दिनांक
14 नवंबर 1970,
क्रास
मैदान, बंबई
प्रश्नोत्तर
:
आचार्य
श्री, पंच
महाव्रत:
अहिंसा, अपरिग्रह,
अचौर्य,
अकाम और
अप्रमाद की
साधना फलीभूत
हो सके तथा व्यक्ति
और समाज का
सर्वांगीण
विकास हो सके,
इसमें आपके
द्वारा
प्रस्तावित
नयी संन्यास-दृष्टि
का क्या
अनुदान हो
सकता है, कृपया
इसे सविस्तार
स्पष्ट करें।
अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य,
अकाम और
अप्रमाद
संन्यास की
कला के
आधारभूत सूत्र
हैं। और
संन्यास एक
कला है। समस्त
जीवन की एक
कला है। और
केवल वे ही
लोग संन्यास
को उपलब्ध हो
पाते हैं जो जीवन
की कला में
पारंगत हैं।
संन्यास जीवन
के पार जाने
वाली कला है।
जो जीवन को
उसकी पूर्णता
में अनुभव कर
पाते हैं, वे
अनायास ही
संन्यास में
प्रवेश कर
जाते हैं।
करना ही होगा।
वह जीवन का ही
अगला कदम है।
परमात्मा
संसार की सीढ़ी
पर ही चढ़कर
पहुंचा गया
मंदिर है।
तो
पहली बात आपको
यह स्पष्ट कर
दूं कि संसार
और संन्यास
में कोई भी
विरोध नहीं
है। वे एक ही यात्रा
के दो पड़ाव
हैं। संसार
में ही
संन्यास
विकसित होता
है और खिलता
है। संन्यास
संसार की
शत्रुता नहीं
है, बल्कि
संन्यास
संसार का प्रगाढ़
अनुभव है।
जितना ही जो
संसार का अनुभव
कर पायेगा, वह पाएगा कि
उसके पैर
संन्यास की ओर
बढ़ने शुरू हो
गए हैं। जो
जीवन को ही
नहीं समझ पाते,
जो संसार के
अनुभव में ही
गहरे नहीं उतर
पाते, वे
ही केवल
संन्यास से
दूर रह जाते
हैं।
तो
इसलिए पहली
बात मैं आपको
स्पष्ट कर दूं
कि मेरी
दृष्टि में
संन्यास का फूल
संसार के बीच
में ही खिलता
है। उसकी
संसार से
शत्रुता
नहीं। संसार
का अतिक्रमण
है संन्यास।
उसके भी पार
चले जाना
संन्यास है।
सुख को
खोजते-खोजते
जब व्यक्ति
पाता है कि
सुख मिलता
नहीं, वरन
जितना सुख को
खोजता है उतने
ही दुख में गिर
जाता है; शांति
को चाहते-चाहते
जब व्यक्ति
पाता है कि
शांति मिलती
नहीं, वरन
शांति की चाह
और भी गहरी
अशांति को
जन्म दे जाती
है; धन को
खोजते-खोजते
जब पाता है कि
निर्धनता भीतर
और भी घनीभूत
हो जाती है; तब जीवन में
संसार के पार
आंख उठनी शुरू
होती है। वह
जो संसार के
पार आंखों का
उठना है, उसका
नाम ही
संन्यास है।
इसलिए
ये पांच सूत्र
जिनकी हम यहां
चर्चा कर रहे
हैं, ठीक से
समझें तो ये
संन्यास के ही
सूत्र हैं। और
जिसकी आंखें
संसार के बाहर
उठनी शुरू
नहीं हुईं, उसके किसी
भी काम के
नहीं हैं।
मुझे
बहुत से
मित्रों ने
आकर कहा है कि
बात कुछ गहरी
है और हमारे
सिर के ऊपर से
निकल जाती है।
तो मैंने उनसे
कहा कि अपने
सिर को थोड़ा
ऊंचा करो ताकि
सिर के ऊपर से
न निकल जाये।
जिनकी आंखें
संसार के जरा
भी ऊपर उठती
हैं, उनके सिर
भी ऊंचे हो
जाते हैं। और
तब ये बातें सिर
के ऊपर से
नहीं
निकलेंगी, हृदय
के गहरे में
प्रवेश कर जायेंगी।
ये बातें गहरी
कम, ऊंची
ज्यादा हैं।
असल में ऊंचाई
ही गहराई भी बन
जाती है। और
ऊंची कोई अपने
आप में नहीं
है। हम बहुत
नीचे, संसार
में गड़े हुए
खड़े हैं, इसलिए
ऊंची मालूम
पड़ती है।
ऊंचाई
सापेक्ष है, रिलेटिव है।
और एक
बात ध्यान रहे
कि संसार से
थोड़ा ऊपर न उठें, संसार से
ऊपर थोड़ा
देखें। रहें
संसार में, कोई हर्ज
नहीं। तो जमीन
पर खड़े होकर
भी आकाश के
तारे देखे जा
सकते हैं। खड़े
रहें संसार
में, लेकिन
आंखें थोड़ी
ऊपर उठ जायें
तो ये सारी
बातें बड़ी सरल
दिखाई पड़नी
शुरू होती
हैं। वर्ना
संसार की
बातें रोज कठिन
होती चली जाती
हैं। कठिन
होंगी ही, क्योंकि
जिनका अंतिम
फल सिवाय दुख
के, और
जिनकी अंतिम
परिणति सिवाय
अज्ञान के, और जिनका
अंतिम
निष्कर्ष
सिवाय गहन
अंधकार के कुछ
भी न होता हो, वे बातें
सरल नहीं हो
सकतीं, जटिल
ही होंगी।
चीजें दिखाई
कुछ पड़ती हैं,
हैं कुछ, और भ्रम कुछ
पैदा होता है,
सत्य कुछ और
है। लेकिन हम
संसार में इस
भांति खोए
होते हैं कि
अन्य कोई सत्य
भी हो सकता है,
इसकी हमें
कल्पना भी
नहीं उठती।
मैंने
सुना है, एक फ्रेंच
उपन्यासकार बालजक के
पास कोई
व्यक्ति
मिलने गया था।
तो वह बालजक
से उसके
उपन्यास के
पात्रों के
संबंध में बात
कर रहा था।
फिर बात
उपन्यास के
पात्रों पर चलते-चलते
धीरे-धीरे
राजनीतिक
नेताओं पर और
देश की
राजनीति पर
चली गई। थोड़ी
देर तक बालजक
बात करता रहा
और फिर उसने
कहा, माफ
कीजिए, लेट
अस कम बैक टु द
रियलिटी अगेन,
अब हमें
असली बातों पर
फिर वापस लौट
आना चाहिए। और
बालजक ने
अपने उपन्यास
के पात्रों की
बात फिर से शुरू
कर दी। बालजक
के लिए उसके
उपन्यास के
पात्र
रियलिटी हैं,
यथार्थ
हैं। और
जिंदगी के मंच
पर सच में जो
पात्र खड़े हैं,
वे अयथार्थ
हैं। बालजक
ने कहा, छोड़ें
अयथार्थ
बातों को, हमें
अपनी यथार्थ
बातों पर फिर
से वापस लौट
आना चाहिए। बालजक
उपन्यासकार
है। उसके लिए
उपन्यास के
पात्र सत्य
मालूम होते
हैं, जीवंत
व्यक्तियों
से भी ज्यादा।
हम जिस
संसार में
इतने डूबे खड़े
हैं, वहां
हमें संसार के
अतिरिक्त और
कुछ भी सत्य दिखाई
नहीं पड़ता है।
यद्यपि
जिन्होंने भी
आंखें ऊपर
उठाकर देखा है,
उन्हें
आंखें ऊपर
उठाते ही
संसार एक
अयथार्थ हो
जाता है, एक
अनरियलिटी
हो जाता है।
संन्यास का
अर्थ है, संसार
के ऊपर आंख
उठाना। संसार
सब कुछ नहीं
है, उसके
पार भी कुछ
है। उसकी तरफ
खोज में गई
आंखों का नाम
संन्यास है।
यह
संन्यास...कुछ
बातें आपसे
कहूं तो
स्पष्ट हो
सके! ऐसे
संन्यास
करीब-करीब
पृथ्वी से
विदा होने के
करीब है।
क्योंकि अब तक
संन्यासी संसार
से टूट कर
जीया है। और
अब भविष्य में
ऐसे संन्यास
की कोई भी
संभावना बाकी
नहीं रह
जायेगी, जो
संसार से टूट
कर जी सके।
इसलिए रूस से
संन्यासी
विदा हो गया, चीन से
संन्यासी
विदा किया जा
रहा है। आधी
दुनिया
संन्यासी से
खाली हो गई
है। शेष आधी
दुनिया कितने
दिन तक
संन्यासी के
साथ रहेगी, कहना
मुश्किल है।
इस पूरी
पृथ्वी पर यह
हमारी सदी
शायद संन्यास
की अंतिम सदी
होगी, यदि
संन्यास को नए
अर्थ, नए डाइमेंशन
और नए आयाम न
दिए जा सके।
यह
संन्यास विदा
क्यों हो रहा
है? संसार से तोड़कर जिस
चीज को हमने
अब तक बचा रखा
था, वह हाट
हाउस प्लांट
था, वह
संसार के
धक्कों को अब
नहीं सह पा
रहा है। और
जिस समाज ने
संन्यासी को
संसार से तोड़कर
जिंदा रखा था,
वह समाज भी
मिटने के करीब
आ गया है। तो
अब उस समाज के
द्वारा
निर्मित
संन्यास की
व्यवस्था और
संस्था भी बच
नहीं सकती। जब
समाज ही पूरा
रूपांतरित
होता है, तो
उसकी सारी
विधाएं, उसके
सारे आयाम टूट
जाते हैं। जिस
समाज में राजा
थे, महाराजा
थे, वह
समाज मिट गया,
राजे-
महाराजे मिट
गए।
राजे-महाराजे
के साथ उस समाज
के दरबार में
पाला हुआ कवि
मिट गया। जो
समाज कल तक था,
जिसने
संन्यासी को
पाला था, वह
समाज विदा हो
रहा है। वह
समाज बचने
वाला नहीं है,
संन्यासी
भी बच नहीं
सकेगा, यदि
संन्यासी भी
नए रूप को
स्वीकार न कर
सके।
तो एक बात
जो मेरी
दृष्टि में
बहुत
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ती है, वह यह कि
संन्यास को
बचाना तो
अत्यंत जरूरी
है। वह जीवन
की गहरी से
गहरी सुगंध
है। वह जीवन का
बड़े से बड़ा
सत्य है। तो
उसे संसार से
जोड़ना जरूरी
है। अब
संन्यासी
संसार के बाहर
नहीं जी सकेगा।
अब उसे संसार
के बीच, बाजार
में, दूकान
में, दफ्तर
में जीना होगा,
तो ही वह बच
सकता है। अब
संन्यासी
अनप्रोडक्टिव
होकर, अनुत्पादक
होकर नहीं जी
सकेगा। अब उसे
जीवन की
उत्पादकता
में भागीदार
होना पड़ेगा।
अब संन्यासी
दूसरे पर
निर्भर होकर
नहीं जी
सकेगा। अब उसे
स्वनिर्भर ही
होना पड़ेगा।
फिर
मुझे समझ में
भी नहीं आता
कि कोई जरूरत
भी नहीं है कि
आदमी संसार को
छोड़कर भाग
जाये, तभी
संन्यास उसके
जीवन में फल
सके।
अनिवार्य भी
नहीं है। सच
तो यह है कि
जहां जीवन की
सघनता है, वहीं
संन्यास की
कसौटी भी है।
जहां जीवन घना
संघर्ष है, वहीं
संन्यास के
साक्षी-भाव का
आनंद भी है।
जहां जीवन
अपनी सारी
दुर्गंधों
में है, वहीं
संन्यास का जब
फूल खिले, तभी
उसकी सुगंध की
परीक्षा भी
है। और संसार
में बड़ी ही
आसानी से
संन्यास का
फूल खिल सकता
है। एक बार
हमें खयाल आ
जाये कि
संन्यास क्या
है तो घर से, परिवार से, पत्नी से, बच्चे से, दूकान से, दफ्तर से
भागने की कोई
भी जरूरत नहीं
रह जाती। और
जो संन्यास
भागकर ही बच
सकता है, वह
बहुत कमजोर
संन्यास है।
वैसा संन्यास
अब आगे नहीं
बच सकेगा। अब
हिम्मतवर, करेजियस,
साहसी
संन्यासी की
जरूरत है। जो
जिंदगी के बीच
खड़ा होकर
संन्यासी है।
जहां
है व्यक्ति, वहीं
रूपांतरित हो
सकता है।
रूपांतरण
परिस्थिति का
नहीं है, रूपांतरण
मनःस्थिति का
है। रूपांतरण
बाहर का नहीं
है, रूपांतरण
भीतर का है।
रूपांतरण
संबंधों का नहीं
है, रूपांतरण
उस
व्यक्तित्व
का है जो
संबंधित होता
है।
आरतेगावायगासिट
ने एक छोटी-सी
घटना लिखी है।
लिखा है कि एक
घर में एक
व्यक्ति
मरणासन्न पड़ा
है, मर रहा है,
उसकी पत्नी
छाती पीटकर रो
रही है। पास
में डाक्टर
खड़ा है। आदमी
प्रतिष्ठित
है, सम्मानित
है। अखबार का
रिपोर्टर आकर
खड़ा है--मरने
की खबर अखबार
में देने के
लिए।
रिपोर्टर के
साथ अखबार का
एक चित्रकार भी
आ गया है। वह
आदमी को मरते
हुए देखना
चाहता है। उसे
मृत्यु की एक
पेंटिंग
बनानी है, चित्र
बनाना है।
पत्नी छाती
पीटकर रो रही
है। डाक्टर
खड़ा हुआ उदास
मालूम पड़ रहा
है, हारा
हुआ, पराजित।
प्रोफेसनल
हार हो गई है
उसकी। जिसे
बचाना था उसे
नहीं बचा पा
रहा है।
पत्रकार अपनी
डायरी पर कलम
लिए खड़ा है कि
जैसे ही वह मरे,
टाइम लिख ले
और दफ्तर
भागे।
चित्रकार खड़ा
होकर गौर से
देख रहा है।
एक ही
घटना घट रही
है उस कमरे
में, एक आदमी
का मरना हो
रहा है। लेकिन
पत्नी को, डाक्टर
को, पत्रकार
को, चित्रकार
को एक घटना
नहीं घट रही
है, चार घटनाएं
घट रही हैं।
पत्नी के लिए
सिर्फ कोई मर
रहा है ऐसा
नहीं है, पत्नी
खुद भी मर रही
है। यह पत्नी
के लिए कोई दृश्य
नहीं है जो
बाहर घटित हो
रहा है। वह
उसके प्राणों
के प्राणों
में घटित हो
रहा है। यह कोई
और नहीं मर
रहा है, वह
स्वयं मर रही
है। अब वह
दोबारा वही नहीं
हो सकेगी जो
इस पति के साथ
थी। उसका कुछ
मर ही जाएगा
सदा के लिए, जिसमें शायद
फिर कभी अंकुर
नहीं फूट
सकेंगे। यह
पति नहीं मर
रहा है, उसके
हृदय का एक
कोना ही मर
रहा है। पत्नी
इनवाल्व
है, वह
पूरी की पूरी
इस दृश्य के
भीतर है। इस
पति और इस
पत्नी के बीच
फासला बहुत ही
कम है।
डाक्टर
के लिए भीतर
कोई भी नहीं
मर रहा है, बाहर कोई मर
रहा है। लेकिन
डाक्टर भी
उदास है, दुखी
है। क्योंकि
जिसे बचाना था,
उसे वह बचा
नहीं सका है।
पत्नी के लिए
हृदय में कुछ
मर रहा है, डाक्टर
के लिए बुद्धि
में कुछ मरने
की क्रिया हो
रही है। वह यह
सोच रहा है कि
और दवाएं दे
सकता था तो
क्या वह बच
सकता था? क्या
इंजेक्शन जो
दिये थे, वे
ठीक नहीं थे? क्या मेरी डाइगनोसिस
में कहीं कोई
भूल हो गई है? निदान कहीं
चूक गया है? अब दोबारा
कोई मरीज इस
बीमारी से
मरता होगा तो
मुझे क्या
करना है? डाक्टर
के हृदय से इस
मरीज के मरने
का कोई भी
संबंध नहीं है,
पर उसके
मस्तिष्क में
जरूर बहुत कुछ
चल रहा है।
पत्रकार
का मस्तिष्क
तो इतना भी
नहीं चल रहा है।
वह बार-बार
घड़ी देख रहा
है कि यह आदमी
मर जाये तो
टाइम नोट कर
ले और दफ्तर
में जाकर खबर
कर दे। उसके
मस्तिष्क में
भी कुछ नहीं
चल रहा है। वह
एक काम कर रहा
है। बाहर खड़ा
है दूर, लेकिन
थोड़ा-सा संबंध
है उसका। वह
सिर्फ इतना-सा
संबंध है उसका
कि इस आदमी के
मरने की खबर
दे देनी है
जाकर। और वह
खबर देकर किसी
होटल में बैठकर
चाय पीयेगा
या खबर देकर
किसी थियेटर
में जाकर
फिल्म देखेगा।
बात समाप्त हो
जायेगी। इस
आदमी को उससे
इतना संबंध है
कि यह कब मरता
है? किस
वक्त मरता है?
वह मरने की
प्रतीक्षा कर
रहा है।
चित्रकार
के लिए आदमी
मर रहा है, नहीं मर रहा
है, इससे
कोई संबंध ही
नहीं है। वह
उस आदमी के
चेहरे पर आ गई
कालिमा का
अध्ययन कर रहा
है। उस आदमी
के चेहरे पर
मृत्यु के
क्षण में जीवन
की जो अंतिम
ज्योति
झलकेगी, उसे
देख रहा है।
वह कमरे में
घिरते हुए
अंधेरे को देख
रहा है। चारों
तरफ से मौत के
साये ने उस कमरे
को पकड़ लिया
है, वह उसे
देख रहा है।
उसके लिए आदमी
के मरने की वह
घटना रंगों का
एक खेल है। वह
रंगों को पकड़
रहा है, क्योंकि
उसे मृत्यु का
एक चित्र
बनाना है। वह आदमी
बिलकुल आउटसाइडर
है। उसे कोई
भी लेना-देना
नहीं है। यह
आदमी मरे, कि
दूसरा आदमी
मरे, कि
तीसरा आदमी
मरे, इसे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। वह
पत्नी मरे, वह डाक्टर
मरे, वह
पत्रकार मरे,
उसे कोई
फर्क नहीं
पड़ता है। ए बी
सी डी कोई भी
मरे, उसे
कोई फर्क नहीं
पड़ता है। उसे
मृत्यु का रंगों
में क्या रूप
है, वह उसे पकड़ने में
लगा है।
मृत्यु से
उसका कोई भी
संबंध नहीं
है।
परिस्थिति
एक है, लेकिन
मनःस्थिति
चार हैं। चार
हजार भी हो
सकती हैं।
जीवन वही है
संसारी का भी,
संन्यासी
का भी, मनःस्थिति
भिन्न है। वही
सब घटेगा जो
घट रहा है।
वही दूकान
चलेगी, वही
पत्नी होगी, वही बेटे
होंगे, वही
पति होगा, लेकिन
संन्यासी की
मनःस्थिति और
है। वह जिंदगी
को किन्हीं और
दृष्टिकोणों
से देखने की
कोशिश कर रहा
है। संसारी की
मनःस्थिति और
है।
संसार
और संन्यास मनःस्थितियां
हैं, मेंटल एटीटयूड्स
हैं। इसलिए
परिस्थितियों
से भागने की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
परिस्थितियों
को बदलने की
कोई भी जरूरत
नहीं है। और
बड़े आश्चर्य
की बात है कि
जब मनःस्थिति
बदलती है तो
परिस्थिति
वही नहीं रह
जाती।
क्योंकि
परिस्थिति
वैसी ही दिखाई
पड़ने लगती है
जैसी
मनःस्थिति
होती है। जो
आदमी संसार
छोड़कर, भागकर
संन्यासी हो
रहा है, वह
भी अभी संसारी
है। क्योंकि
उसका अभी
विश्वास
परिस्थिति पर
है। वह भी
सोचता है, परिस्थिति
बदल लूंगा तो
सब बदल जाएगा।
वह अभी संसारी
है। संन्यासी
वह है, जो
कहता है कि
मनःस्थिति
बदलेगी तो सब
बदल जाएगा।
मनःस्थिति बदलेगी,
सब बदल
जाएगा, ऐसा
जिसका भरोसा
है, ऐसी
जिसकी समझ है,
वह आदमी
संन्यासी है।
और जो सोचता
है कि परिस्थिति
बदल जाएगी तो
सब बदल जाएगा,
ऐसी
मनःस्थिति
संसारी की है।
वह आदमी
संसारी है।
मेरा
जोर
परिस्थिति पर
बिलकुल नहीं
है, मनःस्थिति
पर है। एक ऐसा
संन्यासी बच
सकता है। और
मैं कहना
चाहता हूं कि
संन्यास बचाने
जैसी चीज है।
पश्चिम
ने विज्ञान
दिया है, वह
पश्चिम का कंट्रीब्यूशन
है मनुष्य के
लिए। पूरब ने
संन्यास दिया
है, वह
पूरब का कंट्रीब्यूशन
है संसार के
लिए। जगत को
पूरब ने जो
श्रेष्ठतम
दिया है, वह
संन्यास है।
जो श्रेष्ठतम
व्यक्ति दिए
हैं, वह
बुद्ध हैं, वह महावीर
हैं, वह
कृष्ण हैं, वह क्राइस्ट
हैं, वह
मुहम्मद हैं।
ये सब पूरब के
लोग हैं।
क्राइस्ट भी
पश्चिम के
आदमी नहीं
हैं। ये सब
एशिया से आये
हुए लोग हैं।
शायद
आपको पता न हो
यह एशिया शब्द
कहां से आ गया
है। बहुत
पुराना शब्द
है। कोई आज से
छह हजार साल
पुराना शब्द है, और बेबीलोन
में पहली दफा
इस शब्द का
जन्म हुआ। बेबीलोनियन
भाषा में एक
शब्द है "असू'। "असू' से एशिया
बना। "असू'
का मतलब
होता है, सूर्य
का उगता हुआ
देश। जो जापान
का अर्थ है वही
एशिया का भी
अर्थ है। जहां
से सूरज उगता
है, जिस
जगह से सूर्य
उगा है, वहीं
से जगत को
सारे
संन्यासी
मिले।
यूरोप
शब्द का ठीक
इससे उलटा
मतलब है।
यूरोप शब्द भी
अशीरियन
भाषा का शब्द
है। वह जिस
शब्द से बना
है--अरेश--उस
शब्द का मतलब
है, सूरज के
डूबने का देश;
संध्या का,
अंधेरे का,
जहां
सूर्यास्त
होता है।
वे जो
सूर्यास्त के
देश हैं, उनसे
विज्ञान मिला
है, वैज्ञानिक
मिला है। जो
सूर्योदय के
देश हैं, सुबह
के, उनसे
संन्यास मिला
है। इस जगत को
अब तक जो दो बड़ी
से बड़ी देन
मिली है, दोनों
छोरों से, वह
एक विज्ञान की
है। स्वभावतः
विज्ञान वहीं मिल
सकता है जहां
भौतिक की खोज
हो। स्वभावतः
संन्यास वहीं
मिल सकता है
जहां अभौतिक
की खोज हो।
विज्ञान वहीं
मिल सकता है
जहां पदार्थ
की गहराइयों
में उतरने की
चेष्टा हो। और
संन्यास वहीं
मिल सकता है
जहां
परमात्मा की
गहराइयों में
उतरने की
चेष्टा हो। जो
अंधेरे से
लड़ेंगे वे
विज्ञान को जन्म
दे देंगे। और
जो सुबह के
प्रकाश को
प्रेम करेंगे
वे परमात्मा
की खोज पर
निकल जाते
हैं।
यह जो
पूरब से
संन्यास मिला
है, यह
संन्यास
भविष्य में खो
सकता है।
क्योंकि संन्यास
की अब तक की जो
व्यवस्था थी
उस व्यवस्था
के मूल आधार
टूट गए हैं।
इसलिए मैं
देखता हूं इस
संन्यास को
बचाया जाना
जरूरी है। यह
बचाया जायेगा,
पर आश्रमों
में नहीं, वनों
में नहीं, हिमालय
पर नहीं।
वह
तिब्बत का
संन्यासी
नष्ट हो गया।
शायद गहरे से
गहरा
संन्यासी
तिब्बत के पास
था। लेकिन वह
विदा हो रहा
है, वह विदा
हो जाएगा, वह
बच नहीं सकता
है। अब
संन्यासी
बचेगा फैक्ट्री
में, दुकान
में, बाजार
में, स्कूल
में, युनिवर्सिटी
में। जिंदगी
जहां है, अब
संन्यासी को
वहीं खड़ा हो
जाना पड़ेगा।
और संन्यासी
जगह बदल ले, इसमें बहुत
अड़चन नहीं है।
संन्यास नहीं
मिटना चाहिए।
इसलिए
मैं जिंदगी को
भीतर से
संन्यासी कर
देने के पक्ष
में हूं। जो
जहां है वहीं
संन्यासी हो
जाये, सिर्फ
रुख बदले, मनःस्थिति
बदले। हिंसा
की जगह अहिंसा
उसकी मनःस्थिति
बने, परिग्रह
की जगह
अपरिग्रह
उसकी समझ बने,
चोरी की जगह
अचौर्य
उसका आनंद हो,
काम की जगह
अकाम पर उसकी
दृष्टि बढ़ती
चली जाये, प्रमाद
की जगह
अप्रमाद उसकी
साधना बने, तो व्यक्ति
जहां है, जिस
जगह है, वहीं
मनःस्थिति
बदल जाएगी। और
फिर सब बदल
जाता है।
इसलिए
मैं जिन्हें
संन्यासी कह
रहा हूं वे जगत
से भागे हुए
लोग नहीं हैं।
वे जहां हैं
वहीं रहेंगे।
और यह बड़े मजे
की बात है, आज तो जगत से
भागना ज्यादा
आसान है। आज
जगत में खड़े
होकर संन्यास
लेना बहुत
कठिन है। भाग
जाने में तो
अड़चन नहीं है,
लेकिन एक
आदमी जूते की
दूकान करता है
और वहीं संन्यासी
हो गया है तो
बड़ी अड़चनें
हैं। क्योंकि
दूकान वही
रहेगी, ग्राहक
वही रहेंगे, जूता वही
रहेगा, बेचना
वही है, बेचनेवाला,
लेनेवाला
सब वही है।
लेकिन एक आदमी
अपनी पूरी मनःस्थिति
बदलकर वहां जी
रहा है। सब
पुराना है।
सिर्फ एक मन
को बदलने की
आकांक्षा से
भरा है। इस सब
पुराने के बीच
इस मन को
बदलने में बड़ी
दुरूहता
होगी। यही
तपश्चर्या
है। इस तपश्चर्या
से गुजरना
अदभुत अनुभव
है। और ध्यान
रहे जितना
सस्ता
संन्यास मिल जाये
उतना गहरा
नहीं हो पाता,
जितना
महंगा मिले
उतना ही गहरा
हो जाता है।
संसार में
संन्यासी
होकर खड़ा होना
बड़ी तपश्चर्या
की बात है, एक।
दूसरी
बात, अब तक
संन्यास एक इंस्टीटयूटलाइज्ड,
एक
संस्थागत
व्यवस्था हो
गयी थी। और
संन्यास कभी
भी
इंस्टीटयूशन,
संस्था
नहीं बन सकता।
और जब भी
संन्यास
संस्था बनेगा,
तब संन्यास
की जो खूबी है,
जो रस है, जो उसका
रहस्य है, वह
सब विदा हो
जाएगा।
संन्यास को
जैसे ही संस्था
बनाया जाता है,
वैसे ही
संन्यास मर
जाता है।
संन्यास
व्यक्तिगत
अनुभूति है।
संन्यास एक-एक
व्यक्ति के
भीतर खिलता है, जैसे प्रेम
खिलता है। और
प्रेम को कोई
संस्था नहीं
बना सकता।
प्रेम एक-एक
व्यक्ति के
जीवन में
खिलता है और
फैलता है। ऐसे
ही संन्यास, परमात्मा का
प्रेम है। वह
भी एक-एक
व्यक्ति के
जीवन में
खिलता है और
फैलता है।
इसलिए संन्यासियों
की संस्थाओं
की कोई भी
जरूरत नहीं
है। संस्थागत
संन्यासी, संन्यासी
नहीं रह जाता।
असल में
संस्था हम बनाते
ही इसलिए हैं,
सुरक्षा के
लिए, सिक्योरिटी
के लिए। और
संन्यासी है
वह, जिसने
असुरक्षा में,
खतरे में
जीने का प्रण
लिया है, जो
खतरे में, असुरक्षा
में जीने की
हिम्मत जुटा
रहा है। इसलिए
आगे संन्यास
संस्था से
बंधा हुआ नहीं
हो सकता है, व्यक्तिगत
होगा, व्यक्तिगत
मौज होगी।
संस्थागत जब
भी संन्यास
बनेगा तो
संन्यास में
एक बहुत ही
बेहूदी बात
जुड़ जाएगी, और वह यह
होगी कि
संन्यास में एंट्रेंस
तो होगा, एक्जिट
नहीं होगा।
संन्यास के
मंदिर में
प्रवेश तो
होगा, लेकिन
बाहर निकलने
का कोई द्वार
नहीं होगा। और
जिस जगह पर भी
प्रवेश हो और
बाहर निकलने
का द्वार न हो,
वह चाहे
मंदिर ही
क्यों न हो, वह बहुत
थोड़े दिनों
में कारागृह
हो जाता है। क्योंकि
वहां
परतंत्रता
निश्चित हो
जाती है।
इसलिए
मैं संन्यासी
को उसके
व्यक्तिगत
निर्णय पर
छोड़ता हूं। वह
उसकी मौज है
कि वह संन्यास
का निर्णय
लेता है। अगर
कल वह वापस
लौट जाना चाहता
है अपनी सहज
परिस्थिति, अपनी सहज
मनःस्थिति
में, तो इस
जगत में कोई
भी उसकी निंदा
करने को नहीं होना
चाहिए। निंदा
का कोई कारण
नहीं है। यह
उसकी
व्यक्तिगत
बात थी। उसने
निर्णय लिया,
या वह वापस
लौट जाये।
इसके
दोहरे परिणाम
होंगे। बहुत
ज्यादा लोग संन्यास
ले सकते हैं, अगर उन्हें
यह निर्णय हो
कि कल अगर
उन्हें ठीक न
पड़े, तो वह
अपनी
मनःस्थिति के
निर्णय को
वापस लौटा सकते
हैं। परसों उन्हें
फिर लगे कि
हिम्मत अब
ज्यादा है, अब हम फिर
प्रयोग कर
सकते हैं, तो
फिर वापस भी
लौट सकते हैं।
संन्यास संस्थाबद्ध
हो तो फिर
दुराग्रह
शुरू होता है
कि कोई संन्यासी
वापस नहीं लौट
सकता। और जब
संन्यासी वापस
नहीं लौट सकता
तो सब
संन्यासियों
की संस्थाएं
कारागृह बन
जाती हैं, क्योंकि
जाते वक्त
व्यक्ति को
बहुत कुछ पता
नहीं होता।
बहुत कुछ तो
जाकर ही पता
चलता है भीतर
से, कि
क्या है। और
जब भीतर से
पता चलता है
तो वह वापस
लौटने की
स्वतंत्रता
खो चुका होता
है। इसलिए मैं
सैकड़ों
संन्यासियों
को जानता हूं
जो दुखी हैं, क्योंकि वे
वापस नहीं लौट
सकते। और
संन्यास कोई
कारागृह नहीं
होना चाहिए।
इसलिए
दूसरा सूत्र
इस नए संन्यास
की धारणा में
मैं जोड़ना
चाहता हूं वह
यह है कि
संन्यास व्यक्तिगत
निर्णय है।
उसके ऊपर किसी
दूसरे का न कोई
दबाव है, न
किसी दूसरे से
उसका कोई
संबंध है। यह
एक व्यक्ति की
अपनी सूझ है, यह एक
व्यक्ति की
अपनी
अंतर्दृष्टि
है। वह जाये, लौटे। और
इसी के साथ एक
और बात पीरियाडिकल
रिनंसिएशन
के संबंध में
कहना चाहता
हूं।
मैं
मानता हूं कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
आजीवन संन्यास
का आग्रह नहीं
लेना चाहिए।
असल में आजीवन
के लिए आज कोई
निर्णय लिया
भी नहीं जा
सकता। कल का
क्या भरोसा? कल के लिए
मैं क्या कह
सकता हूं? आज
जो मुझे ठीक
लगता है, कल
गलत लग सकता
है। और अगर
मैं पूरे जीवन
का निर्णय
लेता हूं तो
इसका मलतब
यह हुआ कि कम
अनुभवी आदमी
ने ज्यादा
अनुभवी आदमी
के लिए निर्णय
लिया। मैं बीस
साल बाद ज्यादा
अनुभवी हो जाऊंगा।
बीस साल पहले
का मेरा
निर्णय बीस
साल बाद के ज्यादा
अनुभवी आदमी
की छाती पर
पत्थर बन जाएगा।
बच्चे के
निर्णय बूढ़े
के लिए लागू
नहीं होने
चाहिए। लेकिन
दस साल का
बच्चा
संन्यास ले सकता
है और सत्तर
साल का बूढ़ा
फिर जिंदगी भर
पछता सकता है,
क्योंकि वह
आजीवन है।
नहीं, कोई संन्यास
आजीवन नहीं हो
सकता। इस जीवन
में सभी चीजें
सावधिक हैं, पीरियाडिकल हैं। और
संन्यास जैसी
कीमती चीज तो
सिर्फ अवधिगत
होनी चाहिए।
एक व्यक्ति
लेता है जानने
के लिए, जिज्ञासा
के लिए, खोज
के लिए। अगर
संन्यास में
कुछ रस है तो
संन्यास रोक
लेगा, यह
दूसरी बात है।
लेकिन आप अपने
निर्णय से जबर्दस्ती
रुकेंगे
तो संन्यास के
रस पर आपका
भरोसा नहीं
है।
तो मैं
तो मानता हूं
कि जो व्यक्ति
संन्यास में
एक बार जाएगा
वह लौटेगा
नहीं। लेकिन
यह संन्यास के
अनुभव में
सामर्थ्य
होनी चाहिए कि
वह न लौटे। यह
सिर्फ कसम और
नियम और ला और
कानून नहीं
होना चाहिए। लेकिन
व्यक्ति को तो
इसी भाव से
संन्यास में प्रवेश
करना चाहिए कि
मैं मुक्त
प्रवेश करता हूं।
कल अगर मुझे
लगे कि प्रवेश
गलत हुआ, निर्णय
भूल थी, तो
मैं वापस लौट
सकता हूं।
हर
आदमी को अपनी
भूल से सीखने
का हक होना
चाहिए। और भूल
से ही सीख
मिलती है। इस
दुनिया में सीखने
का और कोई
उपाय भी नहीं
है। लेकिन
जहां भूल परमानेंट
करनी पड़ती हो
कि हम उससे
सीख ही न सकें, फिर वहां
जिंदगी में
ज्ञान की जगह
अज्ञान आरोपित
हो जाता है।
इसलिए आजीवन संन्यास
ने संन्यासी
को ज्ञानी कम,
अज्ञानी
बनाने में
ज्यादा सहयोग
दिया है।
दो
मुल्क हैं
पृथ्वी पर
जरूर, जहां पीरियाडिकल
रिनंसिएशन
की अलग
व्यवस्था है।
आजीवन
संन्यास की
व्यवस्था भी
है बर्मा में,
थाईलैंड
में, और
सावधिक
संन्यास की
व्यवस्था भी
है। कोई व्यक्ति
साल में तीन
महीने के लिए
संन्यासी हो
जाता है। इसलिए
बर्मा में
लाखों लोग मिल
जायेंगे जो
संन्यासी रह
चुके हैं, कोई
तीन महीने को,
कोई छः
महीने को, कोई
साल भर को।
फिर दो-चार
वर्ष में
सुविधा होती
है, वह
आदमी फिर
तीन-चार महीने
के लिए
संन्यास की दुनिया
में चला जाता है।
एक
आदमी अगर अपने
चालीस साल के
अनुभव की
जिंदगी में दस
बार
महीने-महीने
भर के लिए भी
संन्यासी हो
जाये, तो
मरते वक्त वह
वही आदमी नहीं
होगा, जो
वह आदमी होगा
जिसने कभी
संन्यास की
जिंदगी में
प्रवेश नहीं
किया। साल में
अगर एक महीने
के लिए भी कोई
संन्यासी हो
जाये, तो
आदमी वही नहीं
लौटेगा जो था।
बाकी आने वाले
ग्यारह महीने
वर्ष के दूसरे
हो जाने वाले
हैं। सारी
जिंदगी तो
व्यक्ति के
भीतर से
निकलती है।
तो मैं
तो मानता हूं
कि आजीवन लेने
की जरूरत ही
नहीं है।
आजीवन हो जाये, यह सौभाग्य
है। आजीवन फैल
जाए, यह
परमात्मा की
कृपा है।
लेकिन अपनी
तरफ से तो एक
पल का निर्णय
भी बहुत है।
आज का निर्णय
काफी है।
तीसरी
बात, अब तक
जितने भी
संन्यास के
जगत में रूप
हुए हैं, वे
सभी
संप्रदायों
से बंधे हुए
थे। इसलिए संन्यासी
कभी भी मुक्त
नहीं हो पाया।
कोई संन्यासी
हिंदू है, कोई
मुसलमान है, कोई जैन है, कोई बौद्ध
है, कोई
ईसाई है। कम
से कम
संन्यासी को
तो सिर्फ धार्मिक
होना चाहिए।
इसका यह अर्थ
नहीं कि वह मस्जिद
न जाये, वह
मंदिर न जाये।
यह उसकी मौज
है। वह कुरान पढ़े या
गीता पढ़े,
यह उसकी
पसंद है। वह
जीसस को प्रेम
करे कि बुद्ध
को प्रेम करे,
यह उसकी
अपनी बात है।
लेकिन
संन्यासी
होते ही उसे
किसी संप्रदाय
का नहीं रह
जाना चाहिए।
क्योंकि जैसे
ही कोई
व्यक्ति
संन्यासी हुआ
अब कोई धर्म
उसका अपना
नहीं, क्योंकि
सभी धर्म अब
उसके अपने हो
गये।
इसलिए
संन्यास में
एक तीसरी बात
भी मैं जोड़ना चाहता
हूं, वह है--गैरसांप्रदायिकता।
संप्रदाय के
पार संन्यासी
को होना
चाहिए। और अगर
इस पृथ्वी पर
हम ऐसे
संन्यासी
पैदा कर सकें
जो ईसाई नहीं
हैं, हिंदू
नहीं हैं, जैन
नहीं हैं, बौद्ध
नहीं हैं, तो
हम इस जगत को
धार्मिक
बनाने के
रास्ते पर आसानी
से ले जा
सकेंगे। और
अगर संन्यासी
हिंदू, बौद्ध
और जैन न रह
जायें तो
आदमी-आदमी को लड़ाने के
बहुत-से आधार
गिर जायेंगे,
और
आदमी-आदमी को जोड़ने के
बहुत से सेतु
फैल जायेंगे।
इसलिए
संन्यासी को
मैं सिर्फ
धार्मिक कहता
हूं, रिलिजस माइंड।
उसका किसी
धर्म से कोई
लेना-देना
नहीं, क्योंकि
सारे धर्म
उसके अपने
हैं। यह दूसरी
बात है कि उसे
गीता से प्रेम
है और वह गीता
पढ़ता है। यह
दूसरी बात है
कि उसे कृष्ण
से प्रेम है और
वह कृष्ण के
गीत गाता है।
यह दूसरी बात
है कि उसे
जीसस से
मुहब्बत है और
वह जीसस के
चर्च में सो
जाता है। ये
बिलकुल दूसरी
बातें हैं। ये
उसकी
व्यक्तिगत
बातें हैं।
लेकिन अब वह
ईसाई नहीं है,
जैन नहीं है,
हिंदू नहीं
है, बौद्ध
नहीं है। और
कल अगर उसे
किसी गांव का
मंदिर बुलाता
है तो मंदिर
में रुकता है,
मस्जिद
बुलाती है तो
मस्जिद में
रुक जाता है, चर्च
निमंत्रण
देता है तो
चर्च का
मेहमान हो जाता
है। अगर हम
पृथ्वी पर लाख
दो लाख संन्यासी
भी धर्मों के
पार निर्मित
कर सकें, तो
हम दुनिया में
आदमी-आदमी के
बीच के
वैमनस्य को
गिराने के लिए
सबसे बड़ा कदम
उठा सकते हैं।
इस तरह
के संन्यास को
मैं तीन
हिस्सों में
बांट देना
पसंद करता हूं, जो आपको
समझने में
आसान हो
जाएगा। वे लोग
जो अपनी
जिंदगी को जैसा
चला रहे हैं
वैसा ही चलाकर
संन्यासी होना
चाहते हैं, वे वैसे ही
संन्यासी हो
जायें। सिर्फ
संन्यास की
घोषणा अपने और
जगत के प्रति
कर दें। संन्यास
का निर्णय
अपने और जगत
के प्रति ले
लें। लेकिन
जहां हैं
उसमें रत्ती
भर फर्क न
करें, जो
हैं उसमें
फर्क करना
शुरू कर दें।
लेकिन
बहुत लोग हैं, जैसे ढेर
वृद्ध मुझे
मिलते हैं जो
घरों में तकलीफ
में पड़ गए हैं,
क्योंकि
घरों में अब
उनका कोई
संबंध नहीं
है। आनेवाली
पीढ़ियों को
उनमें कोई रस
नहीं है। सारे
सेतु उनके बीच
टूट गए हैं।
वृद्धों को तो
निश्चित ही
आश्रमों में
पहुंच जाना चाहिए।
इस मुल्क में
एक व्यवस्था
थी। उस व्यवस्था
के टूट जाने
के बाद शायद
जिसको हम
जेनरेशन गैप
कहते हैं, वह
पैदा हुआ।
सारी दुनिया
में पैदा हुआ।
जिसे हम
पीढ़ियों का
फासला कहते
हैं।
इस
मुल्क की एक
व्यवस्था थी
कि पच्चीस साल
तक के
विद्यार्थी
को हम जंगल
में रखते थे
और पचहत्तर
साल के बाद जो
बूढ़े
संन्यासी थे उनको
भी जंगल में
रखते थे। और
जो पचहत्तर
साल के बूढ़े
संन्यासी थे
वे जंगल में
गुरु का काम कर
देते थे, शिक्षक
का। और जो
पच्चीस साल के
युवा जंगलों में
पढ़ने आते थे
वे
विद्यार्थी
का काम कर
देते थे। हम
पहली पीढ़ी
की आखिरी पीढ़ी
से मुलाकात
करवा देते थे,
उन दोनों के
बीच डायलाग
हो जाता था, उन दोनों के
बीच संबंध हो
जाता था।
सत्तर साल, पचहत्तर साल
का बूढ़ा, पांच
और दस साल के
बच्चों से
मुलाकात ले
लेता था।
सत्तर-पचहत्तर
साल में जो
उसने जिंदगी
से जाना और
सीखा उससे
उन्हें
परिचित करा देता
था।
बहुत
कुछ चीजें हैं
जो युनिवर्सिटीज
में नहीं सीखी
जातीं, सिर्फ
जिंदगी के
अनुभव में ही
सीखी जाती
हैं। जिस दिन
से हमें यह
खयाल पैदा हो
गया कि सारा ज्ञान
विश्वविद्यालय
से मिल सकता
है, उस दिन
से दुनिया में
ज्ञान तो बहुत
मिला, लेकिन
विजडम, प्रज्ञा
बहुत कम होती
चली गई। युनिवर्सिटीज
में ज्ञान भले
मिल जाये, पर
प्रज्ञा, विजडम
नहीं मिलती
है। विजडम तो
जिंदगी की ठोकरों
और टक्करों और
संघर्षों में
ही मिलती है। वह
तो जिंदगी से
गुजर कर ही
मिलती है।
तो हम
अपने सबसे
ज्यादा बूढ़े
व्यक्ति को
अपने सबसे
ज्यादा छोटे
बच्चे से मिला
देते थे। ताकि
दोनों
पीढ़ियां, आती
हुई और विदा
होती पीढ़ी,
डूबता हुआ
सूरज उगते हुए
सूरज से
मुलाकात कर जाये
और जो बारह
घंटे की
यात्रा पर
उसने पाया है
वह उगते हुए
सूरज को दे
जाये। वह
संबंध टूट गया
है। उससे
खतरनाक
परिणाम हुए
हैं। पीढ़ियों के
बीच फासला बढ़
गया है। बूढ़े
और बच्चों के
बीच कोई डायलाग
नहीं है, बूढ़े
और बच्चों के
बीच कोई
बातचीत नहीं
है। बूढ़े की
भाषा न बच्चे
समझते हैं, न बच्चे की
भाषा बूढ़े समझ
पाते हैं।
बूढ़े बच्चों
पर नाराज हैं,
बच्चे
बूढ़ों पर हंस
रहे हैं। यह
उनकी नाराजगी का
ढंग है। अगर
जीवन में एक
तारतम्य न रह
जाए और जीवन
में पीढ़ियां
इस तरह दुश्मन
की तरह खड़ी हो
जायें तो
जिंदगी एक अराजकता
बन जाती है।
उस जिंदगी से
सारा संगीत खो
जाता है।
मेरी
दृष्टि में है
कि एक तो वे
संन्यासी जो अपने
घरों में अपनी
जिम्मेवारियों
के बीच में
संन्यासी
होंगे। लेकिन
कल उनमें से
बहुत से लोग जिम्मेवारियों
से बाहर हो
जायेंगे।
बहुत से लोग
तो आज भी जिम्मेवारियों
के बाहर हैं।
जिन पर कोई
जिम्मेवारी
नहीं है, वे
घरों में बोझ
भी हो जाते
हैं। क्योंकि
जो सदा से काम
से भरे रहे
हैं, खाली
होना उन्हें
बहुत मुश्किल
होता है। तब वे
बेकाम के काम
करने लगते हैं,
जिनसे
दूसरों के काम
में बाधा पड़नी
शुरू हो जाती
है। उन्हें
जिंदगी की भीड़
और बाजार को
छोड़कर जरूर
आश्रम की
दुनिया में
चले जाना
चाहिए। वहां
वे साधना भी
करें, ध्यान
भी करें, परमात्मा
को भी खोजें
और गांव के
बच्चों को--जो
उनके पास कभी
महीने दो
महीने के लिए
आकर बैठते
रहें, ज्यादा
देर भी बिठाये
जा सकते
हैं--शिक्षित बनायें।
क्योंकि मैं
तो मानता ही
यही हूं कि
ऐसे आश्रम ही युनिवर्सिटीज
बन जाने
चाहिए। और इन
बच्चों को
अपना सारा सब कुछ
दे जायें, जो
उन्होंने
जाना है।
ऐसे
युवक भी हो
सकते हैं
जिनके व्यक्तित्व
की दिशा ऐसी
है कि वे
संसार में
नहीं जाना
चाहते, तो
उन्हें भेजना
आवश्यक नहीं
है। ढेरों लोग
हैं जिनके
पिछले जन्मों
की यात्रा उस
जगह उन्हें ले
आई है कि उनके
लिए विवाह का
कोई अर्थ नहीं
होगा। उनके
लिए अब जगत
में बहुत अर्थ
नहीं होगा।
अगर ऐसे लोग
हैं तो उनको
जबरदस्ती जगत
में डालना
वैसा ही
पागलपन है जैसे
किसी आदमी को,
जिसे अभी
विवाह करना था,
उसे
जबरदस्ती
दीक्षा दे
देना पागलपन
है।
नहीं, जिनकी
जिंदगी में
सहज ही सुगंध
है, और जो
छोड़कर इस घेरे
के बाहर जीना
चाहते हैं, वे जरूर
आश्रमों में
जीयें, पर
उनके आश्रम प्रोडक्टिव
होने चाहिए।
वहां वे खेती
भी करें, बगीचे
भी लगायें,
फैक्टरी भी चलायें, स्कूल भी चलायें,
अस्पताल भी चलायें, वे वहां
पैदा भी करें,
और उस
पैदावार पर ही
जीयें।
ये तीन
दिशाएं हैं।
और जो लोग इन
तीनों में से कुछ
भी नहीं कर
सकते, वे भी
इतना तो कर
सकते हैं कि
वर्ष में
पंद्रह दिन हॉली-डे पर
चले जायें।
अंग्रेजी का
यह हॉली-डे
शब्द बहुत
अच्छा है। हॉली-डे
का मतलब
छुट्टी नहीं
होता, हॉली-डे का मतलब
होता है, पवित्र
दिन। यह जो
रविवार है वह
अंग्रेजों के लिए,
पश्चिम में हॉली-डे है,
पवित्र दिन
है, क्योंकि
उस दिन परमात्मा
ने भी काम छोड़
दिया था
दुनिया
बनाकर। उस दिन
उसने आराम
किया था। छह
दिन उसने
दुनिया बनायी,
सातवें दिन
वह भी
संन्यासी हो
गया। उसने
सातवें दिन
आराम किया। जो
छह दिन काम कर
रहे हैं, सातवें
दिन उनको भी
आराम चाहिए।
जो साल भर काम
कर रहे हैं, वे कभी
महीने भर के लिए
हॉली-डे
पर चले जायें,
पवित्र
दिनों में चले
जाएं। छोड़ दें,
भूल जायें
इस दुनिया को।
एक महीने के
लिए डूब जायें
किसी और
यात्रा में, एक महीने
संन्यासी की
तरह किसी
आश्रम में जीकर
लौटें। तब आप
दूसरे आदमी
होकर लौटेंगे,
आप कुछ
आत्मिक होकर
लौटेंगे, आंतरिक
होकर लौटेंगे।
दुनिया यही
होगी लेकिन
आपका दृष्टिकोण
बदला हुआ
होगा।
मेरे
लिए संन्यास
का ऐसा अर्थ
है। और यह
व्यक्तिगत
निर्णय और
चुनाव है। और
अगर ऐसा
संन्यास पृथ्वी
पर फैलाया जा
सके तो हम
पृथ्वी से
संन्यास को
मिटने से रोक
सकते हैं, अन्यथा बहुत
कठिन मामला है
कि संन्यास बच
सके।
साम्यवाद
जितने जोर से
फैलेगा, संन्यास
की हत्या उतनी
ही व्यवस्था
से होती चली
जाएगी।
आज चीन
में, जहां कल
बुद्ध की
प्रतिमा रखी
थी, वह
प्रतिमा तो फोड़ डाली
गई और माओ का
फोटो लटका
दिया गया है।
आज चीन के
स्कूलों में
दीवालों पर जो
वचन लिखें हैं,
वे बहुत
हैरानी के
हैं। चीन में
एक स्कूल की
दीवाल पर लिखा
हुआ है कि जो
बच्चा माओ की
किताब एक दिन
नहीं पढ़ता
उसकी भूख मर
जाती है, जो
बच्चा माओ की
किताब दो दिन
नहीं पढ़ता
उसकी नींद चली
जाती है, जो
बच्चा माओ की
किताब तीन दिन
नहीं पढ़ता वह
बीमार पड़ जाता
है, जो
बच्चा माओ की
किताब चार दिन
नहीं पढ़ता
उसकी जिंदगी
अंधकारपूर्ण
हो जाती है।
माओ की किताब
में ऐसा कुछ
भी नहीं है कि
कोई भी बच्चा
दुनिया में
कहीं भी उसे पढ़े, लेकिन
स्कूल के
बच्चों को
समझाया जा रहा
है।
एक
यात्री चीन
गया था। वह एक मोनास्ट्री
के पास से
गुजर रहा था, एक पहाड़ पर
बसे हुए आश्रम
के पास से।
उसने अपने
गाइड से पूछा
कि ऊपर जो
आश्रम दिखायी
पड़ता है पर्वत
पर, वहां
साधु रहते
होंगे? तो
उस गाइड ने
कहा, माफ
कीजिए, आप
बड़े पुराने
बुद्धि के
आदमी मालूम
पड़ते हैं, वहां
कम्युनिस्ट
पार्टी का
दफ्तर है।
साधु अब वहां
नहीं रहते।
पहले रहते थे,
लेकिन वे
शोषक दिन
समाप्त हुए।
अब उन शोषकों
की कोई जगह
नहीं है चीन
में, अब
वहां
कम्युनिस्ट
पार्टी का
दफ्तर है।
बुद्ध
की जगह माओ को
बिठा दिया
जाएगा, आश्रमों
की जगह
कम्युनिस्ट
पार्टी के
दफ्तर हो
जायेंगे।
कम्युनिस्ट
पार्टी के दफ्तरों
में ऐसा कुछ
बुरा नहीं है,
माओ की
तस्वीर में
ऐसा कुछ बुरा
नहीं है, लेकिन
जिस जगह उसे
रखा जा रहा है
उसमें जगत बहुत
कुछ खो देगा।
कहां बुद्ध, कहां माओ!
कहां बुद्ध के
जीवन का आनंद,
कहां बुद्ध
के जीवन की
करुणा और
प्रेम, कहां
बुद्ध की ऊंचाइयां,
कहां बुद्ध
के चित्त पर
उतरा हुआ
निर्वाण, कहां
बुद्ध के
एक-एक वचन का
अमृत, कहां
माओ! उससे कोई
भी तुलना नहीं,
उससे कोई भी
संबंध नहीं
है।
लेकिन
यह हो रहा है, यह सारी
दुनिया में
होगा। यह कलकत्ते
में हो रहा है,
यह बंबई में
होगा।
कलकत्ता की
दीवालों पर
लिखा हुआ है
जगह-जगह कि
चीन के
अध्यक्ष माओ
हमारे भी
अध्यक्ष हैं।
कलकत्ता और
बंबई में बहुत
फासला नहीं
है। और जो हाथ कलकत्ते
की दीवालों पर
लिख रहे हैं
उन हाथों में
और बंबई के
हाथों में
बहुत फर्क
मुझे दिखायी
नहीं पड़ता।
इस जगत
से धर्म का
फूल तिरोहित
हो जाएगा अगर
कोई ऐसा चाहता
हो कि संन्यास
की पुरानी
धारणा से
चिपके रहना
चाहिए। अगर इस
जगत में धर्म
के फूल को
बचाना हो तो संन्यास
की नई धारणा
को जन्म देना
जरूरी है।
आचार्य
श्री, संस्था
और संघ के
संदर्भ में एक
प्रश्न आया है।
महावीर जैसी
आत्माएं
दूसरे किसी का
अनुगमन न करके
स्वयं को
खोजते-खोजते
ही स्वयं को
उपलब्ध हुईं।
यह बात बिलकुल
सही मालूम
पड़ती है, फिर
भी महावीर ने
साधु-साध्वी,
श्रावक-श्राविका
के चतुर्विध
संघ की रचना
करके क्या एक
संगठन की रचना
नहीं की? क्या
यह संघ-रचना
सीधे रूप में
अनुकरण नहीं
बन गई? महावीर
का उनके पीछे
क्या मतलब रहा
होगा? क्या
आपके पास भी
ठीक महावीर
जैसे ही
संन्यासी और
संगठन का
निर्माण नहीं
हो रहा है? कृपया
संक्षेप में
स्पष्ट करें।
शब्दों
की अपनी
यात्राएं
हैं। पच्चीस
सौ साल पहले
जिस शब्द का
जो अर्थ था, आज उस शब्द
का वही अर्थ
नहीं है। इससे
बड़ी भ्रांति
पैदा होती है।
महावीर ने
जिसे संघ कहा
था और हम जिसे
संघ कहते हैं,
उसमें बड़ा
फर्क पड़ गया
है। महावीर
संघ किसी संस्था
को नहीं कहते
थे। महावीर
संघ कहते थे
कुछ समान-चेता,
कुछ एक से
संगीत अनुभव
करनेवाले
लोगों के मिलन
को। महावीर
संघ कहते थे
कुछ एक-सी
यात्रा पर समस्वरता
को अनुभव
करनेवाले
लोगों की
मित्रता को, सहपथिकों को, फेलो-टै्रवेलर्स को। महावीर
के लिए संघ का
अर्थ
आर्गनाइजेशन
नहीं है। संघ
का अर्थ संगठन
नहीं है।
क्योंकि संगठन
तो सदा किसी
के खिलाफ करना
पड़ता है। संगठन
सदा ही किसी
के खिलाफ होता
है। संगठन
किसी की
शत्रुता में
होता है। संगठन
किसी से अपनी
रक्षा के लिए
होता है या
किसी पर
आक्रमण के लिए
होता है।
अब
महावीर को न
तो किसी से
अपनी रक्षा
करनी थी और न
ही किसी पर
आक्रमण करना
था। इसलिए
महावीर के लिए
संघ का अर्थ
वह नहीं होता
जो हमारे लिए होता
है। हमारे लिए
तो हम संघ
बनाते ही तब
हैं...मुसलमान
कहता है, संगठित
हो जाओ!
क्योंकि
इस्लाम खतरे
में है। हिंदू
कहता है, संगठित
हो जाओ!
क्योंकि
हिंदू-धर्म
खतरे में है।
हिंदुस्तान
कहता है, संगठित
हो जाओ!
क्योंकि चीन
हमला कर रहा
है। पाकिस्तान
कहता है, संगठित
हो जाओ!
क्योंकि
हिंदुस्तान
दुश्मन है, पड़ोस में खड़ा
है। हमारे लिए
संगठन का अर्थ
सदा ही आक्रमण
या रक्षा है।
महावीर को किस
पर आक्रमण
करना है, किससे
रक्षा करनी
है!
महावीर
के लिए संघ का
कुछ और ही
अर्थ है। संघ
का महावीर के
लिए अर्थ है
एक कम्यूनियन; संघ का
महावीर के लिए
अर्थ है एक
समान चेता, समान खोजी, सहपथिकों का मिलन।
इसमें कोई
आर्गनाइजेशन
नहीं है, इसमें
कोई
आर्गनाइजेशन
की बाहरी
व्यवस्था नहीं
है। जैसे चार
आदमी एक गांव
में संगीत से
प्रेम करते
हैं और वे
चारों लोग
बैठकर रात
अपनी महफिल
जमा लेते हैं।
कोई तबला
पीटता है, कोई
हारमोनियम
बजाता है। यह
कोई संघ नहीं
है, यह
सिर्फ समान
चेता, समान
इच्छा रखनेवाले
लोगों का मिल
जाना है। एक
गांव में चार
आदमी ध्यान
करते हैं। वे
चारों मिल कर
एक कमरे में बैठकर
परमात्मा के
लिए अपने को
समर्पित करते
हैं। यह कोई
संघ नहीं है।
यह किसी के
खिलाफ नहीं है,
किसी के
पक्ष में नहीं
है। यह मिलन
है।
महावीर
के लिए संघ का
अर्थ है
कम्यूनियन, ऐसे लोगों
का मिलन जो एक
ही खोज पर, एक
ही यात्रा पर
निकले। यह संघ
उपयोगी हो
सकता है, संगठन
के अर्थों में
नहीं, मिलन
के अर्थों
में। यह
उपयोगी हो
सकता है, बहुत
उपयोगी हो
सकता है।
क्योंकि इस
जगत में हमारा
सारा जीवन ही हमारे
चारों तरफ जो
है उससे जुड़ा
है। अगर आप एक
गांव में
अकेले हैं
संगीत को
प्रेम करने
वाले और अगर
उस गांव में
दस लोग संगीत
से प्रेम करनेवाले
कभी साथ बैठकर
गीत गा लेते
हैं, तो वे
दसों ही
ज्यादा
समृद्ध हो
जाते हैं, वे
दसों ही
ज्यादा
प्रसन्न और
सुखी हो जाते
हैं।
और
मैंने तो सुना
है--पता नहीं
कहां तक सच है, लेकिन सच
मालूम होता
है--मैंने
सुना है कि
अगर एक सितार
को बजाया जाये
एक सूने मकान
में और दूसरे
सितार को
दूसरे कोने
में बिना
बजाये रख दिया
जाए और सिर्फ
एक सितार को
बजाया जाये तो
कुशल
सितारवादक
दूसरे सितार
के तारों को
भी झनझना देता
है। बजेगा एक
ही, लेकिन
इसकी स्वरध्वनियां
उस दूसरे सोए
हुए सितार के
तारों को भी छेड़ देती
हैं और वह भी
झनझना उठता
है।
अगर दस
ध्यान
करनेवाले
इकट्ठे बैठकर
ध्यान करते
हैं और उनमें
से एक भी बहुत
गहराई में जा
सकता है, तो
उससे उठी हुई
तरंगें, उससे
उठी हुई वाइब्रेशंस
दूसरों के सोए
हुए ध्यान के
तारों को भी
झनझना देती
हैं।
इसलिए
सामूहिक
ध्यान का अपना
उपयोग है, सामूहिक
साधना का अपना
उपयोग है, सामूहिक
प्रार्थना का
अपना उपयोग
है। और हम जो
बहुत कमजोर
लोग हैं उनके
लिए समूह
अर्थपूर्ण बन
जाता है, बहुत
अर्थपूर्ण बन
जाता है।
महावीर
ने जिन संघों
की बात की है
वे संघ समान खोज
करनेवाले
लोगों के मिलन
स्थल हैं। उस
मिलन में किसी
के प्रति पक्ष
या विपक्ष से
कोई प्रयोजन
नहीं है। उस
मिलन में
प्रेम के
अतिरिक्त और
कोई कारण नहीं
है।
और मैं
मानता हूं कि
ऐसे प्रेम
करनेवाले
लोगों को जरूर
ही इकट्ठे
होते रहना
चाहिए। ऐसे
प्रेम
करनेवाले लोग
बुरी बातों के
लिए तो इकट्ठे
हो रहे हैं।
चोर तो इकट्ठे
हो जाते हैं, साधुओं का
इकट्ठा होना
बहुत मुश्किल
होता है।
धूर्त तो
इकट्ठे हो
जाते हैं, साधुओं
का इकट्ठा
होना बहुत
मुश्किल
मालूम होता
है। लेकिन
धूर्तों का
संघ किसी के
पक्ष में और
किसी के खिलाफ
होता है।
साधुओं का संघ
किसी के पक्ष
में या किसी
के खिलाफ नहीं
होता, सिर्फ
मिलन के आनंद
के लिए होता
है।
और
दुनिया में
अगर धूर्त ही
इकट्ठे होते
रहें तो
धूर्तों के
पास ज्यादा
शक्ति इकट्ठी
हो जाती हो तो इसमें
आश्चर्य नहीं
है। साधुओं के
भी कहीं इकट्ठे
होने के उपाय
होने चाहिए।
गांव में बुरे
लोग इकट्ठे
होकर सब तरह
का बुरा
संवेदन पैदा करते
रहे हैं, बुरे
लोग इकट्ठे
होकर होटलों
में, क्लबों
में सब तरफ, इस गांव की
तरंगों को
दूषित और
अंधकारपूर्ण
करते रहे हैं,
और अच्छे
लोगों के लिए
मिलने की कोई
जगह न हो जहां से
वे भी सत्य के,
जहां से वे
भी प्रेम के
संवेदन गांव
में पैदा कर
सकें, तो
इस दुनिया का
बहुत अहित
होता है।
मंदिर, मस्जिद, चर्च
कभी ऐसे ही मिलनेवाले
लोगों के
मिलन-स्थल
थे--अब नहीं
हैं--जिनमें
गांव की शुद्ध
तरंगें भी
पैदा होती थीं
और जहां से
परमात्मा की
यात्रा पर भी
पुकार आती थी।
आज भी मंदिर
के घंटे हम बजाते
रहते हैं, लेकिन
किसी को वे
सुनायी नहीं
पड़ते। कभी वे
पुकार थे
परमात्मा की,
कभी वे
स्मरण के
स्रोत थे, कभी
वे खबरें थीं
कि उठो! कोई और
भी है खोज, उसकी
भी याद उनसे आती
थी। अब भी
मस्जिद से
अजान दी जाती
है, लेकिन
लोगों की
सिर्फ सुबह की
नींद खराब
होती है और
कुछ भी नहीं
होता।
देनेवाला भी
सिर्फ प्रोफेशनल
है, एक काम
है कि वह सुबह
अजान दे देता
है। वह भी सोचता
है कि आज सुबह
बड़ी जल्दी हो
गई मालूम होता
है। आज सब
बेमानी हो गया
है।
महावीर
ने जो मिलन की
कामना की थी
वह अर्थपूर्ण
है, वह संघ
नहीं है आज की
भाषा में।
असाधु की भाषा
में संघ कुछ
और अर्थ रखता
है, साधु
की भाषा में
कुछ और अर्थ
रखता है। इतना
खयाल में आ
जाए तो कठिनाई
नहीं रह
जाएगी। लेकिन
जितनी भी
श्रेष्ठ
चीजें हैं, महावीर
जैसे व्यक्ति
खड़ा करते हैं
उन श्रेष्ठ
चीजों को, लेकिन
बचा नहीं पाते,
दुर्भाग्य
है। चेष्टा
बहुत करते हैं
कि बच जायें
चीजें अपने
शुद्धतम रूप
में, लेकिन
नहीं बच
पातीं। उसका
कारण है।
महावीर अस्सी
साल जिंदा
रहते हैं, फिर
विदा हो जाते
हैं। जो दे
जाते हैं वह
हमारे हाथ में
पड़ता है, जो
महावीर नहीं
हैं, जिनको
उस चेतना की
स्थिति से कोई
भी संबंध नहीं
है। फिर तो हम
जो करेंगे वह
करेंगे।
मैंने
सुना है कि मौजेज
के पास, मूसा
के पास एक
बांसुरी थी और
उस बांसुरी को
कभी-कभी पहाड़
पर बैठकर वे
बजाते थे। राह
चलते गड़रिए
ठहर जाते थे। भेड़ें रुक
जाती थीं, जंगल
के हिरण
इकट्ठे हो
जाते थे, पक्षी
मौन हो जाते
थे, पक्षी
उन्हें घेर
लेते थे। फिर मौजेज मर
गये, तो
जिन गड़रियों
ने उस दिव्य
बांसुरी के
स्वर सुने थे,
उन्होंने
उस बांसुरी को
वृक्ष के नीचे
रखकर पूजा
करनी शुरू कर
दी।
लेकिन
वह बांस की
पोंगरी थी।
एक-दो पीढ़ी
भी नहीं बीत
पायी कि लोगों
ने कहा कि इस
कोरी बांस की
पोंगरी में
रखा क्या है, इसमें कुछ पूजाऱ्योग्य
भी तो होना
चाहिए!
तो
बड़े-बूढ़ों ने
कहा, यह बात
ठीक है। तो
उन्होंने उस
बांसुरी के
ऊपर सोने का
प्लास्तर चढ़ा
दिया, ताकि
पूजाऱ्योग्य
हो जाये। फिर
जब वह सोने की
हो गई तो
लोगों को लगा
कि हां, अब
वह बांस की
पोंगरी नहीं
है, सोने
की बांसुरी
है। तो वे
सोने की
बांसुरी की
पूजा करते
रहे।
एक-दो पीढ़ी बाद
लोगों ने कहा
कि यह क्या
कोरा सोना लगा
रखा है! कुछ
लोग
हीरे-जवाहरात
खरीद लाये, उन्होंने
हीरे-जवाहरात
लगा दिए उस
पर। लेकिन अब
उसमें कहीं से
भी फूंकें,
उसमें कोई
स्वर न उठते
थे। फिर जब
कोई संगीतज्ञ
वहां से गुजरा
तो उसने पूछा,
मैंने सुना
है कि यहां
मूसा की
बांसुरी की
पूजा होती है।
मैं उस
बांसुरी के
दर्शन करना
चाहता हूं। जब
वह गया देखने
तो वहां
बांसुरी थी ही
नहीं। उस पर
सोने का
प्लास्तर चढ़
गया था। प्लास्तर
के ऊपर
हीरे-जवाहरात
लग गए थे।
उसने दोनों
तरफ से फूंका।
उसमें कोई छेद
ही न थे जहां
से फूंकी जा
सके।
महावीर
की बांसुरी भी
ऐसी ही हो
जाती है, बुद्ध
की बांसुरी भी
ऐसी ही हो
जाती है, जीसस
की बांसुरी के
साथ भी हम यही
करते हैं।
जिनके हाथ में
पड़ती है बात, वे सब कुछ
विकृत कर देते
हैं। इस
विकृति का जिम्मा
महावीर या
बुद्ध के ऊपर
या कृष्ण के
ऊपर नहीं है।
इस विकृति का
जिम्मा हमारे
ऊपर है। और
इसलिए अगर
महावीर जैसा
व्यक्ति आज
फिर लौट आये
तो उसे महावीर
के ही खिलाफ
बोलना पड़ता
है। बोलना
पड़ता है इसलिए
कि आपने
महावीर की जो
शक्ल बना दी
है, अब उस
शक्ल को
गिराना जरूरी
हो जाता है।
अगर कोई
संगीतज्ञ लौट
आये तो उसे
उसी बांसुरी
के खिलाफ
बोलना पड़ेगा
और कहना पड़ेगा,
यह बांसुरी
नहीं है। अगर
जीसस वापस लौट
आयें तो
उन्हें जीसस
के ही खिलाफ
बोलना पड़ेगा।
क्योंकि दो
हजार साल में
हमने जो शक्ल
कर दी है, वह
जीसस भी नहीं
पहचान
पायेंगे कि
कभी मैं आया
था, यह
मेरी शक्ल थी!
आदमी
के हाथ में पड़
कर सब बिगड़
जाता है।
लेकिन इसका
कोई उपाय नहीं
है। इसका
सिर्फ एक ही
उपाय है कि
काश, मूसा के
आसपास प्रेम
करनेवाले
लोगों को हम
कहें कि तुम
कृपा करके
बांसुरी की
पूजा मत करो, बांसुरी
बजाना सीखो।
अगर मूसा के
आसपास के लोग
बांसुरी
बजाना
सीखें--हो
सकता है मूसा
जैसी न बजा पायें,
लेकिन
बांसुरी
बजाना भी सीख
लें--तो एक बात
तो कम से कम
पक्की है कि
बांसुरी पर
सोना नहीं चढ़ेगा,
हीरे- जवाहरात
नहीं चढ़ाए
जाएंगे।
क्योंकि तब वे
इतना कह
सकेंगे कि बांसुरी
की पूजा
बांसुरी की
नहीं है, उससे
पैदा
होनेवाले
संगीत की पूजा
है। और वह संगीत
तभी पैदा होता
है जब बांसुरी
पोली हो। उसमें
सोना भर दिया
है तो फिर
संगीत पैदा
नहीं होता है।
महावीर
और बुद्ध की
पूजा न की
जाये, महावीर
और बुद्ध के
जीवन में जो
घटित हुआ है, महावीर और
बुद्ध के जीवन
की जो ऊंचाइयां
प्रगट हुई हैं,
जिन शिखरों
को, जिन गौरीशंकरों
को उन्होंने
छुआ है, अगर
हम भी
छोटे-मोटे
टीलों की भी
खोज में निकल जायें
तो शायद
विकृति न हो।
लेकिन
हम पूजा में
लग जाते हैं।
पूजा विकृति
बन जाती है।
जिसको हम
पूजते हैं
उसको हम बिगाड़ते
हैं। जिसे हम
पूजते हैं उसे
हम नष्ट करते
हैं। क्योंकि
धीरे-धीरे हम
जिसको पूजते
हैं उसको अपनी
शक्ल में गढ़
लेते हैं। तभी
तो हम पूज
पायेंगे, नहीं
तो पूज नहीं
पायेंगे। हम
कहानियां गढ़ते
हैं उसके आसपास
जो हमारी होती
हैं। हम उसे पूजाऱ्योग्य
बनाते चले
जाते हैं।
उसका
व्यक्तित्व
धीरे-धीरे
सिर्फ मुर्दा
राख रह जाता
है।
मूसा
की बांसुरी
करीब-करीब
सारी दुनिया
में सब लोगों
के पास है।
लेकिन उसमें
से कोई स्वर नहीं
निकलते हैं।
लेकिन क्या
किया जा सकता
है, आज तक ऐसा
हुआ है। शायद
आगे भी ऐसा ही
होगा।
दुर्भाग्यपूर्ण
है! होना नहीं
चाहिए। लेकिन
हमारी आदतें
हैं, हमारी
मजबूरियां
हैं। हम वही
करते रहते हैं,
लेकिन फिर
भी सचेत करने
की कोशिश
निरंतर की जाती
रही है।
बुद्ध
लोगों से कहते
हैं कि मेरी
पूजा मत करना, महावीर कहते
हैं कि तुम
स्वयं भगवान
हो। जो आदमी
दूसरों से कह
रहा है कि तुम
स्वयं भगवान
हो, वह
आदमी कह रहा
है कि मेरी
पूजा मत करो।
वह आदमी यह कह
रहा है कि तुम
जिसकी पूजा कर
रहे हो वह तुम
स्वयं हो। अब
तुम्हें किसी
और की पूजा की
कोई भी जरूरत
नहीं है।
महावीर कहते
हैं, अशरण
हो जाओ, सब
शरण छोड़ दो, क्योंकि तुम
किसकी शरण जा
रहे हो? तुम
खुद वही हो
जिसकी खोज चल
रही है। लेकिन
हम महावीर की
शरण चले जाते
हैं। हम कहते
हैं, आपने
अशरण का मार्ग
बताया, बड़ी
कृपा की। कम
से कम आपके
चरणों में तो
हमें आ जाने
दो। बुद्ध
कहते हैं, पूजा
मत करना। तो
हम कहते हैं, किसी की
पूजा न करेंगे,
लेकिन
तुमने तो इतनी
ऊंची बात कही,
तुम्हारी
तो कम से कम
करने दो। तो
हम बुद्ध की पूजा
जारी कर देते
हैं।
आदमी
की बुनियादी
भूलें कारण
हैं। अभी तक
आदमी जीतता
रहा, महावीर-बुद्ध
हारते रहे।
पता नहीं आगे
इस कहानी में
फर्क पड़ेगा या
नहीं पड़ेगा, कोशिश जारी
रहनी चाहिए।
कोशिश जारी
रहनी चाहिए कि
अब आगे बुद्ध
और महावीर न
हार पायें,
अब आगे जो
व्यक्ति भी
परमात्मा का
संदेश लाये, वह लड़ता ही
रहे; और जो
भूलें पीछे हो
गई हैं आदमी
से, उनके
खिलाफ चलता ही
रहे। पक्का
नहीं कहा जा
सकता कि आदमी
मानेगा, क्योंकि
कुछ भी पक्का
नहीं कहा जा
सकता, लेकिन
कोशिश जारी
रहनी चाहिए।
एक बात
अंत में इस
प्रश्न के
संबंध में वह
यह है कि
कितनी ही
भूल-चूक आदमी
ने की हो और
लोगों ने मूसा
की बांसुरी पर
कितना ही सोना
चढ़ा दिया हो, अगर हम आज भी
सोने को
उखाड़ें तो
मूसा की बांसुरी
भीतर छिपी मिल
सकती है।
अनुयायियों
ने महावीर पर
जो-जो थोपा है,
उसे अगर हम
उतार दें, उनके
सब
आलेपन...बुद्ध
के माननेवालों
ने जो-जो
पहनाया है, वह सारे
वस्त्र हम अलग
कर दें, तो
भीतर वह सत्य
आज भी वैसा ही
मौजूद है।
लेकिन
बुद्ध के
आरोपण अलग
करने
जाइए--पच्चीस
सौ साल पहले
बुद्ध हुए--द
जरूरत क्या है? महावीर के
आरोपण अलग
करने जाइए, जरूरत क्या
है? इतनी
मेहनत से तो
आप अपने भीतर
के बुद्ध, अपने
भीतर के
महावीर के
आरोपण अलग कर
ले सकते हैं।
और
ध्यान रहे, जब तक मैं
अपने भीतर
महावीर को न
पा लूं तब तक मैं
बाहर किसी
महावीर को
पहचान नहीं
सकता हूं। जब
तक मैं अपने
भीतर कृष्ण को
न पा लूं तब तक
कोई कृष्ण
मेरे लिए
सार्थक नहीं
हो सकते। जब
तक मेरे भीतर
बुद्ध प्रकट न
हो जायें तब
तक बुद्ध का
एक भी शब्द
मेरे लिए मेरी
भाषा का शब्द
नहीं है। अपने
को ही हम खोज
लें, तो हम
सबको खोज लेते
हैं।
आचार्य
श्री, आपने
कहा है कि
चेहरे चुराना,
दूसरे जैसा
बनने का
प्रयास करना,
शिष्य और
अनुयायी
बनाना
सूक्ष्म चोरी
है। तब दूसरे
व्यक्तियों
से प्रेरणा
पाना, साधना
सीखना, अनुभवी,
जाग्रत
लोगों के पास
जाना, यह
सब भी क्या
चोरियां हैं?
यदि ये सब
चोरियां हैं
तो सम्यक शिक्षा
का क्या रूप
होगा? कृपया
इसे समझायें।
जो
जानते हैं
उनके पास
जायें, लेकिन
जो वे जानते
हैं उसे मान
मत लेना! उसे
खोजें। जो वे
जानते हैं उसे
विश्वास न बना
लें, उसे
ही जिज्ञासा बनायें।
जो वे जानते
हैं उसके
प्रति अंधे
होकर मुट्ठी न
बांध लें, उसके
प्रति आंख खोलें,
टटोलें। प्रेरणा
का अर्थ दूसरे
को स्वीकार कर
लेना नहीं है।
प्रेरणा का
अर्थ दूसरे की
चुनौती स्वीकार
करना है, चैलेंज।
महावीर
के पास जायें
तो प्रेरणा का
अर्थ यह नहीं
है कि महावीर
जैसे होने में
लग जायें।
महावीर के पास
जाकर प्रेरणा
का यह अर्थ है
कि अगर इस
महावीर के
भीतर यह
प्रकाश पैदा
हो सका तो मेरे
भीतर क्यों
पैदा नहीं हो
सकता? यह
चुनौती है!
अंग्रेजी
में शब्द है, इंस्पिरेशन। वह शब्द
बहुत कीमती
है। उसमें "इन'
शब्द पर
ध्यान देना
जरूरी है--इंस्पिरेशन।
लेकिन इंस्पिरेशन
लेते हम सदा
दूसरे से हैं।
तब तो शब्द
बड़ा गलत है। इंस्पिरेशन
का मतलब ही है
अंतःप्रेरणा।
दूसरा
निमित्त बन
सकता है, दूसरा
आधार नहीं बन
सकता। दूसरा
चुनौती बन सकता
है, नियम
नहीं बन सकता।
एक जला
हुआ दीया, एक बुझे हुए
दीये के लिए
खबर बन सकता
है कि मैं भी
जल सकता हूं।
क्योंकि बाती
भी मेरे पास
है, तेल भी
मेरे पास है, दीया भी
मेरे पास है।
लेकिन जला हुआ
दीया अगर बुझे
हुए दीये के
लिए इस तरह की
प्रेरणा न बनकर
सिर्फ पूजा की
प्रेरणा और
अनुकरण बन जाए,
और बुझा हुआ
दीया, जले
हुए दीये के
चरणों में सिर
रखकर बैठ जाये,
तो बैठा रहे
अनंत काल तक, उससे कुछ
होनेवाला
नहीं है।
प्रेरणा
का अर्थ है
चुनौती। जहां
भी कुछ दिखाई
पड़ता हो वहां
से यह चुनौती
मिलनी ही
चाहिए कि यह
मेरे भीतर
क्यों नहीं हो
सकता है? इस
जगत में जो एक
व्यक्ति के
भीतर भी हुआ
है, वह
मेरे भीतर
क्यों नहीं हो
सकता है? सब
उपकरण मौजूद
हैं। वह हृदय
मौजूद है, जो
मीरा का गीत
बन जाये। वह
बुद्धि मौजूद
है, जो
बुद्ध की
प्रज्ञा बन
जाये। वह शरीर
मौजूद है, जिस
शरीर के भीतर
लोगों ने
परमात्मा को
पा लिया है।
वह आंख मौजूद
है, जिससे
दृश्य ही नहीं,
अदृश्य भी
दिखाई पड़े! वह
कान मौजूद हैं,
जिनसे बाहर
के संगीत ही
नहीं, भीतर
के नाद भी
कबीर ने सुन
लिये। लेकिन
अगर कबीर भीतर
के नाद सुन सकते
हैं तो मैं
भीतर के नाद
क्यों नहीं
सुन सकता हूं?
प्रेरणा
का अर्थ है, चुनौती।
प्रेरणा का
अर्थ है, जायें
सब तरफ, खोजें
सब तरफ।
जिन्होंने भी ऊंचाइयां
छुई हों, उनको
देखें।
जिन्होंने
गहराइयां पाई
हों, उनको
देखें। और
अपने पैरों के
नीचे देखें कि
आप कहां खड़े हैं।
इन ऊंचाइयों
और इन
गहराइयों में
आपका जाना भी
हो सकता है।
बस, इससे
ज्यादा
प्रेरणा का और
कोई अर्थ नहीं
है।
अगर
इससे ज्यादा
अर्थ आप लेते
हैं तो
प्रेरणा नहीं
रह जाती, फिर
वह अनुगमन बन
जाती है, फिर
वह अनुसरण हो जाती
है, फिर वह फालोइंग
हो जाती है।
और फिर आप
अंधे ही बनते
हैं, आंख
वाले नहीं बन
पाते। हां, अंधे बनने
से बचने की
जरूरत है।
अंधा आदमी परमात्मा
को नहीं खोज
पायेगा। अंधा
आदमी टटोलता ही
रहेगा किसी के
पीछे और भटकता
रहेगा। और किसी
के पीछे भटक
कर सत्य कैसे
मिल सकता है?
सत्य
भीतर है, चोट
पड़ने दें।
महावीर की, बुद्ध की, कृष्ण की, क्राइस्ट की,
जिसकी भी
चोट पड़ती हो, पड़ने दें।
जिनसे चुनौती
मिलती हो, ले
लें! और
चुनौती के लिए
धन्यवाद भी दे
दें। लेकिन
सीखें, वह
नहीं जो देखा
है, सीखें
वह, जो
मेरे भीतर हो
सकता है। इन
सब में फर्क
को समझ लें।
सीखें मत
दूसरे से, जो
उसके भीतर हो
गया है। सीखें
केवल इतना ही
कि उसके भीतर
जो हो सका वह
मेरी भी
पोटेंशियलिटी
है। वह मेरा
भी बीज है। वह
मेरे भीतर भी
हो सकता है।
एक बीज
को रखें एक
वृक्ष के पास, बीज को पता
भी नहीं चलता
कि इतना बड़ा
वृक्ष मेरे भीतर
भी छिपा हो
सकता है।
लेकिन बीज अगर
एक वृक्ष को
देख ले और उस
वृक्ष से पूछे
कि तुम इतने बड़े
वृक्ष हो गए, क्या तुम
इतने ही बड़े
थे सदा? तो
वह वृक्ष
कहेगा, बीज
था तेरे ही
जैसा कभी, और
ऐसा ही मैंने
भी वृक्षों से
पूछा था कि
इतने बड़े कैसे
हो गए हो! तेरे
जितना ही बीज
था, तेरे
जैसा छोटा ही
बीज था। लेकिन
यह सब भीतर छिपा
था। अब प्रकट
हो गया है। यह मैनिफेस्ट
हो गया है।
असल
में तब बीज के
लिए चुनौती
मिल गई। अब यह
बीज भी
टूटेगा।
लेकिन यह बीज
वैसा ही वृक्ष
नहीं बन सकता
है। यह बीज जो
बन सकता है, वही बनेगा।
इस बीज के
भीतर हो सकता
है दूसरा
वृक्ष छिपा
हो। वह दूसरा
वृक्ष ही
बनेगा।
इतना
स्मरण रहे तो
प्रेरणा घातक
नहीं होती, साधक हो
जाती है। तो
प्रेरणा
शत्रु नहीं
बनती, मित्र
बन जाती है।
प्रेरणा बाहर
से आती हुई सिर्फ
दिखाई पड़ती है,
पर आती भीतर
से ही है। वह इंस्पिरेशन
ही होता है। वह
अंतःचोट
होती है। वह
बाहर से किसी
चीज की चोट और
भीतर कोई सोया
हुआ फन उठाकर
जग जाती है।
और हमें पहली
बार पता चलता
है कि हम यह भी
हो सकते हैं!
इस स्मरण का
नाम प्रेरणा
है। और इस
अर्थ में
सीखना ही
पड़ेगा, इस
अर्थ में
सीखते ही रहना
है।
लेकिन
सीखना और
मानना बड़ी
अलग-अलग बातें
हैं। मानता
वही है जो
सीखना नहीं
चाहता। जो
सीखना चाहता
है वह तो
मानेगा नहीं, वह तो
खोजेगा, खोजेगा।
और तब तक नहीं
मानेगा जब तक
पा नहीं लेगा।
वह अगर किसी
बात की खोज पर
भी निकलेगा तो
उसकी खोज
मानने की खोज
नहीं, जानने
की खोज होगी।
सीखने
का अर्थ श्रद्धा
नहीं है, सीखने
का अर्थ
विश्वास नहीं
है, सीखने
का अर्थ खोज
है। सीखने का
अर्थ जिज्ञासा
है। सीखना एक
यात्रा है।
सीखना
प्रारंभ है, अंत नहीं
है।
लेकिन
हम सब लोग सीख
कर बैठ जाते
हैं। हम कहते हैं, हमने तो
गीता से सीख
लिया। गीता के
सीखने से क्या
हो सकता है? गीता सीख
सकते हैं आप, लेकिन गीता
सीखने से
कृष्ण नहीं हो
सकते। गीता
पूरी की पूरी
कंठस्थ करने
से भी कुछ न
होगा। एक बात
पक्की है कि
कृष्ण को गीता
कंठस्थ नहीं
थी और अगर
दोबारा
बुलवाई होती
तो बड़ी भूलचूक
हो गई होती।
गीता निकली है,
वह
याददाश्त
नहीं है। वह
सहज स्रोत है,
जो कृष्ण से
बाहर फूटा है।
और आप? आप
उसको बाहर से
भीतर डाल रहे
हैं।
नहीं, कृष्ण की
गीता को पढ़कर
इस आकांक्षा
से भरें कि कब
वह दिन आयेगा
जब मेरे
प्राणों से भी
गीता फूटकर
निकलने
लगेगी। जिस
दिन मेरे
प्राण भी
भगवत-गीता बन
जाएंगे, भगवान
का गीत बन
जाएंगे, वह
दिन कब आएगा? उसकी याद से
भरें। छोड़ें
कृष्ण को, छोड़ें
उनकी गीता को।
अपनी गीता की
खोज में लगें।
एक बात पक्की
हो गई कि
कृष्ण से फूट
सकती है तो
मुझसे क्यों
नहीं फूट सकती?
परमात्मा
पक्षपाती
नहीं है। अगर
कृष्ण को मिल
सकी है
भगवत-गीता तो
मुझे भी मिल
सकती है। अगर
उनके प्राणों
के वाद्य पर
यह गीत उठ सका,
सिलेस्टियल सांग पैदा
हो सका, तो
मेरे प्राणों
के वाद्य पर
भी पैदा हो
सकता है।
लेकिन
हम? हम कुछ और
कर रहे हैं।
हम सीखने का
मतलब गीता कंठस्थ
करना समझते
हैं। गीता से
सीखने का मतलब
इतना ही है कि
अब मिल गई
चुनौती। अब तब
तक चैन नहीं
कि जब तक
भगवत-गीता
भीतर से पैदा
न होने लगे।
जब तक कि वाणी
का स्वर-स्वर
परमात्मा का
स्वर न हो
जाये, तब
तक चैन नहीं।
यह सीखें, लेकिन
यह कौन सीखता
है? गीता
सीख लेते हैं,
वह आसान है।
गीता को
कंठस्थ कर
लेना बच्चों
का काम है और
जितनी कम
बुद्धि का आदमी
हो उतनी जल्दी
कंठस्थ हो
जाती है।
सीखें
कि सम्यक
सीखना, राइट
लघनग
क्या है? कुछ
और भी सीखना
है। वह जो हैपनिंग
है, वह जो
घटना घटी है, वह सीखना
है। यह जो
कृष्ण नाम की
घटना घट गई है,
यह सीखनी
है। यह जो
कृष्ण के मुंह
से निकला है, यह नहीं
सीखना है। यह
जो कृष्ण पहने
हुए हैं, यह
नहीं सीखना
है। नहीं, कृष्ण
के भीतर जो
बीज फूटा और
अंकुरित होकर
वृक्ष बन गया
है तो मेरा
बीज भी फूट
सकता है, यह
सीखना है। इस
बीज को तोड़ने
की आकांक्षा सीखनी है, अभीप्सा सीखनी
है। इस बीज को
तोड़ने का
पागलपन सीखना
है। इस बीज को
तोड़ने की जिद सीखनी है।
इस बीज को
तोड़ने का
संकल्प सीखना
है। वह कृष्ण
से सीख लें।
वह
क्राइस्ट से
भी सीखा जा
सकता है। वह
बुद्ध से भी
सीखा जा सकता
है। वह अपने
चारों तरफ हजार-हजार
मार्गों से
सीखा जा सकता
है। और जो सीखने
को उत्सुक है
उसे तो वृक्ष
पर खिलते हुए
फूल से भी याद
आती है उसी की!
आकाश में
चमकते हुए
तारे से भी खयाल
आता है उसी का!
जमीन से फूटते
हुए झरने में
भी स्मृति आती
है उसी की।
सबसे उसी की
याद!
सुना
है मैंने कि
एक सूफी फकीर
एक गांव से
गुजर रहा है।
सांझ है और एक
बच्चा मंदिर
में दीया चढ़ाने
जा रहा है।
उसने उसे रोका
और पूछा, इस
दीये में
ज्योति कहां
से आई? तू
ने ही जलाया
है दीया? तो
उस बच्चे ने
कहा, जलाया
तो मैंने, लेकिन
ज्योति कहां
से आई यह पता
नहीं। और तभी बच्चे
ने दीया फूंक
कर बुझा दिया
और कहा कि आपके
सामने ज्योति
चली गई। अब आप
मुझे बता दें
कहां चली गई
ज्योति? आपके
सामने ही गई
है न? तब
मैं भी बता
सकूंगा कि
कहां से आई थी,
मेरे ही
सामने आई थी।
वह फकीर उस
बच्चे के पैरों
पर गिर पड़ा और
उसने कहा कि
आज से गलत
सवाल न पूछूंगा।
क्योंकि
जिसका जवाब
मैं नहीं दे
सकता वैसा सवाल
पूछना
मूर्खता है।
तू मुझे माफ
कर दे, तू
मुझे क्षमा कर
दे, और
मुझे भी तो
पता नहीं है
कि ज्योति
कहां चली जाती
है! छोड़ें इस
दीये को, उस
फकीर ने कहा।
तूने अच्छी
याद दिला दी।
मुझे यह भी तो
पता नहीं है
कि मेरे दीये
में जो ज्योति
जल रही है, वह
कहां से आती
है। और जब
मेरे दीये में
बुझ जाएगी तब
कहां चली
जाएगी। पहले
अपने दीये का
पता लगा लूं
फिर इस मिट्टी
के दीये की खोज
करूंगा।
अब यह
जो आदमी है
उसने सीखा
कुछ। ही हैज
लर्न्ड
समथिंग, इसने
कुछ सीखा।
इसने इस घटना
से कुछ सीखा।
एक झेन
फकीर के आश्रम
में एक बूढ़ी
औरत बहुत दिन
से रुकी है और
वह कहती है कि
नहीं, घटना
नहीं घट रही
है। कुछ और सिखाओ,
कुछ और सिखाओ।
वह बड़े-बड़े
सिद्धांत सीख
गई, शास्त्र
सीख गई है, लेकिन
घटना नहीं घट
रही है। वह
कहती है, और
सिखाओ।
अब वह फकीर
कहता है, तू
सीखती ही
नहीं। सब तरफ
वही सिखाया जा
रहा है।
फिर एक
दिन वह वृक्ष
के नीचे बैठी
और एक सूखा पत्ता
वृक्ष से नीचे
गिर गया। बस, वह नाचती
हुई आश्रम में
चिल्लाने लगी
कि मैं सीख
गई। लोगों ने
कहा, किस
शास्त्र से
सीखी है? हमको
भी बता दो! और
भी सीखनेवाले
लोग मौजूद थे।
उसने
कहा, शास्त्र
से नहीं सीखा
है। एक सूखे
पत्ते को वृक्ष
से गिरते
देखकर बस, सब
हो गया। पर
उन्होंने कहा,
पागल, वृक्षों
से सूखे पत्ते
तो हमने भी
बहुत गिरते देखे
हैं, तुझे
क्या हो गया? उसने कहा, जैसे ही
वृक्ष से सूखा
पत्ता गिरा, मेरे भीतर
भी कुछ गिर
गया और मुझे
लगा कि आज नहीं
कल सूखे पत्ते
की तरह गिर
जाऊंगी। तो जब
सूखे पत्ते की
तरह गिर ही
जाना है तो
इतनी अकड़
क्यों, इतना
अहंकार क्यों?
और सूखा
पत्ता हवा में
यहां-वहां
डोलने लगा, पूरब-पश्चिम
होने लगा। हवा
उसे टक्कर
देने लगी। वह
सड़कों पर
भटकने लगा। आज
नहीं कल जिसे
मैं "मैं' कहती
हूं, वह भी
कल राख हो
जाएगा और
सड़कों पर हवाएं
उसे धक्के
देंगी। वह
सूखे पत्ते की
तरह भटकेगा।
आज से अब मैं
नहीं हूं। मैंने
सूखे पत्ते से
सीख लिया है।
सीखने
का मतलब? सीखने
का मतलब खुली
आंख रखें और चुनौतियां
लें। आने दें चुनौतियां।
सब तरफ से आती
हैं। बाप को
बेटे से आ
सकती है। बेटे
को बाप से आ
सकती है। राह
चलते अजनबी से
मिल सकती है।
पड़ोसी से मिल
सकती है। कहीं
से भी मिल
सकती है। सीखनेवाला
चित्त चाहिए।
लेकिन
इस सीखने के
अर्थ को हम
नहीं समझे। हम
समझ रहे हैं
कि बस कंठस्थ
कर लो। हमारा
सीखना बौद्धिक
है, इंटेलेक्चुअल है! शब्द सीख
लो, सिद्धांत
सीख लो, कंठस्थ
कर लो।
सीखना
होता है टोटल, रोएं-रोएं
से, श्वास-श्वास
से, प्राण
के कण-कण से, हृदय की
धड़कन-धड़कन से।
पूरा
व्यक्तित्व
जब सीखने को
तैयार होता है
तो जरा-सी
चुनौती झंकार बन
जाती है और
सोए हुए प्राण
जाग जाते हैं।
लेकिन इसकी
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है।
और जो लोग इस
तरह से व्यर्थ
के सीखने में
लगे रहते हैं
उनके पास तो
समय भी नहीं
बचता, सुविधा
भी नहीं बचती,
मन में जगह
भी नहीं बचती।
सब भर जाता है,
सीखने को
जगह नहीं
बचती।
अगर
किसी दिन
परमात्मा के
सामने खड़े
होंगे और उससे
कहेंगे कि मैं
आपको क्यों न
सीख पाया, तो वह यह
नहीं कहेगा कि
आपने कुछ कम
सीखा इसलिए
नहीं सीख पाए।
वह कहेगा कि
तुमने इतना
सीखा कि मुझे
सीखने के लिए
जगह कहां बची!
सीखा बहुत...।
सीखते हम सब
बहुत हैं, लेकिन
सीखने योग्य
ही छूट जाता
है। चुनौती नहीं
सीख पाते।
धर्म
एक चुनौती है।
और चुनौती सीख
जायें तो कहीं
से भी वह
चुनौती मिल
सकती है। उसके
कोई बंधे-बंधाये
रास्ते नहीं
हैं। उसके कोई
बंधे-बंधाये
सूत्र नहीं
हैं। जीवन
कहीं से भी
टूट पड़ सकता है।
जीवन कहीं से
भी आपको पकड़
ले सकता है।
खुले रखें
द्वार मन के।
राह चलते, सोते, उठते,
बैठते, सीखते
रहें। लेते
रहें चुनौती।
किसी दिन चोट गहरी
पड़ जाएगी और
वीणा झंकृत हो
जाएगी।
एक
आखिरी सवाल
और।
आचार्य
श्री, आपने
कहा है कि
असभ्य आदमी
चेहरे
प्रयत्नपूर्वक
बदल पाता है, लेकिन सभ्य,
शिक्षित
आदमी सहजता से
चेहरे बदल
पाता है। अर्थात
चेहरे बदलने
की सहजता
सभ्यता का
वरदान है। इस
चेहरे की
बदलाहट के
संदर्भ में
मैं पूछना
चाहता हूं कि रिएक्शंस
और रिस्पांस
में आप क्या
सूक्ष्म भेद
करते हैं? रिएक्शंस से मुक्ति
और रिस्पांस
की उपलब्धि के
क्या सूत्र
होंगे, इसे
संक्षेप में
समझाएं।
साधारणतः
हम रिएक्शंस
ही करते हैं, प्रतिक्रियाएं
ही करते हैं, प्रति-कर्म
ही करते हैं।
कोई गाली देता
है तो हमारे
भीतर गाली
पैदा हो जाती
है। यह गाली
हम नहीं देते।
कोई हमसे दिला
लेता है। ऐसे
हम गुलाम हो
जाते हैं। अगर
आपसे मुझे
गाली दिलानी
है तो मैं
दिला लूंगा।
एक गाली भर
देने की जरूरत
है। आपको गाली
देनी पड़ेगी।
अगर आपमें
मुझे क्रोध
पैदा करना है,
एक जरा से
धक्के की
जरूरत है, आप
क्रोधी हो
जाएंगे।
तो मैं
आप में क्रोध
पैदा करा
दूंगा तो आप
गुलाम हो गये।
जो चीज हममें
दूसरे पैदा
करवा लेते हैं
वही हमारी
गुलामियां
हैं। रिएक्शन
हमारी गुलामी
है, और हममें
सब तरह के
रिएक्शन पैदा
करवा लिये जाते
हैं। कोई आदमी
आता है और
प्रशंसा करता
है, हमारे
प्राण पुलकित
हो जाते हैं।
कोई आदमी आता
है, निंदा
करता है, और
हम एकदम उदास,
गहन अंधेरी
रात में खो
जाते हैं। कोई
आदमी आता है
और कहता है, आप तो बहुत
सुंदर हैं, और हम एकदम
सुंदर हो जाते
हैं। और कोई
कह देता है, सुंदर जरा
भी नहीं, तो
हम एकदम कुरूप
हो जाते हैं।
हम कुछ भी
नहीं हैं, पब्लिक
ओपिनियन
हैं। लोग क्या
कहते हैं, वही
हम हैं।
इसलिए
हम सब अखबार
की कटिंग
काट-काटकर
अपने पास रखते
हैं कि कौन
हमारे बाबत
क्या कह रहा
है। उन सबको
हम अपने कपड़ों
पर नहीं लगाते
हैं, यही बड़ी
कृपा है। पूरे
समय हम सिर्फ रिएक्ट कर
रहे हैं। कौन
क्या कहता है,
कौन क्या
करवाता है, हम वही कर
लेते हैं। हम
व्यक्ति नहीं
हैं। व्यक्ति
तो हम उसी दिन
शुरू होते हैं
जिस दिन रिस्पांस
शुरू होता है।
रिस्पांस
प्रतिसंवेदन
है।
प्रतिसंवेदन
और प्रतिक्रिया
में बड़ा फर्क
है। समझें कि
एक आदमी ने
गाली दी आपको, तो प्रतिक्रिया
में तो हमेशा
गाली ही पैदा
होगी आपसे।
लेकिन
प्रतिसंवेदन
में दया भी आ
सकती है। एक
आदमी ने गाली
दी आपको, यह
भी दिखाई पड़
सकता है:
बेचारा, पता
नहीं किस
मुसीबत में
गाली दे रहा
है--तब प्रतिसंवेदन
है, तब रिस्पांस
है। तब आपने
उसकी गाली के
द्वारा
व्यवहार नहीं
किया। आप अपना
व्यवहार जारी
रख रहे हैं।
आपके भीतर जो
व्यवहार पैदा
हो रहा है वह
उसकी गाली का
यांत्रिक
परिणाम नहीं
है, चेतनगत
प्रत्युत्तर
है। इन दोनों
में बड़ा फर्क
है।
एक
बिजली का बटन
हम दबाते हैं, पंखा चल
पड़ता है। पंखा
सोचता नहीं, चलूं, न
चलूं। बटन दबायी
तो चलता है, फिर बटन
दबायी तो बंद
हो जाता है।
आपको गाली दी--बटन
दबायी, आप
क्रोधित हो
गए। आपकी
प्रशंसा
की--बटन दबायी,
क्रोध चला
गया। तो आप
व्यक्ति हैं
या यंत्र हैं?
आप जो
व्यवहार कर
रहे हैं वह
यंत्र जैसा
है। रिएक्शन
यांत्रिकता
है, प्रतिक्रिया
यांत्रिकता है।
प्रतिसंवेदन
चैतन्य का
प्रतीक है।
प्रतिसंवेदन
बड़ी और बात
है।
जीसस
को लोगों ने
सूली दी और जब
अंतिम क्षण में
जीसस से कहा
गया कि
प्रार्थना
करो परमात्मा से, तो उन्होंने
प्रार्थना की
कि इन सब
लोगों को माफ
कर देना
क्योंकि
इन्हें पता ही
नहीं कि ये क्या
कर रहे हैं।
यह
प्रतिसंवेदन
है। यह रिस्पांस
है। यह एक चेतनगत
उत्तर है।
किसी को सूली
दी जा रही हो
उससे यह प्रतिक्रिया
नहीं हो सकती।
उससे
प्रतिक्रिया
तो यह होती है
कि वह गाली
देता, कर्स करता, अभिशाप
देता कि मिटा
डालना इन सबको;
हे
परमात्मा, तेरे
प्यारे बेटे
को ये सब सूली
पर लटका रहे
हैं। आग लगा
देना, नर्क
में जला डालना
इनको--यह
प्रतिक्रिया
होती, यह
यांत्रिक
होती। जीसस ने
कहा, माफ
कर देना इन
सबको क्योंकि
इनको पता ही
नहीं कि ये
क्या कर रहे
हैं। यह
प्रतिसंवेदन
है, यह चेतनगत
उत्तर है।
इसलिए
जिस व्यक्ति
को साधना की
दुनिया में
प्रवेश करना
है, जिसे
संन्यास की
यात्रा करनी
है, उसे
प्रतिपल
ध्यान रखना
चाहिए कि वह
जो कर रहा है
वह
प्रतिक्रिया
है या
प्रतिसंवेदन
है। वह रिएक्शन
है या रिस्पांस
है। रास्ते पर
एक आदमी का
धक्का लग गया
है तब एक क्षण
रुक जाइये।
जल्दी भी क्या
है उत्तर देने
की। एक क्षण
रुक जाइये और
देख लीजिये कि
जो आप उत्तर
दे रहे हैं वह
यांत्रिक है
या सचेतन है।
और आप मुश्किल
में पड़
जाएंगे। आप
यांत्रिक उत्तर
फिर नहीं दे
पायेंगे। हो
सकता है हंसकर
अपने रास्ते
पर चले जायें,
उत्तर दें
ही नहीं। यह
भी उत्तर
होगा। लेकिन हम
इतना भी मौका
नहीं देते।
इधर बटन दबी, उधर काम
हुआ। इधर
धक्का लगा, उधर क्रोध
निकला। उधर
किसी ने
प्रशंसा की, इधर हम
गुब्बारे की
तरह फूले।
बर्ट्रेंड
रसल के संबंध
में एक मजाक
चल गया है।
मजाक ही कहना
चाहिए, क्योंकि
पता नहीं उसने
ऐसा किया कि
नहीं किया।
सुना है मैंने
कि मरते वक्त
उसके मुंह से
निकला, "हे
परमात्मा!' पास में एक
पादरी खड़ा हुआ
था। वह तो
बहुत चकित हुआ।
वह बहुत
डरते-डरते तो
आया था।
क्योंकि बर्टें्रड
रसल तो
परमात्मा को
मानता नहीं, इसलिए उससे रिपेंटेंस
के लिए, आखिरी
प्रायश्चित
के लिए कैसे
कहे। वह डरा
हुआ खड़ा है।
और जब आखिरी
क्षण में रसल
के मुंह से
निकला, हे
परमात्मा, तो
उसकी हिम्मत
बढ़ी। उसने कहा
कि क्या तुम
परमात्मा को
मानते हो? तो
बर्ट्रेंड
रसल ने आंख
खोली और कहा
कि तुम कौन हो!
उसने कहा कि
मैं पादरी
हूं। डरा हुआ
खड़ा हूं। मैं
आया था कि
प्रायश्चित
करवा दूं, लेकिन
सोचा कि तुम
तो परमात्मा
को मानते ही
नहीं। अच्छा
है तुम मानते
हो, तो
प्रायश्चित
कर लो। तो रसल
ने कहा, घर
आए मेहमान को
वापस लौटाना
ठीक नहीं, इसलिए
मैं
प्रायश्चित
करता हूं। और बर्टें्रड
रसल ने कहा कि
"हे परमात्मा,
यदि कोई
परमात्मा हो,
तो मेरी
आत्मा को
क्षमा कर देना,
यदि मेरी
कोई आत्मा हो!'
उस पादरी ने
कहा, यह
तुम क्या कर
रहे हो? तो
रसल ने कहा कि
बिना सोचे मैं
कुछ भी नहीं
कर सकता हूं।
मुझे पता नहीं
परमात्मा है
या नहीं, मुझे
पता नहीं कि
आत्मा है या
नहीं। तो
ज्यादा से
ज्यादा मैं
"यदि' की
भाषा में बोल
सकता हूं।
"यदि परमात्मा
हो तो क्षमा
कर दे इस बर्टें्रड
रसल को, यदि
बर्टें्रड
रसल हो।'
यह
आदमी मृत्यु
के प्रति भी
रिएक्शन नहीं
कर रहा है। यह
आदमी मृत्यु
के प्रति भी रिस्पांस
कर रहा है। यह
आदमी मृत्यु
के क्षण में
भी घबरा नहीं
गया है।
एक
मित्र हैं, बड़े पुराने
विचारक हैं, बड़े पंडित
हैं, कृष्णमूर्ति
को निरंतर
सुनते हैं। तो
मुझसे एक दफा
उन्होंने कहा
कि अब तो मेरे
मन से सब हट गया--राम,
ॐ, मंत्र,
सब हट गए।
मैंने पूछा, पक्के हट गए
हैं? उन्होंने
कहा, बिलकुल
हट गए हैं। अब
तो मेरे मन
में कोई जगह नहीं
रही। न मैं
भजन करता हूं,
न मैं भगवान
का नाम लेता
हूं, क्योंकि
उसका कोई नाम
नहीं है। उसका
कोई भजन नहीं
है। मैं
कृष्णमूर्ति
को सुनता हूं।
मुझे बात
बिलकुल समझ
में आ गई।
मैंने कहा, आ गयी तो बड़ा
अच्छा है।
लेकिन आप इतने
जोर से कह रहे
हैं कि बिलकुल
समझ में आ गई, तो भीतर
कहीं न कहीं
संदेह होना
चाहिए। फिर भी
मैंने कहा, अच्छा है कि
आ गई।
दो-एक
महीने बाद
उनको हृदय का
दौरा हुआ।
उनके लड़के ने
मुझे खबर भेजी
कि वे बहुत
घबरा रहे हैं, आप आइए। मैं
गया। वे आंख
बंद किये हुए
हैं और राम-राम,
राम-राम कहे
चले जा रहे
हैं।
मैंने
उन्हें
हिलाया, और
कहा कि क्या
कर रहे हो? उन्होंने
आंख खोली और
कहा, पता
नहीं, मैं
भी थोड़ा सोचा,
लेकिन जैसे
लगा कि मौत
करीब है, मैंने
कहा, जाने
दो
कृष्णमूर्ति
को, मौत
करीब है और
फिर तो मेरे
बस में न रहा।
फिर तो मेरे
मुंह से
निकलने ही
लगा। अब यह
मैं कह नहीं
रहा हूं, यह
हो रहा है। यह
सिर्फ हो रहा है।
घबराहट में
राम-राम निकल
रहा है।
अब यह
रिएक्शन है।
अब यह आदमी
भगवान को माननेवाला
है, लेकिन
रिएक्शन कर
रहा है। और
बर्ट्रेंड
रसल भगवान को माननेवाला
नहीं है, लेकिन
रिस्पांस
कर रहा है। और
मैं मानता हूं,
बर्टें्रड रसल किसी
दिन भगवान को
पा सकता है।
लेकिन यह आदमी
भगवान को किसी
दिन नहीं पा
सकता है।
क्योंकि जो
व्यक्ति
सचेतन
व्यवहार कर
रहा है जीवन के
प्रति वह आदमी
आत्मवान होने
का सबूत दे
रहा है।
बर्टें्रड
रसल का यह
वक्तव्य कि
यदि कोई आत्मा
हो, और हे
परमात्मा, यदि
कोई परमात्मा
हो, तो माफ
कर देना, बड़ा
सचेतन
वक्तव्य है।
बड़ा आत्मवान
वक्तव्य है।
आत्मा के
संबंध में भी
"यदि' लगाने
वाला व्यक्ति,
मरते क्षण
में परमात्मा
के संबंध में
भी "यदि' लगानेवाला
व्यक्ति, अपने
आत्मवान होने
की पूरी सूचना
दे रहा है। भयभीत
नहीं है।
मृत्यु से
घबरा नहीं गया
है। जो उसकी
चेतना कह रही
है वह उसके
साथ पूरा-पूरा
खड़ा है। यह
प्रतिसंवेदन
है। यह
प्रत्युत्तर
है, लेकिन
यह सचेतन है।
यांत्रिक
प्रत्युत्तर
सचेतन नहीं है,
जड़ है।
इतना
फर्क अगर
स्मरण रहे तो रिएक्शंस
से बचना, रिस्पांस की ओर बढ़ना
है; प्रतिक्रिया
से बचना, प्रत्युत्तर
की तरफ बढ़ना
है। और जिस
दिन जीवन
सचेतन
प्रत्युत्तर
बन जाता है, उसी दिन
जीवन में आत्मवानता
पैदा होती है।
और ऐसा
आत्मवान
व्यक्ति ही
परमात्मा को
पाने में किसी
दिन समर्थ हो
पाता है।
शेष
कल!
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