दिनांक
6 अप्रैल, 1978;
श्री
रजनीश आश्रम,
पूना।
सूत्र:
सतगुरु
सरन में आइ, तो
तामस
त्यागिये।
ऊंच
नीच कहि जाय, तो
उठि नहिं
लागिये।।
उठि
बोलै रारै रार, सो
जानो घींच है।
जेहि
घट उपजै क्रोध, अधम
अरु नीच है।।
माला
वाके हाथ, कतरनी
कांख में।
सूझै
नाहिं आगि, दबी
है राख में।।
अमृत
वाके पास, रुचै
नहिं रांड को।
स्वान
को यही स्वभाव, गहै
निज हाड़ को।।
का
भे बात बनाए, परचै
नहिं पीव सों।
अंतर
की बदफैल, होइ
का जीव सों।।
कहै
कबीर पुकारि
सुनो धरम आगरा।
बहुत
हंस लै साथ, उतरो
भव सागरा।।
सूतल
रहलौं मैं
सखियां, तो
विष कर आगर
हो।
सतगुरु
दिहलै जगाइ, पायौं
सुख सागर हो।।
जब
रहली जननी के
ओदर, परन
सम्हारल हो।
जब
लौं तन में
प्रान, न
तोहि बिसराइब
हो।।
एक
बुंद से साहेब
मदिल बनावल हो।
बिना
नेव के मदिल
बहु कल लागल
हो।।
इहवां
गावं न ठांव, नहीं
पुर पाटन हो।
नाहिन
बाट बटोहि, नहीं
हित आपन हो।।
सेमल
है संसार, भुवा
उघराइल हो।
सुंदर
भक्ति अनूप, चले
पछिताइल हो।।
नदी
बहै अगम अपार, पार
कस पाइब हो।
सतगुरु
बैठे मुख मोरि, काहि
गोहराइब हो।।
सतनाम
गुन गाइब, सत
ना डोलाइब हो।
कहै
कबीर धरमदास, अमर
घर पाइब हो।।
मुहब्बत
एक राज है
वह राज——रूह
में रहे जो
हुस्न बन के
जल्वागर
निगाह
जिसके दीद की
न ताब लाए
उम्र—भर
शऊर
से बुलन्दतर
मुहब्बत
एक राज है।
मुहब्बत
एक नाज है
वह
नाज——जो हयात
को निशाते—जाविदां
करे
जमीं
के रहनेवालों
को जो अर्शे—आशियां
करे
न
फर्के इ—ओ—आं करे
मुहब्बत
एक नाज है।
मुहब्बत
एक ख्वाब है
वह
ख्वाब —— जिसकी
सरखुश पे
जन्नतें
निसार हों
फसाना
साजे—जिंदगी
की इशरतें
निसार हों
हकीकतें
निसार हों
मुहब्बत
एक ख्वाब है।
मुहब्बत
एक निगार है
तमाम
सिदको—सादगी, तमाम
हुस्नो—काफिरी
तमाम
शोरिशो—खलिश
मगर बतर्जे—दिलबरी
शिकस्त
जिसकी बरतरी
मुहब्बत
इक निगार है।
प्रेम
एक रहस्य है।
सबसे बड़ा
रहस्य!
रहस्यों का
रहस्य!
प्रेम
से ही बना है
अस्तित्व और
प्रेम से ही समझ
में आता है।
प्रेम से ही
हम उतरे हैं
जगत् में और
प्रेम की सीढ़ी
से ही हम जगत्
के पार जा सकते
हैं। प्रेम को
जिसने समझा
उसने
परमात्मा को
समझा। और जो
प्रेम से वंचित
रहा वह
परमात्मा की
लाख बात करे, बात
ही रहेगी, परमात्मा
उसके अनुभव
में न आ
सकेगा। प्रेम
परमात्मा को
अनुभव करने का
द्वार है।
प्रेम आंख है।
मुहब्बत
एक राज है——एक
भेद,
एक कुंजी——जिससे
अस्तित्व के
सारे ताले खुल
जाते हैं।
वह
राज——रूह में
रहे जो हुस्न
बन के जल्वागर
अगर
प्रेम भीतर हो
तो आत्मा
प्रकाशित हो
उठती है।
निगाह
जिसके दीद की
न ताब लाए
उम्र—भर
रूह
ऐसी रोशनी से
भर जाती है, अगर
प्रेम हो, कि
आंखें उस
रोशनी को
देखें तो
तिलमिला जाएं,
देख न पाएं,
देखना
चाहें तो देख
न पाएं। सूरज
का प्रकाश उसके
सामने फीका
है। चांदतारे
टिमटिमाते
दीए हैं——उसके
सामने, उसके
मुकाबले, उसकी
तुलना में।
जिसने
प्रेम जाना
उसने पहली दफा
रोशनी जानी। और
जिसने प्रेम
नहीं जाना
उसने जीवन में
सिर्फ अंधकार
जाना, अंधेरी
रात जानी, अमावस
जानी, उसकी
पूर्णिमा से
पहचान नहीं
हुई।
शऊर
से बुलन्दतर
मुहब्बत
एक राज है।
संस्कृतियां, सभ्यताएं
उसके सम क्ष
कुछ भी नहीं।
इन सबसे बुलंद
है —— धर्म, मजहब,
संस्कार, रीति — रिवाज,
परंपराएं, रूढ़ियां। इन
सबसे बुलंद है।
इन सबसे बहुत
पार है।
किन्हीं रीति —
रिवाजों में
नहीं समाता।
किन्हीं सभ्यताओं
में सीमित
नहीं होता।
किन्हीं
संस्कृतियों
में आबद्ध
नहीं है।
प्रेम
मुक्ति है ——
मुक्त आकाश है।
शऊर
से बुलंतर
मुहब्बत
एक राज है।
उस
प्रेम को खोजो, जो
हिंदू के पार
है, मुसलमान
के पार है, कुरान
के ऊपर जाता
है, गीताएं
जहां से नीचे
अंधेरी
खाइयां हो
जाती हैं। उन
शिखरों को
तलाशो।
उन्हीं
शिखरों पर
परमात्मा का
निवास है।
कोई
मुझसे पूछता
था एक दिन : परमात्मा
को कहां खोजें? मैंने कहा : प्रेम में।
शायद उसने
चाहा होगा कि
कहूं हिमालय
में। शायद
उसने चाहा
होगा कि कहूं चांदतारों
पर। वह कहीं
बाहर खोजना
चाहता था और
परमात्मा भीतर
ही खोजा जा सकता
है। और भीतर
जाने की गैल, उसका नाम
प्रेम है।
मुहब्बत
एक नाज है——एक
गौरव, एक
गरिमा है।
जिसे मिल जाती
है, वह
सम्राट हो
जाता है। जो
उसके बिना है,
गरीब है। जो
उसके बिना है,
बस वही गरीब
है——फिर उसके
पास कितनी ही
संपदा क्यों न
हो, सारे
जगत् का
साम्राज्य ही
क्यों न हो।
जिसके पास
प्रेम नहीं, उसका पात्र
खाली है, वह
भिखमंगा है।
मुहब्बत
एक नाज है वह
नाज——
जो
हयात को
निशाते—जाविदा
करे
प्रेम
जीवन को
अमरत्व दे
देता है, अन्यथा
जीवन
मरणधर्मा है।
इस जीवन में
एक ही अनुभव
है, जो
मरणधर्मा
नहीं है। इस
जीवन में एक
ही स्वाद है, जिसमें अमृत
की थोड़ी— सी
झलक है।
मुहब्बत
एक नाज है वह
नाज——
जो
हयात को
निशाते—जाविदा
करे
इस
मृत्यु से भरे
हुए जीवन को
जो अमृत की
झलक दे जाता
है। रंग देता
है इसे अमृत
के रंग में। प्रेम
की घड़ियों में
मृत्यु पर
भरोसा नहीं
आता। प्रेमी
मान ही नहीं
सकता कि
मृत्यु हो
सकती है।
जिसने प्रेम
जाना, मृत्यु
से मुक्त हुआ।
खयाल
रखना, जो आदमी
जितना प्रेम
से हीन होगा
उतना ही मृत्यु
से भयभीत होता
है—— उसी
अनुपात में।
इस गणित में
कभी भूल नहीं
होती। जब किसी
आदमी को तुम
मौत से बहुत
डरा देखो तो
जान लेना कि
उसने जीवन में
प्रेम को नहीं
जाना। प्रेम
को जानता तो
मृत्यु से
डरता क्यों? क्योंकि
प्रेम तो
मृत्यु को
जानता ही नहीं।
प्रेम तो
मृत्यु को
मानता ही
नहीं। प्रेम
के लिए मृत्यु
एक झूठ है। भय
के लिए जिंदगी
एक झूठ है।
प्रेम के लिए
मृत्यु एक झूठ
है। भय केवल मृत्यु
जानता है।
प्रेम केवल
जीवन——शाश्वत
जीवन——जानता
है।
वह
नाज——जो हयात
को निशात—जाविंदा
करे
जमीं
के रहनेवालों
को जो अर्शे—आशियां
करे
प्रेम
ही एकमात्र
चमत्कार है——
एकमात्र जादू
ऊ जमीन पर
रहनेवालों को आसमांन
में रहना सिखा
देता है। जमीन
पर रहनेवालों
को आसमांन में
नीड़ बनाने की
कला सिखा देता
है। जमीन पर
जो सरकते हैं, अचानक
आकाश में उड़ने
लगते हैं।
जिन्हें अपने
पंखों का पता
ही नहीं था, उन्हें पंख
मिल जाते हैं।
जिनके जीवन
में कोई दिशा
नहीं थी, दिशा
मिल जाती है।
वह
नाज——जो हयात
को निशाते—जाविंदा
करे
जमीं
के रहनेवालों
को जो अर्शे—आशियां
करे
न
फर्के इ—ओ—आ
करे
मुहब्बत
एक नाज है।
——एक गौरव है, जहां सब भेद
गिर जाते हैं,
जहां अभेद
प्रकट होता है।
जहां मैंतू
गिर जाते हैं।
जहां वह प्रकट
होता है। उसका
ही नाम
परमात्मा है।
प्रेम
में न तो मैं
होता है, न तू
होता है। जहां
मैं तू है, वहां
प्रेम नहीं।
इसलिए तो झगड़े
को हम कहते
हैं तूनूर मैं—मैं।
झगड़े का मतलब
होता है : बहुत
तू, बहुत
मैं; तूतू
मैं—मैं।
प्रेम का अर्थ
होता है : न
तू र न मैं;
दोनों गए;
दुई गयी;
द्वैत गया।
फिर जो शेष रह
जाता है, वही
तो परमात्मा
है।
ठीक
कहा है जीसस
ने कि प्रेम
ही परमात्मा
है। बहुतों ने
परिभाषाएं की
हैं परमात्मा
की,
लेकिन जीसस
सब को मात दे
गए।
मुहब्बत
एक ख्वाब है
और
ऐसा ख्वाब कि
जिसके समक्ष
जीवन की सारी
वास्तविकताएं
झूठी हो जाती
हैं। प्रेम एक
सपना है——ऐसा
सपना जिसके
सामने
जिन्हें हमने
अब तक सच्चाइयां
माना है, वे सब
फीकी पड़ जाती
हैं। हमारी
सच्चाइयां उस
सपने के सामने
प्रेम सत्य का
स्वप्न है।
प्रेम
सत्य की
आकांक्षा है, अभीप्सा
है।
प्रेम
सत्य के बीज
का हृदय में
आरोपण है।
प्रेम
क्रांति है, क्योंकि
तुम उठने लगते
हो——जीवन से
असीम की तरफ।
मुहब्बत
एक ख्वाब है
वह
ख्वाब——जिसकी
सरखुशी पे
जन्नतें
निसार हों।
ऐसी
मादकता है
प्रेम कि उस
हजारों
स्वर्ग निछावर
स्वर्ग नहीं
मांगता।
इसलिए तो
भक्तों ने कहा
है
झूठ हो
जाती हैं।
की
क्षुद्रता से
विराटता की
तरफ;
सीमा
किए जा
सकते हैं।
जिसने प्रेम
जाना वह : हमे
तुम्हारा
बैकुंठ नहीं
चाहिए। हमें
तुम्हारे
चरण चाहिए।
हमें
तुम्हारा
प्रसाद चाहिए।
हमें
तुम्हारी
प्रेम से भरी
नजर चाहिए।
हमें
तुम्हारे
बैकुंठ नहीं
चाहिए। रखो
अपने बैकुंठ।
दे देना
त्यागियोतपस्वियो
को। उनको बहुत
जरूरत है। तुम
अपने स्वर्ग
बांट देना
किन्हीं और को, जिनको
सुखों की
आकांक्षा है।
क्यों
भक्त इतनी
हिम्मत से कह
पाता है कि
हमें तेरे
बैकुंठ नहीं
चाहिए? ——तेरे
स्वर्ग नहीं
चाहिए, हमें
तेरे चरणों की
धूल में रहने
को जगह मिल जाए,
हमें तेरी
छाया में थोड़ा
विश्राम मिल
जाए, बस
पर्याप्त है।
हमें तेरी याद
मिल जाए। तेरी
सुरति बनी रहे।
तेरी सुधि न
भूले। क्यों? कारण है
पीछे।
क्योंकि भक्त
ने प्रेम जाना
है। और प्रेम
जानते ही उसने
जाना है कि
हजार स्वर्ग
भी फीके हैं।
मुहब्बत एक
ख्वाब है
वह
ख्वाब —— जिसकी
सरखु श पे
जन्नतें
निसार हों
फसाना
साजे—जिंदगी
की इशरतें
निसार हों
इस
दुनिया के
जितने सुख हैं, सब
एकदम दु :ख
जैसे हो जाते
हैं——जिसने
प्रेम जाना।
यहां फिर
पकड़ने को कुछ
भी नहीं रह
जाता।
त्यागी
को छोड़ना पड़ता
है,
प्रेमी से
छूट जाता है।
भेद समझ लेना।
भेद बड़ा है, गहरा है।
त्यागी को
चेष्टा कर—कर
के छोड़ना पड़ता
है। धन छोडूं——बड़ी
मुश्किल होती
है! गिन—गिन कर
छोड़ना पड़ता है।
रामकृष्ण
के पास एक दिन
एक आदमी आया।
एक बड़ी थैली
में हजार
स्वर्ण—मुद्राएं
भरकर लाया था।
रामकृष्ण के
चरणों में
उसने स्वर्ण—मुद्राओं
की थैली उडेली।
बड़े जोर से
उडेली, बड़ी
ऊंचाई से
उडेली! खनाखन—खनाखन.......!
सारे आश्रम के
लोग इकट्ठे हो
गए।
रूपए
की आवाज किसे
नहीं खींच
लेती! रुपए
जैसा सौंदर्य
और संगी लोग
दूसरी किसी
आवाज में
देखते ही नहीं।
सब सितार
लोगों के लिए
व्यर्थ हैं।
सब वाद्य
बेकार हैं।
जहां रुपए की
खनाखन हो वहां
फिर कोई संगीत
नहीं रुचता।
सारे
लोग आ गए। जो
अपने पूजा—पाठ
में बैठे थे, वे
भी उठ कर आ गए
कि क्या हुआ? और
रामकृष्ण
बहुत हंसने
लगे।
रामकृष्ण ने
कहा : मेरे
भाई, यह तू
यहां क्यों
लाया? चल
अब ले आया तो
ठीक, इतने
जोर से क्यों
पटका? क्या
तू दिखाना
चाहता है
लोगों को कि
धन लाया है? तू त्यागी
होने का
अहंकार भरना
चाहता है?
वह
आदमी थोड़ा
हतप्रभ हुआ।
उसने कहा : क्या
फिर मैं ले
जाऊं? आप
स्वीकार नहीं
करते?
रामकृष्ण
ने कहा : अब ले
ही आया, यहां
तक बोझ ढोया, अब वापस
क्यों बोझ
ढोएगा? मैं
स्वीकार करता
हूं। अब ये
स्वर्ण—मुद्राएं
मेरी हुईं।
इन्हें तू फिर
बांध ले पोटली
में और जाकर
गंगा में डुबा
आ।
उस
आदमी की तकलीफ
तुम समझो। वह
लाया था बड़ा
ही बहुमूल्य
धन और ये पागल
रामकृष्ण
कहते हैं कि
फेंक आ गंगा
में! लेकिन अब
दे चुका था, अब
अपना बस भी न
था। बे—मन से
गया गंगा की
तरफ। बड़ी देर
हो गयी, लौटा
नहीं तो
रामकृष्ण ने
कहा : जाओ
पता करो, वह
आदमी अब तक
लौटा क्यों
नहीं? इतनी
देर लगती है!
लोग
गए। वहां उसने
भीड़ इकट्ठी कर
रखी थी।
सैकड़ों लोग
इकट्ठे हो गए
थे घाट पर। वह
एक—एक सिक्के
को घाट की
सीढ़ी पर बजा—बजा
कर फेंक रहा
था। जब लौटा
तो रामकृष्ण
ने कहा : पागल!
रुपए इकट्ठे
करते हैं तो
गिन—गिन कर
करने होते हैं; जब फेंकते
हैं तो गिन—गिन
कर थोड़े ही
फेंकते हैं!
एकबारगी में
थैली डाल देनी
थी। छोड़ने में
भी गिनती! तो
छूटा ही नहीं।
और
यही त्यागी की
दशा है : छोड़ता
है, गिनती
रखता है।
त्यागी भीतर
गिनता रहता है——
कितने लाख
मैंने छोड़
दिए! पत्नी
कितनी सुंदर थी,
छोड़ दी!
हाथी—घोड़े और
असवार..
राजमहल! खूब
कल्पना में
उनको बड़ा कर—करके
सोचता है कि
सब छोड़ दिए, बड़ा त्याग
किया है! यह
त्याग
जबर्दस्ती है,
अन्यथा
गिनती न होती।
प्रेमी छोड़ता
नहीं। प्रेमी
की आंख बदल
जाती है। उसे
दिखाई पड़ने
लगता है कि
सार यहां नहीं——सार
परमात्मा में
है। छोड़ना
क्या है?
छूट गया! राख
को तो कोई छोड़ता
नहीं। धन को
ही लोग छोड़ते
हैं। जब धन
राख की तरह
दिखायी पड़
जाता है, फिर
छोड़ना क्या है,
फिर पकड़ना
क्या है?
राख न तो पकड़ी
जाती है, न
छोड़ी जाती है।
मुहब्बत
एक ख्वाब है
वह
ख्वाब —— जिसकी
सरखु श पे
जन्नतें
निसार हों
फसाना
साजे—जिंदगी
की इशरतें
निसार हों
हकीकतें
निसार हों।
ऐसा
ख्वाब, ऐसा
स्वप्न, जिस
पर जिंदगी के
तथाकथित सत्य
निछावर किए जा
सकते हैं।
मुहब्बत
एक ख्वाब है
और
धन्यभागी हैं
वे जिन्होंने
प्रेम के इस
सपने को देख
लिया, क्योंकि
यही सपना सच
है। और
तुम्हारे सब
सच झूठ हैं।
मुहब्बत
एक निगार है
मुहब्बत
एक झलक है
परमात्मा की——एक
छवि। जैसे
चांद बना हो
झील में।
प्रतिफलन।
जैसे दर्पण
में तस्वीर
बनी हो। प्रेम
एक तस्वीर है
परमात्मा की।
जिसने प्रेम
नहीं जाना, वह
परमात्मा को
पहचान नहीं
सकेगा।
क्योंकि
परमात्मा की
और कोई शक्ल—सूरत
नहीं है।
परमात्मा का
कोई और आकार, रूप—रंग
नहीं है।
प्रेम उसका
रंग है, प्रेम
उसका ढंग है, प्रेम उसकी
छवि है। जिसने
प्रेम को
पहचान लिया, उसे
परमात्मा सब
जगह दिखायी
पड़ने लगेगा——फूलों
में और
पत्थरों में,
चांदत्तारों
में, नक्षत्रों
में, लोगों
में, पशु—पक्षियों
में।
मुहब्बत
एक निगार है
तमाम
सिदको—सादगी, तमाम
हुस्नो—काफिरी
तमाम
शोरिशो—खलिश
मगर बतर्जे—दिलबरी
शिकस्त
जिसकी बरतरी
और
प्रेम ऐसा
अधृत राज है
कि वहां हार—जीत
है। शिकस्त
जिसकी बरतरी..
जहां हार कर
आदमी जीत जाता
है,
ऐसा जादू है
प्रेम!
मुहब्बत
एक निगार है
और
इस प्रेम की
सबसे बड़ी
अनुभूतइ सदगुरू
के पास होती
है। उसी के
पास हो सकती
है——जो
प्रेमपूर्ण
हो गया है, प्रेम—
मग्न हो गया
है, प्रेममय
हो गया है——प्रेम
हो गया है।
संसार
में तो तुम
जिसे प्रेम
कहते हो, बड़ा
टूटा—फूटा है,
खंड—खंड है,
बड़ा विकृत
है। हजार
विक्षिप्तताओं
में दबा है।
हजार
गंदगियों में
दबा है। हजार
तरह की धूले
उस पर जम गयी
हैं। हजार
बाधाओं में
पड़ा है।
जिसे
तुम संसार में
प्रेम करते हो, वह
तो कारागह का
कैदी है। सदगुरू
में जिस प्रेम
को तुम देखते
हो, वह
मुक्त आकाश का
पक्षी है। उसी
के साथ प्रेम
हो जाए तो तुम
भी आकाश में
उड़ने का साहस
जुटा पाते हो।
वही है यात्रा——अंतर्यात्रा,
तीर्थयात्रा।
सतगुरु
सरन में आइ......।
धनी
धरमदास कहते
हैं :
सतगुरु के
शरण में आना..
.तो तामस
त्यागिए। अगर सदगुरू
की शरण आना हो
तो एक ही चीज
से छुटकारा
होना चाहिए——तामस,
अहंकार, अस्मिता,
मैं— भाव।
प्रेम में वही
तो बाधा है।
धन बाधा नहीं
है, पद
बाधा नहीं है;
तुम्हारी
पत्नी, तुम्हारा
पति बाधा नहीं
है; तुम्हारे
बच्चे बाधा
नहीं हैं। और
बड़ा मजा यह है
कि लोग पत्नी—बच्चों
को छोड्कर चले
जाते हैं, धन—दुकान
को छोड्कर चले
जाते हैं, बाजार
छोड़ देते हैं,
समाज छोड़
देते हैं, पहाड़ों
पर बैठ जाते
हैं। और जिसे
छोड़ना था वह
भीतर साथ ही
चला जाता है।
अहंकार साथ ही
चला जाता है।
तुमने
देखा, तुम्हारे
तथाकथित
महात्माओं
में जितना अहंकार
जितना सघन
होता है, जितना
विकृत रूप से
प्रकट होता है,
उतना
साधारण जनों
में भी नहीं
होता।
स्वाभाविक है
यह भी, क्योंकि
सब छोड़ दिया।
दूसरों में तो
अहंकार और—और
चीजों में दबा
था, महात्मा
में बिल्कुल शुद्ध
हो जाता है——श्दुद्ध
जहर। न धन रहा,
न पद रहा, न पत्नी रही,
न बच्चे रहे——वे
सब बातें
गयीं। अहंकार
पर से सारी
बाधाएं हट
गयीं। अब
अहंकार रह गया——खालिस।
इसलिए अहंकार
गहन हो जाता
है त्यागी
में। और भक्ति
के पहले कदम
पर ही उसे छोड़
देना होता है,
समझ लेना
होता है।
सतगुरु
शरण में आइ, तो
तामस
त्यागिए।
मैं
हूं,
यह बात ही
भांति की है।
कल तुम नहीं
थे, कल तुम
फिर नहीं हो
जाओगे——इस बीच
में जो थोड़ी
देर को यह मैं
का बबूला उठा है,
इस पर इतना
भरोसा। कल तुम
मिट्टी में थे,
कल फिर
मिट्टी में
जाओगे। यह जो जरा—सी
लहर उठ आयी है
जीवन की, इस
पर बहुत
शोरगुल न
मचाओ।
जिंदगी
साज दे रही है
मुझे
सहर
और एजाज दे
रही है मुझे
और
बहुत दूर आसमांनों
से
मौत
आवाज दे रही
है मुझे
जिंदगी
के हर कदम पर
मौत की आहट भी
सुनते रहो। वे
दोनों साथ—साथ
हैं। जिंदगी
के हर क्षण
में मौत छिपी
है। अगर तुम
मौत को ठीक से
देखते रहो तो
अहंकार को बनने
का उपाय न
रहेगा।
अहंकार बनता
है इस भांति
में कि मुझे
सदा रहना है।
अहंकार बनता
है इस भांति
में कि जैसे
मैं सदा से
हूं।
कुछ
है तुम्हारे भीतर, जो
सदा से है; लेकिन
उसका तो
तुम्हें भी
पता नहीं। और
जिसे तुम
समझते हो अपना
होना, वह
सदा से नहीं
है। यह देह
अभी कुछ वर्षो
पहले निर्मित
हुई और यह देह
भी रोज बदलती
रही है, थिर
नहीं है। पानी
की तरह बहती
हुई धारा है।
और यह मन भी
थिर नहीं है; यह भी
प्रतिपल बदल
रहा है।
जब
तुम बच्चे थे, तब
की देह में और
आज की देह में
क्या तारतम्य
रह गया है?
कल के मन में
और आज के मन
में क्या
संबंध रह गया है? आनेवाला कल
अपना मन लाएगा,
अपनी देह
लाएगा। इस
बदलती हुई धारा
को तुमने अपना
अस्तित्व समझ
रखा है?
इसी भांति के
कारण तुम उसे
नहीं देख पाते
जो जन्म के भी
पहले था और
मृत्यु के भी
बाद में होगा।
बबूले में उलझ
जाते हो, बबूले
के नीचे छिपे
सागर को नहीं
खोज पाते।
जैसे
ही तुम देखोगे——
गौर से देखोगे——
इस मैं की
सच्चाई में झाकोगे, इस
मैं की जरा
खुदाई करोगे,
तुम पाओगे
कि यहां कुछ
भी पकड़ने जैसा
नहीं है। मैं
हूं कहां?
और ऐसा दिखायी
पड़े तो ही सदगुरू
की शरण में
झुके। झुकने
का अर्थ ही यह
होता है कि
मैं— भाव न रहा।
सतगुरु
का क्या अर्थ
होता है? —— ऐसा
कोई व्यक्ति,
जिसमें मैं—
भाव नहीं रहा
है।
अब
ध्यान रखना, सतगुरु
को भी '' मैं ''
शब्द का
उपयोग तो करना
ही होगा। वह
भाषा की
अनिवार्यता
है। कृष्ण तक
अर्जुन से
कहते हैं : मामेकं
शरणं तज। मुझ
की शरण आजा!
मेरी शरण आजा!
सर्व धर्मा; परित्यज्य!
सब छोड़— छाड़ दे,
सब धर्म
इत्यादि, मेरी
शरण आजा।
जब
कोई पढ़ता है, उसके
मन में खटका
लगता है कि
कृष्ण में बड़ा
भयंकर अहंकार
मालूम होता है——
'' मेरी शरण
आ जा!'' मैं
का उपयोग तो
कृष्ण को भी
करना पड़ रहा
है। भाषा की
अनिवार्यता
है। अन्यथा
कृष्ण में कोई
मैं नहीं। और
मजा ऐसा है कि
कृष्ण ने जब
कहा '' मामेकं
शरणं तज '' तो
वहां कोई
अहंकार नहीं
था। और जब तुम
कहते हो '' मैं
तो आपके पैर
की धूल '', तब
वहां बड़ा
अहंकार होता
है।’’ मैं
तो कुछ नहीं '' जब तुम कहते
हो, तब भी
वहां अहंकार
होता है।’’ मैं
तो नाकुछ '', तब
भी वहां
अहंकार होता
है।
इसलिए
सवाल यह नहीं
है कि मैं का
उपयोग करोगे कि
नहीं—— सवाल यह
है कि मैं को
भीतर निर्मित
होने दोगे कि
नहीं। मैं को
भीतर देख लेना——
अस्तित्वहीन
है,
सारहीन है,
व्यर्थ की
चिंताएं लाता
है, व्यर्थ
के उपद्रव खड़े
करता है;
जीवन को कलह
से और नरक से
भर देता है——
जिस व्यक्ति
को ऐसा दिखायी
पड़ गया है, उसको
हम कहते हैं : सदगुरू। और
उसके पास अगर
तुम भी झुक
जाओ तो जो उसे
दिखायी पड़ गया
है वह तुममें
भी उतर जाए।
उसके पास तुम
बैठ जाओ तो जो
उसे हुआ है
तुम्हें भी
होने लगे।
तुम्हारा भी
रंग बदले, तुम्हारा
भी ढंग बदले।
उसकी आभा
तुम्हारे
भीतर सोयी हुई
आभा को जगाने
लगे। उसकी पुकार
तुम्हें
सुनायी पड़े।
देखा
तेरे कूचे में
जो नज्जारे—जन्नत
जन्नत
में न देखा
तेरे कूचे का
नजारा
जिसकी
गली में, जिसके
आसपास, जिसके
सान्निध्य
में, स्वर्ग
की तुम्हें
पहली दफा थोड़ी—
सी झलक मिले, एक क्षण को
सही, एक
क्षण को पर्दा
हटे——वही सदगुरू!
जिसके पास यह
घटना घट जाए, वहीं झुक
जाना। फिर
फिक्र मत करना
कि वह हिंदू
है कि मुसलमान
कि जैन कि
ईसाई। फिर
फिक्र मत करना।
चूकना मत ऐसा
अवसर। असली
सवाल तो झुकने
की कला है;
किसके पास
झुके, यह
उतना
महत्वपूर्ण
नहीं है, जितना
झुके।
ऐसी
घटनाएं हैं
इतिहास में कि
कभी—कभी कोई
व्यक्ति ऐसे
व्यक्ति के
पास झुक गया, जिसको
अभी खुद भी
नहीं मिला था; लेकिन उसका
झुकाव इतना
परिपूर्ण था
कि गुरु को
नहीं मिला था,
लेकिन
शिष्य को मिल
गया। झुकने की
वजह से मिल
गया। और ऐसा
भी हुआ है कि
बड़े से बड़े सदगुरू
के पास लोग
रहे, अपने
अहंकार से भरे
हुए, बुद्ध
के पास रहे
हैं और
क्राइस्ट के
पास रहे हैं
और नानक के
पास रहे और
कबीर के पास
रहे और अपनी
अकड़ से भरे
रहे और कुछ भी
न मिला।
तो
कभी— कभी ऐसा
भी हुआ है कि
वृक्षों के
सामने झुक गए आदमी
को मिल गया है, पत्थरों
के सामने झुक
गये आदमी को
मिल गया है——और
बुद्धों के
पास कोई बैठा
रहा और नहीं
झुका, तो
नहीं मिला।
इसलिए एक बात
खयाल में ले
लेना: सार की
बात है झुकना।
गुरु तो केवल
एक निमित्त
मात्र है, उसके
बहाने झुक
जाना। उसके
बहाने झुकने
में आसानी
होगी। झुकने
के लिए जो भी
बहाना मिल जाए,
चूकना ही मत।
समझदार का यही
काम है। जहां
झुकने का
बहाना मिल जाए
झुक जाना। और
अगर तुम झुकने
के लिए बहाना
खोजो तो अनंत
बहाने हैं।
किसी सुंदर
स्त्री को देख
कर झुक जाना, क्योंकि सब
सौंदर्य उसी
का सौंदर्य है।
किसी
खिलखिलाते
बच्चे को देख
कर झुक जाना, क्योंकि सब
खिलखिलाहट
उसकी है। किसी
खिले हुए फूल
को देख कर झुक
जाना, क्योंकि
जब भी कहीं
कुछ खिलता है
वही खिलता है,
उसके
अतिरिक्त कोई
है ही नहीं।
सूरज के सामने
झुक जाना, क्योंकि
सब रोशनी उसकी
है।
इस
देश में
इसीलिए तो
सूरज भी देवता
हो गया, चांद
भी देवता हो
गया, बादल
के भी देवता
हो गए। बिजली
चमकी तो उसका
भी देवता हो
गया। इसके
पीछे बड़ा राज
है। राज है : हमने
झुकने के कोई
निमित्त नहीं
छोड़े। आकाश
में बिजली
चमकी, हमने
वह बहाना भी न
छोड़ा; हमने
घुटने टेक दिए
जमीन पर;
हम अपनी
प्रार्थना
में लीन हो गए।
बिजली चमक रही
थी।
भौतिकवादी
दृष्टि का
आदमी कहेगा :
क्या पागलपन
कर रहे हो, बिजली
बिजली है, इसके
सामने क्या
झुक रहे हो?
मैं
एक घर में
मेहमान था——एक
ग्रामीण घर
में। अब तो
बिजली आ गयी
उस गांव में।
बिजली जली, अब
घर की बिजली
है, खुद ही
ग्रामीण ने
जलायी और खुद
ही सिर झुकाकर
नमस्कार किया।
मेरे साथ एक
मित्र बैठे थे——पढ़े—लिखे
हैं, डाक्टर
हैं।
उन्होंने कहा :
यह क्या
पागलपन है?
अब तो बिजली
हमारे हाथ में
है। अब तो यह
कोई इंद्र का
धनुष नहीं है।
अब तो यह कोई
इंद्र के
द्वारा लायी
गयी चीज नहीं
है। यह तो
हमारे हाथ में
है, हमारे
इंजीनियर ला
रहे हैं। और
तू खुद अभी
बटन दबाकर
इसको जलाया है।
वह
ग्रामीण तो
चुप रह गया।
उसके पास
उत्तर नहीं था।
लेकिन मैंने
उन डाक्टर को
कहा कि उसके
पास भला उत्तर
न हो,
लेकिन उसकी
बात में राज
है और
तुम्हारी बात
में राज नहीं
है। और
तुम्हारी बात
बड़ी
तर्कपूर्ण
मालूम पड़ती है।
यह सवाल ही
नहीं है कि
बिजली कहां से
आयी। कुल सवाल
इतना है कि
झुकने का कोई
बहाना मिले तो
चूकना मत।
जिंदगी जितनी
झुकने में लग जाए
उतना शुभ है, क्योंकि
उतनी ही
प्रार्थना
पैदा होती है।
और जितने तुम
झुकते हो उतना
ही परमात्मा
तुम में
झांकने लगता
है——झुके हुओं
में ही झांकता
है!
सतगुरु
सरन में आइ तो
तामस
त्यागिए।
लेकिन
सतगुरु उधार
नहीं हो सकता।
तुम्हें प्रेम
का अनुभव हो
तो ही...। तुम
हिंदू घर में
पैदा हुए, हिंदू
गुरु के पास
गए कि चलो
गांव में पुरी
के
शंकराचार्य
आए हुए हैं।
मगर तुम्हारा
झुकाव सच्चा
नहीं हो सकता,
औपचारिक
होगा। तुम
हिंदू की तरह
झुक रहे हो, व्यक्ति की
तरह नहीं; एक
आत्मवान सचेत
चेतना की तरह
नहीं——हिंदू
की तरह। झुक
रहे हो, क्योंकि
पिता भी झुकते
रहे थे, पिता
के पिता भी
झुकते रहे थे।
झुक रहे हो, क्योंकि
बचपन से
सिखाया गया है
कि झुको।
मैं
छोटा था तो
मेरे पिता को
आदत है। घर
में कोई भी आए
बड़ा—बूढा, कोई
भी आए, वे
सब बच्चों को
बुलाकर कहें
कि जल्दी झुको,
पैर छुओ।
मैंने उनसे
कहा कि हम पैर
तो छू लेते हैं,
मगर हम
झुकते नहीं।
उन्होंने कहा :
मतलब? मैंने
कहा : झुका
हमें कोई नहीं
सकता। यह तो
बिल्कुल जबर्दस्ती
है। कोई भी
ऐरा—गैरा—नत्थू
खैरा घर में आ
जाता, और
बस बुलाए कि
चलो, झुको।
उस दिन तो
उनकी बात मेरी
समझ में नहीं
आती थी, अब
समझ में आती
है : वह भी
बहाना था। वह
भी झुकाना
सिखाने का
बहाना था।
लेकिन उसमें
हृदय नहीं हो
सकता था।
क्योंकि मेरे
भीतर कोई
प्रीति नहीं
उमग रही थी, मेरे भीतर
कोई श्रद्धा
नहीं जन्म रही
थी। तो शरीर
झुक जाएगा।
पुरी
के
शंकराचार्य आ
गए,
तुम हिंदू
हो, तो
जाकर शरीर झुक
जाएगा। कोई
मौलवी आया, तुम मुसलमान
हो, तो
जाकर झुक
जाओगे। मगर
क्या तुम्हारा
हृदय झुक रहा
है? अगर
हृदय नहीं झुक
रहा है तो इस
उपचार से कुछ
भी न होगा। और
इस उपचार में
एक खतरा है कि
कहीं तुम इसी
उपचार में
उलझे न रह जाओ
और कहीं ऐसा न
हो कि असली झुकने
की जगह चूक
जाए, तुम
वहां जाओ ही
नहीं!
मैं
सर तो झुकाती
हूं तेरे
हुक्म में
लेकिन
दिल
को मेरे राजी
व रजा कौन
करेगा?
जहां
तुम्हारा दिल
राजी और रजा
हो जाए, जहां
अचानक तुम पाओ
कि झुकने की
गहन आकांक्षा पैदा
हो रही है, वहां
बाधा मत डालना,
बस। बिना
उपचार के, बिना
कारण के, अहेतुक
झुक जाना। और
उसी झुकने से
पहली क्रांति
घटती है——तामस
छूटता है।
ऊंच
नीच कहि जाय
तो उठि नहिं
लागिए।।
फिर
कोई तुम्हें
गाली दे जाए, ऊंचा—नीचा
कह जाए, तो
धरमदास कहते
हैं : अब
उसके मुंह मत
लगना।
क्योंकि तुम
हो ही नहीं, कौन तो ऊंचा
कहेगा, कौन
नीचा कहेगा!
अब
खयाल रखना : ऊंच
नीचे कहि जाय...।
यह बड़े मजे की
बात है। हमारे
पास ऐसे बहुत—से
शब्द हैं, जिनमें
विचार करने
जैसी बात छुपी
है। कोई गाली
दे जाता है तो
हम कहते हैं : ऊंच—नीच कह
गया। नीच कह
गया, यह तो
ठीक; मगर
ऊंच क्यों
लगाते हैं? सच तो यह है
कि जब कोई
प्रशंसा कर
जाता है, तब
भी बात उतनी
ही झूठी और
व्यर्थ है, जितनी जब
गाली दे जाता
है। तो इसका
पूरा अर्थ हुआ
कि कोई
प्रशंसा करे
या कि कोई
निंदा करे, ऊंच कि नीच, दोनों हालत
में तुम अछूते
रह जाना।
सदगुरू
के पास झुके
हो,
इसका
प्रमाण क्या
होगा? यही
प्रमाण होगा :
ऊंच नीच कहि
जाय तो उठि
नहिं लागिए।
उसके
मुंह मत लग
जाना। उससे
जूझने मत
लगना। कोई
प्रशंसा करे
तो आह्नाद से
मत भर जाना और
कोई गाली दे
जाए तो उदास, क्रोध
से मत भर
जाना।
क्योंकि जब
अहंकार ही नहीं
है तो कैसी
प्रशंसा और
कैसी निंदा? तुम्हीं
नहीं हो तो
तुम्हारे
संबंध में जो
भी कहा गया, सब व्यर्थ
है। तुम्हीं
नहीं हो तो
तुम्हारे नाम
जितने पत्र
लिखे गए हैं, वे सब
व्यर्थ हैं।
तुम अनाम, तुम्हारा
कोई पता नहीं,
तो
तुम्हारे नाम
जो प्रशंसा
आयी है, चापलूसी
आयी है और जो
गाली आयी है, निंदा आयी
है——दोनों
व्यर्थ हो
गयीं।
उठि
बोलै रारै रार......।
और अगर तुम
बोले तो फिर
क्रोध से
क्रोध बढ़ता है।....
रारै रार! वैर
से वैर बढ़ता
है।.. .सो जानो
घींच। और ऐसा
अगर करोगे तो
जिंदगी के
झगड़े से कभी
मुक्त न हो
पाओगे, झगड़ा
बढ़ता ही
जाएगा।
इतना
झगड़ा बढ़ गया
है जिंदगी में, उसका
कारण कहां है?
उसका कारण
यही है कि सब
अपने—अपने
अहंकार में
अकड़े खड़े हैं;
कोई झुकने
को राजी नहीं
है। और सब की
अहंकार की अकड़
एक—दूसरे से
टकराती है।
सबके अहंकार
की अकड़ अनिवार्य
रूप से संघर्ष
का कारण हो
जाती है। फिर
जिंदगी की
ऊर्जा इसी में
खो जाती है, जैसे कि नदी
रेगिस्तान
में खो जाए।
उठि
बोलै रारै रार, सो
जानो घींच है।
जेहि
घट उपजै क्रोध, अधम
अरु नीच है।।
क्रोध
को इतना बुरा
क्यों कहा है? समस्त
धर्मों ने
क्रोध की इतनी
खिलाफत क्यों
की है? कारण
है। क्योंकि
क्रोध अहंकार
का प्रतीक है।
अहंकार तो
भीतर होता है,
क्रोध बाहर
आ जाता है।
बिना अहंकार
के क्रोध आ ही
नहीं सकता।
अहंकार की
दुर्गंध है
क्रोध।
अहंकार की
सड़ाध भीतर हो
तो क्रोध की
दुर्गंध बाहर
आती है।
जेहि
घट उपजै क्रोध, अधम
अरु नीच है।
सावधान
होना। अगर
गुरु के चरणों
में झुके हो, अगर
गुरु खोजा है,
तो अब थोड़ा
गुरुत्व सीखो।
अब थोड़े जीवन
में प्रसाद को
लाओ। ये सब
व्यर्थ की
बातें आती हैं
और चली जाती
हैं।
निकल
जाएंगे रफ्ता
रफ्ता सब अरना
कोई
आह बन कर कोई
जान बन कर
यहां
कुछ बचता नहीं, सब
खो जाता है।
जहां सब खो
जाना सुनिश्चित
है, वहां
झगड़ा क्या!
जहां मेरा कुछ
भी नहीं रहेगा,
मेरा नाम—निशान
नहीं रहेगा, जहां धूल
में मिल जाना
नियति है——वहां
झगड़ा क्या!
झगड़ा किस बात
का!
आसमां
आज भी नालों
से हिला सकता
हूं
मैं
जो खामोश हूं
इसका भी सबब
है कोई
जो
गुरु के साथ
जुड़ गया, खामोश
होने लगता है।
ऐसा नहीं है कि
मर गया।
आसमां
आज भी नालों
से हिला सकता
हूं
मैं
जो खामोश हूं, इसका
भी सबब है कोई
सबब
इतना ही है कि
अब व्यर्थ हो
गया। अब
दिखायी पड़ने
लगा।
छोटे—छोटे
बच्चे
खिलौनों पर
लड़ते हैं, तुम
तो नहीं लड़ते।
छोटे—छोटे
बच्चे रेत के
घर बना लेते
हैं नदी के तट
पर और लड़ते हैं,
तुम तो नहीं
लड़ते। और सांझ
को तुमने देखा
है! छोटे
बच्चे भी उन्हीं
घरौंदों के
लिए बड़े लड़ते
थे, दिनभर
बड़ा झगड़ा मचाए
थे, सांझ
हो गयी, मां
की आवाज आती
है कि अब आ जाओ
घर, भोजन
का समय हुआ, अपने ही
बनाए हुए घरों
पर उछल—कूद कर
के, मिट्टी
में मिला कर
बच्चे घर लौट
आते हैं। वे
भी प्रौढ़ हो
गए सांझ होते—होते।
दिनभर लड़े थे
इन्हीं
घरग्लों के
लिए, इन्हीं
रेत के महलों
के लिए।
और
हमारे महल भी
रेत के महल
हैं। कितनी ही
चट्टानों से
बनाओ;
क्योंकि सब
चट्टानें रेत
हैं, इसलिए
सब महल रेत
हैं। जो
चट्टानें हैं
आज, कल रेत
हो जाएंगी। जो
आज रेत है, कल
चट्टानें थीं।
यहां कुछ
रुकता नहीं, सब बहता चला
जाता है। जिसे
जीवन की यह
प्रतीति होने
लगती है, उसके
भीतर एक
खामोशी...। वह
देखता है और
हंसता है। कोई
गाली दे जाता
है तो वह हंस
लेता है, चकित
होता है।
माला
वाके हाथ
कतरनी कांख
में।
ऐसा
आदमी, जो अभी
क्रोध से भरा
है, अहंकार
से भरा है वह
बड़े पाखंड में
पड़ गया है।
इससे तो अच्छा
था गुरु का
सत्संग न करता।
इससे तो अच्छा
था मंदिर न
आता। इससे तो
अच्छा था माला
हाथ में न
लेता। माला
उसे पवित्र
नहीं कर पायी,
उसने माला
को अपवित्र कर
दिया है।
माला
वाके हाथ कतरनी
कांख में।
मुंह
में राम, बगल
में छुरी! राम—
राम तो सिर्फ
बहाना है, छुरी
चलाने का अवसर
खोज रहा है।
सावधानी
रखना! ये किसी
और के लिए कहे
गए वचन नहीं
हैं,
ये
प्रत्येक
मनुष्य के लिए
सार्थक वचन हैं,
संगत वचन
हैं।
तुम्हारे लिए
तो और भी, क्योंकि
तुम सत्संग
में जुड़े हो।
सूझै
नाहिं आगि दबी
है राख में।
और
कभी—कभी यह भी
हो जाता है कि
ऊपर—ऊपर से
क्रोध भी नहीं
करता आदमी, ऊपर—
ऊपर से लीप—पोत
कर लेता है और
भीतर— भीतर आग
जलती है।
दूसरों को
शायद धोखा हो
जाए, मगर
अपने को तो
कैसे धोखा दे
पाओगे?
अंगारा जो
भीतर
तुम्हारे है,
तुम्हें तो
पता ही रहेगा।
इसलिए
प्रत्येक
साधक को अपने
भीतर निरंतर
आत्म—निरीक्षण
में लगे रहना
चाहिए;
देखते रहना
चाहिए कि जो
मैं बाहर
दिखला रहा हूं
वैसा मैं भीतर
हूं या नहीं
हूं? अगर
मेरा बाहर और भीतर,
अगर मेरा
बहिरंग और
अंतरंग एक
नहीं है, संगीतबद्ध
नहीं है, तो
मैं पाखंडी
हूं। फिर चाहे
मैं दुनिया को
धोखा देने में
सफल हो जाऊं, पर उसका सार
क्या है!
परमात्मा को
धोखा देने में
मैं सफल नहीं
हो पाऊंगा।
परमात्मा
मुझे वैसा ही
जान लेगा जैसा
मैं अपने को
जानता हूं, क्योंकि
परमात्मा
मेरे भीतर मुझ
से भी गहरा बैठा
हुआ है। शायद
बहुत—सी बातें
जो मुझे नहीं
दिखायी पड़ती
अपने भीतर, वे भी
परमात्मा के
सामने प्रकट
हैं।
ऊपर—ऊपर
से लोग
बदलाहटें कर
लेते हैं और
भीतर— भीतर
वही के वही रह
जाते हैं।
मेरे
दिल मायूस में
क्योंकर न हो
उम्मीद
मुर्झाए
हुए फूल में
क्या यू नहीं
होती?
मुर्झाए
फूल में भी यू
रह जाती है! सब
तरफ से जिंदगी
से उदास और
हार गए लोग भी, जिंदगी
से एकदम मुक्त
नहीं हो गए
होते, जिंदगी
की यू रह जाती
है। उस यू को
ठीक से पहचानते
रहना।
यह
बहुत आसान है
दुनिया में
साधु बन जाना; संत
बनना कठिन है।
और संत और
साधु का फर्क
यही है। साधु
का मतलब : बाहर,
जो सबके लिए
साधु हो गया
है। जिसके
कारण बाहर की
दुनिया में अब
कोई असाधुता
नहीं होती।
लेकिन भीतर
साधु हुआ कि
नहीं? क्योंकि
यह हो सकता है
तुम बाहर
हत्या न करो और
भीतर हत्या के
विचार करो।
अकसर तो ऐसा
होता है जो
बाहर हत्या
नहीं करते वे
भीतर हत्या के
बहुत विचार
करते हैं। जो
बाहर हत्या कर
लेते हैं शायद
भीतर विचार भी
नहीं करते। अब
विचार करने की
क्या जरूरत
रही जब कर ही
लिया? अकसर
ऐसा हो जाता
है।
मैं
जेलों में
बहुत दिन तक
जाता रहा।
कारागह के कैदियों
से मेरे लंबे
नाते—रिश्ते
बने। मैं चकित
हुआ यह बात
जानकर कि कारागह
में जो कैदी
हैं——कोई
हत्यारा है, कोई
चोर है, कोई
कुछ है, कोई
जीवनभर के लिए
कैद में पड़ा
है——उनकी आंखों
में एक तरह की
सरलता दिखाई
पड़ती है, जो
कि तथाकथित
सज्जनों की आंखों
में नहीं
दिखायी पड़ती।
एक तरह का
भोलाभालापन
मालूम पड़ता
है। और मैंने
उनसे पूछा, क्योंकि
मेरा रस
मनोविज्ञान
में है, मैं
उनसे बार— बार
पूछा कि अपने
सपने कहो।
अनेक कैदी तो
मुझे कहे कि
हमें सपने आते
ही नहीं। किसी
ने कहा, कभी—
कभी आते हैं।
''
किस तरह के
आते हैं ''?
तो
मैं चकित हुआ
जानकर यह बात
कि अपराधी
अकसर सपने
देखते हैं कि
वे साधु हो गए, कि
अब अपराध नहीं
करते हैं। और
साधु, जिनको
तुम कहते हो, अकसर सपने
देखते हैं कि
जो— जो अपराध
उन्होंने
नहीं किए हैं,
वे सपनों
में कर रहे
हैं। जो
चोरियां
उन्होंने
नहीं कीं, वे
सपनों में कर
लेते हैं। जो
काम— भोग
उन्होंने
जिंदगी में
नहीं किया, वह सपने में
कर लेते हैं।
तुम्हारा
सपना खबर देता
है कि तुमने
जिंदगी में
क्या नहीं
किया, क्योंकि
सपना परिपूरक
है। दिन में
उपवास किया तो
रात सपने में
भोजन कर लेते
हो। दिन में
पड़ोस की
स्त्री को
देखकर मन को
संभाल लिया और
कहा कि मैं
साधु हूं, ऐसी
बात उठनी ही
नहीं चाहिए
मेरे मन में; लेकिन रात
पड़ोस की पत्नी
को लेकर भाग
गए। सपने में!
सुबह हंसते हो; मगर जो रात
हुआ है, वह
अकारण नहीं
हुआ है। सपनों
में सम्राट बन
जाते हो, विजेता
हो जाते हो।
सारी दुनिया
में यश—
कीर्ति फैल
जाती है। सोने
के महलों में
रहने लगते हैं।
भिखमंगे
अकसर सम्राट
होने के सपने
देखते हैं। जो
नहीं है, उसका
सपना होता है।
क्योंकि सपना
एक तरह की परिपूर्ति
है। सपना मन
को सांत्वना
है।
साधु
वह,
जो बाहर से
तो अच्छा हो
गया है। संत
वह, जो
भीतर से भी
अच्छा हो गया
है, जिसकी
साधुता बाहर
और भीतर सम हो
गयी है;
जिसका तराजू
बीच में ठहर
गया है;
जिसके भीतर
सपने में भी
बुराई नहीं
रही है।
सूझै
नाहिं आगि दबी
है राख में।
अमृत
वाके पास रुचै
नहिं रांड को।।
''
रांड '' शब्द
समझना। रांड
का अर्थ होता
है : विधवा।
जो परमात्मा
से नहीं जुडे
हैं, वे सब
विधवा हैं।
उन्हें अभी
दूल्हा मिला
ही नहीं। कबीर
ने कहा है : मैं तो
राम की
दुल्हनियां।
कबीर ने कहा
है हम तो
ब्याहि चले......
हमारा तो
विवाह हो गया।
हम राम की
दुल्हनियां है?
जब
तक राम
तुम्हारे
हृदय में
विराजमान
नहीं हो गया
है,
तब तक विधवा
ही हो। विधवा
अ भागी दश है।
और यह
आध्यात्मिक
वैधव्य तो और
भी अभागी दश है।
और जन्मों —
जन्मों से यह
वैधव्य चल रहा
है। प्यारे से
मिलना हुआ ही
नहीं।
अमृत
वाके पास...। और
मजा ऐसा है कि
प्यारा
बिल्कुल पास
है,
अपने से
ज्यादा पास है।
मांगने की बात
है और मिल जाए।
खटखटाने की
बात है और
द्वार खुल
जाएं।
जीसस
का वचन याद
करो : खटखटाओ
—— और द्वार खुल
जाएंगे! मांगो
—— और मिल जाएगा!
पूछो —— और मिल
जाएगा! खोजो ——
और मिल जाएगा! सिर्फ
द्वार
खटखटाने की
बात है।
सूफी
फकीर राबिया
तो और एक कदम
जीसस से आगे
बढ़ गयी। फकीर
हसन रोज—रोज
अपनी
प्रार्थनाओं
में बैठता था
और परमात्मा
से कहता था : कब
से तेरा द्वार
पीट रहा हूं, दरवाजा खोल!
अब मुझे भीतर
आने दे! मैं
सिर पटक रहा
हूं तेरे
द्वार पर। कब
से सिर पटक
रहा हूं! मेरे
सिर को देख!
मेरे माथे को
देख! तेरे
द्वार के
पत्थर पर
पटकते—पटकते
निशान बन गए
हैं, अब
द्वार खोल!
रोता था, पुकारता
था। एक दिन
राबिया वहां
से गुजरती थी
फकीर हसन के दरवाजे
के पास से। वह
अपनी सुबह की
प्रार्थना कर
रहा था—— वही
रोज की
प्रार्थना।
राबिया पीछे
खड़ी हो गयी।
उसने कहा : हसन,
सुन! दरवाजा
खुला है। नाहक
सिर न पीट।
अगर भीतर जाना
है तो जा, नहीं
जाना है तो मत
जा। मगर
दरवाजा खुला
है।
दरवाजा
बद कब था?
राबिया
अदभुत स्त्री
हुई। ——उसी
कोटि में, जिसमें
बुद्ध और
महावीर, कृष्ण
और क्राइस्ट।
बड़ी हिम्मतवर
स्त्री थी।
हसन को पसीना
छूट गया था, कहते हैं जब
राबिया ने यह
कहा कि तू सिर
पटक रहा है सिर्फ
बचने के लिए; भीतर जाना
नहीं है, तो
सिर पटकने का
बहाना कर रहा
है। सिर पटकना
क्यों?
दरवाजा खुला
है।
जीसस
ने कहा है : खटखटाओ
और दरवाजा
खुलेगा। राबिया
कहती है : खटखटाने
की जरूरत नहीं
है, गौर से
देखो——दरवाजा
खुला है!
अमृत
वाके पास, रुचै
नहिं रांड को।
प्यारा
इतना निकट है, लेकिन
हम ऐसे अभागे
हैं कि हमें
रुचता नहीं।
हम कहते हैं
परमात्मा
कहां?
पूछना चाहिए
कि परमात्मा
कहां नहीं है? हम सोचते
हैं परमात्मा होगा
कहीं स्वर्ग
में। यह तुमने
परमात्मा को
निष्कासित कर
दिया पृथ्वी
से। तुमने
चालबाजी की।
तुम परमात्मा
को पास नहीं
चाहते, तुमने
स्वर्ग में
बिठा दिया——दूर,
इतने दूर, इतने दूर कि
तुम्हारे
अंतरिक्षयान
भी वहां तक
नहीं पहुंच
सकेंगे।
हम
सदा परमात्मा
को दूर बिठाने
में बड़ा रस
लेते रहे हैं।
जब तक हिमालय
पर आदमी नहीं
जा सकता था, हमने
हिमालय पर
बिठा रखा था——कैलाश
पर। जब आदमी
कैलाश पहुंच
गया, हमने
कहा : अब तो
वहां बिठाना
मुश्किल है, फिर पास पड़
जाएगा। चांद
पर बिठा दिया
था। अब
मुश्किल आ गयी।
अब चांद पर
आदमी पहुंच
गया। अब हम
उसको और आगे
सरकाएंगे। हम
सरकाते ही
रहेंगे। हम
परमात्मा को
वहां रखते हैं,
जहां हम
नहीं हैं।
क्योंकि
परमात्मा के
निकट होना
खतरनाक है।
खतरनाक है
इसलिए, कि
उस प्यारे पर
नजर जाएगी तो
तुम्हें
मिटना होगा।
तुम्हारी
बूंद उस सागर
में गिर जाएगी
तो समाप्त हो
जाएगी। अमृत
वाके पास, रुचै
नहिं रांड को।
हम
ऐसे अभागे हैं
कि हमें अमृत
नहीं रुचता, हमें
जहर रुचता है।
हमें जहर का
स्वाद लग गया
है।
स्वान
को यही स्वभाव
गहै निज हाड़
को।।
हमारी
हालत कुत्ते
जैसी हो गयी
है। कुत्ते को
देखा है? सूखी
हीइडयां
चूसता है, जिनमें
कुछ रस नहीं
है। कुत्ते
सूखी हीइडयों
के पीछे
दीवाने होते
हैं। एक
कुत्ते को
सूखी हड्डी
मिल जाए तो
सारे मुहल्ले
के कुत्ते
उससे लड़ने को
तैयार हो जाते
हैं। बड़ी
राजनीति फैल
जाती है। बड़ा
विवाद मच जाता
है। बड़ी पार्टियां
खड़ी हो जाती
हैं। कुत्तों
को इतनी सूखी
हड्डी में रस
क्या है?
रस तो उसमें
है ही नहीं।
फिर यह रस
कैसा? हड्डी
को तो निचोडो
भी, मशीनों
से, तो भी
कुछ निकलने
वाला नहीं है——सूखी
हड्डी है। फिर
होता क्या है?
एक
बड़े मजे की
घटना घटती है।
कुत्ता जब
सूखी हड्डी को
चूसता है तो
उसके मसूढे, उसकी
जीभ, उसका
तालू सूखी हड्डी
की चोट से टूट
जाता है जगह—जगह,
उससे खून
बहने लगता है।
वह उसी खून को
चूसता है और
सोचता है हड्डी
से आ रहा है।
और कुत्ते का
तर्क भी ठीक
है, क्योंकि
कुत्ते को और
इससे ज्यादा
पता भी क्या
चले! खून गले
के भीतर जाता
हुआ मालूम
पड़ता है——प्रमाण
हो गया कि हड्डी
से ही आता
होगा।
तुम
जरा गौर करोगे
तो तुमने
जिंदगी में
जिन बातों को सुख
कहा है, वे सब
ऐसी ही हैं। हड्डी
से सिर्फ
तुम्हारा ही
खून तुम्हारे
गले में उतर
रहा है। हड्डी
से कुछ नहीं आ
रहा है, सिर्फ
घाव बन रहे
हैं। मगर तुम
सोच रहे हो कि
बड़ा रस आ रहा
है। और जिस हड्डी
से रस आ रहा हैD,
उसको
छोड़ोगे कैसे? अगर कोई
छुड़ाना चाहे
तो तुम मरने—मारने
को तैयार हो
जाओगे।
कुत्ते जैसी
दशा है आदमी
की।
तुम
सोचते हो धन
के मिलने से
सुख आता है?
तो तुम उसी
गलती में हो, जिसमें
कुत्ते हैं।
धन से सुख
नहीं आता, लेकिन
आता तो लगता
है। तो जरूर
कहीं बात होगी।
आता तो लगता
है, गले से
उतरता तो लगता
है। क्योंकि
धनी आदमी
प्रसन्न
दिखता है, प्रफुल्लित
दिखता है;
उसकी चाल में
गति आ जाती है।
देखा! पैसे
पड़े हों खीसे
में तो गर्मी
रहती है।
सर्दी में भी
गरमी रहती है!
मैंने
सुना है, एक
दिन मुल्ला
नसरुद्दीन और
उसका बेटा, दोनों एक
जंगल से भाग
रहे थे, पीछे
शेर लगा था।
शिकार को गए
थे, लेकिन
हालत उल्टी हो
गयी थी। शेर
शिकार कर रहा
था। घबड़ाहट
में भाग खड़े
हुए थे। एक
नाले पर छलांग
लगायी। बेटा
तो बीच नाले
में गिर गया, लेकिन मुल्ला
बूढा उस पार
पहुंच गया। जब
दोनों संभले,
बैठे, तो
बेटे ने पूछा
कि यह बात
मेरी समझ में
नहीं आयी। मैं
जवान हूं।
मैंने भी
छलांग लगायी,
पूरी ताकत
से लगायी, क्योंकि
शेर पीछे लगा
है। मगर मैं
तो बीच में पड़
गया नाले के
और पानी में भीग
गया। तुम उस
तरफ कैसे निकल
गए?
मुल्ला
ने कहा : उसके
पीछे राज है।
उसने अपना
खीसा खनखनाया।
पुरानी कहानी
है। रुपए खनखन—खनखन
हुए। उसने कहा
: जब भी मैं
कहीं जाता हूं
तो रुपए खीसे
में रखता हूं, इससे
गर्मी रहती है।
इन रुपयों की
वजह से छलांग
लग गयी। आज
अगर खीसे में
रुपए न होते, मैं भी
गिरता।
तुम
देखते हो, जब
तुम्हारे पास
रुपए होते हैं
तो चाल बदल
जाती है! चाल
में एक शान आ
जाती है! चलते
जमीन पर हो, पैर नहीं
पड़ते जमीन पर।
और जब रुपए
नहीं होते, जब पास में
कुछ नहीं होता,
तो बिल्कुल
सिकुड़ जाते हो।
चाल में गति
ही नहीं मालूम
होती। जब पद
पर होते हो तब
देखा, उड़ने
लगते हो!
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
राजनेता जब तक
पद पर होते
हैं,
तब तक
स्वस्थ रहते
हैं। जैसे ही
पद से उतरे कि
बीमार होने शुरू
हो जाते हैं।
राजनेता जब तक
जीतते रहते
हैं, जब तक
विजय—यात्रा
बनती रहती है,
तब तक जीते
हैं, लंबे
जीते हैं। और
जैसे ही हार
आनी शुरू होती
है, वैसे
ही मौत आनी शुरू
हो जाती है।
चीन ने अगर
हमला न किया
होता तो
जवाहरलाल नेहरू
ज्यादा जिंदा
रह सकते थे।
चीन के हमले
ने तोड़ दिया।
प्रतिष्ठा
उखड़ गयी। मन
डांवाडोल हो
गया।
राजनेता
पद पर होता है
तो एक बल
मालूम होता है।
बल आ तो रहा है
कहीं से। हड्डी
में रस तो आ
रहा है। कहां
से आ रहा है, यह
पक्का नहीं हो
पाता। धन होता
है तो आदमी बल
में होता है; ताकत होती
है, वजन
होता है। धन
चला जाता है
तो सब गड़बड़ हो
जाती है। जैसे
ही कोई आदमी
राजपद से नीचे
उतरता है, उसकी
हालत वैसी ही
हो जाती है
जैसे जब कपड़ा
इस्त्री खो
देता है, लुंज—पुंज
हो जाता है; या जूता
बहुत दिन चलते—चलते
चलते— चलते
टूट—फूट जाता
है, सब तरह
से सड—गल जाता
है।
और
एक बार तुम पद
से नीचे उतरे
कि फिर
तुम्हें कोई
नहीं पूछता।
तो धन और पद से कहीं
कोई रस बहता
जरूर होगा, नहीं
तो इतने लोग
दीवाने न होते।
कहां से बहता
होगा?
मनोविज्ञान...
और धर्म ने तो
मनोविज्ञान
में बड़ी गहरी
खोजें की हैं,
जो आधुनिक
मनोविज्ञान
अभी पकड़ भी
नहीं पाया है; लेकिन
पकड़ने के
रास्ते पर है।
क्या खोज है? खोज यह है कि
जब तुम्हारे
पास धन होता
है तो जो रस
आता है, वह
धन के कारण
नहीं आता। धन
के कारण आ ही
नहीं सकता, नहीं तो
बुद्ध को भी
आया होता, महावीर
को भी आया
होता। फिर किस
कारण आता है? अहंकार के
कारण आता है।
अहंकार
बलिष्ठ मालूम
होता है। मैं
कुछ हूं! पद पर
होते हो तो
लगता है : मैं कुछ
हूं! और मजा यह
है कि अहंकार
तुम्हारी आत्मा
में घाव कर
रहा है, तुम्हें
मवाद से भर
देगा। अहंकार
ही नरक पैदा
करेगा। लेकिन
अहंकार ही रस
दे रहा है।
वह
हड्डी जो
कुत्ता चूस
रहा है, वह
इसके मुंह में
घाव बना रही
है। मगर घावों
का उसे पता
नहीं है। वह
तो जब होगा तब
देखा जाएगा।
और जब उसे पता
चलेगा तब शायद
वह संबंध भी न
जोड़ पाएगा कि हड्डी
ने बनाया। हड्डी
ने तो रस दिया
था। पद पर रस
मिल रहा है——
वस्तुत :
अहंकार मिल
रहा है। धन से
रस मिल रहा है——वस्तुत
: अहंकार मिल
रहा है।
और
आज नहीं कल, यही
अहंकार नरक
पैदा करता है,
क्योंकि
इसी अहंकार से
क्रोध पैदा
होता है। इसी
अहंकार से लोभ
पैदा होता है।
इसी अहंकार से
मत्सर पैदा
होता है। इसी
अहंकार सेद्
ईष्या पैदा
होती है। इसी
अहंकार से
जीवन संघर्ष
बन जाता है।
जीवन के सारे
नरक का फैलाव
इसी अहंकार के
घाव से होता
है। इसमें
मवाद बढ़ती ही
चली जाती है।
रस
तो कुत्ते को
मिलता है निश्चित, मगर
अपने ही
प्राणों का रस
मिल रहा है——और
चोट पहुंचा कर
मिल रहा है——और
व्यर्थ की कता
कुत्ता कर रहा
है। लेकिन
आदमी भी वैसा
करता है।
अमृत
वाके पास रुचै
नहिं रांड को।
स्वान
को यही स्वभाव
गहै निज हाड़
को।।
का
भे बात बनाए, परचै
नहिं पीव सों।
कहते
हैं धनी
धरमदास : बातें
बनाने से कुछ
भी न होगा, जब
तक परमात्मा
से परिचय न हो।
सिद्धांत और शास्त्र
और दर्शन और
बड़ी लफ्फाजी
और बड़ा
पांडित्य! का
भे बात बनाय...
इन बातें
बनाने से कुछ
भी न होगा।
तुम्हारा
ईश्वर भी
तुम्हारी
बकवास है। और
तुम्हारी प्रार्थना
भी तुम्हारी
बकवास है।
तुम्हें
अनुभव कुछ भी
नहीं है।...
परचै नहिं पीव
सों। उस
प्यारे से
परिचय नहीं
हुआ है अभी।
किताब
में खोजोगे, परिचय
होगा भी कैसे? शब्द को
पकड़ोगे, परिचय
होगा भी कैसे? उधार है
तुम्हारा
ज्ञान। सब
कूड़ा — करकट है।
स्वानुभव से
कुछ हो तो ही
सत्य है, अन्यथा
सब असत्य है।
अंतर
की बदफैल, होइ
का जीव सों।
और फिर तुम
जितना भी कर
रहे हो वह सब व्यर्थ
चला जाएगा, क्योंकि
भीतर
बुनियादी
भांति अभी
मौजूद है।
अंतर की बदफैल
अभी भीतर
अहंकार मौजूद
है। अभी जड़ तो
मौजूद है, पते
काटते रहो, नए पते
निकलते
आएंगें।
इसलिए
ज्ञानियों ने
कहा है : और
कुछ करने के
पहले एक
बुनियादी बात
कर लेना ——
अहंकार की जड़
काट देना। यही
सतगुरु के शब्द जानने
का अर्थ है।
जड़ काट देना, पते
मत काटते रहना।
मेरे
पास लोग आते
हैं। शायद ही
कभी कोई आकर
यह कहता हो : मैं
अहंकार से
कैसे छुटकारा
पाऊं?
लोग आते हैं, वे कहते हैं : क्रोध बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : लोभ बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : मोह बहुत सताता है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? ये सब पते हैं। इनको तुम काटते रहो, नए पते निकलेंगे। सच तो यह है, एक पता काटो, तीन पते निकलते हैं। इसलिए तो कलम करते हैं। वृक्ष को घना करना हो तो कलम करते हैं। जड़ की कोई बात ही नहीं पूछता। और यह भी हो सकता है कि पते भी तुम इसीलिए काटना चाहते हो, ताकि जड़ और मजबूत हो जाए। क्योंकि क्रोध से अहंकार को चोट लगती है, लोग कहते हैं : अरे, क्रोधी! तो गौरव — गरिमा क्षीण होती है। तुम चाहते हो कि लोग कहें अक्रोधी, यह रहा साधु, संत, महात्मा!
लोग आते हैं, वे कहते हैं : क्रोध बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : लोभ बहुत है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? कोई कहता है : मोह बहुत सताता है, इससे कैसे छुटकारा पाऊं? ये सब पते हैं। इनको तुम काटते रहो, नए पते निकलेंगे। सच तो यह है, एक पता काटो, तीन पते निकलते हैं। इसलिए तो कलम करते हैं। वृक्ष को घना करना हो तो कलम करते हैं। जड़ की कोई बात ही नहीं पूछता। और यह भी हो सकता है कि पते भी तुम इसीलिए काटना चाहते हो, ताकि जड़ और मजबूत हो जाए। क्योंकि क्रोध से अहंकार को चोट लगती है, लोग कहते हैं : अरे, क्रोधी! तो गौरव — गरिमा क्षीण होती है। तुम चाहते हो कि लोग कहें अक्रोधी, यह रहा साधु, संत, महात्मा!
तुम
तैयार हो ——
क्रोध भी
छोड़ने को —— अगर
लोग तुम्हें
महात्मा कहें।
तुम तैयार हो ——
लोभ भी छोड़ने
को —— अगर लोग
तुम्हें
महात्मा कहें।
तुम तैयार हो ——
मोह भी छोड़ने
को —— अगर लोग
तुम्हें
महात्मा कहें।
लेकिन यह बड़े
मजे की बात हो
गयी। तुमने
पते तो काटे
और सब पत्तों
की खाद बनाकर जड़
में दे दी। जड़
और मजबूत हो
गयी। मजबूत जड़
नए पते पहुंचा
देगी, नए पते
बन जाएंगे। जो
वृक्ष अभी फूल
भी नहीं रहा
था, शायद
फूलने भी लगे।
और जो वृक्ष
अभी फलवान न
हुआ था, शायद
फलवान हो जाए।
अंतर
की बदफैल, होइ
का जीव सों।
फिर
तुम कुछ भी
करते रहो, कुछ
भी नहीं होगा।
भीतर का मूल
सूत्र बदलो।
कहै
कबीर पुकारि, सुनो
धेरम आगरा।
धरमदास
कहते हैं :
कबीर ने मुझे
पुकारा। गुरु
का अर्थ है :
पुकार।
कहै
कबीर पुकारि, सुनो
धरम आगरा।
कहा
धरमदास को कि
तेरे भीतर खान
है सारे धनों की।
आगरा... आगार! तू
घर है परमात्मा
का। तू निवास
है उसका। तू
मंदिर है उसका।
कहां खोजने
जाता है? किस
धन में?
किस पद में? किस पागलपन
में पड़ा है? आंख बंद कर
और देख! आंख
बंद करके देख!
संसार
आंख खोलकर
देखा जाता है, परमात्मा
आंख बंद करके
देखा जाता है।
संसार दूर—दूर
है, उसके
लिए यात्रा
करनी पड़ती है; परमात्मा
पास—पास है, उसके लिए सब
यात्रा छोड़
देनी पड़ती है।
कहै
कबीर पुकारि, सुनो
धेरम आगरा।
बहुत
हंस लै साथ, उतरो
भवसागरा।।
और
कहा धनी
धरमदास को कि
तूने तो पा
लिया, तुझे तो
दिखायी पड़ गया,
तूने मेरी
पुकार सुन ली।
पुकार
सुन लो तो
क्षण में हो
जाता है मिलन, क्योंकि
हमने वस्तुत :
परमात्मा को
कभी खोया नहीं।
जैसे मछली ने
सागर नहीं
खोया है, लेकिन
सागर की याद
नहीं है। सागर
में ही है और
सागर की
विस्मृति हो
गयी। जिस दिन
याद आ जाती है...
बस याद की बात
है।
स्मरण!...
उसी क्षण
क्रांति घट
जाती है।
पुकार
सुन ली धरमदास
ने तो क्रांति
घट गयी। तो एक
वचन में पहले कहते
कबीर पुकारि, सुनो
धरम आगरा। और
दूसरे वचन में
कहते हैं : बहुत
हंस लै
भवसागरा।।——और
जब मुझे भी
दिखायी पड़ गया
तो उन्होंने
कहा : अब तू
बैठा अब तू इस
संपदा को अपने
भीतर ही संभाल
कर मत रख
लेना। बहुत
हंस लै औरों को
जगा! जो—जो सोए
हैं, उनको
पुकार! जैसे
मैंने तुझे
पुकारा, तू
औरों को पुकार
फैलने दे।
ज्योति से
ज्योति जले!
फैलने दे यह
ज्योति। और
बहुत हंसों को
भवसागर से उतर
जा। जो मिला
है उसे बांट।
खुदा
अगर दिले—फितरत
सनात दे तुझको
सकूते
लाला—ओ—गुल से
कलाम पैदा कर
अगर
परमात्मा
संपदा दे तो
फिर सब कुछ उस
संपदा को
लुटाने में
लगा देना।
सकूते
लाला—ओ—गुल से
कलाम पैदा कर
तेरी
नजर से चमनजार
सरमदी बन जाए
कली—कली
की जबां से
पयाम पैदा कर
फिर
एक—एक जीवन की
कली से उसका
ही संदेश। आंख
से,
हाथ से, पैर
से, उठने—बैठने
से, बोलने
से, चुप
होने से——उसका
ही संदेश!
ऐ
जवानाने—वतन
रूह जवा है तो
उठो
आंख
इश महशरे—नौ
की निगरा है
तो उठो
खौफे—बेहुरमती—ओ—फिक्रे
जिया है तो
उठो
पासे—नामूसे—निगाराने—जहा
है तो उठो
उट्ठो
नक्कारए—अफलाक
बजा दो उठ कर
एक
सोए हुए आलम
को जगा दो उठ
कर
दूर
इंसान के सर
से यह मुसीबत
कर दो
आग
दोजख की बुझा
दो उसे जन्नत
कर दो
जिन
में भी थोड़ी
सामर्थ्य है, वे
पहले अपने
भीतर जाएं, जगें! और जब
जग जाएं तो जगाए।
बुद्ध
ने कहा है : जो
जागे और जगाए
न, उसका
जागरण अधूरा
है। क्योंकि
जिसे ध्यान उपलब्ध
हो, उसे
करुणा उपलब्ध
न हो——उसका
ध्यान अधूरा
है। ध्यान का
दीया जलता है
तो करुणा का
प्रकाश फैलता
है।
सूतल
रहलौं मैं
सखियां, तो
विष कर आगर हो।
अगर
मैं सोता ही
रहता तो विष
का घर था।
जागा तो अमृत
हो गया। बस
इतना ही फर्क
है। जागते——
अमृत, सोते——
विष। विष ही
अमृत हो जाता
है। इतना ही
कीमिया है।
इतना ही रसायनशास्त्र
है। इतना— सा
सूत्र है जादू
का।
सूतल
रहलौं मैं
सखियां तो विष
कर आगर हो।
सतगुरु
दिहलै जगाइ, पायौं
सुखसागर हो।।
सदगुरू
ने जगा दिया, पुकारा,
और मैंने
पुकार सुन ली,
और चमत्कार
हो गया। जहां
जहर था वहां
अमृत हो गया।
जहां मृत्यु
थी वहां
परमजीवन हो
गया। जहां
अंधेरा था
वहां प्रकाश
ही प्रकाश हो
गया। पदार्थ
बचा ही नहीं, परमात्मा ही
परमात्मा हो
गया।
जब
रहली जननी के
ओदर,
परन
सम्हारल हो।
बड़ा
प्यारा वचन
है! खूब गौर से
समझना। जागकर
सुनना।
जब
रहली जननी के
ओदर,
परन
सम्हारल हो।
धरमदास
कहते हैं :
गुरु से
संबंधित होना, फिर
से गर्भ में
प्रवेश करना
है; जैसे
फिर से मां का
गर्भ मिला, क्योंकि
गुरु दूसरा
जन्म देगा। एक
जन्म तो मां
से मिला है, जो देह का
जन्म है। मां
से तो सभी
व्यक्ति शुद्र
की तरह पैदा
होते हैं।
दुनिया में
कोई ब्राह्मण
की तरह न कभी
पैदा हुआहै, न होता है; सब शुद्र की
तरह पैदा होते
हैं।
दुनिया
में दो ही
जातियां हैं—— शुद्र
और ब्राह्मण।
पैदा सभी शुद्र
की तरह होते
हैं और सभी की
संभावना है कि
ब्राह्मण
होकर मरें।
लेकिन बहुत कम
सौभाग्यशाली
ब्राह्मण
होकर मरते हैं।
अमृत
वाके पास, रुचै
नहिं रांड को।
स्वान
को यही स्वभाव, गहै
निज हाड़ को।।
बिल्कुल
पास होती है
संपदा हमारी।
हम सब
ब्राह्मण
होकर मर सकते
हैं।
ब्राह्मण
यानि ब्रह्म
को जानकर। शुद्र
यानि अपने को
देह ही मानकर
जो जीता है, वही
श(द्र।
जिनको तुम शुद्र
समझते हो वे शुद्र
नहीं हैं। और
जिनको तुम
ब्राह्मण
समझते हो वे
ब्राह्मण नहीं
हैं।
ब्राह्मण तो
कोई बुद्ध, कोई कबीर, कोई मुहम्मद,
कोई
जरथुस्त्र। शुद्र
तो सारी
दुनिया है।
शुद्र
यानी सोया
हुआ।
ब्राह्मण
यानि जागा हुआ।
एक
जन्म तो मां
से मिलता है; उससे
तो सभी शुद्र पैदा
होते हैं। और
एक जन्म गुरु
से मिलता है; उस जन्म के
बाद ही कोई
ब्राह्मण
होता है। जो गुरु
के गर्भ से
गुजरता है वही
ब्राह्मण हो
पाता है।
जब
रहली जननी के
ओदर,
परन
सम्हारल हो।
धनी
धरमदास कहते
हैं :
जब गुरु से
संग जुड़ा तो
तुम फिर गर्भ
में प्रविष्ट
हुए, फिर
नया गर्भ
मिला। नए जीवन
का द्वार
खुला। अब तुम
जान सकोगे
अपने सच
स्वरूप को, अपनी सच्चाई
को। अब
पुनरुज्जीवन
होगा। बहुत
संभाल कर
रहना।
क्योंकि मां
के पेट में तो
बच्चा सोया
रहता है, क्योंकि
जन्म शुद्र का
होनेवाला है।
बच्चे को
जागने की
जरूरत नहीं
है। बच्चा
चौबीस घंटे
सोता है मां
के पेट में।
जन्म के बाद
फिर तेईस घंटे
सोता है, फिर
बाईस घंटे, फिर अठारह
घंटे, फिर
आठ घंटे पर
ठहर जाता है।
आठ घंटे आंख
बंद करके सोता
है और बाकी
सोलह घंटे आंख
खोलकर सोता
है। मगर नींद
जारी रहती है।
गुरु
के गर्भ में
प्रवेश का
अर्थ होता है——ध्यान
में प्रवेश।
अब जागकर
जीना।.. .परन सम्हारल
हो! अपने प्रण
को संभालना।
जब
लौं तन में
प्रान, न
तेहि बिसराइब
हो।
और
जब तक प्राण
रहें, तब तक
भूले न गुरु।
भूले न गुरु
का संदेश।
भूले न उसकी
पुकार। सुधि
जगती रहे।
गुरु
जन्म है और
मृत्यु भी।
दूसरी बात भी
खयाल में ले
लेना। मां से
जो जन्म मिला
था—— देह का——उसकी
तो मृत्यु हो
जाएगी गुरु के
साथ। और गुरु
से नया जन्म
मिलेगा। नया
जन्म तभी मिल
सकता है जब
पुराने की
मृत्यु हो जाए।
जब तुम जान लो
कि मैं देह
नहीं हूं, तभी
तुम जान सकोगे
कि मैं कौन
हूं। पदार्थ
नहीं हो तो
जान सकोगे कि
मैं परमात्मा
हूं। तत्वमसि
श्वेतकेतु!
श्वेतकेतु, वह तू है! तू
वह है! लेकिन
उसे जानने के
पहले इस देह
के तादात्म्य
से छूटना होगा।
यही मृत्यु है।
जहां
उजड़ा वहीं
तामीर होगा आशियां
अपना
तड़पती
बिजलियों पर
हंस रहा है
गुलसिता अपना
एक
तरफ तो उजड़
जाएगा आशियां।
एक तरफ तो सब
जल जाएगा। उसी
राख से उठेगा
नया जीवन।
तो
गुरु कठोर भी
होगा। गुरु
चोट भी करेगा, तो
ही तो जगा
सकता है।
इसलिए जो गुरु
सिर्फ
सांत्वना
देता हो, बचना,
सावधान
रहना! वहां से
तुम्हारे
जीवन में कोई
क्रांति
घटनेवाली
नहीं है। जो
गुरु तुम्हें
सांत्वना
देता हो, वह
तुम्हें लोरी
का गीत सुना रहा
है। उससे
तुम्हारी
नींद और गहरी
हो जाएगी। जो
गुरु तुम्हें
जगाना चाहता
है, कठोर
होगा, झकझोरेगा।
सुबह
देखते हो न, तीन
बजे रात उठना
है, अलार्म
बजता है, कैसा
क्रोध आता है!
अपनी ही घड़ी
को पटक देते
हैं लोग
उठाकर! खुद ही
अलार्म भर कर
रात सोए थे, अलार्म
दुश्मन जैसा
मालूम पड़ता
है। तुम्हीं
जाकर गुरु से
प्रार्थना
करते हो मुझे
जगाओ! लेकिन
जब वह जगाएगा
तो जन्मों—जन्मों
की नींद
टूटेगी, बड़ी
पीड़ा होगी, बड़े कष्ट
होंगे। अगर
अपने प्रण की
याद रखी तो ही
जग पाओगे, अन्यथा
भाग जाओगे।
करोड़ों में एक—आध
गुरु के पास
पहुंचता है।
फिर जो
पहुंचते हैं
गुरु के पास, सब टिक नहीं
पाते; उनमें
से बहुसंख्यक
भाग जाते हैं।
पुरानी
तिब्बत में
कहावत है : हजार
बुलाए जाते
हैं तो दस
पहुंचते हैं;
जो दस
पहुंचते हैं,
उनमें से नौ
भाग जाते हैं,
एक ही बचता
है। मगर जो बच
जाए, वह
धन्यभागी है।
वही ब्राह्मण
हो पाता है।
एक
बुंद से साहेब
मदिल बनावल
हो।
बिना
नेव के मदिल
बहु कल लागल
हो।।
इसके
दो अर्थ हैं।
एक तो अर्थ है, बूंद
का अर्थ होता
है : वीर्य —
बिंदु।
परमात्मा ने
चमत्कार किया
है, एक
छोटे — से
वीर्य — बिंदु
से... सच तो यह है
पूरे बिंदु से
भी नहीं, क्योंकि
एक वीर्य के
बिंदु में
करोड़ों जीवाणु
होते हैं, करोड़ों
कोष्ठ होते
हैं, सैल
होते हैं। एक
सैल से ही
जीवन निर्मित
होता है, पूरे
बिंदु से नहीं।
एक बार के सं
भोग में करीब
एक करोड़ सैल
होते हैं। एक
करोड़ व्यक्ति
पैदा हो सकते
थे, उनमें
से एक, वह
भी हमे श नहीं,
कभी — कभार
पैदा होता है।
जो कोष्ठ जीवन
बनता है, वह
आंख से, नंगी
आंख से तो
देखा ही नहीं
जा सकता;
उसके लिए
खुर्दबीन
चाहिए।
बड़ा
चमत्कार किया
है! एक अदृशय ——
छोटे से कण से
सारा जीवन
निर्मित हुआ
है। देह, मन, तन सब उससे
फैले हैं। यह
तो एक अर्थ है।
एक बूंद से
साहेब मदिल
बनावल हो। यह
जीवन का मंदिर
बनाया है। एक
छोटी — सी ईंट
है, उस पर
सारा मंदिर
खड़ा है।
बिना
नेव के मदिल, बहु
कल लागल हो।।
बड़ा
चमत्कार
मालूम होता है, बड़ा
विस्मय मालूम
होता है।
लेकिन यह कुछ भी
नहीं है उस
दूसरे
चमत्कार के
मुकाबले। क्योंकि
गुरु ध्यान की
एक ही छोटी
बूंद से, फिर
एक मंदिर
बनाता है। वही
मंदिर
परमात्मा का
आवास बनता है।
एक छोटी—सी
बूंद.. .अदृश्य
बूंद ध्यान की,
गुरु से
शिष्य में गिर
जाती है। जो
झुका है, उसमें
गिर जाती है।
बस उसी बूंद के
आसपास मंदिर
बनना शुरू हो
जाता है।
इसलिए
श्रद्धा को
इतना
प्रशंसित
किया गया है, इतना
गुण गाया गया
है श्रद्धा
का। क्योंकि
श्रद्धा के ही
किसी क्षण में
बूंद सरक सकती
है गुरु से
शिष्य में।
अगर शिष्य जरा
भी संघर्षशील
है, विवादी
है, जरा भी
संदेह से भरा
है, संभ्रम
में है, तो
अपनी सुरक्षा
करेगा, बूंद
प्रवेश नहीं
कर पाएगी।
जैसे
स्त्री—पुरुष
के बीच संभोग
घटता है, उस
संभोग में
पुरुष से जीवन—ऊर्जा
स्त्री में
प्रवेश करती
है——ठीक वैसा
ही संभोग गुरु
और शिष्य के
बीच बड़े आत्मिक
तल पर घटता
है। श्रद्धा
हो परिपूर्ण,
शिष्य बिल्कुल
झुका हो, जरा
भी संदेह न हो,
भरोसा पूरा
हो, तो ही
वह परम संभोग
घट सकता है।
उसके घटते ही
मंदिर बनना शुरू
हो जाता है।
कब बूंद सरकती
है, इसका
तो पता भी
नहीं चलता, क्योंकि
अदृश्य है। जब
मंदिर बन जाता
है तभी पता
चलता है। तभी
लौट कर शिष्य
देखता है कि
जरूर कभी बूंद
प्रवेश कर गयी
होगी। कब पहली
ईंट रखी गयी, पता नहीं——और
बिना नींव के
मंदिर बन जाता
है! एक
चमत्कार है।
एक
बूंद से साहेब
मदिल बनावल हो।
बिना
नेव के मदिल
बहु कल लागल
हो।।
बड़ा
विस्मय होता
है।
इहवा
गाव न ठांव......।
और
एक ऐसे लोक
में प्रवेश हो
जाता है, जहां
न कोई गांव है,
न कोई ठांव,
न कोई सीमा
है, न कोई
पता—ठिकाना
है।... नहीं पुर
पाटन हो।
नाहिन
बाट बटोही
नहीं हित आपन
हो।।
न
कोई संगी—साथी
है,
न कोई अपना—पराया
है। एक ऐसे
लोक में
प्रवेश होता
है, जहां
मैं तू
के
पार हो गए; जहां
समय और
क्षेत्र के हो
जाते हैं।
इहवां
गांव न ठांव, नहीं
पुर पाटन हो।
नाहिन
बाट बटोही, नहीं
हित आपन हो।।
सेमल
है संसार भुवा
उधराइल हो।
सेमर
का वृक्ष देखा
न! सेमर का फूल
है बिखर जाता
है। हम बना भी
नहीं पाते पार
हो गए; जहां
टाइम और स्पेस
दोनों ही विदा
संसार। उड़
जाती है कभी
भी रुई। ऐसा
ही संसार और
बिखर जाता है।
हम बनाते ही
रहते हैं और
बिखर जाता है।
सभी अपनी
यात्रा के
मध्य में ही
गिर पड़ते हैं
और समाप्त हो
जाते हैं। और
बना भी हम
क्या रहे हैं;
बादलों को
मुट्ठियों
में बांध रहे
हैं, कि ओस—कणों
को इकट्ठा कर
रहे हैं।
सेमल
है संसार, भुवा
उघराइल हो।
सुंदर
भक्ति अनूप, चले
पछिताइल हो।
और
जिसने इसमें
ही अपने को
उलझाया, वह
पछताएगा
बहुत। बहुत—बहुत
पछताएगा।
क्योंकि यह
अवसर अपूर्व
था। इस अवसर
में सुंदर
भक्ति अनूप...
प्रेम का दीया
जल सकता था, परमात्मा—प्रेम
की ज्योति बन
सकती थी। मगर
हम अंधेरे को
ही इकट्ठा
करते रहे। हम
अंधेरे की ही
गठरियां बांधते
रहे। हम
अंधेरे को
तिजोडियों
में संभालते
रहे।
सुंदर
भक्ति अनूप, चले
पछिताइल हो।।
नदी
बहै अगम अपार, पार
कस पाइब हो।
यह
जो अपार सागर
है——अंधेरे का, मृत्यु
क;—इसे पार
कैसे करोगे? यह कैसे पार
होगा? प्रेम
की नाव बनाओ।
और सब नावें
डूब जाएंगी। धन
की नाव डूब
जाती है। पद
की नाव डूब
जाती है। बस
एक नाव नहीं
डूबी कभी——प्रेम
की नाव।
सतगुरु
बैठे मुख मोरि
काहि गोहराइब
हो।।
प्रेम
के माध्यम से
यह घटना घट
गयी कि अब
सतगुरु मेरे
भीतर बैठ गए
हैं। धनी
धरमदास कहते
हैं :
सतगुरु
बैठे मुख मोरि,
काहि
गोहराइब हो।
अब तो पुकारने
की भी जरूरत नहीं
रही। अब तो
प्रार्थना की
भी जरूरत नहीं
रही। अब कैसा
भजन, अब
कैसा कीर्तन!
अब तो स्वास—स्वास
उसी में पगी
है, उसी
में रमी है।
रक्त में वही
बह रहा है।
हृदय में वही
धड़क रहा है।
सतगुरु
बैठे मुख मोरि, काहि
गोहराइब हो।
ऐसी घड़ी जरूर
आती है अगर
शिष्य झुक
जाए। और उस
छोटी—सी बूंद
को——अदृश्य
बूंद——को अपने
भीतर ले—ले।
जैसे सीप बूंद
को अपने भीतर ले
लेती है और
बूंद फिर मोती
बन जाती है——ऐसे
गुरु की
अदृश्य बूंद
को शिष्य जब
भीतर अपने ले—ले
तो मोती बनता
है——मोती, जिससे
बहुमूल्य और
कोई मोती नहीं
होता। ऐसी संपदा
मिलती है जो
अकूत है। ऐसा
साम्राज्य
मिलता है, जो
शाश्वत है।
फिर कैसी
प्रार्थना!
फिर कैसी पूजा!
फिर सत्संग
पर्याप्त है।
और सत्संग
भीतर होने लगा
तो बाहर की भी
जरूरत नहीं रह
जाती। जहां शिष्य
मगन होकर बैठ
जाता है वहीं
गुरु से जुड जाता
है।
सतगुरु
बैठे मुख मोरि, काहि
गोहराइब हो।।
सतनाम
गुन गाइब, सत
ना डोलाइब हो।
अब
गाऊं कि न
गाऊं, पुकारूं
कि न पुकारूं,
मगर मेरे
भीतर जो सत्य
जम कर बैठ गया
है वह डुलता
नहीं, हिलता
नहीं।
निस्पंद!
निस्तरंग।
सतगुरु बैठे
मुख मोरि, काहि
गोहराइब हो।।
अब मैं क्यों
पुकारूं? लेकिन
कभी—कभी मौज
में, कभी—कभी
आनंद में
पुकारूं भी, तो भी कुछ
हर्ज नहीं।
भजन करूं या न
करूं?
सतनाम
गुन गाइब..।
कभी—कभी गुण
भी गाता हूं।
वह भी बहने
लगता है, जैसे
बाढ़ आ जाती
है। रोके नहीं
रुकता।
सतनाम
गुन गाइब सत न
डोलाइब हो। अब
चाहे चुप रहूं
चाहे बोलूं, उठूं
कि बैठूं, कि
सोऊ कि जागूं..
सत न डोलाइब
हो... वह जो भीतर
ठहर गया है सत,
अब डोलता
नहीं। उसके
ठहरते ही सारा
जगत् ठहर जाता
है। समय ठहर
जाता है। उसके
ठहरते ही सारे
उपद्रव ठहर
जाते हैं। उसी
ठहराव का नाम
मोक्ष है।
कृष्ण ने उसी
को स्थिर—धी:
कहा है, स्थितिप्रज्ञ
कहा है।
कहै
कबीर धरमदास, अमर
घर पाइव हो।।
देखा
जब गुरु ने कि
सत्य ठहर गया
है शिष्य में, तो
गुरु ने कहा।
गुरु कहेगा।
शिष्य को
घोषणा नहीं
करनी पड़ती।
शिष्य को कहने
नहीं जाना
पड़ता। गुरु ही
कह देता है एक
दिन कि बस बात
हो गयी... अमर घर
पाइब हो... कि
तूने पा लिया
अमर घर! तू
अपने घर लौट
आया। अब कहीं
जाने को नहीं
है।
फिर जो
मिला है, उसे बांटो।
कहै
कबीर पुकारि,
सुनो धेरम
आगरा।
बहुत
हंस लै साथ, उतरो
भव सागरा।।
बहके
सब जिय की कहत, ठौर
कुठौर लखै न।
छिन
औरे छिन और से, ए
छवि छाके नैन।।
और
जब उस
परमात्मा की
छवि से नैन छक
जाते हैं... ए छवि
छाके नैन... जब
उस परमात्मा
की छवि से आंखें
भर जाती हैं...
बहके सब जिय
की कहत... फिर तो
एक बहक आ जाती
है। जो भी
सुनने को राजी
हो,
जो भी जरा
अवसर दे, उसी
से कहने का मन
होता है।
सुसमाचार।
बहके सब जिय
की कहत...। एक
मतवालापन
होता है, एक
मस्ती होती
है। उनको भी
कह दें, जो
भटकते हैं।
उनको भी कह
दें जो अभी
खोजते हैं, जिनके जीवन
में अभी कोई
आनंद नहीं
आया। बहके सब
जिय की कहत....।
लेकिन वह एक
तरह की बहक
है। भक्त जो
कहता है : वह
कोई पांडित्य
नहीं है, वह
कोई
सुविचारित, रेखाबद्ध, तर्कयुक्त
वक्तव्य नहीं
है——बहक है।
मस्ती है।
बेखुदी है।
बहके
सब जिय की कहत
ठौर कुठौर लखै
न।
फिर
वह यह भी
फिक्र नहीं
करता कि कौन
पात्र है कौन
अपात्र है।
ठौर कुठौर लखै
न! वह यह भी
फिक्र नहीं
करता——किससे
कहना है, किससे
नहीं कहना।
फुर्सत कहां
है? भेद की
सुविधा कहां
है। पात्र—अपात्र
को देखनेवाला
अहंकार कहां? जो कहता है
ये पात्र ये
अपात्र, उसके
भीतर अभी
अहंकार शेष है।
मेरे
पास लोग आकर
कहते हैं कि
आप किसी को भी
संन्यास दे
देते हैं!
पात्र हो कि
अपात्र, इसकी
फिक्र ही नहीं
करते!
बहके
सब जिय की कहत
ठौर कुठौर लखै
न।
अब
कौन ठीक, कौन
गलत! सभी ठीक
है अब। छिन
औरे छिन और...।
एक क्षण इससे
कह रहा है
भक्त, दूसरे
क्षण उससे कह
रहा है।
छिन
औरे छिन और से, ए
छवि छाके नैन।।
ये
आंखें जो उसकी
छवि से भर गयी
हैं,
अब सब जगह
लुटाने लगती
हैं। यह हृदय
जो उसकी सुगंध
से भर जाता है,
उसकी सुवास
को लुटाने
लगता है। यह
भीतर का दीया
जो उसके
प्रकाश से
जगमगा उठता है,
यह रोशनी को
बांटने लगता
है।
कहै
कबीर पुकारि, सुनो
धरम आगरा।।
बहुत
हंस लै साथ, उतरो
भवसागरा।।
यही
मैं तुमसे भी
कहता हूं।
तुम्हें रस आए
तो बांटना।
तुम्हें
ज्योति मिले
तो कृपणता मत
करना।
तुम्हें कुछ
दिखायी पड़े तो
औरों को भी
खबर पहुंचा
देना। इसकी भी
फिक्र मत करना
कि वे मानेंगे
भी कि नहीं
मानेंगे।
इसकी भी फिक्र
मत करना कि वे
पात्र हैं या
अपात्र। तुम
तो अपनी मस्ती
से देना।
तुम्हें देने
से और मिलेगा।
तुम्हें देने
से हजार गुना
मिलेगा। तुम
तो बाढ बन
जाना एक मस्ती
की।
बहके
सब जिय की कहत, ठौर
कुठौर लखै न।
छिन
औरे छिन और से, ए
छवि छाके नैन।।
आज इतना
ही।
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