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रविवार, 12 जुलाई 2015

का सोवै दिन रैन--(प्रवचन--02)

जागों—अभी और यहीं—(प्रवचन—दूसरा)

दिनांक; 1अप्रैल, 1978;
श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍नसार:

1--क्या आपकी देशना नगद धर्म की है? हर क्षण भगवता भोगने की है? क्या आप भक्ति को भी नगद धर्म की संज्ञा देंगे?
2—मेरी वीणा तुम बिन रोए, मधुर मिलन कब होए? बहुत सारे प्रश्‍न उठते हैं, शब्द नहीं मिलते हैं। क्या पूछूं?
3—सत्संग की महिमा समझाने की अनुकंपा करें।
4—यह बताने की कृपा करें कि उपलब्ध होने के बाद भोजन लेना भी शरीर का मोह है? क्या उपलब्ध हो जाने के बाद भोजन के बिना जीवन चल सकता है?

 पहला प्रश्‍न : क्या आपकी देशना नगद धर्म की है? हर क्षण भगवता भोगने की है? क्या आप भक्ति को भी नगद धर्म की संज्ञा देंगे? अनुकंपा करें और हमें कहें।


र्म तो सदा ही नगद होता है। उधार और धर्म, संभव नहीं। उधार धर्म का नाम ही अधर्म है। और उधार धर्म बहुत प्रचलित है पृथ्वी पर। मंदिर—मस्जिदों में जिसे तुम पाते हो, वह उधार धर्म है।
उधार से अर्थ है : अनुभव तुम्हारा नहीं है, किसी और का है। किसी राम को हुआ अनुभव या किसी कृष्ण को या किसी क्राइस्ट को, तुमने सिर्फ मान लिया है। तुमने जानने का श्रम नहीं उठाया। मानना बड़ा सस्ता है, जानना महंगी बात है। जानने के लिए कीमत चुकानी पड़ती है। और जब कीमत चुकाते हो तभी धर्म नगद होता है। और कीमत भारी है— —प्राणों से चुकानी होती है।
उधार धर्म बिल्कुल सस्ता है। गीता पढ़ो, मिल जाता है। बाइबिल पढ़ो, मिल जाता है। उधार धर्म तो चारों तरफ देनेवाले लोग मौजूद हैं। मां—बाप से मिल जाता है, पंडित— पुरोहित से मिल जाता है। नकद धर्म दूसरे से नहीं मिलता। नगद धर्म को स्वयं के भीतर ही कुआं खोदना पड़ता है, गहरी खुदाई करनी पड़ती है। लंबी यात्रा है अंतर्यात्रा, क्योंकि बहुत दूर हम निकल आए हैं अपने से। जन्मों— जन्मों हम अपने से दूर जाते रहे हैं। अब अपने पास आना इतना आसान नहीं। और हमने हजार बाधाएं बीच में खड़ी कर दी हैं। हम भूल ही गए हैं कि हम अपने को कहां छोड़ आए। कुछ पता— ठिकाना भी नहीं है, कि कहां जाएंगे तो अपने से मिलन होगा। कभी अपने से मिलन रहा भी है, इसकी भी कोई याद्दाश्त नहीं बची है। विस्मृति के पहाड़ खड़े हो गए हैं।
नगद धर्म का अर्थ होता है: इन सारे पहाड़ों को पार करना होगा। और ये पहाड़ बाहर होते तो हम पार आसानी से कर लेते। ये पहाड़ भीतर हैं— — विचारों के, भावनाओं के, पक्षपातों के, धारणाओं के। और यह खुदाई बाहर करनी होती तो बहुत कठिन नहीं थी; उठा लेते कुदाली और खोद देते। यह खुदाई भीतर करनी है। ध्यान की कुदाली से ही हो सकती है। और ध्यान की कुदाली बाजार में नहीं मिलती; स्वयं निर्मित करनी होती है; इंच — इंच श्रम से बनानी होती है।
धर्म तो सदा ही नगद होता है— — अर्थ, कि धर्म सदा ही स्वानुभव से होता है, आत्म— अनुभूति से होता है। तो जो उधार हो, उसे अधर्म मान लेना।
मैं नास्तिक को अधार्मिक नहीं कहता, खयाल रखना। नास्तिक धर्म— शून्‍य है, अधार्मिक नहीं है। धर्म का अभाव है। अधार्मिक तो मैं कहता हूं हिंदू को, मुसलमान को, ईसाई को, जैन को, सिक्ख को, जिसने दूसरे को मानकर अपनी खोज ही बंद कर दी है; जो कहता है : ''हम क्यों खोज करें? बाबा नानक खोज कर गए। हम क्यों खोज करें? कबीरदास खोज कर गए। ''
और ऐसा नहीं है कि नानक ने और कबीर ने, दादू ने और रैदास ने सत्य नहीं पाया था— — पाया था, लेकिन अपने भीतर खोदा था तो पाया था। तुम अगर सच में ही नानक को प्रेम करते हो तो उसी तरह अपने भीतर खोदो जैसा उन्होंने खोदा। तुम अगर सच में ही कृष्ण के अनुगामी हो तो कृष्ण के पीछे मत चलो। यह बात तुम्हें बेबूझ लगेगी, क्योंकि अनुगमन का अर्थ होता है पीछे चलना। मेरी भाषा में अनुगमन का अर्थ होता है: वैसे चलो जैसे कृष्ण चले। कृष्ण के पीछे मत चलना, क्योंकि कृष्ण किसी के पीछे नहीं चले। कृष्ण के पीछे चले तो तुम कृष्ण का अनुगमन नहीं कर रहे हो। कृष्ण किसी के पीछे नहीं चले। कृष्ण अपने भीतर चले। तुम भी कृष्ण की भांति ही अपने भीतर चलो।
अगर लोग समझ लें सदगुरूओं को, तो सदगुरूओं का पीछा नहीं करेंगे। उनको समझते ही, उनका इशारा खयाल में आते ही, अपने भीतर डुबकी मार जाएंगे। वहीं पाया जाता है हीरा धर्म का। नहीं तो तुम कूड़ा—करकट बटोर रहे हो। कितने ही याद कर लो वेद और कितने ही कंठस्थ कर लो उपनिषद, तुम्हारे हाथ कुछ भी न लगेगा, खाली के खाली रहोगे।
उधार धर्म का अर्थ होता है: पांडित्य। नगद धर्म का अर्थ होता है: अनुभव।
तुम पूछते हो: '' क्या आपकी देशना नगद धर्म की है? ''
जिन्होंने भी जाना है, सभी की देशना नगद धर्म की है।
आदमी बेईमान है। आदमी जिस चीज से बचना चाहता है उसके झूठे सिक्के पैदा कर लेता है। उस तरह से दूसरों को भी धोखा हो जाता है; और भी बड़ी बात हो जाती है, अपने को ही धोखा हो जाता है।
तुम देखो, तुम्हें अगर प्रेम करना है तो तुम खुद प्रेम करते हो। तुम यह नहीं कहते कि बाबा मजनू कर गए, अब हमें क्या करना है? सब तो हो चुका। बड़े—बड़े प्रेमी हो चुके। सब खोजा जा चुका है। अब हमें क्या करना है? हम तो लैला—मजनू की किताब पढ़ेंगे। हम तो लैला—मजनू की किताब कंठस्थ करेंगे। हम तो रोज सुबह उसका पाठ करेंगे। हमें प्रेम क्या करना है?
नहीं, लेकिन तुम्हें प्रेम करना है। तो तुम मजनू की किताब नहीं पढ़ते, न फरियाद की याद करते हो। तुम खुद प्रेम करते हो।
तुम्हें धन खोजना है, तो तुम अतीत में हुए धनियों का नाम नहीं लेते, तुम खुद धन की खोज में निकलते हो। वहां तुम बेईमानी नहीं करते। धर्म की यात्रा तुम्हें करनी नहीं है, मगर दुनिया को तुम दिखाना चाहते हो कि ऐसा भी नहीं है कि मैं धार्मिक नहीं हूं। तो तुम तरकीब निकालते हो। तुम कहते हो : मैं बुद्ध के पीछे चलूंगा, मैं धम्मपद कंठस्थ करूंगा। मैं जरथुस्त्र को मानूंगा। मैं क्राइस्ट की पूजा करूंगा। मैं कृष्ण को फूल चढ़ाऊंगा। मैं मंदिरों में झुकूंगा। मैं काबा में आऊंगा। गंगा—स्नान कर लूंगा।
तुम इस भांति दुनिया को भी धोखा दे लेते हो और खुद भी धोखे में पड़ जाते हो। धीरे— धीरे तुम्हें ऐसा लगने लगता है कि अब और क्या चाहिए, धर्म तो है ही। काशी भी हो आता हूं, गंगा— स्नान भी किया, किताब भी पढ़ता हूं, चंदन—तिलक भी लगाता हूं, जनेऊ भी धारण करता हूं, चोटी भी बढ़ा रखी है— —अब और क्या चाहिए?
नहीं, तुम्हें धर्म चाहिए ही नहीं, इसलिए तुमने ये सारी तरकीबें ईजाद की हैं। अगर धर्म तुम्हें चाहिए तो तुम कहोगे : मुझे कैसे अनुभव हो? मंदिरों में जो विराजा परमात्मा है, वह मेरे काम न आएगा। मेरे भीतर कैसे विराजे? और कहते हैं लोग कि मेरे भीतर विराजा है— — और मुझे उसका पता नहीं है— — और मैं मंदिरों में खोज रहा हूं!
नगद धर्म भीतर ले जाता है। नगद धर्म की तलाश आख बंद करके होती है। नगद धर्म की तलाश विचार से नहीं होती, निर्विचार से होती है; शास्‍त्र से नहीं होती, सब शास्‍त्रों से मुक्त हो जाने से होती है। शस्‍त्र से ही मुक्त हो जाना है, तो शस्त्र में कैसे बै धोगे? शास्‍त्र तो शस्‍त्र का ही जाल है। कितने ही प्यारे हों शब्‍द, शब्‍द शब्‍द हैं। जब तुम्हें भूख लगती है तो शस्‍त्र '' भोजन '' से पेट नही भरता। और जब तुम्हें प्यास लगती है तो एच .टू . ओ का फार्मूला लेकर तुम बैठे रहो, प्यास नहीं बुझती। और ऐसा नहीं है कि एच. टू . ओ का फार्मूला गलत है। वह पानी के बनाने का सूत्र है। और ऐसा भी नहीं है कि पाक — शास्‍त्र में जो भोजन की विधिया लिखी हैं वे गलत हैं। मगर भोजन की विधियो से क्या होगा? भोजन पकाओगे कब? चूल्हा जलाओगे कब? बर्तन चढ़ाओगे कब? और तुम्हारे भीतर सब मौजूद है। भोजन पकाना हो तो अभी पक सकता है। लेकिन तुम भूखे हो और पाक शस्त्र की किताब लिए बैठे हो — — कहते हो : '' जपुजी '' पढ़ रहे हैं। पाक — शस्त्र हैं तुम्हारी सब किताबें।
और मैं यह नहीं कह रहा हूं किताबें मत पढ़ो। मैं यह कह रहा हूं : उतने भर पर रुक मत जाना। किताब पढ़ने से इतना ही हो जाए कि तुम्हें याद आ जाए कि अरे, ऐसे सत्य भी लोगों को अनुभव हुए हैं, जो मुझे अब तक अनुभव नहीं हुए! ऐसे — ऐसे सत्य लोग पाकर गए हैं इस पृथ्वी पर — — और मैं बिना पाए जा रहा हूं। बहुत देर हो चुकी है। अब जागने का क्षण आ गया। ऐसे भी बहुत देर हो चुकी है। अब खोजूं, खोदूं। अब अपने को रूपांतरित करूं। अब क्रांति से गुजरूं। अब भोजन पकाऊं। लोग कहते हैं, जल के सरोवर हैं। लोग कहते हैं, हम महातृप्त हो गए हैं पी कर। मैं प्यासा हूं और जब सदियों — सदियों से इतने लोगों ने कहा है कि जल मिलता है, हमें मिल गया है — — बुद्ध के कहा, महावीर ने कहा — — तो मैं भी खोजूं। मगर खोज से मिलता है, किसी पर विश्वास कर लेने से नहीं मिलता। अनुभव ही एकमात्र द्वार है परमात्मा का। इसलिए सभी धर्म नगद होता है।
धार्मिक, जिनको तुम कहते हो, वे नगद नहीं हैं, यह मैं जानता हूं। वे बिल्कुल उधार हैं। इसलिए तो दुनिया में धर्म की बातचीत बहुत होती है और धर्म की सुगंध जरा भी पता नहीं चलती। दुनिया में कितने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, गिरजे हैं, और कहीं भी धर्म का गीत नहीं उठ रहा है। हवा में धर्म की खबर नहीं मालूम होती। पृथ्वी धर्म से शून्‍य मालूम होती है।
इन अधार्मिकों से — — जिनको तुम हिंदू कहते हो, मुसलमान कहते हो, ईसाई कहते हो — — नास्तिक बेहतर हैं। क्यों कहता हूं मैं कि नास्तिक बेहतर हैं? कम — से — कम झूठ में तो नहीं पड़ा है। और जो झूठ में नहीं पड़ा है, जो किताबों में नहीं उलझ गया है, जो शस्‍त्र के जाल में नहीं डूब गया है, उसके जागने की संभावना ज्यादा है, क्योंकि कब तक भूखा रहेगा? कब तक प्यासा रहेगा? उसकी प्यास खटकेगी, गला जलेगा, भभक उठेगी। उसकी भूख उसके पेट में कडकेगी, उसकी आत्मा रोएगी।
जो कहता है, मैंने ईश्वर को नहीं जाना, इसलिए कैसे मानूं — — वह यही तो कह रहा है न कि जब जानूंगा त भी मानूंगा। और क्या कह रहा है? नास्तिक सिर्फ इतना ही तो कह रहा है न, जब मेरा अनुभव होगा तब मैं स्वीकार कर लूंगा; अभी मेरा अनुभव नहीं है, मुझे अभी प्रमाण चाहिए। अभी मुझे अनुभव का प्रमाण चाहिए। मेरी आंखें खुलेंगी तो मैं प्रकाश को मान लूंगा।
जिसने आंखें बंद किए ही प्रकाश मान लिया है, वह आंखों का इलाज नहीं करवाएगा। जरूरत न रही। बात ही खत्म हो गई। लेकिन जिसने आंखों के अ भाव में प्रकाश को नहीं माना है, उसको यह बात पीड़ा देती रहेगी कि मैं अं धा हूं। लोग कहते हैं प्रकाश है, मुझे नहीं दिखाई पड़ता, तो निश्‍चित मैं अं धा हूं। मैं कुछ करूं — — कोई उपचार, कोई औषधि। किसी वैद्य को खोजूं, जहां मेरी आंखों का इलाज हो सके, जहां मैं भी देख सकूं।
नास्तिक आज नहीं कल आस्तिक होगा ही — — होना ही पड़ेगा! खतरा तो झूठे आस्तिकों का है। वे कभी आस्तिक नहीं हो पाते। जब भी मेरे पास कोई नास्तिक आ जाता है, मैं प्रसन्न होता हूं। एक ईमानदार आदमी आया है; जिसने भरोसे दूसरों पर नहीं किए हैं; जिसकी एकमात्र निष्ठा अपने अनुभव पर है; जिसे प्रमाण नहीं मिले हैं अभी तो अभी चुप है; या कहता है कि अभी मैं नहीं मान सकता हूं; जो स्वाद लेगा तो ही '' हां '' भरेगा। जो आदमी ऐसी हालत में है उसे स्वाद दिलवाया जा सकता है। कठिनाई तो उन झूठों के साथ है कि जिन्हें कुछ पता नहीं और जो कहते हैं, हां, ईश्वर है। खतरा तो इन जी — हजरों के साथ है, जिन्हें जरा भी कभी कोई स्वर नहीं सुनायी पड़ा है और जो थो थे ही डोलते हैं, जैसे उनके ऊपर संगीत की वर्षा हो रही हो!
यह झूठ दूसरों की हानि तो करेगा ही, मगर सब से बड़ी हानि तो अपनी है। ऐसे झूमते — झूमते — झूमते झूमने की आदत हो जाएगी। मंदिर में झुकते — झुकते झुकने की आदत हो जाएगी। और झुकने की आदत हो गई तो झुकने का मजा गया, झुकने में प्राण न रहे, संजीवनी न रही। झुकना सच न रहा। झुकने में समर्पण न रहा।
झूठे मत झुकना और झूठे '' हां '' मत भरना।
नास्तिक से भी ज्यादा और एक ईमानदार आदमी होता है, जिसको अज्ञेयवादी कहते हैं, एग्नास्टिक कहते हैं। एग्नास्टिक या अज्ञेयवादी का अर्थ होता है कि मुझे अभी पता नहीं है, तो न तो मैं '' हां '' कहूंगा और न '' ना '' कहूंगा।
तो चार तरह के लोग हैं पृथ्वी पर। एक — — जो जान कर कहते हैं। दूसरे — — झूठे, जो दूसरों की सुन कर तोतों की तरह दोहराने लगते हैं। तीसरे — — जिन्होंने जाना नहीं है, इंकार करते हैं। चौ थे — — जिन्होंने, जाना नहीं है तो न '' हां '' भरते हैं न '' ना '' करते हैं; वे कहते हैं, अभी हम कोई भी वक्तव्य नहीं दे सकते। यह सबसे ज्यादा ईमानदार आदमी है चौथा; इसकी सबसे ज्यादा सं भावना है आस्तिक हो जाने की। फिर नंबर दो की सं भावना नास्तिक की है। और नंबर तीन की संभावना तुम्हारे तथाकथित थोथे आस्तिक की है; वह सबसे गहरे गर्त में है।
उधार धर्म से बचना, अगर नगद धर्म को पाना हो। और नगद ही तृप्ति लाएगा।
पूछा तुमने : क्या आपकी देशना नगद धर्म की है? हर क्षण भगवता भोगने की है?
भगवान तुम हो। भगवान तुम में आया हुआ है। तुम भगवान की एक लहर हो, एक तरंग हो। यह मेरी दृष्टि है। यह मेरा अनुभव तुमसे कह रहा हूं। इसे तुम मान मत लेना। तुम्हारे मानने से कुछ हल नहीं होगा। तुम मेरी बात पर ही मत रुक जाना। इससे सिर्फ इशारा लेना। इशारा लेना इस बात का कि अगर मैं कहता हूं तो चलो, हम भी खोज करें और देखें क्या यह सच है? इसको प्रश्‍न बनाना। यह तुम्हारे भीतर जिज्ञासा बने, विश्वास नहीं।
सदगुरू का काम है जिज्ञासा को जगाना। देखते नहीं शांडिल्य के सूत्र शुरू हुए: अथातो भक्ति जिज्ञासा! बादरायण का ब्रह्मसूत्र शुरू होता है: अथातो ब्रह्म जिज्ञासा! जिज्ञासा से ये अधृत शास्त्र सदगुरू होते हैं। सदगुरू जिज्ञासा देता है— —उत्कट जिज्ञासा देता है, गहन जिज्ञासा देता है। झकझोर देता है और तुम्हारे भीतर प्यास को उठाता है— —तुम्हारी प्यास को उठाता है; तुम्हारी प्यास को निखारता है। तुम्हें संतोष नहीं देता, क्योंकि सब संतोष झूठे हैं। तुम्हें असंतोष देता है, क्योंकि असंतोष से गति है, विकास है।
सात्वनाएं खतरनाक हैं, जहरीली हैं। लेकिन तुम सांत्वना की तलाश में होते हो। तुम चाहते हो कोई कह दे, खिलौनों जैसे तुम्हें कोई पकड़ा दे सिद्धांत और तुम उन्हें छाती से लगा कर बैठ जाओ।
इसलिए लोग सदगुरू से बचते हैं, असदगुरू प्यारे लगते हैं। मिथ्या गुरु खूब पुजते हैं; भीड़ वहां इकट्ठी हो जाती है। सदगुरू के पास तो कुछ हिम्मतवर लोग ही जाते हैं। वह चुने, हिम्मतवर लोगों का काम है। वह साहसियों का काम है। वह आग से खेलना है। उसका मतलब ही है इतना कि अब तुम उस आदमी के पास जा रहे हो जो तुम्हें इतना असंतुष्ट कर देगा कि तुम्हें परमात्मा की यात्रा पर निकलना ही होगा; जो तुम्हारी प्यास को ऐसे भड़काएगा कि तुम्हें सरोवर खोजना ही पड़ेगा— —चाहे कोई भी कीमत चुकानी पड़े, चाहे जीवन की कीमत ही क्यों न देनी पड़े। वह तुम्हें ऐसी प्यास देगा जो जीवन से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है, जीवन भी बलिदान किया जा सकता है।
लोग सांत्वना चाहते हैं। लोग मृत्यु से हरे हैं। वे चाहते हैं : कोई समझा दे कि आत्मा अमर है। लोग चाहते हैं कि कोई समझा दे कि परमात्मा हमारी सारी चिंता—फिक्र कर रहा है। लोग चाहते हैं कि कोई समझा दे कि जो बुरा हुआ है, वह पिछले जन्मों के कर्मो के कारण है, उससे पिछले जन्मों के कर्म भी कट गए, बुरे से झंझट भी मिट गई, अब बस शुभ होने के दिन आ रहे हैं। कोई किसी तरह से समझा दे कि हम जैसे हैं बिस्कुल ठीक हैं, कहीं कुछ खास करने की जरूरत नहीं है। कोई पकड़ा दे राम—नाम, कि बस सुबह उठते, सोते दोहरा लेना दो—चार बार, सब ठीक हो जाएगा। कोई सस्ती औषधि दे—दे। कोई कह दे कि मरते वक्त भी अगर राम का नाम ले लिया तो बस पार हो जाओगे। सत्यनारायण की कथा सुन लेना और पार हो जाओगे। कभी भजन—कीर्तन करवा लेना घर में और पार हो जाओगे। कभी मंदिर में भोग लगा आना और पार हो जाओगे। कभी पड़ोसियों की बगिया से फूल तोड़ लेना और मंदिर में चढ़ा आना और पार हो जाओगे।
फूल भी तुम्हारे नहीं हैं——वे भी पड़ोसी की बगिया के! फूल तो चढ़े ही थे परमात्मा को, वृक्ष पर——बहुत प्यारे रूप से चढ़े थे! तुम तोड़कर उनको मार डाले। और तुम जाकर पत्थरों पर चढ़ा आए। फूलों को पत्थरों पर चढ़ा रहे हो? बदलो हालत, पत्थरों को फूलों पर चढ़ाओ। पत्थर मुर्दा हैं, फूल जीवंत हैं। जीवन को मुर्दा पर चढ़ाते हो? मुर्दे को जीवन पर चढ़ाओ।
लेकिन सस्ते उपाय——सांत्वना, संतोष मिल जाए। जिंदगी में वैसे ही असंतोष बहुत है: धन नहीं मिला, पद नहीं मिला, प्रतिष्ठा नहीं मिली, सफलता नहीं मिली, यश नहीं मिला, नाम नहीं मिला। सदगुरू के पास जाओगे, वह कहेगा: यह असंतोष तो कुछ भी नहीं है; असली असंतोष तो अभी जगा ही नहीं——कि परमात्मा नहीं मिला। तुम गए थे तकलीफें लेकर कि किसी तरह आशीर्वाद दो कि पद मिल जाए, प्रतिष्ठा मिल जाए, धन मिल जाए, यश मिल जाए, आपका आशीर्वाद हो तो क्या नहीं हो सकता! लेकिन सदगुरू तुम से कहेगा कि यह तो सब बकवास है, अभी असली बात तो तुम्हें खयाल में नहीं आयी कि परमात्मा नहीं मिला। अभी तुम ही तुम को नहीं मिले तो और तुम्हें क्या मिलेगा? अच्छे आ गए, अब मैं तुम्हें नई प्यास देता हूं, नई जिज्ञासा देता हूं। अपने को पाने में लगो। मिथ्या गुरु आशीर्वाद दे देगा, ताबीज दे देगा, मंत्र दे देगा कि घबड़ाओ मत, इस मंत्र को पढ़ने से अगले चुनाव में निश्‍चित जीत जाओगे।
तुम देखते हो, दिल्ली में तुम्हारे हर नेता का ज्योतिषी है! तुम्हारे बड़े से बड़े नेता भी इतने बचकाने हैं जिसका कोई हिसाब नहीं। हर बड़ा नेता ज्योतिषी से पूछता है कि कब नामांकन— भरना है किस शुभ मुहूर्त में किस घड़ी में इस बार चुनाव में जीतूंगा ? तथाकथित गुरुओं के पास आशीर्वाद के लिए जाता है।
एक नेता भूल से मेरे पास आ गए। आया आशीर्वाद लेने के लिए कि चुनाव में खड़ा हो गया हूं, आपका आशीर्वाद चाहिए। तो मैंने कहा, मेरा आशीर्वाद है कि निश्‍चित हार जाओ। क्योंकि जो जीत गए वे भटक जाते हैं। हारोगे तो शायद परमात्मा की याद आए। जीते तो दिल्ली में डूब मरोगे, राजघाट पर पडोगे जल्दी ही देर—अबेर। हार जाओ तो दिल्ली से बच जाओ। और जानी कह गए हैं : हारे का हरिनाम।
वे तो बहुत घबड़ा गए। वे कहने लगे कि आप कैसी अपशकुन की बातें कह रहे हैं! उनको तो पसीना आ गया। उन्होंने कहा: ऐसा मत कहिए, नहीं—नहीं ऐसा मत कहिए। आप क्या मजाक कर रहे हैं?
उनको घबड़ाहट हुई कि यह मैं कहां आ गया! कोई ऐसा तो कहता नहीं किसी से कि तुम हार ही जाओ। पर मैंने कहा: अब आ ही गए हो तो आशीर्वाद दूंगा ही। तुमने मांगा तो मैं दूंगा। मैं वही आशीर्वाद दे सकता हूं जो सच में आशीर्वाद है। चुनाव में जीत कर करोगे क्या? गालियां खाओगे? चुनाव में जीत कर करोगे क्या? अहंकार को थोड़ा और मजा आ जाएगा। जितना अहंकार को मजा आएगा उतना परमात्मा से दूर पड़ जाओगे। तुम अभिशाप मांग रहे हो मुझसे?
लेकिन वे कहने लगे : मैं और गुरुओं के पास गया, वे तो सब आशीर्वाद देते हैं। तो मैंने कहा : फिर वे गुरु न होंगे। तो तुम उन्हीं के पास जाओ।
सदगुरू के पास घबड़ाहट होगी तुम्हें, क्योंकि वह तुम्हारी आकांक्षाएं पूरी करने को नहीं है। तुम्हारी समझ ही कितनी है? तुम्हारी आकांक्षा कितनी है? उसे कुछ और विराट दिखाई पड़ रहा है जिसकी तुम्हें खबर भी नहीं है। तुम कंकड़—पत्थर मांगने गए हो, उसे हीरों की खदानें दिखाई पड़ रही हैं जो तुम्हारे पीछे पड़ी हैं। वह तुमसे कहता है: छोड़ो कंकड़—पत्थर! जितनी जल्दी हार जाओ कंकड़ों—पत्थरों से उतना बेहतर है। हारो तो नजर पीछे जाए। यहां से चुको तो थोड़ी सुविधा बने, अवसर बने; तुम उसको देख सको, जो तुम्हारे भीतर पड़ा है। बाहर से बिल्कुल टूट जाओ, बाहर कुछ भी उपाय न रहे, सब तरह से हताश हो जाओ, तभी भीतर जाओगे। हारे को हरिनाम! जीता तो अकड़ मे होता है।
तुमने देखा नहीं? सफल होता है आदमी, ईश्वर को भूल जाता है। सुख में आदमी ईश्वर को भूल जाता है, दुःख में याद करता है।
तो सदगुरू तो वह है जो तुमसे कहे कि दुःखी हो जाओ, और दु:खी हो जाओ। अभी तुम्हारे दुःख काफी नहीं हैं। तुम्हारे दु:ख अभी तुम्हारी नींद नहीं तोड़ पाए हैं। अभी और दुःख चाहिए।
सदगुरू तो वह है जो और तीर भोंक देगा तुम्हारी छाती में कि उसकी पीड़ा ही तुम्हें जगा दे। धर्म तो नगद ही हो सकता है, लेकिन नगद धर्म पाने के लिए कमित चुकानी पड़ती है। इसलिए उसको नगद धर्म कहते हैं।
फिर, नकद धर्म का एक और अर्थ होता है: जो अभी मिल सकता हो, इसी क्षण मिल सकता हो, जिसके लिए कल की प्रतीक्षा न करनी पड़े।
परमात्मा ऐसा थोड़े ही है कि कल मिलेगा। आख खोलो तो अभी मिल जाए। आख खोलो तो अभी है। तुम कहते हो : नहीं, अभी नहीं। अभी तो मुझे और हजार काम हैं। अभी परमात्मा मिल गया तो मैं और अपने हजार काम कैसे करूंगा? नहीं, अभी नहीं। इतना ही आशीर्वाद दें कि जब मुझे जरूरत हो तब मिल जाए।
तुम पहले तो धर्म लेते हो अतीत से उधार और परमात्मा को सरकाते हो भविष्य में। तुम्हारे मन की तरकीब को ठीक से समझ लेना। धर्म तुम्हारा होता है अतीत का और परमात्मा सदा भविष्य में। और वर्तमान को तुम बचा लेते हो संसार के लिए। इसलिए धर्म तुम लेते हो बुद्ध से, महावीर से, कृष्ण से, क्राइस्ट से। जब कृष्ण और बुद्ध जिंदा थे, तब तुमने उनसे धर्म नहीं लिया, क्योंकि तब वे वर्तमान थे। तब तुम धर्म ले रहे थे वेद से, उपनिषद से। और जब वेदों के ऋषि जिंदा थे तब तुम उनसे धर्म नहीं ले रहे थे। तुम्हारा बड़ा मजा है। तुम हमेशा मुर्दा गुरु से धर्म लेते हो, क्योंकि मुर्दा गुरु का धर्म तुम्हें जरा भी अड़चन नहीं देता। कांटे नहीं चुभते उससे, फूलों की सेज मिल जाती है। सांत्वना मिलती है, सत्य नहीं मिलता। और तुम सत्य चाहते नहीं, तुम सांत्वना चाहते हो।
फ्रेडरिक नीत्से ने लिखा है कि लोग सत्य चाहते ही नहीं। लिखा है उसने कि जब भी मैंने लोगों से सत्य कहा, लोगों ने गालियां दीं। और जब भी मैंने असत्य कहा, लोग बड़े प्रसन्न हुए, मुस्कुराए और धन्यवाद दिया। लोग सत्य चाहते ही नहीं। सत्य लोगों को देना ही मत, अन्यथा वे तुम्हें कभी क्षमा न करेंगे।
बात सच मालूम होती है, नहीं तो जीसस को सूली पर क्यों लटकाया? लोग क्षमा नहीं कर सके। सुकरात को जहर क्यों दिया? लोग क्षमा नहीं कर सके। लोग सत्य चाहते नहीं।
सुकरात पर जुर्म क्या था? अदालत में मुकदमा चला। जुर्म क्या था? जुर्मों की लंबी फेहरिस्त थी, उसमें सबसे महत्वपूर्ण जुर्म जो था, नंबर एक का जुर्म जो था, वह यह था कि सुकरात जबर्दस्ती लोगों को समझाता है कि सत्य क्या है। कोई आदमी अपने काम से निकला है, रास्ते पर मिल जाता है, सुकरात उसका हाथ पकड़ लेता है और ऐसे प्रश्‍न उठाने लगता है जो कि वह आदमी कहता है, अभी मुझे उठाने नहीं हैं। अभी मैं दूसरे काम से जा रहा हूं। अभी मैं बाजार जा रहा हूं। अभी नौकरी करनी है। अभी धंधा करना है। सुकरात ने लोगों को इस तरह परेशान कर दिया। रास्तों पर पकड़—पकड़ कर। चलते आदमी सुकरात को देख कर, कहते हैं गलियों से भाग निकलते थे। आसपास के दरवाजों में से घुस जाते थे दूसरों के मकानों में, कि सुकरात कहीं कोई बात न छेड़ दे। क्योंकि उसकी हर बात तीखी है।
अदालत ने सुकरात से कहा था: हम तुम्हें क्षमा कर सकते हैं अगर तुम सत्य का उपदेश देना बंद कर दो। तुम बच सकते हो। तुम्हारा जीवन बच सकता है। लेकिन तुम यह सत्य की बात बंद कर दो। जब लोग चाहते ही नहीं हैं तो तुम क्यों ये बातें करते हो? अगर तुम विश्वास दिला दो अदालत को कि अब तुम चुप रहोगे और सत्य की बात नहीं बोलोगे तो तुम्हारा जीवन बच सकता है, अन्यथा मृत्यु सुनिश्‍चित है।
सुकरात हंसा और उसने कहा: फिर मैं जी कर ही क्या करूंगा? सत्य आए जगत में, यही तो मेरे जीवन का प्रयोजन है। सत्य ही तो मेरा धंधा है। जिऊंगा तो सत्य का काम जारी रहेगा। इसलिए वह वचन मैं नहीं दे सकता हूं।
तुमने कभी वर्तमान के बुद्धों को क्षमा नहीं किया है। हां, जब बुद्ध जा चुके होते हैं तब उनकी किताब पर तुम फूल चढ़ाते हो। सुविधापूर्ण है। किताब तुम्हें जगा नहीं सकती। सच तो यह है, किताब का अच्छा तकिया बन जाता है, उस पर तुम गहरी नींद सोते हो।
सदगुरू का तुम तकिया नहीं बना सकते। सदगुरू आग है। अंगारों से तकिए नहीं बनते। अंगारें जलाती हैं, बुरी तरह जलाती हैं! लेकिन उसी जलने में ही तो तुम्हारा निखार छिपा है। उसी मृत्यु से तो तुम्हारा पुनरुज्जीवन है।
नीत्से ठीक कहता है कि लोग सत्य नहीं चाहते। नीत्से ने यह भी कहा है कि लोगों को अगर सत्य मिल जाए तो वे उसे जल्दी ही झूठ कर लेते हैं। वह भी ठीक है। उसको लीप— पोत लेते हैं। उसको इधर—उधर से काट—छांट लेते हैं। उसके कोने मार देते हैं। उसको गोलाई दे देते हैं। उसको इस तरह की शब्दावली में, इस तरह के सिद्धांत—जाल में रच देते हैं कि उसकी प्रखरता चली जाती है, उसकी चोट चली जाती है। फिर वह घाव नहीं बना पाता। फिर वह मलहम हो जाता है। छुरी, जो तुम्हारे प्राणों को छेद देती, भाला जो तुम्हारे प्राणों के आर—पार उतर जाता— —वह मलहम बन जाता है। लोग उसको घोंट—पीस कर मलहम बना लेते हैं— — भाले की मलहम बना लेते है। लोग झूठ चाहते हैं। झूठ बड़ा प्यारा है।
तुम झूठ में ही जीते हो। कोई तुमसे कह देता है कि मैं तुम्हें प्रेम करता हूं और तुम प्रफुल्लित हो जाते हो। और तुमने कभी यह सोचा ही नहीं कि तुम में प्रेम करने योग्य है क्या, जो कोई तुम्हें प्रेम करेगा! तुम्हें अगर कोई याद दिलाए कि तुम में प्रेम करने योग्य कुछ है ही नहीं, भाई मेरे तुम्हें कोई प्रेम करेगा कैसे? तो तुम नाराज हो जाओगे। उसने तुम्हारी सत्‍य छू दी। उसने तुम्‍हारा दर्द छेड़ दिया।  उसने तुम्हारा सत्‍य छू दिया। उसने तुम्‍हारी रग छू दिया। तुम मलहमपट्टी चाहते हो। तुम चाहते हो लोग कहे : तुम बड़े प्यारे हो, बड़े भले हो! और तुम जानते हो कि ऐसे तुम नहीं हो। जानते हो, इसलिए इसको छिपाना चाहते हो। तुम उन्हीं लोगों का आदर करते हो, जो तुम्हारे मन को किसी न किसी रूप में सांत्वना दिए चले जाते है?
इसलिए तो दुनिया में खुशामद का इतना प्रभाव है। स्तुति का इतना चमत्कारी प्रभाव है! तुम कैसे ही कुरूप से कुरूप आदमी से कहो कि तुम सुंदर हो, वह मान लेता है। और तुम मूढ़ से मूढ़ से कहो कि आपकी प्रतिमा अपूर्व है, वह मान लेता है। तुम अंधे आदमी से कहो की तुम्हारी दृष्टि बड़ी दूरगामी है और वो मान लेता है। शक ही नहीं पैदा होता। मानना चाहता है। उसे पता है वह अंधा है। वह बात अखरती है, वह खटकती है। कोई कह देता है कि '' क्या पागल हुए हो, तुम और अंधे! ऐसे प्यारे नेत्र तो कभी देखे नहीं। ऐसे सुख देनेवाले नेत्र तो कभी देखे नहीं! '' और उसके भीतर भी गुदगुदी पैदा होती है, और वह स्वीकार कर लेता है कि तुम ठीक कहते होओगे। वह मानना चाहता है कि तुम ठीक ही कहते होओगे। वह मान लेता है।
ऐसे हम एक —दूसरे की मलहम—पट्टी करते रहते हैं, एक—दूसरे को सांत्वना देते रहते हैं। यहां हम सब एक—दूसरे की नींद में सहयोगी हैं। जब कोई सदगुरू कोई बुद्ध, कोई कृष्ण, कोई नानक खड़ा हो जाता है और जगाने लगता है नींद से तो तुम्हें बड़ी बेचैनी होती है; तुम्हें लगता है: कौन सपने तोड्ने आ गया? अभी तो बड़े प्यारे सपने चलते थे। अभी तो मैं राजमहलों में था। स्वर्ण—मुकुट मेरे सिर पर थे। अप्सराएं मेरे आसपास नाचती थीं। ऐसे प्यारे सपनों को तोड्ने यह कौन आ गया? यह किसने सत्य की बात छेड़ दी, असमय में?
हां, सत्य ठीक है— —अतीत में हो, भविष्य में हो; वर्तमान में कोई सत्य को नहीं चाहता। नगद धर्म का अर्थ होता है: सत्य वर्तमान में है; न तो अतीत में और न भविष्य में।
तुम जरा अपने भीतर जांच करना, तुम्हें मेरी बात साफ दिखाई पड़ जाएगी।
लोग कहते हैं, पहले हुए होंगे बुद्ध पुरुष। लोग कहते हैं कि आगे भी होंगे बुद्ध पुरुष। लेकिन वर्तमान में किसी बुद्ध को तुम स्वीकार नहीं कर पाते कि कोई बुद्ध पुरुष पैदा हुआ है। कहां होगी इसकी अड़चन? क्योंकि आखिर जो आज अतीत हो गए हैं, वे कभी तो वर्तमान में थे।
तब तुमने उनको भी इनकार किया था। महावीर को लोग इनकार करते थे। बुद्ध को लोग इनकार करते थे। क्राइस्ट को इनकार किया। लाओत्सु को इंकार किया। तब भी लोग यही कहते थे: हां, पहले हुए हैं महापुरुष, जाननेवाले, मगर अब कहा; अब भी वे यही कहते हैं कि पहले हुए हैं, अब कहा; कल भी वे कहेंगे कि पहले हुए हैं, अब कहा; वे सदा पहले होते हैं। अब नहीं होते।
क्यों; क्या अड़चन है तुम्हें आज मानने में; आज मानने में यह अड़चन है कि अगर आज कोई जाग्रत हो गया है, तो फिर तुम क्या कर रहे हो; अगर आज कोई बुद्ध हो गया है, तो फिर तुम कहां हो; यह स्वीकार ही करना कि कोई आज बुद्ध हो गया है, कोई आज भगवता को उपलब्ध हो गया है, तुम्हारे भीतर  शूल की तरह चुभ जाता है कि नहीं, यह नहीं हो सकता, क्योंकि इससे बेचैनी शुरू होती है। इससे यह लगता है: तो फिर मेरा जीवन अकारथ गया; पहले हुए होंगे। पहले होते थे। वे सतयुग की बातें हैं। अब कहां कलियुग में; और आगे हुए होंगे। मजा यह है, आगे भी होंगे। बल्कि अवतार होगा भगवान क;—आगे। मैत्रेय का अवतार होगा बुद्ध कल्प—आगे। क्राइस्ट फिर आएंगे——आगे।
तुम पीछे और आगे तो मान लेते हो; बीच में, जो कि वास्तविक सत्य है, जो कि वास्तविक क्षण है, जो समय की एकमात्र सत्ता है, उसको तुम स्वीकार नहीं करते। अतीत केवल स्मृति है और भविष्य केवल कल्पना। न तो अतीत का कोई अस्तित्व है न भविष्य का। अस्तित्व तो वर्तमान का है।
मैं तुमसे कहता हूं: बुद्ध आज हैं। धर्म आज है, अभी है।
नगद धर्म का यह भी अर्थ है कि जागना हो तो आज जाग जाओ।
एक मित्र ने पूछा है: प्रभु, कब जागुंगा? ''कब'' का मतलब यह होता है: आगे पर टालना शुरू कर दिया। मैं कहता हूं, अभी। और तुम पूछते हो: कब; अभी क्यों नहीं; कल भी ऐसा ही दिन होगा जैसा आज है। परसों भी यही होगा, जैसा आज है। ऐसा ही कल था, ऐसा ही परसों था। ऐसा ही कल होगा, ऐसा ही परसों होगा। समय की वही धारा बह रही है। जीवन का चक्र वैसा ही घूम रहा है। कुछ भेद नहीं है। जागना हो तो अभी। या तो अभी या कभी नहीं।
तुम पूछते हो: प्रभु, कब जागुंगा? तुम्हारा मन एक बात भर स्वीकार नहीं करता कि अभी जागना हो सकता है। अगर मैं तुमसे कहूं हां, जरूर जागोगे अगले जन्म में, तुम निश्‍चित हुए। फिर तुम्हारे मन से सारा बोझ टला। तो तुमने कहा: तो अभी तो जाऊं, दुकान करूं। तो अभी तो जाऊं, चुनाव लडूं? अभी तो धन कमा लूं। अभी तो जागने में देर है। अभी तो थोड़े सपने और देखू लूं। एक करवट और लूं और रजाई में छुप जाऊं। मीठी सुबह ठंडी सुबह। अभी तो जगना नहीं है, अभी बड़ी देर है। देखेंगे अगले जन्म में।
और अगले जन्म में भी तुम मेरे जैसे किसी व्यक्ति के पास जाकर पूछोगे: प्रभु, कब जागूंगा? ऐसा ही तुमने पिछले जन्म में भी पूछा था। तुम कोई नए थोड़े ही यहां आ गए हो। तुम जन्मों—जन्मों से यही तरकीब करते रहे हो। तुमने बुद्ध से पूछा था यही कि प्रभु, कब जागूंगा? और बुद्ध ने कहा: अभी! और तुम्हें बात नहीं जंची। तुमने कहा: अभी कैसे हो सकता है? अभी हजार और काम पड़े हैं।
एक गांव में बुद्ध तीस वर्षो तक निरंतर आए और एक आदमी तीस वर्षो तक निरंतर सोचता रहा कि बुद्ध के दर्शन करने हैं और नहीं कर पाया। जरा बड़ी कठिन बात मालूम पड़ती है। तीस साल लंबा समय है। जब उसको खबर मिली कि बुद्ध अब मरने के करीब हैं, तब वह भागा। बुद्ध ने अपने भिक्षुओं से उस सुबह शरीर छोड़ने के पहले कहा: किसी को कुछ पूछना हो तो पूछ लो, मेरी आखिरी घड़ी आई। भिक्षुओं के पास तो पूछने को क्या था; जीवनभर पूछा था, फिर भी समझे नहीं, अब और पूछने को क्या था! पूछते ही रहे जिंदगीभर, पूछना आदत हो गई थी। सुनना भी आदत हो गई थी। वे प्रश्‍न पूछते रहे थे, बुद्ध उत्तर देते रहे थे; लेकिन सब चीजें जहां की तहां थीं। वे रोने लगे। अब घबड़ाहट उन्हें भी लगी कि कल शास्ता नहीं होंगे; प्रश्‍न हमारे वहीं के वहीं हैं, उत्तर देनेवाला नहीं होगा।
बाहर से अगर उत्तर लिए हैं तो एक—न—एक दिन अड़चन आएगी, आंखों में आंसू आएंगे ही। क्योंकि बाहर से उत्तर एक—न—एक दिन बंद हो जाएंगे। मैं तुम्हें कब तक उत्तर देता रहूंगा। मेरे उत्तरों पर निर्भर मत रहना, नहीं तो उधार हो गया धर्म। मेरे उत्तर से अपने उत्तर को खोजने की कोशिश में लग जाओ। मेरा उत्तर सिर्फ तुम्हारे अपने उत्तर की तलाश में एक धक्का बन जाए, बस पर्याप्त हैं। काम शुरू हो जाए। नहीं तो किसी—न—किसी दिन मुझे भी तुमसे कहना होगा कि अब मैं जाता हूं। अब कल तुम्हारे प्रश्रों के उत्तर मैं न दे सकूंगा। तब तुम रोओगे। तुम कहोगे: हमारे प्रश्‍न तो वहीं के वहीं हैं। आपने दिए थे उत्तर, मगर हमने लिए कब? आपने दिए थे, मगर हमने जिए कब? आपने दिए थे, वे आप के थे, हमारे हुए कब? आए ऊपर से और निकल गए ऊपर से, हम तो वैसे के वैसे हैं।
तुम भी रोओगे। उस दिन बुद्ध के शिष्य रोने लगे। लेकिन बुद्ध ने कहा: अब रोने से कुछ भी न होगा। इतनी बार मैंने तुमसे कहा था कि जाग जाओ, जाग जाओ, जाग जाओ! तुम कल पर टालते रहे, अब कल मैं नहीं रहूंगा। अब आज पर ही बात है, कुछ पूछना हो पूछ लो।
उन्हें कुछ सूझा नहीं पूछने को। टालने की सुविधा हो तो आदमी ऊंचे—ऊंचे प्रश्‍न पूछता है: ''ईश्वर है या नहीं? '' टालने की सुविधा न हो तो बड़ी मुश्किल हो जाती है। कोई ईश्वर जानना थोड़े ही चाहता है। अभी जरा तुम सोचो, सच में तुम अभी जानना चाहते हो? इसी वक्त? अगर मैं तुम्हारा हाथ पकड़ लूं कि आज जना ही दूंगा, तो तुम कहोगे: छोड़िए भी मेरा हाथ! घर में पत्नी राह देखती होगी। और बच्चे भी हैं। फिर आऊंगा।
और अगर तुम ज्यादा हर गए मुझसे तो फिर तुम कभी आओगे भी नहीं।
उस आदमी को, जिसका नाम सुभद्र था, गांव में खबर मिली कि आज बुद्ध का जीवन समाप्त हो रहा है। वह चौंका। उसने कहा कि तीस साल हो गए, मैं कितनी बार सोचा कि जाना है, जाना है जाना है; मगर कोई न कोई काम आ जाता है।
काम सदा आ जाते हैं। तुम्हारे और राम के बीच में काम सदा आ जाते हैं। कभी जा ही रहा था कि मेहमान घर में आ गए थे। कभी जाने को ही था कि दुकान पर ग्राहक आ गए थे। कभी जाने को ही था कि पत्नी बीमार हो गई थी। कभी जाने को ही था कि बच्चा गिर पड़ा, उसने टांग तोड़ ली। ऐसे कुछ—न—कुछ काम आते ही गए, आते ही गए। वे सब काम तो चलते ही रहते हैं, जिसे जाना हो वह उनके बावजूद जाता है। जो सोचता है कि जब सब काम निपट जाएंगे, तब मैं राम के पास जाऊंगा, वह कभी जाता ही नहीं। काम कभी निपटे हैं? काम कभी पूरे हुए हैं? यहां कुछ भी कभी पूरा नहीं होता।
वह भागा एक दिन दुकान छोड़ कर। उसकी पत्नी ने कहा: कहां जाते हो? उसने कहा: अब बकवास बंद कर! तीस साल से तू रोकती रही। उसके बेटे ने कहा: लेकिन, आखिर जा कहां रहे हैं? उसने कहा: अब बात ही मत कर। ग्राहक दुकान पर आ गए थे, उसने कहा: अब जो तुम्हें करना हो करो। दुकान लूटना हो तो लूट लो, मैं जा रहा हूं! हद हो गई। यह तीस साल से मैं प्रतीक्षा करता हूं, लेकिन कोई—न—कोई काम आ जाता है।
वह भागा हुआ पहुंचा। बुद्ध तो विदा ले चुके थे। उन्होंने अपने भिक्षुओं से कहा कि अगर कुछ नहीं पूछना है तो मैं अब आख बंद करूं और डूब जाऊं। वे वृक्ष के पीछे चले गए। उन्होंने आंखें बंद कर लीं। उन्होंने देह का पहला तल छोड़ दिया। दूसरा तल छोड़ रहे थे, तब सुभद्र पहुंचा। वह चिल्लाने लगा कि मुझे दर्शन करने हैं। मुझे कुछ पूछना है।
भिक्षुओं ने कहा कि अब देर हो गई, बहुत देर हो गई। और सुभद्र, तीस साल से तू क्या कर रहा था? और हम खबर तो सदा सुनते थे कि सुभद्र आना चाहता है, आना चाहता है, आना चाहता है। तीस साल तू क्या कर रहा था? अब बहुत देर हो गई। अब मिलना नहीं हो सकेगा। अब तो यह बात ठीक नहीं मालूम पड़ती। हम उन्हें विदा भी दे चुके। उन्होंने आख भी बंद कर लीं। वे अपनी देह को छोड़ने में संलग्न हो गए हैं।
लेकिन सुभद्र चिल्लाया कि नहीं, एक बार तो मुझे मिल ही लेने दो! एक बार तो उनको मुझे देख ही लेने दो!
बुद्ध ने आंखें खोल दीं। उठ कर आ गए। उन्होंने कहा: सुभद्र! तू तीस साल तक बचता रहा। तू सोचता था काम आ गए बीच में! बात गलत थी, बहाना था। सब काम बहाने थे। काम तो आज भी थे, आज तू कैसे आया? जिन्होंने तुझे पहले रोका था, वे आज भी रोक रहे थे, आज तू कैसे आया? जब कोई आना चाहता है तब आ जाता है। जब नहीं आना चाहता तो बहाने खोज लेता है। और मुझे अपनी मरण—प्रक्रिया को छोड़ कर तुझे उत्तर देने के लिए आना पड़ा है। क्योंकि मैं यह नहीं चाहता कि बाद में लोग यह कहें कि बुद्ध जिंदा थे और एक आदमी प्रश्‍न पूछने आया और बिना प्रश्‍न पूछे, बिना उत्तर पाए चला गया। यह जुम्मेवारी मैं नहीं लेना चाहता। हालांकि मैं जानता हूं कि तू उत्तर न तो सुनेगा, न ग्रहण करेगा; मगर वह तेरी बात। पूछ ले तूझे जो पूछना हो।
और कहानी कुछ भी नहीं कहती कि सुभद्र ने उत्तर ग्रहण किया या नहीं किया। सुभद्र यही पूछे था कि हे प्रभु, मुझे ज्ञान कब होगा?——जो तुमने पूछा है: मुझे बोधि कब मिलेगी?
कब! अभी बुद्ध मर रहे हैं, तुम फिर भी पूछ रहे हो: कब? मैं तुमसे कहता हूं: अब! इसी वक्त! कब की भाषा छोड़ दो। कब का मतलब होता है: भविष्य। कब का मतलब होता है: तुमने आज बचने का उपाय खोज लिया। ''कब'' तुम्हारे आज से बचने के लिए छाते का काम करता है। यह कल की कंबली छोड़ो। यह कल का कंबल छोड़ो। यह कल तुम्हें बचाता रहा है आज से। आज ही सब है। आज जीवन का सब मौजूद है। इस क्षण परमात्मा उतना ही मौजूद है जितना कभी पहले था और जितना कभी आगे होगा। रत्ती भर कम नहीं, रत्ती भर ज्यादा नहीं।
परमात्मा की मात्रा इस विश्व में सदा समान है। जो भी हिम्मत कर लेता है जागने की, वह अभी जाग सकता है। तुम टालो मत। स्थगित मत करो।
नगद धर्म का यह भी अर्थ होता है कि स्थगित करने की कोई भी जरूरत नहीं है।

दूसरा प्रश्‍न: मेरी वीणा तुम बिन रोए
मधुर मिलन कब होए?
बहुत सारे प्रश्‍न उठते हैं, शब्द नहीं मिलते हैं, क्या पूछूं?

पूछा है वीणा ने।
प्रश्‍न तो उठते ही रहते हैं। प्रश्‍न तो ऐसे ही लगते हैं मन में जैसे वृक्षों में पते लगते हैं। उनका कोई अंत नहीं है। तुम प्रश्‍न पूछो, मैं उत्तर दूंगा। उत्तर से दस और प्रश्‍न उठ आएंगे, और कुछ भी न होगा। उत्तरों से प्रश्‍न नहीं मरते। उत्तरों के माध्यम से प्रश्‍न अपने को फिर पुनरुज्जीवित कर लेते हैं, फिर ताजे हो जाते हैं, फिर बलशाली हो जाते हैं। अगर उत्तरों से प्रश्‍न हल होते होते, तो सारे प्रश्रों के उत्तर दिए जा चुके हैं। क्या तुम सोचते हो तुम कोई नया प्रश्‍न पूछ सकते हो? इस सूरज के तले नया कुछ भी नहीं है।
जो तुम मुझसे पूछते रहे हो, वही बुद्ध से पूछा गया है, वही कृष्ण से, वही कबीर से, वही दादू से, वही धनी धरमदास से। जो तुम मुझसे पूछ रहे हो, ये अनंत बार पूछे गए प्रश्‍न हैं। और अनंत बार इनके उत्तर दिए जा चुके हैं। प्रश्‍न भी वही हैं, उत्तर भी वही हैं। अन्यथा हो भी कैसे सकता है, क्योंकि सत्य एक है। थोड़ी भाषा बदल जाती होगी, युग के अनुकूल शैली बदल जाती होगी, थोड़े दृष्टांत बदल जाते होंगे, मगर बात नहीं बदलती। मूल बात नहीं बदलती। बुद्ध एक तरह के उदाहरण देते थे, मैं दूसरे तरह के उदाहरण देता हूं——बस उतना ही फर्क है। बुद्ध एक तरह की भाषा का उपयोग करते थे मैं दूसरी भाषा का उपयोग करता हूं। बुद्ध उस भाषा का उपयोग करते थे जो उनको सुननेवाले समझते थे। मैं उस भाषा का उपयोग करता हूं जो मुझे सुननेवाले समझते हैं। बस उतना ही भेद है। लेकिन जो कहा जा रहा है, वह वही है।
बोतलें बदल जाती हैं, शराब वही है। बोतलों पर लेबल बदल जाते हैं, शराब वही है। समय के अनुकूल भाषा और शैलियां बदल जाती हैं, शराब वही है।
प्रश्‍न पूछने से हल नहीं होते, नहीं तो कभी के हल हो गए होते। एक भी तो नया प्रश्‍न नहीं है जो पूछा जा सके।
फिर, प्रश्‍न कैसे हल होंगे? प्रश्‍न मन के अनिवार्य अंग हैं। जब तक तुम मन से मुक्त न हो जाओगे तब तक प्रश्रों से मुक्त न हो सकोगे।
इसलिए सदगुरू का असली काम प्रश्‍न मारना नहीं है, प्रश्‍नकर्ता को मारना है। प्रश्‍न तो बहाना है। प्रश्‍न के बहाने सदगुरू प्रश्‍नकर्ता की हत्या करने लगता है। प्रश्‍न को तोडतोड़कर प्रश्‍नकर्ता को धीरे—धीरे तोड़ देता है। और जिस दिन प्रश्‍नकर्ता मर जाता है, तुम्हारे भीतर प्रश्‍न नहीं उठते, उस दिन उत्तर आता है।
खयाल रखना, इस बात को फिर से दोहरा दूं। जब तक प्रश्‍न हैं तब तक उत्तर नहीं मिलेगा। प्रश्‍न से भरे चित्त को उत्तर मिल ही कैसे सकता है? प्रश्‍न से भरे चित्त को क्षमता कहां है उत्तर को समझ लेने की, सुन लेने की? प्रश्‍न से भरा चित्त उस उत्तर को भी पकड़ लेगा और दस प्रश्‍न उसमें से निकाल लेगा। तुम जरा अपने प्रश्‍न की प्रक्रिया देखना, तुम्हें मेरी बात समझ में आ जाएगी।
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा बस मेरा एक ही प्रश्‍न है। मैंने कहा, फिर पक्का रहे कि एक ही रहे, फिर दूसरा न हो। वह थोड़ा झिझका। और कह चुका था कि एक ही प्रश्‍न है, तो उसने कहा ठीक। मैंने कहा, बात के धनी हो कि नहीं? एक ही प्रश्‍न रहे। फिर दूसरा न उठे। तो उसने कहा, बस मेरा एक ही प्रश्‍न है। उसने बहुत सोचा—समझा, आख बंद कर ली कि जब एक ही पूछना है, तो सोच—समझकर पूछ लेना चाहिए। उसने कहा कि यह पृथ्वी, यह संसार सच में किसी ने बनाया है? तो उसने सोचा बड़ा गहरा प्रश्‍न पूछ रहा है। मैंने कहा, निश्‍चित। ईश्वर सब के पीछे छिपा है।
तो उसने कहा, फिर सवाल उठता है। मैंने कहा, अब उठने नहीं देंगे। सवाल——लेकिन उसने कहा, सवाल उठता ही है। अब आप उठने दो या नहीं उठने दो, मैं कहूं या न कहूं। सवाल उठता है कि अगर ईश्वर है तो दुनिया में दुःख क्यों है? बीमारी क्यों है? कैंसर क्यों है? टी० बी० क्यों है? गरीब क्यों है, अमीर क्यों है?
क्या तुम सोचते हो, उसको प्रश्‍न का उत्तर दिया जाए तो हल होगा? मैंने उससे पूछा, अगर इसका मैं उत्तर दूर फिर तो नहीं पूछेगा? उसने कहा, अब मैं वचन नहीं दे सकता। पहले वचन देकर मैं भूल में पड़ गया, फिर उत्तर ने नया प्रश्‍न उठा दिया।
जब तक प्रश्‍न करने की मूल प्रक्रिया जीवित है..... उस मूल प्रक्रिया का नाम मन है। मन का अर्थ होता है: प्रश्‍न पैदा करने का यंत्र। उसमें कुछ भी डालो, वह प्रश्‍न बनकर बाहर आता है। मन की कला यही है कि हर चीज पर प्रश्‍नवाचक चिह्न लगा देता है। कुछ भी डालो, उसको जल्दी से मोड़ कर प्रश्‍न बनाता है, प्रश्‍न आकर ऊपर उठ आता है। कोई प्रश्‍न मन के रहते हल नहीं होनेवाला है।
इसलिए वीणा! प्रश्‍न की फिक्र में ही मत पड़ो। मन कैसे जाए, मन से कैसे छुटकारा हो, अ— मनी दशा कैसे पैदा हो——बस उसकी ही तलाश में लगो। मन चला जाए तो जड़ कट जाती है, फिर पते नहीं लगते। अ—मन हो जाए।
और देखते हो, अमन शब्द बड़ा प्यारा है! एक तो अमन का अर्थ होता है मन न रह जाए, और एक अमन का अर्थ होता है शांति हो जाए। दोनों का एक ही प्रयोजन है। जहां मन नहीं रहा, वहीं शांति हो जाती है। जहां मन नहीं, वहीं अमन है, वहीं चैन है, वहीं चैन की बंसी बजती है। फिर कोई प्रश्‍न नहीं उठते। और जहां प्रश्‍न नहीं उठते, उसको मैं कहता हूं आस्तिकता।
तुमने समझा हुआ है सदा से कि आस्तिकता का अर्थ होता है, जो संदेह न करे। लेकिन अगर मन है तो संदेह उठेंगे ही, करो या न करो, कहो या न कहो।
आस्तिकता का अर्थ होता है : जहां मन न रहा, जहां प्रश्‍न ही नहीं उठते। संदेह करनेवाला ही चला गया। संदेह का मूलस्रोत ही नष्ट हो गया। चैतन्य बचा— —मन— रहित चैतन्य।
ऊर्जा को, अपनी सारी शक्ति को, प्रश्रों के हल करने में मत लगाओ। सारी ऊर्जा को मन से मुक्त होने में लगा दो। उसी का एक नाम ध्यान है, उसी का एक नाम भक्ति है। जो तुम्हें प्रीतिकर लगे।
वीणा को दृष्टि में रखकर कहता हूं, भक्ति ही प्रीतिकर होगी। क्योंकि पूछा है : मेरी वीणा तुम बिन रोए। मधुर मिलन कब होए?
मिलन हो सकता है। तुम मिटो तो मिलन हो जाए। तुम ही बाधा हो, और कोई बाधा नहीं है। कठिनाई है। बिना मिलन के पीड़ा है। होनी ही चाहिए। मेरे पास आयी हो तो उसे और बढाऊंगा।

 क्योंकर गुजर रहे हैं मेरी जिंदगी के दिन
यह मैं तुम्हें बता नहीं सकती हूं, क्या करूं;
मुझको तेरे फिराक का एहसास है मगर
मैं तेरे पास आ नहीं सकती हूं, क्या करूं?
यह ठंढी—ठंढी आग, मुहब्बत कहें जिसे
यह आग मैं बुझा नहीं सकती हूं, क्या करूं?
यह आग अभी बढ़ाना है, बुझाना है ही नहीं। यह आग अभी गहरानी है। यह आग अभी पूरी प्रज्वलित करनी है। इस आग में जितनी समिधा डाल सको, डालो। इस आग में जितना ईंधन डाल सको, डालो। यह आग पूरी प्रज्वलित हो जाए तो यही है यज्ञ। वह जो तुम हवन—कुंड बना कर, कर लेते हो यज्ञ, वे सब थोथे हैं और झूठे हैं और पाखंड हैं, और पंडितों का जाल है, शोषण के उपाय हैं। असली यज्ञ की वेदी भीतर बनती है। यही है वह आटा——मुहब्बत की आग! प्रेम की आग!
इस जगत में प्रेम कभी तृप्त नहीं हो सकता, क्योंकि इस जगत में जिससे भी तुम प्रेम लगाओगे वह सब क्षणभंगुर है। पानी का बबूला है; अभी बना, अभी मिटा। प्रेम शाश्वत पात्र चाहता है। ऐसा, जिससे मिलन हो तो छूटे न फिर। जहां विरह फिर दुबारा न हो। जहां तलाक संभव ही नहीं है। जहां मिलन का अर्थ ही होता है: मिल गए, एक हो गए, अब दो होने का उपाय न रहा। जहां मिलन में दो नहीं बचते; दो मिल कर एक ही हो जाते हैं, एक ही बचता है, अद्वैत बचता है।
अभी प्रश्रों की दिशा में जाने की बजाय भजन की दिशा में चलो। वही शक्ति है, उससे प्रश्‍न बनाओ तो दर्शन की यात्रा होती है; उसको ही अगर आख के आंसू बनाओष्ठ। रोओ विरह में! मिलन की आकांक्षा है तो विरह में रोओ! पुकारो! कोई उत्तर न आएगा, फिर भी पुकारते रहो! उत्तर की फिक्र ही मत करो। आज नहीं आया तो इतना ही समझना कि पुकार पूरी नहीं थी। कहीं कोई संदेह था। कहीं कोई दुविधा थी। फिर पुकारना। फिर—फिर पुकारना। पुकारते ही जाना। इतना सुनिधित है कि जिस दिन पुकार पूर्ण होती है उसी दिन उत्तर आ जाता है। उसी दिन सारा जगत मुखर हो जाता है। अस्तित्व बोल उठता है। अस्तित्व डोल उठता है। अस्तित्व सब तरफ से तुम्हारे ऊपर बरस जाता है। अभी तो बातें करो। उधर से उत्तर नहीं भी आए तो चिंता मत करना।
जब मेरे पास वे नहीं होते, उनसे होती हैं राज की बातें
जिन पै मौसीकिओं को वज्द आए, हाय उस मस्ते नाज की बातें
जिससे संगीत भी झेंप जाए... जिन पै मौसीकिओं को वज्द आए... जिसमें संगीत को भी बेहोशी आ जाए और तल्लीनता हो जाए, हाय उस मस्ते नाज की बातें! उस प्यारे की बातें! उस प्रीतम की बातें!
उत्तर नहीं आएगा। यही पीड़ा है भक्त की। पुकारता है, उत्तर नहीं आता। सूने आकाश में सारी पुकार खो जाती है। गाता है गीत, कहीं से कोई खबर नहीं आती कि किसी ने सुना कि नहीं सुना। झुकता है प्रार्थना में, लेकिन चरण हाथों में पकड़ नहीं आते।
वीणा के लिए यही उचित होगा: झुको। रोओ! पुकारो! प्रश्रों की चिंता छोड़ो। प्रश्रों के गोरखधंधे में मत पड़ो। फिर एक दिन घटना घटती है। निश्‍चित घटती है। सदा घटती रही है। तुम्हारे साथ विश्व का नियम अपवाद नहीं करेगा। निरपवाद घटती रही है।

      कभी इधर भी चले आओ कैफ बरसाते
सबू कदे की फजाएं सलाम करती हैं
खयाले दोस्त यह चुपके से उनसे कह देना
तुम्हें किसी की वफाएं सलाम करती हैं
अभी भेजो सलाम! अभी झुको! जल्दी ही किसी दिन, जिस दिन झुकना पूरा हो जाएगा, चरण हाथ में आ जाएंगे! लेकिन तुम्हारी तरफ से जब पूर्णता होती है तभी यह हो पाता है।
तो अभी प्रश्‍न में मत बाटो अपने को, नहीं तो पूर्णता कभी नहीं हो पाएगी। भक्त को प्रश्‍न की चिंता ही नहीं करनी चाहिए। भक्ति में प्रश्‍न इत्यादि का कोई सवाल नहीं है। भक्त को तो प्रेम की चिंता करनी चाहिए, प्रश्‍न की नहीं। थोड़ा—सा प्रेम भी पहाड़ों जैसे बड़े ज्ञान से ज्यादा बहुमूल्य है। प्रेम में बहे दो आंसू जानी की पूरी खोपड़ी से एक आह——और सारे वेद और सारे शास्त्र फीके पड़ जाते हैं!....तो रोआं! गाओं!

      किसी की याद में आंसू बहा रही हूं मैं
हदीसे—दर्दे—मुहब्बत सुना रही हूं मैं
संभल जमानए—हाजिर की तुझसे कुछ पहले
करीब मजिले—मकसूद जा रही हूं मैं
सुनी है जब से खबर उनकी आमद—आमद की
हरीमे—दीदए—दिल को सजा रही हूं मैं
अभी जमाना नहीं उनके आजमाने का
अभी तो अपने को खुद आजमा रही हूं मैं,
नफस—नफस है मेरा साजे—गैब ऐ ''अख्तर''!
जो सुन रही हूं जहां को सुना रही हूं मैं
रोओ! गाओ! कभी कुछ भनक पड़ जाए, सुनाई पड़ जाए उस अज्ञात लोक से, उस जगत को सुनाओ। कभी कुछ पकड़ में आ जाए एक किरण, उसे जगत जल्दी से बांट दो कि हाथ से छूट न जाए। कभी एक बूंद तुममें टपक जाए उस सागर की, तो उसे संभालकर संपत्ति समझकर दबा मत लेना। उसे बांटना! जितना बांटोगे उतना बढ़ेगी। एक—आध स्वर पकड़ में आ जाए, गुनगुनाना। दे देना औरों को! फिर और बड़े स्वर सुनाई पड़ने लगेंगे। उसके मार्ग पर बांटनेवाले ही संगहीत कर पाते हैं और लुटानेवाले ही संपदावान हो पाते हैं।

तीसरा प्रश्‍न : सत्संग की महिमा समझाने की अनुकंपा करें।

प्रज्ञा! सत्संग ही करो न! सत्संग की महिमा समझकर क्या करोगी? यह तो ऐसा ही हुआ कि फलों से भरे बगीचे में गए और पूछने लगे कि फलों की महिमा समझाइए। ये रस—भरे फल! स्वाद नहीं लेना है, इनकी महिमा ही समझनी है? और महिमा समझते—समझते जनम—जनम हो गए। चूसो इन आमों को! पियो! इस रस को पचाओ।
मेरे साथ सत्संग ही होने दो न! सत्संग की महिमा.. .? जहां स्वाद मिल सकता हो, वहां भी तुम शब्द की ही प्रतीक्षा करते हो? जहां भोजन मिल सकता हो वहां भी तुम भोजन की वार्ता करना चाहते हो? सत्संग घट सकता है, घट रहा है। जो भी राजी हैं, उनको घट रहा है। जो भी हिम्मत रखते हैं पास सरक आने की...... सत्संग का और क्या अर्थ होता है—— पास सरक आना। जहां सत्य दिखाई पड़ जाए, वहीं जम कर बैठ जाना, वहां से हटना ही नहीं। वहीं करीब—करीब सरकते आना। गुरु धक्के दे और भगाए, डंडे मारे और पीछा करे, तो भी फिक्र नहीं करना। जमे ही रहना!
परीक्षा है। लोग छोटी—छोटी बातों में उखड़ जाते हैं, जरा—जरा—सी बातों में भाग जाते हैं। जरा एक—आध बात उनके मन के अनुकूल न पड़ी और वे गए। उन्होंने कहा: ''यह हमारे बात नहीं जंचती। यह हमारे शास्त्र में नहीं लिखी। यह हमारी किताब के अनुकूल नहीं है।'' वे गए!
सत्संग तभी हो सकता है जब तुम सब अपनी किताबें घर रखकर आओ, खाली आओ। सत्य का साथ करना हो तो नग्न होकर आओ, रिक्त होकर आओ। अपने सिर को उतार कर घर रख आओ। खाली आओ, ताकि सत्य प्रवेश कर सके।
फिर, सत्य को ग्रहण करने के लिए और कुछ नहीं करना पड़ता, सिर्फ गर्भ बन जाना पड़ता है। स्वीकार करने की भाव—दशा...। द्वार खुला छोड़ो। मुझे भीतर आने दो।
हालतें अजीब हैं। मैं तुम्हारे द्वार पर दस्तक दिए जाता हूं और तुम द्वार मजबूती से बंद किए हुए हो, ताले लगाए बैठे हो। और भीतर से पूछते हो: सत्संग की महिमा!
दरवाजा खोलो! ताले तोड़ो! तुमने ही लगाए हैं, तुम्हीं खोल सकते हो। थोड़ी हिम्मत करो बाहर आने की। सुरक्षा थोड़ी छोड़ो। थोड़े असुरक्षित होने का साहस दिखाओ। सत्संग हो जाएगा। सूरज निकल आया है, तुम्हीं अपने दरवाजे बंद किए भीतर अंधेरे में बैठे हो। सूरज पर कोई परदा नहीं है, तुमने ही घूंघट कर रखा है।
प्रज्ञा! घूंघट के पट—खोल। हटाओ यह घूंघट! यहां पियो, महिमा क्या पूछनी है? महिमा किससे पूछनी है? महिमा अनुभव करो! पूछने—पाछने का काम नहीं है। सोचने—समझने का काम नहीं है। पी जाओ।
सत्संग तो शराब जैसी चीज है; जो पिएगा वही जानता है। जिसने कभी शराब पी नहीं, उसे कोई महिमा समझ में नहीं आ सकती। यह तो पियक्कड़ों का रस है, पियक्कड़ों का अनुभव है। सत्संग तो एक तरह की मधुशाला है, जहां शराब ढाली जा रही है। शराब—— परमात्मा की! इस नशे में अपने को बचाओ मत, होशियारी न करो।
प्रज्ञा में मुझे दिखाई पड़ती है थोड़ी होशियारी और थोड़ा बचाव। यहां है, पूरी—पूरी नहीं, थोड़ा फासला रखे है, थोड़ी दूरी बचाए है। इतना फासला है कि अगर जरूरत हो तो निकल भागे। उतनी दूरी होशियार लोग हमेशा बचा कर रखते हैं, कि फिर कहीं ऐसा न हो जाए कि निकल न सकें बाहर। तो सत्संग नहीं हो सकेगा। इसलिए महिमा पूछी है। महिमा इसलिए पूछी है कि शायद महिमा समझ में आ जाए तो थोड़े और करीब आ जाएं।
और महिमा तो रोज तुमसे कह रहा हूं। और तो कुछ कह ही नहीं रहा हूं— —सत्संग की ही महिमा कह रहा हूं। अब समय आ गया है कि सत्संग करो।
'' सत्संग '' प्यारा शब्द है। उसका अर्थ है: जिसे मिल गया हो, उसके साथ संबंध जोड़ लेना, उसके साथ भांवर डाल लेनी, उसके साथ सात चक्कर लगा लेने।
सत्य संक्रामक है। अगर किसी को मिल गया हो और तुम उसके पास भी बैठ जाओ तो तुम पाओगे, एक दिन अचानक तुम्हारे भीतर भी आषाढ़ के पहले मेघ घिर गए, घुमड़ने लगे, बिजली कौंधने लगी, वर्षा की तैयारी होने लगी। जन्मों—जन्मों की तुम्हारी आत्मा की प्यासी धरती तृप्ति के करीब आने लगी।
सत्य संक्रामक है। लेकिन करीब होओ, तभी संक्रमण होता है।
तुम देखते हो, डाक्टर मरीज के पास जाता है, तो जैसे जैन तेरापंथी मुनि मुंह पर पट्टी बांधते हैं, वह भी मुंह पर पट्टी बांध लेता है, हाथ पर दस्ताने चढ़ा लेता है, क्योंकि बीमारी संक्रामक है। मरीज के इतने पास होना, बिना दस्ताने के और बिना और मुंह—पट्टी के, खतरनाक है। और जैसे ही मरीज को देखता है, फिर जल्दी से जा कर साबुन से हाथ धोता है, जल्दी से सफाई करता, मुंह कुल्ला करता, कि कहीं कोई कीटाणु प्रवेश न कर गए हों।
सत्संग करना हो तो इससे ठीक उल्टी प्रक्रिया चाहिए। मुंह—पट्टी अलग करो! औरहाथ से दस्ताने हटाओ! सब बाधाएं अलग करो। सत्य को उतर जाने दो। सत्य मुक्तिदायी है। कुछ और करना नहीं है, सिर्फ बाधाएं खड़ी नहीं करनी हैं। बस सत्य सब कर लेता है। यही सत्य की महिमा है कि सत्य सब कर लेता है। तुम बाधा बस मत डालो। तुम आलिंगन को तैयार रहो। तुम बाहें फैला दो और कहो : मैं राजी हूं! जाऊंगा अज्ञात में, अनजान में, अपरिचित में। जहां ले चलोगे, चलूंगा। जो होगा, होगा। सब दांव पर लगाता हूं। फिर सत्संग हो जाता है।
और एक बार सत्संग का स्वाद लग जाए तो फिर बढ़ता जाता है। बस पहली घूंट ही कठिन पड़ती है। एक बार हलक से पहली घूंट उतर गई सत्संग की शराब की, फिर तो आदमी पीने के लिए आतुर हो जाता है। फिर तो जितना मिले उतना पीता है। जितना मिले उतना पचाता है। फिर कोई अंत नहीं है यात्रा का।

      हर नफ्स मौत का इशारा है
जिंदगी आंसुओ का धारा है
हमने अपने लहू की सुर्खी से
चहरए—जिंदगी निखारा है
आज गुलशन में खारो—खस ने भी
लाल—ओ—गुल का रूप धारा है
दिल धड़कता है इस तरह जैसे
कोई टूटा हुआ सितारा है
जिंदगी के उदास लम्हों में
अब तेरे नाम का सहारा है
हमने इस जिंदगी से घबराकर
बारहा मौत को पुकारा है
जब से वह है शरीके—गम ''रूही''
हर गमे—जिंदगी गवारा है
गुरु का साथ सत्संग की शुरूआत है। इस शुरूआत का अंत परमात्मा के साथ में हो जाता है। इसलिए गुरु को परमात्मा कहा है शास्त्रों ने——सिर्फ इसलिए कहा है कि गुरु से परमात्मा की यात्रा का पहला कदम उठता है, फिर यात्रा घनी होती जाती है। और कब गुरु खो जाता है और परमात्मा प्रविष्ट हो जाता है, पता भी नहीं चलता।

      हर नफ्स मौत का इशारा है
जिंदगी आंसुओ का धारा है
तुम्हारी जिंदगी में है क्या, सिवाय आंसुओ के, सिवाय दुःख के; घबड़ाते क्या हो; अगर गुरु कुछ छीन भी लेगा तो क्या छीन लेगा; तुम्हारे पास जो भी है, अच्छा ही है कि छिन जाए।
मगर लोग बड़े अजीब हैं। अपने दुःखों की गठरी बांधे बैठे हैं। गठरी के ऊपर बैठे हुए हैं कि कहीं कोई चुरा न ले, कहीं कोई छीन न ले। तुम डरते क्या हो; तुम्हारी हालत ठीक वैसी है जैसी कहावत है एक कि नंगा नहाता नहीं था। किसी ने पूछा, भाई तू नहाता क्यों नहीं; उसने कहा: नहा तो लूं लेकिन कपड़े कहां सुखाऊंगात्रु उसने कहा: भाईजान, कपड़े हैं कहा?
तुम घबड़ा क्या रहे हो; तुम्हारे पास खोने को है क्या; तुमसे अगर मैं कुछ छीन भी लूंगा तो क्या छीन लूंगा; छीना—झपटी में तुम्हें कुछ मिल ही सकता है, तुम्हारा कुछ खो नहीं सकता, घबड़ाओ मत। इतना खयाल रखो के छीना—झपटी में कुछ भी तुम्हारा खो नहीं सकता। है ही नहीं तुम्हारे पास कुछ। काश तुम्हारे पास कुछ होता, तो सत्संग की जरूरत ही न थी! तुम बिल्कुल रिक्त हो। और जो तुम्हारे पास है, वह सिर्फ तुमने बहाना बना रखा है कि अपने पास कुछ तो होना ही चाहिए, नहीं तो मन में बड़ी घबड़ाहट होती है।
मैंने सुना है, एक फकीर के घर में एक चोर घुस गया रात। अंधेरे में टटोल रहा था, फकीर ने कहा: मेरे भाई! घबड़ाना मत, मैं दीया जला लूं।
उस चोर ने कहा: दीया जला लूं क्या मतलब?
फकीर ने कहा: मैं भी तुम्हारा साथ दूंगा। क्योंकि मैं इस घर में तीस साल से रहता हूं, मुझे कुछ नहीं मिला। दिन के उजाले में खोजते—खोजते परेशान हो गया हूं और तुम रात में अंधेरे में खोज रहे हो! तुम्हारे भाग्य से शायद कुछ मिल जाए तो आधा—आधा कर लेंगे।
तुम्हारे घर में है क्या? मान रखा है कि कुछ है। तुम्हारे घर से कोई चुरा भी ले जाएगा तो क्या चुरा ले जाएगा?
मैंने और एक कहानी सुनी है। मुल्ला नसरुद्दीन के घर में एक चोर घुस गया। चोर ने अपनी चादर बिछायी सामान बांधने के लिए, वह अंदर सामान लेने गया, मुल्ला उसकी चादर पर सो गया। बिल्कुल आख बंद करके लेटे रहा है। तो चोर लौटा, उसने कहा: यह भी हद हो गई! घर में तो कुछ मिला ही नहीं, और चादर भी गई! उसने मुल्ला से कहा कि भई चादर तो दे दो। मुल्ला ने कहा कि इसी तरह कोई—कोई कभी—कभी आ जाता है, उसी से तो हमारा जीवन चल रहा है। चादर कहां से दें?
एक कहानी और भी मैंने सुनी है। एक चोर किसी के घर में घुसा। कुछ खास तो वहां था नहीं। मगर जो भी कूड़ा—कबाड़ था, अब आ ही गया था, रात खराब गई, चलो जो है ले चलें। वह उसी को बांध—धूंध कर चलने लगा। जब वह चलने लगा तो आधे रास्ते में उसने पाया कि कोई पीछे चला आ रहा है। उसने लौटकर देखा, वही आदमी है जिसके घर में वह सामान ले आया है। उसने पूछा कि भाई, तुम किसलिए आ रहे हो उसने कहा कि घर हम बदलना ही चाहते थे पहले से। हम भी वहीं रहेंगे जहां तुम रहते हो। सामान तो तुम ले ही आए हो, हम को कहां छोड़ जाते हो?
तुम्हारे पास है क्या? तुम इतने घबडाए किसलिए हो? लेकिन लोग बड़े हरे हुए हैं कि कहीं कुछ छिन न जाए, कहीं कुछ खो न जाए! जिनके पास कुछ नहीं है, उनका हर कि कहीं कुछ खो न जाए, सिर्फ एक मान्यता है यह अपने को समझाए रखने की कि हमारे पास कुछ है। जरा खोलकर तो देखो पोटली, सिवाय दुःखों के और कुछ भी नहीं।
गुरु अगर छीन भी लेगा तो दुःख ही छीन सकता है।

      हर नफ्स मौत का इशारा है
जिंदगी आंसुओ का धारा है
हमने अपने लहू की सुर्खी से
चहरए—जिंदगी निखारा है
गुरु के पास रहो, उठो—बैठो। उस हवा में थोड़ा जियो, श्वास लो, तो तुम्हारे दुःखों का एक उपयोग हो जाएगा। वह उपयोग यह है कि दु :खों के माध्यम से चेहरे को निखारा जा सकता है। तुम्हारे आंसुओ का भी उपयोग ही जाएगा, क्योंकि आंसुओ के माध्यम से तुम्हारी आंखों को नहलाया जा सकता है। गुरु के पास यही तो कीमिया है कि तुम्हारे पास जो कूड़ा—करकट है उसका भी उपयोग सिखा दे, उसमें से भी कुछ सार्थक का निर्माण कर दे।

 आज गुलशन में खारो—खस ने भी
लाल—ओ—गुल का रूप धारा है
अगर सत्संग हो जाए तो कांटों को भी तुम पाओगे फूल बन गए। आज गुलशन में खारो—खस ने भी... घास—पात ने, तिनकों ने, कांटों ने लाल—ओ—गुल का रूप धारा है.....। फूल बन गए हैं।

      दिल धड़कता है इस तरह जैसे
कोई टूटा हुआ सितारा है
जिंदगी के उदास लम्हों में
अब तेरे नाम का सहारा है
सत्संग का अर्थ होता है: किसी के साथ हो लिए, किसी का सहारा हो गया। अब तुम अकेले नहीं। संन्यास का और क्या अर्थ है? संन्यास का यही अर्थ है कि अब तुम अकेले नहीं, तुमने किसी का संग—साथ लिया है, तुम्हारे हाथ में किसी का हाथ है।

      हमने इस जिंदगी से घबरा कर
बारहा मौत को पुकारा है।
तुमने तो इस जिंदगी में सिवाय मौत के और सोचा क्या था?
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, ऐसा आदमी खोजना कठिन है जिसने जिंदगी में दो—चार बार आत्महत्या की बात न सोची हो। और यह बात मुझे सच लगती है। हजारों लोगों के मनों का विश्लेषण कर—करके मुझे भी यह बात दिखाई पड़ी है कि ऐसा आदमी खोजना कठिन है, जिसने कभी दो—चार बार किन्हीं उदास लम्हों में, किन्हीं दुःख की घड़ियों में, किन्हीं पीड़ा के क्षणों में, आत्मघात का विचार न किया हो, मौत को न पुकारा हो।
तुम्हारी जिंदगी मौत को पुकारने में बीत गई है। यह भी कोई जिंदगी हुई?

जब से वह है शरीके—गम ''रूही''
हर गमे—जिंदगी गवारा है
लेकिन सत्संग लग जाए, सत्संग का रंग लग जाए, तो फिर जिंदगी के सब दु:ख गवारा हैं। फिर एक रोशनी की किरण तुम्हारी अंधेरी रात में उतरी। फिर अमावस भी एकदम अमावस नहीं है, उसमें पूर्णिमा का कुछ हिस्सा उगने लगा। चांद की पहली रेखा प्रकट होने लगी। फिर चांद बढ़ता जाता है, अंधेरा कम होता जाता है। एक दिन पूर्णिमा की रात भी आती है। निश्‍चित आती है!

      खिलाओ फूल तबस्सुम से गुलसिता बन जाओ
गुलों का नग्मा बहारों की दास्तां बन जाओ
नजर—नजर में सितारों की ताबिशें भर दो
हमारी अंजुमने—दिल में कहकशां बन जाओ
सत्संग का अर्थ होता है: जहां सत्य दिख जाए, वहां प्रार्थना करना। उतर आओ हमारे हृदय में, ऐसी प्रार्थना करना। शब्दों में ही न हो प्रार्थना, प्राणों में ऐसी प्रार्थना हो। हमारी अंजुमने—दिल में कहकशां बन जाओ! आकाश—गंगा की तरह हमारे हृदय में उतर आओ! नजर—नजर में सितारों की ताबिशें भर दो! चमक भर दो तारों की!

      उठाओ—पर्दए—रुख माहे जौ—फिशां बन जाओ
दिलेतबाह को तसकीं तो हो किसी सूरत
सितम से बाज न आओ तो महरबां बन जाओ
निबाहो रस्मे — मुहब्बत तुम अपनी ''शबनम'' से
नजर से दिल में समा जाओ सजदा बन जाओ
सत्संग प्रेम का परम रूप है। जैसे दो प्रेमी एक—दूसरे के हिस्से हो जाते हैं, ऐसा गुरु और शिष्य एक—दूसरे के हिस्से हो जाते हैं।
कल सुना नहीं, धनी धरमदास ने क्या कहा! एक—दूसरे में हिल—मिल जाते हैं! धीरे—धीरे गुरु का रंग शिष्य पर चढ़ जाता है। और धीरे—धीरे यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि गुरु कहां समाप्त होता है, शिष्य कहां शुरू होता है।
सीमाएं धीरे—धीरे धुंधली हो जाती हैं। शिष्य भी गुरु का एक प्रतिनिधि हो जाता है——उसकी ही वीणा का एक स्वर! उसकी ही बगिया का एक फूल!
शिष्य की खिलावट में भी गुरु की खिलावट सम्मिलित हो जाती है। शिष्य की सुवास में तुम गुरु की सुवास भी पाओगे।
सत्संग जीवन—रूपांतरण की एक प्रक्रिया है— —और भक्ति के मार्ग पर तो बड़ी महत्वपूर्ण है! भक्ति के मार्ग पर सत्संग से ज्यादा महत्वपूर्ण और कुछ भी नहीं है।
मगर महिमा मत पूछो, अब सत्संग करो।
आखिरी सवाल : यह बताने की कृपा करें कि उपलब्ध होने के बाद भोजन लेना भी शरीर का मोह है? क्या उपलब्ध हो जाने के बाद भोजन के बिना जीवन चल सकता है?

कोई महात्मा का आगमन हो गया है!
भोजन से ऐसी क्या नाराजी? शरीर से ऐसी क्या दुश्मनी? शरीर भी उसका रूप है। स्वाद भी उसका स्वाद है। भोजन का रस भी उसका भजन है। यह तुम कैसा रुग्ण—चित्त लिए बैठे हो! तुम गलत आदमियों के साथ पड़ गए हो। तुम दुष्ट—संग में पड़ गए। हालांकि दुष्ट—संग को ही लोग सत्संग समझ रहे हैं। तुम किसी दुष्ट—प्रकृति आदमी की दोस्ती में बिगड़े हो।
तुम्हारे तथाकथित साधु—महात्मा जीवन—विरोधी हैं, शरीर—विरोधी हैं, आनंद विरोधी हैं। उनका परमात्मा जीवन का नियंता, रचयिता नहीं है; उनका परमात्मा जीवन का शत्रु है। उनके हिसाब में परमात्मा और उसकी सृष्टि में विरोध है, जो कि बात बड़ी ही नासमझी से भरी है। अगर परमात्मा स्रष्टा है तो सृष्टि उसका फैलाव है। तो सृष्टि के विपरीत उसका स्रष्टा कैसे हो सकता है? कोई कवि अपनी कविता के विपरीत होता है? कोई संगीतज्ञ अपने संगीत के विपरीत होता है? और अगर संगीतज्ञ संगीत के विपरीत है तो वीणा तोड़ क्यों नहीं देता? बंद करे यह साज, यह राग समाप्त करे।
लेकिन परमात्मा ने वीणा तोड़ नहीं दी है, गीत जारी है। अब भी बीज टूटेंगे और वृक्ष बनेंगे। अब भी लोग प्रेम करेंगे और बच्चे पैदा होंगे। अब भी नए तारे निर्मित होंगे। अब भी जगत चलता रहेगा। परमात्मा ने किसी एक दिन सृष्टि की और फिर भाग थोड़े ही गया है दुनिया से। सृष्टि रोज कर रहा है, प्रतिपल कर रहा है। प्रतिपल सृष्टि जारी है। नहीं तो कौन नए अंकुर निकालता है बीज से? कौन पत्तों पर रंग देता है? कौन तितलियों के पर सजाता है? कौन तारों में रोशनी डालता है? कौन तुम्हारे भीतर प्रेम बनकर उमगता है, गीत बनकर प्रकट होता है? कौन है तुम्हारे जीवन का मूलाधार? कौन तुम्हारी आस ले रहा है?
लेकिन तुम्हारे महात्मा संसार के बड़े विपरीत हैं। और जो संसार के विपरीत हैं, मैं कहता हूं, वे परमात्मा के भी विपरीत हैं। क्योंकि जो कविता के विपरीत हैं वह कवि के विपरीत है और जो नृत्य के विपरीत है वह नर्तक के विपरीत है। जो सृष्टि के विरोध में है वह स्रष्टा के विरोध में है।
इन रुग्ण—चित्त लोगों से बचना। इस तरह के महात्माओं से सावधान!
जीवन का प्रेम सीखो! जीवन का आह्नाद सीखो! जीवन के आह्नाद से ही तुम एक—एक कदम परमात्मा के आह्नाद में प्रवेश करोगे। कविता का रस लो तो कविता ही तुम्हें कवि तक पहुंचा देगी। नृत्य में डूबो! उसी में डुबकी लगाते—लगाते एक दिन नर्तक का साथ हो जाएगा।
इसलिए मैं तुमसे नहीं कहता कि तुम शरीर को सुखाओ, कि धूप में नग्न खड़े हो जाओ, कि सर्दियों में जाकर हिमालय की ठंढी गुफाओं में बैठो। तुम्हें मूढताएं करनी हों तो किसी सर्कस में भरती हो जाओ, इतनी दूर और इतने लंबे और इतने उपद्रव क्यों मचाने? तुम्हें उपवास करना हो तो इसको धर्म का चोगा मत पहनाओं। तुम सिर्फ आत्मघाती हो। तुम्हारे भीतर आत्महत्या की वृत्ति है, और कुछ भी नहीं। इसको अच्छे—अच्छे शब्दों के जाल में मत छिपाओ।
अब तुमने पूछा: यह बताने की कृपा करें कि उपलब्ध होने बाद भोजन लेना भी शरीर का मोह है क्या?
उपलब्ध होने के बाद न कोई शरीर है, न कोई आत्मा है। उपलब्ध होने के बाद स्रष्टा और सृष्टि एक हैं, आत्मा और शरीर एक हैं। उपलब्ध होने के बाद एक ही बचता है, दो नहीं बचते। उपलब्ध होने के बाद आदमी सोचकर नहीं चलता कि मैं क्या करूं और क्या न करूं, आज उपवास करूं कि आज भोजन लूं। उपलब्ध होने के बाद सब सहज स्वाभाविक होता है। जिस दिन भूख लगती है, भोजन लेता है; जिस दिन भूख नहीं लगती, उस दिन भोजन नहीं लेता। इसमें कृत्य नहीं होता— —सहज, स्‍व—स्फूर्त।
तुम्हारी हालत बड़ी अजीब है! भूख नहीं लगी और भोजन लेते हो; और भूख लगी है और उपवास करते हो! तुम पागल हो। तुम प्रकृति को मौका दोगे कभी कि नहीं दोगे? तुम अड़ंगे क्यों खड़े करते हो? पेट भर गया है और तुम खाए जा रहे हो। यह भी अनाचार है, व्यभिचार है, क्योंकि बलात्कार है शरीर के साथ। और आज भूख लगी है, मगर तुम उपवास किए बैठे हो, क्योंकि पर्युषण—व्रत चल रहे हैं। या आज कोई धार्मिक दिन है, उपवास का दिन आ गया। या तुम प्राकृतिक चिकित्सकों के चक्कर में पड़ गए हो। अब यह अप्राकृतिक बात तुम कर रहे हो प्राकृतिक चिकित्सक के चक्कर में पड़ कर।
प्राकृतिक होने का अर्थ होता है: तुम निर्णय छोड़ दो। जो सहज होता है, होने दो। और तुम चकित हो जाओगे जानकर कि जो सहज होता है वह परमात्मा से होता है। और जो असहज होता है वह तुमसे होता है, तुम्हारे अहंकार से होता है।
हां, ऐसे दिन आते हैं, जरूर आते हैं, जब भोजन का भाव नहीं उठता। नहीं उठता तो बात खत्म हो गई। जब भाव ही नहीं उठ रहा है तो परमात्मा आज भोजन नहीं लेना चाहता है, तो आज परमात्मा को भोग मत लगाना। जिस दिन भाव उठ रहा है, उस दिन भोजन लेना, उस दिन परमात्मा भोजन लेना चाहता है।
जब नींद आए तो सो जाना। जब भूख लगे तो भोजन कर लेना। सहज हो जाए तुम्हारी गति। सहज योग ही एकमात्र योग है। जो असहज है, उसमें कहीं मनुष्य का अहंकार है और दंभ है।
अब तुम्हें चिंता पड़ी है। अभी उपलब्धि भी नहीं हुई, मगर उपलब्धि के बाद तुम्हारी चिंता बड़ी अजीब है। और कुछ नहीं पूछा तुमने, उपलब्धि के बाद और क्या होगा— —मोक्ष होगा, निर्वाण होगा, सत्य मिलेगा, शांति मिलेगी, अमृत मिलेगा? यह सब फिजूल की बकवास तुमने पूछी नहीं। तुम्हें सवाल उठा है कि भोजन का क्या होगा! तुम भोजन— भट्ट मालूम होते हो। तुम भोजन के पीछे दीवाने हो। यह तुम्हारा ऑब्सेशन होगा। यह तुम्हारा रोग है।
कुछ लोग इसी रोग में जीते हैं। उनकी जिंदगी बस इसी में लगी रहती है। चौबीस घंटे वे यही चिंतन करते हैं। भूख लगे, तब भोजन कर लेना स्वाभाविक है; लेकिन जब पेट भर जाए तब भोजन का चिंतन करना रोग है। मगर लोग चिंतन में लगे हैं। ऐसे साधु—संन्यासी हैं जिनका पूरा काम यही है।
एक सज्जन के साथ एक दफे मुझे यात्रा करने की झंझट आ गई। महात्मा हैं। महात्माओं से मेरी साधारणत : बनती नहीं। संयोगवश साथ हो लिए। एक ही सम्मेलन में हम भाग लेने जाते थे। एक ही डिब्बे में पड़ गए, एक—दूसरे को जानते थे, तो साथ हो गया। संयोजकों ने भी सोचा कि हम साथ ही डिब्बे में आए हैं तो शायद संग—साथ हमारा है, कुछ दोस्ती है, तो एक ही जगह ठहरा दिया। ऐसे भाग्य से ही यह मुसीबत हुई। मगर मैं बड़ा परेशान हुआ उनका सब ढंग देख कर। चौबीस घंटे उनका विचार भोजन पर खड़ा! और उसमें ऐसी बारीकियां— — भैंस का दूध वे लेंगे नहीं।
मैंने उनसे पूछा कि भैंस में परमात्मा नहीं है? नहीं, वे तो गऊ का ही दूध लेंगे, गाय का ही दूध चाहिए। चलो ठीक है, संयोजकों ने व्यवस्था की गाय के दूध की। वे पूछने लगे : गाय सफेद है कि काली? तब मैंने कहा : अब जरा जरूरत से ज्यादा बात हुई जा रही है। सफेद गाय का ही दूध लेंगे हम, ऐसा व्रत लिया हुआ है; जैसे कि काली गाय का दूध काला होता है! मूढताओं की भी... बड़ी ऊंचाइयां हैं कता की भी! बड़े परिष्कार हैं कता के!.. . '' घी कितनी देर का तैयार किया हुआ है? चार घड़ी से ज्यादा देर का नहीं होना चाहिए। भोजन स्त्री का बना हुआ नहीं होना चाहिए। ''
मैंने उनसे पूछा : जब तुम पैदा हुए, तो तुमने पिता का दूध पिया क्या? वे बहुत नाराज हो गए कि आप किस तरह की बात करते हैं। मैंने कहा : बात इसलिए करता हूं कि परमात्मा ने भी तय किया है कि स्त्री का ही भोजन शुरू से चल रहा है, बचपन से ही नहीं तो पिता को स्तन दिए होते। कम से कम महात्माओं के लिए तो विशेष इंतजाम किया होता! तुम मां के ही पेट में बड़े हुए, मां के ही मांस—मज्जा से तुम्हारी देह बनी, मां के ही स्तन से दूध पीकर तुम बड़े हुए, आज यह कैसा अकृतज्ञ व्यवहार— —स्त्री का छुआ भोजन नहीं खाएंगे!
नहीं, वे कहने लगे: आप समझते नहीं, इसमें बड़ा विज्ञान है। स्त्री का भोजन लेने से स्त्रीतत्व उसमें सम्मिलित हो जाता है, तो वासना जगती है। मैंने कहा : हद हो गई! गऊ का दूध पिए— —सफेद गऊ का— —वह कोई बैल है? उससे वासना नहीं जग रही? और उससे तो और खतरनाक वासना जगेगी— —सांड हो जाओगे। बिल्कुल खराब हो जाएगी जिंदगी।
वे तो इतने नाराज हो गए कि उन्होंने संयोजकों से कहा कि मुझे इस कमरे से अलग करो। मेरी सारी साधना में बाधा पड़ रही है। हर चीज के लिए मुझे उत्तर देना पड़ रहा है और व्यर्थ का विवाद खड़ा हो रहा है।
चौबीस घंटे उनकी चर्या देखा तो उसमें यही हिसाब—किताब था— —यह खाना यह नहीं खाना, इसका छुआ उसका छुआ। पानी भी जो भरकर लाए कुएं से, वह गीले वस्त्र पहनकर भरकर लाए पानी। मैंने पूछा कि इसका क्या राज है? उन्होंने कहा : असली में नियम तो यह है कि नग्न उसको भर कर लाना चाहिए, लेकिन नग्न जरा भद्दा मालूम पड़ता है, तो गीले कपड़े। यह उसमें जरा समझौता है। शुद्धि के लिहाज से ऐसा करना पड़ता है।
और मैंने कहा : तुम कपड़े पहने पानी पी रहे हो! गीले करो कपड़े! या नंगे होकर पिओ! दूसरा आदमी गीला होकर लाए या गीले कपड़े पहनकर लाए, तुम क्या कर रहे हो?
तुम चकित होओगे अगर तुम महात्माओं का सत्संग करो। तो तुम बड़े हैरान होओगे कि क्या—क्या उन्होंने कलाएं खोज रखी हैं।
तुम्हें कुछ ऐसे ही दुष्टों का संग मिल गया होगा। इनको मैं रुग्ण मानता हूं— —मानसिक रूप से विक्षिप्त मानता हूं।
तुम्हें उपलब्धि के बाद और कुछ न सुझा, भोजन की याद आयी! भोजन परमात्मा पर छोड़ा; जो उपलब्धि तक करवा देगा, वह भोजन की भी फिक्र लेगा। करवाए तो कर लेना और न करवाए तो न करना। तुम बीच में अपना अडंगा मत लगाना, बस इतना ही खयाल रखना।
हमारे चित्त में द्वैत की भावना, द्वैत का भाव इतना गहरा बैठ गया है— —द्वंद का, संघर्ष का! हमें एक बात इतनी जड़ता से पकड़ गई है कि हमें कुछ करना है संघर्ष। जब कि सच्चाई यह है कि हमें जो करना है वह संघर्ष नहीं है, समर्पण है। परमात्मा पर छोड़ो! वह जहां ले जाए जाओ। तुम नदी की धार में बहो, तैसे मत। और धार के विपरीत तो तैसे ही मत। यह धार के विपरीत तैरना है। इसमें नाहक थकोगे, टूटोगे। और जब थकोगे, टूटोगे, परेशान होओगे, तो नाराज होओगे नदी पर, कि यह नदी हमारी दुश्मनी कर रही है। और नदी तुम्हारी दुश्मनी नहीं कर रही, नदी अपनी धार से बही जा रही है। तुम नाहक नदी की दुश्मनी करके अपने को तोड़े ले रहे हो।
और ध्यान रखना, अंश अंशी से लड़कर कहीं भी नहीं पहुंच सकता। हम उसके बड़े छोटे—छोटे हिस्से हैं। जैसे मेरी उंगली अगर मेरे से लड़ने लगे, तो कहां पहुंचेगी? हम उससे भी छोटे हैं। एक उंगली भी तुम्हारे शरीर में बड़ा अनुपात रखती है। इस विराट विश्व में हमारा अनुपात क्या है? इस विराट के साथ अहो मत।
भूख में अशुभ क्या है? भोजन की तृप्ति में अशुभ क्या है? जो स्वाभाविक है, सहज है, वह सत्य है, श्रेयस्कर है। स्वाभाविक सहज के लिए समर्पित हो जाओ। उस समर्पण से ही सुवास उठती है।

 आज इतना ही।

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