अध्याय—18
सूत्र—
यदहंकारमाश्रित्य
न योत्स्य
इति मन्यसे।
मिथ्यैष
व्यवसायस्ते
प्रकृतिस्थ्यां
नियोक्ष्यति।।
59।।
स्वभावजेन
कौन्तेय
निबद्ध: स्वेन
कर्मणा।
कर्तुं
नेच्छीस
यन्महात् कीरष्यवशेउपि
तत्।। 60।।
र्इश्वर:
सर्वभूतानां
हद्देशेऽर्जुन
तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि
यन्त्रारूढानि
मायया।। 61।।
तमेव
शरणं गच्छ
सर्वभावेन
भारत।
तत्प्रसादात्
परां शान्ति
स्थानं
प्राप्स्यसि
शाश्वतम।। 62।।
इति ते
ज्ञानमाख्यातं
गुह्माशह्यतरं
मया।
विमृश्यैतदशेषेण
यथेच्छसि तथा
कुरु।। 63।।
और
जो तू अहंकार
को अवलंबन
करके ऐसे मानता
है कि मैं
युद्ध नहीं
करूंगा, तो यह
तेरा निश्चय
मिथ्या है,
क्योंकि क्षत्रियपन
का स्वभाव
तेरे को
जबरदस्ती
युद्ध में लगा
देगा। और हे
अर्जुन,
जिस कर्म को
तू मोह से
नहीं करना
चाहता है उसको
भी अपने
पूर्वकृत
स्वाभाविक
कर्म से बंधा
हुआ परवश होकर
करेगा।
क्योंकि
है अर्जुन,
शारीररूप
यंत्र में
आरूढ़ हुए,
अंपूर्ण
प्राणियों को
परमेश्वर
अपनी माया से, उनके
कर्मों के
अनुसार
भ्रमाता हुआ, सब भूत—प्राणियों
के ह्रदय में
स्थित है।
इसलिए
हे भारत, सब
प्रकार से उस
परमेश्वर की
ही अनन्य शरण
को प्राप्त हो?
उस
परमात्मा कीं
कृपा से ही
परम शांति को
और सनातन परम
धाम को
प्राप्त होगा।
इस
प्रकार यह
गोयनीय से भी
अति गोपनीय
ज्ञान मैने
तेरे लिए कहा।
इस
रहस्ययुक्त
ज्ञान को संपूर्णता
से अच्छी
प्रकार विचार
करके, फिर तू जैसा
चाहता है? वैसा
ही कर।
पहले
कुछ प्रश्न।
पहला
प्रश्न :
निष्काम
कर्मयोगी संपूर्ण
कर्मों को
करता हुआ
अविनाशी पद को
उपलब्ध हो, यह गीता
की साहसी
परिकल्पना थी।
आपने शायद
पहली बार
व्यापक
पैमाने पर
संन्यास को
संसार के बीच
खड़ा कर उस
परिकल्पना को
साकार किया है।
गीता—दर्शन के
समापन सत्र
में इस कठिन
साधना में
हमारा मार्ग
दर्शन करें।
निश्चय ही, गीता की
परिकल्पना
जितनी महत है,
उतनी ही
दुस्साहसपूर्ण
भी। संसार
आसान है, संन्यास
के बिना।
संन्यास भी
आसान है, संसार
के बिना।
दोनों को अलग
रखें, गणित
सीधा—साफ है।
लेकिन अलग—
अलग दोनों ही
अधूरे हैं।
संन्यासी
जो संसार को
छोड्कर
संन्यासी है, पंगु है,
लंगड़ा है, आधा है। यदि
कुछ छोडना पड़े,
तो
परिपूर्ण
परमात्मा
स्वीकार नहीं
हुआ। यदि कुछ
छोड़ना पडे, तो समर्पण
पूरा नहीं हुआ।
यदि कुछ छोड़ना
पड़े, तो
कुछ छोड़ने
योग्य था, परमात्मा
पूरा का पूरा
ही वरणीय न था;
अस्तित्व
समग्र का
समग्र ही
स्वीकार न था,
इस बात की
घोषणा है।
जो
संसार को छोड़ता
है, वह
परमात्मा को
भी पूरा
स्वीकार नहीं
करता। उसने
अपने विचार को
परमात्मा के
ऊपर रखा, उसने
अपनी चितना को
परमात्मा से
भी श्रेयस्कर
समझा। वह
निर्णय कैसे
लेता है संसार
को छोड़ने का?
परमात्मा
ने अब तक
संसार छोड़ा
नहीं! छोड़ दे, संसार
तिरोहित हो
जाए।
परमात्मा
बनाए ही जाता
है। महात्मा
कहे जाते हैं,
संसार
व्यर्थ है, असार है।
परमात्मा
संसार बनाए ही
चला जाता है।
उस खेल से वह
थकता नहीं; उस खेल से वह
विरत नहीं
होता!
एक बात
तय है, कितने
ही महात्माओं
ने संन्यास
लिया हो संसार
छोड्कर, परमात्मा
ने अभी तक
संन्यास नहीं
लिया है संसार
छोड्कर। अब भी
उसका रस कायम
है। वह उसी
आनंद से अब भी
सृजन किए जाता
है, जैसा
कभी अतीत में
किया हो या
कभी वह भविष्य
में करे। उसके
रस में एक
बूंद भी कम
नहीं हुई है।
उसकी रस— धार
वैसी ही बही
चली जाती है।
अब भी
फूलों को
बनाते समय वह
बेमन से नहीं
बना रहा है! अब
भी पक्षियों
के कंठ में
गाते समय वह बेमन
से नहीं गा
रहा है! अब भी
तुम्हारे
हृदय में वह
वैसा ही धड़कता
है, उसी
ताजगी, उसी
आशा, उसी
स्वप्न से, जैसा सदा
धड़का है!
गुरजिएफ
ने कहा है और
महत्वपूर्ण
रूप से कहा है
कि सभी धर्म परमात्मा
के विरोध में
हैं।
इस बात
में थोड़ी सचाई
है। क्योंकि
जो भी सिखाता
है, संसार
छोड़ दो, वह
कहता है, परमात्मा
को आधा छोड़ दो।
बनाने वाले को
स्वीकार करो,
लेकिन जो
उसने बनाया है,
उसे इनकार
कर दो। यह तो
ऐसे ही हुआ कि
तुमने कवि की
प्रशंसा की और
उसकी कविता की
निंदा की।
अब यह
थोड़ा समझने
जैसा है। अगर
कविता की
निंदा कर रहे
हो, तो
कवि की
प्रशंसा
असंभव है, क्योंकि
वह कवि है
कविता के कारण।
उसके काव्य
में ही प्रकट
हुआ है उसके
भीतर का महिमावान
स्वर; उसके
प्राणों का
गीत पंक्तिबद्ध
हुआ है। उन
पंक्तियों को
तुम अस्वीकार
करते हो!
यह ऐसे
ही है, जैसे
गीतांजलि को
तो कचरे में
फेंक दो और
रवींद्रनाथ
का गुणगान करो।
यह बात बड़ी
बेहूदी है, असंगत है।
क्योंकि
रवींद्रनाथ
का मूल्य ही
क्या है! मूल्य
ही प्रकट हुआ
है गीतांजलि
से। यह बात
जरूर सच है कि
रवींद्रनाथ
पूरे—पूरे गीतांजलि
में नहीं समा
गए हैं। और
बड़ी गीतांजलियां
पैदा हो सकती
हैं। लेकिन गीतांजलि
में भी उन्हीं
के हाथ हैं, उन्हीं के
हस्ताक्षर
हैं।
परमात्मा
संसार से
विराट है, बड़ा है।
स्वभावत:, कवि सदा
बड़ा होगा अपनी
कविता से, क्योंकि
कविता तो उसकी
अनंत
संभावनाओं
में से एक है।
अनंत कविताएं
पैदा हो सकती
हैं। किसी
कविता पर उसका
काव्य— धर्म
चुक नहीं जाता
है। वस्तुत:
हर कविता के
द्वारा उसका
काव्य— धर्म
और निखरता है;
झरना और
बहता है; पत्थर
और हट जाते
हैं द्वार से।
जैसे—जैसे
काव्य में कवि
उतरता है, वैसे—वैसे
उसकी कविता
ज्यादा
गरिमापूर्ण, गर्भवती
होने लगती है।
तो कोई
कवि कविता पर
चुक नहीं जाता।
लेकिन कोई कवि, अगर तुम
उसकी कविता को
ही अस्वीकार
कर दो, तो
सार्थक भी
नहीं रह जाता।
मूर्ति को तो
इनकार कर दो
और मूर्तिकार
को स्वीकार
करो, तुमने
बड़ी तरकीब से
मूर्तिकार को
अस्वीकार कर
दिया।
दोस्तोवस्की
का एक पात्र, उसकी बड़ी
अनूठी पुस्तक
ब्रदर्स
कर्माजोव में
परमात्मा से
कहता है कि तू
तो मुझे
स्वीकार है; तेरा संसार
नहीं।
लेकिन
यह स्वीकृति
कैसी है! फिर
परमात्मा क्यों
स्वीकार है, अगर उसका
संसार
स्वीकार नहीं?
संसार के
अतिरिक्त
तुमने
परमात्मा की
छवि कहां देखी
है? संसार
के अतिरिक्त
तुमने उसके
पदचाप कहां सुने
हैं, चरण
कहा देखे हैं?
संसार के
अतिरिक्त, अगर
संसार बिलकुल
ही खो जाए, क्या
तुम्हें
परमात्मा की
परिकल्पना भी
पैदा हो सकती
है?
संसार
में ही तो
तुमने उसका
आभास पाया है, उसकी छाया
देखी है, उसका
प्रतिबिंब
पकड़ा है।
संसार ही तो
दर्पण बना है,
जिसमें
तुमने पहली
बार उसे
पहचाना है; धुंधला सही,
साफ नहीं; लेकिन उसके
अतिरिक्त तो
कोई पहचान ही
नहीं है।
और जब
भी कोई कहता
है, तू
तो मुझे स्वीकार
है, तेरा
संसार नहीं, तब वह बडी चालबाजी
कर रहा है। हो
सकता है, उसे
स्वयं भी पता न
हो कि वह क्या कह
रहा है। यह चालबाजी
अचेतन हो।
शायद वह खुद
भी चौंके अगर
हम उससे कहें
कि तू यह क्या कह
रहा है! तू बड़े
होशियार ढंग
से परमात्मा
को अस्वीकार
कर रहा है।
इससे तो वह
नास्तिक ही
बेहतर, जो
कहता है, कोई
परमात्मा
नहीं है, यही
संसार सब कुछ
है।
इसे जरा
सोचो। जो कहता
है, कवि का
तो हमें कुछ पता
नहीं है, यह
कविता मधुर है।
यह भी कवि का
थोड़ा गुण गान कर
रहा है।
उस
आस्तिक से तो
बेहतर है, जो कहता
है, तेरा
संसार
अस्वीकार; तू
स्वीकार है।
तब तो तुम परमात्मा
के ऊपर अपने को
रखते हो। तुम
निर्णायक हो,
तुम
न्यायाधीश हो।
तुम निर्णय
लेते हो, क्या
ठीक है, क्या
गलत है। और
तुम परमात्मा
को
प्रमाणपत्र
देते हो कि तू
ठीक है, तेरे
संसार में कुछ
ठीक दिखाई
पड़ता नहीं।
बहुत
आसान है संसार
को छोड्कर भाग
जाना। संसार
को छोड्कर
संन्यास आसान
है। आसान
इसलिए है कि
तुमने
विरोधाभास
छोड़ दिया।
तुमने जो
पहेली थी, वह छोड़ ही
दी, उसका हल
नहीं किया है।
ध्यान
रखना, पहेली
को छोड़ देने
और हल करने
में बड़ा फर्क है।
छोड्कर भाग
जाना हल करना
नहीं है। वह
तो हल करने के
प्रयास से भी
बच जाना है।
तो
दुनिया में
संन्यासी हुए
जिन्होंने संसार
छोड़ दिया।
उनके जीवन में
एक तरह की
सरलता आ जाएगी।
मेरे मन में
उस सरलता की
बहुत प्रशंसा
नहीं है।
क्योंकि वह
सरलता अनुभव—पकी
नहीं है। वह
सरलता संसार
की भट्टी से
गुजरी नहीं है।
वह सरलता छोटे
बच्चे की
भांति हो सकती
है, लेकिन
संत की भांति
नहीं है।
छोटे
बच्चे सरल
होते हैं, इसलिए
नहीं कि सरलता
उन्होंने
अर्जित की है,
इसलिए कि
अभी जीवन का
अनुभव नहीं
हुआ है। उनकी
सरलता खो
जाएगी। आज
नहीं कल, जीवन
का अनुभव उनके
कुंवारेपन को
छीन लेगा।
उनकी अनलिखी
किताब जल्दी
ही जीवन के
अनुभव से लिख
जाएगी, गंदी
हो जाएगी। वे
बचा न पाएंगे
अपनी सरलता को।
वे जानते भी
नहीं हैं कि
सरलता क्या है।
उनकी सरलता
बेहोश है; उनकी
सरलता अचेतन
है।
जिन्होंने
संसार छोड़ा, पहाड़ी पर
भाग गए, उन्होंने
भी एक तरह की
सरलता पा ली।
वह बचपन जैसी
सरलता है। फिर
उन्हें भी डर लगता
है संसार में
वापस लौट आने
का। क्योंकि
वे जानते हैं
भलीभांति कि
संसार में गए
कि उनकी सरलता
खो जाएगी।
विनोबा
के सामने कोई
रुपया रखे, तो वे आंख
बंद कर लेते
हैं। रुपए से
इतना डर क्या
हो सकता है!
रुपए जैसी कमजोर
चीज से इतना
भय? रुपया
छूते नहीं।
रुपया अगर
मिट्टी ही है,
तो मिट्टी
को तो छूने से
इनकार नहीं
करते हो!
रुपया अगर
धातु ही है, तो और
धातुओं को तो
छूने से इनकार
नहीं करते हो!
रुपए से ही
ऐसी क्या
नाराजगी है!
नहीं; रुपए में
भय है।
नाराजगी नहीं
है, डर है।
रुपए में
संसार है।
रुपए में
संसार बीज की
तरह छिपा है।
रुपए के पीछे
पूरा संसार
चला आता है।
रुपए को जगह
दो, कि
तुमने पूरे
संसार को
आमंत्रण दे
दिया। फिर सब
चीजें धीरे—
धीरे चली
आएंगी। तुमने
बीज सम्हाला
कि वृक्ष हो
जाएगा। भय है।
आखिर
हिमालय पर
जाने से क्या
सार होता होगा? भय है।
संसार में
रहते हैं, तो
संसार कलुषित
करता है।
संसार में
रहते हैं, तो
भूल— भूल जाते
हैं सरलता को,
जटिल हो—हो
जाते हैं।
बेईमानी, धोखा,
प्रवंचना, सब पकड़ लेते
हैं।
अगर
बेईमानी, धोखा और
प्रवंचना पकड़
लेते हैं, इस
कारण कोई भाग
गया है, तो
वह इनसे मुक्त
नहीं हुआ है।
जब भी लौटेगा,
फिर पकड़ा
जाएगा। इस
जन्म में भाग
जाओगे, फिर
गर्भ बनेगा, फिर संसार
में आओगे।
इससे कुछ सार
नहीं है।
जीवन
की समस्या का
समाधान खोजना
है, और
पलायन समाधान
नहीं है। सरल
है, इससे
समाधान मत समझ
लेना। सरल
होने से कोई
चीज
श्रेयस्कर
नहीं हो जाती।
यद्यपि जब परम
समाधान फलित
होता है, तब
भी एक सरलता
बरसती है।
लेकिन वह
सरलता बड़ी और
है। उसका गुण
और, उसका
सौंदर्य और, उसका आनंद
और। और फर्क
क्या है?
फर्क
यही है कि वह
अनुभव कसी है।
उसको ही कृष्ण
दृढ़ वैराग्य
कहते हैं। वह
अनुभव पका है।
वह कच्चा फल
नहीं है, जो तोड़ लिया
गया हो। वह
पका फल है, जो
अपने से गिर
जाता है। उसने
सब ले लिया, जो वृक्ष से
लेना था; पा
लिया, जो
पाना था। अब
वह राजी है, तैयार है।
अब गिर जानें
को प्रतिपल
तैयार है। हवा
का जरा—सा
झोंका, या
झोंका न भी हो,
तो भी
गिरेगा।
संसार
से पककर जो
संन्यास
आविर्भूत
होता है, वह पका फल है।
वह दृढ़
वैराग्य है।
कठिन
लगेगा, क्योंकि
कठिनाई से
गुजरना होगा।
पर ध्यान रखना,
जीवन में
कुछ भी मुफ्त
नहीं मिलता।
हर चीज के लिए
चुकाना पड़ता
है। और
वास्तविक
संन्यास पाना
हो, तो बड़ी
कठिनाइयों से
गुजरना पड़ता
है।
भागना
कोई कठिनाई है? वह कायर
की जीवन—दृष्टि
है। उससे कुछ
भी हल नहीं
होता। वह
शुतुरमुर्ग
का तर्क है।
शुतुरमुर्ग
देखता है, कोई
हमला करने आ
रहा है, सिर
रेत में गड़ाकर
खड़ा हो जाता
है। दुश्मन
दिखाई नहीं
पड़ता; शुतुरमुर्ग
प्रसन्न हो
जाता है कि
झंझट मिटी। न
दिखेगा, न
है।
तुम
भाग जाओगे
जंगल में, संसार
रहेगा, मिट
नहीं गया। बीज
में रहेगा, तुम्हारे
भीतर रहेगा, तुम्हारी वासना
में रहेगा, तुम्हारी आकांक्षा
में रहेगा, तुम्हारे भय
में रहेगा।
तुम कैसे दूर—दूर
भागते रहोगे?
कब तक भागते
रहोगे? तुम्हें
वापस बार— बार
लौट आना पड़ेगा।
और तुम्हारे
मन में भी
संसार के ही
विचार चलेंगे,
संसार की ही
हवाएं बहेंगी।
तुम उनसे ही
जूझोगे, उनसे
ही लड़ोगे।
तुमने
संतों की जीवन—कथाएं
पढ़ी हैं जो
संसार को भाग
गए हैं छोड्कर, तो उनकी
कल्पना में
संसार कैसे
हमले करता है! ईसाई
महात्माओं के
जीवन हैं; तो
शैतान हजार
तरह के हमले
करता है। वह
शैतान कोई भी
नहीं है। वह
तुम्हारी ही
विचार—वासनाएं
हैं, जो
अधूरी रह गयी
हैं, विकृत
हो गयी हैं, विकराल हो
गयी हैं। पक
नहीं पायी हैं,
घाव बन गयी
हैं; उनका
ही हमला होता
है।
बुद्ध
की जीवन—कथा
है कि बुद्ध
जब ध्यान के
लिए बैठते हैं, तब मार, कामदेव
सताता है। वह
आता है हजार
रूपों में, डिगाता है।
कोई कामदेव
कहीं है नहीं।
अगर कहीं
कामना अधूरी
रह गयी है, तो
ही सताएगी। जो
अधूरा रह गया,
वही दुख—स्वप्न
बन जाता है।
जो पक गया, उसमें
से तो सोना
निकल आता है।
जो अधूरा रह
गया, वह
घाव हो जाता
है। वह रिसता
है, उसमें
मवाद बनती है,
उसमें पीड़ा
पलती है।
पर सरल
दिखता है
पलायन, हमेशा सरल
दिखता है
पलायन। घर में
पत्नी बीमार
पड़ी है, इलाज
करना है, दवा
लानी है; तुम
भाग गए, सिनेमा
में बैठ गए।
तीन घंटे के
लिए भूल गए, सही। बच्चा
मर रहा है, इलाज
करना है, चिकित्सा
करनी है, तुम
मंदिर चले गए।
घडीभर भजन—कीर्तन
में अपने को
डुबा लिया; भूल गए। पर
इससे कुछ हल
नहीं होता।
बच्चा मर रहा
है, पत्नी
बीमार पड़ी है,
घर में भूख
है; भाग—
भागकर तुम कहा
जाओगे? यही
भगोड़ा तो
शराबखाने
पहुंच जाता है,
शराब पी
लेता है। जीवन
में समस्याएं
हैं, यह
शराब पीकर बैठ
जाता है!
अगर तुम
ठीक से समझो, तो भागने
वाले
संन्यासी का
ढंग और शराबी
का ढंग एक ही
है, अलग—अलग
नहीं है। वे
दोनों यह कह
रहे हैं कि
किसी तरह भाग
जाना है।
संन्यासी
भौगोलिक रूप
से भागता है, शराबी
मानसिक रूप से
भागता है, लेकिन
दोनों भाग रहे
हैं। जीवन की
स्थिति
घबड़ाने वाली
है। वह दिखाई
न पड़े, आंख
बंद हो जाए।
सूरदास
की कथा है।
मैं नहीं
जानता, कहां तक सही
है। सही हो, तो सूरदास
बिलकुल बेकार
हो जाते हैं।
सही न हो, तो
ही कुछ सार है।
कथा है कि आंखें
फोड़ लीं, क्योंकि
आखों से सुंदर
स्त्रियां
दिखाई पड़ती
हैं। सुंदर
स्त्रियां
दिखाई पड़ती
हैं, तो
वासना उठती है।
वासना उठती है,
तो मन
विकारग्रस्त
होता है। मन
विकारग्रस्त
होता है, तो
परमात्मा का
स्मरण नहीं हो
पाता। आंखें
फोड़ लीं! क्या
तुम सोचते हो,
आंख फोड़
लेने से वासना
चली गयी होगी?
और भी
प्रगाढ़ हो गयी
होगी। आंख बंद
करके देख लो। आंख
बंद करने से
वासना चली
जाएगी? तो आंख
फोड़ने से कैसे
चली जाएगी?
वासना आंख
के कारण थोड़े
ही पैदा होती
है; वासना
के कारण आंख
पैदा होती है।
वासना गहरी है,
आंख से
ज्यादा गहरी
है। आंख तोड़
दो, हाथ
काट दो, इससे
कुछ फर्क न
पड़ेगा। कान
बहरे कर लो, इससे कुछ
फर्क न पड़ेगा।
सब इंद्रियों
को जला डालों,
लेकिन तुम
जब तक हो, सारी
वासना रहेगी।
वासना
तुममें है।
इंद्रियां तो
उपकरण हैं, जो
तुम्हारी
भीतर की वासना
ने निर्मित
किए हैं, अपने
को पूरा करने
के लिए उसने
उपकरण बनाए
हैं।
उपकरणों
को तोड्ने से
क्या होगा!
फिर तुम नए उपकरण
बना लोगे।
इसीलिए तो हर
जन्म में तुम
बार—बार उपकरण
बनाते हो। तो
सरल भला दिखाई
पड़े, भगोड़ा
संन्यास
संन्यास ही
नहीं है। अगर
कभी भागे हुए
लोगों में से
भी कुछ लोग
उपलब्ध हो गए
हैं, तो
तुम इससे यह
मत समझ लेना
कि वे भागने
के कारण
उपलब्ध हो गए
हैं। वे भागने
के बावजूद
उपलब्ध हो गए
हैं।
मेरा
मतलब ठीक से
समझ लेना, क्योंकि
बुद्ध और
महावीर भी
भागे हैं। फिर
भी वे उपलब्ध
हो गए हैं, इसमें
कोई शक नहीं
है। लेकिन
भागने के कारण
उपलब्ध नहीं
हो गए हैं, भागने
के बावजूद
उपलब्ध हो गए
हैं।
ऐसा
समझो कि तुम
यहां चलकर आए
हो और एक
दूसरा आदमी
सड़क पर लोटता
हुआ आया है।
वह लोटने के
कारण यहां तक
नहीं आ गया है; लोटने के
बावजूद आ गया
है। तुम चलते
हुए आ गए हो, वह लोटता
आया है, कोई
घसिटता आया है।
किसी ने अपने
पैर काट डाले
हैं, वह
बिना पैर के
सरकता हुआ आया
है। इससे तुम
यह मत सोचना
कि सरकने के
कारण यहां आ गया
है, पैर
काटने के कारण
यहां आ गया है,
पैर काटने
के बावजूद आ
गया है। यह
चमत्कार है कि
वह आ गया है।
यह अपवाद है
कि वह आ गया है।
जिन
लोगों ने
संसार छोड्कर
संन्यास लिया
और संन्यास से
सत्य को पाया, वे अपवाद
स्वरूप हैं; उनको तुम
नियम मत बनाना।
ऐसे कुछ लोग
हैं। वे
महाशक्तिशाली
हैं। शायद
इसीलिए
विपरीत मार्ग
से भी पहुंच
गए हैं।
ऐसा
समझो कि
तुम्हें मेरे
पास आना है, तो तुम
पूरब चलकर आते
हो। और कोई
आदमी पूरब तो
नहीं चलता
मेरे पास आने
के लिए, पश्चिम
चलता है। वह
भी आ जाएगा, अगर चलता ही
रहा। लेकिन
सारी पृथ्वी
का चक्कर
लगाकर आ पाएगा।
इससे तुम यह
मत समझना कि
पश्चिम चलना
मार्ग है यहां
आने का। पूरब
चलकर दस कदम
में जो घटना
घट जाती थी, पश्चिम चलकर
हजारों मील
में घटेगी।
लेकिन अगर कोई
चलता ही रहा, चलता ही रहा,
तो पहुंच
जाएगा। हजार
चलेंगे, एक
पहुंचेगा। नौ
सौ निन्यानबे
रास्ते में
गिरेंगे और खो
जाएंगे।
इसलिए
तो महावीर और
बुद्ध के पीछे
हजारों लोग चले, लेकिन
बहुत कम लोग
पहुंच पाए।
महावीर और
बुद्ध पहुंच
गए, वे बड़े
असाधारण
पुरुष हैं। वे
चलते ही रहे।
कितनी ही लंबी
यात्रा थी, लेकिन वे
करते ही रहे।
वे नहीं
पहुंचे, ऐसा
मैं नहीं कहता
हूं लेकिन
उनके पहुंचने
को तुम नियम
मत मानना। वह
अपवाद है, चमत्कार
है। होना नहीं
चाहिए था और हुआ
है। उससे गणित
नहीं बनता।
उससे सामान्य
यात्री के लिए
सूत्र नहीं
मिलते।
भागना
सरल दिखाई
पड़ता है। ऐसे
बहुत कठिन है
वह भी, क्योंकि
भागने की वजह
से पहुंचना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
ऊपर से सरल
दिखाई पड़ता है।
दिखावे के
धोखे में मत
पड़ना। समस्या
को हल ही करना
उचित है।
कितनी ही
कठिनाई लगे हल
करने में, हल
कर लेना ही
उचित है।
क्योंकि उस हल
करने के
माध्यम से ही
तुम बढ़ोगे, विकसित
होओगे।
तुम्हारी
जीवन—संपदा
खुलेगी। तुम
अपनी ही अंतर—आत्मा
के मालिक
बनोगे।
भागना
ऊपर से सरल
दिखाई पड़े, पीछे
बहुत
कठिनाइयों
में ले जाएगा।
और पहुंचना
असंभव हो
जाएगा।
तो एक
तो सरल बात
दिखाई पड़ती है, संन्यास
ले लो, छोड़
दो संसार। और
अक्सर गलत लोग
ही छोड़ते हैं।
जो यहां हार
जाते हैं, उदास
हो जाते हैं, जिनकी
अपेक्षाएं
पूरी नहीं
होतीं; जो
बड़ी महत्वाकांक्षा
से भरे थे और
महत्वाकांक्षा
पराजित हो
जाती है, टूट
जाती है; जो
खंडहर की
भांति हो जाते
हैं; वे
भाग जाते हैं।
वे संसार को
छोड़ते हैं, ऐसा नहीं है।
उन्होंने जो
चाहा था, वह
संसार में
नहीं पाया; भागते हैं।
चाह को नयी
तरफ लगाते हैं।
जो उन्होंने
संसार में
पाना चाहा था,
अब वह ईश्वर
में पाना
चाहते हैं, मोक्ष में पाना
चाहते हैं।
उनका मोक्ष भी
संसार का ही
फैलाव है।
क्योंकि वे
कच्चे हैं।
मोक्ष तो पकी
हुई चेतना को
हो सकता है।
कच्ची चेतना
तो वही मांगती
रहेगी, जो
वह संसार में
मांग रही थी।
इसलिए इन्हीं
तरह के लोगों
ने स्वर्ग की
कल्पना की है,
जहां संसार
में जो नहीं
मिला, उस
सब सुख का
आयोजन कर लिया
है। यहां
सुंदर
स्त्रियां
नहीं मिलीं, तो स्वर्ग
में अप्सराएं
बना ली हैं।
यहां शराब
नहीं पी पाए, तो स्वर्ग
में शराब के
चश्मे बहा लिए
हैं। जो यहां
नहीं मिला, वह स्वर्ग
में बना लिया।
स्वर्ग
इसी तरह के
असफल लोगों की
कामना है।
स्वर्ग कहीं
है नहीं। वह
हारे हुए मनों
का स्वप्न है।
और इन्हीं
लोगों ने नर्क
की कल्पना की
है दूसरों के
लिए, जो
जीत गए हैं, जिनसे ये
हार गए हैं।
तुम पद की दौड़
में थे और
दिल्ली नहीं
पहुंच पाए, दूसरा पहुंच
गया। तो अपने
लिए तुम
स्वर्ग बना
लोगे, क्योंकि
तुमने संसार
त्याग कर दिया।
और जो दिल्ली
पहुंच गया, इसके लिए
तुम नर्क में
डालोगे।
क्योंकि
संसार की
सफलता नर्क
में ले जाती
है, ऐसी
तुम धारणा
करोगे।
तुम
अपने से
विपरीत को
नर्क में डाल
दोगे, आग
में जलाओगे, तेल के
कड़ाही में
भूनोगे, तलोगे।
और अपने को
स्वर्ग में
रखोगे, अप्सराएं
नाचेगी चारों
तरफ।
यह घाव
भरा मन है। यह
कच्चा फल है।
जो
वस्तुत: संसार
से पककर जाते
हैं, उनके
लिए स्वर्ग और
नर्क दोनों
नहीं हैं।
उनके लिए दो
और चीजें हैं,
संसार और
मोक्ष।
संसार
है तुम्हारा
अंधा होना।
संसार है
तुम्हारी आंख
का बंद होना।
मोक्ष है
तुम्हारी आंख
का खुल जाना।
संसार है
अंधेरा, मोक्ष है
प्रकाश।
संसार
और मोक्ष दो
हैं, ऐसा
कहना शायद ठीक
नहीं। संसार
और मोक्ष तो
एक ही हैं, तुम्हारे
देखने के ढंग
दो हैं। जब
तुम अज्ञान से
भरे हुए देखते
हो, तो वही
संसार है। और
जब तुम ज्ञान
से भरकर देखते
हो, तो वही
मोक्ष है। जीवन
तो एक है।
इसलिए
झेन फकीरों ने
कहा है, संसार और
मोक्ष दो नहीं
हैं। संसार ही
मोक्ष है।
दूसरा
वर्ग है, जो संसार को
पकड़कर बैठा
रहता है। एक
भागता है, एक
पकड़कर बैठा
रहता है। जो
पकड़कर बैठा
रहता है, वह
ईश्वर को
इनकार करता है।
यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है।
इनकार दोनों
करते हैं।
भागने वाला
संसार को
इनकार करता है, स्रष्टा
को स्वीकार
करता है।
संसार को
पकड़ने वाला
सृष्टि को
स्वीकार करता है,
स्रष्टा को
इनकार करता है।
पर दोनों के
भीतर इनकार है,
दोनों आधे—आधे
को मानते हैं।
संसार
को पकड़ने वाला
कहता है, कहां का
धर्म? कहां
का मोक्ष? कहां
का संन्यास? सब धोखा है, सब पाखंड है।
सब हारे हुए
लोगों के मन
की सांत्वना
है। मार्क्स
ने कहा है, अफीम
का नशा है।
कुछ है नहीं; हारे— थके
लोगों को अपने
आपको भुला
लेने का उपाय
है; शराब
है, अफीम
है, नशा है।
कोई परमात्मा
नहीं है। जो
संसार को
पकड़ना चाहता
है, वह
कहता है, कोई
परमात्मा
नहीं। उसे
परमात्मा से
डर लगता है।
क्योंकि अगर
परमात्मा है,
तो संसार को
ठीक से पकड़ न
पाएगा। अगर
परमात्मा है,
तो संसार
काफी नहीं है।
यह बात बेचैनी
पैदा करेगी।
अगर परमात्मा
है, तो
संसार से ऊपर
उठना है। तो
यात्रा जारी
रखनी पड़ेगी।
तो फिर अभी
मंजिल नहीं आ
गयी है।
जिसको
संसार पकड़ना
है, वह
परमात्मा से
भयभीत है।
जिसको
परमात्मा
पकड़ना है, वह
संसार से
भयभीत है।
लेकिन दोनों
भयातुर हैं।
संसार
पकड़ना भी आसान
मालूम पड़ता है, आसान है
नहीं। तुम सभी
जानते हो।
संसार में हो,
जानते हो, कितना ऊपर
से आसान दिखता
है, भीतर
कितना कठिन है।
हमने धोखा
दिया है ऊपर
से आसान बना
लेने का।
किसी
की शादी होती
है। बैड—बाजे
बजाते हैं; फूल, गीत—गान।
ऐसा ढंग देते
हैं, जैसे
कि स्वर्ग का
द्वार खुल रहा
है। खुलता
नर्क का द्वार
है। लेकिन एक
बार शादी हो
गयी किसी की, लोग आशीर्वाद
देकर विदा हो
गए। जो
आशीर्वाद
देकर विदा हो
जाते हैं, वे
भी भली— भांति
जानते हैं, क्योंकि यह
दुखद घटना
उनके साथ भी
घट चुकी है।
लेकिन फिर भी
चेहरे से
मुस्कुरा रहे
हैं, आशीर्वाद
दे रहे हैं!
और
हमारी
कहानियां हैं, जो कहती
हैं, युवक—युवती
की शादी हो
गयी, फिर
वे दोनों सुख
से रहने लगे।
यहीं खतम हो
जाती हैं।
फिल्में हैं,
जिनमें
यहीं परदा गिर
जाता है, नाटक
यहीं समाप्त
हो जाते हैं।
क्योंकि इसके
बाद जो असली
चीज शुरू होती
है, वह
दिखाने योग्य
नहीं है। वह
बहुत
दुखपूर्ण है।
उसको बताना
क्या! उसको
तुम जिंदगी
में ही देख लोगे।
जिंदगी ही उसे
बहुत दिखा
देगी।
तो
कहानी को तो
हम मधुर रखते
हैं। बस, शहनाई बजती
है, फूलमाला
डलती है और
परदा गिर जाता
है। और फिर हम
कहते हैं, वे
दोनों सुख से
रहने लगे!
उसके
बाद ही असली
दुख शुरू होता
है। उसके पहले
शायद थोड़ा—बहुत
सुख रहा हो, कम से कम
आशा में तो
रहा ही होगा, कल्पना में
रहा होगा, स्वप्न
में रहा होगा।
फिर सब स्वप्न
बिखर जाते हैं।
और ऐसा
ही ढंग पूरे
जीवन का है।
कोई
धनी हो जाता
है, तो
हम कहते हैं
कि कैसा
सौभाग्यशाली
है! शुभकामनाएं
करते हैं। और
हम कभी धनी के
मन से नहीं
पूछते कि तेरे
भीतर कैसे नर्क
खुल रहे हैं!
तू कैसी पीड़ा
में पड़ गया है!
न वह भोजन कर
सकता है, क्योंकि
धन कमाने में
भूख मर गयी।
धन इतना कमा
लिया कि भोजन
करने की
सुविधा ही न रही
जीवन में। धन
इतना कमा लिया,
उसकी दौड़—
धूप में इतने
व्यस्त हो गए
कि शरीर की
कौन फिक्र करे?
कौन भोजन
करे ठीक से? कौन ठीक से
सोए?
सदा
सोचा कि जब धन
कमा लेंगे, करोड़पति
हो जाएंगे, तब ठीक से
सोएंगे
बिस्तर लगाकर,
चादर तानकर।
लेकिन इस बीच
सोना ही भूल
गया। धन तो
हाथ में आ गया,
लेकिन नींद
नहीं आती। धन
तो हाथ में आ
गया, लेकिन
भूख नहीं लगती।
धन तो हाथ में
आ गया, लेकिन
अब इसका क्या
करें? क्योंकि
जीवन की सारी
की सारी शैली
विकृत हो गयी।
धनी से
पूछो उसका दुख।
न वह सो सकता
है, न वह
ठीक से भोजन
कर सकता है, न वह ठीक से
हंस सकता है, न रो सकता है।
तुम उसके
कारागृह को
समझ ही नहीं
पाते। तुम
शुभकामनाएं
लेकर जाते हो।
तुम कहते हो, धन्यभाग!
किए होंगे
पिछले जन्म
में पुण्य
कर्म, उनका
फल भोग रहे हो।
वह इसी
जन्म के पाप
कर्मों का फल
भोग रहा है।
तुम बता रहे
हो कि पिछले
जन्म में
पुण्य कर्म किए
होंगे, उसका फल भोग
रहे हो। लेकिन
वह भी ऊपर से
चेहरा बनाता
है। क्या सार
है अपने भीतर
के घाव खोलने
से! ऊपर मुस्कुराता
है, भीतर
कांटे बढ़ते
चले जाते हैं।
ऊपर झूठे फूल
लगाए चला जाता
है।
राजनीतिज्ञ
से पूछो; सफल हो जाता
है, पद पर
पहुंच जाता है।
हिटलर से पूछो,
मुसोलिनी
से पूछो, क्या
पाया है? सिवाय
पीड़ा के कुछ
भी नहीं पाया,
सिवाय
विक्षिप्तता
के कुछ भी
नहीं पाया।
जीवन एक
महानर्क हो
गया, एक
बड़ा दुख—स्वप्न,
जिसका कोई
अंत आता नहीं
मालूम होता।
और अंततः
आत्मघात हाथ
में रह जाता
है। लेकिन
इतिहास इनकी
कहानियां
लिखेगा और नए
बच्चों को
भरमाएगा।
इनको इतिहास
सफल पुरुषों
में गिनेगा, विजेता
कहेगा।
इतिहास—पुरुष
बन जाएंगे ये
पागल लोग, जिनका
नाम भी पोंछ
दिया जाना
चाहिए, कि
भविष्य में
किसी को याद
भी न रहे कि
हिटलर और
मुसोलिनी
जैसे लोग भी
हुए हैं।
लेकिन
अगर तुम
इतिहास को ऐसे
पोंछने लगो, तो
तुम्हारा
पूरा इतिहास
ही पुंछ जाएगा,
क्योंकि
सिवाय
युद्धों के, युद्ध में
जीतने और
हारने वालों
के और तो तुम्हारा
इतिहास कुछ भी
नहीं है।
बुद्ध
पुरुषों की तो
भनक भी उसमें
सुनाई नहीं
पड़ती। उसमें
तो पागलों का
ही शोरगुल
मालूम पड़ता
है! और पागल
इतने जोर से
चीखते, पुकारते,
चिल्लाते
हैं कि बुद्ध
पुरुषों के
वचन कहां खो
जाते हैं, पता
ही नहीं चलता।
एक तरफ
संसार है। वह
सरल लगता है, ऊपर से
पकड़ लेना। ऐसा
भीतर से इतना
सरल नहीं है।
इसलिए
जो भी संसार
में है, उसके मन में
संन्यास का
आकर्षण पैदा
होता है। वह
सोचता है, यहां
तो दुख पा रहा
हूं शायद वहां
सुख मिले।
विपरीत का
आकर्षण पैदा
होता है। यह
तो देख लिया, यहां तो दुख
पाया; शायद
सुख वहां हो।
इसलिए तुम
धनपतियों को,
संसारियों
को, राजनेताओं
को
संन्यासियों
के चरणों में
बैठे देखोगे।
ज्ञान—चर्चा
सुनने गए हैं!
सत्संग करने
गए हैं!
दिल्ली
में जितने
नेता हैं, सबके
गुरु हैं।
जरूरी है। वह
गुरु बिलकुल
आवश्यक है, वह सहारा है।
उससे यह लगता
है कि कोई
फिक्र नहीं है,
अभी दुख झेल
रहे हैं, जल्दी
ही हम भी इसी
यात्रा पर चले
जाएंगे। और जब
भी कोई
राजनेता हार
जाता है, तब
तो वह निश्चित
किसी गुरु की
तलाश में निकल
जाता है। जब
तक जीतता है, तब तक चाहे
फुरसत न भी
मिले, हारते
ही फुरसत
मिलती है। वह
भागता है।
खोजो किसी
बाबा को, किसी
के चरण को
पकड़ो। अब
सम्हालो
दूसरा सत्य; यह तो नहीं
सम्हला, और
इसमें तो दुख
पाया।
संसारी
के मन में
संन्यास का
आकर्षण बना
रहता है।
बादशाहों के
मन में भी, भिखारी
में मस्ती है,
इसका
आकर्षण बना
रहता है।
महलों में जो
रहते हैं, वे
ईर्ष्या करते
हैं उनसे, जो
झोपड़ों में
सोते हैं।
क्योंकि वे
सोते हैं।
उनकी नींद
देखने जैसी है,
उसका
सौंदर्य
अनूठा है।
घोड़े बेचकर
सोते हैं।
घोड़े
नहीं हैं उनके
पास। यह कहावत
उनके लिए लागू
है, जिनके
पास घोड़े हैं
ही नहीं। वे
घोड़े बेचकर
सोते हैं।
जिनके पास
घोड़े हैं, वे
तो सोते ही
नहीं। घोड़े
इतने
हिनहिनाते
हैं, सोए
कैसे! गरीब
सोता है, अमीर
के मन में
ईर्ष्या आती
है।
गरीब
को भोजन करते
देखो। जिस
उत्साह, जिस आवेश से
और जिस आनंद
से भूख उसे
पकड़ती है, उसके
लिए अमीर
ईर्ष्या से भर
जाता है। हजार
चिकित्साए
करवाता है, उपवास करता
है, प्राकृतिक
चिकित्सकों
तक के चक्कर
में पड़ जाता
है कि किसी
तरह भूख लग आए।
भूख नहीं लगती।
भूख मर गयी।
ईर्ष्या से
देखता है
भिखमंगे को, जिसके हाथ
में रूखी रोटी
है, लेकिन
जिसका पेट अभी
जवान है और
जिसके प्राण अभी
पचाते हैं।
स्वाभाविक
है कि विपरीत
का आकर्षण बना
रहे। भिखमंगा
बड़ी आशा और
आकांक्षा से
देखता है
महलों की तरफ, जरूर वहा
सुख बरस रहा
होगा! महलों
में रहने वाले
लोग भिखमंगे
की तरफ देखते
हैं। इसकी
ताजगी, इसके
चलने की रौनक,
इसकी मस्ती।
कमा लीं दो—चार
रोटी दिन में,
बस बात खतम
हो गयी। संसार
समाप्त हुआ।
फिर यह
संन्यासी है।
फिर यह बैठकर
अपनी ढपली पर
गीत गाता है।
यह रात देर तक
नाचता रहता है।
कल जैसे है ही
नहीं। क्या
फिक्र! कल फिर
मांग लेंगे, कल फिर भीख
मिल जाएगी।
भिक्षा—पात्र
काफी संपदा है।
उसको ही सिर
के नीचे तकिया
बनाकर रात सो
जाता है।
ईर्ष्या लगती
है।
तो जो
संसार को पकड़े
हुए है, वह संन्यास
के लिए हमेशा
ईर्ष्यातुर
रहेगा। उसके
मन में
संन्यासी की
आकांक्षा
रहेगी। वह
हमेशा खोजेगा
अपने से
विपरीत को और
सोचेगा कि
विपरीत में
आनंद है। और
यही हालत
संन्यासियों
की है।
मेरे
पास बुजुर्ग
से बुजुर्ग
संन्यासियों
का मिलना हुआ
है। वे भी
मुझसे एकांत
में यही कहे
हैं कि कभी—कभी
हमें शक होने
लगता है कि
हमने भूल तो
नहीं की सब
छोड्कर! सब
छोड़ तो दिया, पाया कुछ
भी नहीं। कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि संसार
से हटकर हमने
गलती कर ली!
कहीं ऐसा तो
नहीं है कि
संसार ही सब
कुछ था! कुछ और
है ही नहीं, मन की वंचना
है, धोखा है।
और
संन्यासी
देखता है, तो उसे
लगता है कि
संसारी सुखी
मालूम पड़ते
हैं। हंसते भी
हैं, नाचते
भी हैं, गीत
भी गाते हैं, उत्सव भी
होता है। तुम
समझ नहीं सकते
कि संन्यासी
के मन में तुम्हारे
प्रति
ईर्ष्या जगती
है! वह भी भीतर—
भीतर रस लेता
है कि शायद
वहीं सब कुछ
घट रहा है।
मैंने
सुना है कि एक
वेश्या और एक
संन्यासी आमने—सामने
रहते थे। एक
ही दिन मरे।
देवदूत
इकट्ठे हुए और
संन्यासी को
नर्क ले जाने
लगे और वेश्या
को स्वर्ग।
फिर किसी को
संदेह पैदा
हुआ, क्योंकि
संन्यासी
चिल्लाया, यह
क्या कर रहे
हो? कुछ
गलती हो गयी!
मुझे स्वर्ग
ले जाओ, मैं
संन्यासी हूं;
इस वेश्या
को स्वर्ग ले
जा रहे हो!
इससे ज्यादा
पापिनी, व्यभिचारिणी
कोई स्त्री न
थी। जरूर साथ
हम मरे हैं, साथ ही
आर्डर निकले
हैं; कहीं
कुछ भूल—चूक
हो गयी है, दफ्तरों
में अक्सर हो
जाती है। तुम
गलत जगह ले जा
रहे हो।
यात्रा
रोक दी गयी।
देवदूत भागे।
उनको भी शक
हुआ कि हो
सकता है, गलती तो
दिखती है।
लौटकर आए, कहा
कि कोई गलती
नहीं है। हमने
पूछा, तो
पता चला कि
संन्यासी ऊपर—ऊपर
संन्यासी था
और भीतर उसके
मन में ऐसा ही
होता था
निरंतर, जब
वह परमात्मा
की पूजा भी
करता था सुबह
अपने मंदिर
में, तो घंटी
तो परमात्मा
की प्रार्थना
में बजती थी, उसके हृदय
की घंटी
वेश्या के घर
ही बजती रहती थी।
पूजा करता था,
प्रार्थना
करता था, लेकिन
रस उसका
वेश्या में
लगा था। रात
राम—राम जपता
था, लेकिन
मन में यही
भाव होता था
कि वेश्या के
घर जो लोग
इकट्ठे हैं, आनंद ले रहे
होंगे! वहां
गीत होता, नाच
होता। वे जरूर
आंनदित हो रहे
हैं। मैं यहां
दुख में मरा
व्यर्थ ही राम—राम
जप रहा हूं।
मैंने अपने
हाथ यह
रेगिस्तान
चुन लिया। राम—राम
जपो और
रेगिस्तान
में रहो! कोई
मरूद्यान भी
पता नहीं चलता,
न कहीं राम
मिलते हैं।
वेश्या मजा
लूट रही है। वेश्या
के घर से उठते
हुए आनंद के, हंसी के
झोंके, और
ईर्ष्या भर
जाती।
और
वेश्या थी जो
कि निरंतर, जब भी
मंदिर की घंटी
बजती, संन्यासी
की पूजा—प्रार्थना
का शोर उठता, उसके राम—राम
का नाद गूंजता,
तो रोती कि
मैंने जीवन
ऐसे ही गंवा
दिया। काश, मैं भी किसी
मंदिर में
प्रविष्ट हो
जाती! मैं
शरीर में ही
रही; मैंने
कभी आत्मा की
खोज न की।
धन्यभागी है
यह संन्यासी!
ऐसे जो
संन्यासी था, वह
वेश्या के घर
में रहा मन से।
ऐसे जो वेश्या
थी, वह
संन्यासी के
मंदिर में रही
मन से। इसलिए
उन्होंने कहा,
भूल—चूक
नहीं हुई है।
हम पता लगाकर
आ गए।
उन्होंने कहा
कि ठीक ही है।
वेश्या को
स्वर्ग आना है,
क्योंकि
जहां तुम मन
से हो, वहीं
तुम हो।
शरीर
से होना भी
कोई होना है!
शरीर मंदिर
में हो सकता
है। अगर मन
वहा नहीं, उसको
क्या मंदिर
कहते हो!
मंदिर तो वहीं
है, जहां
मन हो। इसलिए
तो हमने उसे
मंदिर कहा है।
अगर मन ही वहा
नहीं है, तो
लाश पडी है।
उस लाश के
होने से कुछ
भी न होगा।
संन्यासी
अगर अधूरा भाग
जाए, तो
संसार खींचता
है; आकर्षण
कायम रहता है।
रहना ही चाहिए,
यह नियम है,
सीधी बात है।
संसारी
अगर भय के
कारण
परमात्मा को
इनकार कर दे, भय के
कारण कह दे, कोई धर्म
नहीं, कोई
मोक्ष नहीं, कोई आत्मा
नहीं, तो
ऐसा अपने को
ज्यादा देर
समझा न पाएगा।
जल्दी ही ये
तर्क जो ऊपर—ऊपर
से थोपे हैं, हटने लगेंगे,
गिरने
लगेंगे। जीवन
इन्हें धक्के
देगा, डांवाडोल
करेगा और मन
में एक गहन आकांक्षा
संन्यास की
पैदा होगी।
ये दो
तरह के लोग तो
दुनिया में
सदा से रहे
हैं। कृष्ण ने
एक तीसरे आदमी
की कल्पना की।
वह जो संसार
में है, और संन्यासी
है। जो
संन्यासी है,
और संसार
में है। जो
परमात्मा को
स्रष्टा के
रूप में भी
स्वीकार करता
है, सृष्टि
के रूप में भी।
जो परमात्मा
को अस्वीकार
ही नहीं करता।
जो कहता है, तुम जिस रूप
में आओ, मैं
राजी हूं। तुम
पत्नी के रूप
में आए हो, भले
आए, स्वागत
है। तुम बेटे
के रूप में आए
हो, भले आए,
स्वागत है।
तुम ग्राहक के
रूप में आए हो,
नमस्कार है।
तुम जिस रूप
में भी आए हो, स्वीकार हो।
तुम मुझे धोखा
न दे सकोगे।
तुम विपरीत
रूप में भी आओ,
तो भी मैं
तुम्हें
पहचान लूंगा।
एक झेन
फकीर को मारा
गया। जब
हत्यारे ने
उसको छुरा
भोंका, तो उसने
झुककर
नमस्कार किया,
और मरते हुए
शरीर, कंपते
हुए हाथ से
उसने उस
हत्यारे के
पैर छुए।
हत्यारा घबड़ा
गया। उसने कहा,
तुम यह क्या
करते हो!
उस
फकीर ने कहा, तू बीच
में मत पड़।
तेरा कुछ लेना—देना
नहीं। तेरे हम
पैर छूते भी
नहीं। यह तो
मैं उससे कह
रहा हूं कि तू
किसी भी रूप
में आ, तू
मुझे धोखा न
दे सकेगा। मैं
तुझे पहचान ही
लूंगा। यह तो
मेरे—उसके बीच
बात है, तू
परेशान न हो।
तुझे जो करना
है, तू कर।
लेकिन आखिरी
वक्त भी मेरी
सांस यही कहते
हुए समाप्त हो
कि तू जिस रूप
में भी आया, मैंने तुझे
चाहा। मैंने
कोई रूप की
शर्त न लगायी
थी। मैंने तुझ
पर कोई नियम न बाँध
थे कि ऐसे तू
आएगा, तो
ही मैं राजी
होऊंगा। तू
जैसे भी आएगा,
हम तुझे देख
ही लेंगे, क्योंकि
तेरे सिवाय और
कुछ भी नहीं
है।
संसार
मोक्ष है, सृष्टि
स्रष्टा है, कृष्ण का यह
महासूत्र है।
कृष्ण का यह
सूत्र फलित
नहीं हुआ।
होना तो चाहिए
था, क्योंकि
बिलकुल ही ठीक
है। लेकिन
बिलकुल ठीक
फलित नहीं हो
पाता, क्योंकि
हम बहुत गलत
हैं। हमसे
उसका मेल नहीं
बैठता।
मैं जो
प्रयास कर रहा
हूं वह कृष्ण
के सूत्र को
ही फलित करने
का प्रयास है।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे
कहते हैं, आप
यह क्या कर
रहे हैं? आप
संन्यास को
भ्रष्ट किए दे
रहे हैं।
गृहस्थों को
संन्यासी बना
रहे हैं!
और
किसको बनाऊं? गृहस्थ
ही होते हैं
दुनिया में।
जिनको तुम
संन्यासी
बनाते हो, वे
भी गृहस्थों
के बेटे—बेटियां
होते हैं। और
संन्यासी
होकर भी क्या
हो जाएगा!
लेकिन
पुरानी धारणा
है, वह
कहती है, संन्यासी
का अर्थ है, वह छोड्कर
भाग जाए।
दुकान पर न
बैठे, दफ्तर
में न पाया
जाए। और मैं
कह रहा हूं कि
हमने वह धारणा
प्रयोग करके
देख ली, वह
सफल नहीं हुई।
संन्यास
एक असफल
प्रयोग सिद्ध
हुआ है।
संन्यासी
संन्यासी
होकर सड़ गए, क्योंकि
उनके जीवन में
ऊर्जा न रही, प्रवाह न
रहा। अवरुद्ध
हो गयी सब
धारा। पलायन
से कहीं
प्रवाह हो
सकता है? भागने
से कहीं ऊर्जा
का आविर्भाव
हो सकता है? भयभीत और
कायर की तरह
जाने से कहीं
जीवन के वरदान
मिल सकते हैं?
संसार को
जिसने पीठ
दिखायी, उसने
परमात्मा को
भी पीठ दिखा
दी। उसने कह
दिया कि नहीं,
तुम पूरे के
पूरे मुझे
स्वीकार नहीं
हो। और
परमात्मा अगर
स्वीकृत होता
है, तो
पूरा ही
स्वीकृत होता
है। आधा भी
कहीं कोई
परमात्मा हो
सकता है!
वह
संन्यास हार
गया। और उस संन्यास
की वजह से
संसार भी सड़
गया। क्योंकि
जो संसार में
है, वह
सोचने लगा, अभी तो हम
संसारी हैं, तो संसारी
के ढंग से
रहें। फिर
संन्यास ले
लेंगे, तब
संन्यासी का
ढंग सोचेंगे।
संसारी
ने सोचा, धर्म हमारे
लिए नहीं, वह
संन्यासी के
लिए है।
संन्यासी ने
सोचा कि संसार
हमारे लिए
नहीं है, वह
गृहस्थ के लिए
है। धर्म और
संसार का
संबंध टूट गया।
फिर
बड़े मजे की
बात है, संन्यासी
गाली दिए जाता
है, निंदा
किए जाता है
लोगों की, कि
तुम धार्मिक
क्यों नहीं
हो! उसी ने
तोड़ा
है
संबंध। लोग भी
सिर हिलाते
हैं, लेकिन
वे जानते हैं,
हम हो भी कैसे
सकते हैं! हम
संसार में हैं,
समझो! घर—गृहस्थी
है, बाल—बच्चे
हैं, दुकानदारी
है। अभी हम
कैसे धार्मिक
हो सकते हैं!
हमें तो झूठ में
रहना ही होगा।
संसार
को ही संन्यास
बना लेना जीवन
को धर्म बना
लेना है। तुम
जहां हो, जैसे हो, वहीं
जीवन के हो।
रूपांतरित
करो। धर्म को
पाने कहीं जाओ
मत, धर्म
को वहीं बुलाओ,
निमंत्रण
दो। तीर्थ की
यात्रा मत करो,
तीर्थ को
बुलावा दो।
खुलो, ताकि
परमात्मा तुम
में आए।
तुम्हें उसे
खोजने कहीं
जाना न पड़े।
तुम
जाओगे भी कहां? उसका कोई
पता—ठिकाना भी
नहीं है।
पुराने पतों
पर तुम जाते
हो, वहां
वह अब रहता
नहीं है।
हिमालय जा रहे
हो, वहां
वह रहता ही
नहीं। थोड़े
दिन में वहा
माओत्से तुंग
मिलेंगे, और
कोई नहीं
मिलेगा।
तुम
जाओ कहीं भी, पुराने
घरों को उसने
छोड़ दिया है; अब वहां
नहीं है। अब
तो तुम अगर
उसे कहीं पा
सकते हो, तो
वह तुम्हारा
अपना ही घर है।
वह तुम ही हो।
इसलिए
बड़ी दुस्साहस
की कल्पना है
कृष्ण की कि घर
मंदिर हो जाए; कर्म
कर्म—त्याग हो
जाए; युद्ध
भी धर्मयुद्ध
हो जाए; संघर्ष
भी समर्पण बन
जाए; कुछ
त्यागना न पड़े
और त्याग फलित
हो। बारीक है,
सूक्ष्म है,
नाजुक है।
पूरी नहीं हो
सकी, लेकिन
होनी चाहिए।
इसलिए मैं तुम्हें
संन्यास दे
रहा हूं और
तुमसे कहता
नहीं कि तुम
भागों। तुमसे
कहता हूं टिके
रहो।
कठिनाइयां
आएंगी।
तालमेल
बिठाना बड़ा
मुश्किल होगा।
क्योंकि
हजारों साल से
विरोध पड़ गया,
खाई पड़ गयी,
पुल बनाने
पड़ेंगे। हर
व्यक्ति को
अपना—अपना
सेतु निर्मित
करना पड़ेगा।
लेकिन जिस दिन
तुम उस सेतु
को निर्मित कर
लोगे, तुम
अहोभागी
होओगे।
इसको
तुम मूल बीज—मंत्र
समझ लो कि
स्वीकार करना
है अगर
परमात्मा को, तो उसकी
सृष्टि ही
उसके स्वीकार
का द्वार है।
तुम उसमें
चुनाव मत करो,
चुनावरहित
उसे स्वीकार
कर लो। और तभी '
तुम्हारे
जीवन में
धन्यता शुरू
हो जाती है।
संसार
मोक्ष बन जाए, इस
महापरिकल्पना
के साथ जीओ।
कर्म अकर्म बन
जाए, इस
अनूठे सूत्र
को अपने हृदय
में लेकर चलो।
और पदार्थ में
ही उसे
खोजेंगे; जहां
हैं, वहीं
उसे पाएंगे; इस महाआशा
से तुम्हारा
हृदय धड़कता
रहे। तो दूर
नहीं है, परमात्मा
पास ही है। तुम
जरा धड़के, तुम
इस आशा से भरे
कि मिलन हो
जाएगा।
प्रश्न
दूसरा : आप
पुकार—पुकारकर
हमें कह रहे
हैं कि अपना
बोझ, अपना
दुख, अपनी
चिंता मुझे
सौंपकर
निर्भार और
निश्चित जाओ।
और हम हैं कि
उससे भी बचते
रहते हैं। हम
इतने नादान
क्यों हैं?
नादान नहीं हो; बहुत
समझदार हो।
नादान ही होते,
फिर तो कहना
ही क्या!
नादान होते, तो बचने की
कोशिश न करते।
नादान कैसे
बचेगा!
होशियार बचता
है। मन
तर्कयुक्त है,
विचार से
भरा है। कैसे
छोड़ दें!
हिफाजत करनी
है, अपनी
रक्षा करनी है।
है कुछ भी
नहीं रक्षा
करने को। क्या
है तुम्हारे
पास जिसे तुम
बचा रहे हो? सिवाय दुख
के और क्या है
तुम्हारी
गांठ में जिसे
तुम सम्हाल—सम्हालकर
रख रहे हो? कबीर
कहते हैं, हीरा
पायो, गांठ
गठियायो। तो
तुम किस चीज
को गठिया रहे
हो? हीरा
पा लो, फिर
गांठ गठिया
लेना। फिर मैं
तुमसे कितना
ही कहूं छोड़
दो मुझ पर, मत
छोड़ना।
मगर अभी
तो तुम्हारे
पास कुछ भी
नहीं है, पर गांठ
गठिया रहे हो!
अगर दूसरों को
धोखा देने के
लिए गठिया रहे
हो कि दूसरे
समझें कि गांठ
में कुछ है, तो भी ठीक है।
लेकिन धीरे—
धीरे दूसरों
को धोखा देते—देते
खुद को धोखा
हो जाता है कि
जब गांठ को
इतना गठिया
रहे हैं, जरूर
कुछ होगा।
भीतर हीरा
होना ही चाहिए,
नहीं तो हम
इतने नासमझ
थोड़े ही हैं
कि गांठ को
गठियाते! फिर
तुम उसकी
रक्षा में लगे
हो।
और
जीवन ने
तुम्हें तर्क
सिखाया है।
समाज ने
तुम्हें
विचार सिखाया
है। अनुभव ने
दूसरे पर
भरोसा न करना, इसकी
तुम्हें
शिक्षा दी है।
क्योंकि कहीं
धोखा हो जाए!
कहीं कोई धोखा
न दे दे! कहीं
कोई लूट न ले।
इसलिए जहां भी
तुम सुनते हो
यह स्वर, समर्पण,
वहीं तुम
चौंककर तत्पर
हो जाते हो कि
खतरा है।
नादान
होते, तो
चौंकते न, राजी
हो जाते।
होशियार हो।
तुम्हारी
होशियारी ही
तुम्हारी
नादानी है।
तुम्हारा अति
समझदार होना
ही तुम्हारी
नासमझी है।
इसे गौर से
देखने की
कोशिश करो।
जब मैं
कहता हूं छोड़
दो, तो
तुम एकदम यह
सोचने लगते हो
कि जरूर
तुम्हारे पास
कुछ होगा, जिसे
पाने के लिए
मैं तुमसे कह
रहा हूं छोड़
दो। स्वभावत:,
तुम्हारे
मन में डर
पैदा होता है।
जब मैं
तुमसे कहता
हूं छोड़ दो, तब तुम
मेरी फिक्र
छोड़ो। तुम यह
देखो कि
तुम्हारे पास
कुछ है? कुछ
भी तो नहीं है।
जिस
दिन तुम्हें
यह भान होगा
कि कुछ भी तो
नहीं है छोड़ने
को, उसी
दिन छूट जाएगा।
उस भान में ही
गांठ खुल जाती
है। उस भान
में ही तुम
झुक जाते हो।
कुछ भी तो
नहीं है बचाने
को। कोई लूट
भी लेगा, तो
क्या है लुट
जाने को! और
जैसे ही तुम
छोड़ना सीख
लेते हो..।
क्योंकि
मेरे पास तो
तुम्हें मैं
सिर्फ छोड़ना
सिखा रहा हूं
ताकि तुम
आखिरी छोड़ने
के लिए राजी
हो जाओ। नहीं
तो तुम
परमात्मा पर
भी न छोड़
पाओगे। गुरु
के माध्यम से
परमात्मा को
सीखना है। गुरु
तो सिर्फ एक
रिहर्सल है, एक
तैयारी है, ताकि तुम
झुकने की कला
सीख जाओ। और
किसी दिन
परमात्मा
मिले, तो
वहां तुम अकड़े
न खड़े रह जाओ।
गुरु
दो बात की
तैयारी है।
तुम झुकना सीख
जाओ; और
गुरु के भीतर
जो महिमावान
प्रकट हुआ है,
उससे
तुम्हारी
थोड़ी पहचान हो
जाए। ताकि जब
परम महिमा
घटित हो, परमात्मा
तुम्हारे
सामने आ जाए, तो तुम उसे
पहचान लो, रिकग्नीशन
हो, प्रत्यभिज्ञा
हो जाए। गुरु
से जो स्वाद
मिला है, जो
बूंद मिली है,
उसका सागर
जब तुम्हें
दिखाई पड़ेगा,
तुम पहचान
लोगे। और गुरु
के सामने जो
थोड़ा—सा झुकना
सीखा था, उस
झुकने का
अभ्यास हो
जाएगा, तो
उस महामहिमा
के सामने तुम
अपने को डाल
दोगे साष्टांग,
सारे अंगों
को तुम उसके
सामने डाल
दोगे, सिर
झुका लोगे। उस
झुकने में ही
मिलन है, महामिलन
है।
नादान
ही तुम होते, तो अच्छा
था। तुम
समझदार हो गए
हो बिना
समझदार हुए।
तुम पंडित हो
गए हो बिना
प्रज्ञावान
हुए। तुमने
तर्क सीख लिया
है। और तर्क
नासमझ के हाथ
में ऐसा ही है,
जैसे छोटे
बच्चे के हाथ
में तलवार हो।
वह खुद को ही
काट लेगा। वह
खुद के ही
अंगों को
नुकसान
पहुंचा लेगा।
तुम
अपने तर्क से
अपने को ही
काट रहे हो, अपने को
ही नुकसान
पहुंचा रहे हो।
इसे थोड़ा समझो
और इसे थोड़ा
पहचानो कि तुम
क्या कर रहे
हो? तुमने
अब तक क्या
किया है? तुमने
जो भी किया है,
वह तुम्हें
कहां ले गया
है? ?? तो अगर
कोई नया स्वर
तुम्हें
सुनायी पड़ता
है, प्रयोग
करने जैसा है।
मार्क्स
ने
कम्युनिस्ट
मैनिफेस्टो
में एक अनूठा
वचन लिखा है, आखिरी
वचन, कि
दुनिया के
मजदूरो एक हो
जाओ, तुम्हारे
पास खोने को
कुछ भी नहीं
है सिवाय जंजीरों
के।
यह
शायद मजदूरों
के संबंध में
सच न भी हो, लेकिन हर
आदमी के संबंध
में धर्म की
यात्रा में सच
है। तुम्हारे
पास खोने को
कुछ भी नहीं
है सिवाय जंजीरों
के, सिवाय
दुख, पीड़ा
और नर्क के।
लेकिन
तुमसे मैं एक
होने को नहीं
कहता, क्योंकि
एक होने की
बात तो
राजनीति की है,
संघर्ष की
है, युद्ध
की है। मैं
तुमसे कहता
हूं झुक जाओ।
तुम्हारे पास
खोने को कुछ
भी नहीं है
सिवाय जंजीरों
के। पाने को
सब कुछ है, पाने
को पूरा
परमात्मा पड़ा
है। लेकिन तुम
अकड़े खड़े हो।
नदी बही जाती
है; तुम
प्यासे खड़े हो;
लेकिन तुम
झुक नहीं सकते।
झुकना पड़ेगा,
अंजुलि में
जल भरना पड़ेगा,
तभी तुम कंठ
तक जल को ला
सकोगे।
कंठ और
नदी की धार
में ज्यादा
फासला नहीं है, थोड़ा
झुकना पड़ेगा।
प्यास और
परमात्मा
बहुत पास हैं,
सिर्फ न
झुकना दूर किए
हुए है। झुके
कि पास हो गए; न झुके कि
दूर रहे।
आखिरी
प्रश्न : यह
कोई कैसे जाने
कि परमात्मा किस
रूप में मेरा
उपयोग करना
चाहता है कि
वह अपने को
उसके हाथ में
उसी रूप में
छोड़ दे?
इसकी भी
चिंता क्या
करनी है! और
अगर इसकी भी
चिंता
तुम्हीं
करोगे कि पहले
हम पक्का कर
लें कि वह किस
भांति उपयोग
करना चाहता है, तब हम
छोड़ेंगे, तब
तो तुम छोड़ ही
नहीं रहे हो।
छोड़ने का मतलब
यह है कि जिस
भाति उसे
उपयोग करना हो,
कर लेगा; और न करना
होगा उपयोग, तो न करेगा।
फेंक देना
होगा कूड़े—करकट
में, तो
फेंक देगा।
जहां लगाना
होगा, लगा
देगा। छोड़ने
का मतलब अपनी
बुद्धि छोड़ना
है।
लेकिन
अगर तुम पूछते
हो कि क्या
उपयोग करेगा, उसका
पक्का हो जाए,
तो हम छोड़ने
का विचार करें।
कैसे उपयोग
करेगा? तो
तुम छोड़ ही
नहीं रहे हो।
तब तो तुम
उन्हीं बातों
के लिए छोड़ोगे,
जो बातें
तुम्हारे मन
के अनुकूल हैं।
तो तुमने
परमात्मा पर
छोड़ा ही नहीं।
अच्छा तो यह
होगा कि तुम
कहो कि तुमने
परमात्मा को
अपने मन के
अनुकूल उपयोग
कर लिया।
और
अक्सर ऐसा
होता है कि जो
छोड़ने वाले भी
सोचते हैं कि
हम छोड़ रहे
हैं, वे
भी छोड़ते नहीं।
मैंने
एक कहानी सुनी
है, पता
नहीं कहां तक
सच है। डर लगता
है कि सच होगी।
कहते हैं कि
तुलसीदास
मथुरा गए। तो
उन्हें कृष्ण
के मंदिर में
ले जाया गया।
उन्होंने
झुकने से
इनकार कर दिया।
उन्होंने कहा
कि जब तक धनुष—बाण
हाथ न लोगे, मैं न
झुकूंगा। वहा
कृष्ण खड़े हैं
बांसुरी लिए।
लेकिन तुलसी
हैं राम के
भक्त। तो
उन्होंने कहा,
जब तक धनुष—बाण
हाथ न लोगे, राम न बनोगे,
तब तक मैं न
झुकूंगा। मैं
राम के लिए
झुकता हूं।
धनुर्धारी
राम का मैं
भक्त हूं। यह
भी कोई झुकना
हुआ! अगर
बांसुरी वाले
में भी तुम
धनुर्धारी को
न पहचान पाए, तो यह भी कोई आंखें
हुईं? यह
तो तुम्हारा
झुकना न हुआ, परमात्मा को
झुकाने का
आयोजन हुआ। यह
तो बड़ी
चालबाजी हुई।
यह तो स्त्रैण
ढंग की
राजनीति हुई।
स्त्रियों
की एक राजनीति
होती है। वे
कहती हैं, हम आपकी
दासी, और
गरदन पकड़ लेती
हैं। उनका यह
ढंग है। यह
स्त्रैण
मनोविज्ञान
है। वे ऐसा
नहीं कहती कि
हम आपके मालिक।
न, यह कोई
स्त्री नहीं
कहती। लेकिन
प्रत्येक
स्त्री जानती
है कि वह
मालिक है। वह
पैर पकड़ती है;
वह कहती है,
मैं आपकी
दासी। स्त्री
कहती है, मैं
आपकी दासी, और पुरुष को
दास बना लेती
है।
ये जो
तुलसीदास हैं, पक्के
दास हैं। ये
कहते हैं, धनुष—बाण
हाथ लो, मैं
तो झुका ही हुआ
हूं तुम्हारे
लिए। बाकी तुम
अपने असली रूप
में आओ। मेरा
चुना हुआ रूप
है, वही
ग्रहण करो।
मैं नहीं
जानता, यह
कहां तक सच है।
लेकिन डर होता
है कि सच होगा,
क्योंकि
तथाकथित
धार्मिक लोग
इस तरह की
बातें करते
हुए देखे गए
हैं।
मैं एक
यात्रा पर था
और एक जैन
महिला मेरे
साथ थी। तो जब
तक मंदिर में
जाकर नमस्कार
न कर आए, तब तक भोजन न
करे। एक दिन
ऐसा हुआ कि उस
गांव में कोई
जैन मंदिर न था,
तो वह भोजन
न कर पायी। तो
मैं भी परेशान
हुआ।
दूसरे
गांव हम
पहुंचे। तो
मैंने गांव
जाने के पहले
ही पता लगा
लिया कि वहां
कोई जैन मंदिर
है? वहा
मंदिर था। पर
मुझसे भूल हो
गयी। गए।
मैंने उसको
कहा कि अब तू
बिलकुल
निश्चित होकर,
स्नान करके
मंदिर हो आ।
वह गयी और
वापस आ गयी।
उसने कहा, वह
तो श्वेताबर
जैन मंदिर है।
मुझे दिगंबर
जैन मंदिर
चाहिए। अब
दिगंबर और
श्वेतांबर
जैन मंदिर में
एक ही महावीर
की प्रतिमा है।
जरा—सा फर्क
है। और फर्क
ऐसा कि फर्क
कहा नहीं जा
सकता।
श्वेताबर
महावीर की
खुली आंख रखते
हैं प्रतिमा
में और दिगंबर
बंद आंख रखते
हैं। बस इतना
ही फर्क है।
और
महावीर ने
दोनों ही काम
किए होंगे।
कभी आंख बंद
भी की होगी; कभी आंख
खोली भी होगी।
अगर आंख खोले
ही रहे हों
चौबीस घंटे, तो पागल हो
गए होते। आंख
बंद ही रखी
होती चौबीस
घंटे, तो
भी पागलपन में
चले जाते।
वह
श्वेतांबर
महावीर चौबीस
घंटे आंख खोले
बैठे हैं!
उनका दिमाग
खराब हो जाए।
मगर यह
महिला वहां न
झुक सकी। यह
गयी, इसने
देखा; लौट
आयी। मैंने
कहा, तूने
नमस्कार तो
किया? उसने
कहा, कैसे
करें! अपने
महावीर हैं ही
नहीं।
तुम यह
पूछो ही मत कि
कोई कैसे जाने।
जानना भी छोड़
दो। तुम
जानोगे भी
कैसे? उसी
को जानने दो।
अंग जानेगा भी
कैसे? हिस्सा
जानेगा भी
कैसे? वह
पूर्ण है, उसी
को जानने दो।
कोई
कैसे जाने कि
परमात्मा किस
रूप में मेरा
उपयोग करना
चाहता है?
उसी पर
छोड दो, वही जाने।
और जैसा उपयोग
करना चाहे, तुम करते
जाओ।
तुम
बात ही नहीं
समझ रहे। तुम
समझ रहे हो, शायद कोई
बहुत बडा
उपयोग करना
चाहता है
तुम्हारा। तो
पक्का साफ हो
जाना चाहिए।
सारा सूत्र
इतना है कि
तुम अपने ऊपर
चिंता मत लो।
वह करना चाहे,
कर ले; न
करना चाहे, न करे। वह
भूल जाए; मर्जी।
तुम ऐसे ही
बैठे रहो। और
वह उपयोग ही न
करे, तो भी
उसकी मर्जी।
असली
सूत्र इतना है
कि तुम अपने
अहंकार को हटा
दो। मैं न
रहूं। वही बहे
मुझमें; वही चले, वही
उठे, वही
बोले। मैं
समाप्त हो गया।
फिर उसकी
मर्जी हो, युद्ध
में लड़ाना हो,
तो लड़ा ले।
और मर्जी हो
कि संन्यासी
बनाना है, हिमालय
पहुंचाना है,
तो हिमालय
पहुंचा दे।
लेकिन तुम ऐसे
चलते जाना, जैसे कि कोई
कठपुतली धागे
से बंधी नाचती
है।
नाच
उसका है, फल उसका है, नियति उसकी
है, उत्तरदायित्व
उसका है। तुम
अपने को बीच
से बिलकुल हटा
लेते हो। तुम
सिफर हो जाते
हो। तुम एक
शून्य हो जाते
हो।
तुमने
कभी खयाल किया, शून्य का
कोई भी मूल्य
नहीं होता; लेकिन शून्य
के सामने आकड़े
रखते जाओ, मूल्य
बदलता जाता है।
एक रखो, शून्य
दस हो जाता है।
दो रखो, शून्य
बीस हो जाता
है। तुम शून्य
हो जाओ, तुम
सिफर हो जाओ, और उससे कहो,
जो तुझे आंकड़ा
रखना हो; और
न रखना हो, तेरी
मर्जी। हम
शून्य ही
रहेंगे। तुझे
दस बनाना हो, दस बना दे।
तुझे हजार
बनाना हो, हजार
बना दे। लाख
बनाना हो, लाख
बना दे। न
बनाना हो कुछ,
हम बड़े
प्रसन्न हैं।
प्रसन्नता
हमारी इसमें
है कि हमने
तुझ पर छोड़
दिया। तूने
सम्हाल लिया,
तूने लगाम
अपने हाथ में
ले ली, अब
हम क्यों
फिक्र करें!
अब
सूत्र :
और
जो तू अहंकार
को अवलंबन
करके ऐसे
मानता है कि
मैं युद्ध
नहीं करूंगा, तो
अर्जुन, यह
तेरा निश्चय
मिथ्या है.।
मनुष्य
के सभी निश्चय
मिथ्या हैं। तुम
निश्चय कैसे
करोगे? तुमने अपने
जन्म का
निश्चय नहीं
किया, जीवन
का निश्चय
नहीं किया, तुमने अपनी
मृत्यु का
निश्चय नहीं
किया। तुम हो,
अपने
निश्चय से
नहीं। तुम हो
विराट की लीला
के एक अंग।
तुम हो उस
सागर की एक
ऊर्मि, एक
लहर।
तुम्हारे सभी
निश्चय
मिथ्या हैं।
कृष्ण ने कहा
कि जो तू
अहंकार को
अवलंबन करके
ऐसा मानता है
कि मैं युद्ध
नहीं करूंगा...........।
ध्यान
रखना, सवाल
युद्ध का नहीं
है, सवाल
मैं का है—मैं
युद्ध नहीं
करूंगा।
युद्ध कर या न
कर, यह
कृष्ण का जोर
ही नहीं है।
मैं को कृपा
कर बीच में मत
ला।
मैं
युद्ध नहीं
करूंगा, तो तेरा यह
निश्चय
मिथ्या है, क्योंकि
क्षत्रियपन
का स्वभाव
तेरे को जबरदस्ती
युद्ध में लगा
देगा।
तेरा
होने का ढंग
क्षत्रिय का
है। तेरा
शिक्षण, तेरे
संस्कार, तेरी
वृत्तियां, तेरे मनोभाव
क्षत्रिय के
हैं। लडूना ही
तू जानता है
और भागने की
कला तूने कभी
सीखी भी नहीं
है। तू भागेगा,
तो बड़ा
बेहूदा लगेगा।
अगर यह
अर्जुन भाग ही
जाता समझ लो, न सुनता
कृष्ण की, वह
तो सुन लिया, अधिकतर
अर्जुन तो
सुनते नहीं।
अगर यह भाग ही
जाता, तो
क्या तुम
सोचते हो, यह
संन्यस्त हो
जाता!
यह
असंभव था। यह
ध्यान भी
लगाकर बैठता
और इसे एक शेर
आता हुआ दिखाई
पड़ता, यह
उठा लेता गांडीव
अपना। यह भूल
जाता कि यह
संन्यस्त है,
इसको गाडीव
नहीं उठाना है।
यह बैठा होता
ध्यान करने और
कोई चुनौती दे
देता। कोई पास
से निकल जाता।
यह उबल पड़ता।
कृष्ण
यह कह रहे हैं, तेरा
सारा ढांचा
युद्ध के लिए
तैयार किया
गया है। उसने
तैयार किया है।
तुझे गहन से
गहन युद्ध की
शिक्षा दी गयी
है। तेरा रोआं—रोआं
लड़ने में कुशल
है। तू लड़ने
के सिवाय कुछ
जानता नहीं है।
अगर तू शात भी
होकर बैठेगा,
तो शांति के
लिए युद्ध
करेगा, लेकिन
युद्ध करेगा।
युद्ध करना
तेरी नियति है।
इसलिए तू
यह मत सोच कि मैं
युद्ध न करूगा।
यह तेरा मैं तेरे
युद्ध का ही
हिस्सा है।
अहंकार
युद्ध का
स्रोत है। यह
तेरा निश्चय
मिथ्या है।
और हे
अर्जुन, जिस कर्म को
तू मोह से
नहीं करना
चाहता है, उसको
भी अपने
पूर्वकृत
स्वाभाविक
कर्म से बंधा
हुआ परवश होकर
करेगा।
यह
तेरा सिर्फ
मोह है, जो तू कहता है
कि मेरे
प्रियजन खड़े
हैं चारों तरफ।
इस तरफ, उस तरफ,
मेरे गुरु हैं,
मेरे दादा हैं,
मेरे भाई
हैं, मेरे चचेरे
भाई हैं, मेरे
मित्र हैं, यह सब मेरे ही
परिवार का फैलाव
खड़ा है। यह तू
मोहग्रस्त है।
अगर सोच ले, इसमें तेरे
परिवार के लोग
न होते, उस
तरफ गुरु न
होते, भीष्म
न होते, तेरे
चचेरे भाई न
होते; तेरा
सारा परिवार
तेरी तरफ होता
और उस तरफ विपरीत
लोग होते जिन से
तेरा कोई सब धन
होता, तो तू
उन्हें ऐसे काट
देता जैसे लोग
मूलियों को
काट देते हैं।
तेरे मन में
जरा भी सवाल न
उठता हिंसा, अहिंसा का।
वह तेरा सवाल
भी नहीं है।
यह मोह
है। तू कुछ
अहिंसक नहीं
हो गया है। तू
यह कह रहा है, ये मेरे
हैं, इन्हें
कैसे काटू? काटने से
तुझे कोई
विरोध नहीं है।
मेरे, ममत्व
का आग्रह है, जो तू
डांवाडोल हो
रहा है। यह
तेरे मन में
कोई अहिंसा का
उदय नहीं हुआ
है जैसे बुद्ध
और महावीर के
मन में हुआ था।
तेरे मन में
कोई महाकरुणा
नहीं आ गयी है।
तेरे भीतर
सिर्फ मोह
पैदा हुआ है
कि मेरे कट जाएंगे,
अपने कट
जाएंगे। इनसे
क्या लड़ना।
भोग लेने दो
इन्हीं को, मैं जंगल
चला जाता हू।
लेकिन तू जा न
पाएगा। तू
जंगल में भी
जाएगा, तो
तू क्षत्रिय
ही रहेगा।
मोह से कहीं
कोई मोक्ष को उपलब्ध
हुआ है? और मोह से कहीं
कोई संन्यस्त हुआ
है? मोह ही तो
संसार है। तो
तू उलटी बातें
कर रहा है। तू
गंगा को उलटी
बहाने की
कोशिश कर रहा है।
यह तेरा
निश्चय
मिथ्या है।
क्योंकि
हे अर्जुन, शरीर रूप
यंत्र में
आरूढ़ हुए, संपूर्ण
प्राणियों को परमेश्वर
अपनी माया से,
उनके कर्मों
के अनुसार भ्रमाता
हुआ, सब
भूत—प्राणियों
के हृदय में
स्थित है।
यह तू
बात ही मत उठा, मेरे और तेरे
की। एक ही उपस्थित
है, तेरे में
भी और उनमें
भी। मेरा और तेरा
सब झूठ है, मिथ्या
है। एक ही
मौजूद है।
सारा खेल उसका
है। वह लड़ाना
चाहता है, तो
लड़ाएगा। उसकी
मर्जी होगी इस
युद्ध से कुछ
फलित करने की।
वह बचाना
चाहता है, तो
बचाएगा। तू उस
पर छोड़ दे।
हे
भारत, सब
प्रकार से उस
परमेश्वर की
ही अनन्य शरण
को प्राप्त हो,
उस
परमात्मा की
कृपा से ही
परम शांति को,
सनातन परम
धाम को
प्राप्त होगा।
अहंकार
से, मोह
से, मिथ्या
से कभी कोई उस शांति
को उपलब्ध
नहीं हुआ, न
उस परम धाम को
किसी ने पाया
है। अपने को
हटा ले, तू
ही अड़चन है।
तेरे कारण ही
तेरे मन में
अशांति है।
युद्ध के कारण
नहीं है
अशांति, तेरे
कारण है।
यह
भीतर मैं है, जो कहता
है, बाहर
जो हैं, वे
मेरे हैं। अगर
मैं भीतर गिर
जाए, तो
कौन मेरा है!
कौन तेरा है!
फिर सभी उसके
हैं। यह भी
कहना ठीक नहीं
कि सभी उसके
हैं, सभी
वही है।
इस
प्रकार यह
गोपनीय से अति
गोपनीय ज्ञान
मैंने तेरे
लिए कहा। इस
रहस्ययुक्त
ज्ञान को
संपूर्णता से
अच्छी प्रकार
विचार करके, फिर तू
जैसे चाहता है,
वैसे ही कर।
कृष्ण
कहते हैं, गोपनीय
से अति
गोपनीय........।
यह
अत्यंत गुप्त
है। जो
साधारणत: कहा
नहीं जाता, क्योंकि
साधारणत: इसे
समझना बहुत
मुश्किल है।
जो
बातें कही
जाती हैं, वे हैं, या तो संसार
में रहो—नास्तिक
समझाते हैं, अधार्मिक
समझाते हैं।
या संन्यस्त
हो जाओ—धार्मिक
समझाते हैं, आस्तिक
समझाते हैं।
वह साधारण
धर्म है। वह
बातचीत समझ
में आती है। वह
तर्क सीधा—सीधा
है।
मैंने
तुझे गोपनीय
बात कही, बड़ी गुह्य, गुप्त, इसोटेरिक।
ऐसी बात कही, जो अत्यंत
आत्मीयता में
ही कही जा
सकती है। जहां
गुरु और शिष्य
का हार्दिक
मिलन होता है,
वहीं कही जा
सकती है।
मैंने तुझसे
उपनिषद कहा।
उपनिषद
का अर्थ होता
है, गुप्त
ज्ञान। इसलिए
गीता का हर
अध्याय अंत
में कहता है, गीता का
अठारहवां
संवाद उपनिषद
समाप्त।
उपनिषद का
अर्थ होता है,
जहां गुरु
और शिष्य इतने
आत्मीय हैं कि
दो नहीं हैं, जहां एक ही
चेतना दोनों
में बहती है।
वहीं जीवन की
गुह्यतम
बातें कही जा
सकती हैं।
गहन
श्रद्धा और
प्रेम में
मैंने तुझसे
गोपनीय से
गोपनीय ज्ञान
कहा। इस
रहस्ययुक्त
ज्ञान को
संपूर्णता
से.......।
इसमें
जल्दी मत करना।
और जो मैंने
कहा है, उसे उसकी
समग्रता में
देखना। कोई एक
हिस्सा मत चुन
लेना, जो
कि हमारे मन
की आदत है।
तुम्हें
जो ठीक लगता
है, वह
चुन लेते हो; जो ठीक नहीं
लगता, वह
छोड़ देते हो।
तब भांति होगी,
मिथ्या हो
जाएगा निर्णय।
जो
मैंने कहा है, उसको
उसकी पूरी
समग्रता में,
अच्छी
प्रकार से
विचारकर, फिर
तू जैसा चाहता
है, वैसा
ही कर।
कृष्ण
यह नहीं कह
रहे हैं कि जो
मैं कहता हूं
वह तू कर। कोई
गुरु नहीं
कहता। सारा
नक्शा साफ कर
दिया है। पर
कृष्ण कहते
हैं, ठीक
से विचार
करके! क्योंकि
बहुत संभावना
यह है कि तू
बिना विचार
किए जो तू कहे
चला जा रहा है,
बिना सोचे,
बिना मनन ' किए, बिना
ध्यान किए, अगर तूने उस
पर ही आग्रह
रखा, तो तू
पूरी दृष्टि
को न फैला
सकेगा और
स्थिति को
उसकी समग्रता में
न देख सकेगा।
सारी बात
मैंने तुझसे
कह दी, अब
तू पूरी बात
को ठीक से
विचार कर ले।
यह बड़ा
मजेदार शब्द
है, विचार।
जब मन में
बहुत विचार
होते हैं, तब
तुम विचार कर
ही नहीं सकते।
जब मन में कोई
विचार नहीं
होता, तभी
विचार कर सकते
हो। जब मन में
ही विचार होते
हैं, तो
विचार कैसे
करोगे? यह
तो ऐसा हुआ कि
दर्पण में
बहुत—से चित्र
पहले से ही
बने हैं, और
तुम भी उसमें
खड़े हो गए। सब
अस्तव्यस्त, अराजक होगा।
दर्पण खाली है,
तुम सामने
खड़े हुए, प्रतिबिंब
बनता है।
विचार
की दशा
विचारों की
दशा नहीं है।
विचार की दशा
ध्यान की दशा
है। विचारों
की दशा तो
तरंगों की दशा
है। झील पर
तरंगें ही
तरंगें हैं, चांद टूट—टूट
जाता है, प्रतिबिंब
बनता नहीं।
हजार चांद
होकर बिखर
जाते हैं।
चांदी फैल
जाती है पूरी
झील पर। लेकिन
चांद कहीं
दिखाई नहीं
पड़ता।
फिर
तरंगें सो
गयीं, लहरें
खो गयीं, हवाएं
बद हो गयीं, झील मौन हुई,
चांदी
सिकुड़ने लगी
चांद की, खंड
जुड्ने लगे।
एक प्रतिबिंब
रह गया। झील
दर्पण बन गयी।
विचार
तो तभी संभव
है, जब
सारे विचार खो
जाएं। यह बड़ी
उलटी बात
लगेगी सुनकर।
क्योंकि तुम
सोचते हो, बहुत
विचार हों, तभी विचार
होता है।
बहुत
विचारों के
कारण ही विचार
नहीं होता।
विचार की
अवस्था
विचारों की
दशा नहीं है।
विचार की
अवस्था
निर्विचार
अवस्था है। तब
अंतर्दृष्टि
होती है, तब दर्शन
होता है, दिखाई
पड़ता है।
तो
कृष्ण ने कहा
कि सब मैंने
तुझसे कह दिया।
कुछ कहने से
बचाया नहीं, मुट्ठी
पूरी खोल दी
है। जो नहीं
कहा जाना
चाहिए, वह
भी कहा है।
क्यों
ऐसा कृष्ण
कहते हैं कि
गुप्त है यह
ज्ञान? यह नहीं कहा
जाना चाहिए, ऐसा ज्ञान
है। क्योंकि
इसमें खतरे
हैं।
खतरे
ये हैं कि
आदमी संसार
में रहे, हो संसारी
ही, और
समझने लगे कि
मैं संन्यासी
हो गया। करे
तो कर्म वासना
से, लेकिन
अपने को धोखा
दे कि मेरी
कोई फलाकांक्षा
नहीं है।
हत्या तो करे
खुद, कहे, परमात्मा ने
करवाई! चोरी
करने खुद जाए;
और कहे, मैं
क्या करूं; सब उसी पर
छोड़ दिया है।
अब वह जो
करवाता है!
इसलिए
यह ज्ञान
गुप्त है और
नहीं कहने
योग्य है। वह
भी मैंने
तुझसे कहा, ताकि
सारी स्थिति
तुझे साफ हो
जाए। फिर तू
विचार से देख
ले। फिर तू
ध्यान से देख
ले। और फिर तू
जैसा चाहे, वैसा कर।
गुरु तो सारी
बात स्पष्ट कर
देता है और हट
जाता है। असदगुरु,
स्पष्ट तो
कुछ नहीं करता,
छाती पर
सवार हो जाता
है। सदगुरु
सारी बातें
साफ कर देता
है, फिर हट
जाता है। फिर
कोई सवाल न
रहा। अब तेरे
पास आंख दे दी,
देखने का
ढंग दे दिया, अब तू देख ले।
और उस देखने
से, उस
दृष्टि से ही
जो तेरे भीतर
आविर्भूत हो
जाए, उसके
अनुसार चल।
लोग
सोचते हैं, कृष्ण ने
अर्जुन को
युद्ध में
उतरवा दिया; गलती बात है।
लोग सोचते हैं,
कृष्ण ने
समझा—समझाकर
युद्ध में
डलवा दिया; गलती बात है।
कृष्ण ने तो
सिर्फ स्थिति
साफ कर दी।
दोनों
मुट्ठिया
खुली खोल दीं;
कुछ छिपाया
नहीं। और फिर
अर्जुन को
परिपूर्ण रूप
से स्वतंत्र
कर दिया कि अब
तू निर्णय कर
ले।
अगर
अर्जुन यह तय
करता कि मैं
युद्ध से जाता
हूं तो भी
कृष्ण
प्रसन्न होते।
अर्जुन ने अगर
यह तय किया कि
मैं युद्ध
करता हूं तो
भी कृष्ण
प्रसन्न हैं।
कृष्ण की
प्रसन्नता
इसमें है कि
अर्जुन ने देखने
की क्षमता पा
ली।
और जब
अर्जुन ने गौर
से देखा होगा, तो पाया
होगा, अपने
किए कुछ भी तो
नहीं होता।
कभी नहीं हुआ
है। वह बड़ी से
बड़ी भ्रांति
है कि मेरे
किए कुछ होता
है। सब बिना
किए हो रहा है,
समग्र के
किए हो रहा है।
जैसे यह देखा
होगा, यह
दृष्टि उठी
होगी, फिर
अर्जुन ने कहा,
अब जो हो
तेरी मर्जी।
मर्जी
युद्ध की थी, युद्ध
हुआ। मर्जी
युद्ध की न
होती, अर्जुन
संन्यस्त हो
जाता। लेकिन
अर्जुन की
मर्जी से नहीं
हुआ, अर्जुन
मुक्त है।
अर्जुन ने
उसकी मर्जी पर
अपने को छोड़
दिया। यही
उसका संन्यास
है।
संन्यास
यानी
परमात्मा के
प्रति समर्पण।
वह संसार में
रखे, तो
संसार ही
संन्यास। वह
संसार से हटा
दे, तो हट
जाना संन्यास।
उसके साथ कोई
ऐसे चलने लगे,
जैसे नदी
में कोई बहने
लगे, तैरे
न। किसी घाट
पर पहुंचने की
आकांक्षा न
रही। जहां
पहुंचा दे। पहुंचा
दे, तो वही
घाट। मझधार
में डुबा दे, तो वही
मंजिल। न समर्पण
संन्यास है।
आज
इतना ही।
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