ठीक; लेकिन यात्रा सदा हमारी साथ नहीं हो सकती। अब तुम गड़बड़ बात करते हो!
क्योंकि रसेल मानता है, बुद्धि के ऊपर कोई तत्व है ही नहीं। इस संबंध में वह बहुत मताग्रही है। वह कहता है, बुद्धि आखिरी तत्व है। इसके ऊपर तुमने बात की कि अंधविश्वास शुरू हुआ। इसके ऊपर तुमने बात की कि फिर तुमने उपद्रव शुरू किया। फिर दुनियाभर के उपद्रव आ जाएंगे; भूत—प्रेत, भगवान, सब पीछे से आ जाएंगे; मोक्ष, स्वर्ग—नर्क, पाप—पुण्य, पादरी, पुरोहित, पंडित, सब आ जाएंगे। जैसे ही तुमने तर्क का साथ छोड़ा कि ये सब अंधेरे के वासी एकदम प्रवेश कर जाएंगे। और रसेल कहता है, इनसे बचना है। रसेल कहता है, धर्म से बचना है।
रसेल की बात में थोड़ी सचाई है, क्योंकि धर्मों ने बहुत अहित किया है। अहित इसीलिए किया है कि धर्म धर्म नहीं रहे, संप्रदाय हो गए। लेकिन अहित तो हुआ है। मनुष्य को अंधेरे में डाल रखने में सहयोगी बन गए धर्म। ले जाना था प्रकाश की तरफ, ले नहीं गए। कारागृह बन गए; बनना थी मुक्ति, स्वतंत्रता। जंजीरें ढाली उन्होंने। प्राणों में पंख न लगाए कि तुम आकाश में उड़ जाते। चर्च और मंदिर और मस्जिद और गुरुद्वारे तुम्हें घेरकर खड़े हो गए, वे जेलखाने बन गए। उनमें तुमने स्वतंत्रता का संगीत न सुना; कारागृह की बास, दुर्गंध आयी।
रसेल भी ठीक कहता है कि इससे ऊपर जाने में खतरा है। इसलिए इससे आगे वह बुद्ध के साथ नहीं जाता। इसलिए उनका शिष्य भी नहीं बन पाता। उसकी जरूरत नहीं है अभी। अभी विचार उसको काफी मालूम पड़ता है।
जरूरत का सवाल है। जैसे एक सात साल का बच्चा है, कामवासना की उसे अभी जरूरत नहीं है; चौदह का होगा, तब जरूरत होगी। एक समय होता है हर चीज का।
अगर विचार में रसेल चलता ही चला जाए, तो एक दिन शापेनहार की स्थिति में आएगा। विचार विषाद में ले जाएगा। और जब विचार विषाद में ले जाएगा, तब संबंध जुड़ेगा। तब या तो वह बुद्ध के साथ जाने को राजी हो जाएगा विचार के पार, या कृष्ण के साथ राजी हो जाएगा समर्पण को।
जहां तुम्हारे विचार की समाप्ति होती है वहीं बुद्ध, कृष्ण, क्राइस्ट खड़े हैं। तुम्हारी विचार की सीमा के पार खड़े हैं। जब तक तुम विचार के खिलौनों से खेल रहे हो, तब तक तुम्हारा उनसे संबंध न होगा।
रसेल बहुत प्रगाढ़ विचारक नहीं है। अगर प्रगाढ़ विचारक हो, तो विषाद पैदा होगा। क्योंकि जिसने गौर से देखा, उसे दुख दिखायी पड़ेगा ही। दुख है। और जिसे दुख दिखायी पड़ेगा, वह आनंद की खोज में निकलेगा ही। क्योंकि दुख से प्राण राजी नहीं होते हैं।
अब सूत्र :

इसके उपरात संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत, रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना।
थोड़ा जीवंत, थोड़ा प्राणवान चैतन्य हो, तो सुनकर भी द्वार खुलने लगेंगे। बात संजय से कही न गयी थी। संजय तो केवल एक गवाह है। कही थी किसी और ने, कही थी किसी और के लिए। संजय तो एक प्रत्यक्षदर्शी गवाह है, एक चश्मदीद गवाह है। संजय तो सिर्फ एक साक्षी है। उसने वही दोहरा दिया है अंधे धृतराष्ट्र के सामने, जो घटा था। संजय तो एक रिपोर्टर है, एक अखबारनवीस। लेकिन उसके जीवन में भी कुछ घटने लगा।
सत्य की महिमा ऐसी है कि तुम उसके निकट जाओगे, तो वह तुम्हें छू ही लेगा। तुम शायद गवाही की तरह ही गए थे, या तुम सिर्फ एक दर्शक की भांति गुजरे थे, लेकिन सत्य की महिमा ऐसी है, उसका रहस्य ऐसा है कि तुम्हारे हृदय में कुछ होना शुरू हो जाएगा। तुम दर्शक की भांति गए हो, लेकिन दर्शक की भांति वापस न लौट सकोगे।
अभी ऐसा हुआ। एक युवक अफ्रीका से मुझे मिलने आया। वह मुझे मिलने निकला ही नहीं था। जा रहा था न्यूजीलैंड। जिस हवाई जहाज में सफर कर रहा था, एक संन्यासी मिल गया। उत्सुकता जगी। माला देखी, चित्र देखा, पूछा। तो उसने सोचा कि एक दिन के लिए उतर जाऊं। कुतूहलवश आया था। सब छोड्कर न्यूजीलैंड जा रहा था अफ्रीका से। वहीं बसने का इरादा था।
यहां आया, मुझे मिला। कुछ बात छू गयी। दिन लंबाने लगे। एक दिन की जगह सात दिन रुका, सात दिन की जगह तीन सप्ताह रुका। फिर संन्यस्त हो गया। फिर न्यूजीलैंड जाने की बात छोड़ दी।
फिर एक दिन मुझसे आकर कहने लगा, यह भी अजीब बात हुई! कभी स्वप्न में सोचा नहीं था कि संन्यस्त हो जाऊंगा। संन्यास शब्द से ही कभी कोई संबंध न था। कभी यह भी न सोचा था कि मैं कोई धार्मिक व्यक्ति हूं। चर्च से मेरा कोई नाता नहीं रहा। जा रहा था किसी और प्रयोजन से, योजना कुछ और बनाई थी, कुछ का कुछ हो गया। और अब? अब क्या करूं, वह मुझसे पूछने लगा, अब कहा जाऊं? अफ्रीका वापस लौट जाऊं? न्यूजीलैंड जाऊं? कि यहीं रह जाऊं?
मैंने उससे कहा, तू सोच ले जहां तुझे जाना हो। उसने कहा कि अब न सोचूंगा, क्योंकि सोचकर तो न्यूजीलैंड जा रहा था! और वर्षों से सोच रहा था। और सब इंतजाम करके निकला था। सब बेच—बाचकर आया हूं। पीछे सब समाप्त कर आया हूं। आगे जाने की कोई जगह न रही। और जहां बीच में आज खड़ा हूं यहां कभी सोचा न था। तो जब अनसोचा होता है और सोचा नहीं होता, तो अब सोचना क्या! आप ही कह दें। जो आज्ञा!
कभी दर्शक भी कभी कुतूहलवशात आ जाए सत्य के करीब, तो उसके हृदय में भी रोमाच हो जाता है।
इसके उपरांत संजय बोला, हे राजन, इस प्रकार मैंने श्री वासुदेव के और महात्मा अर्जुन के इस अदभुत रहस्ययुक्त और रोमांचकारक संवाद को सुना। मेरा भी रोमांच हो गया है! मैं भी आपूरित हो गया हूं! सुन—सुनकर मैं भी और हो गया!
और संजय कहता है, महात्मा अर्जुन!
उसने एक अपूर्व जन्म देखा है। वह एक ऐसे जन्म की घटना का गवाह रहा है कि कोई दूसरा गवाह खोजना मुश्किल है। जिसने संदेह को समर्पण बनते देखा, जिसने अहंकार को विसर्जित होते देखा; जिसने योद्धा को संन्यासी बनते देखा; जिसने क्षत्रिय के अहंकार को ब्राह्मण की विनम्रता बनते देखा; जिसने अर्जुन का नया जन्म देखा। शुरू से लेकर, अ से लेकर आखिर तक, पूरी जीवन—यात्रा देखी। वह कहता है, महात्मा अर्जुन! अब साधारण अर्जुन कहना ठीक न होगा।
श्री व्यासजी की कृपा से दिव्य—दृष्टि द्वारा मैंने इस परम रहस्ययुक्त गोपनीय योग को साक्षात कहते हुए स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान से सुना है।
इसलिए हे राजन, श्रीकृष्ण भगवान और अर्जुन के इस रहस्ययुक्त, कल्याणकारक और अदभुत संवाद को पुन: —पुन: स्मरण करके मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
जैसे एक झरना भीतर कलकलित हो रहा है, जैसे भीतर एक फुहार पडी जाती है, बार—बार मेघ घिर आते हैं, बार—बार वर्षा हो जाती है!
बारंबार हर्षित होता हूं स्मरण कर—करके!
जो देखा है, वह अपूर्व है। जैसा आंखों से देखा नहीं जाता, ऐसा देखा है! जो कभी सुना नहीं, ऐसा सुना है! और जो घटना देखी है, भरोसे के योग्य नहीं है!
अहंकार समर्पण बन जाए, इससे ज्यादा रहस्ययुक्त घटना इस संसार में दूसरी नहीं है। इससे बड़ी कोई रोमांचकारी घटना नहीं है। यह अपूर्व है। यह असाधारण से भी असाधारण बात है।
और व्यक्ति तब तक साधारण ही रहता है, जब तक अहंकार में रहता है। जिस दिन अहंकार समर्पण बनता है, उस दिन व्यक्ति भी असाधारण हो जाता है। उसके पैर जहां पड़ते हैं, वहा मंदिर हो जाते हैं। वह मिट्टी छूता है और स्वर्ण हो जाती है। उसकी हवा में काव्य होता है। उसके स्पर्श से सोए लोग जाग जाते हैं, मृत जीवित हो जाते हैं।
मरे हुए अर्जुन को पुन: जीवित होते देखा है। हाथ—पांव शिथिल हो गए थे, गांडीव छूट गया था, उदास, थका—मादा अर्जुन बैठ गया था। विषाद की कथा को आनंद तक पहुंचते देखा है! नर्क से स्वर्ग तक की पूरी की पूरी सोपान—सीढ़ियां देखी हैं!
पुन: स्मरण करके बारंबार हर्षित होता हूं।
तथा हे राजन, श्री हरि के उस अदभुत रूप को भी पुन: —पुन: स्मरण करके मेरे चित्त में महान आश्चर्य होता है.......।
कितनी करुणा! कितनी बार अर्जुन छूटा; भागा; फिर—फिर खींचकर उसे ले आए। जरा भी नाराज न हुए! एक बार भी उदासी न दिखाई! कितना अर्जुन ने पूछा, थका डाला पूछ—पूछकर वही—वही बात। लेकिन कृष्ण उदास न हुए; वे फिर—फिर वही कहने लगे, फिर—फिर नए द्वारों से कहने लगे, नए शब्दों में कहने लगे!
कृष्ण पराजित न हुए! अर्जुन का संदेह पराजित हुआ, कृष्ण की करुणा पराजित न हुई। अर्जुन का अज्ञान पराजित हुआ, ज्ञान कृष्ण का पराजित न हुआ।
महान आश्चर्य होता है और मैं बारंबार हर्षित होता हूं।
संजय कुछ कह नहीं पा रहा; बार—बार कहता है, बस हर्षित हो रहा हूं। एक गीत बज रहा है भीतर। नाचने का मन हो रहा है। और उसे कुछ भी नहीं हुआ है। वह दूर खड़ा दर्शक है।
धन्यभागी हैं वे भी, जो धर्म के दर्शक बन जाएं। धन्यभागी हैं वे भी, जो मंदिर के पास से गुजर जाएं और जिनके कानों में मंदिर की घंटियों का नाद भी पड़ जाए! क्योंकि वह भी हर्षित करेगा।
हे राजन, विशेष क्या कहूं! जहां योगेश्वर श्रीकृष्ण भगवान हैं और जहां गांडीव धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर विजय है, श्री है, विभूति है, अचल नीति है, ऐसा मेरा मत है।
और वह यह कह रहा है कि माना कि आपके पुत्र विपरीत खड़े हैं और आपका पिता का हृदय चाहेगा कि वे जीत जाएं, लेकिन यह असंभव है। क्योंकि जहां कृष्ण भगवान हैं और जहां महात्मा अर्जुन है, वहीं होगी नीति, वहीं होगा सत्य, वहीं होगी श्री, वहीं होगी संपदा, वहीं आएगी विजय। सत्य ही जीतता है, असत्य नहीं।
तो संजय कहता है, माना, आपके पिता के हृदय को मैं समझता हूं कि आप चाहेंगे कि आपके बेटे जीत जाएं, लेकिन यह हो नहीं सकता। यह असंभव है। सत्य ही जीतेगा। सत्य ही जीतना भी चाहिए।
विषाद से शुरू होने वाली यह गीता, सत्य की विजय पर पूरी हो जाती है। विषाद में तुम हो। गीता के इशारे तुम्हारे काम पड़ जाएं, तो सत्य की विजय—यात्रा तुम्हारी भी पूरी हो सकती है।
कोई भी कारण नहीं है, जो अर्जुन को हुआ, वह सभी को हो सकता है। कोई भी बाधा नहीं है। जितनी बाधाएं अर्जुन को थीं, उससे ज्यादा तुमको नहीं हैं। जितना अज्ञान अर्जुन का था, उससे ज्यादा तुम्हारा नहीं है।
इसलिए अगर तुम राजी हो, जैसा अर्जुन राजी था, संदेह के बावजूद भी राजी था; संदेह के बावजूद भी कृष्ण के साथ चलने को राजी था; संदेह के बावजूद भी खोजने की उत्सुकता थी, तो पहुंच गया मंजिल पर। प्रत्येक व्यक्ति पहुंच सकता है। परमात्मा प्रत्येक व्यक्ति के भीतर की स्वभाव—सिद्ध संभावना है।
गीता के ये सारे वचन हजार—हजार बार मैंने दोहराकर तुमसे कहे, इस आशा में ही कि किसी क्षण में, किसी मनोभाव की दशा में चोट पड़ जाएगी, तीर लग जाएगा।
तीर लगा हो, तो उसे सम्हालना। उसकी पीड़ा अमृतदायी है। उस पीड़ा को सींचना। संसार में मिला सुख भी असार है। परमात्मा के मार्ग पर मिला दुख भी अहोभाग्य है।
उसे पाने में कितनी ही कठिनाई हो, जिस दिन तुम पाओगे, उस दिन जानोगे, कठिनाई कुछ भी न थी। क्योंकि जो मिलेगा, वह अमूल्य है। तुम किसी भी मूल्य से उसे कूत नहीं सकते। जब तक नहीं मिला है, तब तक भला लगे किं बड़ी कठिनाई है; जिस दिन मिलेगा, उस दिन तुम भी कहोगे, तेरे प्रसाद से!
गीता समाप्त हो जाती है, लेकिन तुम्हारी यात्रा शुरू होती है! और सम्हलकर चले, होशपूर्वक चले, तो एक दिन जरूर वह अहोभाग्य की घड़ी आएगी, जब तुम्हारी स्मृति जगेगी; तुम्हें अपना स्मरण आएगा; भूला विस्मरण, भूला—बिसरा अपना स्वरूप याद आएगा; तुम्हारी प्रज्ञा थिर होगी!
और उसी दिन इस जगत के सारे रहस्य तुम्हारे लिए खुल जाएंगे! तुम फिर याद कर—करके ही आनंदित होओगे, आह्लादित होओगे! फिर तुम्हारा रोआं —रोआं पुलकित होगा! तुम्हारी धड़कन— धड़कन स्वर्ग के सुख से भर जाएगी!
जब तक तुम्हें स्मरण नहीं आया अपना, तब तक दुख है, तब तक महा अंधकारपूर्ण रात्रि है जीवन, अमावस है। जैसे ही स्मरण आया, फिर कोई रात्रि होती ही नहीं। फिर दिवस ही दिवस है।

आज इतना ही।

(गीता दर्शन—समाप्‍त)

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